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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागलो अन्वयार्थ-(भूयाभिसंकाए) भूताभिशङ्कया-प्राणातिपातभयेन (दुगुछमाणा) जुगुप्समानाः-घृणां कुर्वः (सव्वेसि पाणाण दंडं निहाय) सर्वेषां प्राणानां जीवानां दण्डम्-वधं निहाय-परित्यज्य (तम्ह)) तस्मात् कारणात् (तहप्पगारं) तथापकारं तादृशमाहारम् (ण मुंजंति) न भुमते (इह) इह-अत्र जनशासने (संज. याणं) संयतानां साधूनाम् (एसोऽणुधम्मो) एषोऽनुधर्मः तीर्थकरपरम्परया प्राप्तः श्रुतचारिवलक्षण इति ॥४१॥ 'भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणा' इत्यादि। शब्बदार्थे–'भूयाभिसंकाए-भूताभिशया' प्राणियों की हिंसा के भय से 'दुगुंछमाणा-जुगुप्समाना' सावधक्रिया से घृणा करने वाले उत्तम पुरुष 'सम्वेसि पाणाण दंडं निहाय-सर्वेषां प्राणानां दण्डं निहाय' समस्त जीवों को दंड देने का स्याग करके 'तम्हा तहपगारं-तस्मात् तथाप्रकारं' क्षित आहार ‘ण भुंजंति-न भुञ्जते' ग्रहण नहीं करते है । 'इह-दह' इस जैन शासन में 'संजयाणं-संयतानां' साधुओं का 'एसो-एषः' इस प्रकार का 'अणुधम्मो-अनुधर्म:' परम्परा से प्राप्त श्रुतचारित्ररूप धर्म हैं ॥४१॥ अन्वयार्थ-प्राणियों की हिंसा के भय से सावध क्रिया से घृणा करने वाले उत्सम पुरुष समस्त जीवों को दंड (मारनेका) देने का त्याग करके दूषित आहार ग्रहण नहीं करते हैं । जैनशासन में साधुओं का यह परम्परागत-तीर्थकरों की परम्परा से प्राप्त श्रुतचारित्ररूप धर्म है ।।४।। 'भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणा' या शहाय-भूयाभिसंकाए-भूताभिशङ्कया' प्राणियोनी हिंसाना नयथा 'दुगु: छमाणा-जुगुप्समानाः' सावध हियाथी ! ४२१ावा उत्तम ५३५ 'सव्वेसिं पाणाण दडं निहाय-सवेषां प्राणानां दंड निहाय' मा वान (भा२पाना) हवान वियाना त्या परीने 'तम्हा तहप्पगार-तस्मात् तथाप्रकार' तेवा ५४२ इषित मा'भुजंति-न भुजते' अड५ ४२ता नथी. 'इह-इह' मान शासनमा 'संजयाण-संयताना' साधुमान। 'एसो-एषः' सारना 'अणुधम्मो-अणुधर्मः' ५२२५२।थी प्राप्त श्रुत यात्रि३५ धमछ. ॥४१॥ અન્વયાર્થ–પ્રાણિની હિંસાના ભયથી સાવધ ક્રિયાની ઘણું કરવાવાળા ઉત્તમ પુરૂષે સઘળા અને દંડિત કરવાને (મારવાને) ત્યાગ કરીને દૂષિત આહાર ગ્રહણ કરતા નથી. જૈન શાસનમાં સાધુઓને આ પરમ્પરાગતતીર્થકરાની પરંપરાથી પ્રાપ્ત કૃત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ છે. થાપા For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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