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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . . सूचकतारचे ज्ञानेन 'लोयं विजागति' लोक चतुर्दशरज्ज्वात्मक विजानन्ति । तथा-'समतं. धम्म कहति' समातं-सम्पूर्ण वास्तविक धर्म कथयन्ति, ते 'तिन्ना' संसारसागरात्तीर्णाः 'अप्पाणं परं च तारंति' आत्मानं परश्च तारयन्ति, नैतव्यतिरिक्ता अकेवलिन स्तथाकत्तुं शक्नुवन्तीति सारः ॥५०॥ मूलम्-जे गरहियं ठाणमिहावसंति, जे यावि लोए चरणोववेया। उदाहडं तंतु समं मईए, अहाउसो ! विप्परियासमेव ॥५१॥ छाया-ये गहित स्थ नमिहावसन्ति, ये चापि लोके चरणोपपेताः। उदाहते तत्तु समं स्वमत्या, अथायुष्मन् ! विपर्यासमे। ॥५१॥ का तात्पर्यार्थ इस प्रकार है जो पुरुष समाधि से युक्त हैं, केवलज्ञान के द्वारा चौदह राजूपरिमाण वाले लोक को जानते हैं, वे समस्त एवं सस्य धर्म का प्ररूपण कर सकते हैं, वे संसार सागर से तिरे हुए हैं। अपने को और दूसरों को भी तारते हैं। जो उनसे भिन्न हैं, केवल ज्ञानी नहीं हैं, बे स्व-परतारक धर्म का उपदेश नहीं कर सकते हैं ॥५०॥ _ 'जे गरहियं' इत्यादि। .. शब्दार्थ-'इह-इह' इस लोक में 'जे-ये' जो पुष 'गरहियं ठाणं वसंति-गहितं स्थानं वमन्ति' गहित स्थान में बसते हैं अर्थात् अवि. वेकी जनों के द्वारा आचरित स्थानका आश्रय करते हैं और 'जे यावि -ये चापि' जो पुरुष 'चरणोववेया-चरणोपपेताः' सदाचार में रत है ધર્મોપદેશ કરીને પોતાને તથા અન્યને સંસાથી તારે છે. બીજાઓ તેમ તારી શકતા નથી. કહેવાને ભાવ એ છે કે-જે પુરૂષ સમાધિથી યુક્ત છે, કેવળજ્ઞાન દ્વારા ચૌદ રાજ પ્રમાણવાળા લેકને જાણે છે. તેઓ સઘળ અને સત્ય ધર્મને ઉપદેશ આપી શકે છે. તેઓ પોતે સંસાર સાગરથી તરેલા છે. અને ધર્મના ઉપદેશદ્વાર બીજાઓને પણ સંસારથી તારે છે. આનાથી જેઓ ભિન્ન છે, કેવળજ્ઞાની નથી, તેઓ પિતાના તથા અન્યના તારક ધર્મને ઉપદેશ કરી શકતા નથી.ગા.૫૦ 'जे गरहियं' त्या सहाथ-इह-इह' मा 'जे-ये रे ५३५ 'गरहियं ठाणं वसंति गर्हितं स्थान वसन्ति' अति-महतस्थानमा पसे छे अर्थात विवी पु३॥ जा। पायरेस २थाननः आश्रय ४२ 2. भने 'जे या वि-ये चारि २ ५३५ 'चरणोववेया-चरणोपपेताः' सहायारमा त छ, ते मन्ननी 'मईए-मत्यारे For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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