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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समथार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ६०९ ___ अन्वयार्थः---आद्रेको गोशालकं प्रति कथयति-भोः ! (वणिया) वणिज:व्यापारकारः (भूयगाम) भूतग्राम-माणिसमुदायम् (समारभंते) समारभन्तेआरम्भसमारम्भं कुर्वन्ति, तथा-(परिग्गहं) परिग्रहम् (चेव) चैत्र (ममायमाणा) ममीकुर्वन्ति-अर्थात्-परिग्रहेऽपत्यदारधनादौ ममेत्यहंकारं ब्रनन्ति-ममत्वबुद्धि दधतीत्यर्थः, (ते) ते वणिजः (गाइसंजोगमषिप्पहाय) धातीनां परिवाराणां संयोगं यथायथ स्वस्वामिभावादिसम्बन्धम् अविपहाय-अत्यक्त्वा (आयस्स हेडे) आयस्य-मूलद्रव्यतो लब्धस्याः वृद्ध हेतौ (संग) सङ्गम्-अयोग्यैरपि सह सम्बन्धम् (पगरंति) प्रकुर्वन्ति, वणिजस्तु यथायथं व्यापारं कुर्वन्तः घातयन्ति जीवान् 'वणिया-वणिजः' व्यापारी लोग 'भूयगाम-भूतग्राम' प्राणी समूहका 'समारभंते-समारभन्ते' आरंभ समारंभ करते हैं तथा 'परिग्गहं चेव -परिग्रहं चैव' परिग्रह के ऊपर 'ममायमाणा-ममीकुर्वनित' ममता रखते हैं अर्थात् पुत्र, कलत्र, धन, आदि पर ममस्वभाव धारण करते हैं 'ते-ते' वे वणिक् जन 'पाइसंजोगमविप्पहाय-ज्ञातिसंयोगविग्रहाय' पारिवारिक जनों के संयोगको अर्थात् स्वस्वामी संबन्धको त्याग न करते हुए 'आघस्य हेउ-आयस्स हेतोः' लाभ के लिए 'संगं-सङ्गम्' संबंध न करने योग्य लोगों के साथ भी संबंध 'पगरंतिप्रकुर्वन्ति' करते हैं ॥२१॥ अन्वयार्थ-आईक पुनः गोशालक से कहते हैं-हे गोशालक ! व्यापारी लोग प्राणिसमूह का आरंभ समारंभ करते हैं तथा परिग्रह पर ममता रखते हैं अर्थात् पुत्र, कलत्र धन आदि पर ममत्व भाव धारण करते हैं। वे पारिवारिक जनों के संयोग को अर्थात् स्वस्वामी 'वणिया-वणिजः' वेपारीयो 'भूयगाम-भूतग्राम" प्राणी समूहना 'समारभतेसमारभन्ते' मा म अने सभाम रे छे. तथा 'परिग्गह चेव-परिग्रह चैव' परियन ५२ 'ममायमाणा-ममीकुर्वन्ति' ममता रामेछे. अर्थात पुत्र, सत्र धन, विगेरे ७५२ ममत्वमा थार रे छ. 'ते-ते' ते पारीयो णाइसंजोगम विष्पहाय-ज्ञातिसंयोगमविप्रहाय' परिवाना माणसाना सयसन अर्थात स्वस्वामी धनी त्या न ७२di 'आयस्स हे-आयत्य हेतोः' वाम भाट 'संगसङ्गम्' समय । १२वाने योग्य सोहीनी साथै ५५ सय पारंति-प्रक वन्ति ' ४२ छ. ॥२१॥ અન્વયાર્થ—-આદ્રક ફરીથી ગોશાલકને કહે છે. હે ગોશાલક વ્યાપારી લકે પ્રાણિ સમૂહને આરંભ સમારંભ કરે છે. તથા પરિગ્રહ પર મમતા ખે છે. અર્થાત પુત્ર કલત્ર ધન વિગેરેમાં મમત્વ બુદ્ધિ રાખે છે. તે પરિવાसू०७७ For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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