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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थयोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० ५. छाया--इमां वाचं तु तं प्रादुष्कुर्वन् प्रवादिनो गर्हसे सर्वानेव। प्रवादिनः पृथक् कीर्तयन्तः स्वको स्वका दृष्टिं कुर्वन्ति प्रादुः ॥११॥.. अन्वयार्थः- गोशालक:-आक्षिपन् कथयति-भोः आर्द्रकमुने ! वीजोदकादिः । सेवमाना न मुच्यन्ते अपितु बन्धनमाजः, इति विकत्थमानः सर्वानेव शास्त्रकतो: निन्दसि । (इमं वयं तु) इमां वाचं तु (पाउकुत्र) मादुष्कुर्वन्-बहिष्पाकाश्यं नयन (तुम) स्वम् (सब्ध एन) सर्वा नेत्र (पावाइणो) प्रादिनः-भावादुकान-शास्त्रकारान, 'इमं वयं तु तुम पाउकुव्वं' इत्यादि । शब्दार्थ-गौशालक आक्षेप करता हुआ कहता है-हे आईक मुनि ! सचित्त जल और बीज आदिका सेवन करनेवाले मुक्ति प्राप्त नहीं करते, किन्तु कर्मवन्ध के भागी होते हैं, 'इमं वयंतु-इमां वाचं तु' इस प्रकार कावचन 'पाउकुव्वं-प्रादुष्कुर्वन्' कहकर 'तुम-स्वम्' तुम 'सव्वएव-सर्वानेव' सभी 'पाचाहणी-प्रावादिनः' प्रवादुक अर्थात् विभिन्न शास्त्रों का वर्णन करनेवाले और ज्ञान के आकार जैसे की 'गरिहसि-गर्हसे' निन्दा करते हो, ये शास्त्रकार 'पुढो-पृथक' वे भिन्न भिन्न प्रकार का कियंता-कीर्तयन्नः कथन करते हुए 'सयं सयं-स्वकीयां स्वकीयां' अपनी अपनी 'दिड-दृष्टिम्' दृष्टि की 'पाउकरें ति-प्रादुष्कु चन्ति' प्रकट करते हैं । किन्तु तुमारे इस कथनसे उन सभी पर आक्षेप होता है। इस प्रकार तुमने उच्छंखल होकर अनुचित आक्षेप किया है।११॥ __ अन्वयार्थ-गोशालक आक्षेप करता हुआ कहता है-हे आद्रक मुनि ! बीज आदि का सेवन करने वाले मुक्ति प्राप्त नहीं करते, किन्तु 'इम वयं तु तुम पाउकुव' त्यात શબ્દાર્થ – શાલક આક્ષેપ કરતાં કહે છે કે હે આદ્રક મુનિ ! સચિન અને જલ બીજ વિગેરેનું સેવન કરવાવાળા મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી શક્તા નથી. ५२'तु मम धना ली थायछे. 'इम वयं'तु-इम वाचं तु' मा प्रमाणे पयन 'पाउकुव्व-प्रादुष्कुर्वन्' डीने 'तुम-त्वम्' तमे 'सव्व एव-सर्वानेव' या 'पावाइणो' मा प्रा अर्थात् ॥ Ter शाबानु प न ४२१।१।७, मन ज्ञानना मा१३५ छ, तमानी गरिहसि-गर्हसे' नि ४२। छ।. या शास। 'पुढो-पृथक् तेस। Ye कियंता-कीर्तयन्तः' ४थन ४२त! 231 'सय सयस्वकीयां स्वकीयां' पात पातानी दिद्धि-दृष्टिम्' ने 'पाउकरें ति-प्रादुष्क. वन्ति' प्रगट २ छ, ५२ तमा२६ मा ४थनथी ते मा ५२. मा५ सावे છે. આ રીતે તમે ઉછું ખેલ પણુથી અગ્ય આક્ષેપ કર્યો છે પગાા ૧૧ અન્વયાર્થી–ગોશાલક આક્ષેપ પૂર્વક કહે છે–હે આદ્રક મુનિ બી વિગેરેનું સેવન કરવાવાળા મુક્તિ મેળવી શક્તા નથી. પરંતુ કર્મબંધના ભાગી For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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