SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 667
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसत्रे - . छाया-स्नातकानां तु द्वे सहस्रे ये भोजयेयु नित्यं ब्राह्मणानाम् । ते पुण्यस्कन्धं सुमहज्जनित्वा भवन्ति देवा इति वेदनादः ।.४३॥ - अन्वयार्थः- (जे दुवे सहस्से) ये पुरुषाः वें सहस्र (सिणायगाणं) स्नातकानाम् वेदाऽध्ययनशौचावारस्नानब्रह्मचर्या दपरायणानाम् (माहणाणं) ब्राह्मणानाम् (णियए भोयए) नियं-प्रतिदिनं भोजयेयुः-भोजनं कारयेयुः (ते) ते (सुमहं) सुमहान्तम् (पुन्नबंध) पुण्यस्कन्धम्-पुण्यानां राशिम् (जणित्ता) जनित्वा समु. त्पाध (देवा भवंति) देवा भवन्ति (इति वेयवाओ) इति-वेदनादः, वेदे इत्यं इस प्रकार बौद्ध भिक्षु का निराकरण करके मुनि आर्द्रककुमार आगे चले तो मार्ग में वेदवादी ब्राह्मण मिल गए। वे बोले आपने बौद्धों के मत का निराकरण किया सो ठीक किया । हमारा मत सुनिए । यही कहते हैं-'सिणायगाण' इत्यादि। शब्दार्थ- ब्राह्मण कहते हैं-'जे सिणायगाणं-ये स्नातकानां' जो वेद के अध्ययन शौचाचार, स्नान, एवं ब्रह्म वर्य में परायण 'दुवे सहस्सेद्वे सहस्रे' दो हजार 'माहणाणं-ब्राह्मणानां ब्राह्मणों को 'णियए भोयएनित्यं भोजयेत्' प्रतिदिन भोजन कराता है 'ते-ते' वे 'सुमहं-सुमहत्' महान् 'पुन्नखधं-पुण्यस्कन्धं पुण्यस्कं । 'जणित्ता-जनित्वा' उपार्जन करके देव होते हैं 'इति वेयवानो-इतिवेदवादः' ऐसा वेद में कथन है ॥४३॥ अन्वयार्थ-ब्राह्मण कहते हैं-जो पुरुष प्रतिदिन वेद के अध्ययन, शौचाचार स्नान एवं ब्रह्मचर्य में परायण दो हजार ब्राह्मणों को भोजन આ પ્રમાણે બૌદ્ધ ભિક્ષુનું નિરાકરણ કરીને મુનિ આર્દક કુમાર આગળ ચાલ્યા તે માર્ગમાં તેમને વેદ ધર્મનું આચરણ કરનાર બ્રાહ્મણ મળ્યા તેમણે કહ્યું કે-આપે બૌદ્ધોના મતનું ખંડન કર્યું તે યોગ્ય જ કરેલ છે. અમારે भत inो मे ४ ठे-'सिणायगाणं' ४त्याह हाथ-ग्राम। छ है-'जे सिणायगाण-ये स्नातकानां वेहना मध्ययन, शीयाया२, स्नान, भने ब्रह्मय मा ५२।५५ 'दुवे सहस्से-द्वे सहस्रे' M२ 'माहणाण-ब्राह्मणानां ब्राह्मणाने 'णियए भोयर-नित्यं भोजयेत' ६३. शल सासन शवे छे. 'ते-ते' तेमा 'सुमह-सुमहत्' भन् 'पुण्णखंध-पुण्यस्कन्ध' ५९य१४५ 'जणित्ता-जनित्वा' प्रासरीने व थाय छ 'इति वेय. वाओ-इति वेवादः' मा प्रभावमा प्रयन रे छे. ॥४॥ અન્વયાર્થ–બ્રાહ્મણે કહે છે-જે પુરૂ દરેજ વેદાધ્યયન કરવામાં, શૌચાચારમાં, સ્નાન અને બ્રહ્મચર્યમાં તત્પર રહેવાવાળા બે હજાર બ્રાહાને For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy