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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः-(एवं) एबम्-भवन्मते (ग मिज्जति) न मीयन्ते-जीवानां मुखिस्व-दुःखित्व व्यवस्थाया अपि उपपादनं कर्तुं न शक्यते, जीवानां कूटस्थनित्यः त्वात् व्यापकत्वाच। (ण संसरंती) न संसरन्ति ते-तथा स्वकर्मप्रेरितजीवानां नाना'न मिजंति-न मीयन्ते' सुखी एवं दुःखी की जो व्यवस्था देखी जाती है, उसकी संगती नहीं हो सकती क्योंकी आपका माना हुआ आत्मा कूटस्थ नित्य, और व्यापक है। 'ण संसरंति-न संसरन्ति' अपने अपने कर्म प्रेरित जीवों का नाना गतियों में गमन और आगमन भी नहीं हो सकता क्यों को वे निष्क्रिय है 'न माहणा खत्तियवेसपेसा-न ब्रह्म गाः क्षत्रियवैश्यप्रेष्याः' ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्रका भी भेद नहीं हो सकता क्योंकि 'असंगोह्ययं पुरुषः' इस श्रुति से आत्मा एकान्त रूप से असंग कहा गया है 'कीटा य पक्खी यसरीसिवा यकीटाश्च पक्षिणश्च सरीसृपाश्च' कीट, पतंग, और सरीसृप (रेंगकर चलने वाला प्राणी) का भेद भी नहीं बन सकता क्यों की जीव एक और क्रियाहीन है 'नराय सम्वे तह देव लोगा-नराश्च सर्वे तथा देवलोकाः' मानव और देव आदि की व्यवस्था भी संगत नहीं हो सकती, क्योंकि जीव को एक क्रिया शुन्य व्यापक और निःसंग मानते हो, अतएव एकान्तवाद रमणीय नहीं है। आखिर में सभी को अनेकान्तवाद का ही शरण लेनी पड़ती है ॥४८॥ आवे तो 'न मिज्जंति-न मीयन्ते' सुभी भी बिगैरेनी २ ०२१२या हेभ. વામાં આવે છે. તેની સંગતી થતી નથી. કેમકે આપે માનેલ પુરૂષ (આત્મા) नित्य भने ०५1५४ छे. 'ण मंसरंति-न संसरन्ति' पातपाताना था પ્રેરિત નું અનેક ગતિમાં ગમન અને આગમન પણ થઈ શકતું नथी. भ. ते निय छे. 'न माहणा खत्तियवेसपेसा-न ब्राह्मणाः क्षत्रिय. वैश्यप्रेष्या:' माझए, क्षत्रिय, वैश्य भने शूना लेह ५७ नथी. उभ'असंगोह्यय-पुरुषः' मा श्रुति क्यनथी मात्मा मत ३५थी असामi मावत छ. कीटा य पक्खी य सरीसिवा य-कीटाश्च पक्षिणश्च सरीसृगध' डीट પતંગ અને સરીસ (કીને ચાલવાવાળા પ્રાણી) ને ભેદ પણ થતું નથી. કેમકે लमे मन या दिनाना छे. 'नरा य सव्वे तह देवलोगा-नराश्च सर्वे तथा देवलोकाः' भास अनेक विरेनी व्य११५९] सात यती नथी. भो જીવને એક ક્રિયા શૂન્ય વ્યાપક અને નિસંગમાને છે તેથીજ એકાન્તવાદ રમણીય નથી. આખરે બધાને અનેકાન્તવાદનું જ શરણ ગ્રહણ કરવું પડે છે. ૪૮ For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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