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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने गोशालकस्य संवादनि. ६२९ अन्वयार्थः--(इद) इह-अस्मिन् काले-भवदीयसिद्धान्तरूपमभिमतम् (संन. याणं अनोगरूवं) संयतानां साधूनामयोग्यरूपम् (गणाग) पाणानां च (पसज्झ काउं) पपा -बलान् कृत्वा मारणमिति शेषः (पाव) पापं-पापनन कमेव (दोण्ड वि) द्वयोरपि- एतादृशसिद्वानोपदेष्ट्रकृतकर्णगोचरयोरपि (अबोहिए) अबोध्य-अबोधिलाभाय भवति (जे य) ये च (वयंति) वदन्ति एतादृशं सिद्धान्त तथा-(पडि. मुगंति) प्रतिशृण्वन्ति, इति ॥३०॥ ___टीका--'सम्पति-आक: शाक्यभिक्षु मुत्तरयति-हे बौद्ध भिक्षो! 'दहसंनयाणं' इह-संयतानां पुरुषाणां कृते भवदभिमत-सिद्धान्तरूपम् अयोग्यरूपमिव सिद्धांत 'संजया अनोवं-संपनानाम् अयोग्यरूपम्' संयमी पुरुष के लिए अयोग्य है 'पाणग-प्राणाना' प्राणियों का 'पसन काउं-प्रसहय कृत्वा' ज पर्दस्ती हिंसा करना 'पावं-पापं पाप जनक ही है, आपका सिद्वांत 'जे प-ये च' जो कोई 'वयंति-वदलि' करते है तथा 'पडि. सुगंति-प्रतिशृपति' यह सिद्धांत सुनते है 'दोहावि-द्वयोरपि' कहने और सुनने दोनों के लिए ही 'अयोही-अयोध्यै' अबोधिजनक है ।३०। ____ अन्वयार्थ-आर्द्र क मुनि उत्तर देते हैं-आप का सिद्धान्त संयमी पुरुषों के लिए अयोग्य है, प्रागियों को जबर्दस्ती हिंसा करना पापजनक ही है, आप का सिद्धान्त करने और सुनने वाले दोनों के लिए ही अघोधिजनक है।३०॥ टीकार्थ-अब आर्द्रक शाक्य भिक्षु को उत्तर देते हैं-आपका ४ छ-'इह-इह' मा समय मापन सिद्वांत 'संज मगं अजोगरूव-संयतानाम् अयोग्यरूपम्' सयभी धुषाने मटे भयोय छे. 'पाणाण-प्राणानां प्राणियोनी 'पज काउ'-प्रसह्य कृया' (२यी डिसा ४२वी ते 'पाव-पापम्' पा५ 143 छ, पापना सिद्धांतमा 'जे य-ये च'रे 'वयंति-वदन्ति' सिद्धांतनु थन रे छ, तथा 'पडिसुणति-प्रतिशृण्वन्ति' सिद्धान्तनु श्र१५ शवे छे. 'दोह वि-द्वयोरपि' डेवावा भने सवा मन्ने भाटे 'अबोही-अबोध्यै' અબાધિ કારક જ છે. ૩. અન્વયાર્થ-આદ્રક મુનિ ઉત્તર આપતાં કહે છે–તમારે સિદ્ધાંત સંયમી પુરૂષો માટે અગ્ય છે. પ્રાણિની બલાહકારથી હિંસા કરવી પાપજનક જ છે. આપને સિદ્ધાંત કહેવાવાળા અને સાંભળવાવાળા બન્નેને માટે मानविन छे. ॥३०॥ ટીકાઈ–હવે આદ્રક મુનિ શાય ભિક્ષુને ઉત્તર આપતાં કહે છે કે For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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