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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र मानं कृत्वा-मदर्था इमे इत्येवं जानाति, 'तं अहा' तद्यथा-'खेतं मे वत्थू में क्षेत्र मे वास्तु मे 'हिरण में, सुवन्न मे, धणं धणं है, कंस मे, दस मे' हिरण्यं मे सुवर्ण मे धन मे धान्यं मे कांस्यं में दुष्यं मे वस्त्र विशेषो मे 'विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलपवालरत्तरयणसंतसारसावतेयं में विपुलधनकनकरत्नमणिमौक्तिकशङ्खशिलामवालरत्नसत्सारस्वापतेयं मे 'सद्दा मे रूबा में' शब्दा में रूपाणि मे 'गंधा मे रसा मे फासा मे' गन्धा मे-भम, रसा मे-मम, स्पर्शा मे-मम, 'पए खलु कामभोगा, अहमवि एएसि' एते खलु कामभोगा मम, अहमध्येतेषाम् , क्षेत्रादारभ्य स्पर्शान्ताश्च विषया मम कामभोगाय सन्तीति, मेधावी यदवधारयति तदाह-'से मेहावी' इत्यादि । 'से मेहावी पूवमे। अपणा एवं समभिजाणेज्जा' अथ मेधावी पूर्वमेवाऽऽत्मना एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण समभिजानीयात् , किं जानीयादित्याह-'तं जहा' तद्यथा 'इह खलु मम अन्नयरे' इह खलु ममाऽन्यवर 'दुक्खे रोयातके समुप्पज्जेज्जा' दुःख-पीडारोगः-स्वरादिः आतङ्कः-सयोधातियह क्षेत्र (खेत) मेरा है, यह मकान मेरा है, यह चांदी सोना मेरा है, यह धन धान्य मेरा है, यह कांसा मेरा है, यह पुष्प या वस्त्र मेरा है, ये प्रचुर धन, कनक, रत्न मणि, मोती, शंख, शिला, मूंगा, लालरत्न और उत्तम सार भून पदार्थ मेरे हैं, मनोहर शब्द करने वाले वीणा आदि वाद्य मेरे हैं, सुन्दर रूपवाली स्त्रियां मेरी हैं । इत्र-अत्तर तथा सुगंधयुक्त तैल आदि मेरे हैं, उत्तम रस एवं स्पर्श वाले पदार्थ मेरे हैं और मैं इनका स्वामी हूँ। तात्पर्य यह है कि अज्ञानीजन सांसारीक पदार्थों को अपना मानते हैं। किन्तु ज्ञानी पुरुष को पहले ही यह समझ लेना चाहिए जब मुझे कोई दुःखातंक अर्थात् ज्वर आदि रोग तथा शीघ्रघात करने वाला भेत२ भाइ छ. मा मान-२ भा३ छे. म! Ail, सोनु भा छ. मा ધન, ધાન્ય મારૂ છે. આ કાંસુ મારું છે. આ પુષ્પ આ વસ્ત્ર મારૂં છે. આ धार से धन, जन-सोनुन मणि, माती, शम शिक्षा, प्रात, भु॥ -લાલ રત્ન તથા ઉત્તમ સાર રૂપ પદાર્થો મારા છે. સુંદર શબદ કરવાવાળી વીણા. વિગેરે વાધે મારાં છે, સુંદર રૂપવાન સ્ત્રી મારી છે. અત્તર તથા સુંગધવાળું તેલ મારૂં છે. ઉત્તમ રસ, તથા સ્પર્શવાળા પદાર્થો મારા છે, અને હું તેને માલિક છું. તાત્પર્ય એ છે કે-અજ્ઞાની મનુષ્ય સંસારના પદાર્થોને પિતાના માને છે. પરંત જ્ઞાની પુરૂષોએ તે પહેલેથી જ એ જાણી લેવું જોઈએ કે-જ્યારે મને કોઈ પણ દુઃખ કારક અર્થાત તાવ વિગેરે રોગ તથા શીવ્રઘાત કરવા For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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