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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे . ___ अन्वयार्थ:-'दुहओ वि) द्विधा अपि-द्वावापे आवां सांख्यजैनी (धम्ममि) धर्मे (ममुढ़िया समुत्थितौ (तह) तथा (अस्सि) अस्मिन् धर्मे (मुट्ठिया) सुस्थितौ (तह एसकाले) तथा एध्यकाले वर्तमानभूतभविष्यदात्मककालत्रयेऽपि (आयारसीले) आचारशील:-आचारयुक्त एव पुरुषः आवयोर्दशने (नाणी बुइए) ज्ञानी उक्त-कथितः तथा (संपरायंमि ण विसेसमस्थि) संपराये-परलोके विशेषो भेदो नास्ति ॥४६॥ ___टीका-भाकोऽप्रे गच्छति मार्गे पुनरपि एको दण्डी समागत्य आर्द्रकमुनि कथी -भोः आई कमुने ! 'दुहओ वि' द्वावपि आवाम् ‘धम्मंमि' धर्फे 'समुट्ठिया' एसकाले-तथा एष्यत्काले भूत वर्तमान काल में 'एवं-एवं' एवं भविष्य काल में 'आयारसीले-आचारशील' आचारशील पुरुष ही हम दोनों के दर्शन में 'नाणी बुइए ज्ञानी उक्तः' ज्ञानी कहा गया है तुम्हारे और हमारे मत में 'संपरायमि-संपराये' परलोक के संबंध में भी 'ण विसेसमस्थि-न विशेषोऽस्ति' विशेष भेद नहीं है।४६। ___ अन्वयार्थ-हम दोनों (सांख्य और जैन) के धर्म में प्रवृत्त हैं तथा धर्म में सम्पक प्रकार से स्थित हैं, भूत वर्तमान एवं भविष्यकाल में आचारशील पुरुष ही हम दोनों के दर्शन में ज्ञानी कहा गया है । तुम्हारे और हमारे मत में पर लोक के संबंध में भी विशेष भेद नहीं है ॥४६॥ ____टीकार्थ-पाई ककुमार जप ब्राह्म गों को पराजित करके आगे घढे तो मार्ग में एकदण्डी मिल गये। उन्होंने आकर मुनि से कहा-हे आईक ! तुम और हम दोनों धर्म में समान रूप से वर्तते भूत, पतमान ने मविष्य Mi 'आयारसीले आचारशीलः' मायावान् ५३५ १४ माप! मन्नन! ४शनमा 'नाणी बुइप-ज्ञानी उक्तः' ज्ञानी वाय छ. तमा२। सने अमा२१ मतभा 'संपरायम्मि-सपराये' ५२सेना स मi ५ 'ण विसेसमस्थि-न विशेषोऽस्ति' पधारे मत नथी. ॥४६॥ અન્વયાર્થ—આપણે બને એટલે કે સાંખ્ય અને જૈન ધર્મમાં પ્રવૃત્ત છિએ તથા ધર્મમાં સમ્યક્ પ્રકારથી સ્થિત છિ એ, ભૂતવર્તમાન તેમજ ભવિષ્યકાળમાં આચાર શીલ પુરૂષ જ અમારા બનેના દર્શનમાં જ્ઞાની કહેલ છે. તમારા અને અમારા મતમાં પલેક સંબંધમાં પણ વિશેષ ભેદ નથી ૪ ટીકાઈ–ખાદ્રકકુમાર જ્યારે બ્રાહ્મણને પરાજ્ય કરીને આગળ વધ્યા તે માર્ગમાં એક દંડી મળી ગયા. તેણે આવીને આદ્રક મુનિને કહ્યું કે હે આતંક! તમે અને અમે બને ધર્મમાં સરખી રીતે વર્તવાવાળા છીએ. અને For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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