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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनिः ६६१ कश्चित्पुरुषः 'एगपि' एकमपि 'असीलं' अशीलं शीलहीनं ब्राह्मणम् 'भोययई' भोजयति षट्कायजीवानुपमर्दयन् भोजयति सः 'णियो' नृशे राना 'णिसं' निशामन्ध. कारावृतां नरकभूमिम् 'जाई' याति-गच्छति। 'सुरेहिं कुभो' सुरेषु कुतो-देवलोकेषु कथमपि न गच्छति, 'एतेन शीलरहितमन्यमेकमपि ब्राह्मणं यो भोजयति स तज्ज. नितपापेनाऽवश्रमन्धतमनरकगन्ता भवति किम्पुनः सहस्रद्वय ब्राह्मणभोजनात् । ततश्च तत्पुण्यबलात्स्वर्गगमनाशावेदविषयिणी सुतरामधापातिनीति भावः॥४॥ मूलम्-दुहओ वि धम्ममि समुट्रिया, अस्सेि सुठिच्चा तह एसकाले। आयारसीले बँइएह नाणी, संपरायमि विसेसमस्थि ॥४६॥ छाया-द्विधाऽपि धर्म समुत्थिती अस्मिन् सुस्थितौ तथैष्यकाले। ___आचारशीलइहोक्तो ज्ञानी न संपराये विशेषोऽस्ति । ४६॥ करता है, वह राजा या अन्य पुरुष एक भी शीलरहित ब्राह्मण को यदि षदकाय की विराधना करता हुआ भोजन कराता है तो नरक में जाता है। उसकी देवगति में उत्पत्ति तो हो ही कैसे सकती है? ___ जय एक भी शीलरहिर ब्राह्मण को भोजन कराने से नरक की प्राप्ति होती है तो दो हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से नर कप्राप्ति होना तो स्वतः सिद्ध है। उसे कहने की आवश्यकता ही नहीं रहती। अत एव इस प्रकार से स्वर्गपाने की अभिलाषा स्वतः नीचे गिराने वाली है।४५। 'दुहवो वि धम्ममि' इत्यादि। . शब्दार्थ--'दुहओवि-द्विधा अपि' दोनों सांख्य और जैन 'धम्म मि -धर्मे' धर्म में 'समुट्टिया-समुत्थितो' 'सम्यक् प्रकारसे स्थित है 'तह યની વિરાધના કરતા થકા ભોજન કરાવે છે તે નરકમાં જાય છે. તેના દેવ ગતિમાં ઉત્પત્તિ તે કેવી રીતે થઈ શકે ? જે એક પણ શિવ વિનાના બ્રાહ્મણને ભોજન કરાવવાથી નરકની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે બે હજાર બ્રાહ્મણોને ભોજન કરાવવાથી નરક પ્રાપ્તિ થાય તે તે સ્વતઃ સિદ્ધ છે. તે કહેવાની જરૂર જ નથી. તેથી જ આવા પ્રકારથી સ્વર્ગ પામવાની ઈચ્છા આપોઆપ નીચે પાડવા વાળી જ છે. ૪પ 'दुवो वि धम्मंमि' इत्यादि शाय-दुहवों वि-द्विधा अपि' सांध्य म न मन्ने 'धम्म मि-धौ 'समुढ़िया-समुस्थितौ' सारी रीत प्रवृत्त छ. 'तह-तथा'. तथा 'एस काले-ध्यकाले For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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