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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . . . . सूत्रकृताकारले - अन्वयार्थ:-गोशालक आई कमुनि प्रत्याह-(समणे उभीते) भीतस्तु अषणो महावीरस्वामी, मो.! तव तीर्थकरो भयभीतः सन् (आगंतगारे) आगन्त्र पारे आगन्तॄणामागारे-आगन्तुकावासे-धर्मशालायाम् (आरामगारे) आरामगारे -आरामः स्यादुपयनं तत्रत्यगेहेऽपि, (वास ण उवेइ) वास स्थिति नोपैति भीत: सन् किनामशर्मविन्दति जनाकुले न वसति । कथं नो पैति तत्राह-हेतुम् । (बहवे मशुस्सा जगातिरित्ता य लवालवा य दक्खा हु संती) बहवो मनुष्या ऊनातिरिक्ताश्च "आगंतगार आरामगारे' इत्यादि। शब्दार्थ-'समणे उभीते-श्रमणस्तु भीतः' श्रमण महावीर भिर सरपीक है, क्योंकि 'आगंनगारे-आगन्तगारे' वे आगन्तुकावास-धर्म शाला में 'आरामगारे-आरामगारे' तथा उद्यानों में बने मकानों में पासण उवेइ-वासं न उपैति' ठहरते नहीं है, उनके वहां नहीं ठहरने का कारण यही है कि 'बहवे मणुस्सा जगातिरित्ता लवालवा य दक्खा हुसंति-बहवे मनुष्याः ऊनातिरिक्ता लपालपाश्च सन्ति' वहां बहुत से न्यून, अधिक, वक्ता मौनी अथवा दक्ष पुरुष निवास करते हैं, ॥१५॥ अन्वयार्थ-गोशालक आर्द्रक मुनि से कहता है-श्रमण महावीर “भोर डरपोक हैं, क्यों कि वे आगन्तुकावास धर्मशाला या सराय में तथा उद्यानों में बने मकान में नहीं ठहरते हैं। उनके वहां नहीं ठहरने का कारण यही है कि वहां बहुत से न्यून, अधिक, वक्ता, मानी या 'आगतगारे आराम गारे' इत्यादि शा---गोशालs भाद्र भुनान । छ.-'समणे उभीते-श्रमणस्तु. भीतः श्रमर महावीर निरु त २४ छे. भ.-'आगंतगारे-आगन्तगारे' तमे। भागन्तुपास अर्थात् धर्म शाम तथा 'आरामगारे-आरामगारे' Gधा. नामा मनापामा मा भानामा 'वास ण उवेइ-वासं न उपैति' निवास ४२ता 'नथी. त्या तेलातुं न २हेवार्नु ४२५ मे छे -'बहवे मणुस्सा उणातिरित्ता बालवा य दक्खा हु संति-बहवे मनुष्याः ऊनातिरिक्ता लपालपाश्च सन्ति' लi પણ ખરા ન્યુન અધિક, વક્તા, મૌની, અથવા દક્ષ પુરૂષ નિવાસ કરે છે. ૧પ. અન્વયાર્થ-ગે શાલક આદ્રક મુનીને કહે છે કે-શ્રમણ મહાવીર ભીરૂ થત ડરપોક છે. કેમકે તેઓ આગન્તુકાવાસ-ધર્મશાલા વિગેરેમાં તથા બાઘામાં બનાવેલ મકાનમાં રહેતા નથી. તેઓ ત્યાં ન રહેવાનું કારણ એજ છે કે–ત્યાં ઘણા એવા ન્યૂન અથવા અધિક વક્તા વિગેરે પુષે નિવાસ કરે છે. પિતાનાથી જે ઉતરતા હોય કે ન્યૂન કહેવાય છે. પિતાનાથી જે ઉત્તમ For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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