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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सूत्रकताजपचे ते गुप्तेन्द्रियाः 'गुत्तभयारी' गुप्तब्रह्म पर्याः 'अकोहा' अक्रोधाः 'अमाणा' अमानाः, 'अमाया' अमाषाः 'अलोहा' अलोमाः क्रोधमानमायालोमादिमिः परिवर्जिताः 'संता' शान्ताः 'पसंता' प्रशान्ता:-अतिशयेन 'उपसंता' उपशान्ताः -बाशान्तरशान्तिसहिताः परिनिचुडा' परिनिवृत्ताः-समस्तसन्तापरहिता इत्यर्थः 'अमासवा' अनास्रा:-आस्र सेवनरहिता: 'अग्गंथा' अग्रन्था:-समस्तपरिग्रह रहिताः 'छिनपोया' छिन्नशोकाः छिनो पिदारितः शोकपदवाच्या संपाते येस्ते छिन्नशोकाः 'निहालेगा' निरुपलेपा:-कर्मरूपमलरहिताः 'कंपपाईव मुक्कतोया' कांस्यपात्रीव मुक्ततोयाः:-यथाकांस्यपात्रं जल ननितविकारेण न लिप्यते-तद्वत् कर्ममलैरलिप्ताः 'संखो इस णिरंजणा' शङ्ख इव निरञ्जनाः, यथा शङ्ख प्रकृत्या स्त्रच्छो न तु कालिमादिदोषैः संस्पृष्टो भवति-तथैव हि भवन्ति रागादिदोषैरनाघाताः। 'जीव इव अप्पडिहयगई' जीव इवाऽमतिहतगतयः, यथा जीनां गतिर्न मतिरुध्यते, तथा यथोक्तमहतामपि न निरुध्यते गतिः। 'गगणतलं व निरालंबणासाथ ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। क्रोध मान माया और लोभ से रहित होते हैं । शान्त, प्रशान्त, उपशान्त-बाह्य एवं आन्तरिक शान्ति से सम्पन्न होते हैं। परिनिर्वृत्त, आस्रबहारों से रहित, समग्र ग्रंथियों से रहिन छिन्नशोक-संसार के मूल को छेदन कर देने वाले अथवा शोक से रहित कर्मरूप मल से रहित, जैसे कांसे का पात्र जल के लेप से लिप्त नहीं होतो उसी प्रकार कर्ममल से लिप्त न होने वाले, जैसे शंख स्वभाव से निष्कलंक होता है, उसी प्रकार समस्त कालिमा से रहित होते हैं। जैसे जीव की गति रोकी नहीं जा सकती, वैसे भी उनकी गति में भी रूकावट नहीं डाली जा सकती। ચાને વિષયેથી ગેપન કરીને રાખે છે. નવ વાડેની સાથે બ્રહ્મચર્યનું પાલન रेछ. जोध, मान, माया, अने .मथी २डित य छ. शान्त, प्रशान्त, ઉપશાન્ત-બાહા અને આંતરિક શક્તિથી યુક્ત હોય છે. પરિનિવૃત, આવ. સાથી રહિત સઘળી થિયેથી રહિત છિન શક-સંસારના મૂળનું છેદન કરવાવાળા, અથવા શેકથી રહિત કર્મરૂપ મળથી રહિત, જેમ કાંસાને વાસણ પાણીના લેપથી લિપ્ત થતું નથી, એ જ પ્રમાણે કર્મ રૂપી મળથી - હિપાનારા. જેમ શંખ સ્વભાવથી નિષ્કલંક હોય છે, એજ પ્રમ છે સઘળા પારની કાલિમા–મલિન પશુથી રહિત હોય છે. જેમ જીવની ગતિ રે કી શકાતી નથી, તેમ તેઓની ગતિમાં પણ રોકાણ કરી શકાતું નથી. For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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