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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२४ सूत्रकृताङ्गसूत्र छीया-मेधाविनः शिक्षितबुद्धिमन्तः सूत्रेष्वर्थेषु च निश्चयज्ञाः । - मा पाक्षुरनगारा अन्ये इति शङ्कमानो नो पैति तत्र ॥१६॥ अवयार्थ:-(मेहाविणो) मेधाविनः-व्रतग्रहणधारणासम्पन्नाः (सिक्खिय) शिक्षिताः-यद्वा वयप्रमागनिपुणाः (बुद्धिमंता) बुद्धिमन्तः-औत्पत्तिक्यादिबुद्धियुक्ताः (सुत्तेहि) सूत्रेषु-व्याकरणादिमूत्रविषये (अत्थेहि) अर्थेषु-तत्तच्छास्त्रपतिपायेषु. 'मेहाविणो सिक्खियबुद्धिमंता' इत्यादि। शब्दार्थ-'मेहाविणो-मेधाविनः' मेधावी अर्थात् व्रतों के ग्रहण और धारण करने की मतिवाले सिक्खियबुद्धिमंता-शिक्षित. घुद्धिमन्तः' प्रमाणों में निपुण, एवं बुद्धिमान् औत्पत्ति की आदि घुद्वियों से युक्त 'सुत्तहि-सूत्रेषु' सूत्रों में अर्थात् शास्त्रके मूलपाठ में तथा 'अत्थेहि-अर्थेषु' उनके अर्थ में 'घ-च' और 'णिच्छपन्ना-निश्च यज्ञा' निश्चय को जानने वाले 'अन्ने-अन्ये' अन्य -परदर्शन वाले 'अण गारा-अनगाराः' अनगार 'मा णो पुच्छिन्तु-मा अस्माकं प्राक्षुः' मुझसे कोई प्रश्न न कर बैठे 'इति संकमाणो-इति शंकमानः' इस प्रकार की आशंका करते हुए महावीर 'तत्थ-तत्र' उन जनाकूल स्थानों में 'ण उवेति-नौपैति' नहीं जाते हैं ।गा०१६॥ - अन्वयार्थ-मेधावी अर्थात् व्रतों के ग्रहण और धारण करने की मतिवाले, शिक्षित-प्रमाणों में निपुण, बुद्धिमान् औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों से युक्त, सूत्रों में अर्थात् शास्त्र के मूलपाठ में तथा उनके 'मेहाविणो सिक्खियबुद्धिमता' त्यात शाय-महाविणो-मेधाविनः' मेधावी अर्थात् प्रतीने घडय भने पा ४२वानी भतीवर 'सिक्खि यबुद्धिमंता-शिक्षितबुद्धिमन्तः' शिक्षित अर्थात् પ્રમાણમાં પ્રવીણ અને બુદ્ધિમાન એટલે કે ઔત્પત્તિકી વિગેરે બુદ્ધિથી पुश्त 'मुत्तेहि-सूत्रेषु' सूत्रोमा अर्थात् शालना भू१॥i तथा 'अत्थेहिअर्थेषु' तेनाममा 'य-च' भने 'णिच्छ यन्ना-निश्चयज्ञाः' निश्वयन ना२। 'अन्ने-अन्ये' अन्य-५२६शवाणा 'अणगारा-अनागाराः' साधु ‘मा णो पुच्छिसु -मा अस्माकं प्राक्षुः' भने । प्रश्न न छ मेसे 'इति संकमाणे-इति शङ्कमानः' प्रमानी शा ४२ता थ। महावी२ 'तत्थ-तत्र' मेगन व्यास स्थानमा ‘ण उवेति-नोपैति' ता नथी. ॥१९॥ અન્વયાર્થ–મેધાવી અર્થાત્ વતેને ગ્રહણ અને ધારણ કરવાની મતિબુદ્ધિવાળા શિક્ષિત પ્રમાણમાં નિપુણ, બુદ્ધિમાન ઔત્પત્તિકી વિગેરે બુદ્ધિથી યુક્ત શાસ્ત્રને મૂળ પાઠમાં તથા તેના અર્થમાં નિપુણ એવા પરદર્શન For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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