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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूचे - अन्वयार्थ:--पुनराईको मुनिः पाह-बीजाधु भोगकारिणां साधुत्वं पतिः विध्याऽत्र साधकाऽभावान् दर्शयन् बाधकमपि ब्रूते । (सियाय) स्याञ्च (बीयोदगइत्थियाओ) बीजोदकस्त्रियः बीजं शीतोदकं तथा-नि: (पडि सेवमाणा) प्रतिसेवमानाः, एतेषां सेवनकारोऽपि (समणः) श्रमणा:-गायो भवन्तु । किमपराद्धम् । (ते वि) ते-गृहस्था अपि (तहपगारं) तथाप्रकार-शीतोदकादिकम् (सेवंति उ) सेवन्ते एव, यदि शीतोदकादिसेवनकर्तारः साधो भवेयु स्तदा गृहस्था अपि साधकः स्युः । यत उभयोरपि असेव्यसेवनस्य समानता । अतो भवसिद्धान्तसिद्ध साधुवपरिभाषा न समीचीना, गृहस्थेऽपि तस्याः सत्त्वात्।९। ।टीका-सुगमा ।।९॥ सेवन करने वाला भी 'समणा-श्रमणाः' यदि साधु हो सकता है, तो गृहस्थों ने क्या अपराध किया है ? अर्थात् उन्हें भी साधु क्यों न मान लिया जाय ? 'ते वि-ते अपि' वे भी 'तहपगारं-तथाप्रकारम्' सचित्त जल आदि का सेवंति उ-सेवन्ते एव' सेवन करते हैं। जय सचित्त जल और स्त्रीका दोनों ही सेवन करते हैं, तो साधु आर गृहस्थ में अंतर ही क्यारहा ऐसा मानने पर तो सथ गृहस्थ भी साधु ही कहलाएंगे क्योंकि वह युक्ति, गृहस्थ में भी घटित होती है ।९। ___ अन्वयार्थ-आईक मुनि बीज आदि का सेवन करने वालों की साधुना का निषेध करके अब उस मत में बाधकयुक्ति दिखलाते हैंसचित्त बीज, सचित्त जल और स्त्रियों का सेवन करने वाले भी यदि साधु हो सकते हो तो गृहस्थों ने क्या अपराध किया है ? उन्हें भी साधु क्यों न मान लिया जाय ? वे भी सचित्त जल आदि का सेवन श्रमणाः' ने साधु मनी २४ता अाय, तो क्यामे ॥ १५२१६ या छ ? अर्थात् तमोर पण साधु म न माना ? 'वेवि-तेऽपि' ते ५g 'तहप्प. गारं-तथाप्रकारम्' सथित्त पाणी विगेरेनु सेवंति उ-सेवन्ते एव' सेवन કરે જ છે. જ્યારે સચિત્ત પાણી અને ચિયે નું સેવન આ બન્ને કરે છે, તે પછી સાધુ અને ગૃહસ્થમાં શું ફરક છે? આમ માનવાથી તે બધા ગૃહસ્થ પણ સાધુ જ કહેવાશે. તેથી જ આપે સાધુની જે વ્યાખ્યા કરી છે, તે બરે. બર નથી. કેમકે તે ગૃહસ્થામાં પણ ઘટે છે. ગા૦૯ અન્યયાર્થ–આદ્રક મુનિ બીજ વિગેરેનું સેવન કરવાવાળાના સાધુપણાને નિષેધ કરીને હવે તે મતના ખંડનની યુક્તિ બતાવે છે.–સચિત્ત બીજ સચિત્તજલ અને સિનું સેવન કરવાવાળા પણ જે સાધુ થઈ શકતા હોય તે ગૃહસ્થોએ શું અપરાધ કર્યો છે? તેઓને પણ સાધુ કેમ For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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