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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थचोधिनी टीका द्वि.शु. अ. ६ आर्द्रकमुनेगोशालकस्य संवादनि० र अम्बयार्थ:-(उर्दू) ऊर्ध्वदिशि (अहेय) अधोदिशि (तिरिय दिसासु) तिर्यग्र. दिशाम (तसथावराणं) सस्थावराणां जीवानाम् (लिंग) लिङ्गम्-जीवत्वचितम् - चलनस्पन्दनाङ्करोवादिकम् (विन्नाय) विज्ञाय-ज्ञासा (भूयामिसंकाइ दुगुंछमाणा) भूताभिशङ्कया जुगुप्समानः-घृगां कुर्वन् (वदे) वदेत् निरवधभाषामुच्चारचेत् (करेमा व) कुर्याद्वा, एनारशस्य (कुभोविहऽत्थी) कुतोऽस्यस्ति जीवनभयम्कथमपि जीवनभयं नास्तीति ॥३१॥ 'तिरिय दिसासु-तिर्यग दिशासु' तिर्ण दिशाओं में 'तसथावराणं-स. स्थावराणां प्रस' और स्थावर जीवों के 'लिंग-लिङ्ग लिंगको अर्थात् जीवत्व के चिह चलन स्पन्दन आदिको 'विनाय-विज्ञाय' जानकर 'भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणा-भूताभिशङ्कया जुगुप्तप्तमान:' जीव हिंसा की आशंका से ज्ञानी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुवा 'वदे वन' यदि निदोष भाषा का उच्चारण 'करेज्जा व-कुर्यात् वा' करे और निरवद्य प्रवृत्ति करे तो 'कुओ विहत्थी-कुतोप्यस्ति' जीव हिंसाका भय कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता ॥३१॥ __ अन्वयार्थ-ऊर्वदिशा में अधोदिशा में और तिर्की दिशामों में अस और स्थावर जीवों के लिंग को अर्थात् जीवत्व के चिहून चलन स्पन्दन आदि को जान कर भूतों के हिंसा की आशंका से ज्ञानी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुआ यदि निदोष भाषा का उच्चारण करे और निरवद्य प्रवृत्ति करे तो जीवहिंसा का भय कैसे हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता ॥३१॥ दिसास-तिर्यग् दिशाम' तिछी (हशामा 'तसथावराण -त्रसथावराणां' स अने स्था१२ यानी 'लिंग-लिङ्ग' ने अथवा त्वना मिल यवन २५.हन विरेने 'विन्नाय-विज्ञाय' नशीने 'भूयाभिसंकाइ दुगु'छमाणा-भूता. भिशङ्कया जुगुप्समानः' भूतानी हिसानी माथी ज्ञानी ५३५ साथी । ४२ता थ। 'वदे-वदेत'ने निषि साषानु श्यार 'करेज्जा व-कु. र्यात् वा' ४२ अन निरवध प्रवृत्ति धरे तो 'कुओ विहत्थी-कुतोप्यस्ति' हिंसानो ભય કેવી રીતે થઈ શકે છે? અર્થાત્ કદાપિ થઈ શકતું નથી. ૩૧ અન્વયાર્થ–ઉર્વદિશામાં, અદિશામાં અને તીઈિ દિશાઓમાં ત્રસ અને સ્થાવર જીના ચિહ્નને અર્થાત જીવપણાના ચિહ્ન ચલન સ્પન્દન વિગેરેને સમજીને પ્રાણિયેની હિંસાની શંકાથી જ્ઞાની પુરૂષે હિંસાની ઘણા કરતા થકા જે નિર્દોષ ભાષાને ઉચ્ચાર કરે અને નિરવદ્ય પ્રવૃત્તિ કરે તે જીવહિંસાનો ભય કેવી રીતે થાય છે? કદાપિ તેમ થતું નથી. રૂના For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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