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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ર सूत्रकृतात्सूत्रे जागए' पृथिवीमभिसमन्त्रागतः, 'पुढविमेन अभिभूय चिट्ठ' पृथिवीमेवाऽभिभूयव्याप्य तिष्ठति । 'एवमेव धम्मा वि पुरिसाइया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिडंति' एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेवाऽभिभूय तिष्ठन्ति 'से जहा णामए' तद्यथा नाम 'क्खरिणी सिया' पुष्करिणी स्यात् वापी भवेत् 'पुढविजाया' पृथिवी जाता 'जाव पुढत्रिमेव अभिभूय चिट्ठ' यात्रत् पृथिवीमेवाऽभिभूय तिष्ठति, यथा वा वापी पृथिव्यां जायते तत्रैव तस्यामेव लीयते 'एवमेवावि पुरिसाइया जान पुरिसमेव अभिभूय विद्वेति' एवमेव धर्मा अपि पुरुषादिका यावत् पुरुषमेाऽभिभूय तिष्ठन्ति । 'से जहा णामए' तद्यथानाम 'उदपुखले सिया' उदक पुष्कलम् - उदकप्राचुर्य- जलवृद्धिः स्यात् 'उद्गजाए जात्र उदगमेव अभिभूव चिट्ठ' उदकजातं यावदुदकमेवाऽभिभूय तिष्ठति । एवमेव धम्मा विपुरिसाइया जाब पुरिसमेत्र अभिभूय चिति' एवमेव धर्मा अनि पुरुवादिका यावत् पुरुषमेधऽभिभूय तिष्ठन्ति । यथा खलु उदकवृद्धि र्जलादुभूय जल एवं स्थितं भवति, तथैव सर्वकार्यजातं पुरुषादुत्पद्य पुरुष एव तिष्ठति । ' से जहा णामर उदबुम्बुर पृथ्वी को ही व्याप्त करके ठहरता है, इसी प्रकार समस्त पदार्थ पुरुषसे ही उत्पन्न होते हैं और पुरुष को ही व्याप्त करके ठहरते हैं। 'जैसे वापी 'वावडी' पृथ्वी से उत्पन्न होती है, यावत् पृथ्वी को ही व्याप्त करके रहती है और पृथ्वी में ही विलीन हो जाती है, इसी प्रकार समस्त पदार्थ पुरुष से ही उत्पन्न होते हैं यावत् पुरुष को ही व्याप्त करके रहते हैं। जैसे जल की वृद्धि जल से ही होती है, और जल को ही व्यास करके रहती है, इसी प्रकार समस्त पदार्थ पुरुष ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं और पुरुष के ही आश्रय से रहते हैं । જ વ્યાસ થઈને રહે છે. એજ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થાં પુરૂષથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. અને પુરૂષમાં જ વ્યાપ્ત થઈને રહે છે. જેમ વાવ પૃથ્વીમાં ઉત્પન્ન થાય છે, યાવત્ પૃથ્વીમાં જ ગૃપ્ત થઈને રહે છે, અને પૃથ્વીમાં જ વિલીન થઈ જાય છે. એજ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થો પુરૂષથી જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. ચાવત્ પુરૂષને જ ન્યાત થઈ ને રહે છે. જેમ જળની વૃદ્ધિ જળથી જ થાય છે. અને જળને જ વ્યાપ્ત થઈને રહે છે, એજ પ્રમાણે સઘળા પદાર્થાં પુરૂષ-ઈશ્વરથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, અને પુરૂષના જ આશ્રયથી રહે છે, For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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