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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र अन्वयार्थ:--(गत्थि कोहे व माणे पा) नास्ति-न विद्यते क्रोधो वा-स्वपरा. मनोरमीतिलक्षणः, तथा-मानो गर्यो वा न विद्यते (णे सन्नं णिवेसए) नवमीरशी संज्ञां-बुद्धि निवेशयेत्-कुर्यात् किन्तु-(अस्थि कोहे व माणे वा) अस्तिवियते एव क्रोधो वा मानो वा (एवं सन्ने णिवेसए) एवमीदृशीं संज्ञा-बुदि निवेशयेत् कुर्यादिति ॥२०॥ - टीका-'कोहे व क्रोधो वा 'माणे वा' मानो वा 'गस्थि' नास्ति ‘एवं सन्न' एवं संज्ञाम् ‘ण णि वेसए' न निवेशयेत्-नैवं संज्ञा विवृणुयात् । किन्तु-'कोहेच माणे वा अत्यि' क्रोधो वा मानो वाऽस्ति एवं सन्नं णिवेसए' एवमेव संज्ञां निवे. शयेत-धारयेत् । क्रोधो मानश्च न सत्पदार्थ इति कैश्चिदभिहितः तन्न सयुक्तिका मत्यक्षेणाऽनुमानादिनाऽपि सिद्धयोरनयो निराकर्तुमशक्यत्वात् । प्रपाणसिद्धस्याऽपि अन्वयार्थ-क्रोध नहीं हैं अथवा मान नहीं है, इस प्रकार की धुद्धि नहीं धारण करना चाहिए किन्तु क्रोध और मान है, इस प्रकार की धुद्धि धारण करना चाहिए ॥२०॥ टीकार्थ-स्व और पर के प्रति अप्रीति होना क्रोध का लक्षण है। मान का अर्थ गर्व या अभिमान है। यह क्रोध और मान नहीं हैं, इस प्रकार की बुद्धि रखना ठीक नहीं है, किन्तु क्रोध है और मान है, ऐसी ही बुद्धि रखना चाहिए। - किसी का कहना है कि क्रोध और मान की सत्ता नहीं है। उनका यह कथन ठीक नहीं है। क्यों कि प्रत्यक्ष से और अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध क्रोध और मान का निराकरण करना संभव नहीं है। प्रमाण से सिद्ध वस्तु का भी अभाव मानने से जगत् में कोई અયાર્થ–ધ નથી, અથવા માન પણ નથી. આવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ કરવી ન જોઈએ. પરંતુ કોય અને માને છે. આવા પ્રકારની બુદ્ધિ पार ४२वी नसे. ॥२०॥ ટીકાર્ય–વ અને પરના પ્રત્યે અપ્રીતિવાળા થવું તે કંધનું લક્ષણ છે. માનને અર્થ ગર્વ અથવા અભિમાન છે, આ ધ અને માન નથી, આવા પ્રકારની બુદ્ધિ ધારણ કરવી એગ્ય નથી. પરંતુ કોઇ છે. અને માન છે, એવી જ બુદ્ધિ રાખવી જોઈએ. કેઈનું કહેવું છે કે--ક્રોધ અને માનની સત્તા નથી, તેઓનું આ કથન ઠીક નથી. કેમકે-પ્રત્યક્ષથી અને અનુમાન વિગેરે પ્રમાણે થી સિદ્ધ એવા ક્રોધ અને માનનું નિરાકરણ કરવું સંભવિત થતું નથી. પ્રમાણુથી સિદ્ધ વસ્તુને For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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