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समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आर्द्रकमुने!शालकस्य संवादनि० ६८३ __ अन्वयार्थ:--(बुद्धस्स) बुद्धस्य-ज्ञाततत्वस्य (भाणाए) आज्ञया (इमं समाहि) इमं समाधिम्-सद्धर्मपाक्षिलक्षणम् (अस्सि) अस्मिन् समाधौ (सुठिच्चा) मुस्थाय -सुष्ठु स्थित्वा मनोवाकायः तथा (तिविहेण ताई) त्रिविधेन करणेन करणकारणानुमोदनात्मकः त्रिभिः करणैश्च वायी-षड्जीवनिकायरक्षको भवति (महामवोघ) महामवाघम्-दुस्तरसंसारसमुद्रम् (समुदं व) समुदमिव (तरिउं) तरितुम् (आयाणव) आदानवान-ज्ञानादिमान् मुनिः (धम्म) धर्म सम्यकश्रुतचारित्ररूपम् (उदाहरेन्जा) उदाहरेत-ताशधर्ममुपदिशेदिति ।५५।
टीका-'बुद्धस्स' बुद्वस्य-केवलज्ञानात्मकबोधि प्राप्तवतो महावीरस्य, 'आणाए' आज्ञया 'इमं समाहि' इमं समाधिम्-अहिंसासम्बलि ज्ञानदर्शचारित्रामन वचन, एवं काया से स्थित होता है, वह 'तिविहेण ताई-त्रिविधेन त्रायी' तीनों करणों से शेप षट् जीवनिकाय की रक्षा करता है 'आयाणवं-आदानवान्' सम्यज्ञान आदि से सम्पन्नमुनि 'महाभवोघं -महाभवौघं' अत्यत दुस्तर 'समुदं व-समुद्रमिव' समुद्र के समान संसार को तरि-तरितुं' तिरने के लिए 'धम्म-धर्म' श्रुतचारित्र धर्म का 'उदाहरेज्जा-उदाहरेत्' उपदेशकरें ॥५॥
अन्वयार्थ-परिज्ञाततत्त्व भगवान श्री महावीर स्वामी की आज्ञा से इस समाधि को प्राप्त करके जो इस समाधि में स्थित होता है वह मन बचन काय से तथा तीनों फरणों से षट्जीवनिकाय की रक्षा करता है । सम्यग्ज्ञान आदि से सम्पन्न मुनि अत्यन्त दुस्तर समुद्र के समान संसार को तिरने के लिए श्रुतचारित्र रूप धर्म का उपदेश करें ॥५॥ सुस्थित्वा' त भन, यन, भने यथा स्थित २७ छ, 'तिविहेण ताई-त्रिविधेन प्रायी' त्राणे ४२२थी माहीना पटू निकाय वा योनी २क्षा 3रे छे. 'आयाणव-आदानवान्' सभ्यज्ञान, विश्थी युद्धत मुनि 'महाभवोप-महाभवोघ' अत्यत १.२ 'समुई व-समुद्रमिव' समुद्र २१ मा सारने 'वरिउ-तरितुं' त२१॥ भाटे 'धम्म-धर्म' श्रुत यास्ति धमना 'उदाहरेज्जाउदाहरेत्' ७५४२ ४२. ॥५५
અવયાર્થ–-પરિસાતતત્વ ભગવાન મહાવીર સ્વામીની આજ્ઞાથી આ સમાધિને પ્રાપ્ત કરીને જે આ સમાધિમાં સ્થિત હોય છે. તે મન વચન અને કાયાથી તથા ત્રણે કરણથી ષજીવનિકાયની રક્ષા કરે અને સમ્યફ જ્ઞાન વિગેરેથી યુક્ત મુનિ અત્યંત દુસ્તર એવા આ સંસાર સમુદ્રને તરવા માટે ચુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મને ઉપદેશ કરે આપણા
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