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सुत्रकृतास्त्र अन्वयार्थः-पुनराई को मुनिः प्राह-(जे यावि) ये चापि, च शब्दस्त्वर्थे, तथा च ये तु (भिक्खू) भिक्षवः, ये साधुवेषं परिगृह्यापि (बीयोदगमोइ) बीजोदकभोजिनो भवन्ति, तथा-(जीवियट्ठी) जीवितार्थिनः-उदरम्मरयः (भिक्खं विहिजायंति) मिक्षाविधिं यान्ति, ये भूत्वाऽपि साधवः बीजकायान् शीतोदकादिकं सेवन्ते तथोदरपोषणाय भिक्षावृत्ति कुर्वन्ति । ते (गाइसंजोगमविप्पहाय) ते पूतिकर्मनिरत : रुकी यज्ञातिब धुवान्धवानां कर्मकराः संयोग प्रहायाऽपिपरित्यज्याऽपीति । (कायोवगा) कायोरगाः-देवेघोषणेषु नमानसाः (गंतकरा भवंति) नान्तकारा भवन्ति-उदरम्भरयो कोके कर्मणां न विनाशका, भवन्ति अन्तकरा न भवन्तीति ॥१०॥टीका-सुगमा ॥१०॥ कम्-इमं वयं तु तुम पाउकुवं पावाइणो गरिहँसि सबएव।
पावाइणो पुढो किंट्रयता सयं सयं दिहि करेंत पाउं।११।
वाले हैं ऐसे भिक्षाजीवी-पेटू अपने कर्मों का 'णंतकरा भवंति-नान्त करा भवन्ति' अन्त नहीं कर सकते हैं और न उनके जन्म मरणका ही भन्त आसकता है ॥१०॥
• अन्वयार्थ-आद्रक मुनि पुनः कहते हैं-जो भिक्षु होकर भी अपित्त बीज और सचित्त जल का सेवन करते हैं और जीवन निर्वाह के लिए भिक्षावृत्ति करते हैं, वे अपने ज्ञातिजनों, एवं आत्मीय षन्धु. पाययों के संपर्क को त्याग करके भी अपने काय काही पोषण करने वाले हैं ऐसे भिक्षाजीवी-पेटू अपने कर्मों का अन्त नहीं कर सकते और न बनके जन्म-मरण का ही अन्त आ सकता है ॥१०॥टीका सरल है ॥१०॥
पास ४२पापा 2. 0 लक्षापी-पेटस। पाताना भान 'गंतकरा भवति-नान्तकरा भवन्ति'. मत ४री शाता नथी. तथा तमना - भरपना અંત કરી શકતા નથી. પગા૦૧
અન્વયાર્થ–આદ્રક મુનિ ફરીથી કહે છે કે–જે ભિક્ષક થઈને સચિત્ત બીજ અને સચિત્ત જલનું સેવન કરે છે. અને જીવન નિર્વાહ માટે શિક્ષા ત્તિ કરે છે. તેઓ પિતાના જ્ઞાતિજન અને આત્મીય બંધુ બાંધના સંપર્કને હને પણ પિતાના શરીરનું જ પિષણ કરવા વાળા છે. એવા ભિક્ષાજવી ટણ પિતાના કર્મોને અંત કરી શકતા નથી. તેમજ પિતાના જન્મમરમને પણ અંત કરી શક્તા નથી. ૧ કે આ ગાથાને ટીકાથે અન્વયાર્થ પ્રમાણે છે. જેથી અલગ આપેલ નથી,
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