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समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ६ आईकमुने गोशालकस्य संवादनि. ६२९
अन्वयार्थः--(इद) इह-अस्मिन् काले-भवदीयसिद्धान्तरूपमभिमतम् (संन. याणं अनोगरूवं) संयतानां साधूनामयोग्यरूपम् (गणाग) पाणानां च (पसज्झ काउं) पपा -बलान् कृत्वा मारणमिति शेषः (पाव) पापं-पापनन कमेव (दोण्ड वि) द्वयोरपि- एतादृशसिद्वानोपदेष्ट्रकृतकर्णगोचरयोरपि (अबोहिए) अबोध्य-अबोधिलाभाय भवति (जे य) ये च (वयंति) वदन्ति एतादृशं सिद्धान्त तथा-(पडि. मुगंति) प्रतिशृण्वन्ति, इति ॥३०॥ ___टीका--'सम्पति-आक: शाक्यभिक्षु मुत्तरयति-हे बौद्ध भिक्षो! 'दहसंनयाणं' इह-संयतानां पुरुषाणां कृते भवदभिमत-सिद्धान्तरूपम् अयोग्यरूपमिव सिद्धांत 'संजया अनोवं-संपनानाम् अयोग्यरूपम्' संयमी पुरुष के लिए अयोग्य है 'पाणग-प्राणाना' प्राणियों का 'पसन काउं-प्रसहय कृत्वा' ज पर्दस्ती हिंसा करना 'पावं-पापं पाप जनक ही है, आपका सिद्वांत 'जे प-ये च' जो कोई 'वयंति-वदलि' करते है तथा 'पडि. सुगंति-प्रतिशृपति' यह सिद्धांत सुनते है 'दोहावि-द्वयोरपि' कहने
और सुनने दोनों के लिए ही 'अयोही-अयोध्यै' अबोधिजनक है ।३०। ____ अन्वयार्थ-आर्द्र क मुनि उत्तर देते हैं-आप का सिद्धान्त संयमी पुरुषों के लिए अयोग्य है, प्रागियों को जबर्दस्ती हिंसा करना पापजनक ही है, आप का सिद्धान्त करने और सुनने वाले दोनों के लिए ही अघोधिजनक है।३०॥
टीकार्थ-अब आर्द्रक शाक्य भिक्षु को उत्तर देते हैं-आपका ४ छ-'इह-इह' मा समय मापन सिद्वांत 'संज मगं अजोगरूव-संयतानाम् अयोग्यरूपम्' सयभी धुषाने मटे भयोय छे. 'पाणाण-प्राणानां प्राणियोनी 'पज काउ'-प्रसह्य कृया' (२यी डिसा ४२वी ते 'पाव-पापम्' पा५ 143 छ, पापना सिद्धांतमा 'जे य-ये च'रे 'वयंति-वदन्ति' सिद्धांतनु थन रे छ, तथा 'पडिसुणति-प्रतिशृण्वन्ति' सिद्धान्तनु श्र१५ शवे छे. 'दोह वि-द्वयोरपि' डेवावा भने सवा मन्ने भाटे 'अबोही-अबोध्यै' અબાધિ કારક જ છે. ૩.
અન્વયાર્થ-આદ્રક મુનિ ઉત્તર આપતાં કહે છે–તમારે સિદ્ધાંત સંયમી પુરૂષો માટે અગ્ય છે. પ્રાણિની બલાહકારથી હિંસા કરવી પાપજનક જ છે. આપને સિદ્ધાંત કહેવાવાળા અને સાંભળવાવાળા બન્નેને માટે मानविन छे. ॥३०॥
ટીકાઈ–હવે આદ્રક મુનિ શાય ભિક્ષુને ઉત્તર આપતાં કહે છે કે
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