________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सूचकताबो . अन्वयार्थः-(किंचि) कश्चन-कमपि श्रमणं माहनं वा (रूवेण) रूपेण स्वरूपेण -जुगुप्सिताऽवयवाङ्गाऽवयवोद्घाटनेन (ण अभिधारयामो) न-नैव अभिधार ग्रामा-गर्हणाबुद्धया नोद्घाटयामः किन्तु-(मदिहिमगं तु) स्वदृष्टिमार्ग तु-तदभ्यु. पातं दर्शनं सिद्धान्तम् (पाउकरेमु) मादुष्कुम:-प्रकाशयामः। मोक्षमार्गस्तु-(आरिएहि) आयः (सप्पुरिसे हिं) सत्पुरुषः-सन्तश्च ते पुरुषास्तः सर्वज्ञ:-अधर्मदूरवत्तिमिः (इमे मग्गे) अयं मार्गः-सम्यग्दर्शनादिरूपः (अणुत्तरे) अनुत्तरः-न विद्यते उत्तरः अथवा माहन के 'रूवेण-रूपेण' रूप अथवा वेषकी ‘ण अभिधारयामो -नाभिधारयाम:' निंदा नहीं करते हैं उसके अंग अथवा उपांग की बुराई नहीं करते' किन्तु 'सदिटिमग्गं तु-स्वदृष्टिमार्ग तु' केवल अपने दर्शनका मार्ग ही 'पाउंकरेमु-प्रादुष्कुर्मः' प्रकाशित कर रहे हैं 'इमे मग्गे-अयं मार्ग:' यह सम्यक् दर्शन आदिरूप मार्ग 'अणुत्तरे- अनुत्तरः' सर्वोत्तम है अर्थात् पूर्वापर विरुद्ध न होने के कारण तथा जीवाजीवादि पदार्थ-तत्वों की यथार्थ प्ररूपणा करने के कारण अनुत्तर है, क्योंकि -यह 'आरिएहि-आर्यैः' आर्य 'सप्पुरिसेहि-सत्पुरुषैः' सत्पुरुषों-सर्वज्ञों के द्वारा 'अंज किटिया-अञ्जः कीर्तितः' सरल कहा गया है।॥१३॥ . अन्वयार्थ--आईक पुनः कहते हैं-हम किसी श्रमण या माहन के रूप या वेष की निन्दा नहीं करते । उसके अंग या उपांग की बुराई नहीं करते । केवल अपने दर्शन का मार्ग ही प्रकाशित कर रहे हैं। यह सम्यग्दर्शन आदि रूप मार्ग सर्वोत्तम है अर्थात् पूर्वापरविरुद्ध न मया मानना 'रूवेण-रूपेण' ३५ अय। वेषनी 'ण अभिधारयामो-नाभि धारयामः' नि! ४२ नथा. तभना में 44 sinानी भुरा मतापत। नथी. ५२ 'सदिट्ठिमग्गंतु-स्वदृष्टिमार्गन्तु' व चाताना शनने भाग 'पाकरे मु-प्रादुष्कुर्मः' प्राट ४३ छु'. 'इमे मग्गे-अयं मार्ग:' मा सभ्य
शन विगैरे ३५ भाग 'अणुत्तरे-अनुत्तरः' सर्वोत्तम छ, अर्थात् पूर्वा५२ १ि३६ ન હોવાથી તથા જીવ અજીવ વિગેરે તત્વોની યથાર્થ પ્રરૂપણ કરવાથી અનુત્તર -सव | छ, १५ 'आरिएहि-आय:' माय 'सप्पुरिसेहि-सत्पुरुषैः' सत्५३॥ -सज्ञा द्वारा 'अंजू किट्टिया-अजुः कीर्तितः' १२० ४ वामां आवे छे. १३॥
અન્વયાર્થ––ફરીથી આદ્રક મુનિ કહે છે-હું કઈ પણ શ્રમણ અથવા માહનના રૂપ અથવા વેષની નિંદા કરતું નથી. હું કેવળ અમારા શાસ્ત્રનો માર્ગજ પ્રગટ કરું છું. આ સમ્યગ્ર દર્શન રૂપ માર્ગ જ સર્વોત્તમ છે. અર્થાત્ તે પૂર્વાપર વિરૂદ્ધ ન હોવાના કારણે તથા જીવાદિ તત્વનું પ્રરૂપણ
For Private And Personal Use Only