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समयार्थबोधिनी टीका वि. श्रु. अ. १ पुण्डरोकनामाध्ययनम्
१२१ किन्तु-ज्ञातिसंयोगाद्यपेक्षया 'इणमे। उवगीयतराग' इदमेवोपनीततरम्आसन्नतरम् , 'तं जहा' तद्यथा 'हत्था मे पाया में इस्तौ मे पादौ मे 'बाहा में बाहू मे 'ऊऊ मे' ऊरू में 'उयरं में' उदरं मे 'सीसं मे सीलं में शीर्ष मे शीलं में 'आऊ में बलं में' आयु में बलं मे 'वण्गो मे तया मे' वर्गों में त्वचा में 'छाया मे सोयं में छाया मे श्रोत्रं मे 'चक्खू मे घाणं में चक्षु में घ्राणं में 'जिह्वा मे फासा में जिह्वा मे स्पर्शा में, 'ममाइज्जइ' ममायते-एतेषु ममत्वं करोति, अनेन रूपेण जीवः शरीरे-शरीराऽवयवे ममकारम् उत्पादयति, एवं कुर्वतस्तस्य जन्तोः 'वयाउ पडिजाइ' अयप्तः परिजीयते-क्योऽधिकृत्य परिजीर्णतां प्राप्नोति वयसः परिसमाप्ति भवतीति भावः। जीव का दूसरे जीव के साथ कोई संबंध नहीं है और व्यवहार दृष्टि से ऐसा कोई जीव इस संसार में नहीं दिखता जिसके साथ अनन्त अनन्त वार सभी प्रकार के सम्बन्ध न हो चुके हों ! ऐसी स्थिति में किसे क्या कहा जाय।
बुद्धिमान ऐसा भी विचार करे कि ज्ञातिसंयोग तो फिर भी बाहय पदार्थ है, उनसे अधिक भी समीप तो ये हैं, जैसे मेरे हाथ हैं, मेरे चरण हैं, मेरी पाहुएँ हैं, मेरी उरु हैं, मेरा उदर है, मेरा सिर है, मेरा शील है, मेरी आयु है, मेरा बल है, मेरा वर्ण है, मेरी स्वचा है, मेरी कान्ति है, मेरा श्रोत्र (कान) है, मेरे नेत्र हैं, मेरी घाण है, मेरी स्पर्शन इन्द्रिय है, इस प्रकार जीव अपने शरीर में और शरीर के अवयवों में સંબંધ હેતું નથી. અને વ્યવહાર દૃષ્ટિથી એ કઈ જીવ આ સંસારમાં દેખાતું નથી, કે જેની સાથે અનન્ત, અનન્ત વાર બધા જ પ્રકારના સંબંધ થઈ ચૂક્યા ન હોય ? આવી સ્થિતિમાં કોને શું કહી શકાય?
બુદ્ધિશાળી પુરૂષ એ પણ વિચાર કરે કે-જ્ઞાતિ-સંગ તે આમ પણ બહારને પદાર્થ છે, પણ તેનાથી વધારે નજીક તે આ મારા હાથ છે. ५ छ, भा। माई छ, भारी ३-० छे, मा३ २८ छे, मा३ भाथु छे. મારો શીળ છે, મારું આયુષ્ય છે, મારૂં બળ છે, મારો વધ્યું છે, મારી यामडी छे, भारी ति छ, भा२१ न छे, भारी मांछे, भाई नछे. મારી જીભ છે, મારી સ્પર્શન ઇન્દ્રિય છે. આ રીતે જીવ પોતાના શરીરમાં મમત્વભાવ (મારાપણું) ધારણ કરે છે, મારું મારું કરતાં જીવનું સંપૂર્ણ
सू० १६
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