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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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( २ )
निखिलवासनोच्छेदे विगतविषयाकारोपप्लव विशुद्धज्ञानोदयो
महोदय इत्यपरे । तदयुक्तम्, कारणाभावे तदनुपपत्तेः । भावनाप्रचयो हि तस्य कारणमिष्यते, स च स्थिरैकाश्रयाभावाद्विशेषानाधायकः प्रतिक्षणमपूर्ववदुपजायमानो निरन्वयविनाशी लङ्घनाभ्यासवदनासादितप्रकर्षो न स्फुटाभज्ञानजननाय प्रभवतीत्यनुपपत्तिरेव तस्य । समलचित्तक्षणानां स्वाभाविक्याः सदृशारम्भणशक्तेरसदृशारम्भं किश्व पूर्वे
प्रत्यशक्तेश्चाकस्मादनुच्छेदात्,
सब से प्रिय है, उसका विनाश वस्तुतः आत्मा का विनाश ही है, तो अपने सब से अधिक प्रिय वस्तु का नाश करने के लिए कौन बुद्धिमान् प्रवृत्त होगा ? और यह बात भी है कि महोदय का 'मुक्ति' शब्द और 'बन्धविच्छेद' शब्द दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं ।
( २ ) कोई कहते हैं कि सभी वासनाओं के नष्ट हो जाने पर विषयरूप आकार के मालिन्य से रहित ज्ञान की उत्पत्ति ही 'महोदय' है । किन्तु यह पक्ष भी कारण की अनुपपत्ति से अयुक्त है, क्योंकि इस पक्ष के माननेवाले भावना के 'प्रचय' अर्थात् बार-बार होने को इसका कारण मानते हैं । ( किन्तु इस मत में ) सभी वस्तु क्षणिक हैं । वस्तुओं का निरन्वय विनाश उत्पत्ति के द्वितीय क्षण में ही कूदने के अभ्यास की तरह हो जाता है, और दूसरे क्षण में बिलकुल अपूर्व अन्य व्यक्ति की उत्पत्ति होती है | जब पहिले विज्ञान से आगे के विज्ञान में कोई उपकार नहीं पहुँच सकता है तो 'स्फुटाभ' ज्ञान की उत्पत्ति ही नहीं होगी । इस प्रकार इस पक्ष में निर्वाण ही अनुपपन्न हो जाएगा । और भी बात है - 'मल' अर्थात् बन्ध सहित चित्त (ज्ञान)- क्षण अपने उत्तर क्षण में अपने सदृश ही चित्त की उत्पत्ति का कारण हो सकता है, क्योंकि सदृशारम्भकत्व ही उसका स्वभाव है । घटविज्ञान दूसरे घटविज्ञान को ही उत्पन्न कर सकता है, पटविज्ञान को नहीं, नीलघटविज्ञान को भी नहीं । तब घटादि विषयरूप मलसहित विज्ञान अपने से विसदृश शुद्ध ( निर्मल ) विज्ञानरूप मुक्ति का कारण कैसे हो सकता है ? विज्ञान का सदृशारम्भकत्व तो नष्ट नहीं हो सकता । दुसरी बात यह है कि प्रत्येक क्षण अपने स्वभावसिद्ध निर्वाण से १. अभिप्राय यह है कि जैसे कोई अपराधी राजा की आज्ञा से बँध जाता है और उसके उस बन्धन के खुल जाने पर वह मुक्त हो गया" यह व्यवहार होता है । इस व्यवहार के लिए उस आदमी के मरने की आवश्यकता नहीं होती । वह आदमी रहता ही है, उसका बन्धन भर खुल जाता है। वैसे हो 'यह जीव मुक्त हो गया" इस वाक्य का यह अर्थ नहीं है कि वह स्वयं ही नष्ट हो गया । उससे इतनी ही प्रतीति होती है कि उसके मिथ्याज्ञानादि बन्धन खुल गये हैं। इसलिए 'महोदय' शब्द का अर्थ आत्मा से अभिन्न ज्ञान का उच्छेद कदापि नहीं हो सकता ।
२. अभिप्राय यह है कि इस मत में वास्तविक सत्ता ज्ञान की हो है । अन्य घटादि विषय 'संवृति' या अज्ञान से कल्पित हैं ( वेदान्ती लोग जिनको व्यावहारिक सत्ता मानते हैं ) । वास्तविक सत्ताविशिष्ट ज्ञान निर्विकल्पक है । उसमें घटादि विषयों का