Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रमुख चारित्रशिरोमणि सन्मार्गविषाकर आचार्य श्री विमलसागर महाराज की हीरक जयन्ती के शुभावसर पर प्रकाशित सिरि कोंडकुंड आइरिय पणीदो पवयणसारो (प्रवच न सा :) मूलगाया, संस्कृतछाया, श्री अमृतचन्द्रसूरि कृत तत्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका, श्री जयसेनाचार्य कृत तात्पर्यवृत्ति नामक : संस्कृत व्याख्या और स्व० पण्डित श्री अजितकुमार शास्त्री तथा स्व. पं० श्री रतनचन्द मुख्तार के भाषानुवाद से समलंकृत सम्पादक डॉ० श्रेयांसकुमार जैन संस्कृत विभाग, दिगम्बर जैन कालिज, बड़ौत, (उ.प्र.) সাব্বিা श्री भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्-परिषद Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय इस परमाणुयुग में मानव के अस्तित्व की ही नहीं अपितु प्राणिमात्र के अस्तित्व की सुरक्षा की समस्या है। इस समस्या का निदान ‘अहिंसा अमोघ अस्त्र से किया जा सकता है। अहिंसा जैनधर्म संस्कृति की मूल आत्मा है । यही जिनवाणी का सार भी है। तीर्थंकरों के मुख से निकली वाणी को गणधरों ने ग्रहण किया और आचार्यों ने निबद्ध किया जो आज हमें जिनवाणी के रूप में प्राप्त है। इस जिनवाणी का प्रचार-प्रसार इस युग के लिए अत्यन्त उपयोगी है। यही कारण है कि हमारे आराध्य-पूज्य आचार्य, उपाध्याय एवं साधुगण जिनवाणी के स्वाध्याय और प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं। उन्हीं पूज्य आचार्यों में से एक हैं सन्मार्गदिवाकर चारित्रचूड़ामणि परमपूज्य आचार्यवर्य श्री विमलसागर महाराज | जिनकी अमतमयी वाणी प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी है। आचार्यवयं की हमेशा भावना रहती है कि आज के समय में प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का प्रकाशन हो और मन्दिरों में स्वाध्याय हेतु रखे जांए जिसे प्रत्येक थावक पढ़कर मोहरूपी अन्धकार को नष्टकर ज्ञानज्योति जला सके। जैनधर्म की प्रभावना जिनवाणी के प्रचार-प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हो, आर्ष परम्परा की रक्षा हो एवं अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर का शासन निरन्तर अवाधगति से चलता रहे । उक्त भावनाओं को ध्यान में रखकर परमपूज्य ज्ञानदिवाकर, उपाध्यायरल श्री भरतसागर महाराज एवं आर्यिकारत्न स्याद्वादमती माता जी की प्रेरणा व निर्देशन में परमपूज्य आचार्य श्री विमलसागर महाराज के ७४वीं जन्म जयन्तो के अवसर पर ७५वीं जन्म जयन्ती के रूप में मनाने का संकल्प समाज के सम्मुख भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्-परिषद् ने लिया। इस अवसर पर ५५ ग्रन्थों के प्रकाशन की योजना के साथ ही भारत के विभिन्न नगरों में ७५ धार्मिक शिक्षणशिविरों का आयोजन किया जा रहा है और ७५ पाठशालाओं को स्थापना भी की जा रही है। इस ज्ञान यज्ञ में पूर्ण सहयोग करने वाले ७५ विद्वानों का सम्मान एवं ७५ युवा विद्वानों को प्रवचन हेतु तैयार करना तथा ७७७५ युवावर्ग से सप्तव्यसन का त्याग कराना आदि योजनाएं इस हीरकजयन्ती वर्ष में पूर्ण को जा रही हैं। सम्प्रति आचार्यवयं पू० विमलसागर जी महाराज के प्रति देश एवं समाज अत्यन्त कृतज्ञता ज्ञापन करता हुआ उनके चरणों में शत-शत नमोऽस्तु करके दीर्घायु की कामना करता है । ग्रन्थों के प्रकाशन में जिनका अनुल्य निदशन एवं मार्गदर्शन मिला है, वे पूज्य उपाध्याय श्री भरतसागर महाराज एवं अयिका स्याद्वादमति माताजी हैं । उनके लिए मेरा क्रमश: नमोऽस्तु एवं बन्दामि अर्पण है। उन विद्वानों का भी आभारी हूँ जिन्होंने ग्रन्थों के प्रकाशन में अनुवादक/सम्पादक एवं संशोधक के रूप में सहयोग दिया है । ग्रन्थों के प्रकाशन में जिन दातारों ने अर्थ का सह्योग करके अपनी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग करके पुण्यार्जन किया, उनको धन्यवाद करता है । ये ग्रन्थ विभिन्न प्रेसों में प्रकाशित हुए एतदर्य उन प्रेस संचालकों को जिन्होंने बड़ी तत्परता से प्रकाशन का कार्य किया वे धन्यवादाह हैं । अन्त में उन सभी सहयोगियों का भी आभारी हूँ, जिन्होंने प्रत्यक्ष-परोक्ष में सहयोग प्रदान किया है। ब्र०५०धर्मचन्द्र शास्त्री अध्यक्ष भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प "णाणं पयास" सम्यग्ज्ञान का प्रचार-प्रसार केवलज्ञान का बीज है। आज कलयुग में ज्ञान प्राप्ति की तो होड़ लगी है। पदवियों और उपाधियां जीवन का सर्वस्व बन चुकी हैं परन्तु सम्यग्ज्ञान की ओर मनुष्यों का लक्ष्य ही नहीं है। जीवन में मात्र ज्ञान नहीं, सम्यग्ज्ञान अपेक्षित है । आज तथाकथित अनेक विद्वान अपनी मनगढन्त बातों की पुष्टि पूर्वोचार्यों की मोहर लगाकर कर रहे हैं ऊटपटांग लेखनियां सत्य की श्रेणी में स्थापित की जा रही है, कारण पूर्वाचार्य प्रणोत ग्रन्थ आज सहज सुलभ नहीं हैं और उनके प्रकाशन व पठन-पाठन की जैसी और जितनी रूचि अपेक्षित है, वैसी और उत्तनी दिखाई नहीं देती। असत्य को हटाने के लिए पर्चेबाजी करने या विशाल समाओं में प्रस्ताव पारित करने मात्र से कार्य सिद्धि होना अशक्य है। सत्साहित्य का जितना अधिक प्रकाशन व पठन-पाठन प्रारम्भ होगा, असत् का पलायन होगा। अपनी संस्कृति की रक्षा के लिये आज सत्साहित्य के प्रचुर प्रकाशन की महती आवश्यकता है येनैते विवलन्ति वादिगिरयः स्तुष्यन्ति वागीश्वरः भव्या येन विदन्ति निसिपदं मुञ्चन्ति मोहं बुधाः । यद् बन्धर्यमिनां यदक्षयसुखस्याधारभूतं मतं, तल्लोकजयशुद्विवं जिनवचः पुष्यान् विवेकश्रियम् ।। सन् १६०४ से मेरे मस्तिष्क में यह योजना बन रही थी परन्तु तथ्य यह है कि "संकल्प के बिना सिद्धि नहीं मिलती।" सन्मार्गदिवाकर आचार्य १०८ श्री विमलसागर . जी महाराज की होरक-जयन्ती के मांगलिक अवसर पर माँ जिनवाणी की सेवा का पह संकल्प मैने प० पू० गुरुदेव आचार्यश्री व उपाध्यायश्री के चरणसानिध्य में लिया। आचार्यश्री व उपाध्यायश्री का मुझे भरपूर आशीर्वाद प्राप्त हुआ। फलतः इस कार्य में काफी हद तक सफलता मिली है। इस महान कार्य में विशेष सहयोगी पं० धर्मचन्द शास्त्री व प्रभा पाटनी रहे। इन्हें व प्रत्यक्ष-परोक्ष में कार्यरत सभी कार्यकर्तामों के लिये मेरा आशीर्वाद है। पूज्य गुरूदेव के पावन घरण-कमलों में सिद्ध-श्रुत-आचार्य भक्तिपूर्वक नमोस्तनमोस्तु-नमोस्तु । -आयिका स्याद्वादमती Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना चतुर्थ काल में जब ३ वर्ष ८ माह १५ दिन शेष रह गये थे, तब अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान् कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन निर्वाण को प्राप्त हुए, उनके पश्चात् ६२ वर्ष में श्री गौतमस्वामी, श्री सुधर्माचार्य और श्री जम्बूस्वामी ये तीन अनुबद्धकेवली हुए । तत्पश्चात् १०० वर्ष में श्री विष्णु, श्री नदिमित्र श्री अपराजित, श्री गोवर्धन, श्री भद्रबाहु ये पांच अनुवद्ध श्रुतकेवली हुए । अनन्तर १५१ वर्ष में श्री विशाखाचार्य श्री प्रोष्ठिल, श्री क्षत्रिय, श्री जयसेन, श्री नागसेन, श्री सिद्धार्थ, श्री धृतिषेण, श्री विजय, श्री बुद्धिलिंग, श्रीदेव, श्री धर्मसेन ये ११ आचार्य दस पूर्वधारी हुए। इसके पश्चात् १२३ वर्ष में श्री नक्षत्र, श्री जयपाल, श्री पांडव, श्री ध्रुवसेन, श्री कंस ये पाच आचार्य ग्यारह अंगधारी हुए। इसके पश्चात् ६६ वर्ष में श्री सुभद्र, श्री यशोभद्र, श्री भद्रवाह, श्री लोहाचार्य ये चार आचार्य दस, नत्र अथवा आठ अंगधारी हुए। इसके पश्चात् ११८ वर्ष में श्री जो एक अंगधारी अलि, श्री माघनन्दि, श्री धरसेन, श्री पुष्पदन्त, श्री भूतबलि ये पांच आचार्य हुए थे अथवा अंगों और पूर्वी के एक देश ज्ञाता थे। इस प्रकार श्री महावीर भगवान् के पश्चात् भी ६८३ वर्ष तक अंग का ज्ञान रहा । ! श्री धरसेन आचार्य के शिष्य श्री पुष्पदन्त और भूतबलि ने 'षट्खण्डागम' की रचना कर लिपिवद्ध किया और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन इस ग्रन्थराज की पूजा हुई, इसलिये ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी आज भी श्रुतपंचमी के नाम से प्रसिद्ध है । इस षट्खण्डागम में श्री गौतम गणधर रचित सूत्रों का भी संकलन है 1 (१) जीवट्ठाण, (२) खुद्दाबन्ध, (३) बंधस्वामित्वविचय, (४) वेदना, (५) वर्गणा, (६) महाबंध ये षट्खण्डागम के छह खण्ड हैं। इस षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्ड पर श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने बारह हजार श्लोक प्रमाण परिकर्म टीका रची थी। ज्ञान प्रवाद पूर्व को दसवीं वस्तु के तीसरे कषाय प्राभृत का ज्ञान श्री गुणधर आचार्य को था, जिन्होंने तीर्थ- विच्छेद के भय से कसायपाहुड को १८० गाथाओं द्वारा रचना की है। जिसमें कपायों को विविध दशाओं का वर्णन करके उनके दूर करने का मार्ग बतलाया है और यह भी प्रगट किया है कि किस कषाय के दूर होने से कौनसा आत्मिकगुण प्रगट होता है । कसा पाहुड की ये गाथाएं आचार्य परम्परा से आचार्यों को प्राप्त हुई । पुनः उन दोनों ही आचार्यों के आती हुई श्री आर्यमक्षु और श्री नागहस्ती पादमूल में बैठकर उनके द्वारा गुणधराचार्य १ धवल पु० १ प्रस्तावना पृ० २२-९३ ॥ २ - एवं द्विविधो द्रव्यभाव पुस्तकगता । गुरूपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तकुन्दकुन्दपुरे ॥ १६० ।। श्री पदमनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादस सहस्र परिमाणः । ग्रन्थ परिक्रमं कर्त्रा षट्खण्डाय विखण्डस्य ||६१॥ (इन्द्रनन्दितवतारः ) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मुखकमल से निकली हुई उन १८० गाथाओं के अर्थ को भले प्रकार श्रवण कर प्रवचन के वात्सल्य से प्रेरित होकर श्री यतिवृषभाचार्य ने उन पर छह हजार श्लोक प्रमाण चूणीसूत्र की रचना की। दिगम्बर परम्परा में जो आचार्य श्रुतप्रतिष्ठापक के रूप में हुए उनमें श्री गुणधर आचार्य और श्री धरसेन आचार्य प्रधान हैं, क्योंकि आचार्य धरसेन को द्वितीय पूर्वगत पेज्जदोसपाहुड का ज्ञान प्राप्त था और श्री गुणधर आचार्य को पूर्वगत पेज्जदोसपाहुड का ज्ञान प्राप्त था । दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यतानुसार षटखण्डागम और कषायप्राभूत ही ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका सोधा सम्बन्ध श्री महावीरस्वामी की द्वादशांगवाणी से है। ये ग्रन्थराज दक्षिण में सुरक्षित थे और जो दक्षिण की यात्रा को जाते थे उनको इन ग्रन्थराजों के मात्र दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता था। श्री पं० टोडरमल जी जैसे विद्वान् को इनके दर्शन तक भी प्राप्त न हो सके, किन्तु हर्ष की बात है कि इन मन्थराज का प्रकाशन हिन्दी अनुवाद सहित श्रावकाश्रम सोलापुर तथा वीरशासन संघ कलकत्ता से हो चुका है। श्री वीरसेन महान् आचार्य हुए हैं, जिन्होंने करणानुयोग को भी तर्क की कसौटी पर लगाया है। उन्होंने बखण्डागद में पांच खण्की पर ७२ हजार श्लोक प्रमाण और कषायप्राभूत की चार विभक्तियों पर २० हजार श्लोक प्रमाण टीका रची। शेष कषायप्राभत पर उनके शिष्य श्री जयसेन आचार्य ने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसको पूर्ण किया। षट्खण्डागम की टीका का नाम धवल है जो हिन्दी अनुवाद सहित १६ भागों में प्रकाशित हो चुकी है। कषायप्राभृत की टीका का नाम जयधवल है जिसके सम्पूर्ण सोलह भाग प्रकाशित हो चुके हैं 1 षट्खण्डागम का छटवां खण्ड महाबंध भी सात भागों में ज्ञानपीठ नामक संस्था से प्रकाशित हो चुका है। यद्यपि इन ग्रन्थों का प्रकाशन सन् १६३६ से प्रारम्भ हो गया था, परन्तु बहुत कम व्यक्ति सूक्ष्मदृष्टि से इनका अध्ययन कर सके । श्री शांतिसागर आचार्य की परम्परा में आचार्य श्री शिवसागर, आचार्य धर्मसागर के संघ के आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी आदि मुनि तथा आर्यिका विशुद्धमति जी आदि आर्यिकाओं ने इन ग्रन्थराज का अध्ययन बड़ी लगन और निष्ठा से किया और इन्हीं ने बंध-स्वामित्व विचय तीसरे खण्ड में अनेकों संशोधन प्रस्तुत किये हैं, जिनको अनुवादक विद्वानों ने भी सहर्ष स्वीकार किया है। यहां यह शंका हो सकती है कि सर्वत्र इन महान् ग्रन्थों की स्वाध्याय क्यों नहीं हुई ? तो इसके समाधान में यह कहना अनुचित होगा कि इन ग्रन्थराज का विषय बहुत गहन है, क्योंकि इनका सीधा सम्बन्ध श्री महावीर स्वामी की द्वादशांग वाणी से है। यदि इन ग्रन्थराजों का अध्ययन सर्वत्र हो जाता तो नवीन सम्प्रदायों का कोई स्थान न रहता, क्योंकि इनमें सात तत्त्वों का इतना सूक्ष्म व विशद विवेचन है कि अन्यथा कल्पना हो नहीं सकती। ___श्री गुणधर, श्री धरसेन, श्री पुष्पदन्त, श्री भुतबलि के पश्चात् श्री कुन्दकुन्द आचार्य हुए हैं, उस समय अंग या अंग व पूर्व के एक देश का ज्ञान लुप्त हो चुका था। श्री कुन्दकुन्द आचार्य का वास्तविक नाम श्री पद्मनन्दि था। किन्तु जन्मभूमि के कारण वे कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्ध हए । उनके ससय के विषय में विद्वानों में मतभेद है। अतः उनके समय का यथार्थ निर्णय नहीं किया जा सकता, फिर भी षटम्बण्डागम की टीका श्री कुन्दकुन्द आचार्य द्वारा रची गई इससे यह प्रतीत होता है कि उनका काल ईसवी को दूसरी शताब्दी का पश्चिम भाग है । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भिन्न-भिन्न विषयों पर अनेकों ग्रन्थों की रचना की थी, उनमें से एक प्रवचनसार भी है । इसमें तीन अधिकार हैं (१) ज्ञानाधिकार, (२) दर्शनाधिकार अथवा शेयाधिकार, (३) चारित्राधिकार। इनमें से प्रथम अधिकार में १०१ गाथा हैं । धीमत् जयसेन तथा श्री प्रभाचन्द्र आचार्य ने तो १०१ गाथाओं पर टीका रची है किन्तु श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने इनमें से मात्र ६२ गाथाओं पर टीका रची है। जिस प्रकार श्री गौतमगणधर ने व्यवहारनय का आश्रय लेकर चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में मंगल किया है, उसी प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी व्यवहारनय का आश्रय लेकर प्रथम पांच गाथाओं द्वारा प्रवचनसार के आदि में मंगल किया है। यदि कहा जाय कि व्यवहारनय असत्य है तो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है। अत: जो व्यवहारनय बहुत जीवों का अनुग्रह करने वाला है, उसी का आश्रय करना चाहिये । ऐसा मन में निश्चय करके श्री गौतम स्थविर ने चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में मंगल किया है। धो गोतमगणधर का अनुसरण करते हुए श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी मंगल किया है। गाथा ६ में बतलाया हैं कि सम्यक्-चारित्र के फ र स्वरूप स्वादि के वैभव के साथ-साथ मोक्ष भी मिलता है । गाथा ७ में बारित्र को धर्म बतलाते हुए स्वरूपाचरण का लक्षण बतलाया है। गाथा ८व में बतलाया है कि द्रव्य जिस समय जिस पर्याय से परिणत होता है उस समय उस पर्याय से तन्मय हो जाता है। इसलिये जिस समय आत्मा शुभभाव से परिणत होता है उस समय आत्मा शुभ है। जिस समय आत्मा अशुभभाव या शुद्ध भाव से परिणत होता है उस समय आत्मा अशुभ या शुद्ध है । गाथा १० में बतलाया कि परिणाम के बिना द्रव्य नहीं और द्रव्य के बिना परिणाम नहीं है। गाथा ११-१३ तीनों उपयोग के फल का कथन है। गाथा १४ में शुद्धोपयोग का लक्षण । इस प्रकार इन. १४ गाथाओं में पीठका समाप्त हुई। माथा १५-२० सवा द्वि, गाथा २१ से ५२ तक ज्ञान का सविस्तार कथन है। गाथा ४५ में बतलाया है कि अरहंत पद पुण्य का फल है जिससे पुण्य की सर्थकता सिद्ध होती है। गाथा ५२-६८ सुख का सविस्तार कथन करते हुए बतलाया है कि ज्ञान के साथ सुख का अबिनाभावी सम्बद्ध है इसलिये इन्द्रिय जनित ज्ञानी के इन्द्रिय जनित सुख होता और अतीन्द्रियज्ञानी अर्थात् केवली के ही अतीन्द्रियसुख होता है। इन्द्रियज्ञान इन्द्रियसुख का कारण होने से हेय है उसी प्रकार गुभोपयोग भी इन्द्रियसुख का कारण होने से हेय है। उस शुभोपयोग का कथन गाथा ६६ से ७६ तक है। गाथा ८०-६२ में मोह को जीतने का उपाय बतलाया है किन्तु गाथा ८३-८५ में राग द्वेष मोह का कथन है। (१) "व्यवहारणयं पञ्च पुण गोदम सामिणा नदुनीसहमणि योगदाराणमादीए मंगल कदं ।' (२) "ण व ववहारणओ चप्पलओ, तत्तो सिसाण पउत्ति दसणादो जो बहुजीवाणुगहकारी बबहारणी सो चैब समाश्मिसम्मोति मणेणावहारिय गोदमधरेण मंगल तत्थ कयं ।' (जयधवल पु. १ पृ.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • दूसरे अधिकार में सम्यग्दर्शन के विषयभूत छहों द्रव्यों का अथवा ज्ञान के विषयभूत ज्ञेयों का ११३ गाथाओं द्वारा कथन है। इनमें से मात्र १०८ गाथाओं पर श्री अमृतचन्द्र आचार्य की टीका है । गाथा १३ से १२६ तक ज्ञेयों का सामान्य कथन है। गाथा ६३ में बतलाया है कि द्रव्य गुण पर्यायात्मक अर्थ है । जो पर्यायविमूढ है, वह मिथ्यादृष्टि है। जो निश्चयाभासी है, आत्मा को सर्वथा शुद्धबुद्ध मानकर अशुद्ध अवस्था को स्वीकार नहीं करता वह पर्यायविमूढ है, क्योंकि आत्मा मसात दशा में समुद्र अनरणा से लाल हो रहा है। जिस व्यवहाराभासी की द्रव्य पर दृष्टि नहीं है मात्र पर्याय पर दृष्टि है वह भी पर्यायविमूढ़ है। गाथा ६४-११३ द्रव्य के सत् उत्पाद-व्ययधौव्य गुण-पर्याय ये तीन लक्षण बतलाये हैं। स्वरूप अस्तित्व (अवान्तरसत्ता) और सदृश्य-अस्तित्व (महासत्ता) का कथन है। अतद्भाव और पृथक्त्व का अन्तर बतलाया है। कचित् सत् का कथंचित् असत् का उत्पाद है । गाथा ११४-११५ में द्रव्याथिकनय तथा पर्यायायिकनय के विषयों का और सप्तभंगी का कथन है । गाथा ११७-११८ में बतलाया है कि नाम कर्म जीव के स्वभाव का पराभव करके जीव को मनुष्यादि पर्याय रूप करता है। गाथा १२२ में बतलाया है कि जीव और पुगल किस नय से किन भावों के कर्ता हैं । गाथा १२३-१२६ में ज्ञानचेतना, कर्मचेतना कर्मफलचेतना का कथन है। गाथा १२७ से १४४ तक द्रव्य-विशेष का कथन है। चेतन-अचेतन, क्रियाशील-निःक्रिय, मूर्त अमूर्त, प्रदेशत्व-अप्रदेशत्व की अपेक्षा द्रव्यों का कथन है। गाथा १४५.-२०० तक जीवद्रव्य का विशेष कथन है। जीव के द्रव्यप्राणों, ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोग, शुभ-अशुभ शुद्धोपयोग का कथन है। पुद्गल परमाणुओं का परस्पर में बंध, जीव के साथ कर्म व नोकर्म का बंध तथा बंध से छूटने का कथन है । तीसरा मूल अधिकार चरणानुयोगचूलिका है। इसमें ६६ गाथा है किन्तु श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने मात्र ७५ गाथाओं पर टीका रची है। संयम ग्रहण करने के योग्य कौन है ? ये ११ गाथा हैं और चारित्राधिकार का यह एक मुख्य विषय है किन्तु श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने इन गाथाओं की टोका क्यों नहीं लिखी यह एक विचारणीय विषय है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य के काल में ही श्वेताम्बर और दिगम्बर ऐसे दो सम्प्रदाय बन गये थे । दिगम्बरेतर सम्प्रदाय में स्त्रीमुक्ति तथा 'शूदमुक्ति का कथन है जिसका खंडन श्री कुंदकंद आचार्य ने इन ११ गाथाओं में किया है। __इस तीसरे अधिकार की गाथा २०१ में यह बतलाया है यदि जीव संसार दुःखों से छूटना चाहता है तो उसको मुनिधर्म अवश्य अंगीकार करना चाहिये, क्योंकि मुनिधर्म के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय संसार दुःखों से छुटने का नहीं है। उसके पश्चात् यतिधर्म का कथन है । गाथा २११ में अंतरंग-बहिरंगछेद का कथन है, गाथा - १५ सूक्ष्म पर द्रव्य का सम्बन्ध भी छेद का कारण है और ऐसा बतलाया गया है। बहिरंगपरिग्रह के सद्भाव में अंतरंग-परिग्रह-त्याग का अभाव होता है (गाथा २२०) गाथा २२४ । १-६ में स्त्रीमुक्ति का निषेध है। गाथा २२४ । १०-११ में दीक्षा के योग्य पुरुष का और माथा २३० ब २३१ में उत्सर्ग ब अपवाद की मैत्री का कथन है। गाथा २३२-२३५ में बतलाया है कि आगमाभ्यास के बिना मोक्षमार्य नहीं है । सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की युगपत्ता के साथ वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूप आत्मज्ञान भी मोक्षमार्ग के लिये Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक है। ऐसा ज्ञानी ही क्षण मात्र में गुप्ति के द्वारा कर्मों को काट डालता है जिसको निर्विकल्प-समाधि रूप आत्मज्ञान से रहित अज्ञानी जीव उन कर्मों को करोड़ों जन्मों में भी नहीं काट सकता (गाथा २३६-२३६) इसलिये पं० दौलतराम जी ने छह ढाला में कहा है कोटि जन्म तप तपें ज्ञान विन कर्म झरे जे । ज्ञानी के छिनमांहि त्रिगुप्ति ते सहज टरें वे ॥ गाथा २४०-२४४ में कर्मों के क्षय करने वाले मुनि का कथन है। गाथा २४५ से शुभोपयोग का कथन है । गाथा २५१ में उपकार का उपदेश देकर यह बतलाया है कि एक जीव दूसरे का उपकार कर सकता है। गाथा २५४ में बतलाया है कि शुभोपयोग गृहस्थ को निर्वाण सौख्य का कारण है। एक ही बीज से भूमि की विचित्रता से फल में विचित्रता होती है। (गाथा २५५)। गाथा २६० में बतलाया है कि शुद्धोपयोगी व शुभोपयोगी मुनि लोगों को पार कर देते हैं। गाथा २६४- २६६ श्रमण में दुषण के कारणों का कथन है। गाथा २७० में बतलाया है कि संमति का प्रभाव पड़ता है अर्थात् एक द्रव्य की पर्याय का दूसरे द्रव्य की पर्याय पर प्रभाव पड़ता है। गाथा २७१ से २७५ तक संसार आदि पाँच तत्वों का कथन है। इस प्रकार प्रवचनसार का प्रतिपाद्य विषय है। जब ज्ञान का इतना ह्रास हो गया कि श्री कुंदकर याच विरगिल मामाओं का यथार्थ अभिप्राय समझने में कठिनाई होने लगी तो श्री अमृत चन्द्र आचार्य ने संक्षेप रूप में तत्त्वप्रदीपिका टीका मूह संस्कृत भाषा में रची। जब ज्ञान और कम हो गया जिससे बहुत से विषय विवादास्पद बन गये तब श्री जयसेन आचार्य ने तात्पर्यवृत्तिःटीका सरल संस्कृत भाषा में रची और विवादास्पद विषयों का स्पष्टीकरण किया। श्री जयसेन आचार्य विरचित टीका में जो विशेष कथन है उसमें से कुछ निम्न प्रकार है (१) गाथा ६ में चारित्र-दर्शन-ज्ञान का फल 'देवासुरमनुराजविभव' बतलाया है। इस पर यह शंका हुई कि असुरकुमारों में सम्यग्दृष्टि कैसे उत्पन्न हो सकता है, अत: सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का फल असुरेन्द्र का वैभव नहीं हो सकता ? श्री जयसेन आचार्य ने इसका समाधान बहुत ही सुन्दर किया है। निदान बंध के द्वारा सम्यक्त्व को बिराधना करके असुरेन्द्र हो सकता है। (२) गाथा ८ में दो धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है। श्री जयसेन आचार्य ने निश्चय और व्यवहार, धर्म के दो भेद करके उनका स्वरूप बतलाया है। (३) गाथा को टीका में गुणस्थानों की अपेक्षा अशुभ, शुभ व शुद्ध भावों का कथन है। (४) गाथा ११ की टीका में शुभोपयोग और शुद्धोपयोग के नामांतर देकर शुभोपयोग और शुद्धोपयोग के स्वरूप को सरल बना दिया है। (५) गाथा १८ को टीका में यह बतलाकर कि "जैसे-जैसे ज्ञेय पदार्थों में उत्पाद व्यय-प्रौव्य होता है। वैसे-वैसे ही केवलज्ञान में परिच्छित अपेक्षा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होता है। इससे केवलज्ञान के विषय को बहुत सष्ट कर दिया है। (६) अभव्य शब्द से सर्वथा अभब्य न ग्रहण करना किन्तु वर्तमान में सम्यक्त्व को अभिव्यक्ति नहीं है ऐसा अर्थ ग्रहण करना (गाथा ६२ को टीका)। इससे श्री कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रन्थों में अभव्य शब्द का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) अनुकम्पा सम्यग्दर्शन का लक्षण है।' स्वयं श्री कुंदकुंद आचार्य ने बोधपाहुड में बतलाया है कि धर्म विशुद्ध अर्थात् निर्मल होता है। भावपाहुड में मुनि को छह काय के जीवों की दया करने का उपदेश दिया है, तथा जो मुनि करुणाभाव से संयुक्त है वह समस्त पापों का नाप करता है ऐसा कहा है, शीलपाहुड़ में कहा है कि जीव-दया शील का परिवार है। और रयणसार में दया को प्रशस्तधर्म बतलाया है। फिर वे ही श्री कुंदकंद आचार्य प्रवचनसार गाथा २५ में करुणाभाव को मोह का चिह्न कैसे कह सकते थे? इस गुत्थी को सुलझाने के लिये श्री जयसेन आचार्य ने 'करुणाभाव' की करुणा-अभात्र ऐसा सन्धि विच्छेद करके यह बतलाया कि करुणा का अभाव मोह का चिह्न है। करुणा जीव का स्वभाव है उसे कर्म जनित मानने में विरोध आता है, किन्तु अकरुणा (करुणा का अभाव) संयम घाती (चारित्रमोहनीयकर्म) का फल (चिह्न) है 10 (८) ज्ञानी और अज्ञानी से अभिप्राय प्रायः सम्यग्दृष्टि से लिया जाता है, श्री जयसेन आचार्य ने गाथा २३८ में बतलाया कि “जो वीतरागसमाधि में स्थित है वह आत्मज्ञानी है और जो निर्विकल्पसमाधि से रहित है वह अज्ञानी है।" यदि अज्ञानी का अर्थ मिथ्यादृष्टि लिया जाय तो मिथ्यादृष्टि के तो कर्मों की अविपाकनिर्जरा होती नहीं है। अतः मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा यह नहीं कहा जा सकता कि अज्ञानी जिन कर्मों को सहस्र कोटि वर्ष में खपाता है ज्ञानी उनको क्षणमात्र में क्षय कर देता है । यह कथन निर्विकल्पसमाधि की अपेक्षा ही सम्भव है। (६) गाथा २५४ की टीका में बतलाया है कि गृहस्थ के निश्चयधर्म संभव नहीं है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि चतुर्श गुणस्थान में निश्चयसम्यक्त्व नहीं होता है । क्योंकि गाथा १४४ की टीका में बतलाया है कि निश्चयसम्यग्दर्शन वीतरागचारित्र का अविनाभावी है। (१०) गाथा २५५ में बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि का शुभोपभोग मात्र पुण्य बंध का कारण नहीं है किन्तु परम्परा मोक्ष का कारण भी है। इसी प्रकार अन्य भो बहुत ऐसे स्थल हैं जहाँ पर श्री जयसेन आचार्य ने विषयों को स्पष्ट किया है कलेवर बढ़ जाने के भय से उनको यहीं पर नहीं दिया जा रहा है स्वाध्याय करने से वे स्थल स्वयं ध्यान में आ जायेंगे। सहारनपुर म रतनचन्द मुख्तार दीरनिर्वाण दिवस सम्वत् २४६४ १--प्रशम संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्ति लक्षणं सम्थक्त्वम् । (धवल पु० १०, पृ० ११५१) २-"धम्मो दयाविसुओ" (बोधपाहुर गा० २५) ३-छज्जीत्र सडायदणं" (भावपाहुड गा० १३२) ४.-"जे करुणा भावसंजुत्ता ते सध्धदरिय खंभ हणंति" (भावपाड मा० १५७) ५-"जीवदया सील्लस्स वरिवारो" (शीलपाहुट गाथा १६) ६-"दयाइ सद्धम्मे" (रयणसार गाथा ६५) ७-"करुणाजीव सहावस्स कम्मणिदत्तविरोहादो। अकरुणा कारण कम्म तवं ? ण एस दोसो, संजमघादि कम्माणं फलभावेण तिस्से अम्भुबगमादो।" (धजल १३ पृ० २६२) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय आध्यात्मिक जगत् में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का स्थान सर्वोपरि है, जिनके आध्यात्मिक चिन्तन की अखण्ड ज्योति से भारत को ही नहीं अपितु समस्त संसार को आलोक प्राप्त हुआ है । अध्यात्म के प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्दकुन्द महान् पक्तित्व हैं इन्होंने अध्यात्म के क्षेत्र में एक सुनिश्चित वैज्ञानिक प्रक्रिया प्रदान की है, जिससे जीवन की जटिल समस्याओं को सुलझाने, आत्मशक्तिओं को विकसित करने, सांसारिक संतापों से मुक्त ह.ने, यथार्थ आत्मिक सुख पाने में पूर्ण सहायता प्राप्त ह तो है। इसीलिए भगवान महावीर, गौतमगणधर के साथ-साथ आचार्य कुन्दकुन्द को भी मंगल स्वरूप माना गया है। ___ आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा ही प्रामाणिक मानी गयी है जितने भी बिम्ब प्रतिष्ठित होते हैं उन पर “कुन्दकुन्दान्वये" लिखा जाता है। निग्रन्थ दिगम्बर मुनि परम्परा कुन्दकुन्दान्वयी होने से गौरवास्पद है । महनीय व्यक्तित्व और कृतित्व काले कुन्दकुन्द के विषय में जितना भी जाना जा सफे, आत्मतोष के लिए अत्यल्प हो है। दिव्यजान प्राप्त श्री कुन्दकुन्ददेव ने अपना परिचय देश, काल, कुल आदि की दृष्टि से अनावश्यक ममझकर नहीं दिया है मात्र गुरुभक्ति वश बोधपाहुह के अन्त में अपने गुरु के रूप में मद्रवाहु का स्मरण किया है। श्री जयसेनाचार्य ने पञ्चास्तिकाय को तात्पर्यवृत्ति में श्री कुन्दकुन्द स्वामी के गुरु का नाम कुम रनन्दि मिद्धान्तिदेव उल्लिखित किया है तथा नन्दिसंघ की पट्टावली में उन्हें जिनचन्द्र का शिष्य कहा गया है। संभवतः दोनों ही गुरु रहे हैं इनमें एक शिक्षागुरु और दूसरे दीक्षा गुरु भी हो सकते हैं, कौन शिक्षा गुरु थे तथा कौन दीक्षा गुरु थे इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । गम नामों के अतिरिक्त कुन्दकुन्द स्वामी के विदेहक्षेत्र में सीमंधरस्वामी के समवशरण में पहुंचने का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त जीवन-परिचय के विषय में विशेष विवरण विविध पट्टावलियों, शिलालेखों आदि से प्राप्त होता है, किन्तु कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा लिखित परिचयात्मक विवरण सर्वथा अनुपलब्ध है । इनका कृतित्व हो सार्वभौम परिचय है 1 इन्होंने ८४ पाहड़ों की रचना की थी किन्तु सभी उपलब्ध नहीं हैं सम्प्रति समुपलब्ध कृतियाँ--समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, वारस अणुवेक्खा दसणपाहुष्ट लिंगपाहुड, कीलपाहुड, सिद्धभक्ति श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिक्ति, आचार्यभक्ति, निर्वाणभक्ति, पञ्चगुरुभक्ति, थोस्मामि थुदि है । इन रचनाओं को सभी मनीषी श्री कुन्दकुन्द स्वामी की स्वीकार करते हैं। इनके अतिरिक्त मूलाचार और तिरुक्कुरल काव्य ग्रन्थ भी कुन्दकुन्द द्वारा लिखित बहे जाते हैं, जिनके विषय में विद्वान् एकमत नहीं है। यह भी बहुप्रचलित है कि पटखण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर परिकर्म नामक टीका इन्हीं ने लिखी थी, जो उपलब्ध नहीं है। सभी कृतियां वस्तुतत्व का निरूपण कराने वालो हैं, भाषा, भाव और वयं विषय की गम्भीरता लिये हुए हैं। सभी ग्रन्थों की रचना कुन्दकुदाचार्य ने जनशौरसेनी में १. मगल भगवदो वीरोमगल गादमा गगी । मगस कारदार जेण्ह धम्मोत्यु मंगलं ।। २. बोधपाहुइ ६१-६२ । ३. दांनसार ४३ 1 ४. असामान्य प्रतिभा के धनी कुन्दकुन्द का जन्म आन्ध्र प्रान्तान्तगत कुन्दकुन्दपुग्म में सा पूर्व १०८ में में हुआ था, उन्होनं ११ वर्ष की अल्प आयु में ही श्रमण मुनिदीक्षा ली थी तया ३३ वर्ष तक मुनिपद पर प्रतिष्ठिता रखकर ज्ञात और चारित्र की सतत माधना की। १ वर्ष की आयु में (ई.पु. ६४) चतुर्विध मंघ ने उन्हें आचार्य पद पर निष्ठित किया। वे ५१ वर्ष १० मास १५ दिन इस पद पर विराजमान रहे उन्होंने ६५ वर्ष १० माह १५ दिन की नाय प्राप्त फर ई०पू० १२ में समाधिमरण धारण कर स्वर्गप्राप्ति की। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ही की है, इनकी भाषा में मागधी और महाराष्ट्री प्राकृत के शब्दों का भी प्रयोग प्राप्त होता है, जिससे स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द भाषा की संकीर्णता से दूर थे। आचार्य कुन्दकुन्द रचित सभी. रचनाएँ श्रेष्ठ हैं किन्तु उनमें प्रवचनसार (पबयणसार) श्रेष्ठतम है क्योंकि इसमें निष्क्रियवृत्ति से छुड़ाकर कल्याणपथ पर बढ़ने के लिए प्रेरित किया है। बार. बार चारित्र को अंगीकार करने की प्रेरणा दी है ! दीक्षार्थी और दीक्षा देने वाले को महनीयता का दर्शाया है। दुःखों से विमुक्ति के लिए मोहरागद्वेष से दूर रहने के लिए अनेकों बार सम्बोधित किया है। धमणों को श्रमणधर्म के पूर्ण नियमों की परिपालना करने के लिए प्रेरणा देते हुए सांसारिक कार्यों में प्रवृत्ति करने से रोका है। जिन कार्यों से रागद्वेष बढ़ता है ऐसे कार्यों से सतत् सावधान रहने का आदेश दिया है । आत्मकल्याण का परमसाधक होने से यह मन्थराज उपादेय है। कल्याणकारी है। इसीलिए अनेकों संस्थाओं के माध्यम से इसके अनेकों संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसी शृंखला में आचार्य श्री अमृतचन्द्र कृत तत्त्वदीपिका और आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति उभय संस्क्रत टीकाओं का भाषानवाद स्व. पं. अजितकमार शास्त्री तथा स्व. पं. रतनचन्द मस्तार द्वारा अमदित प्रवचनसार के दो संस्करण श्री शान्तिवीर दि. जैन ग्रन्थमाला श्री महावीर जी ने प्रकाशित किये हैं। उभय टीकाओं के भाषानुवाद से समलंकृत ग्रन्थ से स्वाध्यायियों को अधिक लाभ मिला, जिससे ग्रन्थ की मांग बढ़ी। स्वाध्यायशील महानुभावों को अभिरुचि और मांग को देखते हुए उपाध्यायरल १०८ श्री भरतसागर महाराज और आर्यिका १०५ श्री स्याद्वादमती माता जी ने परमपूज्य वात्सल्यमूर्ति आचार्य १०८ श्री विमलसागर महाराज की हीरकजयन्ती के शुभावसर पर प्रकाशित होने वाले ७५ ग्रन्थों के अन्तर्गत उभय टीका भाषानुवाद समलंकृत प्रवचनसार को प्रकाषित करने का निर्णय लिया। इसके संशोधन/सम्पादन का उत्तरदायित्व मुझे सौंपा। मैंने आत्मकल्याण के साधक ग्रन्थराज के स्वाध्याय मनन चिन्तन को उपादेय मानते हुए उपाध्याय श्री भरतसागर महाराज और आयिका स्याद्वादमती जी के आदेश एवं प्रेरणा को सहर्ष स्वीकार किया। इसमें आचार्य अमृतचन्द्र ने गाथाओं में जो पाठ लिये हैं, आचार्य जयसेन ने उनसे भिन्न पाठ भी ग्रहण किये हैं, मैंने पाठान्तरों को पादटिप्पण के रूप में प्रस्तुत किया है। हिन्दी टीका एवं भावार्थ में आये हुए उद्धरणों के सन्दर्भ दिए गये हैं । यथासम्भव नन्थ को परिमार्जित रूप में प्रकाशित कराया गया है । मुझे आशा एवं पूर्ण विश्वास है, यह ग्रन्ध स्वाध्यायी महानुभावों को अत्यधिक उपादेय होगा । मुनिराजों त्यांगीव्रती श्रावकजनों को पूर्ण चारित्रनिष्ठ बनाने तथा आत्मकल्याण के लिए साधक होगा। परमपूज्य आचार्य श्री विमलसागर महाराज, उपाध्याय श्री भरतसागर महाराज के चरणों में नमोऽस्तु । आर्यिका स्याद्वादमती माता जी को वदामि । ब्र० पं० धर्मचन्द शास्त्री, ब्र० बहिन प्रभा पाटनी के प्रति आभार । प्रकाशन के निमित्त अर्थ सहयोगी दातारों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता हुआ पुन: कामना करता हूँ, ग्रन्धराज स्वाध्यायी जनों को आत्मसाधना का निमित्त बने । जिनोपासक : डा०श्रेयांसकुमार जैन व्याख्याता, दि० जैन कालेज बदौज । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्ष्यणसारो विषय-सूची शानतत्त्व प्रापन नामक प्रथम अधिकार पापा संख्या विषय पृष्ठ संख्या श्री अमृतचन्द्राचार्यकृत मंगलाचरण श्री जयसेनाचार्यकृत मङ्गलाचरण श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत मङ्गलाचरण वीतरागचारित्र की उपादेयता और सरागचारित्र की हेयता स्वरूपाचरणचारित्र अथवा निश्चयचारित्र का लक्षण पातनिका का लक्षण द्रव्य अपनी पर्याय से तन्मय होता है निश्चय व व्यवहार धर्म का स्वरूप; तथा शाद अमृद्ध उपादान का स्वरूप शुभ अशुभ और शुद्धोपयोग का लक्षण १६-२१ पर्याय के बिना द्रव्य नहीं है, गुण व पर्याय का लक्षण धर्म परिणत आत्मा यदि शुद्धोपयोग सहित होता है तो मोक्ष सुख पाता है यदि शुभोपयोग युक्त होता है तो स्वर्ग सुख पाता है। २५-२६ अपहृतसंयम, सरागचारित्र और शुभोपयोग ये एकार्थवाची हैं तथा उपेक्षासंयम वीतरागचारित्र शुद्धोपयोग ये एकार्यवाची हैं। वीतरागचारित्र से निर्वाण और सरागचारित्र से स्वर्ग मुख पश्चात् अनुकूल सामग्री के सद्भाव में मोक्षसुख प्राप्त होता है अशुभोपयोग का फल शुखोपयोग का फल अतीन्द्रियसुख शुद्धोपयोग का लक्षण शुद्धात्मा अथवा सर्वस का स्वरूप तथा शुद्धात्मा जयभूत पदार्थों के बोध को प्राप्त होता है। प्रथम शुक्लध्यान का नाम शुद्धोपयोग है भिन्न कारकों की अपेक्षा नहीं है अत: स्वयंभू है, शुद्धोपयोग से उत्पन्न होने वाले शुद्धात्म स्वभाव के लाभ के लिए अरहन्त भगवान् द्रव्याथिकनय से नित्य और पर्यायाथिकनय से अनित्य है ३६-४० १८ सिद्धों में उत्पाद व्यय ध्रौव्य । कारण समयसार का नाश और कार्यसमयसार का उत्पाद, तथा ज्ञेयों की अपेक्षा केवलज्ञान में परिणमन ११-४२ १२१ सर्वज्ञ को मानने वाला सम्यग्दृष्टि होता है ४३ संसारीजीव के इन्द्रियज्ञान व मुख है। केवली के अतीन्द्रियज्ञान व सुख है। मुख का लक्षण अनुकूलता है ४४-४५ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८-७० ७०-७१ ( १७ ) गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या २० केवली के शारीरिक सुख-दुख नहीं है तथा क्षुधा ब कवलाहार भी नहीं है। ४६-५२ २१ केवली के सब पदार्थ प्रत्यक्ष है ५२-५४ २२ केवली के कुछ भी परोक्ष नहीं है आत्माज्ञान प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण होने से सर्वगत है २४-२५ आत्मा ज्ञान से हीनाधिक नहीं है ५६-११ २६ आत्मा भी सर्वगत है । सुख का लक्षण अनाकुलता है। ज्ञान ही आमामा एकास नहीं है ६४-६६ शान और जेय के परस्पर गमन का निषेध है ६६-६८ आँख की तरह केवली, न प्रविष्ठ होकर और न अप्रविष्ट रहकर, ज्ञेयों को जानता है जैसे इन्द्रनीलमणि अपनी आभा से दूध को व्याप्त कर वर्तन करता है वैसे ज्ञान भी ज्ञेयों को व्याप्त करता है। दर्पण में प्रतिबिम्ब के समान, ज्ञेय भी ज्ञान में प्रतिभासित होते हैं अन्यथा ज्ञान सर्वगत सिद्ध नहीं हो सकेगा । यह व्यवहारनय का कथन है केवली ज्ञेय पदार्थो को न ग्रहण करते हैं, न छोड़ते हैं और न ज्ञेय रूप परिणत होते हैं किन्तु जानते हैं ७३-७५ श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में अविशेषता है ७५-७० पुद्गलात्मकद्रव्यश्रुत जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट है उसको जानने वाला श्रुतशान है अथवा सामान्यज्ञान है ज्ञान और आत्मा का तदात्म्य सम्बन्ध है, व्यवहारनय से ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है ८०-८१ ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है अकेला स्वयं अपने में से कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता ८३-८६ अतीत व अनागत असद्भुत पर्याय और वर्तमान सद्भूत पर्यायज्ञान में तात्कालिक के समान पर्याये वर्तन करती हैं, छद्मस्य का ज्ञान भी त्रिकालज्ञ है नियतिवाद एकान्तमिथ्यात्व है ८७-६० ३८-३६ अतीत व अनागत पर्यायें असद्भूत है फिर भी वे ज्ञान में व्यवहारनय से प्रत्यक्ष हैं ६०-६५ इन्द्रिय ज्ञान अतीत व अनागत पदार्थों को नहीं जानता ६३-६४ अतीन्द्रियज्ञान मूर्त-अमूर्त द्रव्यों को तथा भूत व भावि सब पर्यायों को जानता है, किन्तु इन्द्रियज्ञान नहीं जानता ६५-६६ ३६ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ १०१ ( १८ ) गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या जो ज्ञान ज्ञेयों को विकल्प रूप से जानता है, वह क्षायिकज्ञान नहीं है ४३ उदयागत कम अपना फल देते हैं। मोह के उदय से बन्ध्र होता है, ज्ञान से बन्ध नहीं होता ११-१०० केवली की क्रिया बन्ध का कारण नहीं है अरहन्त अवस्था पुण्य का फल है । उनको क्रिया औदयिकी होने पर भी मोहादि रहित होने के कारण बन्ध नहीं करती किन्तु कर्मों का क्षय करती है। मोह राग द्वेष बन्ध के कारण हैं मात्र कर्मोदय बन्ध का कारण नहीं है। १०२-०४ यदि कोपाधि के निमित्त से यदि जीव शुभाशुभ रूप न परिणमे तो संसार का अभाव हो जायेगा। १०५-०४ जो तत्कालिक और अतत्कालिक विचित्र तथा विषम समस्त पदार्थों को जानता है वह क्षायिकज्ञान है। १०७-०६ जो सबको नहीं जानता, वह एक को नहीं जानता १०६-१२ जो एक को नहीं जानता वह सबको नहीं जानता। छद्मस्थ भी परोक्षरूप से केवलज्ञान के विषय को जानता है। जो कम से जानता है वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता । ११६-१७ युगपत् जानने वाला ही सर्वज्ञ हो सकता है । ११७-१६ जानी के ज्ञप्तिक्रिया का सदभाव होने पर भी बन्ध नहीं होता १२०-२२ केवलज्ञानी ज्ञेयों को जानता हुआ भी ज्ञेय रूप न तो परिणमन करता है और न उनको ग्रहण करता है और न उनको उत्पन्न करता है इसलिये अबन्धक है १२२-२३ सुख-अधिकार ५३ __ एक ज्ञान व सुख मूर्त व इन्द्रिय जनित है और दूसरा ज्ञान व सुख अमुर्त तथा अतीन्द्रिय है। अतीन्द्रियसुख का साधनभूत अतीन्द्रियज्ञान का स्वरूप १२६-२८ इन्द्रियसुख का साधनभूत इन्द्रियज्ञान हेय है क्योंकि जितने अंशों में अज्ञान है उतने अंशों में खेद है। १२८-३२ इन्द्रियाँ अपने विषयों में युगपत्-प्रवृत्ति नहीं करती इसलिये इन्द्रिय ज्ञान सुख का कारण न होने से हेय है और केवलज्ञान सुख का उपादान कारण होने से उपादेय है इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता है। परोक्ष और प्रत्यक्ष का लक्षण १३४-३५ केवल ज्ञान ही सुख रूप है अनन्त पदार्थों को जानते हुए भी केवलज्ञानी के खेद का अभाव है, क्योंकि खेद का कारण धातिकर्म हैं १३८-४१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या ६१ ६२ ६६ ७० ७१ ३२ * जहाँ तक इन्द्रिय ज्ञान है वहाँ तक स्वभाव से दुख है ६५-६६ शरीर सुखी नहीं हो किन्तु आरण ही सुखरूप होता है ६७ ३८ ( १६ ) विषय तथा अनिष्ट नष्ट हो जाने से इष्ट की ६८ ६८ / १-२ अरहन्त को नमस्कार सिद्धों को नमस्कार ७६ ७६/१ ७९/२ केवलज्ञान सर्व ज्ञेयों को जानने सिद्धि हो जाने से सुख रूप है जो केवलियों में सुख का श्रद्धान नहीं करता वह अभव्य है जो श्रद्धान करता है वह निकट भव्य है जो आगे स्वीकार करेगा वह दूर भव्य है GA अभव्य शब्द से सर्वथा अभव्य न ग्रहण करना किन्तु वर्तमान में सम्यक्त्व रहित है, सरागसम्यग्दृष्टि आत्मोत्पन्न सुख को नहीं भोगता परोक्षज्ञानियों के इन्द्रियसुख का स्वरूप जो आत्मा स्वयं सुख स्वभाव वाला है उसका विषय अकिंचित कर है जैसे जिसकी आंख अन्धकार को नष्ट करने वाली है उसको दीपक अकिंचित्कर है सिद्ध भगवान् स्वयं ज्ञान सुख तथा देवता रूप हैं ७३-७४ निरतिशय पुण्य के उत्पादक शुभोपयोग को दुख का कारण बतलाते हैं। निरतिशय पुण्य दुख का बीज है इन्द्रियसुख दुख रूप है ७५ ७३ '७७ निरतिशय पुण्य व पाप में निश्चयनय से जो अभेद नहीं मानता वह अनन्त संसारी है । पदार्थ स्वरूप को जानकर जो राग-द्वेष नहीं करता वह कर्मों का क्षय करता है पापारम्भ को छोड़कर शुभ चारित्र में उद्यत होने पर भी यदि मोहादि को नहीं छोड़ता है तो वह शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता शुभपरिणामाधिकार पृष्ठ संख्या इन्द्रियसुख की दृष्टि वाले निरतिशय शुभीपयोगी का स्वरूप मात्र इन्द्रियसुख के साधनभूत शुभोपयोग का फल इन्द्रिय सुख दुख रूप ही है मात्र इन्द्रियसुख का साधन भूत शुभोपयोग में और अशुभोपयोग में कोई विशेषता नहीं है स्वर्ग तथा मोक्ष इन दोनों के मार्ग का उपदेश अरहन्त ने दिया है। जिनेन्द्र देव को नमस्कार करने से अक्षय सुख की प्राप्ति होती हैं। जो अरहन्त को द्रव्य गुण पर्याय द्वारा जानता है वह आत्मा को जानता है, और उसका मोह नाश को प्राप्त हो जाता है १४१-४३ १४३-४५ १४५-४७ १४७-४६ १४९-५२ १५२-५३ १५४-५५ १५६-५८ १५८- ६१ १६१-६२ १६२-६८ १६४-६५ १६६-६६ १६६-७१ १७१-७३ १७३-३५ १७५ ७३ १७७-७५ १७८-७९ १७६-२० १५०-८३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ( २० ) गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या ८१ सम्यग्दर्शन हो जाने पर भी यदि राग द्वेष को त्यागता है तो शुद्धात्मा को प्राप्त कर लेता है वीरग चाहि काम शुद्धात्मानुभूति १८३-५ सम्यग्दर्शन पूर्वक चारित्र धारणा करना ही मोक्षमार्ग है १५-१६ रत्नत्रय के आराधक ही दान पूजा व नमस्कार के योग्य होते हैं १८७ द्रव्यादिक में जो मूढभाव है, वह मोह है। मोही राग द्वेष को प्राप्त होता है १५८-८६ मोह राग द्वेष से जीव के कर्म बन्ध होता है । भाव मोक्ष का लक्षण शुद्धोपयोग है और कर्मों का विश्लेषण हो जाना द्रव्य मोक्ष है १८६-१९१ पदार्थो का अन्यथा ग्रहण, दया का अभाव तथा विषयों में राग द्वेष ये तीनों मोह के चिह्न हैं १६१-१२ करुणा अथवा दया जीव का स्वभाव है शास्त्र का अध्ययन करना चाहिये क्योंकि उससे पदाथों का ज्ञान होता है और पदार्थों के जानने वाले के मोह समूह नष्ट हो जाता है १६३-६६ द्रव्य गुण और पर्याय इन तीनों की अर्थ संज्ञा है और अपने गुण और पर्यायों का आधार द्रव्य है १६६-६८ जिन उपदेश को पाकर जो राग द्वेष मोह को हनता है वह शीघ्र ही सब दुःखों से छुटकारा पाता है १९६ ०१ भेदविज्ञान से मोह का क्षय होता है २०१-०२ स्व पर का भेदविज्ञान आगम से होता है २०२.०४ जो जिनेन्द्र कथित पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता वह श्रमण नहीं है २०५-०६ जो सम्यग्दृष्टि आगम में कुशल है और वीतरागचारित्र में आरुढ़ है, वह श्रमण धर्म हो है २०७-१० यतिवर की भक्ति से तथा गणानुराग भाव से भव्य को धर्म का लाभ होता है २१० १२९ पुण्य से उत्तम भव मिलते हैं तथा सम्यग्दृष्टि का पुण्य मोक्ष का कारण है। ज्ञेयतत्व प्रज्ञापन नामक मितीय अधिकार पदार्थ द्रव्य स्वरूप हैं और द्रव्य गुणात्मक हैं। द्रव्य तथा गुणों से पर्यायें होती हैं । पर्यायमूट परसमय है द्रव्य गुण और पर्यायों का समूह है। समानजातीय और असमानजातीय दो प्रकार की द्रव्य पर्यायें हैं। स्वभाव और विभाव के भेद से गुणपर्याय दो प्रकार की हैं २१२-१५ साधु को नमस्कार करके सम्यग्दर्शन का कथन करने की प्रतिज्ञा २१५-१६ जो विभावपर्याय में लीन है, वह परसमय है, जो आत्म स्वभाव में स्थित है, वह स्वसमय है। २१६-२१ २११ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ १०२ { २१ ) गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या अहंकार तथा ममकार का लक्षण २२१-२२ द्रव्य के तीन लक्षण २२२.२३ अनेक प्रकार के गुण व पर्यायों से और उत्पाद व्यय ध्रौव्य से जो द्रव्य का स्वरूप अस्तित्व है, वह द्रव्य का स्वभाव है २२७ -३३ सर्व द्रव्यों का सत् अर्थात् सादृश्य अस्तित्व अथवा महासत्ता लक्षण है २३४-३६ द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है और सत् है । जो ऐसा नहीं मानता वह परसमय है द्रव्य से सत्ता भिन्न नहीं है तथा एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती २३५-४० उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने पर भी द्रव्य सत् है २४०-४४ उत्पाद, व्यय, धौव्य परस्पर अविनाभावी हैं २४४-४० उत्पाद, व्यय, धौव्य ये द्रध्यस्वरूप हैं द्रव्य से पृथक पदार्थ नहीं हैं २४०-५१ उत्पाद व्यय धौव्य एक ही समय में होते हैं समय भेद नहीं है २५१-५४ १०३ द्रव्य की अन्य पर्याय त्पन्न होती हैं अन्य पर्याय नष्ट होती हैं किन्तु द्रव्य न नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है २५५-५७ गुण पर्याय की मुख्यता से द्रव्य के उत्पाद व्यय धोव्य का कथन २५७-५६ युक्ति द्वारा सत्ता और द्रब्य के अभेद का कथन २५६-६२ विभक्त प्रदेशत्व पृथक्त्व है और अतद्भाव अन्यत्व है १०७ अतद्भाव (अन्यत्व) का विशेष कथन २६५-६८ १०८ अतद्भाव का लक्षण सर्वथा अभाव नहीं है अथवा गुण-गणी में प्रदेश भेद नहीं है संज्ञादि का भेद ही अतद्भाव है २६-७१ १०६ सत्ता और द्रव्य का गुण-गुणी भाव २७२-७४ ११० गण और पर्यायों से द्रव्य का अभेद है २७४-७५ १११ द्रव्याथिकनय की अपेक्षा सत् का उत्पाद और पर्यायाथिकनय की अपेक्षा असत् का उत्पाद होता है २७५-७६ अनन्यत्व के द्वारा सत् का उत्पाद सिद्ध होता है २८४-८१ अन्यत्व के द्वारा असत् का उत्पाद सिद्ध होता है द्रव्य का अपनी पर्यायों के साथ द्रव्याथिकनय से अनन्यत्व है और पर्यायाथिक नय से अन्यत्व है ऐसा अनेकान्त है २८३-८५ सप्तभंगी का कथन ३८६-६० संसारी जीव के रागादि विभाव क्रिया स्वभाव से होती है जिसका फल मनुष्यादि पर्याय हैं जो अनित्य हैं। उत्कृष्ट वीतरागधर्म मनुष्यादि पर्याय रूप फल को नहीं देता। ३६७-६३ नामकर्म जीव के स्वभाव का पराभव करके जीव को मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देव रूप करता है। २६४-६५ ११२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या ११८ ११६ १२७ १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १९८ १२६ ( २२ ) विषय जीव की नारक, तियंच, देव रूप पर्यायें वास्तव में नामकर्म से निष्पन्न हैं । वे जीव अपने-अपने कर्मोदय में परिणमन करते हुए अपने स्वभाव को नहीं प्राप्त होते हैं द्रव्य की अपेक्षा जीव नित्य है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य हैं १३५ पृष्ठ संख्या इस संसार में कोई भी स्वभाव से स्थिर नहीं है तथा भ्रमण करते हुए जीव द्रव्य की जो क्रिया है, वही संसार है कर्म से मलिन आत्मा कर्मजनित अशुद्ध परिणामों को प्राप्त करता है, उन परिणामों के कारण कर्म बंधता है । इसलिये मिथ्यात्व व रागादि परिणाम ही भावकर्म हैं जो द्रव्यकर्म बंध का कारण हैं निश्चय नय से यह जीव अपने हो परिणाम का कर्त्ता है पुद्गल कर्मों का कर्त्ता नहीं है व्यवहार नय से पुद्गल कर्मों का कर्त्ता है । पुगल भी निश्चय से अपने परिणामों का कर्त्ता हैं व्यवहार से जीव परिणामों का कर्त्ता है । आत्मा ज्ञानचेतना, कर्म चेतना और कर्मफलचेतना इन तोनचेतना रूप परिणमन करता है। कर्मचेतना, कर्मफलचेतना तथा ज्ञान चेतना का स्वरूप । अर्थविकल्पज्ञान है । विश्व अर्थ है । अर्थाकार का अवभासन विकल्प है। शुभोपयोग और गृहोपयोग का लक्षण तथा पन I आत्मा ही अभेदनय से ज्ञानचेतना, कर्मचेतना, कर्मफलचेतना रूप परिणमन करती है कर्ता, करण, कर्म तथा फल आत्मा ही है ऐसा निश्चय करने वाला मुनि यदि रागादि रूप नहीं परिणमन करता तो वह शुद्ध आत्मीक स्वरूप को पाता है द्रव्य- विशेष कथन द्रव्य जीव व अजीव तथा चेतन व अचेतन के भेद वाला है। लोक अलोक का भेद सक्रिय और निःक्रय के भेद से द्रव्य का कथन अथवा जीव पुद्गल में अर्थ व व्यञ्जन दोनों पर्यायें हैं तथा शेष द्रव्यों में अर्थ पर्याय है परिस्पन्दनक्रिया है १३० गुण विशेष से द्रव्यों में भेद होता है। १३१ मूर्त अमूर्त गुणों का लक्षण तथा पुद्गल मूर्त हैं शेष अमूर्त हैं मृतिक पुद्गल द्रव्य के गुणों का कथन १३२ १३३-३४ आकाश, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और जीवद्रव्य इन अमूर्तिक द्रव्यों २६६-६७ २६८-३०० के विशेष गुणों का कथन प्रदेशवान और अप्रदेशवान की अपेक्षा द्रव्यों में भेद अर्थात् कालद्रव्य के अतिरिक्त शेप द्रव्य अस्तिकाय हैं। ३०१-०२ ३०२-०४. ३०४-०७ ३०७-० ३०६ - ११ ३११-१२ ३१३-१८ ३१५-२० ३२०-२१ ३२२-२४ ३२४-२६ ३२६-२= ३२८-३२ ३३२-३६ ३३६--६८ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया संख्या विषय पृष्ठ संख्या १३५/१ बहु-प्रदेश प्रचय को काय कहते हैं ये द्रव्य लोकाकाश में रहते हैं, सर्व पदार्थ निश्चय नय से अपने स्वरूप में ठहरे ३३६.-११ हुए हैं व्यवहार नय से लोकाकाश में ठहरे हुए हैं । अवगाहण शक्ति के कारण असंख्यात प्रदेशों में अनन्त द्रव्य रहते हैं जिस प्रकार आकाश के प्रदेश हैं उसी प्रकार अन्य द्रव्यों के प्रदेश हैं ३४१-४३ १३८ कालाणु अप्रदेशी हैं १३६ कालद्रव्य तथा समयरूप पर्याय की सिद्धि ३४५-४६ १४० आकाश के प्रदेश का लक्षण ३४६-५१ आकाश यदि द्रव्यों के प्रदेश समूह को तिर्यप्रचय और काल के समय समूह को ऊर्ध्वप्रचय कहते हैं ३५१-५४ १४२ समय-सन्तान रूप ऊध्र्वप्रचय का अन्वयी रूप से आधारभूत काल द्रव्य को सिद्ध करते हैं, एक समय में एक वृत्त्यंश (पर्याय) से दो विरोधी धर्म नहीं होते ३५४-५७ १४३ सर्व वृत्त्यंशों में कालद्रव्य के उत्पाद व्यय ध्रौव्यत्व है । ३५७-५८ १४४ काल द्रव्य एक प्रदेशी है। ३५१-६३ १४१ जीव द्रव्य का विशेष कथन जो जानता है वह जीव है संसार अवस्था में चार प्राणों से संयुक्त है १४६ इन्द्रिय, बल, आयु श्वसोच्छ्वास ये चार प्राण हैं ३६५-६६ १४/१ प्राण के दस भेद व्युत्पत्ति के द्वारा प्राणों को जीवत्व का हेतु तथा पौद्गलिकत्व की सिद्धि ३६२-६८ १४८-४९ मोहादिक कर्मों से बंधा हुआ जीव प्राणों को धारण करता हुआ कम फल भोगता हुआ अन्य कर्मों से बंधता है जब तक देहादिक से ममत्व को नहीं छोड़ता तब तक कर्मों से मलिन आत्मा पूनः पुनः अन्य प्राणों को धारण करता है ३७१-७२ जो इन्द्रियादिक पर विजय करके उपयोगमयी आत्मा को ध्याता है वह कर्म मल से लिप्त नहीं होता तथा उसके प्राणों का सम्बन्ध भी नहीं होता ३७३-७५ १५२ यद्यपि जीव का स्वरूप अस्तित्व भिन्न है तथापि पुद्गलद्रव्य के संयोग से नरनारकादि तथा संस्थान आदि अनेक पर्यायें होती है ३७५-७७ १५३ नामकर्मोदय के कारण जीव की मनुष्य, नारक, तिर्यंच, देव तथा संस्थानादि अनेक पर्याय होती हैं २७७.-.७८ १५४ जो अपने स्वभाव में तन्मय ज्ञानी जीव द्रव्य गुण पर्याय से तीन प्रकार के द्रव्य स्वभाव को जानता है वह अन्य द्रव्य में मोहित नहीं होता ज्ञान सविकल्प तथा साकार है और दर्शन निर्विकल्प तथा निराकार है १५१ ३७८-८० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या १५५ १५.६ १५७ १५८ १५६ ܬ݂ܳܐ १६१ १६२ ૬૨ १६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १६६ ( २४ } विषय आत्मा उपयोगमयी है। उपयोग ज्ञान दर्शन स्वरूप है। आत्मा का उपयोग शुभ या अशुभ होता है, चेतनानुविधायो परिणाम उपयोग है। चैतन्य के साकारनिराकार होने से उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का है। शुभ-अशुभ-शुखोपयोग शुभोपयोग पुण्य का कारण है अशुभोपयोग पाप का कारण है इन दोनों के अभाव में कर्म संचय नहीं होता अर्हत, सिद्ध तथा अनागारों को जानता है और श्रद्धा करता है जीवों में अनुकम्पा है वह शुभोगपयोगी है जो विषय कषाय में मग्न है कुश्रुति कुविचार कुसंगति में लगा हुआ है तथा उम्र है उन्मार्गी है वह अशुभोपयोग है। शुभाशुभ से रहित शुद्धोपयोग का कथन जीव-पुद्गल मैं न देह हैं, नमन है, और न वाणी हैं, उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हैं, कराने वाला नहीं हूँ और न अनुमोदक है। शरीर मन और वाणी पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड है मैं पुद्गलमय नहीं हूँ और मेरे द्वारा मुगल पिण्ड रूप किये गये है इसलिये मैं देह नहीं हूँ और न उसका कर्ता हूँ परमाणु अप्रदेशी तथा अशब्द है। स्निग्ध रुक्ष गुण के कारण बंध जाता है। परमाणु में स्निग्ध या रुक्ष एक अंश से लेकर अनन्त अंश तक होते हैं, क्योंकि परमाणु परिणमन शील है। परमाणु स्निग्ध हो या रुक्ष हो, सम हो या विषम हो यदि जधन्य अंश न हो और दो अधिक अंश हो तो बंधते हैं । दो अंश वाले स्निग्ध परमाणु चार अंश वाले स्निग्ध परमाणु से बंधता है तथा तीन अंश वाले रुक्ष परमाणु पांच अंश वाले रुक्ष परमाणु से बंधता है। सूक्ष्म या वादर द्वि-परमाणु आदि स्कंध नाना आकार वाले पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप अपने ही परिणामों से उत्पन्न होते हैं अतः जीव उनका कर्ता नहीं है । यह लोक सर्वत्र सूक्ष्म तथा वादर और कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य अवगाहित होकर अत्यन्त गाढ भरा हुआ है। अतः पुद्गलपिण्ड को लाने वाला आत्मा नहीं है। व्यवहारनय से जीव कर्मों के आधीन है। हाँ जीव है उसी क्षेत्र में कर्म योग्य पुद्गल भी तिष्ठ रहे हैं. जीव उनको कहीं बाहर से नहीं लाता है। जीव के परिणामों का निमित्त पाकर कर्म योग्य मुद्गल स्कंध जीव के उपादान से नहीं परिणमाता पृष्ठ संख्या ३१-१२ ३०२-८४ ३८४-८५ ३८५-२७ ३८३-८८ ३५०-६० ३६०-६१ ३६१-६३ ३६३-६५ ३६५-६६ ३६६-६६ ३६६-४०२ ४०२-०४ ४०४.७५ ४०५-०६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या नाम कर्मोदय ये शरीर की रचना होती है, जीव शरीर का कर्ता नहीं है। ४०७-०८ औदारिक आदि पाँचो शरीर पुद्गल द्रव्यात्मक, हैं जो जीव स्वरूप नहीं है ४०८-१० १७२ जीव के अरस अरूप आदि लक्षण, आत्मा विकार रहित अतीन्द्रिय स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा हो अनुभव में आता है तथा वीतराग स्वसंवेदनज्ञान से ही जाना जाता है ४१०-१५ मूर्तिक पुगलों का तो बंध सम्भव है किन्तु अमूर्त आत्मा पुद्गलों को कैसे बांध सकता है ? ४१५-१६ अमृत आत्मा जैसे मूर्त द्रव्यों को तथा रूपादि गुणों को देखता है जानता है, उसी प्रकार मूर्त पुद्गलों के साथ बंधता है ४१६-१८ निश्चय नय से जीव अमूर्तिक है तथापि अनादि कर्म बं वशात् व्यवहारनय से मुर्तिक है । कमों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है, संश्लेष सम्बन्ध हैं। ४१६-२० १७५ जीव और 'भावकर्म (राग द्वेष आदि) इन दोनों का परस्पर बंध है अर्थात् जीव अपने भावों के साथ बंधा हैं,राग द्वष मोह परिणामभाव बंध हैं भावबंध से होने वाले द्रव्यबध का स्वरूप ४२१-२३ १७७ स्पर्श आदि के साथ पुदगल का बंध अथवा पूर्व और नवतर कर्मों का परस्पर बंध पुद्गलबंध, रागादि भावों के साथ जीव का बंध, अन्योन्य अवगाह रूप जीव-पुद्गल बंध हैं ४२३-२४ १७८ आत्म प्रदेशों में कर्मवर्गणा योग के अनुसार प्रवेश करते है, ठहरते हैं तथा उदय होकर जाते और पुनः बंधते हैं मन, वचन, काय वर्गणा के आलम्बन से और वीर्यान्त राय के क्षयोपशम से जो आत्म प्रदेशों का सकम्पपन है वह योग हैं ४२४-२६ रागी आत्मा कर्म बांधता है, राग रहित आत्मा कर्मों से मुक्त होता है ४२६-२७ मोह और द्वेष अशुभ है राग शुभ अशुभ दोनों प्रकार का है। जिनेन्द्रभवित का शुभराग मात्र बन्ध का कारण नहीं मोक्ष का भी कारण है ४२७-२६ १८१ __ शुभ परिणाम पुण्य है, अशुभ परिणाण पाप है, शुभ अशुभ से रहित परिणाम संसार दुःन के क्षय का कारण है वस्तु के एक देश की परीक्षा यह नय का लक्षण है 'समाधि लक्षण शुद्धोपयोग' एक देश आवरण रहित होने से क्षायोपमिक खंड ज्ञान की व्यक्ति रूप है। शुद्ध पारिणामिकभाव सर्व आवरण से रहित होने ये अखण्ड ज्ञान को व्यक्ति रूप है । अतः शुद्ध पारिणामिकभाव ध्येय रूप है ध्यान रूप नहीं है शुभ परिणाम से संबर व निर्जरा तथा मोक्ष का कारण ४३०-३३ पृथ्वी आदि स्थावर व त्रस जीव शुद्ध चतन्य स्वभाव वाले जीव से भिन्न हैं क्योंकि पृथ्वी आदि कर्मोदय से होने के कारण अचेतन है ४३३-३४ १७६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या १८३ १८४ १८५ १८६ १८.७ १८७/१ १८८ ም ። १६१ १६२ १६३ ક १६५. ( २६ ) विषय जो इस प्रकार स्वभाव को प्राप्त करके स्व और पर को नहीं जानता वह अहंकार व भ्रमकार करता है आत्मा अपने भावों का कर्ता है पर भावों का कर्ता नहीं है, अशुद्ध निश्चय नय से रागादि भी स्वभाव है, क्योंकि ये भावकर्म हैं कर्मों के मध्य में रहता हुआ भी जीव कर्मों को उपादान रूप से न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है १६६ वद्य जीव अपने परिणामों का कर्ता है तथापि उन परिणामों के निमित्त से कर्मों से बंधता व छूटता है जब राग द्वेष युक्त शुभ अशुभ परिणाम होते हैं तब कर्म ज्ञानावरणादि रूप परिणम जाते हैं । कमों की विचित्रता पुगलकृत है, जीव कृत नहीं शुभ परिणामों से शुभप्रकृतियों का अनुभाग लीन होता है, अशुभप्रकृतियों का अनुभाग मन्द होता है। संक्लेश से अशुभप्रकृतियों का अनुभाग तोत्र शुभ का मन्द होता है मोह राग द्वेष से कषायला आत्मा कर्म से लिप्त होने से बन्ध रूप है निश्चयनय से आत्मा अपने भावों का कर्ता है, पुद्गलकर्मों का कर्ता व्यवहार नय से है । इन दोनों नयों में अविरोध है । परम्परा से शुद्धात्मा का साधक होने से अशुद्धय को भी उपचार से शुद्धनय कहते हैं। जो शरीर आदि में अहंकार ममकार नहीं छोड़ता वह उन्मार्गी हैं। मैं पर का नहीं, पर मेरा नहीं, मैं एक ज्ञायक स्वरूप हूँ ऐसा ध्यान करने वाला आत्मा का ध्याता है आत्मा ज्ञान-दर्शनात्मक, अतीन्द्रिय, ध्रुव, अचल, निरालम्ब और शुद्ध है । पर द्रव्य से भिन्नता और स्वधर्म से अभिनता यह शुद्धता है। शत्रु, मिश्र, सुख, दुख, शरीर धन आदि ध्रुव नहीं है । ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा है जो ऐसी आत्मा को ध्याता है, वह मोह से छूट जाता है रागद्वेष मोह को क्षय करके सुख-दुःख में समता वाला मुनि अक्षय सौख्य को प्राप्त करता है। मोह का नाश करके विषय से विरक्त होकर स्वभाव में स्थित होने से आत्मा का ध्यान होता है ध्यान व ध्यान चिंतन का लक्षण १६९ १९७, १२८ केवल परम सौख्य को ध्याते है केवली के ध्यान उपचार से हैं। शुद्धात्मा की उपलब्धि ही मोक्ष मार्ग है पांचवी गाथा में की गई प्रतिज्ञा का निर्वाह निश्चय से शेय-ज्ञायक संबंध नहीं है २०० पृष्ठ संख्या ४३४-३६ ४६३-३८ ४३८. ३६ ४३६-४१ ४४१-४३ ४४४ ४४४-४५ ४४५.४८ ४४८-५० ४५०-५१ ४५२–५४ ४५४-५६ ४५६-५८ ४५८-५६ ४५६-६० ४६१-६२ ४६२-६७ ४६७. ६६ ४६९-७३ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय २०२ ( २७ ) गाथा संख्या पृष्ठ संख्या २००/१ भव्य जीवो को चारित्र में प्रेरित करते हैं चरणानुयोग सूचक चूलिका तृतीय अधिकार यदि दुःखों से मुक्त होने की इच्छा है तो यतिधर्म को अंगीकार करो, सासादन से क्षीण कषाय तक एक देश जिन हैं ४५६-७१ बंधुवर्ग से पूछकर तथा स्त्री पुत्रों से मुक्त होता हुआ पंचाचार को अंगीकार कर विरक्त होता है ४८०-८४ निश्चय पंचाचार का कथन ४८४ २०३-२०४ मुनि होने के इच्छुक की क्रिया २०५-२०६ बहिरंग और अंतरंग लिंग का स्वरूप ४८८-११ २०७ मुनिमार्ग में तिष्ठता हुआ वह मुमुक्ष मुनि हो जाता है ४६१-६४ २०८-२०६ २८ मूल गुणों का अर्थात् छेदोपस्थापनाचारित्र का कथन निश्चयनय से आत्मा के केवल ज्ञानादि गुण मुलगुण हैं ४६५-६७ २१० दीक्षा-आचार्य व निर्यापक-आचार्य ४९८-९ २११-६१२ अंतरंगछेद व बहिरंगछेद ४६६-५१ २१३ पर द्रव्य छेद का कारण है ५०२-०३ शुद्धात्मा में लीनता मुनिपद की पूर्णता का कारण है ५०३-०३ सूक्ष्म पर द्रव्य का सम्बन्ध श्रामण्य के छेद का कारण है दया का उपकरण पिच्छिका है। ५०५-०७ अयत्नाचार चर्या सतत हिंसा है ५०७-०८ जीव मरे या न मरे अयत्नाचार से हिंसा निश्चित है यत्नाचार में हिंसा मात्र से बंध नहीं ५०८-१० २१७:१२ ईयासमिति से चलने वाले मुनि के जीव के मरने पर भी बंध नहीं होता २१८ अयत्नाचारी के निरंतर बंध, यत्नाचारी निलेप ५११-१२ २१६ परिग्रह अशुभोपयोग के बिना नहीं होता अतः परिग्रह से बन्ध निश्चित है, ५१२-१४ वहिरंगपरिग्रह के सद्भाव में अंतरंगछेद का त्याग नहीं होता ५१४-१७ २२०/१-२ शुद्ध भाव पूर्वक बाहरी परिग्रह का त्याग ही अंतरंगपरिग्रह का त्याग है बाह्यपरिग्रह के सद्भाव में मूळ आरम्भ ब असंयम होते ही हैं, ५१६-२० 'असंयम' शुद्धात्मानुभूति से विलक्षण है जिन उपकरणों के ग्रहण करने से छेद नहीं होता उनके निषेध नहीं है विशिष्ट काल क्षेत्र के वश संयम के बहिरंग साधन भूत उपकरणों को ग्रहण करता है ५२०-२६ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या २२३ अनिषिद्ध, असंयतो से अप्रार्थनीय, मूर्छा आदि की अनुत्पादक ऐसी उपाधि मुनियों द्वारा ग्रहण करने योग्य है। ५२२-२३ २२४ जब शरीर रूप परिग्रह से भी ममत्व का त्याग होता है तो अन्य उपाधि का विधान कैसे हो सकता है ? ५२३-२५ २२४१-६ स्त्रीमुक्ति का निषध, स्त्री के ग्यारह अंग का अध्ययन सम्भव है, कुल की व्यवस्था के निमित्त आयिका के उपचार से महाव्रत २२४१० ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन कुल वाले दीक्षित हो सकते हैं २५४१११ शरीर अङ्ग भंग होने पर, अंडकोष या लिंग भंग होने पर, वात पीड़ित आदि होने पर निग्रंथ साधु नहीं हो सकता यथाजात रूप, गुरु के बचन, सूत्रों के अध्ययन और विनय ये भी उपकरण हैं ५३४-३६ मुनि कषाय रहित, विषयाभिलाषा रहित, देव-पर्याय की इच्छा रहित होता है ५३६. ३८ पन्द्रह प्रमादों के नाम ५३८ २२७ भोजन की इच्छा से रहित एषणासमिति वाला अनाहारी है ५३६-४० शारीर को भी अपना नहीं मानने वाले, अपनी शक्ति को नहीं छिपाते हुए उस शरीर को तप में लगा देते हैं ५४१-४२ २२३ युक्त-आहार का कथन, निश्चय अहिंसा व द्रव्य अहिंसा २२६/१-२ मांस के दूषण २२९/३ हाथ पर आया हुआ शुद्ध आहार मुनि को दूसरों को नहीं देना चाहिए। उत्सर्ग और अपबाद की मैत्री द्वारा आचरण की सुस्थितता होती है शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का साधन शरीर है सर्व परित्याग उपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र और शुद्धोपयोग इनका एकार्थ है एकदेश परित्याग अपहृतसंयम-सरागचारित्र, शुभोपयोग में एकार्थवाची है इसी को व्यवहारमय से मुनिधर्म कहते हैं ५४७-५० उत्पसर्ग और अपवाद के विरोध से आचरण की स्थिति नहीं होती आगम अभ्यास मुख्य है २३२ एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान के होती है पदार्थों का निपचय आमम द्वारा होता है अतः आगम अभ्यास मुख्य है ५५४-५७ २३३ आगम हीन श्रमण स्व पर को नहीं जानता ५४२-४५ ५४७ २३० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या साधु के आगमचक्षु हैं, सर्व प्राणी के इन्द्रियचक्षु हैं, देवों के अवधिचक्षु हैं सिद्धों के सर्वतः चक्षु है ५६०-६२ विचित्र गुण पर्यायों सहित समस्त पदार्थ आगम सिद्ध हैं, परोक्ष रूप आगम केवलज्ञान के समान है २३५ ५६४ ५६४-६६ २३६ २३७ २३ ५७०-७१ मोक्ष-मार्ग जिसकी आगम परक दृष्टि नहीं है उसके संयम नहीं है यदि आगम के द्वारा पदार्थों का श्रद्धान नहीं किया तो मुक्ति नहीं होती संयमशून्य ज्ञान श्रद्धान से सिद्धि नहीं होती इससे आगम ज्ञानतत्त्वार्थं श्रद्धान संयतत्व के युगपत् बिना मोक्षमार्ग नहीं है चिदानन्नपय एक स्वभान हर सपने परमात्म आदि पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ भी यदि असंयमी रहता है तो भी निर्वाण नहीं। दीपक के दृष्टान्त द्वारा बतलाया कि यदि चारित्र के बल से असंयम से नहीं हटता तो श्रद्धान ज्ञान क्या हित कर सकता है अज्ञानी जो कर्म लक्षकोटि भवों में खपाता है वह ज्ञानी गुप्ति द्वारा उच्छ्वास मात्र में क्षय कर देता है परमागम ज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान तथा संयम इन भेदरत्नत्रय के मिलाप होने पर भी जो अभेदरत्नत्रय स्वरूप निर्विकल्पसमाधिमय आत्मज्ञान है वही निश्चय से मोक्ष का कारण है निर्विकल्पसमाधि रूप निश्चयरत्नत्रयमयी विशेष भेदज्ञान को न पाकर अज्ञानी (समाधि-रहित सम्यग्दृष्टि) जीव करोड़ों जन्मों में जिस कर्म को क्षय करता है उस कर्म को (निर्विकल्पसमाधि में स्थित) ज्ञानी जीब तीन गुप्ति द्वारा उचछयास मात्र में नाश कर डालता है सर्व आगमज्ञान होने पर भी यदि शरीर आदि के प्रति स्तोक भी ममत्व है तो सिद्ध पद को प्राप्त नहीं होता आत्मशानशून्य (निर्विकल्पसमाधि रहित) के आगमज्ञान तत्त्वार्थ श्रद्धान और संयम की युगपत्ता भी अकिचित्कर है त्याग, अनारम्भ विषयों से वैराग्य कषायों का क्षय, यह संयम है २३३ ५७३ ५७४-७५ १३६/१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या २४० २४१ २४२ २४३ २४४ २४५ ( ३० ) विषय पांच समिति, पांच इन्द्रियों का संवर, कषायों को जोतना, दर्शन ज्ञान से परिपूर्णता संयम हैं ऐसे संयमी के ही आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान और संयम की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान की युगपत्ता सिद्ध होती है जिसके शत्रु-मित्र, सुख-दु:ख, प्रशंसा-निन्दा, लोष्ठ सुबर्ण जीवन मरण समान है। वह श्रमण है उसके आगम ज्ञान श्रद्धान संयम के साथ आत्मज्ञान है जो दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीनों में एक साथ ठहरा हुआ है उसको एकाग्रता प्राप्त होती है, उसी के श्रामण्य परिपूर्ण है निर्विकल्पसमाधिकाल में रत्नत्रय को एकाग्र कहते हैं । वही परमसाम्य है इसी को शुद्धोपयोगलक्षण श्रामण्य तथा मोक्षमार्ग कहते हैं व्यवहारनय से सम्यग्दर्शनज्ञान- चारित्र मोक्षमार्ग है निश्चयनय से एकाग्रता मोक्षमार्ग है जो शुद्धात्मा में एकाग्र नहीं होता उसको मोक्ष नहीं होता जो अन्य पदार्थों में मोह नहीं करता, राग नहीं करता, द्वेष नहीं करता बह नियम से कर्मों का क्षय करता है। ૨૦૬ २४३७ २४८ पृष्ठ संख्या सयोगि केवल के भी एकदेशचारित्र है पूर्ण चारित्र अयोगि जिन के होता है। अभेदनय से ध्यान ही चारित्र है, वह ध्यान केवलियों के उपचार से है तथा चारित्र भी उपचार से है । सम्यग्दर्शन पूर्वक सर्व रागादि विकल्पों से रहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण वाला वीतरागचारित्र है वही कार्यकारी है ५.७५--७.३ ५७८-६० 450-53 ५८३ ५-४-८६ शुभोपयोग शुद्धोपयोगी भी श्रमण होते हैं और शुभोपयोगी भी । शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं, शुभोपयोगी सास्रव हैं निश्चय से सिद्ध जीव ही जीव है परन्तु व्यवहारनय से चारों गति के अशुद्ध जीव भी जीव हैं ५५६-५६ अरहन्त आदि में भक्ति प्रवचन तथा साधु में वात्सल्य शुभोपयोग है ५२६-६० श्रमणों के प्रति वन्दना नमस्कार खड़ा होना आदि रागचर्या में निषिद्ध नहीं है ५६०-६१ उदेश देना शिष्यों को ग्रहण आदि सरागियों की चर्या हैं। ५६२ शुभपयोगी भी शुद्धोपयोग की भावना कर लेते हैं और शुद्धोपयोगी भी किसी काल में शुभोपयोग द्वारा व्रत कर लेते हैं ५६३ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा संख्या २४६ २५० ** २५९ २५३ २५४ २५५ २५६ २५७ २५८ २५६ २६० २३१ २६३ २६८ २६५ २६६ २६७ ( ३१ ) विषय जीवों की विराधना से रहित संघ का उपकार करने वाले मुनि में भी राग की जो प्रधानता है । ५६३-६५ अल्प यदि वैयावृत्ति में जीवों की विराधना करता है तो वह मुनि गृहस्थ हो जाता है ५६५-६६ होता है बिना किसी इच्छा के वक तथा मुनियों की दया सहित उपकार करे । इस गाथा से 'एक दूसरे का उपकार या अपकार नहीं कर सकता' इस मत का खण्डन हो जाता है रोग से, क्षुधा से, तृषा से अथवा थकावट से पीडित देखकर अपनी शक्ति अनुसार वैयावृत्यादि करनी चाहिये वैयावृत्य के लिये लौकिक जीवों से बात चीत करने का निषेध नहीं है प्रशस्तभूत चर्या श्रमणों में गौण है, तथा गृहस्थों के मुख्य है, क्योंकि इसी से गृहस्थ परम सौख्य को प्राप्त होता है। शुभोपयोगी के कारण की विपरीतता से फल की विपरीतता २६८ १६८९ सर्वज्ञ कथित वस्तुओं में युक्त शुभोपयोग का फल पुण्य संचय पूर्वक मोक्ष प्राप्ति है। कारण की विपरीतता से फल विपरीत होता है अतः छद्मस्थ शुभोपयोग का फल अधम पुण्य है। जो निश्चय तथा व्यवहार धर्म को नहीं जानता मात्र पुण्य को मुक्ति का कारण कहता है उसको इस गाथा में छद्मस्थ कहा है न कि गणधर आदि को कुगुरु की सेवा उपकार या दान का फल कुदेव या कुमनुष्ययोनि है विषय कषाय पाप है अतः विषय कषाय में रत कुगुरु तारक नहीं हो सकते सुगुरु निज को तथा पर को मोक्ष तथा पुण्य का आयतन है शुद्धोपयोगी अथवा शुभोपयोगी मुनि लोगों को तार देते हैं संघ में आने वाले साधु को देखकर यथा सम्भव आदर करना चाहिये गुणों में अधिक के साथ विशेष क्रिया करनी चाहिये यथार्थ श्रमण ही आदर करने योग्य हैं. पृष्ठ संख्या ५६६-६३ *£= ५६६-६०० ६००-०२ ६०९-०३ ६०३-०५ ६०५-०६ ६०६-०७ ६०७-०८ ६०८-१० ६१०...११ ६११.१२ ६१२-१४ ६१४-१५ श्रुत संयम तप से युक्त होने पर भी यदि अश्रद्धानी है तो श्रमणाभास है। जो श्रमण को देखकर द्वेष से अपवाद करता है तथा आदर आदि करने में अनुमत नहीं है, उसका चारित्र नष्ट हो जाता है ६१६-२१ गुणों में अधिक श्रमणों से जो विनय चाहता है वह अनन्त संसारी है। स्वयं गुणों में अधिक होकर भी हीनगुण बालों के प्रति वन्दना आदि क्रिया करते हैं वे मिथ्यादृष्टि होते हुए चरित्र से भ्रष्ट होते हैं fare श्रमण भी यदि लौकिक जनों के संसर्ग को नहीं छोड़ते वे संयत नहीं हैं ६२१-२३ भूखे प्यासे या दुखी को देखकर जो दुखित मन होकर दया परिणाम से उसका भला करता है वह अनुकम्पा हैं । ज्ञानी जीव दया को अपने आत्मीकभाव को नाश न करते हुए संक्लेश को परिहार करने के लिये करते हैं । ६१५-१७ ६१५-१६ ६२३ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ गाथा संख्या विषय पृष्ठ संख्या संयम व तप सहित होते हुए भी लौकिक व्यापारों में वर्तता है तो वह साधु लौकिक है। ६२३-२४ २७० यदि श्रमण मोक्ष चाहता है तो वह समान गुण वालों तथा अधिक गुणों वालों की संगति करे आत्मा परिणाम स्वभाव वाला है इसलिये लौकिक संग से विकार अवश्यम्भावी है जैसे अग्गि के संग से पानी उष्ण हो जाता है। इसलिये मुमुक्ष श्रमण को समान गुण वाले व अधिक गुण वालों की सङ्गति करनी चाहिये । जल का दृष्टांत दिया है। . ६२४-२७ २७४ पंच रत्त यथार्थ तत्व को न जानते हुए अन्यथा श्रद्धान करने वाले साधु संसारतत्व है ६२७-२८ यथार्थ तत्वों का श्रद्धानी, प्रशांतात्मा अयथाचार से रहित श्रमण चिरकाल तक संसार में नहीं रहता । यह मोक्षतत्व है। पदार्थो को भले प्रकार जानने वाले बहिरंग-अन्तरंगपरिग्रह से रहित विषयों में अनासक्त साथ ही मोक्ष के माधक हैं। मह मोक्ष कारण तत्व है। शुद्धोपयोग स्वरूप मोक्षमार्ग ही सर्व मनोरथ को सिद्ध करने वाला है ६३२-३४ श्रावक या मुनि के चारित्र से युक्त होकर जो कोई इस शास्त्र को समझता है यह थोड़े ही काल में परमात्म पद को पा लेता है आत्म द्रव्य की प्राप्ति का उपाय श्री जयसेन आचार्य द्वारा ६३७-३८ श्री जयसेन आचार्य की प्रशस्ति श्री अमृतचन्द्र आचार्य द्वारा परिशिष्ट रूप से ४७ नयों का कथन ६४०-४६ मिथ्यात्वियों के बचन किस प्रकार के होते हैं और जैनों के वचन किस प्रकार के होते हैं । एक नय से देखने पर आत्मा एकान्तात्मक तथा प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्तात्मक है, श्री अमृतचन्द आचार्य द्वारा आत्मद्रव्य की प्राप्ति का उपाय चैतन्य की महिमा ६५०-५२ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि- कोंडकुड - आइरिय-पणोदो पवयण सारो ( प्रवचनसार: ) ( टीकाद्वयोपेतः ) श्री अमृतचन्द्रसूरिकृत - तत्त्वप्रदीपिका टोका श्रीजय सेनाचार्यकृत- तात्पर्यवृत्ति टीका ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन १ ॥ मंगलाचरणम् ॥ सर्वव्याप्येकचिद्रूपस्वरूपाय परात्मने । स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नमः ॥ १॥ अन्वयार्थं – [सर्वव्याप्येकचिदुरूप स्वरूपाय ] सर्वव्यापी ( सबका ज्ञाता ) होने पर भी एक चैतन्यरूप ( भाव चैतन्य हो ) जिसका स्वरूप है - ( जो ज्ञेयाकार होने पर भी ज्ञानाकार है अर्थात् सर्वज्ञता को लिये हुए आत्मज्ञ है ) जो [ स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ] स्वानुभव प्रसिद्ध है ( शुद्ध आत्मोपलब्धि से प्रसिद्ध है), और जो [ज्ञानानन्दात्मने] ज्ञानानन्दात्मक है ( अतीन्द्रिय पूर्ण- ज्ञान तथा अतीन्द्रिय पूर्ण सुख-स्वरूप है ) ऐसे उस [परमात्मने । परमात्मा ( उत्कृष्ट आत्मा) के लिये [ नमः | नमस्कार हो । विशेष – 'परमात्मा' का अर्थ 'दूसरे का आत्मा' भी होता है और 'परात्मा' का अर्थं 'परमात्मा' अर्थात् उत्कृष्ट आत्मा भी होता है । यहाँ 'उत्कृष्ट आत्मा' अर्थ है । परमात्मा विशेष्य है और तीन उसके विशेषण हैं । सर्वज्ञता सहित आत्मज्ञता, शुद्ध आत्मोपलब्धि लक्षणता और अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख-मयता 'नमः' अव्यय है। उससे यहाँ क्रियापद का काम लिया गया है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] [ पवयणसारो द्रव्य- गायतशान को मारमा मसुगावरा-... हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं जयत्ययः । प्रकाशयज्जगत्तत्वमनेकान्तमयं महः ॥२॥ अन्वयार्थ-(जो श्रुतज्ञान) [हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं] क्रीडा मात्र मे महामोहरूप अन्धकारसमूह को नष्ट कर देता है और जो श्रुतज्ञान [जगत्तत्त्वं] जगत् (लोक अलोक) के स्वरूप को [प्रकाशयत् ] प्रकाशित करता है, अदः] वह (अनेकान्तमय परस्पर-विरोधी अनेक धर्मात्मक वस्तु को दिखलाने वाला) [महः ] तेज (श्रुतज्ञान) [जयति] जयवन्त है, अर्थात् उस श्रुतज्ञान के लिये नमस्कार है। विशेष-अनेकान्तात्मक द्रव्य और भाव रूप श्रलज्ञान से मोह सहज में नष्ट हो जाता है, और छः द्रव्यों का यथार्थ स्वरूप प्रतिभासित हो जाता है। इसलिए वह नमस्कार करने योग्य है। टीका करने की प्रतिज्ञा तथा प्रयोजन परमानन्दसुधारसपिपासितानां हिताय भज्यानाम् । नियते प्रकटिततत्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम् ॥३॥ अन्वयार्थ---[परमानन्द-सुधारसपिपासितानां ] परमानन्दरूप सुधा रस के पिपासु (अतीन्द्रियसुखरूप अमृत के प्यासे) [भच्यानां] भव्यों के [हिताय] हित के लिये [प्रकटिततत्त्वा] श्री प्रवचनसार जी की गाथाओं के तत्व को अथवा वस्तु-तत्व को (स्वरूप को) प्रगट करने वाली [इयं] यह [प्रवचनसारस्य] श्री प्रवचनसार की [वृत्तिः] टीका [क्रियते] [मुझ अमृतचन्द्राचार्य द्वारा] की जाती है। विशेष-अध्यात्म रस के पिपासुओं को पिपासा शान्ति हेतु सरल शब्दों में अध्यात्म पदावली के रहस्य को स्फुटित करने के लिए दीका रची गयी है। अथ खलु कश्चिदासनसंसारपारावारपारः समुन्मीलितसातिशयविवेकयोतिरस्तमितसमस्तकान्तबादाविद्याभिनिवेशः पारमेश्वरीमनेकान्तवादविद्यामुपगम्य मुक्तसमस्तपक्षपरिग्रहतयात्यन्तमध्यस्थो भूत्वा सकलपुरुषार्थसारतया नितान्तमात्मनो हिततमां भगवत्पंचपरमेठिप्रसादोपजन्यां परमार्थसत्यां मोक्षलक्ष्मीमक्षयामुपादेयत्वेन निश्चिन्वन् प्रवर्तमानतीर्थनायकपुरः सरान् भगवतः पंचपरमेष्ठिनः प्रणमनवन्दनोपजनितनमस्करणेन संभाव्य सर्वारम्भेण मोक्षमार्ग संप्रतिपद्यमानः प्रतिजानीते-- भूमिका- अब (टोकाकार श्री अमृतचन्द्र सूरि प्रथम पांच गाथाओं की भूमिका लिखते हैं।) (१) निकट है संसार समुद्र का किनारा जिनके (जो निकट-भव्य हैं), (२) प्रकट हो गई है साति Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारों ] [ ३ शय विवेक ज्योति जिनको (अर्थात् जिनके परम भेद-विज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो गया है-जो सम्यग्दृष्टि बन चुके हैं), (३) नष्ट हो गया है समस्त एकान्तवाद विद्या (ज्ञान) का अभिप्राय जिनके (जिनके एकान्त पक्ष की पकड़ रूप मिथ्याज्ञान नष्ट हो गया है), (४) परमेश्वर (जिनेन्द्रदेव) की अनेकान्तबाद विद्या (ज्ञान) को प्राप्त करके (सम्यग्ज्ञानी बनकर), (५) समस्त पक्ष का परिग्रह त्याग देने से (इष्ट यस्तु में राग और अनिष्ट वस्तुओं में द्वेष के पक्ष की पकड़ को छोड़ देने से) अत्यन्त मध्यस्थ (उदासीन-चीतरागी) होकर (सम्यक्चारित्रवान होकर), (६) जो मोक्षलक्ष्मी सब (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) पुरुषार्थों में सारभूत होने से आत्मा के लिये अत्यन्त हितरूप (उत्कृष्ट हित-स्वरूप) है, जो मोक्ष-लक्ष्मी भगवन्त परमेष्ठी के प्रसाद से उत्पन्न होने योग्य है, जो मोक्ष-लक्ष्मी परमार्थ रूप होने के कारण सत्य है और जो मोक्षलक्ष्मी अक्षय है (अविनाशी है-एक बार प्राप्त होकर सदा बनी रहती है) ऐसी उस मोक्षलक्ष्मी को उपादेयपने से निश्चित करते हुए (प्राप्त करने योग्य है, ऐसा निर्णय करते हुए), (७) प्रवर्तमान तीर्थ के नायक (श्री महावीरस्वामी) पूर्वक भगवन्त पंचपरमेष्ठी को प्रणाम और वन्दना से होने वाला (भेदाभेदात्मक नमस्कार के द्वारा सम्मान करके (काय के विशेष नमन द्वारा और वचन के द्वारा उनके प्रति मन में बहुमान लाकर) (८) सम्पूर्ण पुरुषार्थ से मोक्ष मार्ग के चारित्र को आश्रय करते हुए, (फश्चित्) कोई निकट भव्यात्मा प्रतिज्ञा करते हैं तात्पर्यवृत्ति नमः परमचंतन्यस्वात्मोत्थसुखसम्परे । परमागमसाराय सिद्धाय परमेष्ठिने ॥१॥ अर्थ-जिनकी सम्पत्ति परम अतीन्द्रिय सुख है, जो सुख परम चैतन्य-स्वरूप निजात्मा से उत्पन्न हुआ है, ऐसे परमागम के साररूप सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार हो । (अथास्यान्तराधिकारस्योपोद्घातः)-अथ प्रवचनसारव्याख्यायां मध्यमरुचिशिष्यप्रतिबोधनार्थायां मुख्यगौणरूपेणान्तस्तत्त्वबाहिस्तत्वप्ररूपणसमर्थायां च प्रथमत एकोत्तरशतगाथाभि - नाधिकार:, तदनन्तरं त्रयोदशाधिकमातगाथाभिर्दर्शनाधिकारः, ततश्च सप्तनवतिगाथाभिश्चारित्राधिकारश्चेति समुदायेनैकादशाधिकत्रिशतप्रमितसूभैः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपेण महाधिकारत्रयं भवति । अथवा टोकाभिप्रायेण तु सम्यग्ज्ञानज्ञेयचारित्राधिकारचूलिकारूपेणाधिकारत्रयम् । तत्राधिकारनये प्रथमतस्तावज्ञानाभिधानमहाधिकारमध्ये द्वासप्ततिगाथापर्यन्तं शुद्धोपयोगाधिकारः कथ्यते । तासु Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पक्षणसारो द्वासप्ततिगाथासु मध्ये 'एस सुरासुर' इमां गाथामादि कृत्वा पाठक्रामेण चतुर्दशगाथापर्यन्तं पीठिका । तदनन्तरं सप्तगाथापर्यन्तं सामान्येन सर्वज्ञसिद्धिः, तदनतरं त्रयस्त्रिशद्गाथापर्यन्तं ज्ञानप्रपञ्चः । ततश्चाष्टादशगाथापर्यन्तं सुखप्रपञ्चश्चेत्यन्तराधिकारचतुष्टयेन शुद्धोपयोगाधिकारों भवति । अथ पञ्चविंशतिगाथापर्यन्तं ज्ञानकण्ठिकाचतुष्टयप्रतिपादकनामा द्वितीयोऽधिकारश्चेत्यधिकारद्वयेन, तदनन्तरं स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन चकोत्तरशतगाथाभिः प्रथममहाधिकारे समुदायपातनिका ज्ञातव्या । इदानीं प्रथमपातानकाभिप्रायण थापाथ प ञ्चपरमेष्ठिनमस्कारादिप्ररूपेणप्रपञ्चः, तदनन्तरं सप्तगाथापर्यन्तं ज्ञानकण्ठिकाचतुष्टयपीठिकाव्याख्यानं क्रियते, तत्र पंचस्थलानि भवन्ति तेष्वादौ नमस्कारमुख्यत्वेन गाथापञ्चक, तदनन्तरं चारित्रसूचनमुख्यत्वेन 'संपज्जइ णिश्वाणं' इति प्रभृति गाथात्रयमथ शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयसूचनमुख्यत्वेन 'जीयो परिणमवि' इत्यादिगाथासूत्रद्वयमथ तत्फलकथनमुख्यतया 'धम्मेण परिणवप्पा' इति प्रभृति सूत्रद्वयम् । अघ शुद्धोपयोगध्यातुः पुरुषस्य प्रोत्साहनार्थं शुद्धोपयोगफलदर्शनार्थच प्रथम माथा, शुद्धोपयोगिपुरुषलक्षणकथनेन द्वितीया चेति 'अइसयमावसमुत्थं' इत्यादि गाथाद्वयम् । एवं पोठिकाभिधानप्रथमान्तराधिकारे स्थलपञ्चकेन चतुर्दशगाथाभिस्समुदाय- पातनिका प्रोक्ता । अथ कश्चिदासन्नभव्य: शिवकुमारनामा स्वसंवित्तिसमुत्पन्नपरमानन्दैक-लक्षणसुखामृतविपरीतचतुर्गतिसंसारदुःखभयभीत:, समुत्पन्नपरमभंदविज्ञानप्रकाशातिशय:, समस्तदुर्नयकान्तनिराकृतदुराग्रहः, परित्यक्तसमस्त शत्रु-मित्रादिपक्षपातेनात्यन्त मध्यस्थो भूत्वा धर्मार्थकामेभ्य: सारभूतामत्यन्तात्महितामविनश्वरां पञ्चपरमेष्ठिप्रसादोत्पन्नां मुक्तिश्रियमुपादेयत्वेन स्वीकुर्वाणः, श्रीवर्धमानस्वामितीर्थकरपरमदेवप्रमुखान् भगवतः पञ्चपरमेष्ठिनो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणम्य परमचारित्रमाश्रयामीति प्रतिज्ञां करोति । उत्थानिका-इस प्रवचनसार की व्याख्या में मध्यम-रुचि-धारी शिष्य को समझाने के लिये मुख्य तथा गौण रूप से अन्तरंगतत्व (निज आत्मा) बाह्यतत्व (अन्य पदार्थ) को वर्णन करने के लिये सर्वप्रथम एक सौ एक गाथा में ज्ञानाधिकार को कहेंगे। इसके बाद एक सौ तेरह गाथाओं में दर्शन का अधिकार कहेंगे । अनन्तर सत्तानवे गाथाओं में चारित्र का अधिकार कहेंगे । इस तरह समुदाय से तीन सौ ग्यारह गाथाओं में ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप तीन महा-अधिकार हैं। अथवा टीका के अभिप्राय से सम्यग्ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र अधिकार चूलिका सहित तीन अधिकार हैं । इन तीन अधिकारों में पहले ही ज्ञान नाम के महा अधिकार में बहत्तर गाथा पर्यंत शुद्धोपयोग नाम के अधिकार को कहेंगे। इन ७२ गाथाओं के मध्य में 'एस सुरासुर' इस गाथा को आदि लेकर पाठ क्रम से चौदह गाथा पर्यंत पीठिकारूप कथन है, जिसका व्याख्यान कर चुके हैं । इसके पीछे सात गाथाओं तक सामान्य से सर्वज्ञ की सिद्धि करेंगे । इसके पश्चात् तैतीस गाथाओं में ज्ञान का वर्णन है फिर अठारह गाया तक सुख का वर्णन है । इस तरह Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] चार अन्तर अधिकारों में शुद्धोपयोग का अधिकार है । आगे पच्चीस गाथा तक ज्ञान-कण्ठिकाचतुष्टय को प्रतिपादन करते हुए दूसरा अधिकार है। इसके पीछे चार स्वतन्त्र गाथाएँ हैं। इस तरह एक सौ एक गाथाओं के धारा प्रयन महा-अधिकार में समुदाय-पातनिका जाननी चाहिए। यहाँ पहली पातमिका के अभिप्रायः से पहले ही पाँच गाथाओं तक पञ्च परमेष्ठी को नमस्कार आदि का वर्णन है, इसके पीछे सात गाथाओं तक ज्ञानकठिका चतुष्टय की पीठिका का व्याख्यान है इनमें भी पांच स्थान हैं। जिसमें आदि में नमस्कार की मुख्यता से पाँच गाथाएँ हैं, फिर चारित्र की सूचना से 'संपज्जइणिवाणं' इत्यादि तीन गाथाएँ हैं, फिर शुभ अशुभ शुद्ध उपयोग की सूचना की मुख्यता से 'जीवो परिणमादि' इत्यादि गाथाएँ दो हैं, फिर उनके फल कथन की मुख्यता से 'धम्मेण परिणप्पा' इत्यादि सूत्र दो हैं । फिर शुद्धोपयोग को ध्याने वाले पुरुष के उत्साह बढ़ाने के लिये तथा शुद्धोपयोग का फल दिखाने के लिये पहली गाथा है । फिर शुद्धोपयोगी पुरुष का लक्षण कहते हुए दुसरी गाथा है। इस तरह 'अइसइमादसमुत्थं आदि को लेकर दो गाथाएँ हैं। इस तरह पीठिका माम के पहले अन्तराधिकार में पांच स्थलों के द्वारा चौदह गाथाओं से समुदाय पातनिका कही है। ___ अनन्तर शिवकुमार नामक कोई निकट भव्य, जो स्वसंबेदन से उत्पन्न होने वाले परमानन्दमयी एक लक्षण के धारी सुखरूपी अमृत से विपरीत चतुर्गति रूप संसार के दुःखों से भयभीत है, जिसे परमभेद विज्ञान के प्रकाश का माहात्म्य प्रकट हो गया है, जिसने समस्त दुर्नय रूपी एकान्त के दुराग्रह को दुर कर दिया तथा सर्व शत्रु-मित्र आदि का पक्षपात छोड़कर व अत्यन्त मध्यस्थ होकर धर्म अर्थ काम पुरुषार्थों की अपेक्षा अत्यन्त सार और आत्महितकारी अविनाशी व पञ्चपरमेष्ठी के प्रसाद से उत्पन्न होने वाले मोक्ष लक्ष्मीरूपी पुरुषार्थ को अंगीकार करते हुए श्री वर्धमान स्वामी तीर्थङ्कर परमदेव प्रमुख भगवान् पञ्चपरमेष्ठियों को द्रव्य और भाव नमस्कार कर परम चारित्र का आश्रय ग्रहण करता हूँ, ऐसी प्रतिज्ञा करता है । ऐसे निकट भव्य शिवकुमार को सम्बोधन करने के लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य इस ग्रन्थ की रचना करते हैं। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ] [ पवयणसारो अथ सूत्रावतार: एस सुरासुरमणुसिंववंदिवंधोद'घाइकम्ममल । पणमामि वढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥१॥ सेसे पुण तित्थयरे ससम्वसिद्धे विसुद्धसम्भावे । समणे य णाणदसणचरित्ततववोरियायारे ॥२॥ ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं । वंदामि य वट्टते अरहंते माणुसे खेत्ते ॥३॥ किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं । अज्झावयवरगाणं साहणं चैव सम्वेसि ॥४॥ तेसि विसुद्धदसणणाणपहाणासमं समासेज्ज। उवसंपयामि सम्म जत्तो णियाणसंपत्ती ॥५॥ (पणगं) एष सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितं धौतघातिकर्ममलम् । प्रणमामि वर्द्धमानं तीर्थ धर्मस्य कर्तारम् ।।१।। शेषान् पुनस्तीर्थ करान् ससर्वसिद्धान् विशुद्धसभावान् । श्रमणांश्च ज्ञानदर्शनचारित्रतपोबीर्याचारान् ॥२॥ तांस्तान् सर्वान् समकं समकं प्रत्येकमेव प्रत्येकम् । वन्दे च वर्तमानानहतो मानुषे क्षेत्रे ॥३॥ कृत्वाहद्भ्यः सिद्धेप्रस्तथा नमो गणधरेभ्यः । अध्यापकवर्गभ्यः साधुभ्यश्चैव सर्वेभ्यः ।।४।। तेषां विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं समासाद्य । उपसम्पद्ये साम्यं यतो निर्वाणसंप्राप्तिः ।।५।। (पञ्च कम्) एष स्वसंवेदनप्रत्यक्षदर्शनज्ञानसामान्यात्माहं सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितत्वात्रिलोकैकगुरु, धौतघातिकर्ममलत्वाज्जगदनुग्रहसमर्थानन्तशक्तिपारमैश्वर्य, योगिनां तीर्थयात्तारणसमर्थ, धर्मकर्तृत्वाच्छुद्धस्वरूपवृत्तिविधातारम्, प्रवर्तमानतीर्थनायकत्वेन प्रथमत एव परमभट्टा. रकमहादेवाधिदेवपरमेश्वरपरमपूज्यसुगृहीतनामश्रीवर्धमानदेवं प्रणमामि ॥१॥ तदनुविशुद्धसद्भावत्वादुपात्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावान् शेषानतीततीर्थनायकान्, सर्वात सिद्धांश्च, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोबीर्याचारयुक्तत्वात्संभावितपरम १. धोय (ज. वृत)। २. पत्तेयमेव पत्तेयं (ज० वृ०)। ३. समासिज्ज (ज० वृ)। - -- - -- Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] शुद्धोपयोगभूमिकानाचार्योपाध्यायसाधुत्वविशिष्टान् श्रमणांश्च प्रणमामि ॥२॥ तदन्वेतानेब पञ्चपरमेष्ठिनस्तत्तद्व्यक्तिच्यापिनः सर्वानेष सांप्रतमेतत्क्षेत्रसंभवतीर्थकरासंभवान्महाविदेहभूमिसंभवत्वे सति मनुष्यक्षेत्रप्रवर्तिभिस्तीर्थनायकः सह वर्तमानकालं गोचरीकृत्य युगपागपप्रत्येक प्रत्येकं च मोक्षलक्ष्मीस्वयंवरायमाणपरमनन्थ्यदीक्षाक्षणोचितमङ्गलाचारभूतंकृतिकर्मशास्त्रोपदिष्वन्दनाभिधानेन सम्भावयामि ॥३॥ अथैवमर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधूनां प्रणतिवन्दनाभिधानप्रवृत्तद्वैतद्वारेण भाव्यभावकभावविजम्भितातिनिर्भरेतरेतरसंवलनबलविलीननिखिलस्वपरविभागतया प्रवृत्ताद्वैतं नमस्कारं कृत्वा ॥४॥ तेषामेवाह सिद्धाचार्यापाध्यायसवसाधूनां विशुद्धज्ञानपावरस्येन सहमशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावात्मतत्त्वश्रद्धानावबोधलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानसंपादकमाश्रमं समासाद्य सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्नो भूत्वा, जीवत्कषायकणतया पुण्यबन्धसम्प्राप्तिहेतुभूतं सरागचारित्रं क्रमापतितमपि दूरमुत्क्रम्य सकलकषायकलिकलङ्कविविक्ततया निर्वाणसम्प्राप्तिहेतुभूतं वीतरागचारित्राख्यं साम्यमुपसंपचे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैक्यात्मकैकाय गतोऽस्मीति प्रतिज्ञार्थः। एवं तावदयं साक्षान्मोक्षमार्ग सम्प्रतिपन्नः ॥५॥ ___ अन्वयार्थ— [एषः] यह (मैं कुन्दकुन्द) [मुरासुर-मनुष्येन्द्रवन्दितम्] सुरेन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्रों से बन्दित [धौतघातिक ममलम्] चार घातिया रूप कर्म-मलको धो डालने वाले [तीर्थम् ] तीर्थस्वरूप भव्य जीवों को संसार-समुद्र से तारने वाले [धर्मस्य करिम | और धर्म के कर्ता (प्रवर्तक) ऐसे विर्धमानम् ] वर्धमान नामक अन्तिम तीर्थंकर को प्रणाम करता हूँ ॥१॥ [पुन: | फिर-साथ ही [विशुद्ध-सद्भावान् ] विशुद्ध स्वभाव वाले [ससर्वासिद्धान्] सब सिद्धात्माओं सहित [शेषान् तीर्थकरान्] अवशेष ऋषभादि पार्श्व पर्यन्त तेईस तीर्थंकरों को [1] और [ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपोवीर्याचारान् ] ज्ञामाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपआचार एवं वीर्याचार रूप आचारों के परिपालक | श्रमणान् ] श्रमणों (निर्गन्थ गुरुओं) को भी [प्रणमाणि] प्रणाम करता हूँ ॥२॥ [तान् तान् सर्वान् ] उन उन सबकी-पूर्वोक्त चौबीस तीर्थंकर, सब सिद्ध और आचार्यों, उपाध्याय व सर्व-साधु स्वरूप श्रमणों की [मानुपे क्षेत्र तथा मनुष्य लोक में [वर्तमानान् ] विद्यमान [अर्हतः ] भरहंतों की [च ] भी [समकंसमकम् ] साथ-साथ समुदाय के रूप में [प्रत्येकम् एव प्रत्येकम् ] अथवा प्रत्येक प्रत्येक की [बन्दे | बन्दना करता हूँ ।।३।। इति] इस प्रकार [अहंदुभ्यः] अरहंतों को [सिद्धेभ्यः] सिद्धों को [ तथा] और [गणधरेभ्यः] गणधरों को-आचार्यों को [अध्यापकवर्गेभ्यः उपाध्यायों को [सर्वेभ्यः साधुभ्यः] तथा सब ही साधुओं को [नमः कृत्वा] नमस्कार करके [तेषाम् | उन पांचों Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो परमेष्ठियों के [विशुद्ध-दर्शन-ज्ञानप्रधानाश्रमम् ] निर्मल ज्ञान-दर्शन की प्रधानता-वाले आश्रम को [समासाद्य] प्राप्त करके [साम्यम् | समताभाव स्वरूप वीतरागचारित्र का [उपसम्पद्ये] आश्रय लेता हूँ [यतः] जिसकी सहायता से [निर्वाणसम्प्राप्तिः] मुक्ति की प्राप्ति होती है ॥४-५॥ टोका-स्व-संवेदन प्रत्यक्ष का विषयभूत होकर दर्शन-ज्ञानरूप सामान्य स्वरूप धाला यह भ पुन्य कुन्धावाय) सर्व प्रधान उन परम भट्टारक, देवाधिदेव, परमेश्वर, परमपूज्य एवं निर्मल कीतियाले श्री वर्धमान देव को प्रणाम करता है, जो वर्तमानमें चल रहे तीर्थ के नायक सुरेन्द्र, धरणेन्द्र और नरेन्द्रों (तीनों लोकों के अधिपतियों से) से वन्दित होने के कारण तीनो लोकों के अद्वितीय गुरु, घातियाकर्मरूप मलके धो डालने से समस्त लोक के अनुग्रह करने में समर्थ ऐसी अनन्त शक्तिरूप सर्वोत्कृष्ट ऐश्वर्य से सुशोभित योगीजनों के तीर्थ होने से उनके तारने में समर्थ, और धर्म के प्रवर्तक होने से शुद्ध स्वरूपवाली प्रवृत्ति के विधाता (कर्ता) हैं ॥१॥ तत्पश्चात्-श्री वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार करने के अनन्तर-विशुद्ध स्वभाव वाले होने से जिस प्रकार प्रथमादि सोलह तावों को प्राप्त उत्तम जाति के सुवर्ण को अन्तिम ताव से उतारने पर वह अपने विशुद्ध व निर्मल स्वभाव को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जो उस सुवर्ण के समान विशुद्ध दर्शन-शान रूप स्वभाव को प्राप्त कर चुके हैं, ऐसे अतीत तीर्थ के शेष अधिनायकों को (वृषभादि पार्श्व पर्यन्त तेईस तीर्थंकरों को) सब सिद्धों को, तथा ज्ञानाचार दर्शनाचार, चारित्राचार, तपआचार और वीर्याचार रूप पाँच प्रकार के आचारों से युक्त होने के कारण जिनके अतिशय शुद्ध उपयोग की भूमिका की सम्भावना हो चुकी है, अर्थात् जो शुद्ध उपयोग की प्राप्ति के अभिमुख हैं, ऐसे आचार्य उपाध्याय और साधुत्य विशेषणों से भेव को प्राप्त हुए श्रमणों को-निग्रन्थ गुरुओं को भी प्रणाम करता हूँ ॥२॥ तत्पश्चात् विविध व्यक्तियों में व्याप्त रहने वाले इन्हीं पांचों परमेष्ठियों का मैं इस समय इस भरतक्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों को सम्मावना के न होने पर भी विदेहक्षेत्र में तो उनकी सम्भावना है ही, अतः मनुष्यक्षेत्र-वर्ती (अढाईद्वीपस्थ पन्द्रह कर्मभूमियों में वर्तमान) तीर्थंकरों के साथ वर्तमान काल को विषयभूत करके वर्तमान काल में अवस्थित जैसे मानकर समुदायरूप मैं उन सबको साथ-साथ तथा पृथक-पृथक रूप से भी मोक्षलक्ष्मी के स्वयंवर-स्वरूप उत्कृष्ट जिनदीक्षा-कल्याणक के अवसरोचित मंगलाचरणभूत कृतिकर्म नामक शास्त्र में प्ररूपित वंदना के नाम से सम्भावना करता हूँ--उसके प्रति प्रमाणावि के रूप में आदर व्यक्त करता हुआ आराधन करता हूँ ॥३॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचयणसारो ] t इस प्रकार से अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और समस्त साधुओं को प्रणाम व वंदना के नाम ये प्रवृत्ति में आये हुये विविधतारूप देत द्वारा भारत-भारक, भाराध्यआराधक भाव से वृद्धिङ्गत अतिशय गाढ़ आपस में एक-मेक हो जाने के बल से समस्त स्व-पर भेद के विलीन हो जाने पर जिसमें अद्वैतभाव ( एकत्व या अभेद ) आ चुका है, ऐसे अद्वैत नमस्कार को करके उन्हीं अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सब साधुओं के निर्मल ज्ञान व दर्शन की प्रधानता से स्वभावतः शुद्ध दर्शन-ज्ञान स्वभावरूप आत्मतत्व के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन और उसी के अवबोधरूप सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कराने वाले आश्रम को प्राप्त करके स्वयं सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न सम्पत्तिशाली होता हुआ, कुछ काय के अंश के जीवित रहने से पुण्यबन्ध की प्राप्ति के कारणभूत सरागचारित्र के क्रम में आ पड़ने पर भी उसको दूर लांघकर समस्त कषाय रूप कलि-कलंक से भिन्न होने के कारण जो वीतरागचारित्र नामक समताभाव मुक्ति प्राप्ति का कारणभूत है, उसका आश्रय लेता हूँ — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकाग्रता को प्राप्त हुआ है, इस प्रकार प्रतिज्ञा का अभिप्राय है । इस प्रकार यह साक्षात् मोक्षमार्ग को प्राप्त हुआ है ।।४-५।। विशेषार्थ - यहाँ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य ने मुक्ति के कारण-भूत प्रवचनसार नामक इस ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम उन अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार किया है, जिनका वर्तमान में तीर्थ चल रहा है। इसके पश्चात् उन्होंने आदिनाथ प्रभूति उन शेष तेईस तीर्थंकरों को भी नमस्कार किया है, जिनका तीर्थ यथासमय भूतकाल में चलता रहा है। साथ ही उन्होंने सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और सर्वसाधुओं को भी नमस्कार किया है । अनन्तर उन्होंने मनुष्य लोक में वर्तमान सब ही अरहंतों की समुदाय रूप में और पृथक्-पृथक् भी वंदना की है। अन्त में उन्होंने यह प्रतिज्ञा की है कि इस प्रकार से मैं अरहंतों, सिद्धों, गणधरों और अध्यापक वर्ग के रूप में आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं को भी नमस्कार करके उनके विमल दर्शन - ज्ञानादिस्वरूप निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त कराने वाले आश्रम का आश्रय लेकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और वीतरागचारित्र से सम्पन्न होता हूँ । सरागचारित्र संवर निर्जरा के साथ पुण्य अन्ध का भी कारण है और मोक्ष का परम्परा कारण न होने से उन्होंने उसकी उपेक्षा की है और साम्य नाम से प्रसिद्ध एक वीतरागचारित्र से अपने को सम्पन्न - सम्पत्तिशाली बतलाया है, कारण कि परमानन्द स्वरूप मुक्ति का कारण एकमात्र यही है । इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रतिज्ञा का अभिप्राय सूचित किया है कि मैं जो Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकतारूप एकाग्रता को प्राप्त हुआ हूँ, यही मेरा प्रतिज्ञात अर्थ है । कारण कि उक्त रत्नत्रय की एकतारूप एकाग्रता ही साक्षात मोक्ष का मार्ग है। यहां वृत्तिकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पांच परमेष्ठियों के लिये किये गये नमस्कार को हँत व अद्वैतरूप दोनों प्रकार का बतलाया है। द्वैत तो उसमें इसलिये है कि प्रणाम व वंदना के कर्ता तो आचार्य कुन्दकुन्द हैं तथा उस प्रणाम व बंदना के विषय हैं उपर्युक्त पाँचों परमेष्ठी। इस प्रकार जहां उपास्य का भेद है वहां उनको किया गया नमस्कार द्वैत ही हो सकता है । पर जब जीव निश्चय रत्नत्रय को एकतारूप एकाग्रता को प्राप्त होता है, तब उस समय निर्विकल्पसमाधि में उक्त प्रकार का उपास्य-उपासक आदि किसी प्रकार का द्वैतभाव नहीं रहता, इसीलिये ऐसा नमस्कार अद्वैत रूप ही होता है ॥१-५॥ तात्पर्यवत्ति पणमामीत्यादिपदखण्डनारूपेण ध्याख्यानं क्रियते-पणमामि प्रणमामि । स कः कर्ता ? एस एषोऽहं ग्रन्थकरणोद्यतमना: स्वसंवेदनप्रत्यक्षः । कम् ? वढमाणं अवसमन्तादृद्ध वृद्धं मानं प्रमाणं ज्ञानं यस्य स भवति वर्धमानः, 'अवाप्योरल्लोपः' इति लक्षणेन भवत्यकारलोपोऽवशब्दस्या त्र, तं रत्नत्रया. त्मकप्रवर्तमानधर्मतत्वोपदेशक श्रीवर्धमान तीर्थकरपरमदेवम् । क्व प्रणमामि ? प्रथमत एव । कि विशिष्टं ? सुरासुरमसिवर्वविदं त्रिभुवनारायानन्तज्ञानादिगुणाधारपदाधिष्ठित्तत्वात्तत्पदा. भिलाषिभिस्त्रिभुवनाधीशैः सम्यगाराध्यपादारविन्दत्वाच्च सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितम् । पुनरपि किविशिष्टं ? धोयघाइकाममलं परमसमाधिसमुत्पन्नरागादिमलरहितपारमार्थिकसुखामृतरूपनिर्मलनोरप्रक्षालितघातिकर्ममलत्वादन्येषां पापमलप्रक्षालन हेतुत्वाच्न धौतघातिकर्ममलम् । पुनश्च किलक्षणम् ? तित्यं दृष्टश्रुतानुभूतविषयसुखाभिलाषरूपनीरप्रवेशरहितेन परमसमाधिपोतेनोत्तीर्णसंसारसमुद्रत्वात् अन्येषां तरणोपायभूतत्वाच्च तीर्थम् । पुनश्च कि रूपम् ? धम्मस्स कत्तारं निरुपरागात्मतत्त्वपरिणतिरूपनिश्चयधर्मस्योपादान कारणत्वात् अन्येषामुत्तमक्षमादिबहुविधधर्मोपदेशकत्वाच्च धर्मस्य कर्तारम् । इति क्रियाकारकसम्बन्धः । एवमन्तिमतीर्थकरनमस्कारमुख्यत्वेन गाथा गता ॥१॥ तदनन्तरं प्रणमामि । कान् ? सेसे पुण तित्थयरे ससध्वसिजे शेषतीर्थकरान्, पुन: ससर्वसिद्धान् वृषभादिषाएवंपर्यन्तान् शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणसर्वसिद्धसहितानेतान् सर्वानपि । कथंभूतान् ? विसुद्धसम्भावे निर्मलात्मोपलब्धिबलेन विश्लेषिताखिलावरणत्वात्केवलज्ञानदर्शनस्वभावत्वाच्च विशद्धसद्भावान् । समणे य श्रमण शब्दवाच्यानाचार्योपाध्यायसाधूंश्च । किलक्षणान् ? पाणसणचरित्ततक्वीरियायारे सर्व विशद्वद्रव्य गुणपर्यायात्मके चिद्वस्तुनि यासो रागादिविकल्परहितनिश्चलचित्तवृत्तिस्तदन्तर्भूतेन व्यवहारपञ्चाचारसहकारिकारणोत्पन्नेन निश्चयपञ्चाचारेण परिणतत्वात् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारोपेतानिति । एवं शेषत्रयोविंशतितीर्थकरनमस्कारमुख्यत्वेन गाथा गता ॥२॥ अथ ते ते सठवे तांस्तान्पूर्वोक्तानेव पञ्चपरमेष्ठिन: सर्वान् हामि य वन्दे, अहं कर्ता। कथं? समगं समगं समुदायवन्दनापेक्षया युगपद्युगपत् । पुनरपि कथं ? पत्तेयमेव पत्तेयं प्रत्येकबन्दनापेक्षया प्रत्येक प्रत्येकम् । न केवलमेतान् वन्दे । अरहते अर्हतः । किविशिष्टान् ? बट्टते माणुसे खेते Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] वर्तमानान् । क्य? मानुषे क्षेत्रे । तथाहि-साम्प्रतमत्र भरतक्षेत्र तीर्थकराभावात् पञ्चमहाविदेहस्थित सीमन्धरस्वामितीर्थकरपरमदेवप्रभतितीर्थकरैः सह तानेव पञ्चपरमेष्ठिनो नमस्करोमि । कया ? करणभूतया मोक्षलक्ष्मीस्वयंवरमण्डपभूते जिनदीक्षाक्षणे मङ्गलाचारभूतया अनन्त ज्ञानादिसिद्धगुणभावनारूपया सिद्धभक्त्या, तर्थव निर्मलसमाधिपरिणतपरमयोगिगुणभावनालक्षणया योगभक्त्या चेति । एवं पूर्वविदेहतीर्थकरनमस्कारमुख्यत्वेन माथा गतेत्यभिप्रायः ॥३॥ अथ किया कृत्वा । कम् ! णमो नमस्कारम् । केभ्यः ? अरहताणं सिद्धाणं तह गणहराणं अज्झावपवगाणं साहूणं व अर्हत्सिद्धगणधरोपाध्यायसाधुभ्यश्चैव । कतिसख्योपेतेभ्यः ? सम्वेसि सर्वेभ्यः। इति पूर्वगाथात्रयेण कृतपञ्चपरमेष्ठिनमस्कारोपसंहारोऽयम् ॥४।। एवं पञ्चपरमेष्ठनमस्कारं कृत्वा कि करोमि ? उवसंपयामि उपसपद्ये समाश्रयामि । किम् ? सम्म साम्यं चारित्रम् । यस्मात् कि भवति ? जत्तो णियाणसंपत्ती यस्मानिर्वाणसंप्राप्तिः । कि कृत्वा पूर्व ? समासिज्ज समासाद्य प्राप्य । कम् ? विसुद्धणाणदंसणपहाणासमं विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणप्रधानाश्रमम् । केषां सम्बंधित्वेन ? तेसि तेषां पूर्वोतपरमेष्ठिनामिति । तथाहि--अहमाराधकः, एते चाहदादय आराध्या, इत्याराध्याराधकविकल्परूपो द्वतनमस्कारो मण्यते । रागाद्यपाधिविकल्प रहितपरमसमाधिवलेनात्मन्येवाराध्या राधमभावः पुनरर्वतनमस्कारो भण्यते। इत्येवलक्षणं पूर्वोक्तगाथात्रयकथितप्रकारेण पञ्चपरमेष्ठिसम्बंधिनं द्वैताद्वैतनमस्कारं कृत्वा । तत: किं करोमि ? रागादिभ्यो मिलोऽयं स्वात्मोत्थसुखस्वभाव: परमात्मेति भेदज्ञानं, स स एन पर्व प्रकारोपादेश इति रुचिरूपं सम्यक्त्वमित्युक्तलक्षण ज्ञानदर्शनस्वभावं, मठचैत्यालयादिलक्षणव्यवहाराश्रमाद्विलक्षणं, भावाश्रमरूपं प्रधानाश्रमं प्राप्य, तत्पूर्वकं कमायातमपि सरागचारित्रं पुण्यबन्धकारण मिति ज्ञात्वा परिहत्य निश्चलशुद्धात्मानुभुतिस्वरूपं वीतरागचारित्रमहमाधयामीति भावार्थः । एवं प्रथमस्थले नमस्कारमुख्यत्वेन गाथापञ्चकं गतम् ॥५॥ ___ अन्वय सहित विशेषार्थ—(एस) यह जो मैं ग्रन्थकार इस ग्रन्थ को करने का उद्यमी हुआ हूँ और अपने ही द्वारा अपने आत्मा का अनुभव करने में लवलीन है सो (सुरासुरमणुसिंववंदिदं) तीन जगत् में पूजने योग्य अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों के आधारभूत अहंत पद में विराजमान होने के कारण से तथा इस पद के चाहने वाले तीन भुवन के बड़े पुरुषों द्वारा भले प्रकार जिनके चरण कमलों की सेवा की गई है इस कारण से स्वर्गवासी देवों और भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों के इन्द्रों से वंदनीक, (घोयधाइकम्ममलं) परम आत्म-लवलीनतारूप समाधिमाध से जो रागद्वेषादि मलों से रहित निश्चय आत्मीक सुखरूपी अमृतमय निर्मल जल उत्पन्न होता है, उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्त राय इन चार धातियाकर्मों के मल को धोने वाले अथवा दूसरों के पापरूपी मल के धोने के लिए निमित्त कारण होने वाले, (धम्मस्स कत्तार) रागादि से शून्य निज आत्मतत्व में परिणमन रूप निश्चय धर्म के उपादान कर्ता अथवा दूसरे जीवों को उत्तम क्षमा आदि अनेक प्रकार धर्म का उपदेश देने वाले (तित्थं) तीर्थ अर्यात देखे, सुने, अनुभवे इन्द्रियों के विषय सुख की इच्छा रूप जल के प्रवेश से दूरवर्ती, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] । पश्यणसारो परम समाधिरूपी जहाज पर चढ़कर संसार समुद्र से तिरने वाले अथवा दूसरे जीवों को संसार सागर से पार होने का उपाय-मय एक जहाजस्वरूप (वरदमाणं) सब तरह अपने उन्नतरूप ज्ञान को धरने वाले तथा रत्नत्रयमय धर्म तत्व के उपदेश करने वाले श्री वर्धमान तीर्थकर परमदेव को (पणमामि) नमस्कार करता हूँ ॥१॥ (पुण) फिर मैं (विसुद्धसब्भाव) निर्मल आत्मा के अनुभव के बल से सर्व आवरण को दूरकर केवलज्ञान, केवलदर्शन स्वभाव को प्राप्त होने वाले (सेसे तिस्थयरे) शेष वृषभ आदि पाश्वनाथ पर्यंत २३ तीर्थकरों को (ससम्बसिद्ध) और शुद्ध आत्मा को प्राप्तिरूप सर्व सिद्ध महाराजों को (य) तथा णाणसणचरिततश्योरियायारे) सर्व प्रकार विशद्धद्रव्य गुण पर्यायमय-चैतन्य वस्तु में जो रागद्वेष आदि विकल्पों से रहित निश्चल चित्त का वर्तना उसमें अंतर्भूत जो व्यवहारवर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और बीर्य सहकारी कारण से उत्पन्न निश्चय पंचाचार उसमें परिणमन करने से यथार्थ पंचाचार को पालने वाले (समणे) श्रमण शब्द से थाच्य आचार्य, उपाध्याय, और साधुओं को नमस्कार करता है ॥२॥ (ते ते सव्ये) उन उन पूर्व में कहे हुए पंच परमेष्ठियों को (समगं समगं) समुदाय रूप वंदना को अपेक्षा एक साथ तथा (पत्तेयं पत्तेयं) प्रत्येक को अलग-अलग चंदना की अपेक्षा प्रत्येक को (य) और (माणुसे खेत्ते) मनुष्यों को रहने के क्षेत्र हाईद्वीप में (घटते) वर्तमान (अरहंते) अरहंतों को (यंदामि) मैं वन्दना करता हूँ। भाव यह कि वर्तमान में इस भरतक्षेत्र में तीर्थंकरों का अभाव है परन्तु डाईद्वीप के पांच विदेहों में सीमन्धर स्वामी आदि २० तीर्थकर परमदेव विराजमान हैं, इन सबके साथ उक्त पहले कहे हुए पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार करता हूँ। नमस्कार दो प्रकार का होता है द्रव्य और भाव, इनमें भाव-नमस्कार मुख्य है। इस भाव नमस्कार को मैं मोक्ष की साधन रूप सिद्ध-भक्ति तथा योग-भक्ति से करता हूँ। मोक्ष रूप लक्ष्मी का स्वयंवर मंडप रूप जिनेन्द्र के दीक्षाकाल में मंगलाचार रूप तो अनन्तजानादि सिद्ध गुणों की भावना करना उसको सिद्धभक्ति कहते हैं। तैसे ही निर्मल समाशि में परिणमन रूप परम योगियों के गुणों को अथवा परम योग के गुणों को भावना करना सो योग-भक्ति है। इस तरह इस गाथा में विदेहों के तीर्थंकरों के नमस्कार की मुख्यता से कथन किया गया है ॥३॥ (सम्वेसि) सर्व ही (अरहंताणं) अरहंतों को (सिद्धाणं) आठ कर्म रहित सिद्धों को (गणहराणं) चार ज्ञान के धारी गणधर आचार्यों को (तह) तथा (अज्मावयवगाण) उपाध्याय समूह को और (चेव) तैसे ही (साहूण) साधुओं को (णमो किच्चा) भाव और द्रध्य से नमस्कार Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १३ करके आगे कहूंगा जो करना है ||४३| ( तसि) उन पूर्व में कहे हुए पाँच परमेष्ठियों में (बिसुद्ध दंसणणाणपणा समं) विशुद्ध दर्शन ज्ञानमयी लक्षणधारी प्रधान आश्रम को (समासिज्ज ) भले प्रकार प्राप्त होकर ( सम्म) साम्यभाव रूप चारित्र को ( उपसंपयामि) भले प्रकार धारण करता हूँ ( जत्तो) जिस साम्यभावरूप चारित्र से ( निव्वाणसंपत्ती) निर्वाण की प्राप्ति होती है ||५|| यहाँ टीकाकार खुलासा करते हैं कि मैं आराधना करने वाला हूँ तथा ये अहंत आदिक आराधना करने के योग्य हैं, ऐसे आराध्य - आराधक का जहाँ विकल्प है, उसे इंत नमस्कार कहते हैं तथा रागद्वेषादि औपाधिक भाव के विकल्पों से रहित जो परम समाधि है, उसके बल से आत्मा ही आराध्य - आराधक भाव होना अर्थात् दूसरा कोई भिन्न पूज्य पूजक नहीं है, मैं हो पूज्य हूँ, मैं ही पूजारी हूँ, ऐसा एकत्वभाव स्थिरता रूप होना, उसे अद्वैत नमस्कार कहते हैं। पूर्व गाथाओं में कहे गए पाँच परमेष्ठियों को इस लक्षण रूप द्वैत अथवा अद्भुत नमस्कार करके मठ चैत्यालय आदि व्यवहार आश्रम से विलक्षण भावाश्रम रूप जो मुख्य आश्रम है उसको प्राप्त होकर मैं वीतरागचारित्र को आश्रय करता हूँ । अर्थात् रागादिकों से भिन्न यह अपने आत्मा से उत्पन्न सुख स्वभाव का रखने वाला परमात्मा है, सो ही निश्चय से मैं हूँ। ऐसा भेदज्ञान तथा वही परमात्मस्वभाव सब तरह से ग्रहण करने योग्य है ऐसी रुचि रूपी सम्यग्दर्शन है, इस तरह दर्शन ज्ञान स्वभावमयी भावाश्रम है । इस भावाश्रम - पूर्वक आचरण में आता हुआ, जो पुण्य-बंध का कारण सरागचारित्र है, उसे हेय जानकर त्याग करके निश्चल शुद्धात्मा के अनुभव स्वरूप वीतरागचारित्र भाव को ग्रहण करता हूँ । अथायमेव वीतराग - सरागचारित्रयोरिष्टानिष्टफलत्वेनोपादेयत्वं विवेचयति-संप ज्जदि णिवाणं देवासुरमनुयरायविहहिं । जीवस चरितादो दंसणणाणप्पहाणादो ॥ ६॥ संपद्यते निर्वाणं देवासुरमनुज राजविभवैः । जीवस्य चारित्राद्दर्शनज्ञानप्रधानात् || ६ || संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्षः, तत एव च सरागाद्द बासुरमनुज राजभिवक्लेशरूपो बन्धः । अतो मुमुक्षुणेष्ट फलत्वाद्वीतरागचारित्रमुपावेयमनिष्टफलत्वात् सरागचारित्रं हेयम् || ६ || (1) संपज्जर ( ज० वृ० ) । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] [ पवयणसारो भूमिका – आगे स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द हो वीतरागचारित्र को अभीष्ट फल (मोक्ष) का जनक होने से उपादेय और सरागचारित्र को अनिष्टफल --- स्वर्गादिकी प्राप्ति का कारण होने से हेय बतलाते है अन्वयार्थ -- | दर्शन - ज्ञानप्रधानात् ] सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को प्रधानता युक्त [ चारित्रात्] चारित्र से [ जीवस्य जीवों को | देवासुरमनुजराजविभवः] देवराज, असुरराज ( धरणेन्द्र) और मनुजराज (चक्रवर्ती) की विभूतियों के साथ [ निर्वाणम् ] निर्वाण भी [ संपद्यते ] प्राप्त होता है || ६ || टीका - दर्शन ज्ञान की प्रमुखता युक्त वीतरागचारित्र से मोक्ष प्राप्त होती है और उस ही ( दर्शन-प्रधान ) सरागचारित्र से देवराज, असुरराज और मनुजराज के वैभव का, ( ओ परिणाम में क्लेश-जनक है), सम्बन्ध प्राप्त होता है । इसलिये मुमुक्षु जीव को इट फल वाला होने से वीतराग चारित्र उपादेय है और अनिष्ट फल वाला होने से सरागचारित्र है है ||६|| विशेषार्थ — सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ जो सुख का साधक जान संयमाचरण में अनुराग होता है उसका नाम सराग चारित्र है और वह पुण्यबन्ध का कारण होने से इन्द्राविकों की विभूति को प्राप्त कराता है । परन्तु यह सब विभूति वस्तुतः क्लेशजनक ही होती है । साक्षात् निराकुल सुख को सम्भावना उससे नहीं है । इसीलिये साक्षात् शाश्वतिक निर्बाध सुख के अभिलाषी उसे हेघ ही मानते हैं। यह बात अलग है कि जब कि जीव की शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थिति नहीं होती है तब तक उन्हें अपेक्षाकृत वह भी ग्राह्य होता है, पर उनकी बुद्धि उसमें हेय रूप ही रहती है । इसके विपरीत जो रागभाव के बिना संयम रूप आचरण होता है, वह चूंकि साक्षात् मोक्ष का कारण होता है अतएव वह सर्वथा उपादेय ही होता है ॥ ६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथोपादेयभूतस्यातींद्रियसुखस्य कारणत्याद्वीतराग चारित्रमुपादेयम् । अतीन्द्रियसुखापेक्षया यस्येन्द्रिय सुखस्य कारणत्वात्सरागचारित्रं हेयमित्युपदिशति - संज्जइ संपद्यते किम् ? णिध्वाणं निर्वाणम् । कथम् ? सह । कः ? देवासुरमनुयरायविवेहि देवासुरमनुष्यराजविभवः । कस्य ? जीवस्स जोवम्य । कस्मात् ? चरितावो चारित्रात् । कथंभूतात् ? सणापहाणादो सम्यग्दर्शनज्ञानप्रधानादिति । तत्तथा आत्माधीनज्ञानसुखस्वभावे शुद्धात्मद्रव्ये निश्चलनिर्विकारानुभूतिरूपमवस्थानं तल्लक्षणनिश्चय चारित्राज्जीवस्य समुत्पद्यते । किम् ? पराधी नेन्द्रियजनितज्ञानसुखविलक्षणं, स्वाधीनातीन्द्रियरूपपरमज्ञानसुखलक्षणं निर्वाणम् | सरागचारित्रा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १५ पुनर्देवासुरमनुष्यराजविभूतिजनको मुख्यवृत्त्या विशिष्ट पुण्यबन्धो भवति, परम्परया निर्वाणं चेति । असुरेषु मध्ये सम्यग्दृष्टिः कथमुत्पद्यते इति चेत्? निदानबन्धेन सम्यक्त्वविराधनां कृत्वा तत्रोत्पद्यत इति ज्ञातव्यम् । अत्र निश्चयेन वीतरागचारित्रमुपादेयं सराग हेयमिति भावार्थः ।।६।। उत्थानिका—जिस वीतरागचारित्र का मैंने आश्रय लिया है, वहीं वीतरागचारित्र प्राप्त करने योग्य अतीन्द्रिय सुख का कारण है, इससे ग्रहण करने योग्य है तथा सरागचारित्र अतीन्द्रिय सुख की अपेक्षा से त्यागने योग्य है, क्योंकि वह इन्द्रिय सुख का भी कारण है, इससे भी सरागचारित्र छोड़ने योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ—(जीवस्स) इस जीब के (दसणणाणप्पहाणादो) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्रधानता पूर्वक (चरित्तादो) सम्यकचारित्र के पालने से (देवासुरमणुयराय- विहवेहि) कल्पवासी, भवनत्रिक तथा चक्रवर्ती आदि राज्य को विभूतियों के साथ साथ (णिव्वाणं) निर्वाण (संपज्जइ) प्राप्त होती है ! प्रयोजन यह हैं कि-आत्मा के अधीन निज सहज ज्ञान और सहज आनन्द स्वभाव वाले अपने शुद्ध आत्म द्रव्य में जो निश्चलता से विकार-रहित अनुमति प्राप्त करना अथवा उसमें ठहर जाना सो ही है, लक्षण जिसका, ऐसे निश्चयचारित्र के प्रभाव से इन जीव के पराधीन इन्द्रियजनित ज्ञान और सुख से विलक्षण तथा स्वाधीन अतीन्द्रिय उत्कृष्ट ज्ञान और अनन्त सुख हैं लक्षण जिसका, ऐसा निर्वाण प्राप्त होता है तथा सराग चारित्र के कारण कल्पवासी देव, भवनत्रिकदेव, चक्रपती आदि की विभूति को उत्पन्न करने वाला मुख्यता से विशेष पुण्यबंध होता है तथा उससे परम्परा से निर्वाण प्राप्त होता है । असुरों के मध्य में सम्यग्दष्टि से उत्पन्न होता है? इसका समाधान यह है कि निदान करने के भाव से सम्यक्त्व को विराधना करके यह जीव भवनत्रिक में उत्पन्न होता है, ऐसा जानना चाहिये । यहाँ भाव यह है कि निश्चयनय से वीतरागचारित्र उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य हैं तथा सरागचारित्र हेय अर्थात त्यागने योग्य है। तात्पर्य यह है कि हमको मोक्ष का साधक निश्चयरत्नत्रयमयो वीतरागचारित्र को समझना चाहिये और व्यवहाररत्नत्रयमयी सरागचारित्र को उसका निमित्तकारण या परम्परा कारण समझना चाहिये। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो अथ चारित्रस्वरूप विभावयति चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिहिट्ठो। मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अपणो हु समो ॥७॥ चारित्रं खलु धर्मो धर्मो यस्तत्साम्यमिति निर्दिष्टम् ।। मोहझोभविहीन: परिणाम आत्मनो हि साम्यम् ।।७।। स्वरूपे चरणं चारित्रम, स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थः तदेव वस्तुस्वभावत्वाद्धमः, शुद्धतन्यप्रकाशन मित्यर्थः। तदेव च यथावस्थितात्मगुणत्वात्साम्यम् । साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयोवगानिलम्बनमोनोलाभावाटत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणामः ॥७॥ भूमिका---अब चरित्र के स्वरूप का प्रतिपादन करता हैं । अन्वयार्थ--[चारित्रम् ] चारित्र |खलु | वास्तव में [धर्मः] धर्म है [यः धर्मः] और जो धर्म है [तत् साम्यम् ] वह साम्य है [इति] ऐसा [निर्दिष्टम् ] जिनेन्द्रों द्वारा कहा गया है। [साम्यम् ] साम्य ही वास्तव में मोहक्षोभविहीनः] मोह (मिथ्यात्व) और क्षोभ (राग-द्वेष) रहित [आत्मनः परिणामः] आत्मा का परिणाम है ॥७॥ टीका--स्वरूप में चरण करना सो (स्वरूपाचरण) चारित्र है। स्वसमय में प्रवृत्ति करना (परसे भिन्न अपने स्थभाव में प्रवृत्ति करना) यह इसका अर्थ है, वही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है। शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना, यह इसका अर्थ है। वही यथास्थित आत्मगुण होने से (विषमता रहित सुस्थित आत्मा का गुण होने से) साम्य है, और साम्य, दर्शनमोहनीयकर्म तथा चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह और क्षोभ (राग द्वेष) के अभाव के कारण से अत्यन्त निधिकार जीव का परिणाम है ॥७॥ तात्पर्ययत्तिअथ निश्चय चारित्रस्य पर्यायनामानि कथयामीत्यभिप्रायं मनसि संप्रधार्य मूत्रमिदं निरूपयति-, एवमग्रेऽपि विवक्षितसूत्रार्थ मनसि धृत्वावास्य सूत्रस्याने सुत्रमिदमुचितं भवत्येवं निशिचत्य सूत्रमिदं प्रतिपादयतीति पातनिकालक्षणं यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम्-चारित्तं चारित्रं कर्तृ खलु धम्मो खलु स्फुटं धर्मो भवति । धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो धर्मो यः स तु शाम इति निदिष्टः । समो यस्तु शमः सः मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु मोहक्षोभविहीनः परिणामः । कस्य ? आत्मनः। है स्फुटमिति । तथाहि-शुद्धचित्स्वरूपे चरण चारित्रं, तदेव चारित्रं मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपे भावसंसारे पतन्तं प्राणिनमुद्धत्य निर्विकार शुद्धचैतन्ये धरतीति धर्मः । स एव धमः स्थात्मभावनोत्यसूखामतशीतजलेन कामक्रोधादिरूपाग्निजनितस्य संसारदु:खदाहस्योपशमकत्वात् शम इति । ततश्च शुद्धात्मश्रद्धानरूपसम्यक्त्वस्य विनाशको दर्शनमोहाभिधानो मोह इत्युच्यते । निर्विकारनिश्चलचित्तवृत्तिरूपचारित्रस्य विनाशकश्चारित्रमोहाभिधानः क्षोभ इत्युच्यते । तयोविध्वंसकत्वात्स एव शमो मोहक्षोभविहीन: शुद्धात्मपरिणामो भण्पत इत्यभिप्राय: ।। ७ ।। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १७ उत्थानिका— आगे निश्चयचारित्र का स्वरूप तथा उसके पर्याय नामों का अभिप्राय मन में धारण करके आगे का सूत्र कहते हैं—- इसी तरह आगे भी एक सूत्र के आगे दूसरा सूत्र कहना उचित है । ऐसा कहते रहेंगे, इस तरह की पातनिका यथासम्भव सर्वत्र जाननी चाहिये । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( चारितं ) चारित्र ( खलु) प्रगटपने (धम्मो ) धर्म है (जो धम्मो ) जो यह धर्म है ( सो समोत्ति) सो ही सम या साम्यभाव है, ऐसा (गिट्ठो) कहा गया है । (अप्पणी) आत्मा का ( मोहक्लोहविहीणा ) मोह और क्षोभ से रहित (परिणामो ) भाव है (हि) वही निश्चय करके (समो) समता भाव है । प्रयोजन यह है कि शुद्धचैतन्य के स्वरूप में आचरण करना चारित्र है । यही चारित्र मिथ्यात्व रागद्वेषादि द्वारा संसरणरूप जो भाव संसार उसमें पड़ते हुए प्राणी का उद्धार करके विकार रहित शुद्ध चैतन्यभाव में धारण करने वाला है, इससे यह चारित्र ही धर्म है । यही धर्म अपने आत्मा की भावना से उत्पन्न जो सुखरूपो अमृत उस रूप शीतल जल के द्वारा काम क्रोध आदि अग्नि से उत्पन्न संसार के दुःखों की वाह को उपशम करने वाला है, इससे यही शम, शांतभाव या साम्यभाव है। मोह और क्षोभ के ध्वंस करने के कारण से वही शांतभाव मोह क्षोभ रहित शुद्ध आत्मा का परिणाम कहा जाता है। शुद्ध आत्मा के श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन को नाश करने वाला जो दर्शनमोहनीयकर्म है, उसे मोह कहते हैं। तथा निविकार निश्चल चित्त के वर्तनरूप चारित्र को नाश करने वाला है, वह चारित्र मोहनीयकर्म या क्षोभ कहलाता है । अयात्मनश्चारित्रत्वं निश्चिनोति - परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं । धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो' ||८|| तम्हा नश्चरित्रत्वम् ||८|| परिणमति येन द्रव्यं तत्कालं तन्मयमिति प्रज्ञप्तम् । तस्माद्धर्मपरिणत आत्मा धर्मो मन्तव्यः ||८|| यत्खलु द्रव्यं यस्मिन्काले येन भावेन परिणमति तत् तस्मिन् काले किलोष्ण्यपरिण तायः पिण्डवत्तन्मयं भवति । ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एव भवतीति सिद्धमत्मा भूमिका – अब, आत्मा चारित्ररूप का निश्चय करते हैं १. तक्काले ( ० वृ०)। २. मुणेदव्वो (अ० वृ० ) । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ 1 [ पवयणसारो अन्धयार्थ-[द्रव्यम् ] द्रव्य [यत्कालम् ] जिस समय में [येन भावेन] जिस भाव से [परिणमति ] परिणमन करता है | तत्कालम् ] उस समय [तन्मम्) उस रूप है [इति] ऐसा [प्रशप्तम्] श्री जिनेन्द्रों द्वारा कहा है। [तस्मात् ] इसीलिये [धर्मपरिणतः आत्मा | धर्म परिणत आमा को [धर्मः ] धर्म [मन्तव्यः] जानना चाहिये । टीका-वास्तव में जो द्रव्य जिस समय में जिस भाव से परिणत होता है, वह द्रव्य उस समय में उसी-स्वरूप है, उससे भिन्न नहीं है। जैसे-उष्णता रूप से परिणत लोहे का गोला उस स्वरूप (उष्णतामय) होता है। इस कारण धर्म रूप से पारंगत आत्मा धर्म हो है । इस प्रकार आत्मा को चारित्रता सिद्ध हुई (पर्यायदृष्टि से आत्मा का चारित्र से अभेद करके कथन किया है)। . यहाँ यह विशेषता समझना चाहिये कि पूर्व में (गाथा ७) में कहा था कि चारित्र आत्मा का भाव है। पर इस गाथा में अभेद नय से यह कहा गया है कि जैसे उष्णभाव से परिणत लोहे का गोला स्वयं उष्ण है-लोहे का गोला उष्णता से भिन्न नहीं है, वैसे ही चारित्र भाव से परिणत आत्मा भी स्वयं चारित्र है-उससे भिन्न नहीं है, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिये ॥६॥ तात्पर्यवृत्तिअयाभेदनयेन धर्मपरिणत आत्मैव धर्मों भवतीत्यावेदयति-परिणम दि जेण वष्वं तककाले तम्मय त्ति पण्णत्तं परिणमति येन पर्यायेण द्रव्यं कर्तुं तत्काले तन्मयं भवतीति प्राप्तम् यत: कारणात्, तम्हा धम्मपरिणदो आवा धम्मो मुणेवग्यो तत: कारणात धर्मेण परिणत आत्मैव धमों मन्तव्य इति । तद्यथा-निजशुद्धात्मपरिणतिरूपोनिश्चयधर्मो भवति । पञ्चपरमेष्ट्ययादिभक्तिपरिणामरूपो व्यवहारधर्मस्ताबदुच्यते । यतस्तेन तेन विवक्षिताविवक्षिप्तपर्यायेण परिणतं द्रव्यं तन्मयं भवति, तत: पूर्वोक्तधर्मद्वयेन परिणतस्तप्तायःपिण्डवदभेदनयेनात्मैव धर्मो भवतीति ज्ञातव्यम् । तदपि कस्मात् ? उपादानकारणसदृशं हि कार्यमिति वचनात् । तच्च पुनरुपादान कारणं शुद्धाशुद्धभेदेन द्विधा। रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनशानमागमभाषया शुक्लथ्यानं वा केवलज्ञानोत्पत्ती शुद्धोपादानकारणं भवति । अशुद्धात्मा तु रागादीनामशुद्धनिश्चयेनाशु खोपादान कारणं भवतीति सूत्रार्थः । एवं चारित्रस्य संक्षेपसूचनरूपेण द्वितीयस्थले गाथात्रयं गतम् ।। एवं चारित्रस्य संक्षेपसूचनापेण द्वितीयस्थले गाथात्रयं गतम । उत्थानिका-आगे कहते हैं कि अभेदनय से इन वीतरागभावरूपी धर्म में परिणमन करता हुआ आत्मा ही धर्म हैं। __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(दव) द्रव्य (जेण) जिस अवस्था या भाव से (परिणमदि) परिणमन करता है या वर्तन करता है (तरकाले) उसी समय वह द्रव्य (तम्मयत्ति) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] उस पर्याय या भाव के साथ तन्मय हो जाता है, ऐसा (पण्णत) कहा गया है । (तम्हा) इसलिये (धम्म परिणदो) धर्म रूप भाव से वर्तन करता हुआ (आवा) आप्मा (धम्मो) धर्मरूप (मुणेदयव्यो) माना जाना चाहिये। तात्पर्य यह है कि अपने शुद्ध आत्मा के स्वमाव में परिणमन होते हए जो भाव होता है, उसे निश्चय धर्म कहते हैं तथा पंचपरमेष्ठी आदि की भक्तिरूपी परिणति या भाव को व्यवहारधर्म कहते हैं । क्योंकि अपनी-अपनी विवक्षित पर्याय से परिणमन करता हुआ द्रव्य उस पर्याय से तन्मय हो जाता है, इसलिये पूर्व में कहे हुए निश्चय धर्म और व्यवहारधर्म से परिणमन करता हुआ आत्मा ही गर्म लोहे के पिंड की तरह अभेव नय से धर्मरूप होता है, ऐसा जानना चाहिये । यह भी इसीलिये कि उपाबानकारण के सदृश कार्य होता है, ऐसा सिद्धान्त का वचन है तथा वह उपादानकारण शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है। केवलज्ञान की उत्पत्ति में रागद्वेषादि रहित स्वसंवेदनज्ञान तथा आगम की भाषा से शुक्ल-ध्यान शुद्ध उपादानकारण हैं तथा अशुद्ध आत्मा रागादिरूप से परिणमन करता हुआ अशुद्ध निश्चयनय से अपने रागादि भावों का अशुद्ध उपादानकारण होता है। अथ जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वं निश्चिनोति जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धेण तवा सुद्धो हवदि हि परिणाससब्भावो ॥६॥ जोवः परिणमति यदा शुभेनाशुभेन वा शुभोऽशुभः । शद्धेन तदा शुद्धो भवति हि परिणाणमसद्भावः ॥६॥ यदाऽयमात्मा शुभेनाशुभेन वा रागभावेन परिणमति तदा जपा-तापिच्छरागपरिणतस्फटिकवत् परिणामस्वभावः सन् शुभोऽशुभश्च भवति । यदा पुनः शुद्धनारागभावेन परिणमति तदा शुद्धारागपरिणतस्फटिकवत्परिणामस्वभावः सन् शुद्धो भवतीति सिद्ध जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वम् ।।६।। भूमिका—अब जीव की शुभस्वरूपता, अशुभस्वरूपता और शुद्धस्वरूपता का निश्चय करते हैं अन्वयार्थ— [जीव ] जीव | यदा | जब [शुभेन] शुभ भाव से [परिणमति] परिणमन करता है [तदा] तब [शुभः भवति] स्वयं ही शुभ होता है, वही जब जब [अशुभेन] अशुभ भाव से [परिणमति] परिणमन करता है [तदा] तब [अशुभः भवति] स्वयं ही Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] [ पवयणसारो अशुभ होता है, और जब वरी [शुद्धन] शुद्ध भाव से [परिणमति] परिणमन करता है [तदा] तव [शुद्धः भवति] स्वयं शुद्ध होता है [हि] क्योंकि वह [परिणामसद्भावः] परिणमन स्वभाव वाला है-उत्पाद व्यय-ध्रौव्य स्वरूप है। टीका-जब यह आत्मा शुभ या अशुभ राग भाव से परिणत होता है, तब जपा कुसुम या तमालपुष्प के लाल या काले रंगरूप परिणत स्फटिक की भांति परिणाम स्वभाव होता हुआ स्वयं शुभ या अशुभ होता है और जब यह शुद्ध अराग (वीतराग) भाव से परिणत होता हुआ शुद्ध होता है, तब शुद्ध अराग (वीतराग) स्फटिक की भांति परि. णाम स्वभाव होता हुआ शुद्ध होता है (उस समय आत्मा स्वयं ही शुद्ध होता है)। इस प्रकार जीव के शुभत्व, अशुभत्व और शुद्धत्व सिद्ध होते हैं । तात्पर्य यह है कि वह अपरिणमन स्वभाव कूटस्थ नहीं है ॥६॥ तात्पर्यवृत्तिअथ शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयेण परिणतो जीव: शुभाशुभशुद्धोपयोगस्वरूपो भवतीत्युपदिशतिजीयो परिणमवि जदा सुहेण अरु हेण ता जीव; कर्ता यदा परिणमति शुभेनाशुभेन वा परिणामेन सुहो असुहो हवदि तदा शुभेन शुभो भवति, अशुभेन वाऽशुभो भवति । सुद्धण तवा सुद्धो हि शुद्धेन यदा परिणमति तदा शुद्धो भवति, हि स्फुटम् । कथंभूतः सन् ? परिणामसभायो परिणामसभावः सन्निति । तद्यथा-यथा स्फटिकमणिविशेषों निर्मलोऽपि जपापुष्पादिरक्तकृष्णश्वेतोपाधिवशेन रक्तकृष्णश्वेतवों भवति, तथाऽयं जीवः स्वभावेन, शुद्धबुद्धकस्वरूपोऽपि व्यवहारेण गृहस्थापेक्षया यथासंभवं सरागसम्यक्त्वपूर्वकदानपूजादिशुभानुष्ठानेन, तपोधनानेक्षया मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठानेन परिणत: शुभो ज्ञातव्य इति । मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगश्चप्रत्ययरूपाशुभोपयोगेनाशुभो विज्ञेयः । निश्चय रत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगेन परिणत: शुद्धो ज्ञातव्य इति । किद जीवस्यासंख्येयलोकमात्रपरिणामाः सिद्धान्ते मध्यमप्रतिपल्या मिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्दशगुणस्थानरूपेण कथिताः। अत्र प्राभतशास्त्रे तान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेपाशुभशुभशुद्धोपयोगरूपेण कषितानि । कमिति चेत्-मिथ्यात्वसासादमिश्रगुणस्थान त्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः, तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टि देशविरतप्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्त गुणस्थानषट् के तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थः ॥६॥ _उत्थानिका—आगे यह उपदेश करते हैं कि शुभ, अशुभ तथा शुद्ध ऐसे तीन प्रकार के उपयोग से परिणमन करता हुआ आत्मा शुभ, अशुभ तथा शुद्ध उपयोग स्वरूप होता है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(जवा) जय (परिणाम सम्भावो) परिणमन स्वभावधारी (जीयो) यह जीव (सुहेण) शुभ भाव से (वा असुहेण) अथवा अशुभ भाव से (परिणमवि) परिणमन करता है तब (सुही असुहो) शुभ परिणामों से शुभ तथा अशुभ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५णतारा ] परिणामों से अशुभ (हवाद) हो जाता है । (सुद्धेण) जब शुद्ध भाव से परिणमन करता है (तदा) तब (हि) निश्चय से (सुद्धो) शुद्ध होता है । __इसी का भाव यह है कि जैसे स्फटिकमणि का पत्थर निर्मल होने पर भी जपा पुष्प आदि लाल, काली, श्वेत उपाधि के वश से लाल, काला, श्वेत रंग रूप परिणम जाता है, तैसे यह जीव स्वभाव से शुद्धबुद्ध एक स्वभाव होने पर भी व्यवहार करके गृहस्थ अपेक्षा यथासंभव राग-सहित सम्यक्त्व-पूर्वक दान पूजा आदि शुभ कार्यों के करने से तथा मुनि को अपेक्षा मूल व उत्तर गुणों को अच्छी तरह पालन रूप वर्तने में परिणमन करने से शुभ है, ऐसा जानना योग्य है। मिथ्यादर्शन सहित अविरतिभाव, प्रमादभाव, कषायभाव व मन वचन काय योगों के हलन चलनरूप भाष, ऐसे पांच कारणरूप अशुभोपयोग में वर्तन करता हुआ, अशुभ जानना योग्य है तथा निश्चल रत्नत्रयमय शुद्ध उपयोग से परिणमन करता हुआ, शुद्ध जानना चाहिये। इसका क्या प्रयोजन है सो कहते हैं कि सिद्धान्त में जीव के असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम हैं। मध्यम वर्णन की अपेक्षा मिथ्यादर्शन आदि १४ गुणस्थान रूप से कहे गए हैं । इस प्रवचनसार प्राभूतशास्त्र में उन्हीं गुणस्थानों का संक्षेप से शुभ अशुभ तथा शुद्ध-उपयोग रूप से वर्णन किया गया है । सो ये तीन प्रकार के उपयोग १४ गुणस्थानों में किस तरह घटते हैं तो कहते हैं-मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से कमती-कमती अशुभ उपयोग है। इसके पीछे असंयत सम्यग्दष्टि, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत ऐसे तीन गुणस्थानों में तारतम्य से शुभोपयोग है। उसके पीछे अप्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय तक छः गणस्थानों में तारतम्य से शुद्धोपयोग है। उसके पीछे संयोगिजिन और अयोगिजिन इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है, ऐसा भाव है। अथ परिणाम वस्तुस्वभावत्वेन निश्चिनोतिणस्थि विणा परिणाणं अत्यो अत्थं विणेह परिणामो। दव्वगुणपज्जयत्यो अत्यो अत्थित्तणिव्वत्तो ॥१०॥ नास्ति विना परिणाममर्थोऽयं विनेह परिणामः । द्रव्यगुणपर्ययस्योऽर्थोऽस्तित्व निर्वृतः ।।१०।। न खलु परिणाममन्तरेण वस्तु सत्तामालम्बते वस्तुनो द्रव्यादिभिः परिणामात् पृपगुपलम्भाभावालिः परिणामस्य खुरशृङ्गकल्पत्याद् दृश्यमानगोरसादिपरिणामविरोधाच्च अन्तरेण यस्तु परिणामोऽपि न सत्तामालम्बते, स्वाश्रयभूतस्य वस्तुनोऽमावे निराश्रयस्य Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] [ पवयणसारो परिणामस्य शून्यत्वप्रसङ्गात् । वस्तु पुनरूद्ध्वंतासामान्यलक्षणे द्रव्ये सहभाविविशेषलक्षणेषु गुणेषु क्रममातिविशेषलक्षणेषु पर्यायेषु व्यवस्थितमुत्पादव्ययधोन्यमयास्तित्वेन निर्वतितं निर्वृत्तिमच्च । अतः परिणामस्वभावमेव ॥१०॥ भूमिका-अम परिणाम को वस्तु स्वभाव से निश्चय करते हैंअन्वयार्थ-[इह्] लोक में [परिणामं बिनापरिणाम के बिना | अर्थः नास्ति ] पदार्थ नहीं है और [अर्थ विना | पदार्थ के बिना [परिणामः] परिणाम [नास्ति नहीं है [ द्रव्यगुणपर्ययस्थः । द्रव्य, गुण व पर्याय में रहने वाला [अर्थः | पदार्थ [अस्तित्वनिवृत्तः] (उत्पाद-त्यय-धोध्य स्वरूप) अस्तित्व से बना हुआ है। टीका--निश्चय से परिणाम के बिना वस्तु अस्तित्व को धारण नहीं करती। अर्थात् परिणाम के बिना आश्रय नहीं लेती है, उसका सद्भाव सम्भव द्रव्यादि के द्वारा होने वाले (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव द्वारा अथवा द्रव्य-गुण-पर्याय द्वारा अथवा उत्पाव-व्ययचौव्य द्वारा होने वाले) परिणाम से भिन्न प्राप्ति का अभाव है। क्योंकि (१) परिणामरहित वस्तु की गधे के सींग से समानता है (अर्थात् परिणाम-रहित वस्तु का गधे के सींग के समान अभाव है।) (२) तथा उस वस्तु का, दिखाई देने वाले गोरस इत्यादि (दूध दही आदि) परिणामों के साथ, विरोध आता है। वस्तु के बिना परिणाम भी अस्तित्व को धारण नहीं करता, क्योंकि स्वाश्रय-भूत वस्तु के अभाव में निराश्रयपरिणाम की शन्यता का प्रसंग आता है। वस्तु तो ऊर्यता-सामान्य-स्वरूप द्रव्य में, सहभावी (साथ-साथ रहने वाले) विशेष (भिन्न-भिन्न) स्वरूप वाले गुणों में तथा क्रमभावी (क्रमशः एक के बाद एक होने वाले) विशेष ( भिन्न-भिन्न) स्वरूप पर्यायों में व्यवस्थित है अर्थात् रहने वाली है और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमय अस्तित्व से बनी हुई है। इसलिये वस्तु परिणाम स्वभाव-वाली परिणाम के माने-विना वस्तु सत्ता का सहारा नहीं लेती-उसके बिना वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि द्रव्यादि स्वरूप से वस्तु का ही परिणाम होता है, जिससे कि वह (वस्तु) कभी भिन्न नहीं उपलब्ध होती-सर्वदा उस परिणाम-मय ही वह उपलब्ध होती है। इस प्रकार जब दोनों में अभेद है, तब परिणाम के बिना उस वस्तु की कल्पना गधे के सींग के समान ही ठहरती है। इसके अतिरिक्त देसी अवस्था में लोक में जो दुध का परिणाम वही व घत आदि रूप देखा जाता है उसका भी विरोध अनिवार्य होगा। इसी प्रकार वस्तु के माने बिना केवल परिणाम का भी अस्तित्व नहीं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ २३ रह सकता है। कारण कि उस परिणाम का आश्रय तो वस्तु ही है, सो अपने आश्रय भूत उस वस्तु के बिना निराधार परिणाम के अभाव का प्रसंग अनिवार्य होगा। दूसरे वस्तु ऊवता-सामान्य-स्वरूप द्रव्य में, सहभावी विशेष-स्वरूप गुणों में, तथा क्रमभावी विशेष-स्वरूप पर्यायों में व्यवस्थित रहने के कारण उत्पाद, व्यय एवं धौव्य-स्वरूप अस्तित्व से निष्पन्न है। विशेषार्थ-वस्तु का लक्षण अर्थ-क्रिया-कारित्व है-जैसे घट का अर्थ-'क्रयाकारित्व जल धारण, वस्त्र का अर्थ क्रिया-कारित्व शरीराच्छादन आदि । सो यह अर्थक्रिया तभी बन सकती है जब वस्तु को परिणाम स्वरूप स्वीकार किया जाय । परिणाम का अर्थ है पूर्व आकार का परित्याग (व्यय), उत्तर आकार का ग्रहण (उत्पाद) और इन दोनों ही अवस्थाओं में द्रव्य (ऊर्ध्वता सामान्य) का समान रूप से अवस्था है, इस प्रकार से वस्तु सामान्य विशेष स्वरूप सिद्ध होती है। सामान्य का अर्थ समानता है । वह सामान्य तिर्यक-सामान्य और ऊर्वता-सामान्य के भेव से दो प्रकार का है। इनमें सदशता रूप जिस धर्म से अनेक वस्तुओं में एकरूपता पायी जाती है, उसका नाम तिर्यक्सामान्य है। जैसे—काली व लाल आदि अनेक गायों में गोरूपता। तथा एक ही द्रव्य को उत्तरोत्तर निष्पन्न होने वाली अनेक अवस्थाओं में जो द्रव्य-रूपता ज्यों की त्यों अवस्थित रहती है, वह है ऊवता-सामान्य । जैसे-एक ही सुवर्ण द्रव्य को उत्तरोत्तर निष्पन्न होने वाली कड़ा व सांकल आदि अनेक अवस्थाओं में सुवर्ण सामान्य का अवस्थान । सामान्य के समान विशेष भी दो प्रकार का है १-पर्याय-विशेष और २-व्यतिरेक-विशेष । उनमें से एक ही द्रव्य में जो क्रम से अनेक अवस्थायें होती हैं-जैसे आत्मा में हर्ष विषाद आदि, उन्हें पर्याय-विशेष कहते हैं। तथा विविध पदार्थों में जो विसदृशता दृष्टिगोचर होती है, वह व्यतिरेक-विशेष कहा जाता है। जैसे-पाय, भैंस और घोड़ा आदि की विसदशता । यहाँ वृत्तिकार ने यह अभिप्राय प्रगट किया है कि वस्तु उत्पाद-विनाशरूप होने से जब सहभावी-विशेष रूप गुणों में-जैसे जीव ज्ञान-दर्शनादि गुणों में पुद्गल रूपरसादि गुणों में तथा क्रमभावी विशेष रूप पर्यायों में अवस्थित रहने के साथ ही ऊर्चतासामान्यरूप ध्रौव्य में भी अवस्थित रहती है, तब उसका उत्पादादि तीन रूप परिणाम से कथंचित-पर्याय की अपेक्षा से जैसे भेद मानना पड़ता है, वैसे ही कथंचित-द्रव्य की अपेक्षा-उससे अभेद भी अनिवार्य है । कारण कि ऐसा मानने के बिना-सर्वथा भेद अथवा " अभेद की कल्पना में--उन दोनों का (वस्तु व परिणाम) का अस्तित्व ही नहीं रह सकता। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] । पश्यणसारा तात्पर्यवृत्ति __ अथ नित्यकान्तक्षणिकैकान्तनिषेधार्थ परिणामपरिणामिनोः परस्परं कथंचिदभेदं दर्शयतिणस्थि विणा परिणाम अत्थो मुक्तजीवे तावत्कथ्यते, सिद्धपीयरूपशुद्धपरिणामं विना शुद्धजीवपदार्थो नास्ति । कस्मात् ? संज्ञालक्षणप्रयोज नादिभेदेऽपि प्रदेशभेदाभावात् । अत्यं विणेह परिणामो मुक्तात्मपदार्थ विना इह जगति शुद्धात्मोपलम्भलक्षण: सिद्धपर्याय रूपः शुद्धपरिणामो नास्ति । कस्मात् ? संज्ञादिभेदेऽपि प्रदेशभेदाभावात् दश्वगुणपज्जयत्यो आत्मस्वरूपं द्रव्यं तत्रैव केवलज्ञानादयो गुणा: सिद्धरूप: पर्यायच, इत्युक्तलक्षणणेषु द्रव्यगुणपर्यायेषु तिष्ठतीति द्रव्यगुणपर्यायस्थो भवति । स क: कर्ता ! अत्यो परमात्मपदार्थः, सुवर्णद्रव्यपीतत्वादिगुणकुण्डलादिपर्यायस्यसुवर्णपदार्थवत् । पुनश्व किरूप: ? अस्थित्तणिन्यतो शुद्धदमागमा पर्यायापारभुत गच्छुद्धास्तित्वं तेन निवृत्तोऽस्तित्वनिवृत्त:, सुवर्णद्रव्यगुणपर्यायास्तित्वानवतसुवर्णपदार्थवदिदि । अयमत्र तात्पर्थिः । यथामुवतजीवे द्रव्यगुणपर्यायत्रयं परस्पराविनाभूत दशितं तथा ससारिजीवेऽपि मतिज्ञानादिविभावगुणेषु नरनारकादिविभावपर्यायेषु नविभागेन यथासंभव विज्ञेयम्, तथैव पुद्गलादिष्वपि । एवं शुभाशुभशुद्धपरिणामव्याख्यान मुख्यत्वेन तृतीयस्थले गाथा द्वयं गतम् ।।१०॥ उत्थानिका--आगे जो कोई पदार्थ को सर्वथा अपरिणामी नित्य कूटस्थ मानते हैं तथा जो पदार्थ को सदा ही परिणमनशील क्षणिक ही मानते हैं, इन दोनों एकान्त भावों का निराकरण करते हुए परिणाम और परिणामी जो पदार्थ हैं, उनमें परस्पर कथंचित् अभेदभाव दिखलाते हैं । अर्थात् जिसमें अवस्थायें होती हैं, वह द्रव्य तथा उसकी अवस्थाएं किसी अपेक्षा से एक ही हैं, ऐसा बताते हैं __अन्वय सहित विशेषार्थ-(अत्यो) पदार्थ (परिणामं बिना) पर्याय के बिना (पस्थि) नहीं रहता है । यहाँ वृत्तिकार ने मुक्त जीव में घटाया है कि सिद्ध पर्यायरूप शुद्ध परिणाम को छोड़कर शुद्ध जीव कोई अन्य पदार्थ नहीं होता है क्योंकि यद्यपि परिणाम और परिणामी में संजा, संख्या, लक्षण प्रयोजन को अपेक्षा भेद है, तो भी प्रवेश-भेव न होने से अभेद है । तथा (इह) इस जगत में (परिणामी) परिणाम (अत्थं विणा) पदार्थ के बिना नहीं होता है। अर्थात शद्ध आत्मा की प्राप्ति रूप है लक्षण जिसका ऐसी सिद्ध पर्यायरूप शुद्ध परिणति मुक्तरूप आत्म-पदार्थ के बिना नहीं होती है, क्योंकि परिणाम परिणामी में संज्ञादिसे भेद होने पर भी प्रदेशों का भेद नहीं है। (वब्वगुणपज्जयत्थो) द्रव्य गुण पर्यायों में ठहरा हुआ (अत्यो) पदार्थ (अस्थित्तणिश्वत्तो) अपने अस्तित्व में रहने वाला अर्थात् अपने अस्तिपने से सिद्ध होता है । - यहाँ शुद्ध आत्मा में लगाकर कहते हैं कि आत्म-स्वरूप द्रव्य है, उसमें केवल मानादि गुण हैं तथा सिद्ध रूप पर्याय है । शुद्ध आत्म-पदार्थ इस तरह द्रव्य गुण पर्याय में Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ २५ ठहरा हुआ है, जैसे स्वर्ण पदार्थ, स्वर्ण द्रव्य पीतपना आदि गुण तथा कुंडलादि पर्यायों में तिष्ठने वाला है। ऐसा शुद्ध द्रव्य गुण पर्याय का आधारभूत जो शुद्ध अस्तिपना उससे 'परमात्मा' पदार्थ सिद्ध है जैसे सुवर्ण पदार्थ, सुवर्ण द्रव्य गुण पर्याय को सत्ता से सिद्ध है। यहां यह तात्पर्य है कि जैसे मुक्त जीव में द्रव्य गुण पर्याय परस्पर अविनाभूत दिखाए गए हैं, तैसे ही संसारी जीव में भी मतिनानादि विभावगुणों के तथा नर नारकादि विभावपर्यायों के होते हए नय विभाग से सामान कान लेना चाहिये, तसे हो पुद्गलादि के भीतर भी। इस तरह शुभ परिणामों की मुख्यता से व्याख्यान करते हुए तीसरे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥१०॥ अथ चारित्रपरिणामसम्पर्कसम्भववतोः शुद्धशुभपरिणामयोरुपावानहानाय फलमालोचयति धम्मेण परिणदप्पा अपा जदि सुद्धसंपयोगजुदो । 'पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ॥११॥ धर्मेण परिणतात्मा आत्मा यदि शुद्धसंप्रयोगयुतः।। प्राप्नोति निर्वाणसुखं शुभोपयुक्तो वा स्वर्गसुखम् ॥११॥ यदायमात्मा धर्मपरिणतस्वभावः शुद्धोपयोगपरिणतिमुवहति तदा निःप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकारणप्तमर्थचारित्रः साक्षान्मोक्षमवाप्नोति । यवा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोगपरिणत्या संगच्छते तदा सप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थः कथंचितिरुखकार्यकारिचारित्रः शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धमवाप्नोति । अतः शुद्धोपयोग उपादेयः शभोपयोगो हेयः ॥११॥ भूमिका--अब चारित्र-परिणाम के साथ सम्बन्ध रखने से उत्पन्न होने वाले शुद्ध और शुभ परिणामों के क्रम से ग्रहण और त्याग के लिये शुद्ध-परिणाम के ग्रहण और शुमपरिणाम के त्याग के लिये उनके फल का विचार करते हैं अन्ययार्थ-[धर्मेण परिणतात्मा] धर्म स (चारित्र) से परिणत स्वरूपवाला [आत्मा] यह आत्मा [यदि] यदि [शुद्धसम्प्रयोगयुतः | शुद्ध उपयोग सहित हो जाता है तो बह [निर्वाणसुखम् ] मोक्ष सुख को [आप्नोति ] पाता है [वा] और यदि वह [शुभोपयुक्त:] शुभ उपयोग वाला होता है तो [स्वर्गसुखम् ] स्वर्गके सुखको [प्राप्नोति] प्राप्त करता है। टीका-जब यह आत्मा धर्म-परिणत स्वभाव वाला होकर शुद्धोपयोग रूप परिणति को धारण करता है तब विरोधी शक्ति (राग भाव) से रहित होने के कारण अपना कार्य (१) पावइ (ज० ३.०), (२) य( ज. वृ०) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] [ पवयणसारो करने में समर्थ चारित्र-वाला होता हुआ साक्षात् मोक्ष को प्राप्त करतर है । किन्तु जब वही आत्मा धर्म-परिणत स्वभाव वाला होता हुआ भी शुभोपयोग रूप परिणति से संगत (युक्त) होता है—सराग चारित्र को धारण करता है-तब विरोधी शक्ति (राग भाव) से सहित होने के कारण अपना कार्य करने में असमर्थ वह कथंचित् विरुद्ध कार्य करने वाले चारित्र से युक्त होकर स्वर्ग सुखरूप बन्धन को प्राप्त करता है। उदाहरणार्थ-जैसे अग्नि से सन्तप्त घी से सिक्त-जला हुआ पुरुष जलन से दुःख को प्राप्त करता है । इसलिये शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है। __ भावार्थ-छठे से बारहवें गुणस्थान तक के मुनि को अभेददृष्टि से चारित्रपरिणत-गम कहते हैं : को को हो सृष्टि के सातवें से बारहवें तक शुद्धोपयोगी या वीतरागचारित्र का धारी कहते हैं, जिसका फल साक्षात् मोक्ष है और छठे में शुभोपयोगी या सरागचारित्र वाला कहते हैं, जिसका फल (परम्परा मोक्ष होने पर भी) साक्षात् पुण्यबंध रूप स्वर्ग है । इस सम्बन्ध में शब्द "कथंचित्" ध्यान देने योग्य है ॥११॥ ___ तात्पर्यवृत्ति अथ वीतराग-सरागचारित्रसंज्ञयोः शुद्ध-शुभोपयोगपरिणामयोः संक्षेपेण फलं दर्शयतिः धम्मेण परिणवप्पा अप्पा धर्मेण परिणतात्मा परिणतस्वरूप: सन्न यमात्मा अदि सुद्धसंपयोगजुको यदि चेच्छुद्धोपयोगाभिधान द्धसप्रयोगपरिणामयुतः परिणतो भवति पावइ णिव्वाणसुहं तदा निर्वाणसुखं प्राप्नोति । सुहोयजुत्तो य सग्गसुहं शुभोपयोगयुतः परिणतः सन् स्वर्गसुखं प्राप्नोति । इतो विस्तरम्-इह धर्मशब्देना हिंसालक्षण: सागारानगाररूपस्तथोत्तमक्षमादिलक्षणो रत्नत्रयात्मको वा, तथा मोहक्षोभरहित आत्मपरिणामः शुद्धवस्तुस्वभावश्चेति गृह्यते। स एव धर्मः पर्यायान्तरेण चारित्रं भण्यते । "चारित्तं खलु धम्मो" इति वचनात् । तच्च चारित्रमपहृतसंयमोपेक्षासंयमभेदेन सरागवीतरागभेदेन वा शुभोपयोगशुद्धोययोगभेदेन च द्विधा भवति । तत्र यच्छुद्धसंप्रयोगपाब्दवाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं वीतरागचारित्रं तेन निर्वाणं लभते । निर्विकल्पसमाधिरूपशुद्धोपयोगशक्त्यभावे सति यदा शुभोपपोगरूपप्तरागचारित्रंण परिणमति तदा पूर्वमनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसुखविपरीतमाकुलत्वोत्पादकं स्वर्गसुखं लभते । पश्चात् परमसमाधिसामग्रीसद्भावे मोक्षं च लभते इति सूत्रार्थः ।।११॥ ___उत्थानिका—आगे वीतरागचारित्ररूप शुद्धोपयोग तथा सरागचारित्ररूप शुभोपयोग परिणामों का संक्षेप से फल दिखाते हैं:--- __ अन्वय सहित विशेषार्थ—(परिणदप्पा) परिणमन स्वरूप होता हुआ (अप्पा) यह आत्मा (जदि) यदि (सुद्धसंपयोगजुदो) शुद्धोपयोग नाम के शुद्ध परिणाम में परिणत होता है (णिवाणसुहं) तब निर्माण के सुख को (पावइ) प्राप्त करता है । (व) भौर यदि (सुहोवजुत्तो) शुभोपयोग में परिणभन करता है तो (सग्गसुह) स्वर्ग के सुख को पाता है । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्यणसारो । [ २७ यहां विस्तार यह है कि यहां धर्म शब्द से अहिंसा लक्षणरूप मुनिधर्म, श्रावक का धर्म, उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्म अथवा रत्नत्रय-स्वरूपधर्म वा मोह क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम या शुद्ध वस्तु का स्वभाव ग्रहण किया जाता है। वही धर्म अन्य पर्याय से अर्थात चारित्रभाव की अपेक्षा चारित्र कहा जाता है । यह सिद्धान्त का वचन है कि "चारितं खल धम्मो" (देखो गाथा ७वीं) वही चारित्र अपहृतसंयम तथा उपेक्षा संयम के भेद से वा सराग वीतराग के भेद से वा शुभोपयोग, शुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार का है । इनमें से शुद्ध संप्रयोग शब्द से कहने योग्य जो शुद्धोपयोग रूप वीतरागचारित्र है, उससे निर्वाण प्राप्त होता है। जब विकल्प रहित समाधिमय शुद्धोपयोग की शक्ति नहीं होती है। तब यह आत्मा शुमोपयोग रूप सरागभाव से परिणमन करता है, तब अपूर्व और अनाकुलता लक्षणधारी निश्चय सुख से विपरीत आकुलता को उत्पन्न करने वाला स्वर्ग सुख पाता है। पीछे परमसमाधि के योग्य सामग्री के होने पर मोक्ष को प्राप्त करता है ऐसा सूत्र का भाव है । अथ चारित्रपरिणामसंपर्कासंभवादत्यन्तहेयस्थाशुभपरिणामस्य फलमालोचयति असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय रइयो । दुक्खसहस्सेहि सदा' अभिदुदो भमदि अच्चंतं ॥१२॥ अशुभोदयेन आत्मा कुनरस्तिर्यक भूत्वा नैरयिकः । दुःखसहस्र: सदा अभिद्रुतो भ्रमत्यत्यन्तम् ॥१२॥ यदायमात्मा मनागपि धर्मपरिणतिमनासादयन्नशुभोपयोगपरिणतिमालम्बते तदा कुमनुष्यतिर्यनारकभ्रमणरूपं दुःखसहस्रबन्धमनुभवति । ततश्चारित्रलवस्याप्यमावादत्यन्तहेय एवायमशुभोपयोग इति ॥१२॥ भूमिका—अब यहाँ चारित्र परिणाम के अभाव में अत्यन्त हेय रूप अशुभ परिणाम के फल की समीक्षा करते हैं अन्वयार्थ- [अशुभोदयेन] अशुभ के उदय से [आत्मा] आत्मा] [कुनरः] हीन मनुष्य [तिर्यक् ] तिर्यंच या [नरयिकः] नारकी [भूत्वा ] होकर [दुःखसहस्र:J हजारों दुःखों से | सदा निरन्तर [अभिद्रुतः] पीडित होता हुआ [अत्यन्तं भ्रमति] संसार में अत्यन्त-दीर्घ काल तक-भ्रमण करता है। १. सया (जल ७०)। २. भमइ (जा वृ०)। ३. अभिभूदो (ज०७०)। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [ पवएणसारो टीका-जब यह आत्मा लेश मात्र भी धर्म (चारित्र) परिणति को न प्राप्त होकर अशुभोपयोग रूप परिणति का अवलम्बन करता है, तब वह घृणित मनुष्य, तिर्यञ्च और नारको होकर परिभ्रमण करता हुआ दुःखों के बंध को अनुभव करता है । इसलिए लेशमात्र चारित्र का भी अभाव होने से यह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय ही है ॥१२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ चारित्रपरिणामासंभवादत्यन्त हेयस्याशुभोपयोगस्य फलं दर्शयति: असुहोदयेण अशुभोदयेन आवा आत्मा कुणरो तिरियो भवीय रहयो कुनरस्तियइनारको भूत्वा । किं करोति ? दुक्खसहस्सेहि सया अभिधुयो भमद अच्चंत दु:खसहस्र': सदा सर्वकालमभिद्रतः कथितः पीडित: सन संसारे अत्यन्तं श्रमतीति । तथानि-निनिकारशद्धात्मतत्व. रुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वस्य तव शुद्धात्मन्यविक्षिप्तचित्तवृत्तिरूनिश्चय चारित्रस्य च विलक्षणेन विपरीताभिनिवेशजनकेन दृष्टश्रुतानुभूतपञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषतीब्रसंक्लेपारूपेण चाशुभोपयोगेन यदुपाजितं पापकर्म तदुदयेनायमात्मा सहजशुद्धात्मानन्दक लक्षणपारमाथिकसुखविपरीतेन दुखेन दुःखित: सन् स्वस्वभावभावनाच्युतो भूत्वा संसारेऽत्यन्तं भ्रमतीति तात्पर्यार्थः । एवमुपयोगत्रयफलकथनरूपेण चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतम् ॥१२॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जिस किसी आत्मा में वीतराग या सरागचारित्र नहीं है उसके भीतर अत्यन्त त्यागने योग्य अशुभोपयोग का फल कटुक होता है । अन्वय, सहित बिशेषार्थ-(असुहोदयेण) अशुभ उपयोग के प्रगट होने से जो पाप कर्म बंधता है उसके उदय से (आदा) आत्मा (कुणरो) खोटा दीन दरिद्री मनुष्य (तिरियो) तिर्यच तथा (णेरइयो) नारकी (भवीय) होकर (अच्चंत) बहुत अधिक (भमइ) संसार में भ्रमण करता है। प्रयोजन यह है कि अशुभ उपयोग, विकार रहित शुद्ध आत्म तत्व की रुचि रूप निश्चय सम्यक्त्व से तथा उस ही शुद्ध आत्मा में क्षोम रहित चित्त का वर्तनारूप निश्चयचारित्र से विलक्षण या विपरीत है। विपरीत अभिप्राय से पैदा होता है तथा देखे, सुने, अनुभव किए हुए पंचेन्द्रियों के विषयों की इच्छा-मय तीन संक्लेश रूप है, ऐसे अशुभ उपयोग से जो पाप कर्म बांधे जाते हैं, उनके उदय होने से यह आत्मा स्वभाव से शुद्ध आत्मा के आनन्दमयी पारमार्थिक सुखमे बिरुद्ध दुःख से दुःखी होता हुआ व अपने स्वभाव की भावना से गिरा हुआ संसार में खूब ही भ्रमण करता है। ऐसा तात्पर्य है। इस तरह तीन तरह के उपयोग के फल को कहते हुए चौथे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥१२॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] एवमयमपास्तसमस्तशुभाशुभोपयोगवृत्तिः शुद्धोपयोगवृत्तिमात्मसात्कुर्वाणः शुद्धोपयोगाधिकारमारभते । तत्र शुद्धोपयोगफलमात्मनः प्रोत्साहनार्थमभिष्टौति अइसयमावसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं । अन्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ॥१३॥ अतिशयमात्मसमुत्थं, विषयातीतं, अनौपम्यमनन्तं । अव्युच्छिन्नञ्च सुखं शुद्धोपयोगप्रसिद्धानाम् ॥१३॥ आसंसारावपूर्वपरमाद्भुतालादरूपत्वादात्मानमेवाश्रित्य प्रवृत्तत्वात्पराश्रयनिरपेक्षत्वावत्यन्तविलक्षणत्वात्समस्तायतिनिरपायित्वान्नरन्तर्यप्रवर्तमानत्वाच्चातिशयवदात्मसमुत्थं विषयातीतमनौपम्यमनन्तमव्युच्छिन्नं च शुद्धोपयोगनिष्पन्नानां सुखमतस्तत्सर्वथा प्रार्थनीयम् ॥१३॥ भूमिका-इस प्रकार यह (श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव), नष्ट कर दिया है समस्त शुभ और अशुभ उपयोग की परिणति को जिन्होंने (ऐसे होते) शुद्धोपयोग परिणति को अंगीकार करते हुए, शुद्धोपयोग अधिकार को प्रारम्भ करते हैं। उसमें आत्मा के प्रोत्साहन के लिये (सर्व प्रथम) शुद्धोपयोग के फल की प्रशंसा करते हैं: अन्वयार्थ---[शुद्धोपयोगप्रसिद्धानां] शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए (शुद्धोपयोग के फल को प्राप्त हुए) आत्माओं का (अरहत सिद्धों का) । सुखं | सुख [अतिशयं] अतिशय, | आत्म-समुत्थं] आत्मा से उत्पन्न, {विषयातीत] विषयों से रहित (अतीन्द्रिय), [अनौपम्यं] अनुपम, अनन्त (अविनाशी) [च ] और [अविच्छिन्नं] अविछिन्न (अटूटनिरन्तर एक सा रहने वाला) है । टीका-(१) अनादि संसार से जो पहले कभी अनुभव में नहीं आया ऐसे अपूर्व, परम अद्भुत आल्हाद रूप, होने के कारण से अतिशयवान, (२) आत्मा को ही आश्रय लेकर (स्वाश्रित) प्रवर्तमान होने के कारण से 'आत्मोपन्न', (३) पराश्रय से निरपेक्ष होने के कारण से (स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द के तथा संकल्प विकल्प के आश्रय की अपेक्षा से रहित होने से) 'विषयातीत', (४) अत्यन्त विलक्षण होने के कारण से (अन्य सुखों से सर्वथा भिन्न लक्षणवाला होने से) 'अनुपम', (५) समस्त आगामी काल में कभी नाश को प्राप्त न होने के कारण से 'अनन्त', और (६) बिना ही अन्तर के प्रवर्तमान होने के कारण से 'अविच्छिन्न', ऐसा सुख शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए आत्माओं के (अरहन्त सिद्धों के) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० । [ पवयणसारो होता है । इसलिए वह (सुख) सर्वथा प्रार्थनीय (वाञ्छनीय) है (उपादेयपने से निरन्तर भावना करने योग्य है) ॥१३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ शुभाशुभोपयोगद्वयं निश्च यनयेन हेयं ज्ञात्वा शुद्धोपयोगाधिकार प्रारभमाण:, शुद्धात्मभावनामात्मसात्कुर्वाणः सन, स्वस्वभावजीवस्य प्रोत्साहनार्थ शुद्धोपयोगफलं प्रकाशयति 1 अथवा द्वितीयपातनिका-यद्यपि शुद्धोपयोगफलमग्ने ज्ञानं सुखं च संक्षेपेण विस्तरेण च कथयति तथान्यत्रापि पीठिकायां सूचनां करोति । अथवा तृतीयपातनिकापूर्व शुद्धोपयोगफलं निर्वाणं भणितमिदानी पुननिर्वाण स्य फलमनन्तसुखं कथयतीति पातनिकायस्यार्थ मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयतिः-अइसयं आसंसाराद्देवेन्द्रादिसुखेभ्योऽप्यपूर्वाद्भुतपरमालादरूपत्वादतिशयस्वरूपं, आवसमुत्थं रागादिविकल्परहितस्वशुद्धामसंवित्तिसमुत्पन्नत्वादात्म समुत्थं, विसबातीवं निविषयपरमात्मतत्त्वप्रतिपक्षभुतपंचन्द्रियविषयातीतत्वाद्विषयातीतं, अणोवर्म निरूपमपरमानन्दै कलक्षणत्वेनोपमारहितत्वादनुपम, अणतं अनन्तागामिकाले विनामाभावादप्रमितत्वाद्वाऽनन्तं, अन्यच्छिष्णं च असातोदयाभावानिरन्तरत्वादविच्छिन्नं च सुहं एवमुक्तविशेषणविशिष्टं सुखं भवति । केषाम् ! सुद्धा वओगप्प. सिद्धाण वीतरागपरमसामायिक शब्दवाच्यशुद्धोपयोगेन प्रसिद्धा उत्पना येऽहत्सिद्धास्तषामिति । अत्रेदमेव सुखमुपादेयत्वेन निरन्तरं भावनीयमिति भावार्थः ।।१३॥ उत्थानिका-आगे आचार्य शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों को निश्चय नय से त्यागने योग्य जान करके शुद्धोपयोग के अधिकार को प्रारम्भ करते हुए तथा शुद्ध आत्मा की भावना को स्वीकार करते हुए अपने स्वभाव में रहने के इच्छुक जीत्र का उत्साह बढ़ाने के लिये शुद्धोपयोग का फल प्रकाश करते हैं अथवा दूसरी पातनिका या सूचना यह है कि यद्यपि आगे आचार्य शुद्धोपयोग का फल ज्ञान और सुख संक्षेप या विस्तार से कहेंगे तथापि यहाँ भी इस पीठिका में सूचित करते हैं अथवा तीसरी पातनिका यह है कि पहले शुद्धोपयोग का फल निर्वाण बताया था अब यहां निर्वाण का फल अनंत मुख होता है ऐसा कहते हैं। इस तरह तीन पातनिकाओं के भाव को मन में धरकर आचार्य आगे का सूत्र कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(सुद्ध वओगप्पसिद्धाणं) शुद्धोपयोग में प्रसिद्धों को अर्थात वीतराग परम सामायिक शब्द से कहने योग्य शुद्धोपयोग के द्वारा जो अरहंत और सिद्ध हो गए हैं उन परमात्माओं को (अइसयं) अतिशयरूप अर्थात् अनादि काल के संसार में चले आए इन्द्रादि के सुखों से भी अपूर्व अद्भुत परम आल्हाद रूप से होने से आश्चर्यकारी, (आदसमुत्थं) आत्मा से उत्पन्न अर्थात् रागद्वेषादि विकल्प रहित अपने शुद्धात्मा के अनुभव से पैदा होने वाला, (बिसयातीदं) विषयों से शून्य अर्थात् इन्द्रिय विषय रहित परमात्मतत्व के विरोधी पांच इन्द्रियों के विषयों से रहित, (अणोवमं) उपमा-रहित अर्थात् दृष्टांत Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३१ रहित परमानन्दमय एक लक्षण को रखने वाला, (अनंतं) अनंत अर्थात् अनन्त भविष्यत काल में विनाश रहिल अथवा अप्रमाण (च) तथा (अध्वु छिण्णं) विभिन्नरहित अर्थात् असता का उदय न होने से निरन्तर रहने वाला ( सुहं) आनन्द रहता है । यही सुख उपादेय है, इसी की निरन्तर भावना करनी योग्य है । अय शुद्धोपयोगपरिणतात्मस्वरूपं निरूपयति- सुविदिवपयत्थसुत्तो संजमतव संजुदो विगदरागो । समणो समसुहदुक्खो भणिदो' सुद्धोवओगो त्ति ॥ १४ ॥ सुविदितपदार्थसूत्रः संयमतपः संयुतो विगतरागः । श्रमणः समसुखदुःखो भणितः शुद्धोपयोग इति ||१४|| सूत्रार्थज्ञानबलेन स्वपरद्रव्यविभागपरिज्ञान श्रद्धानसमर्थत्वात्सुविदितपदार्थ सूत्रः । सकल जीवनका शुम्मन निम्पचेचिणाभिलापविकल्पाच्च व्यायत्यत्मिनः शुद्धस्वरूपे संयमनात् स्वरूपविश्रान्तनिस्तरङ्गः चैतन्यप्रतपनाच्च संयमतपः संयुक्तः । सकलमोहनीयविपाकविवेकभावनासौष्ठवस्फुटीकृत निर्विकारात्मस्वरूपत्याद्विगतरागः । परमकलावलोकनातनुभूयमानसाता सात वेदनीय विपाक निर्यतित सुख दुःख - जनित परिणामवैषम्यत्वात्समसुख - दुःखः श्रमणः शुद्धोपयोग इत्यभिधीयते ॥ १४ ॥ * भूमिका – अब, शुद्धोपयोग रूप परिणत आत्मा के स्वरूप को कहते हैं अन्वयार्थ - [सुविदितपदार्थसूत्रः ] भली भांति जान लिये हैं (१) (निज शुद्ध आत्मा आदि स्व-पर) पदार्थों को और सूत्रों (श्रुत - आगम ) को जिसने (२, ३) [ संयमतपः संयुतः ] जो संयम युक्त और तप युक्त है, (४) [ ( वीतरागः ] राग रहित है, ( ५ ) [ समसुख - दुःखः ] समान है सुख दुःख जिसको (सात्ता असातावेदनीय के उदय से जिसको सुख दुःख का बेदन नहीं है अर्थात् समानुभव है ) ऐसा [ श्रमणः ] श्रमण (मुनि) [ शुद्धोपयोगः | शुद्धोपयोगी [ इति भणितः ] कहा गया है। टीका --- ( १ ) सूत्रों के अर्थ के ज्ञान के बल से स्व द्रव्य और पर द्रव्य के विभाग के परिज्ञान में, श्रद्धान में और विधान में ( आचरण में) समर्थ होने के कारण से ( स्वद्रव्य और परद्रव्य की भिन्नता का ज्ञान, श्रद्धान आचरण होने से ) भली भाँति जान लिया है पदार्थों को और (उनके प्रतिपादक सूत्रों को जिसने, (२) समस्त छः जीवनिकाय के हनन के विकल्प से और पंचेन्द्रिय ( सम्बन्धी ) अभिलाषा के विकल्प से ( आत्मा ) को व्यावृत्त करके आत्मा के शुद्ध स्वरूप संयम करने से संयम युक्त हैं, ( ३ ) और स्वरूप विश्रान्त (२) सुद्धोवयोगोति ( ज (१) भणिओ (ज० वृ७) ० ) । - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] [ पश्यणसारो निस्तरंग चैतन्य प्रतपन होने से जो तपयुक्त है, (४) सकल मोहनीय के विपाक से भेद की भावना की उत्कृष्टता से (समस्त मोहनीय कर्म के उदय विभिन्नत्व को उत्कृष्ट भावना से) निविकार आत्मस्वरूप को प्रगट किया होने से जो वीतरागी है, और (५) परम कला के अवलोकन के कारण (आत्मा में लीनता के कारण) साता वेदनीय तथा असातावेदनीय के विपाक से उत्पन्न होने वाले जो सुख दुःख-उन-सुख-दुख-जनित परिणामों की विषमता का अनुभव नहीं होने से (परम सुख रस में लोन निर्विकार स्वसंवेदन रूप परम कला के अनुभव के कारण इष्ट अनिष्ट संयोगों में हर्ष शोक आदि विषम परिणामों का अनुभव न होने से) जो समसुखदुःख है, ऐसे पांच विशेषण वाला श्रमण शुद्धोपयोगी कहा जाता है। भावार्थ--यह शुद्धोपयोग मुख्यतया बारहवें गुणस्थान में परिणत मुनि के होता है परन्तु गौणतया सातवें से बारहवें गुणस्थान तक के मुनि के होता है। तात्पर्य पनि ___ अथ येन शुद्धोपयोगेन पूर्वोक्तसुखं भवति तत्परिणतपुरुषलक्षणं प्रकाशयति-सुविदिवपपत्यसुत्तो सुष्ठु संशयादिरहितत्वेन विदिता ज्ञाता रोचिताश्च निजशुद्धात्मादिपवास्तित्प्रतिपादकसूत्राणि च येन स सुविदितपदार्थसूत्रो भण्यते । संजमतवसंजुदो बाह्ये द्रव्येन्द्रियव्यावर्तनेन षड्जीवरक्षणेन चाभ्यन्तरे निजशुखात्मसंवित्तिबलेन स्वरूपे संयमनात् संयमयुक्तो, बाह्याभ्यन्तरतपोबलेन कामक्रोधादिशत्रुभिरखपिजतप्रतापस्य स्वशुद्धात्मनि प्रतपनाद्विजयनात्तप:संयुक्तः विगदरागो वीतरागशुद्धात्मभावनाबलेन समस्तरागादिदोषरहितत्वाद्विगत रागः। समसुहबुवखो निर्विकारनिर्विकल्पसमाधेरुद्गता समुत्पन्ना तथैव परमानन्दसुखरसे लीना तल्लया निर्विकारस्वरांदित्तिरूपा या तु परमकला तदवष्टम्भेनेष्टानिष्टेन्द्रियविषयेषु हर्षविषादरहितत्वात्समसुखदुःखः (समणो) एवं गुणविशिष्टः श्रमणः परममुनिः भणिो सुद्धोषयोगोत्ति शुद्धोपयोगो भणित इत्यभिप्रायःः॥१४॥ एवं शुद्धोपयोगफलभूतानन्तसुखस्य शुद्धोपयोगपरिणत पुरुषस्य च कथनरूपेण पञ्चमस्थले गाथाद्ववं गतम् ।। इति चतुर्दशगाथाभिः स्थलपञ्चकेन पीठिकाभिधान: प्रथमोन्तराधिकारः समाप्तः। उत्थानिका-आगे जिस शुद्धोपयोग के द्वारा पहले कहा हुआ आनन्द प्रगट होता है उस शुद्धोपयोग में परिणमन करने वाले पुरुष का लक्षण प्रगट करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ— (सुविदिवपवत्थसुत्तो) भले प्रकार पदार्थ और सूत्रों को मानने वाला, अर्थात संशय विमोह विभ्रम रहित होकर जिसने अपने शुद्धात्मा आदि पदार्थों को तथाउनके बताने वाले सूत्रों को जाना है और उनकी रुचि प्राप्त की है, (संजमतवसंजुदो) संयम और तप-संयुक्त है अर्थात् जो बाह्य में द्रध्येन्द्रियों से उपयोग हटाते हुए और पृथ्वी भावि छह कायों की रक्षा करते हुए तथा अंतरंग में अपने शुद्ध आत्मा के Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पघयणसारो ] अनुभव के बल से अपने स्वरूप में संयम रुप ठहरे हुए हैं तथा बाह्य व अंतरंग बारह प्रकार तप के बल मे काम को आनि शत्रुओं से जिसका प्रताप खंडित नहीं होता है और जो अपने शुद्ध आत्मा में तप रहे हैं, जो (विगदरागो) वीतराग हैं अर्थात् शुद्ध आत्मा की भावना के बल से सर्व रागादि दोषों से रहित हैं (समसुहदुक्खो) सुख-दुःख में समान हैं अर्थात् विकार-रहित और विकल्प-रहित समाधि से उत्पन्न तथा परमानन्द सुख रस में लवलीन ऐसी निविकार स्वसंवेदन रूप जो परम चतुराई उसमें स्थिरीभूत होकर इष्ट-अनिष्ट इन्द्रियों के विषयों में हर्ष-विषाद को त्याग देने से समता भाव के धारी हैं ऐसे गुणों को रखने वाला (समणो) परममुनि (सुद्धोवओगो) शुद्धोपयोग स्वरूप (भणिओ) कहा गया है (ति) ऐसा अभिप्राय है। इस तरह शुद्धोपयोग का फल जो अनंतसुख है, उसके पाने योग्य शुद्धोपयोग में परिणमन करने वाले पुरुष का कथन करते हुए पांचवें स्थल में दो गाथाएँ पूर्ण हुई तथा इसी प्रकार चौदह गाथाओं के द्वारा पांच स्थलों से पीठिका नाम का प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ। तात्पर्यवृत्ति तदनन्तरं सामान्येन सर्वसिद्धिर्ज्ञानविचारः संक्षेपेण शुद्धोपयोगफलं चेति कथनरूपेग गाथासप्तकम् । तत्र स्थलचतुष्टयं भवति, तस्मिन् प्रथमस्थले सर्वज्ञस्वरूपकथनार्थ प्रथमगाथा, स्वयम्भूकथनार्थ द्वितीया चेति "उवओगविसुद्धो" इत्यादि गाथाद्वयम् । अथ तस्यैव भगवत उत्पादव्ययध्रौव्यस्थापनार्थ प्रथमगाथा, पुनरपि तस्यैव दृढीकरणाथ द्वितीया चेति 'भंगविहीणों' इत्यादि गाथाद्वयम् । अथ सर्वज्ञश्रद्धानेनानन्तसुखं भवतीति दर्शनार्थ तं सखट्ठवरिठे इत्यादि सूत्र मेकम् । अपातीन्द्रियज्ञानसौख्यपरिणमनकथन मुख्यत्वेन प्रथममाथा, केवलिभुक्तिनिराकरण मुख्यत्वेन द्वितीया चेति पक्खीणघाइकम्मो इति प्रभृति गाथाद्वयम् । एवं द्वितीयान्तराधिकारे स्थल चतुष्टयेन समुदायपातनिका। आगे सामान्य से सर्वज्ञ की सिद्धि व ज्ञान का विचार तथा संक्षेप से शद्धोपयोग का फल कहते हुए गाथाएं सात हैं। इनमें चार स्थल हैं। पहले स्थल में सर्वज्ञ का स्वरूप कहते हुए पहली गाया है, स्वयंभू का स्वरूप कहते हुए दूसरी, इस तरह "उवओग विसुद्धो" को आदि लेकर दो गाथाएं हैं। फिर उस ही सर्वज्ञ भगवान के भीतर उत्पाद-व्यय-नौव्यपन स्थापित करने के लिए प्रथम गाथा है। फिर भी इस ही बात को दढ़ करने के लिये दूसरी गाथा है। इस तरह "भंग विहीणो" को आदि लेकर दो गाथाएं हैं। आगे सर्वज्ञ के श्रद्धान करने से अनन्त सुख होता है, इसके दिखाने के लिये "तं सचठ्ठयरिटें" इत्यादि Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] सुत्र एक है । आगे [ पवयणसारो ज्ञान तथा सुख के परिणमन के कथन को मुख्यता से प्रथम गाथा है और केवलज्ञानो को भोजन का निराकरण को मुख्यता से दूसरी गाथा है, इस तरह "पक्खीणघाइकम्मो" को आदि लेकर दो गाथाएं हैं। इस तरह दूसरे अन्तर अधिकार में चार स्थल से समुदाय पातनिका पूर्ण हुयी। अथ शुद्धोपयोगलाभानन्तरमाविशुद्धात्मस्वभावलाभमभिनन्दति - उवओगविसुद्धो जो बिगवावरणंत रायमोहरओ । भूदो सयमेवादा जादि पारं पेयभूदाणं ॥ १५ ॥ उपयोगविशुद्धः यः त्रिगतावरणान्तरायमोहजाः । भूतः स्वयमेवात्मा याति पारं ज्ञेयभूतानाम् ।। १५ ।। यो हि नाम चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेन यथाशक्ति विशुद्धो भूत्वा वर्तते स खलु प्रतिपदमुद्यमानविशिष्ट विशुद्धिशक्ति प्रथिता संसार बदतर मोहग्रन्यितयात्यन्त निर्विका चैतन्यो निरस्तसमस्तज्ञानवर्शनावरणान्तरायतया निःप्रतिविम्मिताश्मशक्तिश्व स्वयमेव भूतो ज्ञेयत्वमापन्नानामन्तमवाप्नोति । वह किलात्मा ज्ञानस्वभावो ज्ञानं तु ज्ञेयमात्रं ततः समस्तज्ञेयान्ततिज्ञानस्वभावमात्मानमात्मा शुद्धोपयोगप्रसादादेवासाव यति ॥१५॥ - भूमिका – अब, शुद्धोपयोग के लाभ के तुरन्त बाद होने वाले विशुद्ध आत्मस्वभाव के लाभ की प्रशंसा करते हैं (अर्थात् शुद्धोपयोग से सर्वज्ञ हो जाता है - यह कहते हैं) - - अन्वयार्थ – [ यः ] जो [ उपयोगविशुद्धः ] उपयोग विशुद्ध है ( जो शुद्धोपयोग परिणाम से विशुद्ध होकर बर्त रहा है) [आत्म | वह आत्मा [ विगतावरणान्तरायमोहरजाः | नष्ट हो गया है ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीयकर्म जिसका ऐसा [ स्वयमेव भूतः ] स्वयमेव होता हुआ | ज्ञेयभूतानां ] ज्ञेय-भूत पदार्थों के [ पारं ] पार को [ याति ] प्राप्त होता है ( सब को जानता है) । टीका - जो ( आत्मा ) चैतन्य परिणामस्वरूप उपयोग के द्वारा यथाशक्ति विशुद्ध होकर वर्तता है, वह ( आत्मा ) वास्तव में ( १ ) पव-पद पर प्रगट होती जाती है, विशिष्ट विशुद्धि शक्ति जिसको अर्थात् पद-पद पर विशिष्ट विशुद्धि शक्ति प्रगट हो जाने के कारण अनादि संसार से बंधी हुई दृढतर मोह ग्रन्थि के छूट जाने से अत्यन्त निविकार चैतन्य वाला होता हुआ और ( २ ) समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय के नष्ट हो Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३५ जाने से निनिय शिकसित शामाादितवान् याद होता हुआ ज्ञेयता को प्राप्त (पदार्थों) के अन्त को पा लेता है (अर्थात् सब पदार्थों को जान लेता है-सर्वज्ञ हो जाता है)। सार-यहां यह कहा जा रहा है कि आत्मा का वास्तव में ज्ञान स्वभाव है, और ज्ञान ज्ञेय के बराबर है । इस कारण से समस्त ज्ञेयों के भीतर प्रवेश को प्राप्त ज्ञान जिसका स्वभाव है ऐसे आत्मा को आत्मा शुद्धोपयोग के प्रसाद से ही प्राप्त करता है । भावार्थ---सातवें गुणस्थान में शद्धोपयोग प्रारम्भ होता है। फिर प्रत्येक पद में (गुणस्थान में) उसको शुद्धता की शक्ति बढ़ती चली जाती है, जिससे दसवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म प्रायः नष्ट हो जाता है । जन वह शुद्धोपयोग पूर्ण क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है तो उस शुद्धता में शेष तीन घातिया कर्मों को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है । घातिया कर्मों के नष्ट होने पर स्वभाव स्वयं प्रगट हो जाता है और आत्मा सर्वज्ञ बनकर सब ज्ञेयों को जान लेता है। तात्पर्यवृत्ति अथ शुद्धोपयोगलाभानन्तरं केवलज्ञानं भवतीति कथयति । अयबा द्वितीयपातिका--श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवाः सम्बोधनं कुर्वन्ति, हे शिवकुमारमहाराज ! कोप्यासन्नभव्यः संक्षेपरूचिः पीठिकाव्याख्यानमेव श्रुत्वात्मकार्य करोति, अन्यः कोपि पुनविस्तररुचि: शुद्धोपयोगेन संजातसर्वज्ञस्य ज्ञानसुखादिक विचार्य पश्चादात्मकार्य करोतीति ध्यास्पातिः उवओगविसुखो जो उपयोगेन शुद्धोपयोगेन परिणामेन विशुद्धो भूत्वा वतते यः विगवावरणंतरायमोहरओ भूदो विगतावरणान्तरायमोहरजोभूतः सन् कथम् ? सयमेव निश्चयेन स्वयमेव आवास पूर्वोक्त आत्मा जादि याति गच्छति कि ? पारं पारमवसानम् । केषाम् ? वभूदाणं जयभूतपदार्थानाम् सर्व जानातीत्यर्थः । अतो विस्तर:-यो निमोहशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणेन शुद्धोपयागसंज्ञनागम माषया पृथक्त्ववितर्कवीचारप्रथमशुक्ल ध्यानेन पूर्व निरवशेषमोक्षपणं कृत्वा तदनन्तरं रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वसंवित्तिलक्षणने कत्ववितर्कवीचारसंज्ञाद्वितीयशुक्लध्यानेन क्षीणकपायगुणस्थानेन्तर्मुहूर्त काल स्थित्वा तस्यैवान्त्यसमये ज्ञानदर्शनावरणवीर्यान्तरायाभिधानघातिकमंत्रयं युगपद्विनाशयति । स जगत्त्रयकाल त्रयवति समस्त वस्तुगतानन्तधर्माणां युगपत्प्रकाशक केवलज्ञानं प्राप्नोति । ततः स्थित शुद्धोपयोगात्सर्वज्ञो भवतीति । १५॥ उत्थानिका--आगे यह कहते हैं कि शुद्धोपयोग के लाभ होने के पीछे केवल ज्ञान होता है अथवा दूसरी पातनिका यह है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव संवोधन करते हैं कि हे शिवकुमार महाराज ! कोई भी निकटभव्य जीव, जिसकी सूचि संक्षेप में जानने की है, पीठिका के व्याख्यान को ही सुनकर आत्म-कार्य करने लगता है । दूसरा कोई जीव, जिसकी रुचि विस्तार से जानने की है, इस बात को विचार करके शुद्धोपयोग के द्वारा सर्वज्ञपना . Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] [ पवयणसारो होता है और तब अनंतज्ञान अनंतसुख प्रगट होते हैं फिर अपने आत्मा का उद्धार करता है, इसीलिये अब विस्तार से व्याख्यान करते हैं - अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जो उवओमविसुद्वी) जो उपयोग करके विशुद्ध है अर्थात् जो शुद्धोपयोग परिणामों में रहता हुआ शुद्ध भावधारी हो जाता है सो ( आदा ) आत्मा ( सयमेव ) स्वयं ही अपने आप ही अपने पुरुषार्थ से ( विगवावरणांत राय-मोह-रओमूदो) आवरण, अंतराय और मोह की रज से छूटकर अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण, अंतराय तथा मोहनीय इन चार घातिया कर्मों के बंधनों से बिल्कुल अलग होकर (नेयभूदाणं) ज्ञेयपदार्थो के (पार) अंत को (जादि) प्राप्त होता है अर्थात् सर्व पदार्थों का ज्ञाता हो जाता है । इसका विस्तार यह है कि जो कोई मोह रहित शुद्ध आत्मा के अनुभव-लक्षणमय शुद्धोपयोग से अथवा आगम भाषा के द्वारा पृथक्त्ववितर्कयोचार नाम के पहले शुक्लध्यान से पहले सर्वमोह को नाश करके फिर पीछे रागादि विकल्पों की उपाधि से शून्य स्वसंवेदन लक्षणमय एकत्ववितर्क अवीचार नामक दूसरे शुक्लध्यान के द्वारा क्षीणकषाय गुणस्थान में अंतर्मुहूर्त ठहरकर उसी गुणस्थान के अंत समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन तीन घातिया कर्मों को एक साथ नाश करता है, वह तीन जगत, तीन काल की समस्त वस्तुओं के भीतर रहे हुए अनन्त स्वभावों को एक साथ प्रकाशने वाले केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि शुद्धोपयोग से सर्वज्ञ हो जाता है । अथ शुद्धोपयोगजन्यस्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्य कारकान्तरनिरपेक्षतयाऽत्यन्तमात्मायसत्वं द्योतयति तह सो लद्धसहा वो सव्वण्हू 'सव्वलोगपदिमहिदो । भूदो सयमेवादा हववि सयंभु त्ति निट्ठिी ||१६|| तथा स लब्धस्वभावः सर्वज्ञः सर्वलोकपतिमहितः । भूतः स्वयमेवात्मा भवति स्वयम्भूरिति निर्दिष्टः ||१६|| अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोग भावनानुभाव प्रत्यस्तमितसमस्तघातिकर्मतया समुपलब्धशुद्धानन्तशक्तिचित्स्वभावः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेन स्वतन्त्रत्वाद्गृहीतक स्वाधिकारः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन् शुद्धानन्त शक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन साधकतमत्वात् करणत्वमनुविभ्राणः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन कर्मणा समाश्रियमाणत्वात् संप्रदानत्वं वधानः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनसमये पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्रुवत्वालम्बनादपादानत्वमुपाददानः, (१) सलीम ( ज० ० ) । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसाकुर्वाणः, स्वयमेव षटकारकीरूपेणोपजायमानः, उत्पत्तिव्ययापेक्षया द्रम्यभावभेदभिन्नघातिकर्माग्यपास्य स्वयमेवाविर्भूतत्वाद्वा स्वयंमूरिति निदिश्यते । अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्यसम्बन्धोऽस्ति, यतः शुद्धात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रतया परतंत्रभूयते ।।१६।। _भूमिका- अब, शुद्धोपयोग से उत्पन्न होने वाले शुद्ध आत्म-स्वभाव के लाभ के अन्य कारकों को निरपेक्षता होने से, अत्यन्त स्वात्माधीनपने को प्रगट करते हैं : अन्वयार्थ---तथा! इस प्रकार | जल स्वभाब भाद्र को पान |सः आत्मा ] वह आत्मा [ सर्वज्ञः] सर्वज्ञ | सर्वलोकपतिमहितः | और सर्व (तीन) लोक के अधिपतियों (स्वामियों) से पूजित [स्वयं एक भूतः] स्वयमेव होता हआ (होने से) [स्वयम्भू भवति | होता है [इति ] ऐसा [निर्दिष्ट:] कहा गया है । टीका-शुद्ध उपयोग की भावना के प्रभाव से समस्त धातिकमों के नष्ट हो जाने से प्राप्त किया है शुद्ध अनन्तशक्तिवान् चैतन्य स्वभाव जिसने, ऐसा यह आत्मा वास्तव में, (१) शुद्ध अनन्त शक्ति (युक्त) शायक स्वभाव के द्वारा स्वतन्त्र होने के कारण से ग्रहण किया है 'कर्तापने के अधिकार को जिसने, ऐसा (होता हुआ) (२) शुद्ध अनन्त शक्ति (युक्त) ज्ञान रूप से परिणत स्वभाव के द्वारा (स्वयं ही) प्राप्य होने के कारण से (स्वयं ही प्राप्त होता होने से) 'कर्मपने' को अनुभव करता हुआ, (३) शुद्ध अनन्त शक्ति (युक्त) ज्ञान रूप से परिणत स्वभाव के द्वारा (स्वयं ही) साधकतम (उत्कृष्ट साधन) होने के कारण से 'करणपने' को धारण करता हुआ, (४) शुद्ध अनन्त-शक्ति (युक्त) ज्ञान रूप से परिणमित स्वभाव द्वारा (स्वयं ही) कर्म द्वारा समाश्रित होने के कारण (अर्थात कर्म स्वयं को ही देने में आता होने से) सम्प्रदानपने को धारण करता हुआ, (५) शुद्ध अनन्त शक्ति (मय) ज्ञानरूप से परिणत होने के समय में पूर्व में प्रवर्तमान विकलज्ञान स्वभाव का नाश होने • पर भी सहजज्ञान स्वभाव द्वारा (स्वयं ही) ध्रुवता को अवलम्बन करने से 'अपादानपने' को धारण करता हुआ, और (६) शुद्ध अनन्त शक्ति (युक्त) ज्ञान रूप से परिणमित स्वभाव का (स्वयं ही) आधार होने के कारण से 'अधिकरणपने को आत्मसात् करता हुआ (इस प्रकार) स्वयमेव छ: कारकरूप से उत्पन्न होता हुआ (स्वयंभू' इस नाम से कहा जाता है); अथवा उत्पत्ति अपेक्षा से, द्रव्य-भाव भेव रूप घातिकर्मों को दूर करके, स्वयमेव आविर्भूत होने के कारण से, 'स्वयंभू' इस नाम से कहा जाता है ॥१६॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो सार-इस कारण से निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकपने का सम्बन्ध नहीं है, जिससे शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति के लिये सामग्री (बाह्य साधन) ढूंढने की व्यग्रता से परतन्त्र हुआ आवे। __ भावार्थ-अभेवषट्कारकरूप से स्वतः ही परिणमता हुआ, यह आत्मा परमात्मस्वभाव होने से स्वयंभू है क्योंकि केवलज्ञान ही उत्पत्ति के समय में वह भिन्न कारक की अपेक्षा नहीं रखता, इस कारण से स्वयंभू है । तात्पर्यवृत्ति अथ शुद्धोपयोगजन्यस्य शद्धात्मस्वभावलाभस्य भिन्नकारकनिरपेक्षत्वेनात्माधीनत्वं प्रकाशयति तह सो लक्षसहायो यथा निश्चयरत्नत्रयलक्षणशुद्धोपयोगप्रसादात्सर्व जानाति तथैव सः पूर्वोक्त लब्धशुद्धात्मस्वभावः सन् आदा अयमात्मा हवदि सयंभु त्ति णिदिवठो स्वयम्भूर्भवतीति निदिष्टः कथितः । किं विशिष्टो भूतः ? सरवण्हू सम्वलोयपविमहिदो भूदो सर्वज्ञः सर्व लोकपतिमहितश्च भूत: संजातः । कथम् ? सयमेव निश्चयेन स्वयमेवेति । तथाहि-अभिन्न कारकचिदानन्दैकचैतन्यस्वस्वभावेन स्वतन्त्रत्वात् कर्ता भवति । नित्यानन्दै कस्वभावेन स्वयं प्राप्यत्वात कर्मकारक भवति । शुद्धचैतन्यस्वभावेन साधकतमत्वाकरणकारकं भवति । निविकारपरमानन्दकपरिणतिलक्षणेन पशु द्वारमभावरूपफर्मणा समाश्रियमाणत्वात्संप्रदानं भवति । तथैव पूर्व मत्यादिज्ञानबिकल्पविनाशेप्यखण्डितंकचैतन्यप्रकाशेनाविनश्वरत्वादपादानं भवति । निश्चयशुद्धचैतन्यादिगुणस्वभावात्मनः स्वमेवा. धारत्वादधिकरणं भवतीत्यभेदषटकारकीरूपेण स्वत एव परिणममानः सन्नयमात्मा परमात्मस्वभावकेबल ज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे यतो भिन्नकारक नापेक्षते ततः स्वयंभर्भवतीति भावार्थ: ।। १६॥ एवं सर्वज्ञमुख्यत्वेन प्रथमगाथा । स्वयंभूमुख्यत्वेन द्वितीया चेति प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् । उस्थानिका-आगे कहते हैं कि शुद्धोपयोग से उत्पन्न जो शुद्ध आत्मा का लाभ है, उसके होने में भिन्न कारक की आवश्यकता नहीं है, किन्तु अपने आत्मा ही के अधीन है । अन्वय सहित विशेषार्थ-(तह) तथा (सो आदा) वह आत्मा (सयमेव) स्वयं ही (लद्धसहावो भूदो) स्वभाव का लाभ करता हुआ अर्थात निश्चय-रत्नत्रय लक्षणमय शुद्धोपयोग के प्रसाद से जैसे आत्मा सर्व का ज्ञाता हो जाता है वैसा वह शुद्ध आत्मा के स्वभाव का लाभ करता हुआ (सम्वाहू ) सर्वज्ञ व (सव्वलोयपदिमहिदो) सर्व लोक का पति तथा पूजनीय (हवदि) हो जाता है इसलिये वह (सयंभु त्ति) स्वयंभू इस नाम से (णिट्ठिो ) कहा गया है । ___ भाव यह है कि निश्चय से कर्ता कर्म आदि छः कारक आत्मा में ही हैं। अभिन्न कारक की अपेक्षा यह आत्मा चिदानन्दमयी एक चैतन्य स्वभाव के द्वारा स्वतन्त्रता रखने से स्वयं ही अपने भाव का कर्ता है तथा नित्य आनन्दमय एक स्वभाव से स्वयं अपने स्वभाव को प्राप्त होता है । इसलिये यह आत्मा स्वयं ही कर्म है, शुद्ध चैतन्य स्वभाव से यह आत्मा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । आप ही साधकतम है अर्थात् अपने भाव से ही आपका स्वरूप झलकता है इसलिये यह आत्मा आप ही करण है। विकार रहित परमानन्दमयी एक परिणतिरूप लक्षण को रखने वाला शुद्धात्मभाव रूप क्रिया के द्वारा अपने आपको अपना स्वभाव समर्पण करने के कारण यह आत्मा आप ही सम्प्रदान स्वरूप है, तैसे ही पूर्व में रहने वाले मति श्रुत आदि ज्ञान के विकल्पों के नाश होने पर भी अखंडित एक चैतन्य के प्रकाश के द्वारा अपने अविनाशी स्वभाव से ही यह आत्मा आपका (स्वयं का) प्रकाश करता है, इसलिये यह आत्मा आप ही अपादान है तथा यह निश्चय शुद्धचैतन्य आदि गुण स्वभाव का स्वयं ही आधार होने से आप ही स्वयं ही अधिकरण होता है। इस तरह अभेदषट्कारक से स्वयं ही परिणमन करता हुआ यह आत्मा परमात्मस्वभाव लथा केवलज्ञान की उत्पत्ति में भिन्न कारक की अपेक्षा नहीं रखता है, इसलिये आप ही स्वयंभू कहलाता है ।।१६।।। - इस प्रकार सर्वज्ञ को मुख्यता से प्रथम गाथा और स्वयंभू की मुख्यता से दूसरी पाया इस तरह पहले स्थल में दो गाथाएँ पूर्ण हुईं। अथ स्वयम्भुवस्यास्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्यात्यन्तमनपायित्वं कथचिदुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वं चालोचयति भंगविहूणो' य भवो संभवपरिवज्जिदों विणासो हि। विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो' ॥१७॥ भङ्गविहीनश्च भव संभवपरियजितो विनाशो हि । विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः ॥१७॥ अस्य खल्वात्मनः शुद्धोपयोगप्रसादात् शुद्धात्मस्वभावेन यो भवः स पुनस्तेन रूपेण प्रलयाभावाङ्गविहीनः । यस्त्वशुद्धात्मस्वभावेन विनाशः स पुनरुत्पादाभावात्संभवपरिवर्जितः । अतोऽस्य सिद्धत्वेनानपायित्वम् । एवमपि स्थितिसंभवनाशसमवायोऽस्य न विप्रतिविध्यते, भङ्गरहितोत्पादेन संभवजितविनाशेन तदद्वयाधारभूतद्रव्येण च समवेतत्वात् ॥१७॥ भूमिका-अब, स्वयंभू (स्वयं द्वारा उत्पन्न हुए) इस आत्मा के शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के अत्यन्त अविनाशीपने को और कंथचित् (कोई प्रकार से) उत्पाद-व्यय-प्रौव्ययुक्तपने का विचार करते हैं ___ अन्वयार्थ-[भंगविहीनः भवः] (उस शुद्ध आत्म स्वभाव को प्राप्त आत्मा के) विनाश रहित उत्पाद है, और [संभवपरिजितः विनाशः हि] उत्पाद रहित विनाश है १. भंगविहीणो (ज० वृ०)। २. संभवपरिवज्जिओ (ज० वृ०)। ३. विष्णासो ति (ज० वृ.) । ४. समवाओ (ज० वृ०)। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] [ पवयणसारो [] और [तस्य एव पुनः ] उसके ही फिर [ स्थिति संभवनाशसमवायः विद्यते ] श्रीव्य उत्पाद और विनाश का समवाय ( एकत्रित समूह ) विद्यमान है । से टीका - वास्तव में इस ( शुद्धात्मस्वभाव को प्राप्त ) आत्मा के शुद्धोपयोग के प्रसाद शुद्ध आत्मस्वभाव (रूप) से जो उत्पाद हुआ है, वह ( उत्पाद ) फिर उस रूप से नाश का अभाव होने से, विनाशरहिन है और अशुद्ध भाव से विनाश हुआ है, यह (विनाश ), फिर उत्पत्ति का अभाव होने से, उत्पाद रहित है। इस कारण से उस ( आत्मा ) के सिद्धरूप से अविनाशीपता है । ऐसा होने पर भी ध्रौव्य, उत्पाद, व्यय का समवाय इस ( आत्मा ) के विरोध को प्राप्त नहीं होता ( क्योंकि वह ) विनाश रहित उत्पाद के साथ, उत्पाद रहित विनाश के साथ और उन दोनों के आधारभूत द्रव्य के साथ समवेत (तन्मयता ते युक्त- एकमेक ) है | तात्पर्यवृत्ति अथास्य भगवतो द्रव्यार्थिकन येन नित्यश्वेऽपि पर्यायायिकन येनानित्यत्वमुपदिशतिः - मंगविहोणो य भवो भङ्गविहीनश्च भवः जीवितमरणादिसमताभावलक्षणपरमोपेक्षासंयम रूप शुद्धोपयोगे नोत्पन्नो योसौ भवः केवलज्ञानोत्पाद: । स किं विशिष्ट ? भङ्गविहीनो विनाशरहितः । संभवपरिवज्जिओ विनासो त्ति योसी मिथ्यात्त्वरागादिसंसरणरूप संसार- पर्यायस्य विनामा स किं विशिष्टः ? संभवहीनः निर्विकारात्मतत्त्वविलक्षण रागादिपरिणामाभावादुत्पत्तिरहितः । तस्माज्ज्ञायते तस्यैव भगवतः सिद्धस्वरूपतो द्रव्याथिकनयेन विनाशो नास्ति । विज्जवि तस्सेव पुणो हिदिसंभवणाससमवाओ विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः, तस्यैव भगवतः पर्यायार्थिकनयेन शुद्धव्यञ्जनपर्यायापेक्षया सिद्धपर्यायेणोत्पादः, संसारपर्यायेण विनाशः केवलज्ञानादिगुणाधारद्रव्यत्वेन धीव्यनिति । ततः स्थितं द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेपि पर्यायार्थिकनयेनोत्पादव्ययीव्यत्रयं संभवतीति ॥ १७॥ J उत्थानिका आगे उपदेश करते हैं कि अरहंत भगवान के द्रव्याथिकनय की मुख्यता से नित्यपना होने पर भी पर्यायार्थिकनय से अनित्यपना है । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( य मंगविहोणो ) तथा विनाश रहित ( भयो) उत्पाद अर्थात् श्री सिद्ध भगवान् के जीना मरना आदि में समताभाव है लक्षण जिसका ऐसे परम उपेक्षा रूप शुद्धोपयोग के द्वारा जो केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का प्रकाश हुआ है, वह विनाश रहित हैं। उनके ( संभवपरिवज्जियो विणासो) उत्पत्ति रहित विनाश है अर्थात् विकार रहित आत्मतत्त्व से विलक्षण रागादि परिणामों के अभाव होने से फिर उत्पत्ति नहीं हो सकती है, इस तरह मिथ्यात्त्वं व रागादि द्वारा भ्रमण रूप संसार को पर्याय का जिसके नाश हो गया है । (हि) निश्चय करके ऐसा नित्यमना सिद्ध भगवान् के प्रगट हो जाता है, जिससे यह बात जानी जाती है कि द्रव्याथिकनय से सिद्ध भगवान् अपने स्वरूप से कभी छूटते Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । नहीं हैं। ऐसा है (पुणो) तो भो (तस्सेव) उन ही सिद्ध भगवान् के (ठिविसंभवणाससमवाओ) धोध्य-उत्पाद-व्यय का समुदाय (विज्जदि) विद्यमान रहता है। ____अर्थात् शुद्ध-व्यंजनपर्याय की अपेक्षा पर्यायाथिकनय से सिद्धपर्याय का जब उत्पाद हुआ है, तब संसार पर्याय का नाश हुआ है तथा केवलज्ञान आ द गुणों का आधारभूत द्रव्यापना होने से प्रौव्यपना है। इससे यह सिद्ध हुआ कि यद्यपि सिद्ध भगवान् के द्रव्याथिकनय से नित्यपना है तो भी पर्यायाथिकनय से उत्पाद उप्रय हैं। इस तरह समुदाय रूप से उत्पाव, व्यय प्रौव्य तीनों हैं। अथोत्पादादित्रयं सर्वद्रव्यसाधारणत्वेन शद्वात्मनोऽप्यवश्यंभावीति विभावयति-- उत्पादो य विणासो विज्जदि सबस्स अजादस्स । परजाएप, मुकेगादि अटो खलु होदि' सन्मूदो ॥१८॥ उत्पादश्च विनाशो विद्यते सर्वस्यार्थजातस्य । पर्यायेण तु केनाप्यर्थः खलु भवति सद्भूतः ॥१८॥ यथाहि जात्यजाम्बूनदस्याङ्गवपर्यायेणोत्पत्तिदृष्टा। पूर्वव्यवस्थिताङगुलीयकादिपर्यायेण च विनाशः। पीतताविपर्यावण तभयत्राप्युत्पत्तिविनाशावनासादयतः ध्रुवत्वम् । एवमखिलद्रव्याणां केनचित्पर्यायेणोत्पादः केचिद्विनाशः केनचिनौव्यमित्यवबोद्धव्यम् । अतः शुद्धात्मनोऽप्युत्पादावित्रयरूपं द्रव्यलक्षणभूतमस्तित्वमवश्यंभावि ॥१०॥ भूमिका-अब उत्पाद आदि तीनों (उत्पाद, व्यय और धौव्य) सर्व द्रव्यों के साधारणतया (अर्थात् ऐसा नहीं है कि किसी द्रव्य में हों और किसी में न हों) अवश्य होने से शुद्धात्मा के भी अवश्यंभावी हैं, इस बात को व्यक्त करते हैं ___ अन्वयार्थ- [सर्वस्य अर्थजातस्य सम्पूर्ण पदार्थ-समूह के (प्रत्येक पदार्थ के) [खलु वास्तव में [केन अपि पर्यायेण | किसी भी पर्याय से [उत्पादः] उत्पाद [विद्यते। है । [ सर्वस्य अर्थजातस्य] सम्पूर्ण पदार्थ समूह के [खलु] वास्तव में [केन अपि पर्यायेण | कसी भी पर्याय से [विनाशः ) विनाश [विद्यते] है । / च | और [अर्थः] पदार्थ [खलु] वस्तव में [केन अपि पयायेण ] किसी भी पर्याय से [ सद्भुतः | ध्रुव [विद्यते ] है। टीका-जैसे इस लोक में शुद्ध स्वर्ण के, बाज बन्द (रूप) पर्याय से उत्पाद देखा जता है, पूर्व अवस्था रूप से वर्तने वाली अंगूठी इत्यादि पर्याय से विनाश देखा जाता है औ पीलापन आदि पर्याय से तो दोनों में (बाजूबन्द और अंगूठी में) उत्पत्ति विनाश कोप्राप्त न होने वाले (सूवर्ण) नौव्यत्व दिखाई देता है। इसी प्रकार सर्व द्रव्यों के किसी १. होइ (ज- वृ०)। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] [ पवयणसारो पर्याय से उत्पाद, किसी ( पर्याय) से विनाश (और) किसी ( पर्याय ) से श्रव्य होता है, ऐसा जानना चाहिए । सार-- इससे [ यह कहा गया है कि ] शुद्ध आत्मा के भी उत्पाद-आदि तीन रूप तथा द्रव्य का लक्षणभूत अस्तित्व अवश्यंभावी है । तात्पर्यवृति अथोत्पादादित्रयं यथा सुवर्णादिमुर्तपदार्थेषु दृश्यते तथैवामूर्तेपि सिद्धस्वरूपे विज्ञेयं पदार्थत्वादिति निरूपयतिः - उत्पादों य विणासो विज्जवि सध्वस्स अट्ठनावस्स उत्पादश्च विनाशश्च विद्यते तावत्सर्वस्यार्थं जातस्य पदार्थ समूहस्य । केन कृत्वा ? पज्जाएण दु केणवि पर्यायेण तु केनापि विवक्षितेनार्थव्यञ्जनरूपेण वा । स चार्थ कि विशिष्ट: ? अट्टो खलु होइ संभूबो अर्थः खलु स्फुटं सत्ताभूतः सत्ताया अभिन्नो भवतीति । तथाहि सुवर्ण गोरस मृत्तिका पुरुषादिमूर्त पदार्थेषु यथोत्पादादित्रयं लोके प्रसिद्धं तथैवामूर्तेपि मुक्तजीवे । यद्यपि शुद्धात्मरुचिपरिच्छित्ति निश्चलानुभूतिलक्षणस्य संसाराचसानोत्पन्नकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशो भवति तथैव केवलज्ञानादिव्यक्ति रूपस्य कार्यस मयसारपर्यायस्योत्पादश्च भवति तथाप्युभयपर्यविपरिणतात्मद्रव्यत्वेन धीव्यत्वं पदार्थत्वादिति । अथवा ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिणमन्ति तथा ज्ञानमपि परिच्छित्यपेक्षया भङ्गये परिणमति । षट्स्थानगतागुरुलघुक गुणवृद्धिहान्यपेक्षया वा भङ्गत्रयमवबोद्धव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् || १८ || एवं सिद्धजीवेद्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेऽपि विवक्षितपर्यायेणोत्पादव्ययीव्यस्थापन रूपेण द्वितीयस्थले गाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका— आगे कहते हैं कि जैसे सुवर्ण आदि मूर्तिक पदार्थों में उत्पाद व्यय श्रीव्य देखे जाते हैं, वैसे ही अमूर्तिक सिद्ध स्वरूप में भी जानना चाहिये क्योंकि सिद्ध भगवान् भी पदार्थ हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - - ( केणवि दुपज्जा एण) किसी भी पर्याय से अर्थात् किसी भी विवक्षित अर्थ या व्यंजनपर्याय से अथवा स्वभाव या विभावरूप से ( सव्वस्स अट्ठजादस्स) सर्व पदार्थ समूह के ( उप्पादो य विणासो) उत्पाद और विनाश (विज्जदि ) होता है । ( अट्ठो) पदार्थ ( खलु ) निश्चय करके ( सम्भूबो होइ) सत्तारूप है, सत्ता से अभिन्न है । प्रयोजन यह है कि सुवर्ण, गोरस, मिट्टी, पुरुष आदि मूर्तिक पदार्थों में जैसे उत्पाद व्यय धौव्य है ऐसा लोक में प्रसिद्ध है, तैसे अमूर्तिक मुक्त जीव में हैं। यद्यपि मुक्त होते हुए शुद्ध आत्मा की रुचि उसी का ज्ञान तथा उसी का निश्चलता से अनुभव इस् रत्नत्रयमय लक्षण को रखने वाले संसार के अन्त में होने वाले कारणसमयसारखा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४३ भाव-पर्याय का नाश होता है तैसे ही केवल ज्ञानादि की प्रगटता रूप कार्यसमयसाररूप भाव-पर्याय का उत्पाद होता है तो भी दोनों ही पर्यायों में परिणमन करने वाले आत्म द्रव्य का ध्रौव्यपना रहता है क्योंकि आत्मा भी एक पदार्थ है । अथवा ज्ञेय पदार्थ जो ज्ञान में झलकते हैं, वे क्षण-क्षण में उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप परिणमन करते हैं, वैसे हो ज्ञान भी उनको जानने की अपेक्षा तीन भंग से परिणमन करता है । अथवा षट्-स्थानपतित अगुरुलघुगुण में वृद्धि व हानि की अपेक्षा तीन भंग जानने चाहिये, ऐसा सूत्र का तात्पर्य है । ॥१८॥ ___ इस तरह सिद्ध जीव में व्रज्यार्थिक नय से नित्यपना होने पर भी पर्याय की अपेक्षा उत्पाद, व्यय और धोव्यपने को कहते हुए दूसरे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥१८॥ तात्पर्यवसि ___ असं सामन्यन्ते ते सन्यदृष्टयो भवन्ति, परम्परया मोक्षं च लभन्त इति प्रतिपादयति, तं सव्ववरिट्ठ इठं अमरासुरम्पहाणेहि। ये सद्दहति जीवा, तेसि दुक्खाणि खोयंति ॥१६-१॥ तं सर्वार्थवरिष्ठं इष्टं अमरापुरप्रधानः । ये श्रद्दधति जीवाः तेषां दुःखानि क्षीयन्ते ।।१६.१।। तं सबरिट्ठं तं सर्वार्थ वरिष्ठं इळे इष्टमभिमतम् । कैः ? अमरासुरप्पहाणेहि अमरासुरप्रधानैः । ये सवहंति ये श्रद्दधति रोचन्ते जीवा भव्यजीवाः । तेसि तेषाम् । दुःखाणि दुःखानि । खोति विनाशं गच्छन्ति, इति सूत्रार्थः ।।१६-१।।। एवं निर्दोषिपरमात्मश्रद्धानान्मोक्षो भवतोति कथनरूपेण तृतीयस्थले गाथा गता। उत्थानिका—आगे कहते हैं कि जो पूर्व में करे हुये सर्वज्ञ को मानते हैं, वे ही पम्यन्दष्टि होते हैं और वे हो परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(ये जीवा) जो भव्यजीव, (अमरासुरप्पहाणेहि) स्वर्गवसी देव तथा भवनत्रिक के इन्द्रों से (इट्ठ) माननीय (सम्ववरिठ्ठ) उस सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ परमात्मा को (सहति) श्रद्धान करते हैं (तेसि) उनके (दुक्खाणि) सब दुःख (खयंति) नाश को प्राप्त हो जाते हैं। इस तरह निर्दोष परमात्मा के श्रद्धान से मोक्ष होती है ऐसा कहते हुए तीसरे स्थर में गाथा पूर्ण हुई ॥१६-१॥ सूचना-इस गाथा को टोका श्री अमृतचन्द्रसूरि ने नहीं की है, कुछ विद्वानों के विच से यह गाथा प्रक्षिप्त है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] [ पवयणसारो अथास्यात्मनः शुद्धोपयोगानुभावात्स्वयम्भुवो भूतस्य कथमिन्द्रियविना ज्ञानानन्दाविति संदेहमुदयति- पक्खीणघादिकम्मो' अनंतबरवोरिओ अधिक तेजो' । जादो अदिदिओ सो जाणं सोक्खं च परिणमवि ॥ १६ ॥ प्रक्षीणघातिकर्मा अनन्तवर वीर्योऽधिकतेजाः । जातोऽद्रियन परिणयति ॥ १६ ॥ अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्यात् प्रक्षीणघातिकर्मा, क्षायोपशमिकज्ञानदर्शना संपृक्तत्वादतीन्द्रियो भूतः सन्निखिलान्तरायक्षयादनन्तवरवीर्यः कृत्स्नज्ञानादर्शनावरणप्रलयादधिक केवलज्ञानदर्शनाभिधानतेजाः, समस्त मोहनीयाभावादत्यन्त निर्विकार शुद्ध चैतन्यस्वभावमात्मानमासादयन् स्वयमेव स्वपरप्रकाशकत्वलक्षणं ज्ञानमनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं च भूत्वा परिणमते । एवमात्मनो ज्ञानानन्दो स्वभाव एव । स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वादिन्द्रिविनाप्यात्मनो ज्ञानानन्दो सम्भवतः ||१६|| भूमिका – अब, जो शुद्धोपयोग के प्रभाव से स्वयंभू हो चुकी ऐसी इस आत्मा के अर्थात् श्री अरहन्त - सिद्ध परमेष्ठी के, इन्द्रियों के बिना, ज्ञान और आनन्द कैसे होते हैंइस संदेह को दूर करते हैं अन्वयार्थ - ( १ ) [ प्रक्षीणघातिकर्मा] पूर्ण रूप से नष्ट हो चुके हैं घातिकर्म जिसके ( २ ) [ अतीन्द्रियः जातः ] जो अतीन्द्रिय हो गया है: ( ३ ) [ अनन्तत्ररवीर्यः ] जिसका अनन्त उत्तम वीर्य (शक्ति) है [च] और [ ४ ] | अधिकतेजाः ] अधिक जिसका ( केवलज्ञान और केवल दर्शनरूप) तेज है [सः ] वह स्वयंभू आत्मा ) [ ज्ञानं सौख्यं च ] ज्ञान और सुख रूप [ परिणमति ] परिणमन करता है । टीका - वास्तव में यह (स्वयंभू) आत्मा, ( १ ) शुद्धोपयोग को सामर्थ्य से पूर्ण रूप से नष्ट हो चुका है घाति कर्म जिसका, (२) क्षायोपशमिकज्ञान, दर्शन के साथ असंपृक्त ( सम्बन्ध रहित ) हो जाने से अतीन्द्रिय होता हुआ, ( ३ ) समस्त अन्तराय का क्षय होने से जिसका अनन्त उत्तम वीर्यं है, (४) समस्त ज्ञानावरण और दर्शनावरण का नाश हो जाने से अधिक जिसका केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक तेज है । ( ५ ) समस्त मोहनीय अभाव के कारण से अत्यन्त निर्विकार शुद्ध चैतन्य स्वभाव वाले आत्मा को अनुभव करत १. पक्खीणधारकम्मो (ज० वृ०)। २. अनंतवरवीरियो ( ज० वृ० ) । ३. अहियते जो ( वृ०) ४. अभिदियो ( ज ० वृ० ) । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो ] [ ४५ हुआ, स्वयमेव स्वपर, प्रकाशकता लक्षण वाले ज्ञान और अनाक्लता लक्षण वाले सुखरूप होकर परिणमित होता है। सार--इस प्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञान और आनन्द है। स्वभाव के पर का निरपेक्षपना होने के कारण से, इन्द्रियों के विना भी, आत्मा के ज्ञान और आनन्द होते हैं। तात्पर्यवति अथास्यास्मनो निर्विकारस्यसंवेदनलक्षणशुद्धोपयोगप्रभावात्सर्वज्ञत्वे सतीन्द्रियविना कथं ज्ञानानन्दाविति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददाति पक्खीणघाइकम्मो ज्ञानाद्यनन्त चतुष्टयस्वरूपपरमात्मद्रव्यभावनालक्षणशुद्धोपयांगबलेन प्रक्षीणघातिकर्मा सन् 1 अणंतवरबोरियो अनन्तवरवीर्यः । पुनरपि किविशिष्टः ? अहियतेजो अधिकतेजाः। अत्र तेज:शब्देन केवलज्ञानदर्शनद्वयं ग्राह्यम् । जादो सो स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा जात: संजातः । कथंभूतः ? अणिवियो अनि न्द्रिय इन्द्रियविषयध्यापार. रहितः । अतीन्द्रियः सन् कि करोति ? गाणं सोक्खं च परिणमदि केबलज्ञानमनन्तसौख्यं च परिणपतीति । तथाहि-अनेन व्याख्यानेन किमुक्त भवति ? आत्मा तावनिश्चयेनानन्तज्ञानसुख स्वभावोऽरि व्यवहारेण संसारावस्थायां कर्मप्रच्छादितज्ञानसूखः सन् पश्चादिन्द्रियाधारेण किमप्यल्पज्ञानं सुखं च परिणमति ? यदा पुननिर्विकल्पस्वसंवित्ति बलेन कर्माभावो भवति तदा क्षयोपशमाभावादिन्द्रियाणि न सन्ति स्वकीयातीन्द्रियज्ञानसुखं चानुमवति । ततः स्थितं इन्द्रियाभावेऽपि स्वीकायानन्तज्ञानं सुख चानुभवति तदपि कस्मात् ? स्वभावस्य पगपेक्षा नास्तीत्यभिप्रायः ।।१६।। उत्थानिका—आगे शिष्य ने प्रश्न किया कि इस आत्मा के विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण रूप शुद्धोपयोग के प्रभाव से सर्वज्ञपना प्राप्त होने पर इन्द्रियों के द्वारा उपयोग तथा भोग के विना किस तरह ज्ञान और आनन्द हो सकते हैं ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं - ___ अत्वय सहित विशेषार्थ— (सो) वह सर्वज्ञ आत्मा जिसका लक्षण पहले कहा है (पक्खीणघाइकम्मो) घातियाकर्मों को क्षयकर अर्थात् अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य इन चतुष्टय रूप परमात्मा द्रव्य की भावना के लक्षण को रखने वाले शुद्धोपयोग के बल से ज्ञानावरणादि धातियाकर्मों को नाशकर (अणंतवरवीरियो) अंत रहित और उत्कृष्ट वीर्य को रखता हुआ (अहियतेजो) व अतिशय तेज को घरता हुआ अर्थात् केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त हुआ (अणिदियो) अतीन्द्रिय अर्थात् इंद्रियों के विषयों के व्यापार से रहित (जादो) हो गया (च) तथा ऐसा होकर (णाणं) केवलज्ञान को (सोक्खं) और अनंतसुख को (परिणमदि) परिणभन करता है । इस व्याख्यान में यह कहा है कि आत्मा यद्यपि निश्चय से अनंतमान और अनंतसुख के स्वभाव को रखने वाला है तो भी व्यवहार से संसार की अवस्था में पड़ा हुआ है, जब इसका केवलज्ञान और अनंतसुख स्वभाव कर्मों से ढका हुआ है, तब तक पांच इन्द्रियों के Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ । [ पक्ष्यणसारो आधार से कुच अल्प ज्ञान व कुछ अल्प सुख में परिणमन करता है। फिर जब कभी विकल्प रहित स्वसंवेवन या निश्चल आत्मानुभव के बल से कर्मों का अमाव होता है तब क्षयोपशमशान के अभाव होने पर इन्द्रियों के व्यापार नहीं होते हैं, उस समय अपने ही अतीविय ज्ञान और सुख को अनुभव करता है क्योंकि स्वभाव के प्रगट होने में पर की अपेक्षा नहीं है, ऐसा अभिप्राय है। अथातीन्द्रियत्वादेव शुद्धात्मनः शारीरं सुखदुःखं नास्तीति विभावयति-- सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलगाणिस्स पत्थि बेहगदं'। जम्हा अदिवियत्तं मादं तम्हा दु तं प्रेयं ॥२०॥ सौख्यं वा पुनःख केवलज्ञानिनो मास्ति देहगतम् । यस्मादतीन्द्रियत्वं जातं तस्मातु तज्जयम् ॥२०॥ थत एव शुद्धात्मनो जातवेदस इव कालायसगोलोकूलितपुद्गलाशेषविलासकल्पो नास्तीन्द्रियग्रामस्तत एवं घोरघनघाताभिघातपरम्परास्थानीयं शरीरगतं सुखदुःखं न स्पात् ॥२०॥ भूमिका-अब, अतीन्द्रियपने के कारण से ही शुद्ध भात्मा के शारीरिक सुख-दुःख नहीं है, इस बात को व्यक्त करते हैं अन्वयार्थ-[केवलज्ञानिनः] केवलज्ञानी के [देहगतं] शरीर सम्बन्धी [सौख्य ] सुख [वा पुनः] या [दु:खं] दुःख [नास्ति नहीं है [यस्मात् ] क्योंकि [अतीन्द्रियत्व] अतीन्द्रियता [जातं] उत्पन्न हुई है [तस्मात् तु तत् ज्ञेयम्] इसलिये ऐसा जानना चाहिये । टीका-जैसे अग्नि के लोहपिण्ड के तप्त पुद्गलों का समस्त विलास समूह नहीं है (अर्थात् अग्नि लोहे के गोले के पुद्गलों के विलास से-उनकी क्रिया से भिन्न है) उसो प्रकार शुद्ध आत्मा के इद्रिय समूह नहीं है, इस ही कारण से जैसे (अग्नि के ) घन (लोहपिम्) के घोर आघातों की परम्परा नहीं है (लोहे के गोले के संसर्ग का अभाव होने पर धन के लगातार आघातों की भयंकर मार अग्नि पर नहीं पड़ती), इसी प्रकार (शुद्ध आत्मा के) शरीर सम्बन्धी सुख-दुःख नहीं है। तात्पर्यवृत्तिअथातीन्द्रियत्वादेय केवलिनः शरीराधारांद्भूतं भोजनादिसुखं क्षुधादिदुःखं च नास्तोति विचारयलि: सोक्छ वा पुण दुरखं केवलणाणिस्त परिच सुखं वा पुनःखं वा केवल१. देहगयं (ज• वृ०)। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] जानिनो नास्ति । कथंभूतम् ? बेहगयं देहगतं देहाधारजिहन्द्रियादिसमुत्पन्न कवलाहारादिसुखम्, असातोदय जनितं क्षुधादि:दुःख च । कस्मानास्ति ? ब्रह्मा कवियत्तं जावं यस्मान्मोहादिधातिकर्माभावे पञ्चेन्द्रियविषयसुखाय व्यापार रहितत्व जातम् । तह्मा दुतं यं तस्मादतीन्द्रियत्वाद्धेतो. रतीन्द्रियमेव तज्ज्ञानं सुखं च ज्ञेयमिति । तद्यथा – लोहपिण्डसं मर्गाभावादग्निर्यथा धनधातपिट्टनं न लभते तथायमात्मापि लोहपिण्डस्थानीयेन्द्रियग्रामामावत् सांसारिक सुखदुःखं नानुभवतीत्यर्थः । कश्चिदाह के बलिन भुक्तिरस्ति, औदारिकशरीरसद्भावात् । असद द्यकर्मोदय सद्भावाद्वा । अस्मदादिवत् परिहारमाह-तद्भगवतः शरीरमौदारिकं न भवति किन्तु परमौदारिक तथाचोक्त शुद्धस्फटिकसंकाशं तेजोमूर्तिमयं वपुः । जायते क्षीणवोषस्य सप्तधातुविजितम् ॥ __ यच्चोक्तमसद्वेयोदयसद्भावात्तथ परिहारमाह-यथा नोह्यादिबीजं जलसहकारिकारणसहितमंकरादिकार्य जनयति तथैवासद्वद्यकर्म मोहनीयसहकारिकारणसहितं क्षधादिकार्यमुत्पादयति । कस्मात् ? मोहल्स बलेण घादवे जीव' इति वचनात् । यदि पुनर्मोहाभावेपि क्षुधादिपरीषहं जनयति तहि बधरोगादिपरीषहमपि जनयत् न च तया । तदपि क मात् ? 'मुक्त्युपसर्गामायाद' इति वचनात् । अन्यदपि दूषणमस्ति । यदि क्षुधाबावास्ति तहि क्षुधाक्षीणशक्तेरनन्तवीर्य नास्ति । तथैव क्षधादुःखितस्यानन्तसुखमपि नास्ति । जिह्वन्द्रियपरिच्छित्तिरूपमतिज्ञानपरिणतस्य केवलज्ञानमपि न संभवति । अथवा अन्यदपि कारणमस्ति । अस वेद्योदयापेक्षया सद्योदयोऽनन्तगुणोस्ति । ततः कारणात् शर्कराराशिमध्ये निम्ब कणिकावदमद्वेद्योदयो विद्यमानोपि न ज्ञायते । तथवान्यदपि बाधकमस्ति-यथा प्रमत्तसंयतादितपोधनानां वेदोदये विद्यमाने पि मन्दमोहोदयत्वादखण्डब्रह्मचारिणां स्त्रीपरीषहबाधा नास्ति । यथैव च नवगैवेयकाद्यहमिन्द्र देवानां वेदोदये विद्यमानेपि मन्दमोहोदयेन स्त्रीविषयबाधा नास्ति, तथा भगवत्यसद्वद्योदये विद्यमानेपि निरवशेषमोहाभावात् क्षुधाबाधा नास्ति । यदि पुनरुच्यते भवद्भिः-मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवलिपर्यन्तास्त्रयोदशगुणस्थानवतिनो जीवा आहारका भवन्तोत्याहारकमार्गणायामाममे भणितमास्ते, ततः कारणात् केवलिनामाहारोस्तीति । तदप्ययुक्तम् । परिहार: णोकम्म-कम्महारो कबलाहारो य लेष्यमाहारो। ओजमणो वि य कमसो आहारो छस्विहो यो । इति गाथाकथितक्रमेण यद्यपि षट्प्रकार आहारो भवति तथापि नोकर्माहारापेक्षया केव. लिनामाहारकत्वमवबोद्धव्यम् । न च कवलाहारापेक्षया। तथाहि-सूक्ष्मा: सुरसाः सुगन्धा अन्य. मनुजानामसंभावन: कवलाहारं विनापि किञ्चिनपूर्वकोटिपर्यन्तं शरोरस्थितिहेतवः सप्तधातुरहितपरमौगरिक शरीरनोकर्माहारयोग्या लाभान्तगयकर्मनिरवशेषक्षयात् प्रतिक्षणं पुद्गना आसवन्तीति नवके वलिलब्धिव्याख्यानकाले भणितं तिष्ठति । ततो ज्ञायते नोकर्माहारापेक्षया केवलिनामाहारकत्वम् । अथ मतम्-भवदीयकल्पनया आहारानाहारकत्वं नोकर्माहारापेक्षया, न च कवलाहारापेक्षया चेति कथं ज्ञायते नैवम् । “एक द्वौ त्रीन् वानाहारकः" इति तत्त्वार्थे कथितमास्ते। अस्य सूत्रस्पार्थः कथ्यते-भवान्तग्गमनकाले विग्रहगतो शरीराभावे सति नुतन शरीरधारणार्थ त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलपिण्डग्रहणं नोकर्माहार उच्यते । स च विग्रगती Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] [ पवयणसारो कर्माहारे विद्यमाने प्येकदित्रिसमयपर्यन्तं नास्ति । ततो नोकर्माहारापेक्षयाहा रानाहारकत्वमागमे ज्ञायते । यदि पुनः कवलाहारापेक्षया तहि भोजनकालं बिहाय सर्वदेवानाहारक एव, समय त्रनियमो न घटते। अथ मतम्-केवलिना कवलाहारोऽस्ति मनुष्यत्वात् वर्तमानमनुष्यवत् । तदप्ययुक्तम् । तहि पूर्वकालपुरुषाणां सर्वज्ञत्वं नास्ति, रामरावणादिपुरुषाणां च विशेषसाभयं नास्ति वर्तमानमनुष्यबत् । न च तथा । किंच क्षमस्थतपोधना अपि सप्तधातुरहितपरमौदारिक शरीराभावे 'छटठोत्ति पढमसण्णा' इति वचनात् प्रमत्तसंयत षष्ठगुणस्थानवतिनो यद्यप्याहारं पृह्णन्ति तथापि ज्ञानसयमध्यान सिद्धयर्थ, न च देहममत्वार्थम् । उक्तं च कायस्थित्यर्थमाहारः कायो ज्ञानार्थमिष्यते । ज्ञानं कर्मविनाशाय तमाशे परमं सुखम् ॥ ण बलाउसाहणट्ठ ण सरीरस्त य चयठ तेजड़े। णाणढ़ संजमढू झाणह्र व मुंजति ।। तस्य भगवतो ज्ञानसंयमध्यानादिगुणाः स्वभावेनैव तिष्ठन्ति न चाहारबलेन । यदि पुनदेह ममत्वेनाहारं गृह्णाति तहि छद्मस्थेभ्योऽप्यसो होनः प्राप्नोति । अथोच्यते-तस्यातिशयविशेपात्प्रकटा भुक्तिर्नास्ति प्रच्छन्ना विद्यते। तहि परमौदारिकशरीरत्वाद्भुक्तिरेव नास्त्ययमेवातिशया कि न भवति ? तत्र तु प्रच्छन्नोभुक्तो मायास्थानं दैन्यवृत्तिः, अन्येपि पिण्डशुद्धिकथिता दोषा बह्वो भवन्ति ? ते चान्यत्र तर्कशास्त्रे ज्ञातव्याः । अत्र चाध्यात्म ग्रन्थत्वान्नोच्यन्त इति । अयमश्र भावार्थ:इदं वस्तुस्वरूपमेव ज्ञातव्यमत्राग्रहो न कर्तव्यः । कस्मात् ? दुराग्रहे सति रागद्वेषोत्पत्तिभवति ततश्च निविकारचिदानन्दै कस्वभावपरमात्मभावनाविधातो भवतीति ॥२०॥ एवमनन्तज्ञानमुखस्थापने प्रथमगाथा केवलिभुक्तिनिराकरणे द्वितीया चेति गाथाद्वयं गतम् । इति सप्तगाथाभिः स्थलचतुष्टयेन सामान्येन सर्वज्ञ सिद्धिनामा द्वितीयोन्तराधिकारः समाप्तः उत्थानिका-आगे कहते हैं कि अतीन्द्रियपना होने से ही केवलज्ञानी के शरीर के आधार से उत्पन्न होने वाला भोजनादि का सुख तथा क्षुधा आदि का दुःख नहीं होता है। अन्वय सहित विशेषार्थ—(पुण) तथा (केवलणाणिस्स) केवल ज्ञानी के (देहगयं) देह से होने वाला अर्थात् शरीर के आधार में रहने वाली जिह्वा इन्द्रिय आदि के द्वारा पैदा होने वाला (सोक्खं) सुख (वा दुक्खं) और दुःख अर्थात् असातावेदनीय आदि के उदय से पैदा होने वाला क्षुधा आदि का दुःख (पत्थि) नहीं होता है । (जम्हा) क्योंकि (अविदियत्तं) अतीन्द्रियपना अर्थात् मोहनीय आदि घातियाकर्मों के अभाव होने पर पांचों इन्द्रियों के विषय सुख के लिये व्यापार का अभावपना ऐसा अतीन्द्रियपना (जावं) प्रगट हो गया है (तम्हा) इसलिये (तं दु) वह अर्थात् अतीन्द्रियपना होने के कारण से अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रिय सुख तो (णेयं) जानना चाहिये । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] __ [ ४६ भाव यह कि जैसे लोहे के पिंड की संगति को न पाकर अग्नि हथौड़े को चोट नहीं सहती है तैसे यह आत्मा भी लोहपिंड के समान इन्द्रिय ग्रामों का अभाव होने से अर्थात् इन्द्रियजनित ज्ञान के बन्द होने से गांड दिया गुल्मा तथा दुःलो अनुभव नहीं करता है । यहाँ किसी ने कहा है कि केवलज्ञानी भी भोजन करते हैं क्योंकि उनके औदारिक शरीर की सत्ता है तथा असातावेदनीयकर्म के उदय का सद्भाव हैं, जैसे हम लोगों के भोजन होताहै इसका खंडन करते हैं कि श्री केवली भगवान् के औदारिक शरीर नहीं है किन्तु परम औदारिक है, जैसे कि कहा है ___ अर्थात् बोष-रहित केवलज्ञानी के शुद्ध स्फटिक मणि के समान परम तेजस्वी तथा सात धातु से रहित शरीर होता है। और जो यह कहा है कि मसाताबेदनीय के उदय के सद्भाव से केवली के भूख लगती है और वे भोजन करते हैं सो भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे धान्य, जो आदि का बीज जलादि सहकारी कारण सहित होने पर ही अंकुर आदि कार्य को उत्पन्न करता है तैसे ही असातावेदनीयकर्म मोहनीयकर्मरूप सहकारी कारण के साथ ही क्षुधा आदि कार्य को उत्पन्न करता है क्योंकि कहा है "मोहस्स बलेण घावदे जीवं" देवनीयकर्म मोह के बल को पाकर जीव को घात करता है। यदि मोहनीयकर्म के अभाव होने पर भी असातावेदनीयकर्म क्षुधा आदि परीषह को उत्पन्न करदे तो वध रोग आदि परीषह भी उत्पन्न हो जायें, सो ऐसा होता नहीं है क्योंकि कहा है "भुक्त्युपसगर्गाभावात्" केवली के भोजन व उपसर्ग नहीं होते, और भी दोष यह आता है कि यदि केवली को क्षुधा की बाधा है, तब क्षुधा के कारण शक्ति क्षीण होने से अनन्तवीर्य नहीं बनेगा तैसे ही क्षुधा द्वारा जो दुःखी होगा उसके अनन्तसुख भी नहीं हो सकेगा तथा रसना इन्द्रिय द्वारा ज्ञान में परिणमन करते हुए मतिज्ञानी के केवलज्ञान का होना भी सम्भव न होगा । अथवा और भी हेतु है। असातावेदनीय के उदय की अपेक्षा केवली के सातादेवनीय का उदय अनन्त-गुणा है। इस कारण से जैसे शक्कर के ढेर में नीम का कण अपना असर नहीं दिखलाता है वैसे अनन्तगुणे सातावेदनीय के उक्य में असातावेदनीय का असर नहीं प्रगट होता, तैसे ही और भी बाधक हेतु हैं। जैसे प्रमत्तसंयमी आदि साधुओं के वेद का उदय रहते हुए भी मन्द-मोह के उदय से अखंड ब्रह्मचारियों के स्त्री परीषह की बाधा नहीं होती है तथा नव-येयक आदि के अहमिन्द्रों के वेद का उदय होते हुए भी मन्द मोह के उदय से स्त्री-सेवन-सम्बन्धी बाधा नहीं होती है, तैसे ही श्री Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० । [ पत्रयणसारो केवली अरहंत के असातावेदनीय का उदय होते हुए भी सम्पूर्ण स्नेह का अभाव होने से क्षुधा की बाधा नहीं हो सकती है। यदि ऐसा आप कहें कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानवत जीव आहारक होते हैं, ऐसा आहार मार्गणा के सम्बन्ध में आगम में कहा हुआ है, इस कारणा से केदलियों के आहार है, ऐसा मानना चाहिये । सो ठीक नहीं है, ऐसा मानना चाहिये। सो ठीक नहीं है क्योंकि निम्न गाया के अनुसार आहार छः प्रकार का होता है "पोक मकम्हारी कवलाहारो य लेप्यमाहारो । ओजमणो वि य कमसो आहारो छन्दिहो गेयो ॥ २ ॥ 1 भाव यह है कि आहार छः प्रकार का होता है, जैसे-कर्म का आहार, कर्मों का आहार, ग्रासरूप कवलाहार, लेपका आहार, ओज आहार तथा मानसिक आहार । आहार उन परमाणुओं के ग्रहण को कहते हैं जिनसे शरीर को स्थिति रहे । आतक वर्गणा का शरीर में प्रवेश सो नोकर्म का आहार है । जिन परमाणुओं के समूह से देवों का, नारकियों का, मनुष्य या तिथंचों का वैक्रियिक, औदारिकशरीर और मुनियों के आहारकशरीर बनता है उसको आहारक वर्गणा कहते हैं । कार्माण वर्गणा के ग्रहण को कर्म आहार कहते हैं। इन्हीं वर्गणाओं से कर्मों का सूक्ष्मशरीर बनता है। अन्न, पानी आदि पदार्थों को मुंह चलाकर खाना-पीना कबलाहार है। यह साधारण मनुष्यों के व द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के पशुओं के होता है। स्पर्श से शरीर पुष्टिकारक पदार्थों को ग्रहण करना सो लेप आहार है । यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति कायधारी एकेन्द्रिय जोयों के होता है । अंडों को माता सेती है उससे गर्मी पहुंचाकर अण्डों को पकना सो ओज आहार है । भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी तथा कल्पवासी इन चार प्रकार के देवों के मानसिक आहार होता है । इनके वैक्रियिक दिव्यशरीर होता है, जिसमें हाड़, मांस, रुधिर नही होता है, इसलिये इनके कवलाहार नहीं हैं, यह मांस व अन्न नहीं खाते हैं । देवों के जब कभी भूख की बाधा होती है तो उनके कण्ठ में से अमृतमयी रस झर जाता है उससे ही उनकी भूख की बाधा मिट जाती है । नारकियों के कर्मों का भोगना यही आहार है तथा वे नरक की पृथ्वी की मिट्टी खाते हैं परन्तु उससे उनकी भूख मिटती नहीं है । इन छः प्रकार के आहारों में से केवली अरहंत भगवान् के मात्र नोकर्म्म का आहार है इस हो अपेक्षा से केवली भरहंतों के आहारकपना जानना चाहिये, कवलाहार की अपेक्षा से नहीं । सूक्ष्म इन्द्रियों के अगोचर, रस वाले सुगन्धित अन्य मनुष्यों के लिए असम्भव, कवलाहार के बिना भी कुछ कम कोटि 1 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । पूर्व तक शरीर को स्थिति के कारण, सात धातुओं से रहित परमौदारिक शरीर रूप नोकर्म के आहार के योग्य आहारक वर्गणाओं के पुद्गल लाभान्तराय कर्म के पूर्ण क्षय हो जाने से केवली भगवान् के शरीर में योग-शक्ति के आकर्षण से प्रति समय आते हैं। यही केवली आहार है। यह बात नवकेवललब्धि व्याख्या के अवसर पर कही गई है इसलिये यह जाना जाता है कि केवली अरहंतों के नोकर्म के आहार की अपेक्षा से ही आहारकपना है । यदि आप कहो कि आहारकपना नोकर्म के आहार को अपेक्षा कहना तथा कवलाहार की अपेक्षा न कहना यह आपको कल्पना है यवि सिद्धान्त में है तो कैसे मालूम पड़े तो इसका समाधान यह है कि श्री उमास्वामी महाराज कृत तत्त्वार्यसूत्र के दूसरे अध्याय में यह वाक्य है। "एक द्वौ त्रीन्यानाहारकः', ॥३०॥ इस सूत्र का भावरूप अर्थ कहा जाता है। ए पीर को छोड़कन सरे भव में जाने के काल में विग्रहगति के भीतर स्थूलशरीर का अभाव होते हुए नवीन स्थूलशरीर धारण करने के लिये तीन शरीर और छः पर्याप्ति के योग्य पुद्गल पिड का ग्रहण होना नो-कर्म-आहार कहा जाता है। ऐसा नोकर्म आहार विग्रहगति के भीतर कमों का ग्रहण या कार्माणवर्गणा का आहार होते हुए भी एक, दो या तीन समय तक नहीं होता है । इसलिये ऐसा जाना जाता है कि आगम में नोकर्म आहार की अपेक्षा से आहारकपना कहा है। यदि कहोगे कि कबलाहार की अपेक्षा से है तो प्रासरूप भोजन के काल को छोड़कर सदा ही अनाहारकपना रहेगा। तब तीन समय अनाहारक हैं, ऐसा नियम न रहेगा । यदि कहोगे कि वर्तमान के मनुष्यों की तरह केवलियों के कालाहार है क्योंकि केवली भी मनुष्य हैं, सो कहता भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानोगे तो वर्तमान के मनुष्यों की तरह पूर्वकाल के पुरुषों के सर्वज्ञपना न रहेगा तथा राम, रावण आदि को विशेष सामर्थ्य थी सो यह बात नहीं बन सकेगी, और समझना चाहिये कि अल्पज्ञानी छमस्थ प्रमत्तसंयतनामा छठे गुणस्थानधारी साधु भो जिनके सात धातु रहित परम औदारिक शरीर नहीं है इस वचन से कि "छट्ठोत्ति पढम सण्णा" षष्ठ गुणस्थान तक प्रथम आहार संज्ञा है अर्थात् भोजन करने की चाह छठे गुणस्थान तक ही है यद्यपि ये आहार को लेते हैं तथापि ज्ञान और संयम तथा ध्यान की सिद्धि के लिये लेते हैं, बेह के मोह के लिये नहीं लेते हैं। कहा भी है कायस्थित्यर्थमाहार: कायो ज्ञामार्थमिष्यते, ज्ञानं कर्मविनाशाय तन्नाशे परमं सुखं ॥३॥ ण बलाउ साहणटुंग सरोरस्य य चपळे तेमळे । णाणळं संजमझें शाणळे चेव मुंजंति ।।४।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] [ पवयणसारो भाव यह है कि मुनियों के आहार शरीर की स्थिति के लिये होता है, शरीर को ज्ञान के लिये रखते हैं, आत्मज्ञान कर्म नाश के लिये सेवन करते हैं क्योंकि कर्मों के नाश से परम सुख होता है। मुनि शरीर के बल आयु, चेष्टा तथा तेज के लिये भोजन नहीं करते हैं किन्तु ज्ञान, संयम तथा ध्यान के लिये करते । उन भगवान् केवली के तो ज्ञान, संयम तथा ध्यान आदि गुण स्वभाव से ही पाए जाते हैं आहार के बल से नहीं । उनको संयमादि के लिये आहार की आवश्यकता तो है नहीं क्योंकि कर्मों के आवरण न होने से संयमावि गुण तो प्रगट हो रहे हैं। फिर यदि कहो कि देह के ममत्त्व से आहार करते हैं तो वे केवली छद्मस्थ मुनियों से भो हीन हो जायेंगे । यदि कहोगे कि उनके अतिशय को विशेषता से प्रगटरूप से भोजन की मुक्ति नहीं है, गुप्त है, तो परमोदारिक शरीर होने से मुक्ति ही नहीं है ऐसा अतिशय क्यों नहीं होता है। क्योंकि गुप्त भोजन में मायाचार का स्थान होता है, दीनता की वृति आती है तथा दूसरे भी पिंड शुद्धि में कहे हुए बहुत से दोष होते हैं जिनको दूसरे ग्रन्थ से व तर्कशास्त्र से जानना चाहिये । अध्यात्म ग्रन्थ होने से यहाँ अधिक नहीं कहा गया है। यहां यह भावार्थ है कि ऐसा ही वस्तु का स्वरूप जानना चाहिये । इसमें हठ नहीं करना चाहिये । खोटा आग्रह या हठ करने से रागद्वेष की उत्पत्ति होती है, जिससे निर्विकार चिदानंदमयी एक स्वभाव रूप परमात्मा की भावना का घात होता है। इस तरह अनन्तज्ञान और सुख की स्थापना करते हुए प्रथम गाथा तथा केवली के भोजन का निराकरण करते हुए दूसरी गाया है। इस तरह दो गाथाएं पूर्ण हुई । इस तरह सात गाथाओं के द्वारा चार स्थलों से सामान्य से सर्वज्ञसिद्धि नाम का दूसरा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ ॥२०॥ अथ ज्ञानस्वरूपप्रपञ्चं सौख्यस्वरूपप्रपञ्चं च क्रमप्रवृत्तप्रबन्धद्वयेनाभिवधाति । तत्र केवलिनोतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वात्सर्वं प्रत्यक्षं भवतीति विभावयति — परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदध्वपज्जाया । सो व ते विजाणवि उमाहवाहि किरियाहिं ॥ २१ ॥ परिणममानस्य खलु ज्ञानं प्रत्यक्षाः सर्वद्रव्यपर्यायाः । सो नैव तान् विजानात्यवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ॥ २१ ॥ यतो न खल्विन्द्रियाण्याल न्याय ग्रह हा वायपूर्वक प्रक्रमेण केथली विजानाति, स्वयमेव एवानाद्यनन्ताहेतुकासाधारणभूतज्ञानस्वभावमेव कारणत्वेनोपादाय समस्तावरणक्षयक्षण Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववयणसारो ] [ ५३ तदुपरि प्रबिकसत्केवलज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमते, ततोऽस्याक्रमसमा कान्सस मस्तद्रव्यक्षेत्र कालभावतया 'समक्षसंवेदनालम्बनभूताः सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा एव भवन्ति ॥ २१ ॥ भूमिका – अब, ज्ञान के स्वरूप के विस्तार को ( गाथा २१ से ५२ तक) और सुख के विस्तारको (गाथा ४३ से ६८ तक) कम से प्रवर्तमान दो अधिकारों द्वारा कहते हैं । उनमें से पहले अधिकार को प्रारम्भ करते हुए, केवली के अतीन्द्रियज्ञान (रूप) परिणत होने से सब प्रत्यक्ष होता है यह प्रगट करते हैं अन्वयार्थ - [ज्ञानं परिणममानस्य केवलिनः ] ( अनन्त पदार्थों के जानने में समर्थ ऐसे ) केवलज्ञान रूप से परिणत हुए केवली भगवान् के [सर्वद्रव्यपर्यायाः ] सब द्रव्य पर्यायें [ खलू] वास्तव में [ प्रत्यक्षा: ] प्रत्यक्ष हैं । [ स ] वह (केवली भगवान्) [तान् ] उन सब ( द्रव्य - पर्यायों) को [ अवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ] अवग्रह है पूर्व में जिनके ऐसे अवग्रह, ईहा अवाय रूप क्रियाओं द्वारा [ नॅव ] नहीं [विजानाति ] जानते हैं ( किन्तु युगपत् जानते हैं) । टीका — क्योंकि, वास्तव में, इन्द्रियों को आलम्बन करके अवग्रह, ईहा, अवाय पूर्वक क्रम से केवली नहीं जानते हैं ( किन्तु ) समस्त आवरण के नाश के समय में हो, अनादि अनन्त, अहेतुक और असाधारणभूत ज्ञान स्वभाव को ही कारणपने से ग्रहण करके, उसके ऊपर प्रगट होने वाले केवलज्ञानोपयोगी होकर स्वयमेव परिणमते हैं । इस कारण से उस ( केवली ) के, समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अक्रमिक ( युगपत् ) ग्रहण होने से ( जानने से ) प्रत्यक्ष ज्ञान की आलम्बनभूत समस्त द्रव्य पर्याय प्रत्यक्ष ही हैं । ( भवन्ति क्रिया का कर्त्ता समस्त द्रव्य पर्यायें हैं 1) तात्पर्यवृत्ति उपोद्घातः - अथ ज्ञानप्रपञ्चाभिधानान्तराधिकारे त्रयस्त्रिशद्गाथा भवन्ति । तत्राष्ट स्थलानि । तेष्वादी केवलज्ञानस्य सर्वं प्रत्यक्षं भवतीति कथनमुख्यत्वेन 'परिणमवो बलु' इत्यादिगाथाद्वयम्, अध्यात्मज्ञानयोनिश्चयेनासंख्यात प्रदेशत्वेपि व्यवहारेण सर्वगतत्वं भवतीत्यादिकथन मुख्यत्वेन "आदा णाणपमाणं" इत्यादिगाथा पञ्चकम्, ततः परं ज्ञानज्ञेययोः परस्परगमननिराकरण मुख्यतया "णाणी णाणसहावो" इत्यादिगाथापञ्चकम् अथ निश्चयव्यवहारकेवलिप्रतिपादनादिमुख्यत्वेन "जो हि सुवेण' इत्यादिसूत्र चतुष्टयं, अथ वर्तमानज्ञाने कालत्रयपर्यायपरिच्छित्तिकथनादिरूपेण "तक्का लिगेव सवे" इत्यादिसूत्रपञ्चकम् अथ केवलज्ञानं बन्धकारणं न भवति रागादिविकल्परहितं छद्मस्थज्ञानमपि । किन्तु रागोदयो बन्धकारणमित्यादिनिरूपण मुख्यतया "परिणमदि णेयं" इत्यादिसूत्रपञ्चकम्, अथ केवलज्ञानं सर्वज्ञानं सर्वज्ञत्वेन प्रतिपादयतीत्या दिव्याख्यानमुख्यत्वेन "जं कालियमिवरं" इत्यादिगाथापञ्चकम्, अथ ज्ञानप्रपंचोपसंहारमुख्यत्वेन प्रथमगाथा, नमस्कारकथनेन १. 'समस्त' इति पाठान्तरम् । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] [ पक्यणसारो द्वितीया चेति णवि परिण मदि" इत्यादि शायाद्वयम् । एवं ज्ञानप्रपञ्चाभिधानतृतीयान्तराधिकारे स्त्रिशद्गाथाभिः स्थलाष्टकेन समुदायपातनिका ।तद्यथा अयातीन्द्रियज्ञानारिणतत्वातकिर. सर्वस्या भवतीनि अतिपादयति । पहचक्खा सम्वश्वपजाया सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा भवन्ति । कस्य ? केवलिन: । कि कुर्वतः ? परिणमको परिणममानस्य खलु स्फुटम् । किम् ? जाणं अनन्तपदार्थपरिच्छित्तिसमर्थ केवलज्ञानम् । तर्हि किं क्रमेण जानाति ? सो व ते विजाणवि जग्गहपुरवाहि किरियाहिं स च भगवान्नैव तान् जानात्यवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः, किन्तु युगपदित्यर्थः। इतो विस्तर:--अनाद्यनन्तमहेतुकं चिदानन्द कस्वभावं निजशुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा केवलज्ञानोत्पत्तेर्बीजभूतेनागम भाषया शुक्लध्यानसंज्ञेन रागादिविकल्पजालरहितस्वसंवेदन ज्ञानेन यदायमात्मा परिणमति, तदा स्वसंवेदनज्ञानफलभूत केवलज्ञानपरिच्छित्याकारपरिणतस्य तस्मिन्नेव क्षणे क्रमप्रवृत्तक्षायोपशमिकज्ञानाभावादक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्य क्षेत्रकालभावतया सर्वद्रव्य गुणपर्याया अस्यात्मनः प्रत्यक्षा भवन्तीत्यभिप्राय: ॥२१॥ उत्थानिका--आगे ज्ञान प्रपंच नाम के अन्तर अधिकार में तेतीस गाथायें हैं, उनमें आठ स्थल हैं जिनके आदि में केवलज्ञान सर्व प्रत्यक्ष होता है, ऐसा कहते हुए 'परिणमदो खलु इत्यादि गाथाएँ दो हैं फिर आत्मा और ज्ञान के निश्चय से असंख्यात प्रदेश होने पर भी व्यवहार से सर्वव्यापी बना है इत्यादि कथन की मुख्यता से "आदा णाणपमाणं" इत्यादि गाथाएं पांच हैं। उसके पीछे ज्ञान और ज्ञेय पदार्थों का एक-दूसरे में गमन के निषेध की मुख्यता से "णाणी णाणसहावो" इत्यादि गाथाएँ पाँच हैं। आगे निश्चय और व्यवहार से केवलो के प्रतिपादन आदि मुख्यता करके "जोहि सुदेण" इत्यादि चार सूत्र हैं । आगे वर्तमान काल के ज्ञान में तीन काल को पर्यायों के जानपने को कहने आदि की मुख्यता से "तक्कालिगेव सवे" इत्यादि पाँच सूत्र हैं । आगे केवलज्ञान बन्ध का कारण नहीं है, न रागादि विकल्परहित छिद्मस्थ का ज्ञान बन्ध का कारण है किन्तु रागादिक वन्ध के कारण हैं इत्यादि निरूपण की मुख्यता से "परिणमदि य" इत्यदि पाँच सूत्र हैं। आगे केवलज्ञान सर्वज्ञान है इसी को सर्वज्ञपना करके कहते हैं इत्यदि व्याख्यान की मुख्यता से “जं तत्कालियमिदरं" इत्यादि पाँच गाथाएँ हैं । आगे ज्ञान प्रपंच को संकोच करने की मुख्यता से पहली गाथा है तथा नमस्कार को कहते हुए दूसरी तरह "णवि परिणमदि" इत्यादि दो गाथाएँ हैं। इस तरह ज्ञान प्रपंच नाम के तीसरे अन्तर अधिकार में तेतीस गाथाओं में आठ स्थलों से समुदाय पातनिका पूर्ण हुई । आगे कहते हैं कि केवलज्ञानी अतीन्द्रिय ज्ञान में परिणमन करते हैं इस कारण से उनको सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष होते हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(स्खलु) वास्तव में (णाणं) अनन्त पदार्थों को जानने में समर्थ केवलज्ञान को (परिणमदो) परिणमन करते हुए केवलो अरहंत भगवान के Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] (सववव्वपज्जाया) सर्व द्रव्य और उनकी तीन कालवर्ती सर्व पर्याय (पच्चक्खा) प्रत्यक्ष हो जाती हैं। (सः) वह केवली भगवान् (ते) उन सर्व द्रव्य पर्यायों को (ओग्गहपुब्वाहि किरियाहि) अवग्रहपूर्वक क्रियाओं के द्वारा (व विजाणदि) नहीं जानते हैं किन्तु युगपत् जानते हैं, ऐसा अर्थ है। __ इसका विस्तार यह है कि आदि और अन्त रहित, बिना किसी उपादानकारण के सत्ता रखने वाले तथा चैतन्य और आनन्दमयी स्वभाव के धारी अपने शुद्ध आत्मा को उपादेय, अर्थात् ग्रहण योग्य समझकर केवलज्ञान की उत्पत्ति का बीज मूत जिसको आगम की भाषा से शुक्लध्यान कहते हैं, होने से रागादि विकल्पों के जाल से रहित स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जब यह आत्मा परिणमन करता है तब स्वसंवेदन ज्ञान के फलस्वरूप केवलज्ञानमयी ज्ञानाकार में परिणमन करने वाले केवली भगवान् के उसी ही क्षण में, जब केवलज्ञान पैदा होता है, तब क्रम-क्रम से जानने वाले मतिज्ञानादि ज्ञान के अभाव से, बिना क्रम के एक साथ सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल सहित सर्व द्रव्य, गुण और पर्याय प्रत्यक्ष प्रतिभासमान हो जाते हैं, ऐसा अभिप्राय है। अथास्य भगवतोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वादेव न किंचित्परोक्षं भक्तीत्यभिप्रति णस्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स । अक्खातीवस्स सदा' सयमेव हि जाणजावस्स ॥२२॥ नास्ति परोक्षं किंचिदपि समन्ततः सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य । अक्षातीतस्य सर्वदा स्वयमेव हि ज्ञानजातस्य ॥२२॥ अस्य खलु भगवतः समस्तावरणक्षयक्षणे एव सांसारिकपरिच्छित्तिनिष्पत्तिवलाधानहेतुभूतानि प्रतिनियतविषयग्राहीण्यमाणि तैरतीतस्य, स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छेदरूपः समरसतया समन्ततः सर्वैरेवेन्द्रिगुणैः समद्धस्य, स्वयमेव सामस्त्येन स्वपरप्रकाशनक्षममनश्वरं लोकोत्तरज्ञानजातस्य, अक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभायतया न किंचनापि परोक्षमेव स्यात् ॥२२॥ भूमिका—अब, इस भगवान के अतीन्द्रियज्ञान (रूप) परिणत होने से ही कुछ भो परोक्ष नहीं है, इस अभिप्राय को प्रगट करते हैं । ('सब प्रत्यक्ष है ऐसा अन्वय रूप से पूर्व सूत्र में कहा था। अब कुछ भी परोक्ष नहीं है, इस प्रकार उस ही अर्थ को व्यतिरेक से दृढ़ करते हैं)-- १. सबा (जर वृत) २. स्वपरप्रकाशनस्य, स्वर लोको, इति पाठान्तरम् । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] [ पवयणसारो अन्वयार्थ - ( १ ) [ सर्वदा अक्षातीतस्य ] सदा ( सर्वकाल ) इन्द्रिय व्यापार से रहित ( २ ) [ समन्ततः सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य ] सर्व आत्म- प्रदेशों से या समस्तपने से स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द की जानकारी रूप सर्व इन्द्रिय गुणों से समृद्ध, (३) [ स्वयमेव ज्ञानजातस्य ] स्वयमेव ज्ञान रूप परिणत ( तस्य भगवतः ) उस केवली भगवान् के [हि] वास्तव में [ किचित् अपि कुछ भी हो [ परीक्षं नास्ति ] परोक्ष नहीं है । -- टीका - - ( १ ) [ सांसारिक परिच्छित्ति-निष्पत्ति- बलाधान हेतुभूतानि ] जो सांसारिक ज्ञान की उत्पत्ति में बल देने रूप हेतुभूत ( निमित्तकारण ) है और [ प्रतिनियत-विषयग्राहीणि] अपने-अपने निश्चित विषय को ग्रहण करने वाली [अक्षाणि ] इन्द्रियाँ हैं [तः अतीतस्य ] उनसे अतीत, (२) [ स्पर्श-रस-गंध-वर्ण-शब्द- परिच्छेद-रूपैः सर्वेः इन्द्रियगुणैः ] स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द के ज्ञान रूप सर्व इन्द्रिय-गुणों के द्वारा [ समन्ततः ] सब आत्म प्रदेशों से [समरसतया समृद्धस्य ] सम-रस-रूप से समृद्ध (अर्थात् स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा शब्द को सर्व आत्म- प्रदेशों से समान रूप से जानने वाले ), ( ३ ) [ स्वयमेव सामस्त्येन स्वपरप्रकाशन-क्षमं ] स्वयमेव सम्पूर्ण रूप से स्व-पर- प्रकाशन करने में समर्थ और ( अविनश्वरं ) अविनाशी (ऐसे ) [लोकोत्तरज्ञानजातस्य ] लोकोत्तर ज्ञान रूप उत्पन्न हुए, (ऐसे तीन विशेषण युक्त ) [ अस्य भगवतः ] इस केवली भगवान् के [खलु] वास्तव में ( समस्तावरणक्षक्षणे एव) समस्त आवरण के क्षय के समय में ही [ अक्रम- समाक्रान्त- समस्त द्रव्य-क्षेत्र काल- भावतया ] समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, मात्र का अक्रमिक ( युगपत् ) ग्रहण होने से ( सब को युगपत् जानने से ) [ किचित् अपि ] कुछ भी [ परोक्षं एव न स्यात् ] परोक्ष नहीं है (साक्षात् जानने से बचा हुआ नहीं है ||२२|| तात्पर्यवृत्ति अथ सर्व प्रत्यक्ष भवतीत्यन्वयरूपेण पूर्वसूत्रं भणितमिदानीं तु परोक्षं किमपि नास्तीति तमेवार्थं व्यतिरेकेण दृढयति गत्थि पशेष किचिथि अस्य भगवतः परोक्षं किमपि नास्ति । किविशिष्टस्य ? समेत सव्ववखगुणसमिद्धस्स समन्ततः सर्वात्मप्रदेर्शः सामस्त्येन वा स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छित्तिरूपस मेंद्रिय गुणसमृद्धस्य । तहि किमक्षसहितस्य ? नैवम् । अववासोवस्त अक्षातीतस्येन्द्रिय व्यापाररहितस्य अथवा द्वितीयव्याख्यानम् अक्ष्णोति ज्ञानेन व्याप्नोतीत्यक्ष आत्मा तद्गुणसमृद्धस्य । सया सर्वदा सर्वकालम् । पुनरपि किरूपस्य ? रायमेव हि जाणजावस्ल स्वयमेव हि स्फुटं केवलज्ञानरूपेण जातस्य परिणतस्येति । तद्यथा - अतीन्द्रियस्वभावपरमात्मनो विपरीतानि क्रमप्रवृत्तिहेतुभूतानीन्द्रियाण्यतिक्रान्तस्य जगत्त्रयकालत्रयवति समस्त पदार्थ युगपत्प्रत्यक्ष प्रतीतिसमर्थमविनश्वरमखण्डैकभासमयं केवलज्ञानं परिणतस्यास्य भगवतः परोक्षं किमपि नास्तीति भावार्थः ॥ २२ ॥ एवं केवलिनां समस्तं प्रत्यक्षं भवतीति कथनरूपेण प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् । - Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पबयणसारो ] [ ५७ उत्थानिका-आगे कहते हैं-केवलज्ञानी को सर्व प्रत्यक्ष होता है, यह बात अन्वय रूप से पूर्व सूत्र में कही गई । अब केवलज्ञानी को कोई बात भी परोक्ष नहीं है, इसी बात को व्यतिरेक से दृढ़ करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ---(समत) समस्तपने अर्थात सर्व आत्मा के प्रदेशों के द्वारा (सम्वरखगुणसमिद्धस्स) सर्व इद्रियों के गुणों से परिपूर्ण अर्थात् स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण शब्द के जानने रूप जो इन्द्रियों के विषय उन सर्व के जानने की शक्ति सर्व आत्मा के प्रदेशों में जिसके प्राप्त हो गई है ऐसे तथा (अक्खातीदस्स) इन्द्रियों के ध्यापार से रहित अथवा ज्ञान करके व्याप्त है आत्मा जिसका ऐसे निर्मल ज्ञान से परिपूर्ण और (सयमेव हि) स्वयमेव हो (णाणजावस्स) केवलज्ञान में परिणमन करने वाले अरहंत भगवान् के (किंविधि) कुछ भी (परोक्खं) परोक्ष (णस्थि) नहीं है । भाव यह है कि परमात्मा अतीन्द्रिय स्वभाव है। परमात्मा के स्वभाव से विपरीत क्रम-कम से ज्ञान में प्रवृत्ति करने वाली इन्द्रियां हैं। उनके द्वारा आनने से जो उल्लंघन कर गये हैं अर्थात् जिस परमात्मा के पराधीन ज्ञान नहीं है ऐसे परमात्मा तीन कालवर्ती समस्त पदार्थों को एक साथ प्रत्यक्ष जानने को समर्थ अविनाशी तथा अखंडपने से प्रकाश करने वाले केवलज्ञान में परिणमन करते हैं, अतएव उनके लिए कोई भी पदार्थ परोक्ष नहीं। इस तरह केवलज्ञानियों को सर्व प्रत्यक्ष होता है ऐसा कहते हुए प्रथम स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ॥२२॥ अथात्मनो ज्ञानप्रमाणत्वं ज्ञानस्य सर्वगतत्वं चोयोसयति-- आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्पमाणमुद्दिळं। णेयं लोयालोयं तम्हा जाणं तु 'सव्वगदं ॥२३॥ आत्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम् । ज्ञेयं लोकालोकं तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम् ॥२३॥ (यतः) आत्मा हि 'समगुणपर्यायं द्रव्यम्' इति वचनात् ज्ञानेन सह होनाधिकत्वरहितत्त्वेन परिणतत्वात्तत्परिमाणः, ज्ञानं तु ज्ञेयनिष्ठत्वाबाह्यनिष्ठवहनवत्तत्परिमाणं, ज्ञेयं तु लोकालोकविभागविभक्तानन्तपर्यायमालिकालीढस्यरूपमूचिता विच्छेदोत्पादनाच्या षड्नथ्यो सर्वमिति यावत् । ततो निःशेषावरक्षयक्षण एव, लोकालोकविभागविभक्तसमस्तवस्त्वाकारपारमुपगम्य तथंवाप्रव्युतत्वेन व्यवस्थितत्वात्, ज्ञानं सर्वगतम् ॥२३॥ १. सम्वगयं (ज० व०)। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] [ पवयणसारो भूमिका-अब, आत्मा के ज्ञान प्रमाणपने को (आत्मा ज्ञान के बराबर है, होन या अधिक नहीं है, इस बात को) और ज्ञान के सर्वगतपने को (ज्ञान सब पदार्थों में रहता है। इस बात को उद्योत करते हैं (प्रगट करते हैं) ____ अन्वयार्थ-[आत्मा ज्ञानप्रमाणं] आत्मा ज्ञान के बराबर (और) [ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणं] ज्ञान ज्ञेय के बराबर [उद्दिष्टं] कहा गया है। [ज्ञेयं] जेय [लोकालोकं] लोक आलोक है । [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं] ज्ञान [तु] ती [सर्वगतं] (सर्वव्यापक) है । टीका---'समगुणपर्यायव्यं' गुण पर्यायों जितना द्रव्य है इस वचन से (इस आगम वचन के अनुसार) आत्मा वास्तव में ज्ञान के साथ हीनाधिकता-रहितपने से परिणत होने से उसके (ज्ञान के) बराबर है, और ज्ञान तो ज्ञेयों में स्थित होने से, दाह्य में (जलाने योग्य पदार्थों में) स्थित अग्नि की भांति, ज्ञेयों के बराबर है। ज्ञेय तो लोक और अलोक के विभाग में विभक्त, अनन्त पर्यायमाला से आलिगित स्वरूप से सूचित (प्रगट-ज्ञात) व्यय उत्पाद-ध्रौव्य स्वरूप ऐसा षट् द्रव्यसमूह रूप सब कुछ है। चूंकि ऐसा है इसलिये सम्पूर्ण आवरण के नाश के समय में ही लोक और अलोक के विभाग में विभक्त समस्त वस्तुओं के आकारों के पार को प्राप्त करके और फिर उसी प्रकार अच्युतरूप (अविनाशी) रहने से ज्ञान सर्वगत है ॥२३॥ __ तात्पर्यवृत्ति अथात्मा ज्ञानप्रमाणो भवतीति ज्ञानं च व्यवहारेण सर्वगतमित्युपदिशति-आदा णाणपमाणं ज्ञानेन सह हीनाधिकत्वाभावादात्मा ज्ञानप्रमाणो भवति । तथाहि-"समगुणपर्यायं द्रव्यं भवतीति" वचनाद्वर्तमानमनुष्यभवे वर्तमानमनुष्यपर्यायप्रमाणः, तदेव मनुष्यपर्यायप्रदेशबतिज्ञानगुणप्रमाणश्व प्रत्यक्षेण दृश्यते यथायमात्मा, तथा निश्चयतः सर्वदेवाव्याबाधाक्षयसुखाद्यनन्तगुणाधारभुतो योमी केवलज्ञानगुणस्तत्प्रमाणोऽयमात्मा। गाणं यापमाणमुट्ठि दाह्यनिष्ठवहनवत् ज्ञान ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टं कथितम् । णेयं लोयालोयं ज्ञेयं लोकालोकं भवति । शुद्धबुद्धकस्वभाव सर्वप्रकारोपादेयभुतपरमात्मद्रव्यादिषद्रव्यात्मको लोकः, लोकाहि गे शुद्धाकाशमलोकः, तच्च लोकालोकद्वयं स्वकीयस्वकोयानन्तपर्यायपरिणतिरूपेणानित्यमपि द्रव्याथिकनयेन नित्यम् । तम्हा णाणं तु सध्वगयं यस्मान्तिपचयरत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगभावनाबलेनोत्पन्न यत्केवलज्ञानं तट्टवोत्कीर्णाकारन्यायेन निरन्तर पूर्वोक्तज्ञेयं जानाति, तस्माद्यवहारेण तु ज्ञानं सर्वगतं भण्यते । ततः स्थितमेतदात्मा ज्ञानप्रमाण ज्ञानं सर्वगतमिति ।।२३॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा ज्ञान प्रमाण है तथा ज्ञान व्यवहार से सर्वगत है ___ अन्वय सहित बिशेषार्थ-(आदा णाणपमाणं) आत्मा ज्ञान प्रमाण है अर्थात् ज्ञान के साथ आत्मा हीन या अधिक नहीं है इसलिये ज्ञान जितना है उतनी आत्मा है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो {५६ कहा है “समगुणपर्यायं द्रव्यं भवति" अर्थात् द्रव्य अपने गुण और पर्यायों के समान होता है । इस वचन से वर्तमान मनुष्य भव में यह आत्मा वर्तमान मनुष्य पर्याय के समान प्रमाण वाला है तैसे ही मनुष्य पर्याय के प्रदेशों में रहने वाला ज्ञान गुण है। जैसे यह आत्मा इस मनुष्य पर्याय में ज्ञान के गुण के बराबर प्रत्यक्ष में दिखलाई पड़ता है तैसे निश्चय से सदा ही अव्याबाध और अविनाशी सुख आदि अनन्त गुणों का आधारभूत जो यह केवलज्ञान गुण तिस प्रमाण यह आत्मा है । ( णाणं णेयप्यमाणं ) ज्ञान ज्ञेय प्रमाण ( उद्दिट्ठ ) कहा गया है । जैसे ईंधन में स्थित आग ईंधन के बराबर है वैसे हो ज्ञान ज्ञेय के बराबर है । (यं लोपालोयं ) ज्ञेय लोक और अलोक हैं । शुद्ध बुद्ध एक स्वभावमयी सर्व तरह से उपादेयभूत ग्रहण करने योग्य परमात्म-द्रव्य को आदि लेकर छः द्रव्यमयी यह लोक है । लोक के बाहरी भाग में जो शुद्ध आकाश है सो अलोक है। ये दोनों लोकालोक अपने-अपने अनन्त पर्यायों में परिणमन करते हुए अनित्य हैं तो भी द्रव्याथिक नय से नित्य हैं । ज्ञानलोक अलोक को जानता है । ( तम्हा ) इस कारण से ( गाणं तु सव्वगयं ) ज्ञान सर्वगत है । अर्थात् क्योंकि निश्चय रत्नत्रयमय शुद्धोपयोग की भावना के बल से पैदा होने वाला केवलज्ञान है वह पत्थर में टांकी से उकेरे हुए न्याय से पूर्व में कहे गये सर्व ज्ञेय को जानता है इसलिए व्यवहार नय से ज्ञान सर्वगत कहा गया है । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान सर्वगत है ॥२३॥ अथात्मनो ज्ञानप्रमाणत्वानभ्युपगमे द्वौ पक्षावुपन्यस्य दूषयति--- गाणपमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा । हीणो वा अहिओ' वा णाणादो हवदि धुवमेव ॥ २४ ॥ होणो जदि सो आदा 'तण्णाणमचेवणं ण जाणादि । अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि ॥ २५ ॥ जुगलं ज्ञानप्रमाणमात्मा न भवति यस्येह तस्य स आत्मा । होनो वा अधिको वा ज्ञानाद्भवति ध्रुवमेव ॥ २४ ॥ हीनो यदि स आत्मा तत् ज्ञानमचेतनं न जानाति । अधिको वा ज्ञानात् ज्ञानेन विना कथं जानाति ||२५|| युगलम् यदि खल्वयमात्मा होनो ज्ञानादित्यभ्युपगम्यते, तदात्मनोऽतिरिच्यमानंज्ञानं स्वाश्रयभूतचेतनद्रध्यसमवायाभावावचेतनं भवद्रूपादिगुणकल्पतामापन्नं न जानाति । यदि पुनर्शा १. अहियो (ज० वृ० ) " २. तं णाणम चेद्रणं ( ज० वृ० ) । ३. अहियों ( वृ०) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] [ पक्ष्यणसारो नादधिक इति पक्षः कक्षीक्रियते तदावश्यं ज्ञानादतिरिक्तत्वात् पृथग्भूतो भवन् घटपटादिस्थानीयतामापनो ज्ञानमन्तरेण न जानाति । ततो ज्ञानप्रमाण एवायमात्माभ्युपगन्तव्यः । भूमिका-अब, आत्मा के ज्ञान-प्रमाण-पना (आत्मा ज्ञान के बराबर है, यह बात) न मानने में दो पक्षों को उपस्थित करके, (उन दोनों को) दूषित ठहराते हैं । (आत्मा को ज्ञान-प्रमाण जो नहीं मानते हैं वहाँ होनाधिकपने में दोष देते हैं) ___ अन्वयार्थ-[इह्] इस जगत् में [यस्य ] जिस वादी के मत में [आत्मा] आत्मा [ज्ञानप्रमाणं] ज्ञान के बराबर [न भवति ] नही है [तस्य] उसके मन में [सः आत्मा] वह आत्मा [ज्ञानात् हीनः ] ज्ञान से हीन [वा] अथवा [ज्ञानात् अधिकः] ज्ञान से अधिक [ध्र बं एव] अवश्य ही [भवति ] है। [यदि] जो [सः आत्मा] वह आत्मा [ज्ञानावहीनः] ज्ञान से हीन है तो तित् ज्ञानं] वह ज्ञान [अचेतन] अचेतन (अपने आश्रयभूत चेतनमयी आत्म-द्रव्य के आधार बिना अचेतन होने से) [न जानाति] नहीं जानता है अथवा जो वह आत्मा [ज्ञानात् अधिक:] ज्ञान से अधिक है तो [ज्ञानेन बिना] ज्ञान के बिना [कथं जानाति] (वह आत्मा अचेतन होने से) कैसे जानता है ? (अर्थात् नहीं जान सकता)। टीका-जो वास्तव में 'आत्मा ज्ञान से हीन हैं यह स्वीकार किया जाए तो आत्मा से आगे बढ़ा हुआ ज्ञान अपने आश्रयमूत चेतन द्रव्य का समवाय (सम्बन्ध) न रहने से अचेतन होता हुआ, रूपावि जैसा होता हुआ, नहीं जानता है और जो (यह आत्मा) ज्ञान से अधिक है, ऐसा पक्ष स्वीकार किया जाय तो अवश्य हो (आत्मा) ज्ञान से आगे बढ़ जाने से (ज्ञान से) पृथक्भूत (भिन्न) होता हुआ, घट पट आदि जैसा प्राप्त हआ, ज्ञान के बिना नहीं जानता है । इस कारण से ज्ञान के बराबर हो यह आत्मा मानने योग्य है ॥२४-२५॥ तात्पर्यवृत्ति अथात्मानं ज्ञानप्रमाणं ये न मन्यन्ते तत्र हीनाधिकत्वे दूषणं ददाति, णाणापमाणमादा ण हववि जस्सेह ज्ञानप्रमाणमारमा न भवति यस्य वादिनो मतेऽत्र जगति तस्स सो आदा तस्य मते स वात्मा हीणो वा अहियो वाणाणादो हदि धुवमेव हीनो वा अधिको वा ज्ञानात्सकाशाद् भवति निश्चितमेवेति ॥२४|| होणो जदि सो आवा तं जाणमचेवणं ण आणादि होनो यदि स आत्मा तदाग्नेरभावे सति उष्णगुणो यथा शीतलो भवति तथा स्वाश्रयभूतचेतनात्मकद्रव्य. समवायाभावात्तस्यात्मनो ज्ञानमचेतनं भवत्सद किमपि म जानानि । अहियो वा णाणाधो णाण विणा कह णावि अधिको वा ज्ञानात्सकाशात्तहि यथोष्णगुणाभावेऽग्निः शीतलो भवन्सन् दहन क्रियां प्रत्यसमर्थो भवति तथा ज्ञानगुणाभावे सत्यात्माप्यचेतनो भवन्सन् कथं जानाति? न कथमपि । अयमत्र Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ ६१ भावार्थ:- ये केचनात्मानमंगुष्ठपर्व मात्र, श्यामाकतण्डुलमात्रं वटककणिकादिमात्रं वा मन्यन्ते ते निषिद्धाः । येपि समुद्घातसप्तकं विहाय देहादधिक मन्यन्ते तेपि निराकृता इति ॥२४-२५।। उत्थानिका— अब जो आत्मा को ज्ञान के बराबर नहीं मानते हैं, ज्ञान से कमतीबढ़ती मानते हैं उनको दूषण देते हुए कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( इह ) इस जगत में ( जस्स) जिस वादी के मत में (आवा) आत्मा ( णाणपमानं ) ज्ञान प्रमाण (ण हवदि) नहीं होता है ( तस्स ) उसके मत में ( सो आवा) वह आत्मा ( णाणदो ) ज्ञान गुण से ( होणो वा ) या तो होन अर्थात् छोटा ( अहियो वा ) या अधिक अर्थात् बड़ा (हववि) होता है ( धुवम् एध ) यह निश्चय ही है । (जदि) यदि ( सो आबा) वह आत्मा (हीणो ) हीन या छोटा होता है तब ( तं ण) सो ज्ञान (अचेदणं ) चेतन रहित होता हुआ ( ण जाणादि ) नहीं जानता है अर्थात् यदि यह आत्मा ज्ञान से कम या छोटा माना जाय तब जैसे अग्नि के बिना उष्ण गुण ठंडा हो जायेगा और अपने जलाने के काम को न कर सकेगा तैसे आत्मा के बिना जितना ज्ञान गुण बचेगा यह ज्ञान गुण अपने आश्रयभूत चैतन्यमयी द्रव्य के बिना जिस आत्मद्रव्य के साथ ज्ञान गुण का समवाय सम्बन्ध है, अचेतन या जड़रूप होकर कुछ भी नहीं जान सकेगा । ( वा णाणदो) अथवा ज्ञान से ( अहियो ) अधिक या बड़ा आत्मा को माने तब ( जाणेण विणा ) ज्ञान के बिना ( कहं) कैसे ( णादि) जान सकता है । अर्थात् यदि यह माने कि ज्ञान गुण से आत्मा बड़ा है तब जितना आत्मा ज्ञान से बड़ा है, उतना आत्मा जैसे उष्ण गुण के बिना अग्नि ठंडी होकर अपने जलाने के काम को नहीं कर सकती है तैसे ज्ञान गुण के अभाव में अचेतन होता हुआ किस तरह कुछ जान सकेगा अर्थात् कुछ भी न जान सकेगा । यहाँ यह भाव है कि जो कोई आत्मा को अंगूठे को गांठ के बराबर या श्यामाक तंदुल के बराबर या बड़ के बीज के बराबर आदि रूप से मानते हैं उनका निषेध किया गया तथा जो कोई सात समुद्घात के बिना आत्मा को शरीर प्रमाण से अधिक मानते हैं। उनका भी निराकरण किया गया है ।। २४-२५ ॥ अथात्मनोऽपि ज्ञानवत् सर्वगतत्वं न्यायायातमभिनन्दति — सव्वगदो जिणवसही सव्वे वि य तगया जगदि अट्ठा । पाणमयादो य जिणो विसयादी तस्स ते भणिदा ॥२६॥ (१) भणिया (ज० वृ० ) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] [ पवयणसारो सर्वगतो जिनवृषभः सर्वेऽपि च तद्गता जगत्यर्थाः । ज्ञानमयत्वाच्च जिने विषयत्वात् तस्य ते मणिताः ।।२६।। ज्ञानं हि त्रिसमयावच्छिन्नसर्वद्रव्यपर्यायरूपव्यवस्थितविश्व ज्ञेयाकारानाक्रामत् सर्वगतमुक्तं तथाभूतज्ञानमयोभूय व्यवस्थितत्वाद्धगवानपि सर्वगत एव । एवं सर्वगतज्ञानविषयत्वात्सर्वेऽर्था अपि सर्वगतज्ञानाध्यतिरिक्तस्य भगवतस्तस्य ते विषया इति भणितत्वात्तद्गता एव भवति। तत्र लिश्चयनयेमानाकुलत्वलक्षणसौख्यसंवेदनत्वाधिष्ठानत्यावच्छिन्नात्मप्रमाणज्ञानस्वतत्त्वापरित्यागेन विश्वज्ञेयाकाराननुपगम्यावबुध्यमानोऽपि व्यवहारनयेन भगवान् सर्वगत इति ध्यपदिश्यते । तथा नैमित्तिकभूतज्ञेयाकारानात्मस्थानवलोक्य सर्वेऽस्तिद्गता इत्युपर्यन्ते, न च तेषां परमार्थतोऽन्योन्यगमनमस्ति, सर्वव्याणां स्वरूपनिष्ठत्वात् । अयं क्रमो ज्ञानेऽपि निश्चेयः ॥२६॥ भूमिका-अब आत्मा के भी, ज्ञान की तरह, सर्वगतपना न्याय से प्राप्त हुआ, इस बात को दिखलाते हैं--- अन्वयार्थ---[जिनवृषभः] जिनेश्वर (सर्वज्ञ) [सर्वगतः] सर्वगत है (ज्ञान की अपेक्षा सब पदार्थों में व्यापक है)। [जिनः ज्ञानमयत्वात्] क्योंकि जिन ज्ञानमय है [च] और _ [जगति] जगत में [सवें अपि अर्था] सब ही पदार्थ [तद्गताः] (दर्पण में बिम्ब की तरह) उस जिनवर-गत हैं (जिनमें प्राप्त हैं) (क्योंकि) [ते] वे पदार्थ [विषयत्वात्] ज्ञान के विषय (ज्ञेय) होने से [तस्य] जिनराज में उनके विषय (ज्ञेय) [भणिताः] कहे गये हैं। टीका-ज्ञान वास्तव में, तीन काल में व्याप्त सब द्रव्य पर्याय रूप से व्यवस्थित विश्व के जेयाकारों को ग्रहण करता हुआ (जानता हुआ) सर्वगत कहा गया है और ऐसे (सर्वगत ज्ञान से) ज्ञानमय होकर रहने से भगवान् भी सर्वगत ही हैं। इस प्रकार सवंगत ज्ञान के विषय (ज्ञेय) होने से सब पदार्थ भी सर्वगत ज्ञान से अभिन्न भगवान् के वे विषय हैं, ऐसा (शास्त्र में) कथन होने से वे सब पदार्थ भगवान्-गत हो हैं (अर्थात् भगवान् में प्राप्त ही हैं)। (अब टीकाकर इसके अर्थ को विशेष रूप से समझाते हैं)--यहाँ (ऐसा समझना कि) निश्चयनय से अनाकुलता लक्षण सुख का जो संवेदन उस सुख-संघेदन की अधिष्ठानता जितनी हो, आत्मा है, और उस आत्मा के बराबर ही ज्ञान स्वतत्त्व है। उस निजस्वरूप आत्म-प्रमाण ज्ञान को छोड़े बिना, विश्व के ज्ञेयाकारों के निकट गये बिना, भगवान् (सर्व पदार्थों को) जानते हुए भी, व्यवहारमय से "भगवान् सर्वगत" है ऐसा तथा नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारों को आत्मा में स्थित (आत्मा में रहते हुए) देखकर सर्व पदार्थ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६३ उस-गत (आत्मगत) हैं, ऐसा उपचार किया जाता है किन्तु उनका (आत्मा और शेय पदार्थों का ) परमार्थ से एक-दूसरे में गमन नहीं है, क्योंकि सर्व द्रव्यों के स्वरूप निष्ठपना है ( क्योंकि सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में निश्चल अवस्थित हैं) । यही क्रम ज्ञान में भी निश्चित करने योग्य है ( अर्थात् जिस प्रकार आत्मा और ज्ञेयों के सम्बन्ध में निश्चय व्यवहार से कहा गया है, उसी प्रकार ज्ञान और ज्ञेयों के सम्बन्ध में भी निश्चय व्यवहार से सा ही निश्चय करना चाहिये ) । तात्पवृत्ति अथ यथा ज्ञानं पूर्व सर्वं गतमुक्तं तथैव सर्वगतज्ञानापेक्षया भगवानपि सर्वगतो भवतीत्यावेदपति; - सन्गडो सर्वगतो भवति । स कः कर्ता ? जिणवसहो जिनवृषभः सर्वज्ञः । कस्मात् ? सर्वगतो भवति । जिणो जिनः णाणमयादो य ज्ञानमयत्वाद्धेतोः सच्चेवि य सगया जगदि अट्ठा सर्वेपि च ये जगत्यर्थास्ते दर्पणे बिम्बवद् व्यवहारेण तत्र भगवति गता भवन्ति । कस्मात् : ते भणिया तेऽस्तत्र गता भणिताः विसयादो विषयत्वात्परिच्छेद्यत्वाद् ज्ञेयत्वात् । कस्य ? तस्स तस्य भगवतः इति । तथाहि यदनन्तज्ञानमनाकुलत्वलक्षणानन्तसुखं च तदाधारभूतस्तावदात्मा इत्थंभूतात्मप्रमाणं ज्ञानमात्मनः स्वस्वरूपं भवति । इत्यंभूतं स्वस्वरूपं देहगतमपरित्यजन्नेव लोकालोकं परिच्छिनत्ति । ततः कारणाद्वयवहारेण सर्वगतो भण्यते भगवान् 1 येन च कारणेन नीलपीतादिवहिः पदार्था आदर्श बिम्बवत् परिचियाकारेण ज्ञाने प्रतिफलन्ति ततः कारणादुपचारेणार्थकार्यभूता अर्थाकारा अप्यर्था भष्यन्ते । ते च ज्ञाने तिष्ठन्तीत्युच्यमाने दोषो नास्तीत्यभिप्रायः ।। २६ । उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जैसे ज्ञान को पहले सर्वव्यापक कहा गया है से ही सर्वव्यापक ज्ञान की अपेक्षा भगवान् अरहंत आत्मा भी सर्वगत हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( णाणमयादो य ) तथा ज्ञानमयी होने के कारण से ( जिनवसहो) जिन जो गणधरादिक उनमें वृषभ अर्थात् प्रधान ( जिणो ) जिन अर्थात् कर्मों को जीतने वाला अरहंत या सिद्ध भगवान् (सन्यगदो ) सर्वगत या सर्वव्यापक हैं, ( तस्स ) उस भगवान् के ज्ञान के ( विसयादो) विषयपने को प्राप्त होने के कारण से अर्थात् ज्ञेयपने को प्राप्त होने के कारण से अर्थात् ज्ञेयपने को रखने के कारण से ( सच्चेवि जगति ते अट्ठा) सर्व ही जगत में जो पदार्थ हैं सो (गया) उस भगवान् में प्राप्त या व्याप्त (अनिया ) कहे गए हैं । जैसे दर्पण में पदार्थ का बिम्ब पड़ता है तैसे व्यवहारनय से पदार्थ भगवान् के ज्ञान में प्राप्त हैं । भाव यह है कि जो अनन्तज्ञान है तथा अनाकुलपने के लक्षण को रखने वाला अनन्त सुख है उनका आधारभूत जो है सो ही आत्मा है, इस प्रकार के आत्मा का Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] { पवयणसारो जो प्रमाण है वही आत्मा ज्ञान का प्रमाण है और वह ज्ञान आत्मा का अपना स्वरूप है । ऐसा अपना निज स्वभाव देह के भीतर प्राप्त आत्मा को नहीं जोड़ता हुआ भी लोक अलोक को जानता है । इस कारण से व्यवहारनय से भगवान् को सर्वगत कहा जाता है । और क्योंकि जैसे नीले, पीले आदि बाहरी पदार्थ दर्पण में झलकते हैं ऐसे ही बाह्य पदार्थ ज्ञानाकार से ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं इसलिये व्यवहार से ज्ञान आकार भी पदार्थ कहे जाते हैं । इसलिये वे पदार्थ ज्ञान में तिष्ठते हैं ऐसा कहने में दोष नहीं है, यह अभिप्राय है ॥२६॥ अथात्मज्ञानयोरेकत्वान्यत्वं चिन्तयति 1 गाणं अप्पत्ति मदं वट्टदि जागं विणा ण अपागं । तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं वा अण्णं वा ॥ २७॥ ज्ञानमात्मेति मतं वर्तते ज्ञानं विना नात्मानम् । तस्मात् ज्ञानमात्मा आत्मा ज्ञानं वा अन्यद्वा ॥ २७ ॥ 'शेषसमस्तचेतन वस्तुसमवाय संबन्ध निरुत्सुकतयाऽनाद्यनन्तस्वभावसिद्धसम वायसंबन्ध मेकमात्मानमाभिमुख्येनावलम्ध्य प्रवृत्तत्वात् तं विना आत्मानं ज्ञानं न धारयति, ततो ज्ञानमात्मैव स्यात् । आत्मा त्वनन्तधर्माधिष्ठानत्थात् ज्ञानधर्मद्वारेण ज्ञानमन्यधर्मद्वारेणाव्यवपि स्यात् । किं चानेकान्तोऽत्र बलवान् । एकान्तेन ज्ञानमात्मेति ज्ञानस्याभावोऽचेतनत्वमात्मनो विशेषगुणाभावादभावो वा स्यात् । सर्वथात्मा ज्ञानमिति निराश्रयत्यात् ज्ञानस्याभाव, आत्मनः शेषपर्यायाभावस्तवविनाभावितस्तस्याव्यभावः स्यात् ||२७|| यतः भूमिका- - अब आत्मा और ज्ञान के एकत्व और अन्यत्व का विचार करते हैं ( अर्थात् आत्मा और ज्ञान एक पदार्थ है या दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं इसका विचार करते हैं ।) अन्वयार्थ - [ज्ञानं आत्मा ] ज्ञान आत्मा हैं [ इति मतं ] ऐसा जिनेन्द्र देव द्वारा माना गया है ( क्योंकि ) [ आत्मानं विना ] आत्मा को छोड़कर (अन्य किसी भी जड़ द्रव्य में ) [ ज्ञानं न वर्तते ] ज्ञान नहीं पाया जाता है । [तस्मात् ] उस कारण से [ ज्ञानं आत्मा ] ज्ञान आत्मा है । [आत्मा ] आत्मा [ ज्ञानं ] ( ज्ञान गुण की अपेक्षा से ) ज्ञान है [ वा ] अथवा (सुख, वीर्य, आदि अन्य गुणों की अपेक्षा से ) [ अन्यत् ] अन्य अन्य ( भी ) है । टीका - शेष समस्त अचेतन वस्तुओं के साथ समवाय सम्बन्ध न होने से तथा जिसके साथ अनादि अनन्त स्वभाव-सिद्ध समवाय सम्मन्ध है, ऐसे एक आत्मा को सर्वथा १. च (ज० बु० ) । २. शेषसमस्तचेतनाचेतन इति पाठान्तरम् । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । अवलम्बन करके प्रवर्तमान होने से चंकि उस आत्मा के बिना ज्ञान अपना अस्तित्व नहीं रख सकता है, इसलिये ज्ञान आत्मा हो है और आत्मा तो अनन्त धर्मों का अधिष्ठान (आधार-स्थान) होने से ज्ञान धर्म के द्वार (अपेक्षा) से ज्ञान है और अन्य धर्म के द्वार (अपेक्षा) से अन्य भी है। और फिर (उसके अतिरिक्त यह विशेष समझना कि) यहाँ अनेकान्त बलवान है। एकान्त से ज्ञान आत्मा है यदि यह माना जाय तो, (१) (ज्ञान गुण आस्म-द्रव्य हो जाने से) ज्ञान का अभाव हो जायेगा, और (२) (ज्ञान का अभाव हो जाने से) आत्मा के अचेतनपना आ जायेगा, अथवा (३) आत्मा के विशेष गुण का अभाव हो जाने से आत्मा का (ही) अभाव हो जायेगा । सर्वथा (एकान्त से) आत्मा ज्ञान है यदि यह माना जाय तो, (आत्म-द्रव्य एक ज्ञान गुण रूप ही हो जायेगा। इसलिये, ज्ञान का कोई आधारभूत द्रव्य नहीं रहेगा। अतः (निराश्रयता के कारण से) ज्ञान का (ही) अमाव हो जायेगा, अथवा (आत्म व्रध्य के एक ज्ञान गुण रूप हो जाने से) आत्मा को शेष पर्यायों का (सुख वीर्य आदि गुणों का) अभाव हो जायेगा, और (उनके साथ ही) उन गुणों से अधिनाभावी सम्बन्ध वाले उस आत्मा का भी अभाव हो जायेगा (क्योंकि सुख, बीर्य इत्यादि गुण न हों तो आत्मा भी नहीं हो सकता।) तात्पर्गवत्ति अथ ज्ञानमात्मा भवति, आत्मा तु मानं सुखादिकं वा भवतीति प्रतिपादयति, णाणं अपत्ति ज्ञानमात्मा भवतीति मवं सम्मतं । कस्मात् ? पट्टा गाणं विणा ण अप्पाणं ज्ञान कृत विनात्मानं जीवमन्यत्र घटपटादो न वर्तते। तम्हा जाणं अप्पा तस्मात् ज्ञायते कथंचिज्ज्ञानमात्मैव स्यात् । इति गाथापादत्रयेण ज्ञानस्य कथंचिदात्मत्वं स्थापितम् । अप्पा णाण च अण्ण वा आत्मा तु शानधर्मद्वारेण ज्ञानं भवति, सुखवीर्यादिधर्मद्वारेणान्यद्वा, नियमो नास्तीति । तद्यथायदि पुनरेकान्तेन ज्ञानमात्मेति भण्यते तदा ज्ञानगुणमात्र एवात्मा प्राप्तः सुखादिधर्माणामवकाशो नास्ति । तथा सुखवीर्यादिधर्मसमूहाभावादात्माऽभावः, आत्मन आधारभूतस्याभावादाधेयभूतस्य सानगुणस्याप्यभावः, इत्येकान्ते सति द्वयोरप्यभावः । तस्मात्कथंचिज्ज्ञानमात्मा न सर्वधेति । अयमत्राभिप्रायः-आत्मा व्यापको ज्ञानं व्याप्यं सतो ज्ञानमात्मा स्यात् । आत्मा तु ज्ञानमन्यद्वा भवतीति । तथाचोक्त'-"धापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तनिष्ठमेव च" ॥२७॥ इत्यात्मज्ञानयोरेकत्वं, ज्ञानस्य व्यवहारेण सर्वगतत्वमित्यादिकथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथा. पञ्चकं गतम् । उस्थानिका—आगे कहते हैं कि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है तथापि आत्मा ज्ञान स्वभाव भी है तथा सुख आदि स्वभाव रूप भी है—केवल एक ज्ञानगुण का ही धारी नहीं है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ एखयणसारो ... अन्वय़ सहित-विशेमी--(गाणं.) ज्ञानगुण :(अम्पत्ति) आत्मा . रूप है ऐसा (मद) माना गया है, कारण कि (गाणं) जान गण (अप्पाण) आत्मद्रव्य के (विणा) विना अन्य किसी घर-पट आदि व्य में (ण वादि) नहीं रहता है (तम्हा) इसलिये यह जाना जाता है कि किसी अपेक्षा से अर्थात गुण-गुणी की अभेद दृष्टि से (णाणं) ज्ञानगुण (अप्पा) आत्मारूप ही है। किन्तु (अप्पा) आत्मा (णाणं घ) ज्ञानमुण रूप भी है, जब ज्ञान स्वभाव की अपेक्षा विचारा जाता है। (अण्णं वा) तथा अन्य गुणरूप भी है।। 7 . . अब आत्मा के अन्दर पाए जाने वाले सुख वीर्य आवि स्वभावों की अपेक्षा विचारा जाता है। यह नियस नहीं है कि, मात्र ज्ञानरूप ही मात्मा है। यदि एकान्त से ज्ञान ही आत्मा है, ऐसा कहा जाय तब ज्ञानगुण मात्र ही आत्मा प्राप्त हो गया फिर सुख आदि स्वभावों का अवकाश नहीं रहा। तथा सुख, वीर्य आदि स्वभावों के समुदाय का अभाव होने से आत्मा का अभाव हो जायगा। जब आधारभूत आत्मा का अभाव हो गया तब उसका आधेयसूत ज्ञानगुण का भी अभाव हो गया इस तरहः एकान्त मत में ज्ञान और आत्मा कोनों का ही अभाव हो जायगा। इसलिये किसी अपेक्षा से ज्ञानस्वरूप आत्मा है सर्वथा.ज्ञानस्वरूप ही नहीं है। यहाँ यह अभिप्राय है कि आत्मा व्याप्य है। इसलिये ज्ञानस्वरूप आत्मा हो सकता है। तथा आत्मा ज्ञानस्वरूप भी है-और अन्य स्वभाव रूप भी है। तसा ही कहा है 'ध्यापकं सरसन्निष्ठं व्याप्यं तनिष्ठमेव च' व्यापक में व्याप्य एक और दूसरे अनेक रह सकते हैं जबकि व्याप्य यांपक में ही रहता है ॥२७॥ . इस तरह आत्मा और ज्ञान की एकता तथा ज्ञान के व्यवहार से सर्वव्यापकपना है, इत्यादि कथन करते हुए दूसरे स्थल में पांच गाथाएं पूर्ण हुई। ... अथ ज्ञानज्ञेययोः परस्परगमन प्रतिहन्ति- ' गाणी गागसहावो अट्ठा यप्पगा हि णाणिस्स । . स्वाणि व चक्खूणं वाण्णोण्णेस वट्टति ॥२८॥ ... . ज्ञानी ज्ञानस्वभावोऽर्था ज्ञेयात्मका. हि शानिनः । . . . ... रूपाणीव चक्षुषोः नवान्योन्येषु वर्तन्ते ॥२८|| . ज्ञानी चार्थाश्च स्वलक्षणभूतपृथक्त्वतो न मियो वृत्तिमासावयन्ति किन्तु तेषां ज्ञानज्ञेयस्वभावसम्बन्धसाधितमन्योन्यवृत्तिमात्रमस्ति चक्षुरूपवत् । यथा हि घझूषि तद्विषयभूतरूपिद्रव्याणि च परस्परप्रवेशमन्तरेणापि ज्ञेयाकार ग्रहणसमर्पणप्रवणान्येवमात्माऽश्चिान्योन्यवृत्तिमन्तरेणापि विश्वज्ञयाकारग्रहणसमर्पणप्रवणाः ॥२८॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो । । ६७ ..भूमिका अंब, ज्ञान (ज्ञानी-आत्मा) और ज्ञेय के परस्पर 'गैमने का निषेध करते हैं-(अर्थात् ज्ञानी और ज्ञेय एक-दूसरे में प्रवेश नहीं करते, यह कहते हैं): अन्वयार्थ— [ज्ञानी] आत्मा (सर्वज्ञः) | ज्ञानस्वभावः] (केवल) ज्ञानस्वभाव वाला है । (अर्थाः हि) और (जगत्त्रय कालत्रय वर्ती) पदार्थ (झानिनः) केवलज्ञानी के [ज्ञेयास्मकाः] ज्ञेयस्वरूप ही हैं । [रूपाणि इबं चक्षुषोः] जैसे कि रूपी पदार्थ आंखों के ज्ञय होते हैं । (वे ज्ञानी और ज्ञेय) [अन्योन्येषु] एक-दूसरे में [न एवं वर्तन्ते ] 'नहीं रहते, (नहीं जाते)। ..... ..... . .... . . .. .. ' टीका-ज्ञानी (आत्मा) और ज्ञेय पदार्थ स्वलक्षणभूत पृथक्त्व (अपने-अपने लक्षण को अपेक्षा मिन्नत्य) के कारण से एक-दूसरे में वृत्ति (प्रवेश) को ग्रहण नहीं करते, किन्तु उसके ज्ञान-ज्ञेय-स्वभाव-सम्बन्ध से होने वाली वृत्ति मात्र एक-दूसरे में है, "आंख और रूपी पदार्थ की तरह । जैसे आंखें और उनके विषयभूत रूपी पदार्थ परस्पर प्रवेश किये बिना भी जेयाकारों को ग्रहण करने और समर्पण करने के स्वभाव वाले हैं। (आंखें ज्ञेयाकारों को ग्रहण करने के स्वभाव वाली हैं और पदार्थ अपने ज्ञेपाकारों को समर्पण करने के स्वभाव वाले हैं)। उसी प्रकार आत्मा और पदार्थ एक दूसरे में वृत्ति बिना · (गये बिना) भी समस्त जेयाकारों के ग्रहण करने और समर्पण करने के स्वभाव वाले हैं अर्थात आत्मा समस्त तैयाँकारों के ग्रहण करने के स्वभाव वाला हैं और समस्त पदार्थ अपने ज्ञेयाकारों को समर्पण करने के स्वभाव वाले हैं ॥२८. . . . . .. तात्पयवास . . . . . . . . । ... अन ज्ञानं ज्ञेयसमीपे न गच्छतीति निश्चिनोति-प्राणो णाणसहायो शानी सर्वज्ञः केवलज्ञानस्वभाव एव । अठा णयप्पगा हि गाणिस्स जगत्त्रयकालत्रयलिपदार्था ज्ञेयात्म का एक भवन्तिः न च ज्ञानात्मकाः । कस्य,? जानिनः। रुवाणि व चक्खूणं ग्रेवण्णोणेसु बदति ज्ञानी पदार्थाश्चान्योन्यं परस्परमेकत्वे न वर्तन्ते । कानीव केषा संबन्धित्वेन ? रूपाणीव चक्षुषामिति । ताहि-यथा रुपिद्रव्याणि चक्षुषा सह परस्परं संबन्धाभावपि स्वाफारसमर्पण समर्थानि । चक्षषि च सथों कारग्रहण समर्थानि भवन्ति, तथा त्रैलोक्योदरविवरवर्तिपदार्था: कालत्रयपर्यायपरिणता ज्ञानेन सह परस्परप्रदेशसंसर्गाभावेऽपि स्वकीयाकारसमर्पणे समर्था भवन्ति । . अखण्डेकप्रतिभासमयं केवलज्ञानं तुः तदाकारग्रहणे समर्थमिति भावार्थः ॥२८॥ उत्थानिका—आगे कहते हैं कि ज्ञान ज्ञेयों के समीप नहीं जाता है ऐसा निश्चय .. sit: अन्वय सहित विशेषार्थ—(हि) निश्चय से (पाणी) केवलज्ञानी भगवान् आत्मा (णाणसहावा) केवलज्ञान स्वभावरूप है तथा (गाणिस्स) उस ज्ञानी जीव के भीतर (अस्था) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] [ पत्रयणसारो तीन जगत् के तीन कालवर्ती पदार्थ ज्ञेयस्वरूप पदार्थ (चक्खूणं) आंखों के भीतर (रुवाणि थ) रूपी पदार्थों की तरह ( अण्णोष्णेषु ) परस्पर एक-दूसरे के भीतर (जेव वट्टति) नहीं रहते हैं । जैसे आंखों के साथ रूपी मूर्तिक थ्यों का परस्पर सम्बन्ध नहीं है अर्थात् आंख शरीर में अपने स्थान पर है और भी पदार्थ अपने आकार का समर्पण आंखों में कर देते हैं तथा आंखें उनके आकारों को जानने में समर्थ होती हैं तँसे ही तीन लोक के भीतर रहने वाले पदार्थ तीन काल की पर्यायों में परिणमन करते हुए ज्ञान के साथ परस्पर प्रदेशों का सम्बन्ध न रखते हुए भी ज्ञानी के ज्ञान में अपने आकार के देने में समर्थ होते हैं तथा अखंडरूप से एक स्वभाव झलकने वाला केवलज्ञान उन आकारों को ग्रहण करने में समर्थ होता है, ऐसा भाव है ॥२८॥ अयार्थेष्ववृत्तस्यापि ज्ञानिनस्तद्वृत्तिसाधकं शक्तिवैचिश्यमुद्योतयति ण पविट्ठो णाविट्ठो णाणी णेयेसु रूवमिव चक्खू । जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीबो जगमसेसं ||२६|| न प्रविष्टो नाविष्टो ज्ञानी ज्ञेयेषु रूपमिव चक्षुः । जानाति पश्यति नियतं अक्षातीतो जगदशेषम् | २६|| यथाहि चक्षू रुविद्रव्याणि स्वप्रदेशेरसंस्पृशदप्रविष्टं परिच्छेद्यमाकारमात्मसात्कुर्वन्न चाप्रविष्टं जानाति च एवमात्माप्यक्षातीतत्वात्प्राप्यकारिताविचारगोचरद्रतामवाप्तो ज्ञेयतामापन्नानि समस्तवस्तुनि स्वप्रदेर्शरसंस्पृशन्न प्रविष्टः, शक्तिवैचित्र्यवशतो वस्तुवर्तिनः समस्तज्ञेयाकारानुन्मूल्य इव कवलयन्त चाप्रविष्टो जानाति पश्यति च । एवमस्य विचित्रशक्तियोगितो ज्ञानिनोऽर्थेष्वप्रवेश इव प्रवेशोऽपि सिद्धिमवतरति ॥२६॥ भूमिका – अब, पदार्थों में नहीं प्रवृत्त होने वाले भी ज्ञानी के उन पदार्थों में वृत्ति को सिद्ध करने वाली शक्ति-चित्र्य को (अद्भुत शक्ति को ) प्रगट करते हैं । अन्वयार्थ --- [ चक्षुः रूपं इव | जैसे आँख रूप को ( प्रदेशों की अपेक्षा प्रविष्ट न किन्तु ज्ञेय- आकारों की अपेक्षा अप्रविष्ट न रहकर अर्थात् प्रविष्ट होकर जानती और देखती है) [ उसी प्रकार ] अक्षातीतः इन्द्रियातीत [ ज्ञानी ] केवलज्ञानी आत्मा [ अशेषं जगत् ] समस्त जगत् को (समस्त लोकालोक को ) [ ज्ञेयेषु ] ज्ञेयों में [ न प्रविष्टः ] प्रविष्ट न होकर [न अप्रविष्टः तथा अप्रविष्ट न रहकर ( अर्थात् प्रविष्ट होकर ) [ नियतं ] निश्चित रूप से [ जानाति पश्यति ] जानते और देखते हैं । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] टीका-जिस प्रकार आंख रूपी द्रव्यों को अपने प्रदेशों के द्वारा स्पर्श न करता हुआ (इस अपेक्षा से) अप्रविष्ट होकर तथा ज्ञेय के आकारों को आत्मसात् (निजरूप) करता हुआ (इस अपेक्षा से) न अप्रविष्ट रहकर (प्रविष्ट होकर) जानता और देखता है, उसी प्रकार आत्मा भी, इन्द्रिय-अतीत होने के कारण से प्राप्यकारिता की विचार-गोचरता से दूर होता हुआ, ज्ञेयता को प्राप्त समस्त वस्तुओं को अपने प्रदेशों से स्पर्श नहीं करता हुआ, प्रविष्ट न होकर तथा शक्ति-वैचित्र्य (अद्भुत शक्ति) के घश से वस्तु में वर्तते समस्त जयाकारों को मूल में से ही उखाड कर ग्रास फर लेने की भांति, न अप्रविष्ट रहकर (अर्थात् प्रविष्ट होकर) जानता और देखता है । इस प्रकार विचित्र शक्ति वाले इस केवलज्ञानी के पदार्थों में अप्रवेश की भांति प्रवेश भी सिद्धि को धारण करता है ॥२६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ ज्ञानी ज्ञेयपदार्थेषु निश्चयनयेनाप्रविष्टोपि व्यवहारेण प्रविष्ट इव प्रतिभातीति शक्तिवैचित्र्यं दर्शयति म पविट्रो निश्चयनयेन न प्रविष्टः, णाविट्टो व्यवहारेण च नाप्रविष्टः, किन्तु प्रविष्ट एव । स कः कर्ता ? पाणी ज्ञानी । केषु मध्ये ? येसु ज्ञेयपदार्थेषु । किमिव ? रूपमिव चक्लू रूपविषये चक्षुरिव । एवंभूतम्सन मिकरोति । जाति पद जानाति पश्यति च णियदं निश्चित संशयरहितं । कि विशिष्ट: सन् ? भक्खातीवो अक्षातीतः। कि जानाति पश्यति ? जगमसेसं जगद. शेषमिति । तथाहि—यथा लोचनं कतृ रूपिद्रव्याणि यद्यपि निश्चयेन न स्पृशति तथापि व्यवहारेण स्पशतीति प्रतिभाति लोके । तथायमात्मा मिथ्यात्वरागाद्यास्त्रवाणामात्मनश्च संबन्धि यत्केवलज्ञानात्पर्व विशिष्टभेदज्ञानं तेनोत्पन्नं यत्केवलज्ञानदर्शनद्वयं तेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिपदार्थानिश्चयेनास्पृशन्नपि व्यवहारेण स्पृशति- तथा स्पृशन्निध ज्ञानेन जानाति दर्शनेन पश्यति च । कथंभूतस्सन् ? अतीन्द्रियसुखास्वादपरिणतः सन्नक्षातीत इति । ततो ज्ञायते निश्चयेनाप्रवेश इव व्यवहारेण नेघपदार्थेषु प्रवेशोऽपि घटत इति ॥२६॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ज्ञानी भात्मा ज्ञेय पदार्थों में निश्चय नय से प्रवेश नहीं करता हुआ भी व्यवहार से प्रवेश किये हुए है, ऐसा झलकता है, ऐसी आत्मा के ज्ञान की विचित्र शक्ति है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(अक्खातीदो) इन्द्रियों से रहित अतीन्द्रिय (गाणी) ज्ञानी आत्मा (चवल) आंख (रुवम् इव) जैसे रूप के भीतर वैसे (येसु) ज्ञेय पदार्थों में (ण पनिट्रो) निश्चय से प्रवेश न करता हुआ अथवा (ण अविट्टो) व्यवहार से अप्रविष्ट न होता हुआ अर्थात् प्रवेश करता हुआ (णियदं) निश्चित रूप से व संशय रहितपने से (असेस) सम्पूर्ण (जगम्) जगत् को (पस्सदि) देखता है (जाणदि) जानता है। जैसे नेत्र रूपी द्रव्यों को यद्यपि निश्चय से स्पर्शन नहीं करता है तथापि व्यवहार से Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] [ पबयणसारो स्पर्श कर रहा है ऐसा लोकमें झलकता है। तंसे यह आत्मा मिथ्यात्व रागद्वेष आदि आत्रव भावों के और आत्मा के सम्बन्ध में जो केवलज्ञान होने के पूर्व विशेष भेदज्ञान होता है, उससे उत्पन्न जो केवलज्ञान और केवलवर्शन के द्वारा तीन जगत और तीनकालवी पदार्थों को निश्चय से स्पर्श न करता हुआ भी व्यवहार से स्पर्श करता है तथा स्पर्श करता हुआ हो ज्ञान से जानता है और दर्शन से देखता है । वह आत्मा अतीन्द्रिय सुख के स्वाद में परिणमन करता हुआ इन्द्रियों के विषयो से अतीत हो गया है । इसलिये जाना जाता है कि निश्चय से आत्मा पदार्थों में प्रवेश न करता हुआ ही व्यवहार से ज्ञेय पदार्थों में प्रवेश हुआ ही घटता है ॥२६॥ अर्थवं ज्ञानमर्थेषु वर्तत इति संभावयति रयणमिह इंदणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए। अभिभूय तं पि दुद्धं 'वट्टदि तह णाणमत्थेसु ॥३०॥ रलमिह इन्द्रनीलं दुग्धाध्युषितं यथा स्वभासा।। अभिभूय तदपि दुग्धं वर्तते तथा ज्ञानमर्थेषु ॥३०॥ यथा किलेन्द्रनीलरत्नं दुग्धमधिवसत्स्वप्रभाभारेण तदभिभूय वर्तमानं दृष्टं, तथा संवेदनमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात् कत्रशेनात्मतामापन्नं करणांशेन ज्ञानतामापन्नेन, कारणभूतानामर्थानां कार्यभूतान् समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्य वर्तमान कार्यकारणत्वेनोपचयं ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते ॥३०॥ भूमिका-अब, मान पदार्थों में इस प्रकार रहता है, यह स्पष्ट करते हैं:__ अन्वयार्थ— [यथा] जैसे [इह] इस जगत् में [दुग्धाध्युषितं] दूध में पड़ा हुआ [इन्द्रनील रत्नं ] इन्द्रनील रत्न |स्वभासा अपनी प्रभा के द्वारा [तत् अपि दुग्धं] उस दूध को (में) [अभिभूय] तिरस्कृत करके [वर्तते रहता है [तथा| उसी प्रकार [ज्ञान] ज्ञान (अर्थात् ज्ञातृ द्रव्य) [अर्थेषु] ज्ञेय पदार्थों में व्याप्त होकर [वर्तते ] रहता है। टीका-जैसे वास्तव में दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न अपनी प्रभा से उस (दूध) को तिरस्कार करके रहता हआ देखा गया है, उसी प्रकार ज्ञान भी आत्मा से अभिन्न होने के कारण कर्ता-अंश से आत्मा को प्राप्त होता हुआ, ज्ञानपने को प्राप्त करण-अंश द्वारा कारणभूत पदार्थों (बाह्यज्ञेय-पदार्थों) के कार्यभूत-समस्त-ज्ञयाकारों (ज्ञान में ज्ञयाकारों) को व्याप्त हुआ वर्तता है। इसलिये कार्य में कारणपने से (जे याकारों में पदार्थों का) १ वट्टर (ज० वृ०)। २. तह णाणमठेसु (ज० वृ.) । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवमणसारी [ ७१ उपचार करके यह कहना कि ज्ञान पदार्थों को व्याप्त करके रहता है, विरोध को प्राप्त नहीं होता है ।३०। तात्पर्यवृत्ति अथ तमेवार्थ दृष्टान्तद्वारेण दृदयति, रयणमिह रत्नमिह जगति । किं नाम ? इदणीलं इंद्रनीलसंज। कि विशिष्टं ? दुद्धज्ज्ञसियं दुग्ध निक्षिप्तं जहा यथा सभासाए स्वकोयप्रभया अभिभूय तिरस्कृत्य । किं ? तपि बुद्ध तत्पूर्वोक्तं दुग्धमपि बट्टा वर्तते । इति दृष्टान्तो गतः। तह णाणमसु तथा ज्ञानमर्थेषु वर्तत इति । तद्यथा-यथेन्द्रनालरत्नं क स्वकीयनीलप्रभया करणभूतया दुग्ध नील कृत्वा वर्तते, तथा निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमसामायिकसंयमेन यदुत्पन्न केवलज्ञानं तत् स्वपरपरिच्छित्तिसामथ्र्येन समस्ताज्ञानान्धकार तिरस्कृत्य युगपदेव सर्वपदार्थेषु परिच्छित्याकारेण वर्तते । अयमत्र भावार्थ:कारणभूतानां सर्वपदार्थानां कार्यभूताः परिच्छित्याकारा उपचारेणार्था भण्यन्ते, तेषु च ज्ञानं वर्तत इति भण्यमानेपि व्यवहारेण दोषो नास्तीति ।। ३०॥ उत्थानिका--आगे ऊपर कही हुई बात को दृष्टान्त के द्वारा दृढ़ करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(इस) अगत् में (लहा) से (नगीनं माणस) इन्द्रनील नाम का रत्न (दुद्धज्झसियं) दूध में डुबाया हुआ (सभासाए) अपनी चमक से (तंपि बुद्धं) उस दूध को भी (अभिभूय) तिरस्कार करके (वट्टदि) वर्तता है (तह) तैसे (णाणम्) ज्ञान (अट्ठेसु) पदार्थों में वर्तता है। भाव यह है कि जैसे इन्द्रनील नाम का प्रधानरत्न फर्ता होकर अपनी नीलप्रमारूपी कारण से दूध नीला करके वर्तन करता है तैसे निश्चयरत्नत्रयस्वरूप परम सामायिक नामा संयम के द्वारा जो उत्पन्न हुआ केवलज्ञान सो आपा-पर को जानने की शक्ति रखने के कारण सर्व अज्ञान के अंधेरे को तिरस्कार करके एक समय में ही सर्व पदार्थों में ज्ञानाकार से वर्तता है-यहां यह मतलब है कि कारणभूत पदार्थों के कार्य जो ज्ञानाकार ज्ञान में झलकते हैं उनको उपचार से पदार्थ कहते हैं। उन पदार्थों में ज्ञान वर्तन करता है ऐसा कहते हुए भी व्यवहार से दोष नहीं है ॥३०॥ अर्थवमर्था ज्ञाने वर्तन्त इति संभावयति-- 'जदि ते ण संति अट्ठा णाणे गाणं ण होदि सव्वगदं । 'सव्वगदं वा णाणं कहं ण णाणठ्ठिया अट्ठा ॥३१॥ यदि ते न सन्त्यर्थाः ज्ञाने ज्ञान न भवति सर्बगतम् ।। सर्वगतं वा शानं कथं न ज्ञानस्थिता: अर्थाः ॥३१॥ १. जइ (ज० ००)। २. होइ (ज० बृ०)। ३. सधगयं (ज० वृ०)। ४. सव्वगयं (जल वृ०)। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] [ पवयणसारो यदि खलु निखिलात्मीयज्ञेयाकारसमर्पणद्वारेणावतीर्णाः सर्वेऽर्था न प्रतिभान्ति ज्ञाने तदा तन्न सर्वगतमभ्युपगम्येत । अभ्युपगम्येत या सर्वगतम् । तहि साक्षात् संवेदनमुकुरुन्दभूमिकावतीणंप्रतिबिम्बस्थानीयस्वीयस्वीयसंवेद्याकारकारणानि, परम्परया प्रतिबिम्बस्थानीपसंवेद्याकारकारणानीति कथं न ज्ञानस्थायिनोऽर्था निश्चीयन्ते ॥३१॥ भूमिका-अब, ज्ञान पदार्थ में इस प्रकार रहते हैं, यह व्यक्त करते हैं: अन्वयार्थ- [यदि] जो [ते अर्थाः] वे पदार्थ [ज्ञाने न सन्ति (अपनी परिछित्ति के आकारों के समर्पण द्वारा, दर्पण में बिम्ब की तरह) केवलज्ञान में नहीं हैं तो [ज्ञानं] ज्ञान [सर्वगतं] सर्वगत [न भवति] नहीं हो सकता [वा] और [सर्वगतं ज्ञानं] सर्वगत ज्ञान माना गया है, तो [ज्ञानस्थिताः अर्थाः] पदार्थ (अपने ज्ञेयाकारों के परिच्छित्ति-समर्पण द्वारा) ज्ञान में स्थित [कथं न भवन्ति ] कैसे नही हैं (किन्तु हैं ही। टीका-जो वास्तव में समस्त अपने ज्ञेयाकारों के समर्पण द्वारा से अवतरित सभी पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होते हैं, तो वह (ज्ञान) सर्वगत नहीं माना जा सकता और (ज्ञान तो) सर्वगत माना गया है । तो फिर साक्षात ज्ञान दर्पण भूमिका में अवतरित बिम्ब की भांति अपने-अपने क्षेयाकारों के कारण (होने से) और परम्परा से प्रतिबिम्ब के समान क्षेयाकारों के समान होने से कसे पार्थ ज्ञान में स्थित निश्चित न किये जाए (अवश्य ही ज्ञान में पदार्थ स्थित निश्चित होते हैं) ॥३१॥ तात्पर्यवृत्ति अय पूर्वसूत्रेण भणितं ज्ञानमर्थेषु वर्तते व्यवहारेणात्र पुनरर्था ज्ञाने वर्तन्त इत्युपदिशन्ति, जइ यदि चेत् ते अट्ठा ण संति ते पदार्थाः स्वकीय परिच्छित्याकारसमपंणद्वारेणादर्श बिम्बवन्न सन्ति यदि चेत् । क्व ? गाणे केवलज्ञाने णाणं ण होइ सम्बयं तदा ज्ञानं सर्वगतं न भवति । सव्यगर्य वा णाणं व्यवहारेण सर्वगतं ज्ञानं सम्मतं चेद्भवतां कहं ण गाणहिया अठ्ठा हि व्यवहारनयेन स्वकीयज्ञेयाकारपरिच्छित्तिसमर्पणद्वारेण ज्ञान स्थिता अर्याः कथं न भवन्ति ? किन्तु भवन्त्येव । अत्रायमभिप्राय:-यत एव व्यवहारेण ज्ञेयपरिच्छित्याकारग्रहणद्वारेण ज्ञान सदंगत भण्यते, तस्मादेव ज्ञेयपरिछित्त्याकारसमर्पणद्वारेण पदार्था अपि व्यवहारेण ज्ञानगता भण्यन्त इति ।।३।। उत्थानिका--आगे पूर्व सूत्र से यह बात कही गई कि व्यवहार से ज्ञान पदार्थों में बर्तन करता है अब यह उपदेश करते हैं कि पदार्थ ज्ञान में वर्तते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ-(जवि) यदि (ते अठ्ठा) वे पदार्थ (गाणे) केवलज्ञान में (ण संति) नहीं हों अर्थात् जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब झलकता है इस तरह पदार्थ अपने नानाकार को समर्पण करने के द्वारा ज्ञान में न मलकते हों तो (णाणं) केवलज्ञान (सम्वगय) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो] [ ७३ सर्वगत (ण होई) नहीं होवे । (वा) अथवा यदि व्यवहार से ( जाणं) केवलज्ञान (सव्वगयं ) सर्वगत आपकी सम्मति से है तो व्यवहारनय से ( अट्ठा) पदार्थ अर्थात् अपने ज्ञेयकार को ज्ञान में समर्पण करने वाले पदार्थ ( कहं ण) किस तरह नहीं ( णाणट्ठिया) केवलज्ञान में स्थित हैं — किन्तु ज्ञान में अवश्य तिष्ठते हैं, ऐसा मानना होगा । यहाँ यह अभिप्राय है क्योंकि व्यवहारनय से हो जब ज्ञेयों के ज्ञानाकार को ग्रहण करने के द्वारा ज्ञान को सर्वगत कहा जाता है इसीलिये सब ज्ञयों के ज्ञानाकार समर्पण द्वार से पदार्थ भी व्यवहार से ज्ञान में प्राप्त हैं, ऐसा कह सकते हैं। पदार्थों के आकार को जब ज्ञान ग्रहण करता है, तब पदार्थ अपना आकार ज्ञान को देते हैं, यह कहना होगा ||३१|| अथैवं ज्ञानिनोऽर्थः सहान्योन्यवृत्तिमत्वेऽपि परग्रहण मोक्षणपरिणमनाभावेन सर्वं पश्यतोऽध्यवस्यतश्चात्यन्तविविक्तत्वं भावयति गेहदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ||३२|| गृहाति नैव न मुञ्चति न परं परिणमति केवली भगवान् । पश्यति समन्तत: सः जानाति सर्वं निरवशेषम् ||३२|| अयं खल्वात्मा स्वभावत एव परद्रव्य ग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावात्स्वतत्त्व भूतकेयलज्ञानस्वरूपेण विपरिणम्य निष्कम्पोन्भज्जज्ज्योतिर्जात्यमणिकल्पो भूत्वाऽवतिष्ठमानः समन्ततः स्फुरितदर्शनज्ञानशक्तिः समस्तमेव निःशेषतयात्मानमात्मनि संचेतयते । अथवा युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभावितग्रहण मोक्षणक्रियाविरामः प्रथममेक्ष समस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतत्वात् पुनः परमाकारान्तरमपरिणममानः समन्ततोऽपि विश्वमशेषं पश्यति जानाति च एवमस्यात्यन्तविविक्तत्वमेव ॥३२॥ भूमिका - अब, इसप्रकार केवलज्ञानी के साथ एक-दूसरे में वृत्ति वाले होने पर भी, पर को ग्रहण, त्याग किये बिना तथा परद्रव्य रूप परिणत हुए बिना सबको देखने-जानने वाले केवली के ( पदार्थों के साथ) अत्यन्त भिन्नपने को बतलाते हैं: " अन्वयार्थ – [ केवली भगवान् ] केवली भगवान ( सर्वज्ञ ) [ परं ] पर द्रव्य को ज्ञेय पदार्थ को [न एव गृह्णाति ] न ग्रहण करते हैं, [न मुचति ] न छोड़ते हैं, [न परिणमति ] और न परद्रव्य रूप-ज्ञेयरूप परिणत होते हैं । इससे जाना जाता है कि उनका परद्रव्य के साथ भिन्नत्व ही है, तो क्या परद्रव्य को जानते भी नहीं ? उत्तर - तथापि [ समन्ततः ] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] पवयणसारो सर्व द्रव्य क्षेत्र-काल-भावों से [सर्व ] सब ज्ञेयों को [निरवशेष] निरवशेष [पश्यति जानाति] देखते-जानते हैं। टीका—वह आत्मा वास्तव में, स्वभाव से ही परद्रव्य के ग्रहण त्याग का तया परद्रव्य रूप के परिणत होने का (उसके) अभाव होने से, स्वतत्त्वभूत केवलज्ञान स्वरूप से परिणत होकर (तथा) निष्कंप निकलने वाली ज्योति बाला उत्तम मणि जैसा होकर रहता हआ, (एवं) जिसके सब आत्म-प्रदेशों से दर्शन ज्ञान शक्ति स्फुरित है, ऐसा होता हुआ, निःशेष रूप से परिपूर्ण आत्मा को आत्मा से आत्मा में संचेतता (जानता-अनुभव करता) है। __ अथवा एक साथ ही सर्व पदार्थों के समूह को साक्षात् करने से, ज्ञप्ति परिवर्तन का अभाव होने से, (तथा) जिसके ग्रहण त्याग रूप किया विराम को प्राप्त हई है ऐसा होता हा, (एवं) पहले समय में ही समस्त ज्ञेयाकार रूप परिणत होने से, फिर दूसरे आकारान्तर रूप नहीं परिणत होता हुआ, सर्व प्रकार से सम्पूर्ण विश्व को देखता जानता है। __ सार—इस प्रकार (पूर्वोक्त दोनों प्रकार से) उसका (आत्मा का पदार्थों से) अत्यन्त भिन्नपना ही है। तात्पर्यवृत्ति ___ अथ ज्ञानिनः पदार्थैः सह यद्यपि व्यवहारेण ग्राह्यग्राहकसम्बन्धोऽस्ति तथापि संश्लेषादिसम्बन्धो नास्ति, तेन कारणेन ज्ञेयपदार्थैः सह भिन्नत्वमेवेति प्रतिपादयति, गेहदि णेव ण मुचवि गृह्वाति नैव मुञ्चति नैवण पर परिणमदि परं परद्रव्यं शेयपदार्थ नैव परिणमति । स कः फर्ता ? केवली भगवं केवली भगवान् सर्वशः । ततो ज्ञायते परद्रव्येण सह भिन्नत्वमेव तहि कि परद्रव्यं न जानाति ? पेच्छवि समंतदो सो जाणदि सब णिरयसेसं तथापि व्यवहारनयेन पश्यति समन्ततः सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभाव नाति च सर्व निरवशेषम् । अथवा द्वितीयव्याख्यानम्अभ्यन्तरे कामक्रोधादि बहिर्विषये पञ्चेन्द्रियविषयादिकं बहिद व्यं न गृह्णाति, स्वकीयानन्तज्ञानादिचतुष्टयं च न मुञ्चति यतस्ततः कारणादयं जीवः केवलज्ञानोत्पत्तिक्षण एव युगपत्सर्वं जानन्सन् पर विकल्पान्तरं न परिणमति । तथाभूतः सन् किं करोति ? स्वतत्वभूतकेवलज्ञानज्योतिषा जात्यमणिकल्पो निःकम्पचैतन्य प्रकाशो भूत्वा स्वात्मानं स्वात्मनि जानात्यनुभवति । तेनापि कारणेन परद्रव्यः सह भिन्नत्वमेवेत्यभिप्रायः ।। ३२।।। एवं ज्ञानं शेयरूपेण न परिणमतीत्यादिव्याख्यानरूपेण तृतीयस्थले गाथापञ्चकं गतम् । उत्थानिका-आगे यह समझाते हैं कि यद्यपि व्यवहार से ज्ञानी का ज्ञेय पदार्थो के साथ ग्राह्य-ग्राहक अर्थात् ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है तथापि निश्चय से स्पर्श आदि का सम्बन्ध नहीं है इसलिये ज्ञानी का ज्ञेय पदार्थों के साथ भिन्नुपना ही है । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] अन्वय सहित विशेषार्थ—(फेवली भगवं) केवली भगवान सर्वज (परं) पर द्रध्यरूप ज्ञेय पदार्थ को (णेव गिण्हदि) नसी ग्रहण करते हैं, जबगि) होड़ते हैं (ण परिणमदि) न उस रूप परिणमन करते हैं। इससे जाना जाता है कि उनकी पर द्रव्य से मिन्मता ही है। तब क्या वे परद्रव्य को नहीं जानते हैं ? उसके लिये कहते हैं कि यद्यपि भिन्न हैं तथापि व्यवहारनय से (सो) वह भगवान् (णिरवसेसं सर्च) बिना अवशेष के सबको (समंतदो) सर्व द्रव्य, क्षेय, काल, भावों के साथ (पेच्छदि) देखते हैं तथा (जाणदि) जानते हैं। अथवा इसी का दूसरा व्याख्यान यह है कि केवली भगवान भीतर तो काम, क्रोधादि भावों को और बाहर में पांचों इन्द्रियों के विषयरूप पदार्थों को ग्रहण नहीं करते हैं, न अपने आत्मा के अनन्तज्ञानादि चतुष्टय को छोड़ते हैं। यही कारण है जो केवलज्ञानी आत्मा केवलज्ञान की उत्पत्ति के काल में ही एक साथ सर्व को देखते-जानते हुए भी अन्य विकल्परूप परिणमन नहीं करते हैं । ऐसे वीतरागी होते हुए क्या करते हैं ? अपने स्वभाव रूप केवलज्ञान की ज्योति से निर्मल स्फटिकमणि के समान निश्चल चैतन्य प्रकाश रूप होकर अपने आत्मा के द्वारा आत्मा में जानते हैं, अनुभव करते हैं। इसी कारण से उनकी परद्रव्यों के साथ एकता नहीं है भिन्नता ही है, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिये ॥३२॥ इसी तरह ज्ञान-ज्ञेय रूप से परिणमन नहीं करता है, इत्यादि व्याख्यान करते हुए तीसरे स्थल में पांच गाथाएं पूर्ण हुई ॥३२॥ अथ केवलज्ञानिश्रुत शानिनोरविशेषदर्शनेन विशेषाकांक्षाक्षोभं क्षपति जो हि सुदेण विजाणादि अप्पाणं जाणगं सहावेण । तं 'सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोगप्पदीवयरा ॥३३॥ यो हि भूतेन विजानात्यात्मानं झायक स्वभावेन । तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणन्ति लोकपदीपकराः ॥३३।। यथा भगवान युगपल्परिणतसमस्तचतन्यविशेषशालिना केवलज्ञानेनानादिनिधननिष्कारणासाधारणस्वसंचेत्यमानचंतन्यसामान्यमहिम्नश्चेतकस्वभावेनकत्वात् केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात् केवली, तथायं जनोऽपि कम्परिणममाणकतिपयचैतन्यविशेषशालिना श्रुतज्ञानेनानादिनिधननिष्कारणासाधारणस्वसंचेत्यमानचैतन्यसामान्यमहिम्नश्चेतकस्वभावेनैकत्वात् केवलस्यात्मन आत्मनात्मनि संचेतनात् श्रुतकेवली। अलं घिशेषाकांक्षाक्षोभेण, स्वरूपनिश्चलरेवावस्थीयते ॥३३॥ १. सुयकेवलिमिसिणो (ज. प.)। ३. लोयप्पदीययरा (ज॥ ७०) । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] [ पवयणसारो भूमिका - अब केवलज्ञानी तथा श्रुतज्ञानी के अविशेष (समानता अन्तररहितता ) दिलाते हुये, विशेष आकांक्षा के क्षोभ को नष्ट करते हैं (अर्थात् केवलज्ञानी में और श्रुतज्ञानी में अन्तर नहीं है, यह दिखाकर विशेष जानने की इच्छा की आकुलता को नष्ट करते हैं): अन्वयार्थ – [ यः ) जो [हि] वास्तव में [ श्रुतेन ] श्रुतज्ञान से ( निर्विकारः स्वसंवित्ति रूप भावश्रुत परिणाम से ) [ स्वभावेन ] स्वभाव से ( समस्त विभाव रहित स्वभाव से ) [ ज्ञायकं ] ज्ञायक स्वभावी ( भावज्ञान स्वरूप ) [ आत्मानं ] आत्मद्रव्य को [विजानाति ] जानता है, [लोकप्रदीपकराः ] लोक के प्रकाशक [ ऋषयः ] ऋषीश्वरगण [तं] उसको [ श्रुतकेवलिनं ] श्रुतकेबली [ भणन्ति ] कहते हैं । - टीका–जैसे भगवान् युगपत् परिणमन करते हुए समस्त चैतन्य- विशेष - युक्त केवलज्ञान द्वारा, अनावि निधन - निष्कारण (अहेतुक) असाधारण स्वसंवेद्यमान - चैतन्य सामान्य जिसकी महिमा है तथा जो चेतक स्वभाव से एकत्व होने से केवल ( अकेला, शुद्ध, अखण्ड) है, ऐसे आत्मा का आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण से केवली हैं, उसी प्रकार यह (छपस्थ ) पुरुष भी क्रमशः परिणमित होते हुए कुछ चैतन्य विशेषों से युक्त श्रुतज्ञान के द्वारा अनादिनिधन निष्कारण असाधारण स्वसंवेद्यमान - चैतन्य सामान्य जिसकी महिमा है तथा जो चेतक स्वभाव के द्वारा एकत्व होने से केवल (अकेला) है, ऐसे आत्मा का आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण श्रुतकेवली हैं। ( इसलिये ) विशेष आकांक्षा के क्षोभ से (अधिक जानने की इच्छा रूप आकुलता से) समाप्त हो । (हमारे द्वारा ) स्वरूप से निश्चल ही ठहरा जाता है । भावार्थ - उद्यस्थ जीव माय श्रुतज्ञान द्वारा निज शुद्ध आत्मा का अनुभव करते हैं तथा केवली भगवान् केवल ज्ञान द्वारा निज शुद्ध-भात्मा का अनुभव करते हैं। इसलिये दोनों में कोई अन्तर नहीं है। पर-पदार्थ का होनाधिक ज्ञान आत्म-अनुभव में प्रयोजनवान नहीं है। इसलिये पर द्रव्य के अधिक ज्ञान को करने की आकुलता छोड़कर आत्म-अनुभव करने का अभ्यास कर, उसमें तेरा भला है। आत्म-अनुभव करने वाले जीवों को निश्चय से श्रुतवली कहते हैं जबकि सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत के जानकार को व्यवहार से श्रुतकेवली कहते हैं। ऐसी आत्म अनुभव की अटूट महिमा है । देखिये श्री समयसार जी में गाथा नं०६ बिलकुल यही गाथा है । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ७७ मूल गाथा में केवल श्रुतकेबली की बात है और टीकाकार केवलज्ञानी तथा श्रुतकेवली दोनों की बात कर रहे । ऐसा क्यों ? इसका उत्तर यह है कि गाथा २१ से ५२ तक ज्ञान प्रज्ञापन (केवलज्ञान या केवलज्ञान स्वरूपी आत्मा) के कथन करने की प्रतिज्ञा है | श्रुतकेबली को गाया क्यों आई है ? इसमें से टीकाकार ने यह भाव निकाला है कि सूत्रकार दोनों का अविशेष दिखलाना चाहते हैं ॥३३॥ तात्पर्यवृति अथ यथा निरावरण सकलव्य तिलक्षणेन केवलज्ञानेनात्मपरिज्ञानं भवति तथा सावरणं कदेशव्यक्तिलक्षणेन केवलज्ञानोत्पत्तिबीजभूतेन स्वसंवेदनज्ञातरूपभावश्रुतं नाप्यात्मपरिज्ञान भवतोति निश्च नोति । अथवा द्वितीयपातनिका यथा केवलज्ञानं प्रमाणं भवति तथा केवलज्ञानप्रणीतपदार्थ प्रकाशकं श्रुतज्ञानमपि परोक्षप्रमाणं भवतीति पातनिकाद्वयं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति, जो यः कर्ता हि स्फुटं सुदेण निर्विकारस्वसंवित्तिरूपभावश्रुतपरिणामेन विजानयि विजानाति विशेषेण जानाति विषयसुखानन्द विलक्षण निजशुद्धात्मभावनोत्य रमानन्दै कल अणसुख रसास्वादेनानुभवति । कम् ? अप्पाणं निजात्मद्रव्यं । कथम्भूतं ? जाणगं ज्ञायकं केवलज्ञानस्वरूपं । केन कृस्वा ? सहावेण समस्त विभावरहितस्वभावेन तं सुयकेवल तं महायोगीन्द्रं श्रुतकेवलिनं भणति कथयन्ति । के कर्तारः ? इसिणो ऋषयः । किं विशिष्टाः ? लौयष्पदीवयरा लोकप्रदीपकरा लोकप्रकाशका इति । अतो विस्तरः युगपत्परिणत समस्त चैतन्यशालिना केवलज्ञानेन अनाद्यनन्तनिः कारणान्यद्रव्यासाधारणस्वसंवेद्यमान परम चैतन्य सामान्यलक्षणस्य परद्रव्यरहितत्वेन केवलस्यात्मन आत्मनि स्वानुभवनाद्यथा भगवान् केवलि भवति तथायं गणधर देवादिनिश्चय रत्नत्रयाराधकजनोपि पूर्वोक्तलक्षणस्यात्मनो मावश्रुतज्ञानेन स्वसंवेदनाभिश्चयश्रुतकेवली भवतीति । किञ्च यथा कोपि देवदत्त आदित्योदयेन दिवसे पश्यति, रात्री किमपि प्रदीपेनेति । तथादित्योदयस्थानीयेन केवलज्ञानेन दिवसस्थानीयमोक्षपर्याये भगवानात्मानं पश्यति । संसारी विवेकिजनः पुनर्निशास्थानीयसंसारपर्याय प्रदीप स्थानीयेन रागादिविकल्परहितपरमसमाधिना निजात्मानं पश्यतीति । अयमत्राभिप्राय : – आत्मा परोक्षः, कथं पानं क्रियते इति सन्देहं कृत्वा परमात्मभावना न त्याज्येति । ३३ ॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं कि जैसे सर्व आवरण रहित सर्व को प्रगट करने वाले लक्षण को धारने वाले केवलज्ञान से आत्मा का ज्ञान होता है तैसे आवरण सहित एक देश प्रकट करने वाले लक्षण को धरने वाले तथा केवलज्ञान की उत्पत्ति का बीज रूप स्वसंवेदन ज्ञानमयी भाव श्रुतज्ञान से भी आत्मा का ज्ञान होता है अर्थात् जैसे केवलज्ञान से आत्मा का जानपना होता है वैसा श्रुतज्ञान से भी आत्मा का ज्ञान होता है । आत्मज्ञान के लिये दोनों ज्ञान बराबर हैं । अथवा दूसरी पातनिका यह है कि जैसे केवलज्ञान प्रमाण रूप हैं जैसे ही केवलज्ञान द्वारा दिखलाए हुए पदार्थों को प्रकाश करने वाला श्रुतज्ञान भी परोक्ष प्रमाण है । इस तरह दो पातनिकाओं को मन में रखकर आगे का सूत्र कहते हैं Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] [ पक्यणसारो . अन्वय सहित विशेषार्थ—(जो) जो कोई पुरुष (हि) निश्चय से (सुदेण) निर्विकार स्वसंवेदन रूप भाव-श्रुत परिणाम के द्वारा (सहावैण) समस्त विभावों से रहित स्वभाव से ही (जाणगं) ज्ञायक अर्थात् केवलज्ञानरूप (अप्पाणं) निजे आत्मा को (विजाणवि) विशेष करके जानता है अर्थात् विषयों के सुख से विलक्षण अपने शुद्धात्मा की भावना से पैरा होने वाले परमानन्दमई एक लक्षण को रखने वाले सुख रस के आस्वाद से अनुभव करता है । (लोयप्पदीवयरा लोड के रकाश करने वाले (इगिणी) ऋषि (२) उस महायोगीन्द्र को (सुयकेलि) श्रुतकेवली (भणति) कहते हैं। इसका विस्तार यह है कि एक समय में परिणमन करने वाले सर्व चैतन्यशाली केवलज्ञान के द्वारा आदि अंत रहित, अन्य किसी कारण के बिना दूसरे द्रव्यों में न पाइये ऐसे असाधारण अपने आप से अपने में अनुभव आने योग्य परमचैतन्यरूप सामान्य लक्षण को रखने वाले तथा परतव्य से रहितपने के द्वारा केवल ऐसे आत्मा का आत्मा में स्वानुभव करने से जैसे भगवान् केवली होते हैं वैसे यह गणधर आदि निश्चयरत्नत्रय के आराधक पुरुष भी पूर्व में कहे हुए चैतन्य लक्षणधारी आत्मा का भाव-श्रुतज्ञान के द्वारा अनुभव करने से श्रुतकेवली होते हैं। प्रयोजन यह है कि जैसे कोई भी देवदत्त नाम का पुरुष सूर्य के उदय होने से दिवस में देखता है और रात्रि को भी दीपक के द्वारा कुछ देखता है बसे सूर्य के उदय के समान केवलज्ञान के द्वारा दिवस के समान मोक्ष अवस्था के होते हुए भगवान् केवली आत्मा को देखते हैं और संसारी विवेकी जीव रात्रि के समान संसारअवस्था में वीप के समान रागादि विकल्पों से रहित परम समाधि के द्वारा अपने आत्मा को देखते हैं । अभिप्राय यह है कि आत्मा परोक्ष है। उसका ध्यान कैसे किया जाय, ऐसा सन्देह करके परमात्मा की भावना को छोड़ न देना चाहिये ॥३॥ : अथ ज्ञानस्य श्रुतोपाधिभेदमुवस्यति सुत्तं जिणोवविढे पोग्गलदम्वप्पगेहिं वयणेहिं । तं जाणणा हि जाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया ॥३४॥ सूत्रं जिनोपदिष्टं पुद्गलद्रव्यात्मकर्वचनैः। तज्ज्ञप्तिहि ज्ञानं सूत्रस्य च ज्ञप्तिर्भणिता ॥३४॥ श्रुतं हि तावत्सूत्रम्, तच्च भगवर्हत्सर्वजोपज्ञ स्थात्कारकेतनं पौद्गलिक शब्दब्रह्मतज्जप्तिहि नानम् । श्रुतं तु तत्कारणत्वात्, ज्ञानत्वेनोपचर्यत एव । एवं सति, सूत्रस्य ज्ञप्तिः श्रुत Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्य गसारो 1 ज्ञानमित्यायाति । अथ सूत्रमुपाधियानाद्रियते। ज्ञप्तिरेवावशिष्यते। सा च केवलिनः श्रुतकेवलिनश्चात्मसंचेतने तुल्यैवेति नास्ति ज्ञानस्य श्रुतोपाधिभेवः ॥३४॥ भूमिका-अब मान के श्रुत-उपाधि (कृत) भेद को दूर करते हैं (अर्थात यह दिखाते है कि श्रुतज्ञान भी ज्ञान है, श्रुत रूप उपाधि के कारण ज्ञान में कोई भेव नहीं होताः अन्वयार्थ--[पुद्गलद्रव्यात्मक: वचन:] पुदगल द्रव्यात्मक दिव्यध्वनि वचनों के द्वारा [जिनोपदिष्ट] जिनेन्द्र भगवान् से उपदिष्ट [सूत्र] सूत्र है (द्रव्यश्रुत है) [तज्ज्ञप्तिः हि ज्ञान] उसकी ज्ञप्ति (जानना) ज्ञान है (उस पूर्वोक्त शब्दश्रुत के आधार से जो ज्ञप्ति है-अर्थपरिनित्ति है तद शान कहा जाता है) [च] और (उस ज्ञान को) [सूत्रस्य अप्तिः] सूत्र की नप्ति (श्रुतज्ञान) [भणिता] कहा गया है। टीका--पहले तो (श्रुतज्ञान इस शब्द में) श्रुत वास्तव में सूत्र है और यह सूत्र भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ के द्वारा कहा हुआ, स्यात्कार चिन्हयुक्त, पोद्गलिक शब्दब्रह्म है। (श्रुतज्ञान इस सब्द में ज्ञान शम्ब से वाच्य) उस (सूत्र) को अप्ति सो ज्ञान है । (श्रुतज्ञान इस शम्ब में) श्रुत (सूत्र) तो उसका (ज्ञान का) कारण होने से ज्ञान रूप से उपचार ही किया जाता है (उपचार से ज्ञान कहा जाता है जैसे कि अन्न को प्राण कहा जाता है)। ऐसा होने पर "सूत्र को ज्ञप्ति सो श्रुतज्ञान है" ऐसा हरता है (सिद्ध होता है)। अब सूत्र को उपाधिपना होने से उसका आदर न किया माए तो ज्ञप्ति ही शेष रह जाती है (सत्र की शप्ति कहने पर सूत्र आश्रय या निमित्त मात्र होने से उपाधि ही है। किन्तु ज्ञप्ति स्वयं आत्मा का ही परिणमन है । इसलिये यदि सूत्र को न गिना जाय तो 'मन्ति' ही शेष रहती है) और वह (ज्ञप्ति) केवलो के और श्रुतकेवली के आत्म-अनुभव में समान ही है। इसलिये ज्ञान के श्रुत-उपाधि (कृत) भेव नहीं है। तात्पर्यवत्ति . अथ शब्दरूपं प्रश्रत व्यवहारेण ज्ञानं निश्वयेनार्थपरिच्छित्तिरूपं भावतमेव ज्ञानमिति कथयति । अथवारमभावनारतो निश्चयश्रुत केवलो भवतीति पूर्वसूत्र भणितम्, अयं तु व्यवहारश्रुत'केवलीति कथ्यते, सतं. द्रव्यधुतं । कयम्भूतं ? जिगोवविठं जिनोपदिष्टं । कः कृत्वा ? पोगलदम्बप्पगेहि बयणेहि पुद्गलद्रव्यात्म कैदिव्यध्वनिवचनैः तं जाणणा हि गाणं तेन पूर्वोवत-सदश्रुधारेण ज्ञप्तिरपरिमिछत्तिर्शानं मण्यते हि स्फुट सुत्तस्स य जाणणा भगिया पूर्वोक्तद्रव्यश्रुतस्यापि व्यवहारेणा शानव्यपदेशो भवति न सुनिश्चयेनेति । तथाहि-यथा निश्चयेन शुद्धबुद्धकस्वभावो जीवः पश्चाइयवहारेण नरनारक दिल्पोपि जीवो भण्यते । तथा निश्चयेनाखण्डकप्रतिमासरूपं समस्तवस्तुप्रकाश मानं मण्यते, पश्चाद्वघवहारेण मेघपटलावतादित्यस्यावस्थाविशेषवस्कमपटलावृताखण्ड कज्ञानरूप'जीवस्य मंतिज्ञानश्रुतंज्ञानादिव्यपदेशो भवतीति भाव यः ॥३४॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] [ पवयणसारों उत्थानिका-आगे कहते हैं कि शब्द रूप द्रव्यश्रुत व्यवहारनय से ज्ञान है । निश्चय करके अर्थ जानने रूप भावभुत ही ज्ञान है । अथवा आत्मा की भावना में लवलीन पुरुष निश्चय श्रुतकेवली है, ऐसा पूर्व सूत्र में कहा है, अब व्यवहार श्रुतकेवली को कहते हैं अथवा ज्ञान के साथ जो श्रुत की उपाधि है उसे दूर करते हैं--- अन्वय सहित विशेषार्थ-(सुत्त) द्रव्यश्रुत (पोग्गल-दव्वप्पगेहि वयणेहि) पुद्गल द्रव्यमयी दिव्य ध्वनि के वचनों से (जिणोचविठं) जिन भगवान् के द्वारा उपदेश किया गया है। (हि) निश्चय करके (सज्जाणणा) उस द्रव्यश्रुत के आधार से जो जानपना है (गाणं) सो अर्थज्ञान रूप मावश्रुत शान है । (य) और (सुत्तस्स) उस द्रव्यश्रुत को भी (जाणणा) जानपना या ज्ञान गंजा (भणिया) व्यनहार नय से कही गई है। भाव यह है कि जैसे निश्चय से यह जीव शुद्ध-बुद्ध एकस्वभाव रूप है, पीछे व्यवहारनय से जीव नर-नारक आदि रूप भी कहा जाता है । तैसे निश्चय से ज्ञान सर्व यस्तओं को प्रकाश करने वाला अखंड एक प्रतिभासरूप कहा जाता है, सो ही ज्ञान फिर व्यवहारनय से मेघों के पटलों से आच्छावित सूर्य की अवस्था विशेष को तरह कम पटल से आच्छादित अखंड एक ज्ञानरूप होकर मतिजान श्रुतजान आदि नामवाला हो जाता है ॥३४॥ अथात्मज्ञानयोः क करणताकृतं भेदमपनुदति । जो जाणदि सो गाणं ण हवदि गाणेण जाणगो आदा । णाणं परिणमदि सयं अट्ठा जाणव्यिा सव्वे ॥३५॥ यो जानाति तज्ज्ञानं शायक आत्मा। ज्ञानं परिणमते स्वयमर्था ज्ञानस्थिता सर्वे ॥३५॥ अपृषाभूतकत करणत्वशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति स एव ज्ञानमन्तौनसाधकतमोष्णस्वशक्तेः स्वतंत्रस्य जातवेवसो दहनक्रियाप्रसिद्धेहष्णव्यपदेशयत् । न तु यया पृथावर्तिना यात्रेण लादको भवति देवदत्तस्तथा ज्ञानेन ज्ञायको भवत्यात्मा। तथा सत्युभयोरचेतनत्वमचेतनयोः संयोगेऽपि न परिच्छित्तिनिष्पत्तिः । पृथक्त्ववर्तिनोरपि परिच्छेदाभ्युपगमे परपरिच्छेवेन परस्य परिच्छित्तिभूतिप्रभृतीनां च परिच्छित्तिप्रसूतिरनकुशा स्यात् । किंच-स्वतोऽव्यतिरिक्तसमस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतं ज्ञानं स्वयं परिणममानस्य, कार्यभूससमस्तज्ञेयाकारकारणीभूताः सर्वेऽर्था ज्ञानवर्तिन एव कथंघिद्भवन्ति, कि ज्ञातज्ञान विभागक्लेशकल्पनया ॥३५॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ८१ भूमिका - - अब आत्मा और ज्ञान के कर्तृस्व करणत्व कृत भेव को दूर करते हैं ( प्रवेश-भेद हुए ज्ञान भिन्न पदार्थ हो और आत्मा भिन्न पदार्थ हो, तथा आत्मा का फिर ज्ञान से समवाय हो जाने पर आत्मा ज्ञानी बनता हो, ऐसा नहीं है, यह उपदेश करते हैं) । लिये अन्वयार्थ – [ यः जानाति । जो (अ) जानता है [ [त झालं ] यह काम है (जो ज्ञायक है वही ज्ञान है ) [ ज्ञानेन ] ज्ञान के द्वारा ( सर्वथा भिन्न ज्ञान नामा पदार्थ से जुड़ कर ) [ आत्मा ] आत्मा [ ज्ञायक: न भवति ] ज्ञायक नहीं होता है । [ स्वयं ] स्वयं ही आत्मा [ज्ञानं परिणमते ] ज्ञान रूप परिणत होता है और [ सर्वे अर्था: ] सब पदार्थ [ ज्ञानस्थिताः ] ज्ञान में स्थित हो जाते हैं । टीका - आत्मा के अपृथग्भूत (अभिन्न) कर्तृत्व और कारणत्व की शक्ति-रूप पारमंवयं योगिना ( सहितपना) होने से जो स्वयं ही जानता है ( जो ज्ञायक है) वह ही ज्ञान है, जैसे जिसमें साधकतम उष्णस्व शक्ति अन्तलन है ऐसी स्वतन्त्र अग्नि के, दहन किया की प्रसिद्धि होने से, 'उष्णता' कही जाती है। परन्तु ऐसा नहीं है कि जैसे पृथग्वतों दांती (हसिया ) से देवदत काटने वाला है, उसी प्रकार ( पृथग्वर्ती) ज्ञान से आत्मा ज्ञायक ( जानने वाला) है । ऐसा होने पर, दोनों में (ज्ञान और आत्मा में ) अचेतनपना ( आ जायेगा ) और दो अवेतनों का संयोग होने पर भी ज्ञप्ति उत्पन्न नहीं होगी । ( आत्मा और ज्ञान के ) पृथग्वर्ती होने पर भी ( आत्मा के ) ज्ञप्ति मानी जाने पर ज्ञान के द्वारा पर के ज्ञप्ति ( होगी ) ( और इस प्रकार ) राख इत्यादिक के भी ज्ञप्ति की उत्पत्ति निरंकुश ( अबाधित ) होगी । ( यदि ऐसा माना जायगा कि आत्मा और ज्ञान पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं किन्तु ज्ञान आत्मा के साथ युक्त हो जाता है इसलिये आत्मा जानने का कार्य करता है, तो ज्ञान के युक्त होने से पूर्व आत्मा जड़ था और जैसे ज्ञान जड़ आत्मा के साथ युक्त होता है, उसी प्रकार राख, घड़ा, खम्मा इत्यादि समस्त जड़ पदार्थों के साथ भी युक्त हो जाये और उससे वे सब पदार्थ भी जानने का कार्य करने लगें, किन्तु ऐसा नहीं होता । इसलिये आत्मा और ज्ञान पृथक-पृथक पदार्थ नहीं हैं ।) और विशेष - अपने से अभिन्न समस्त ज्ञेयाकार रूप परिणत जो ज्ञान है उस रूप स्वयं परिणत होने वाले आत्मा के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों के कारणभूत समस्त पदार्थ कथंचित् ज्ञानवर्ती ही हैं । ( इसलिये ) ज्ञाता और ज्ञान के विभाग की क्लिष्ट कल्पना से क्या प्रयोजन है, कुछ नहीं ||३५|| Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ । 1 पवयणसारो तापर्यवृत्ति अथ भिन्नज्ञानेनात्मा ज्ञानी न भवतीत्युपदिशति, जो जाणवि सो णाणं यः कर्ता जानाति स ज्ञानं भवतीति । तथाहि-यथा संज्ञालक्षणप्रयोजनादिसति पाइन्न मोगानोज परिणतोऽग्निरप्युष्णो भण्यते, तथार्थक्रिया परिच्छित्तिसमर्थन ज्ञान गणेन परिणत आत्मापि ज्ञान भण्यते । तथा चोक्तम्- 'जानातीति ज्ञान पारमा' ण हववि णाण जाणगो आवा सर्वथैव भिन्न ज्ञानेनात्मा ज्ञायको न भवतीति । अथ मतम्-यथा भिन्नदारेण लाबको भवति देवदत्तस्तथा भिन्नशानेन ज्ञायको भवतु को दोष इति । नवम् । छेदनक्रियाविषये दा बहिर लोपकरणं भिन्नं भवतु अभ्यन्त रोपकरणं तु देवदत्तस्य छेदनक्रियाविषये शक्तिविशेषस्तच्चाभिन्न मेव भवति । तथार्थपरिच्छित्तिविषयेज्ञान मेवाभ्यन्तरोपकरणं तथाभिन्नमेव भवति, उपाध्यायप्रकाशादिवहिरणोपकरणंतद्भिन्नमपि भवतु दोषो नास्ति । यदि च भिन्नज्ञानेन झानी भवति तहिं परकीयज्ञानेन सर्वेपि कुम्भस्तम्भादिजडपदार्था ज्ञानिनो भवन्तु न च तथा । गाणं परिण वि सयं यत एव भिन्नज्ञानेन ज्ञानी न भवति तत एव घटोत्पत्तो मृत पिण्ड इव स्वयमेवोपादानरूपेणात्मा शानं परिणमति । अवा णाट्ठिया सम्वे व्यवहारेण ज्ञेयपदार्था आदर्श विम्बमिव परिच्छित्याकारेण ज्ञाने तिष्ठन्तीत्यभिप्रायः ॥३५।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा अपने से भिन्न किसी ज्ञान के द्वारा ज्ञानी नहीं होता है अर्थात् ज्ञान और आत्मा का सर्वथा भेद नहीं है, किसी अपेक्षा से भेद है । वास्तव में ज्ञान और आत्मा अभिन्न हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो जाणव) जो कोई जानता है (सो णाणं) सो ज्ञान गुण अथवा ज्ञानी आत्मा है। जैसे संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि के कारण मग्नि और उसके उष्ण गुण का भेव होने पर भी अभेव नय से जलाने की क्रिया करने को समर्थ उष्ण गुण के द्वारा परिणमती हुई अग्नि भी उष्ण कही जाती है तैसे संज्ञा लक्षणादि के द्वारा ज्ञान और आत्मा का भेद होने पर भी पदार्थ और क्रिया के जानने को समर्थ ज्ञान गुण के द्वारा परिणमन करता हुआ आत्मा भी ज्ञान या ज्ञानरूप कहा जाता है ऐसा ही कहा गया है। "जानातीति ज्ञानमात्मा' कि जो जानता है सो ज्ञान है और सो ही आत्मा है। (आवा) आत्मा (णाणेण) भिन्न ज्ञान के कारण से (जाणगो) जानने वाला ज्ञाता (ण हवदि) नहीं होता है । किसी का ऐसा मत है कि जैसे भिन्न वन्तीले (हसिया) से देवदत्त घास का काटने वाला होता है वैसे भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञाता होवे तो कोई दोष नहीं है। उसके लिये कहते हैं कि ऐसा नहीं हो सकता है। घास छेदने की क्रिया के सम्बन्ध में बंतीला (हसिया) बाहरी उपकरण है सो भिन्न हो सकता है परन्तु भीतरी उपकरण देवदत्त की छेदन किया सम्बन्धी शक्ति विशेष है सो वेतदत्त से अभिन्न ही है, भिन्न नहीं है। तंसे ही ज्ञान की क्रिया में उपाध्याय, प्रकाश, पुस्तक आदि बाहरी उपकरण भिन्न हैं, तो हों, इसमें कोई Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] बोष नहीं है। परन्तु ज्ञान शक्ति भिन्न नहीं है वह आत्मा से अभिन्न है। यदि ऐसा मानोगे कि भिन्न शान से आत्मा ज्ञानो हो जाता है तब दूसरे के ज्ञान से अर्थात् भिन्न ज्ञान से सर्व ही कंभ, खंभा आदि जड़ पदार्थ भी शानी हो जायेंगे सो ऐसा होता नहीं । (णाणं) ज्ञान (सय) आप ही (परिणमदि) परिणमन करता है अर्थात् जब भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं होता है तब जसे घट की उत्पत्ति में मिट्टी का पिड स्वयं उपादानकारण से परिणमन करता है वसे पदार्थों के जानने में ज्ञान स्वयं उपादानकारण से परिलमल करता है तसा हा गाठा) मानहारनय से सब ही ज्ञेय पदार्थ (णाठिया) ज्ञान में स्थित हैं अर्थात् जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब पड़ता है तैसे ज्ञेय पदार्थ ज्ञानाकार से ज्ञान में झलकते हैं, ऐसा अभिप्राय है ॥३५॥ अथ कि ज्ञानं कि ज्ञेयमिति व्यक्ति तम्हा जाणं जीवो यं वत्वं तिहा समक्खादं । 'दव्वं ति पुणो आवा परं च परिणामसंबद्धं ॥३६॥ तस्मात् ज्ञान जीवो ज्ञेयं द्रव्यं त्रिधा समाख्यातम् । द्रव्यमिति पुनरात्मा परश्च परिणामसंबद्धः ।।३६।। यतः परिच्छेदरूपेण स्वयं विपरिणस्य स्वतन्त्र एव परिच्छिनत्ति ततो जीव एव ज्ञानमन्यद्रव्याणां तथा परिणन्तं परिच्छेत्तं चाशक्तेः । ज्ञेयं तु वृत्तवर्तमानपतिष्यमाणविचित्रपर्यायपरम्पराप्रकारेण विधाकालकोटिस्पशित्वादनाद्यनन्तं द्रव्यं, तत्तु ज्ञेयतामापद्यमानं द्वेधात्मपरविकल्पात् । इष्यते हि स्वपरपरिच्छकत्वादवबोधस्य बोध्यस्यैवंविधं वैविध्यम् । ननु स्वात्मनि क्रियाविरोधात् कथं नामात्मपरिच्छेदकत्वम् । का हि नाम किया कीदृशश्च विरोधः । क्रिया ह्यत्र विरोधिनी समुत्पत्तिरूपा वा ज्ञप्तिरूपा धा। उत्पत्तिरूपा हि तावन्नक स्वस्मात्प्रजायत इत्यागमाद्विवेव । ज्ञप्तिरूपायास्तु प्रकाशनक्रिययय प्रत्यवस्थितत्वान्न तत्र विप्रतिषेधस्यावतारः । यथा हि प्रकाशकस्य प्रदीपस्य परं प्रकाश्यतामापन्न प्रकाशयतः स्वस्मिन् प्रकाश्यते न प्रकाशान्तरं मन्यं, स्वयमेव प्रकाशनक्रियायाः समुपलम्भात् । तथा परिच्छेदकस्यात्मनः परं परिच्छेद्यतामापन्न परिच्छिन्दत: स्वस्मिन् परिच्छेद्ये न परिच्छेदकान्तरं मृन्यं, स्वमेव परिच्छेदनक्रियायाः समुपलम्भात् । ननु कुत आत्मनो द्रव्यज्ञानस्वरूपत्वं द्रव्याणां च आत्मज्ञेयरूपत्वं च । परिणामसं. १. दवति (ज. वृ०)। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ) [ पक्यणसारो वन्धत्वात् । यतः खलु आत्मा द्रव्याणि च परिणामः सह संबध्यन्ते, तत आत्मनो द्रव्यालम्बनज्ञानेन द्रव्याणां तु ज्ञानमालम्ब्य ज्ञेयाकारेण परिणतिरबाधिता प्रतपति ॥३६॥ भूमिका- अब क्या ज्ञान है और क्या जेय है, यह व्यक्त करते हैं अन्वयार्थ-[तस्मात् जीवः ज्ञानं ] इस कारण से (पूर्व सुत्र अनुसार) आत्मा ही ज्ञान है। [ज्ञेयं द्रव्यं ] ज्ञेय द्रव्य है (कि जो द्रव्य) [त्रिधा समाख्यातं] (तीन काल की पर्याय की परिणति रूप से,) तीन प्रकार कहा गया है [द्रव्यं इति पुनः आत्मा परं च] और वह जेय-भूत द्रव्य आत्मा स्व और पर है, (आत्मा के स्व-पर-द्रव्यों का जानपना और द्रव्यों के आत्मा का ज्ञेयरूपपना किस भारत है ? उत्तर) [परिणामसंबद्धः] वे अपनेअपने ज्ञान और ज्ञेय परिणामों से सम्बन्धित हैं.परिणाम वाले हैं । उस रूप परिणत होते हैं। आत्मा और द्रव्य कुटस्थ नहीं हैं। वे समय-समय पर परिणमन किया करते हैं। इसलिये आत्मा झान-स्वभाव से और द्रव्य ज्ञेय-स्वभाव से परिणत होते हैं। इस प्रकार जान स्वभाव से पारेणत आत्मा के ज्ञान के आलम्बनभूत द्रव्यों को जानता है और ज्ञेयस्वभाव से परिणत द्रव्य, ज्ञय के आलम्बनभूत ज्ञान में (-आत्मा में) ज्ञात होते हैं। टीका-क्योंकि पूर्व गाथा के कथनानुसार (जीव) ज्ञान रूप से स्वयं परिणत होकर स्वतन्त्र हो जानता है इसलिये 'जीव ही जान है' क्योंकि अन्य द्रव्यों के इस प्रकार (ज्ञान रूप) परिणत होने के लिये तथा जानने के लिये असमर्थता है। ज्ञेय तो पहले वर्त चुकी (भूत) अब वर्त रहो (वर्तमान) और आगे वर्तने वाली (भविष्यत्) ऐसी विचित्र (विभिन्न) पर्यायों की परम्परा के प्रकार से तीन प्रकार काल-कोटि को स्पर्शपना होने से, अनावि अनन्त अच्य है। जेयपने को प्राप्त हुआ वह द्रव्य आत्मा स्व और पर भेद से दो प्रकार है । वास्तव में ज्ञान के स्व-पर का जानपना होने से ज्ञेय की इस प्रकार द्विविधता कही जाती है। प्रश्न-अपने में ही क्रिया (हो सकने) का विरोध होने से (आत्मा के) अपना आनपना कैसे है ? (अर्थात् ज्ञान स्वप्रकाशक कैसे है ?) उत्तर-क्रिया क्या है और किस प्रकार का विरोध है ? यहां (प्रश्न में) जो विरोधी क्रिया कही गई है वह या तो उत्पत्तिरूप क्रिया होगी या ज्ञप्ति रूप होगी। प्रथम, उत्पत्तिरूप किया, "अकेला स्वयं अपने में से उत्पन्न नहीं हो सकता' इस आगम-कथन अनुसार, विरुद्ध ही है। (परन्तु) ज्ञप्ति रूप किया के, प्रकाशन क्रिया की भांति, उत्पत्ति क्रिया से Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ८५ विरुद्धपमा (भिन्नपना) होने से विरोध का प्रसंग नहीं है। जैसे वास्तव में प्रकाश्यता को प्राप्त पर (अध्यों) को प्रकाशित करने वाले प्रकाशक दीपक के अपने प्रकाशित करने में, अन्य प्रकाशक को ढूंढने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि (उसके) स्वयमेव प्रकाशक क्रिया की प्राप्ति है (अर्थात् वह ज्ञान स्वयं प्रकाशमय है) इस ही प्रकार ज्ञेयता को प्राप्त पर (पदापों) को जानने वाले ज्ञाता आत्मा के अपने ज्ञेय में (अपने को जानने-पने में अन्य जानने वाले (जायक) को ढंढने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि (उसके) स्वयमेव ज्ञानक्रिया की प्राप्ति है (अर्थात् वह स्वयं ज्ञानमय है)। इससे सिद्ध हुआ कि ज्ञान स्व को भी जानता है। प्रश्न-आत्मा के द्रव्यों की ज्ञानरूपता (जानपना) और द्रव्यों के आत्मा की जयरूपता (जानपना) किस कारण से है ? उत्तर-थे (ज्ञायक आत्मा और द्रव्य) परिणाम वाले होने से । क्योंकि वास्तव में आत्मा और द्रच्च परिभानों के साथ संबन्धित है, इसलिये आत्मा के, द्रव्य जिसका आलम्बन है ऐसे, ज्ञानरूप से परिणति और द्रव्यों के, ज्ञान को आलम्बन लेकर ज्ञेयाकार रूप से परिणति अबाधित रूप से बनती है। तात्पर्यवत्ति अथात्मा ज्ञानं भवति शेषं तु यमित्यावेदयति,-- तम्हा जाणं जीवो यस्मादात्मवोपादानरूपेण ज्ञान परिणमति तथैव पदार्थान् परिछिनत्ति, इति भणितं पूर्वसूत्र । तस्मादात्मैव ज्ञानं यं वयं तस्य ज्ञानरूपस्यात्मनो ज्ञेयं भवति । कि? द्रव्यम् । सिहा समक्खादं तच्च द्रव्यं कालत्रयपर्यायपरिणतिरूपेण द्रव्यगुणपर्याय रूपेण वा तथैवोत्पादव्ययधोव्य. रूपेण च विधा समाख्यातम् । दरवत्ति पुणो आवा परं च तच्च ज्ञेयभूतं द्रध्यमात्मा भवति । परं च । कस्मात् ? यतो ज्ञानं स्वं जानाति परं चेति प्रदीपवत् । तच्च स्वपरद्रव्यं कथंभूतं ? परिणामसंबई कथंचित्परिणामीत्यर्थः । नैयायिकमतानुसारी कश्चिदाह-ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं प्रमेयत्वात् घटादिवत् परिहारमाह-प्रदीपेन व्यभिचारः, प्रदीपस्तावत्प्रमेयः परिच्छेद्यो ज्ञेयो भवति न च प्रदीपान्तरेण प्रकाश्यते, तथा ज्ञानमपि स्वयमेवात्मानं प्रकाशयति न च ज्ञानान्तरेण प्रकाश्यते। यदि पुनसानान्तरेण प्रकाश्यते । तहि गगनावलम्बिनी महतो दुनिवारानवस्था प्राप्नोतीति सूत्रार्थः ।।३६।। एवं निश्चयश्रुतकेवलि व्यवहारश्रुत केवलिकथनमुख्यत्वेन भिन्नज्ञाननिराकणेन ज्ञामज्ञे यस्त्ररूपकथनेन च चतुर्थस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । उत्थानिका-आगे बताते हैं कि आत्मा ज्ञान रूप है तथा अन्य सर्व ज्ञेय हैं अर्थात् ज्ञान और ज्ञेय का भेद प्रगट करते हैं Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] [ पवयणसारो अन्वय सहित विशेषार्थ - क्योंकि आत्मा ही अपने उपादान रूप से ज्ञानरूप परिणमन करता है तैसे ही पदार्थों को जानता है ऐसा पूर्व सूत्र में कहा गया है ( तम्हा) इसलिये (जीव ) आत्मा हो ( णाणं) ज्ञान है। (णेयं दध्यं) उस ज्ञानस्वरूप अत्मा का ज्ञेय द्रव्य ( तिहा) तीन प्रकार अर्थात् भूत, भविष्य, वर्तमान पर्याय में परिणमन रूप से या द्रव्य गुण पर्याय रूप से या उत्पादव्यय- ध्रौध्य रूप से ऐसे तीन प्रकार ( समक्खाद ) कहा गया है । ( पुणे ) तथा ( परिणामसंबद्धः ) किसी अपेक्षा परिणमनशील (अवा च परं ) आत्मा और पर द्रव्य ( दव्वं ति ) द्रव्य हैं तथा क्योंकि ज्ञान दीपक के समान अपने को भी जानता है और पर को भी जानता है इसलिये आत्मा भी ज्ञेय है । चलने वाला कोई जैसे घट आवि । यहां पर नयायिक मत के अनुसार कहता है कि ज्ञान दूसरे ज्ञान से जाना जाता है क्योंकि वह प्रमेय है अर्थात् ज्ञान स्वयं आपको नहीं जानता है। इसका समाधान करते हैं कि ऐसा कहना दीपक के साथ व्यभिचार रूप है। क्योंकि प्रदीप अपने आप प्रमेय या जानने योग्य ज्ञेय है उसके प्रकाश के लिये अन्य की आवश्यकता नहीं है। जैसे ही ज्ञान भी अपने आप हो अपने आत्मा को प्रकाश करता है उसके लिये अन्य ज्ञान के होने की जरूरत नही है। ज्ञान स्वयं स्व-पर- प्रकाशक है । यदि ज्ञान दूसरे ज्ञान से प्रकाशता है तब वह ज्ञान फिर दूसरे ज्ञान से प्रकाशता है ऐसा माना जायगा तो अनंत आकाश में फैलने वाली व जिसका दूर करना अति कठिन है, ऐसी अनवस्था प्राप्त हो जायगी सो होता सम्मत नहीं है । इसलिये ज्ञान स्व पर प्रकाशक है, ऐसा सूत्र का अर्थ है । इस तरह निश्चय श्रुतकेवली, व्यवहार- श्रुतकेवली के कथन की मुख्यता से आत्मा के ज्ञान स्वभाव के सिवाय भिन्न ज्ञान को निराकरण करते हुए तथा ज्ञान और ज्ञेय का स्वरूप कथन करते हुए चौथे स्थल में चार गाथाएं पूर्ण हुई || ३६ | अथातिवाहितानागतानामपि ब्रध्यपर्यायानां तादात्विकवत् पृथक्त्वेन ज्ञाने वृत्तिमु द्योतयति तक्कालिगेव सच्चे सदसन्भूदा हि पज्जया तासि । वर्द्धते ते णाणे विसेसवो दव्वजादोणं ॥ ३७॥ तात्कालिका इव सर्वे सदसद्भूताः हि पर्यायतासाम् । वर्तन्ते ते ज्ञाने विशेषतो द्रव्यजातीनाम् ॥३७॥ सर्वासामेव हि द्रव्यजातीनां त्रिसमयावच्छिन्नात्मलाभ भूमिकत्वेन क्रम प्रतपत्स्वरूपसंपदः सद्भूतासभूततामायान्तो ये यादन्तः पर्यायास्ते तावन्तस्तात्कालिका इवात्यन्तसंकरे Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ [ पवयणसारो ] णाप्यवधारितविशेषलक्षणा एकक्षण एवायबोधसोधस्थितिमवतरन्ति । न खल्वेतदयुक्तंवृष्टाविरोधात् । दृश्यते हि छद्मस्थस्यापि वर्तमानमिव व्यतीतमनागतं वा वस्तु चिन्तयतः संविदालम्बितस्तवाकारः । किच चित्रपटोस्थानीयत्वात् संविदः । यथा हि चित्रपटयामतिवाहितानामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तुनामा लेख्याकाराः साक्षारेकक्षण एवावभासन्ने, तथा संविद्धित्तावपि । किञ्च सर्वज्ञेयाकाराणां तात्विकत्याविरोधात् । यथा हि प्रध्वस्तानामनुदितानां च वस्तूनामा लेख्याकारा वर्तमाना एव तथातीतानामनागतानां च पर्यायाणां ज्ञेयाकारा, वर्तमाना एव भवन्ति ||३७|| 1 भूमिका – अब, अतीत (भूत) और अनागत ( भविष्यत्) द्रव्यपर्यायों की भी, तात्कालिक (वर्तमान) पर्यायों की भांति पृथक रूप से ज्ञान में वृत्ति को उद्योत करते हैं ( प्रगट करते हैं ) ( अतीत और अनागत पर्यायें ज्ञान में वर्तमान पर्यायों की तरह देखी जाती हैं- ऐसा निरूपण करते हैं ) ..... अन्वयार्थ --- [ तासां द्रव्यजातीनां ] उन प्रसिद्ध जीवादिक द्रव्य जातियों की [ते सर्वे ] वे समस्त [सदसद्भूताः पर्यायाः ] सभूत ( विद्यमान - वर्तमान) और असभूत ( अविद्यमान भूत, भविष्यत्) पर्यायें [ तात्कालिका इव] वर्तमान पर्यायों की भांति | विशेषतः ] विशेषता से ( अपने-अपने भिन्नस्वरूप सहित ) [ ज्ञाने] केवलज्ञान में [ वर्तन्ते ] वर्तती हैं प्रतिभासित होती हैं- स्फुरायमान होती हैं । टीका -- वास्तव में समस्त हो (ओवादिक) द्रव्य-जातियों की पर्यायों की उत्पत्ति की मर्यादा तीनों काल की मर्यादा जितनी होने से (वे तीनों कालों में उत्पन्न हुआ करती हैं इसलिये ) क्रम पूर्वक तपती हुई स्वरूप-सम्पदा वाली ( एक के बाद दूसरी प्रगट होने वाली), विद्यमानता और अविद्यमानता को प्राप्त जो जितनी पर्यायें हैं, वे सब, अत्यन्त मिश्रित होने पर भी विशेष लक्षण को धारण किये हुए एक समय में ही, वर्तमान कालीन पर्यायों की भांति, ज्ञान- मन्दिर में स्थिति को प्राप्त होती हैं । यह (तीनों काल की पर्यायों का वर्तमान पर्यायों की भांति ज्ञान में ज्ञात होना) ( अयुक्त (भी) नहीं है क्योंकि ( १ ) ( उसका ) दृष्ट के साथ ( जगत् में जो दिखाई देता हैअनुभव में आता है उसके साथ) अविरोध है । जगत् में) दिखाई देता है कि जैसे वर्तमान वस्तु को चिन्तवन करते हुए छद्मस्थ के ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है उसी प्रकार भूत, भविष्यत् वस्तु का विन्तवन करते हुए छवास्थ के भी, ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है ( जानता है) । ( २ ) ज्ञान चित्रपट के समान है। , Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] ! पवयणसारो जैसे वास्तव में चित्रपट में अतीत, अनागत और वर्तमान वस्तुओं के आलेख्याकार (चित्र) साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं, इसी प्रकार ज्ञान-भित्ति में भी (ज्ञान भूमिका में भी, ज्ञान-पट में भी अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायों के ज्ञेयाकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं) (३) सर्व ज्ञेयाकारों की तात्कालिकता (वर्तमानता) अविरुद्ध है। जैसे नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओं के आलेख्याकार वर्तमान ही हैं, इसी प्रकार अतीत और अनागत पर्यायों के ज्ञेयाकार वर्तमान ही हैं। तात्पर्यवृत्ति अथातोतानागतपर्याया वर्तमान ज्ञाने सांप्रता इव दृश्यन्त इति निरूपयति, सम्वे सवसम्भूवा हि पज्जया सर्वे सद्भूता असद्भूता अपि पर्यायाः ये हि स्फुट वट्टते ते पूर्वोक्ता पर्याया वर्तन्ते प्रतिभासन्ते प्रतिस्फुरन्ति । क्व ? णाणे केवलज्ञाने। कथंभूता इव ? तपकालिगेय तात्कालिका इव वर्तमाना इव । कासां सम्बन्धिनः ? तासि दवजावीणं तासां प्रसिद्धानां शुद्धजीवद्रव्यजातीनामिति । व्यवहित सम्बन्धः कस्मात ? विसमतो स्वकीयस्वकीयपदेशकालाकारविशेषः सतरव्यतिकरपरिहारेणेत्यर्थः। किंच-यथा छमस्थपुरुषस्यातीतानागतपर्याया मनसि चिन्तयतः प्रतिस्फुरन्ति, यया च चित्रभित्तो बाहुबलिभरतादिव्यतिक्रान्तरूपाणि श्रेणिकतीर्थकरादिभाविरूपाणि च वर्तमानानीव प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते तथा चित्रभित्तिस्थानीयकेवलज्ञाने भूतभाविनश्च पर्याया युगपत्प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते, नास्ति विरोधः। यथायं केवली भगवान परम्पपर्यायान परिच्छित्तिमात्रेण जानाति न च तन्मयत्वेन निश्चयेन तु केवलज्ञानादिगुणाधारभूतं स्वकीयसिद्धपर्यायमेव स्वसंवित्याकारेण तन्मयो भूत्वा परिच्छिमत्ति जानाति, तथासनभव्यजीवेनापि निजात्मसम्यक्त्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयपर्याय एव सर्वतात्पर्येण ज्ञातव्य इति तात्पर्यम् ॥३७॥ ___ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा के वर्तमान ज्ञान में अतीत और अनागत पर्यायें वर्तमान के समान दिखती हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(तासि दध्वजावीणं) उन प्रसिद्ध शुद्ध जीव द्रव्यों को व अन्य द्रव्यों की (ते) वे पूर्वोक्त (सब्वे) सर्व (सबसम्मूदा) सद्भत और असङ्कत अर्थात् वर्तमान और भूत तथा भविष्य काल की (पज्जया) पर्याय (हि) निश्चय से या स्पष्ट रूप से (णाणे) केवलज्ञान में (विसेसदो) विशेष करके अर्थात् अपने-अपने प्रदेश, काल, आकार आदि भेदों के साय संकर व्यतिकर वोष के बिना (तक्कालिगेव) वर्तमान पर्यायों के समान (बट्टते) वर्तती हैं, अर्थात् प्रतिभासती हैं या स्फरायमान होती हैं। ___ भाव यह है कि जैसे छमस्थ अल्पज्ञानी मति श्रुतज्ञानी पुरुष के भो अंतरंग में मन से विचारते हुए पदार्यों को भूत और भविष्य पर्याय प्रगट होती हैं अथवा जैसे चित्र Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो } [ ६ मयी भींत पर बाहुबलि भरत आदि के भूतकाल के रूप तथा श्रेणिक तीर्थंकर आवि भावी काल के रूप वर्तमान के समान प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ते हैं तंसे मींत के चित्र समान केवलज्ञान में भूत और भावी अवस्थाएँ भी एक साथ प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ती हैं इसमें कोई विरोध नहीं है। तथा जैसे यह केवली भगवान् परद्रव्यों को पर्यायों को उनके ज्ञानाकार मात्र से जानते हैं, तन्मय होकर नहीं जानते हैं, परन्तु निश्चय करके केवलज्ञान आदि गुणों का आधार भूत अपनी ही सिद्ध पर्याय को ही स्वसंवेवन या स्वानुभव रूप से तन्मयी हो जानते हैं, तंसे निकट भव्य जीव को भी उचित है कि अन्य द्रों का ज्ञान रखते हुए भी अपने शुद्ध आत्म-द्रव्य की सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा चारित्र रूप निश्चयरत्नत्रयमयी अवस्था को ही सर्व तरह से तन्मय होकर जाने तथा अनुभव करे, यह तात्पर्य है । भावार्थ- श्री सर्वजदेव भूतकाल के निश्चित प्रमाण को और सर्व पर्यायों को जानते हैं। इससे भूतकाल का या भूत पर्यायों को आदि नहीं हो जाती, क्योंकि मूतकाल के निश्चित प्रमाण के मात्र ज्ञान हो जाने से भूतकाल का आदि अभवा भूत पर्यायों का आबि नहीं हो जाता । यदि प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होने से आदि मान लिया जाये तो असत् द्रव्य के उत्पाद का अथवा ईश्वर-कर्तृत्व का प्रसंग आ जायगा । इसी प्रकार भविष्य पर्याय केवली द्वारा ज्ञात हो जाने से सब पर्यायें सर्वथा नियत या क्रमबद्ध नहीं हो जातीं क्योंकि सर्व पर्यायों को सर्वथा नियत मान लेने पर मोक्षमार्ग के उपदेश के अभाव का प्रसंग आ जायगा । दृष्टिवाद अङ्ग में सर्वज्ञ के द्वारा नियतिवाद एकान्त मिथ्यात्य कहा गया है, उससे विरोध आ जायेगा। नियतिवाद एकान्त मिथ्यात्व का स्वरूप श्री पंचसंग्रह में निम्न प्रकार कहा है यथा यथा यत्र यतोऽस्ति येन यत्, तदा तथा तत्र ततोऽस्ति तेन तत् । स्फुटं नियत्येह नियंत्रयमाणं, परो न शक्तः किमपीह कर्तुं म् ॥ ३१२ ॥ अर्थ - जिसका जहाँ जब जिस प्रकार जिससे जिसके द्वारा जो तब तहाँ तिसका तिस प्रकार उससे उसके द्वारा यह होना नियत है । नहीं कर सकता । ऐसा मानना एकान्त नियतिवाद मिध्यात्व है । जत्तु जवा जेण जहा अस्स य नियमेण होषि तत्त तदा । तेथ तहा तस्स हवे इदिवादो पियदिवायो यु ॥ ६८२ ॥ [ गो० क० अर्थ — जो जिस समय जिससे जैसे जिसके नियम से होता है वह उस समय उससे से ही उसके ही होता है। ऐसा सब वस्तु मानना नियतिवाद एकान्त मिध्यात्व है । होना होता है अन्य कोई कुछ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पवयणतारो सर्व पर्यायों को सर्वथा नियत (क्रमबद्ध) मानने से संयम के अभाव का भी प्रसंग आता है । भोगभूमिया मनुष्यों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि भी हैं, वनवृषभनाराच संहनन वाले भी हैं और शुभलेश्या वाले हैं फिर भी वे संयम धारण नहीं कर सकते, क्योंकि उनकी आहार पर्याय नियत है। यदि इसी प्रकार कर्मभूमिया आर्य मनुष्यों के भी आहार पर्याय नियत होती तो वे भी संयम धारण न कर सकते और संयम के अभाव से मोक्ष भी न होती। कर्म-भूमिया मनुष्यों की इच्छा पर निर्भर है कि वे दिन में कई बार भोजन करें, रात को भी भोजन करें, अथवा एक-दो दिन या पक्ष मासोपवास करें। सप्त ध्यसन को सेवन करें या उसका त्याग करें। यह सब कर्म-भूमिया मनुष्यों की इच्छा के अधीन है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सर्व पर्याय सर्वथा नियत नहीं हैं। इसलिए सर्वज्ञदेव ने नियतिवाद को मिथ्यात्व कहा है। जो पर्याय जैसी है उसको उसी रूप से सर्वज्ञ जानता है । अनादि (जिसके काल को आदि नहीं है) उसको अनादि रूप से, अनन्त (जिसके क्षेत्र, संख्या या काल का अन्त नहीं है) उसको अनन्त रूप से और अनियत (जिसका काल नियत नहीं) उसको अनियत हले जानता है, इसमे सर्तल को कुछ हानि नहीं होती है। अन्यथा जानने में सर्वज्ञ व सम्य ज्ञान की हानि होती है। अथासद्भुतपर्यायाणां कथंचित्सत्भूतत्वं विवधाति जे व हि 'संजादा जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया। ते होंति असम्भूवा पज्जाया णाणपच्चक्खा ॥३८॥ ये नैध हि संजाता ये खलु नष्टा भूत्वा पर्यायाः । ते भवन्ति असद्भूताः पर्याया ज्ञानप्रत्यक्षाः ॥३८॥ ये खलु नाद्यापि संभूतिमनु भवन्ति, ये चात्मलाममनुभूय विलयमुपगतास्ते किलासभूता अपि परिच्छेदं प्रति नियतत्वात् ज्ञानप्रत्यक्षतामनुभवन्तः शिलास्तम्भोत्कीर्ण भूतभाविदेववदप्रकम्पापितस्वरूपाः सद्भूता एव भवन्ति ॥३८॥ भूमिका-अब, अविद्यमान (भूत भविष्यत्) पर्यायों की भी कथंचित् (कोई प्रकार से, कोई अपेक्षा से) विद्यमान को बतलाते हैं अन्वयार्थ-[ये पर्यायाः] जो पर्यायें [हि] वास्तव में |नव संजाताः] उत्पन्न नहीं हुई हैं (भविष्य) तथा [ये पर्यायाः] जो पर्यायें [खलु] वास्तव में [भूत्वा नष्टाः] १. संजाया (ज० वृ०), २. असञ्भूया (जा ) । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागसारो । [ ६१ उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं (भूत) [ते असभूताः पर्यायाः] वे अविद्यमान (भूत, भविष्य) पर्यायें [ज्ञानप्रत्यक्षाः भवन्ति] ज्ञान में प्रत्यक्ष होती हैं। टीका-जो (पर्यायें) अभी तक भी उत्पन्न नहीं हैं और जो उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं, वास्तव में अविद्यमान होने पर भी, ज्ञान के प्रति नियत होने से (ज्ञान में निश्चित ज्ञात होने से) ज्ञान में प्रत्यक्ष वर्तने वाली, पाषाण स्तम्भ में उत्कीर्ण भूत और भावी देवों को (मूर्ति) मोति, अपने स्वरूप को अकम्पतया (ज्ञान को) अपित करने के स्वरूप वाली, वे (पर्याय) विद्यमान ही हैं । (भवन्ति क्रिया का कर्ता पर्याय हैं) ॥३८॥ तात्पर्यवत्ति अथातीतानागतपर्यायाणामसद्भुतसंज्ञा भवतीति प्रतिपादयति - जे व हि संजाया जे खस पट्ठा भवीय पन्जाया ये नैव संजाता नाद्यापि भवन्ति, भाविन इत्यर्थः। हि स्फुटं ये च खलु नष्टाः विनष्टा: पर्यायाः । कि कृत्वा ? भूत्वा ते होंति असम्भूया पज्जाया ते पूर्वोक्ता भता भाविनश्च पर्याया अविद्यमानत्वादसदभूता भण्यन्ते । णाणपश्चक्खा ते चाविद्यमानत्वादसभूता अपि वर्तमानज्ञानविषयत्वाद्व्यवहारेण भूतार्था भण्यन्ते, तथव ज्ञान प्रत्यक्षाश्वेति । यथार्य भगवान्निश्चयेन परमानन्द कलक्षणसुखस्वभावं मोक्षपर्यायमेव तन्मयत्वेन परिच्छिनत्ति, परद्रव्यपर्यायं तु व्यवहारेणेति । तथा भावितात्मना पुरुषेण रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वसंवेदनपर्याय एव तात्पर्येण ज्ञातभ्यः, बहि व्यपर्यायाश्च गौणवृत्त्येति भावार्थः ॥३८॥ उत्थानिका-आगे आचार्य दिखलाते हैं कि पूर्व गाथा में जो असद्भूत शब्द कहा है वह संज्ञा भूत और भविष्यत् की पर्यायों को दी गई है ___अन्वय सहित विशेषार्थ-(जे पज्जाया) जो पर्याय (णेव हि संजाया) निश्चय से। अभी नहीं पैदा हुई हैं (जो खलु भवीय गठ्ठा) तथा जो निश्चय से होकर विनाश हो गई हैं (ते) वे भूत और भावी पर्याय (असम्भूया) असद्भुत या अविद्यमान (पज्जाया) पर्याय (होति) हैं, (णाण पच्चक्खा) परन्तु वे सर्व पर्याय यद्यपि इस समय में विद्यमान न होने से असद्भूत है तथापि वर्तमान केवलज्ञान का विषय होने से उपचार से भतार्थ अर्थात् सत्यार्थ या सद्भुत कही जाती हैं क्योंकि वे सब ज्ञान में प्रत्यक्ष हो रही हैं।। जैसे यह भगवान केवलज्ञानी निश्चयनय से परमानंद एक लक्षणमयी सुख-स्वभाव रूप मोक्ष अवस्था या पर्याय को ही तन्मय होकर जानते हैं परन्तु पर द्रव्य को व्यवहार नय से, तैसे ही आत्मा की भावना करने वाले पुरुष को उचित है कि वह रागादि विकल्पों को उपाधि से रहित स्वसंवेदन पर्याय को ही सर्व तरह से जाने और अनुभव करे तथा बाहरी द्रव्य और पर्यायों को गौण रूप से उदासीन रूप से जाने ॥३८॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ परयणसारो अर्थतदेवासद्भूतानां ज्ञानप्रत्यक्षत्वं दृढ़यति जदि' पच्चक्खमजादं पज्जायं पलयिदं च णाणस्स । ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेति ॥३॥ ___ यदि प्रत्यक्षोऽजात: पर्याय: प्रलयितश्च ज्ञानस्य । न भवति वा तत् ज्ञानं दिव्यमिति हि के प्रस्तारित ३६। यदि खल्वसंभावितभावं संभावितभावं च पर्यायजातमप्रतिविम्मिताखण्डितप्रतापप्रभुशक्तितया प्रसभेनैव नितान्समाक्रम्याक्रमसमर्पितस्वरूपसर्वस्वगात्मानं प्रतिनियतं ज्ञानं न करोति, तवा तस्य कुतस्तनी दिव्यता स्यात् । अतः काष्ठाप्राप्तस्य परिच्छेवस्य सर्वमेतदुपपन्नम् ॥३६॥ भूमिका-अब, अविद्यमान (भूत, भविष्यत्) पर्यायों के इस ही (वर्तमान) ज्ञान प्रत्यक्षपने को दृढ़ करते हैं अन्वयार्च-[यदि] जो [अजातः पर्याय:] अनुत्पन्न (भावी) पर्याय [च] तथा प्रलयितः] नष्ट (भूत) पर्याय [ज्ञानस्य] केवलज्ञान के [प्रत्यक्षः न भवति] प्रत्यक्ष न हो तो [तत् ज्ञान] वह ज्ञान [दिव्यं] दिव्य है [इति] ऐसा [के प्ररूपयन्ति ] कौन प्ररूपेंगे (अर्थातु कोई नहीं कहेंगे)। टीका-जिसने अस्तित्व का अनुभव नहीं किया, और जो अस्तित्व का अनुभव कर चुकी है, तथा जिसने स्वरूप सर्वस्व को युगपत् समर्पित कर दिया है, ऐसे (अनुत्पन्न और नष्ट) पर्याय-समूह को, यदि वास्तव में ज्ञान, निविघ्न विकसित अखण्डित प्रतापयुक्त शक्ति के द्वारा बलात् ही अत्यन्त आक्रान्त करके (प्राप्त करके), अपने नियत न करे (प्रत्यक्ष न जाने), तो उस ज्ञान की कौन सी दिव्यता होचे (अर्थात कोई दिव्यता न होवे)। इससे (यह कहा गया है कि) पराकाष्ठा को प्राप्त ज्ञान के लिये यह सब योग्य (हो) है।॥३६॥ तात्पर्यवृत्ति अथासद्भूतपर्यायाणां वर्तमानज्ञान प्रत्यक्षत्वं दृढयति, जाइपच्चक्खमजायं पज्जायं पलइयं च णाणस्स ण हववि वा यदि प्रत्यक्षो न भवति । स कः? अजातपर्यायो भाविपर्यायः । न केवलं भाविपर्यायः प्रलयितश्च वा । कस्य ? ज्ञानस्य तं गाण विध्वं त्ति हिके परूवेति तद्ज्ञानं दिव्यमिति के प्ररूपयन्ति ? न केपीति । तथाहि-यदि वर्तमानपर्यायवदतीतानागतपर्यायं ज्ञानं कर्तृ क्रमकरणव्यवधानरहितत्वेन साक्षात्प्रत्यक्षं न करोति, तहिं तत् ज्ञानं दिव्यं न भवति । वस्तुतस्तु शानमेव न भवतीति । यथार्य केवली परकीयाव्यपर्यायान् यद्यपि परिच्छित्तिमात्रण जानाति तथापि निश्चयनयेन सहजानन्द कस्वभावे स्वगुद्धात्मनि तन्मयत्वेन परिच्छिति करोति, तथा निर्मलविवेकीजनोपि यद्यपि व्यवहारेण परकीयद्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानं करोति, तथापि निश्चयेन निर्विकारस्वसंवेदनपर्याये विषयत्वात्पर्यायेण परिज्ञानं करोतीति सूत्रतात्पर्यम् ॥३६॥ १. जइ (ज० वृ०) । २. पच्चनखमजायं (ज० पृ.) । ३. पलइयं (ज० वृ०) । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारी ] उत्थानिका-आगे इसी बात को दृढ़ करते हैं कि असद्भूत पर्यायें ज्ञान में प्रत्यक्ष हैं-- ___अन्वय सहित विशेषार्थ-(जदि) यदि (अजादं) अनुत्पन्न-जो अभी पैदा नहीं हुई हैं ऐसी भावी (च पलइयं) तथा जो चली गई ऐसी भूत (पज्जायं) पर्याय (णाणस्स) केवलज्ञान के (पच्चपखं) प्रत्यक्ष (ण हवदि) न हो (वा) तो (तं गाणं) उस ज्ञान को (वित्ति) दिव्य अर्थात् अलौकिक अतिशय रूप (हि) निश्चय से (के) कौन (पविति) कहें ? अर्थात् कोई भी न कहें। भाव यह है कि यदि वर्तमान पर्याय की तरह भूत और भावी पर्याय को केवलज्ञान क्रमरूप इन्द्रियज्ञान के विधान से रहित हो साक्षात् प्रत्यक्ष न करे तो यह ज्ञान विश्य न होथे। वस्तु स्वरूप को अपेक्षा विचार करें तो वह शुद्ध ज्ञान भी न होवे । जैसे यह केवली भगवान् पर द्रव्य व उसकी पर्यायों को यद्यपि ज्ञानमात्रपने से जानते हैं तथापि निश्चय करके सहज ही आनंदमयी एक स्वभाव के धारी अपने शुद्ध तन्मयी पने से ज्ञान क्रिया करते हैं तैसे निर्मल विवेकी मनुष्य भी यद्यपि व्यवहार से परद्रव्य म उसके गुण पर्याय का ज्ञान करते हैं तथापि निश्चय से विकार रहित स्वसंवेदन पर्याय में अपना विषय रखने से उसी पर्याय का ही ज्ञान या अनुभव करते हैं यह सूत्र का तात्पर्य है ॥३६॥ अथेन्द्रियज्ञानस्यव प्रलोनमनुत्पन्नं च ज्ञातुमशक्यमिति वितर्कयति 'अत्थं अक्खणिवविदं ईहापुवेहि जे विजाणंति । तेसि परोक्खभूदं जादुमसक्कं ति पण्णत्तं ॥४०॥ ___ अर्थमक्षनिपतितमीहापूर्वयः विजानन्ति । तेषां परोक्षभूतं ज्ञातुमशक्यमिति प्राप्तम् ।।४०॥ ये खलु विषयविषयिसन्निपातलक्षणमिन्द्रियार्थसन्निकर्षमधिगम्य क्रमोपजायमानेनेहारिकप्रक्रमेण परिच्छिन्दन्ति, ते किलातिवाहितस्वास्तित्वकालमनुपस्थितस्वास्तित्वकालं वा यथोक्तिलक्षणस्य ग्राह्ययाहकसंबन्धस्यासंभवतः परिच्छेत्तुं न शक्नुवन्ति ॥४०॥ भूमिका-अब, इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा नष्ट और अनुत्पन्न को जानना अशक्य है, ऐसा न्याय से निश्चित करते हैं। __ अन्वयार्थ—[अक्षनिपतितं] इन्द्रिय गोचर [अर्थ] पदार्थ को [ईहा-पूर्वः] ईहापूर्वक [ये] [विजानन्ति] जानते हैं [तेषां] उनके [परोक्षभूतं] परोक्षभूत पदार्थ को [ज्ञातु] जानना [अशक्यं] अशक्य है, [इति प्रज्ञप्तं] ऐसा कहा गया है । १. अळं (ज० वृ०)। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] [ पवयणसारो टीका-जो वास्तव में, विषय और विषयो का सन्निपात (सम्बन्ध होना) जिसका लक्षण है, ऐसे इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष को प्राप्त करके क्रम से उत्पन्न होने वाले ईहा आदि के क्रम से जानते हैं, वे वास्तव में, जिसका स्व-अस्तित्व काल बीत चुका है उस (भूत पदार्थ) को तथा जिसका स्व अस्तिव काल उपस्थित नहीं हुआ है उस (भविष्यत् पदार्थ) को, यथोक्त (उपरोक्त) लक्षण वाले ग्राह्य-प्राहक सम्बन्ध के असम्भवता के कारण जानने के लिये समर्थ नहीं है ॥४०॥ तात्पर्यवृत्ति अधातोतानागतसूक्ष्मादिपदार्यानिन्द्रियज्ञान न जानातीति विचारयति, अळं घटपटादिज्ञेयपदार्थ कथंभूतं ? अक्खणिवविध अक्षनिपतितं इन्द्रियप्राप्त इन्द्रियसंबद्ध ईहापुस्वेहि जे विजाणंति ईहापूर्वकं ये विजानन्ति । अवग्रहेहावायादिक्रमेण ये पुरुषा विजानन्ति हि स्फुट तेसि परोक्खभूदं तेषां सम्बन्धि ज्ञानं परोक्षभूतं सत् णादुमसक्कत्ति पण्णतं सूक्ष्मादिपदार्यान् ज्ञातुमशक्यमिति प्रज्ञप्तं कषितम् । __ कः ? ज्ञानिभिरिति । तद्यथा-चक्षुरादीन्द्रियं घटपटादिपदार्थपावें गत्वा पश्चादर्थ जानातीति सन्निकर्षलक्षणं नैयायिकमते । अथवा संक्षपेणेन्द्रियार्थयोः सम्बन्धः सन्निकर्षः स एव प्रमाणम् । स च सन्निकर्ष आकाशाद्यमूर्तपदार्थेषु देशान्तरितमेवादिपदार्थेषु कालान्तरितरामरावणादिषु स्वभावान्तरितभूतादिषु तथैवातिसूक्ष्मेषु परचेतोवृत्तिपुद्गलपरमाण्वादिषु च न प्रवर्तते । कस्मादितिचेत् इन्द्रियाणां स्थूलविषयत्वात्, तथैव मूर्तविषयत्वाच्च । ततः कारणादिन्द्रियज्ञानेन सर्वज्ञो न भवति । तत एव चातीन्द्रियज्ञानोत्पत्तिकारणं रागादिविकल्परहितं स्वसंवेदनशानं विहाय पञ्चेन्द्रियसुखसाधनीभूत इन्द्रियज्ञाने नानामनोरथविकल्पजालरूपे मानसज्ञाने च ये रति कुर्वन्ति ते सर्वज्ञापन न लभन्ते इति सूत्राभिप्राय: ॥४०॥ उत्थानिका—आगे यह विचार करते हैं कि इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता है वह भूत और भावी पर्यायों को तथा सूक्ष्म, दूरवर्ती आदि पदार्थों को नहीं जानता है। ___अन्वय सहित विशेषार्थ-(जे) जो कोई छमस्थ (अक्खणिवदिदं) इन्द्रिय गोचर (इन्द्रिय संबद्ध)(अट्ट) पदार्थ को (ईहापुबेहि) ईहापूर्वक (विजाणंति) जानते हैं (तेप्सि) उनका (परोक्खभूवं) परोक्ष भूतज्ञान (णावं) जानने के लिये अर्थात् सूक्ष्म आदि पदार्थों को जानने के लिये (असक्कंति) अशक्य है ऐसा (पण्णत्तं) कहा गया है। ज्ञानियों के द्वारा अथवा उनके ज्ञान से जो परोक्षभूत द्रव्य है वह उनके द्वारा जाना नहीं जा सकता। प्रयोजन यह है कि नैयायिकों के मत में चक्षु आदि इन्द्रिय घट-पट आवि पदार्थों के पास जाकर फिर पदार्थ को जानती हैं अथवा संक्षेप से इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध सम्निकर्ष है वह ही प्रमाण है । ऐसा सन्निकर्ष ज्ञान आकाश आदि अमूर्तिक पदार्थों में, काल से दूर राम रावणादि में, स्वभाव से दूर भूत-प्रेत आदिकों में तथा अतिसूक्ष्म पर के मन के विचार में व पुद्गल Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षणसारो ] परमाणु आदिकों में नहीं प्रवर्तन कर सकता, क्योंकि इन्द्रियों का विषय स्थूल है तथा मूर्तिक पदार्थ है। इस कारण से इन्द्रियज्ञान के द्वारा सर्वज्ञ नहीं हो सकता। इसीलिये ही अतीन्द्रियज्ञान की उत्पत्ति का कारण जो रागद्वेषादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञान है उसको छोड़कर पंचेन्द्रियों के सुख के कारण इन्द्रियज्ञान में तथा नाना मनोरथ के विकल्पजालस्वरूप मन सम्बन्धी ज्ञान में जो प्रोति करते हैं वे सर्वज्ञ पद को नहीं पाते हैं, ऐसा सूत्र का अभिप्राय है ॥४०॥ अथातीन्द्रियज्ञानस्य तु यदुच्यते तत्तत्संभवतीति संभावयति-- अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं । पलयं गयं च जाणदि तं जाणदिदियं' भणियं ॥४१॥ प्रदेश संप्रदेश मूलममूर्त च पर्ययमजातम् । प्रलयं गतं च जानाति तज्ज्ञानमतीन्द्रियं भणितम् ॥४१॥ इन्द्रियज्ञानं नाम उपदेशान्तःकरणेन्द्रियावनि विरूपकारणत्वेनोपलब्धिसंस्कारावीन् अन्तरङ्गस्वरूपकारणत्वेनोपावाय प्रवर्तते । प्रवर्तमानं च सप्रदेशमेवाध्यवस्यति स्थूलोपलम्मकत्वान्नाप्रदेशम् । मूर्तमेवावगच्छति तथाविधविषयनि बन्धनसद्धावान्नामूर्तम्। वर्तमानमेव परिच्छिनत्ति विषयविषयिसन्निपातसद्धावान्न तु वृत्तं वस्य॑च्च । यत्तु पुनरनावरणमनिन्द्रियं ज्ञानं तस्य समिद्धधमध्वजस्येवानेकप्रकारतालिङ्गितं दाह्य दाातानतिक्रमाहाह्यमेव यथा तथात्मनः अप्रदेशं सप्रदेशं मूर्तममूर्तमजातमतिवाहितं च पर्यायजातं ज्ञेयतानतिकमात्परिच्छेद्यमेव भवतीति ॥४१॥ भूमिका-अब, अतीन्द्रिय ज्ञान के लिये तो जो जो कहा जाता है वह सब सम्मक है इसको स्पष्ट करते हैं अन्वयार्थ--जो [अप्रदेशं] अप्रदेशी को (कालाणु को), [सप्रदेशं] बहुप्रदेशी को (पंचास्तिकायों को) [मूर्त ] मूर्तिक को (पुद्गल द्रव्य को) [च] और [अमूर्त ] अमूर्तिक को (शेष पाँच द्रव्यों को) तथा [अजातं] अनुत्पन्न (भावी) [च] और [प्रलयं गतं] नष्ट (अतीत) [पर्याय ] पर्याय को [जानाति] जानता है, [तत् ज्ञानं] वह ज्ञान [अतीन्द्रियं ] अतीन्द्रिय [भणितं] कहा गया है। ___टीका-इन्द्रिय-ज्ञान, उपदेश-अन्तःकरण और इन्द्रिय आदि को विरूप कारणपने से (बहिरंगपने से) और उपलब्धि (क्षयोपशम) संस्कार आदि को अन्तरंगस्वरूप कारण १. णाणमणिदियं (ज. वृ.) । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पधरणसारो पने से ग्रहण करके प्रवर्तता है। (इस प्रकार) प्रवर्तता हुआ (यह ज्ञान) (१) सप्रदेशो को ही जानता है क्योंकि वह स्थूल को जानने वाला है, अप्रवेशी को नहीं जानता, (क्योंकि वह सूक्ष्म को जानने वाला नहीं है । (२) मूर्तिक को ही जानता है क्योंकि वैसे उसका (मूर्तिक) विषय के साथ सम्बन्ध का सद्भाव है, अमूर्तिक को नहीं जानता, (क्योंकि अमूर्तिक विषय के साथ सम्बन्ध का अभाव है, (३) वर्तमान को ही जानता, क्योंकि वहाँ ही विषय-विषयी के सन्निपात का सद्भाव है। भूत में प्रवर्तित हो चुकने वाले को और भविष्य में प्रवृत्त होने वाले को नहीं जानता, (क्योंकि भूत-भविष्य के साथ विषय-विषयी के सन्निकर्ष का अभाव है)। . जो अनाबरण अनिन्द्रियज्ञान है उसके, जैसे प्रज्वलित अग्नि के अनेक प्रकारता को धारण करने वाला बाह्य (ईन्धन), वाह्यता का उल्लंघन न करने के कारण दाह्य ही है, वैसे (ही) अप्रदेशी, सप्रदेशी, मूर्तिक, अमूर्तिक तथा अनुत्पन्न एवं व्यतीत पर्याय समूह, अपनी ज्ञेयता का उल्लंघन न करने से, ज्ञेय ही हैं ॥४१॥ तात्पर्यवृत्ति अथातीन्द्रियज्ञानमतीतानागतसूक्ष्मादिपदार्थान जानातीत्युपदिशति, अपवेसं अप्रदेश कालाणुपरमाण्वादि सपदेस शुद्धजीवास्तिकायादिप चास्तिकायस्वरूप मुत मूर्त पुद्गलद्रव्यं अमुतं च अमूर्त च शुद्धजीवद्रव्यादि पज्जयमजादं पलयं गयं च पर्यायमजात भाविनं प्रलयं गतं चातीतमेतत्सर्वं पूर्वोक्तं ज्ञेयं वस्तु जाणवि जानाति यदज्ञानं कर्तृ णाणमणिवियं भणियं तदज्ञानमतीन्द्रियं भणितं तेनैव सर्वज्ञो भवति । तत एव च पूर्वगाथोदितमिन्द्रियज्ञानं मानसज्ञानं च त्यक्त्वा ये निर्विकल्पसमाधिरूपस्वसंवेदनज्ञाने समस्तविभावपरिणामत्यागेन रति कुर्वन्ति त एव परमाहलादकलक्षणसुखस्वभाव सर्वज्ञपदं लभन्ते इत्यभिप्रायः॥४॥ एवमतीतातागतपर्याया वर्तमानज्ञाने प्रत्यक्षा न भवन्तीतीति बौद्धमतनिराकरणमुख्यत्वेन गाथात्रयं, तदनन्तरमिन्द्रियज्ञानेन सर्वज्ञो न भवत्यतीन्द्रियज्ञानेन भवतीति नैयायिकमतानुसारिशिष्यसंबोधनार्थ च गाथाद्वयमिति समुदायेन पञ्चमस्थले गाथापञ्चकं गतम्। उस्थानिका-आगे कहते हैं कि अतीन्द्रिय रूप केवलज्ञान ही भूत-भविष्य को व सूक्ष्म आदि पदार्थों को जानता है। अन्वय सहित विशेषार्थ-जो ज्ञान (अपवेसं) बहु प्रदेश-रहित कालाणु व परमाणु आदि को (सपदेस) बहु-प्रदेशी शुद्ध जीव को आवि ले पांच अस्तिकायों के स्वरूप को (मुत्तं) मूर्तिक पुद्गल द्रव्य को (च अमुक्त) और अमूर्तिक शुद्ध जीव आदि पांच व्रव्यों को (आजाद) अभी नहीं उत्पन्न हुई होने वाली (च पलयं गयं) और छूट जाने वाली भूतकाल Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६७ की (पज्जयं) द्रव्यों की पर्यायों को इस सब ज्ञेय का ( जाणदि) जानता है ( तं गाणं) वह ज्ञान (अदिदिथं ) अतीन्द्रिय ( भणियं ) कहा गया है । इस ही से सर्वज्ञ होता है। इस कारण से पूर्व गाथा से कहे हुए इन्द्रियज्ञान तथा मानस को छोड़कर जो कोई विकल्प रहित समाधिमयी स्वसंवेदन ज्ञान में सब विभाव परिणामों को त्याग करके प्रीति व लयता करते हैं वे ही परम आनन्द हैं एक लक्षण जिसका सुख स्वभानमत्री सर्वपद को प्राप्त करते हैं, यह अभिप्राय है ॥४१॥ इस प्रकार अतीत व अनागत पर्यायें वर्तमान ज्ञान में प्रत्यक्ष नहीं होती हैं ऐसे बौद्धों के मत को निराकरण करते हुए तीन गाथाएं कहीं, उसके पीछे इन्द्रियज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होता है किन्तु अतीन्द्रियज्ञान से होता है ऐसा कहकर नंयायिक मत के अनुसार चलने वाले शिष्य को समझाने के लिये गाथा हो, ऐसे समुदाय के पांचवें स्थल में पाँच गाथाएं पूर्ण हुई । अथ ज्ञेयार्थ परिणमनलक्षणा क्रिया ज्ञानान्न भवतीति श्रद्धातिपरिणमदि णेयमट्ठ णादा जदि णेव खाइगं' तस्स । गाणं प्ति तं जिणिवा खवयंतं कम्ममेवृत्ता ॥ ४२ ॥ परिणमति ज्ञेयमार्थ ज्ञाता यदि नैव क्षायिकं तस्य । ज्ञानमिति तं जिनेन्द्राः क्षपयन्तं कर्मैवोक्तवन्तः ॥४२॥ परिच्छेत्ता हि यत्परिच्छेद्यमयं परिणमति तन्न तस्य सकलकर्म कक्षयप्रवृत्तस्याभाविपरिच्छेदनिदानमथवा ज्ञानमेव नास्ति तस्य । यतः प्रत्यर्थपरिणतिद्वारेण मृगतृष्णास्भोभायसंभावनाकरणमानसः सुदुःसहं कर्मभारमेवोपभुञ्जानः स जिनेन्द्र रुद्गीतः ॥ ४२ ॥ भूमिका – अब, ज्ञेय पदार्थ रूप परिणमन जिसका लक्षण है, ऐसी (ज्ञेयार्थ परिणमस्वरूप ) क्रिया ( क्षायिक) ज्ञान से ( उत्पन्न ) नहीं होती है, यह श्रद्धा व्यक्त करते हैं अन्वयार्थ --- [ज्ञाता ] जानने वाला आत्मा [ यदि ] जो [ ज्ञेयं अर्थं ] ज्ञेय पदार्थ रूप [ परिणमति ] परिणत होता है ( राग-द्वेष सहित सविकल्प रूप, क्रम-पूर्वक जानता है) तो [तस्य ] उस आत्मा के [ क्षायिक ] क्षायिकज्ञान [न एव] नहीं है [ अथवा ज्ञान न एव इति ] अथवा ज्ञान ही नहीं है क्योंकि [ जिनेन्द्राः ] जिनेन्द्र देव [] उस पुरुष को [ कर्म एव ] कर्म को ही [ क्षपयन्तं ] अनुभव करने वाला [ उक्तवन्तः ] कहते भये । अर्थात् जिनेन्द्रदेव ने कहा 1 १. खाइयं ( ज० वृ० ) । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ । [ पवयणसारो _____टीका-जो ज्ञाता वास्तव में जेय पदार्थ रूप परिणत होता है (राग-द्वेष सहित, सविकल्प रूप, क्रम-पूर्वक जानता है) तो उसके सफल फर्म यन के क्षय से प्रवर्तमान स्वाभाविक जानपने के कारण (धायिक शान) नहीं है अथवा उसके ज्ञान ही नहीं है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ रूप से परिणति के द्वारा, मृगतृष्णा में जलसमूह की कल्पना करने की भावना वाला वह (आत्मा) अत्यन्त दुःसह कर्म-भार को ही भोगने वाला है, ऐसा जिनेन्द्रों के द्वारा कहा गया है ॥४२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ रागद्वेषमोहाः बन्धकारणं, न च ज्ञानमित्यादिकथन रूपेण गाथापञ्चकपर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तद्यथा-यस्येष्टानिष्टविकल्परूपेण कर्मबन्धकारणभूतेन ज्ञेयविषये परिणमनमस्ति तस्य क्षायिकज्ञानं नास्तीत्यावेदयति । -परिणमवि यमलैं णादा जद नीलमिदं पीतमिदमित्यादिविकल्परूपेण यदि ज्ञयार्थ परिणमति ज्ञातात्मा व खाइयं तस्स गाणंत्ति तस्यात्मनः क्षायिकज्ञानं नैवास्ति । अथवा ज्ञानमेव नास्ति । कस्मान्नास्ति चिणिवः पयंस कम्ममत्तात पुरुषं कमंतापन्न जिनेन्द्राः कर्तारः उक्तवन्तः । किं कुर्वन्तं ? क्षपयन्तमनुभवन्तं । किमेव ? कर्मव निर्विकारसहजानन्दैकसुखस्वभावानुभवनशून्यः सन्नुदयागतं स्वकीयकर्मव स अनुभवन्नास्ते न च ज्ञानमित्यर्थः । अथवा द्वितीयव्याख्यानम् - यदि ज्ञाता प्रत्यर्थं परिणम्य पश्चादथं जानाति तदा अर्थाना मानन्त्यात्सर्वपदार्थपरिज्ञानं नास्ति। अथवा तृतीयव्याख्यानम्-बहिरङ्गजेयपदार्थान् यदा छद्मस्थावस्थायां चिन्तयति तदा रागादिविकल्परहितं स्वसंवेदनशानं नास्ति, तदभावे क्षायिकशानमेव नोत्पद्यते इत्याभिप्रायः ॥४२॥ उत्थानिका-आगे पाँच गाथाओं तक यह व्याख्यान करते हैं कि कि राग, द्वेष, मोह, बन्ध के कारण हैं, जान बंध का कारण नहीं है । प्रथम ही कहते हैं कि जिससे ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य पदार्थ में कर्मबंध का कारण रूप इष्ट तथा अनिष्ट विकल्प रूप से परिणमन है अर्थात् जो पदार्थों को इष्ट तथा अनिष्ट रूप से जानता है उनके क्षायिक अर्थात् केवलज्ञान नहीं होता है। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जदि) यदि (णादा) ज्ञासा आत्मा (णेयं अठ्ठ) जानने योग्य पदार्थरूप (परिणति) परिणमन करता है अर्थात् यह नील है, वह पीत है इत्यादि विकल्प उठाता है तो (तस्स) उस ज्ञानी आत्मा के (खाइयं णाणत्ति जेव) क्षायिकज्ञान नहीं ही है अथवा स्वाभिमान ज्ञान ही नहीं है। क्यों नहीं है इसका कारण कहते हैं कि (जिणिवा) जिनेन्द्रों ने (तं) उस सविकल्प जानने वाले को (कम्भ खक्यंत एष) कर्म का अनुभव करने वाला ही (उत्ता) कहा है । अर्थ यह है कि वह आत्मा विकार रहित स्वाभाविक आनन्दमयी एक सुख स्वभाव के अनुभव से शून्य होता हुआ उदय में आये हुए Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्ष्यणसारो । [ ६६ अपने कर्म को ही अनुभव कर रहा है । ज्ञान को अनुभव नहीं कर रहा है। अथवा दूसरा व्याख्यान यह है कि यदि ज्ञाता प्रत्येक पदार्थ रूप परिणमन करके पीछे पदार्थ को जानता है तब पदार्थ अनन्त है इमसे सर्व पदार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता । अथवा तीसरा व्याख्यान ग्रह है कि जव छनस्थ अवस्था में यह बाहर के ज्ञेय पदार्थों का चितवन करता है तब रागद्वेषादि रहित स्वसंधेवन ज्ञान इसके नहीं है । स्वसंवेदन ज्ञान के अभाव में क्षायिकज्ञान भी नहीं पैदा होता है ऐसा अभिप्राय है ॥४२॥ अथ कुतस्तहि ज्ञेयार्थपरिणमनलक्षणा क्रिया तत्फलं च भवतीति विवेचयति-- उदयगदा' कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया । तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि ॥४३॥ - उदयगताः कर्माशाः जिनवरवृषभैः नियत्या णिताः। . तेषु विमूढो रक्तो दुष्टो वा बन्धमनुभवति ।।४।। संसारिणो हि नियमेन तावदुदयगताः पुद्गलकर्माशाः सन्त्येव । अथ स सत्सु तेषु संचेतयमानो मोहरागद्वेषपरिणतत्वात गार्थपरिणमनलक्षणय किण्या युज्यते । ततश्च (तत एव) कियाफलभूतं बन्धमनुभवति । अतो मोहोदयात् क्रियाक्रियाफले, न तु ज्ञानात् ॥४३॥ भूमिका-(यदि ऐसा है) तो फिर ज्ञेय पदार्थ रूप परिणमन जिसका लक्षण है, ऐसी (सविकल्परूप, राग-द्वेष सहित) क्रिया और उसका फल कहाँ से (किस कारण से) उत्पन्न होता है, यह विवेचन करते हैं ___अन्वयार्थ-उदयगताः कर्माशाः] (संसारी जीव के) उदय प्राप्त कर्म-अंश (मोहनीय पुद्गल कर्म की प्रकृति) [नियत्या | नियम से [जिनवरवृषभः] जिनवर वृषभ: (तीर्थकरों) के द्वारा [भणिताः। कहे गये हैं। (जीव) [तेषु] उन कर्माशों के उदय होने पर [विमूढः रक्तः दुष्टः वा] मोही, रागी और द्वेषी होता हुआ | बन्धं अनुभवति] बन्ध को अनुभव करता है। टीका-प्रथम तो, संसारी जीव के नियम से उदयगत पुदगलकर्माश होते ही हैं। वह संसारी जीव जन सत् रूप कर्माशों (के उदय) में चेतता (अनुभव करता) हआ, मोहराग-द्वेष रूप परिणत होने से, ज्ञेय पदार्थों में परिणमन जिसका लक्षण है, ऐसी (विकल्पात्मक, क्रिया के साथ युक्त होता है। इसीलिये क्रिया के फलभूत बन्ध को अनुभव करता है। इससे (यह कहा है कि) मोह के उदय से ही किया और क्रियाफल होते हैं, ज्ञान से नहीं ॥४३॥ १. उदयगया (ज० वृ०) । --------- Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] [ पत्रयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथानन्तपदार्थ परिच्छित्तिपरिणमनेऽपि ज्ञानं बन्धकारणं न भवति, न च सागादिरहितकर्मोदयोपीति निश्चिनोति, उदयगया कम्मंसा जिणवरवसहेहि णियविणा मणिया उदयगता उदयं प्राप्ताः कमीशा शानावरणादिमूलोत्तरकर्मप्रकृतिभेदा: जिनवरवृषभैनियत्या स्वभावेन भणिताः, किन्तु स्वकीयशुभाशुभाफलं दत्त्वा गच्छन्ति, न च रागादिपरिणामरहिताः सन्तो बन्धं कुर्वन्ति । तर्हि कथं बन्ध करोति जीव. इति चेत् ? सेसु विमूढो रत्तो दुवो वा बन्धमणुमवधि तेषु उदयागतेषु सत्सु कर्माशेषु मोहरागद्वेषविलक्षणनिज शुद्धात्मतत्त्वभावनारहितः सन् यो विशेषेण मूढ़ो रक्तो दुष्टो वा भवति स: केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिलक्षणमोक्षाद्विलक्षणं प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदभिन्नं बन्धमनुभवति । ततः स्थितमेतत् ज्ञानं बन्धकारणं न भवति कर्मोदयोऽपि, किन्तु रागादयो बन्धकारणमिति ॥४३॥ उत्थानिका-आगे निश्चय करते हैं कि अनन्त पदार्थों को जानते हुए भी ज्ञान बन्ध का कारण नहीं है, और न रागादि रहित कर्मों का उदय ही बन्ध कारण है। अर्थात् नवीन कर्मों का बन्ध न ज्ञान से होता है न पिछले कर्मों के उदय से होता है किन्तु रागद्वेष-मोह से बन्ध होता है। ___अन्वय सहित विशेषार्थ-(उदयगया) उदय में प्राप्त (कम्मंसा) कर्माश अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि मूल तथा उत्तर प्रकृति के भेव रूप कर्म (जिणवरवसहेहि) जिनेन्द्र वीतराग भगवानों के द्वारा (णियदिणा) नियतपने रूप अर्थात् स्वभाव से काम करने वाले (भणिया) कहे गये हैं। अर्थात जो कर्म उदय में आते हैं वे अपने शुभ फल को देकर चले जाते हैं वे नये बंध को नहीं करते यदि आत्मा में रागादि परिणाम न हों तो फिर किस तरह जीव बंध को प्राप्त होता है । इसका समाधान करते हैं। कि (तेसु) उन उदय में आए हए कर्मों में (हि) निश्चय से (विमूढ़ो) मोहित होता हआ (रत्तो) रागी होता (वा दुवो) अथवा द्वेषी होता हुआ (बंध) बंध को, (अणुभवदि) अनुभव करता है । जब कर्मों का उदय होता है तब तो जीव मोह-राग-द्वेष से विलक्षण निज शुद्ध आत्मतत्व को भावना से रहित होता हुआ विशेष करके मोही, रागी या वेषी होता है सो केवलज्ञान आदि अनंत गुणों में प्रगटता नहीं हो जाती है ऐसे मोक्ष से विलक्षण प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चार प्रकार अधिक भोगता है अर्थात् उसके नए कर्म बन्ध जाते हैं। इससे यह ठहरा कि न ज्ञान बन्ध का कारण है न कर्मों का उदय बंध का कारण है किन्तु रागादि भाव ही बंध के कारण हैं ॥४३॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १०१ अथ केवलिनां क्रियापि क्रियाफलं न साधयतीत्यनुशास्तिठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियबयो' तेसि । अरहताणं कालेमायाचारोव्व इत्थीणं ॥४४॥ स्थाननिषद्याविहारा धर्मोपदेशश्च नियतयस्तेषाम् । अर्हता काले मायाचार इव स्त्रीणाम् ।।४।। यथा हि महिलानां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्वभावभूत एच मायोपगुण्ठनागुण्ठितो व्यवहारः प्रवर्तते, तथाहि केवलिना प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयो. ग्यतासद्भावात् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तन्ते । अपि चाविरुद्धमेतदम्भोधरदृष्टान्तात् । यथा खल्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुबर्ष च पुरुषप्रयत्नमान्तरेणापि दृश्यन्ते तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एवं दृश्यन्ते, सोही स्थानापयो मोहोदय पूर्वपदावाया क्रियाविशेषा अपि फेलिनां कियाफलभूतबन्धसाधनानि न भवन्ति ॥४४॥ भूमिका-अब, केवली भगवान् के क्रिया भी क्रियाफल (बन्ध) उत्पन्न नहीं करती, ऐसा उपदेश देते हैं अन्धयार्थ— [तेषां अर्हतां] उन अरहन्त भगवन्तों के [काले] उस समय में (यथा समय) [स्थाननिषद्याविहाराः] खड़े होना, बैठना, विहार करना [च] और [धर्मोपदेशः] धर्मोपदेश [नियतयः] स्वाभाविक ही (इच्छा या प्रयत्न बिना ही) होता है। [स्त्रीणां मायाचार: इव] स्त्रियों के मायाचार की भांति । टीका-जैसे स्त्रियों के प्रयत्न के बिना भी, उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से, स्वभाव से ही माया के ढक्कन से ढका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार केयलियों के, प्रयत्न के बिना भी उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से, खड़े रहना, बैठना, विहार करना और धर्म-देशना स्वभावभूत हो प्रवर्तते हैं । और यह (प्रयत्न के बिना बिहार आदि का होना) बादल के दृष्टान्त से अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकार रूप परिणत पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुष प्रयत्न के बिना भी देखी जाती है, उसी प्रकार केवलियों के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धिपूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखे जाते हैं। इसलिये यह स्थानादिक विशेष क्रिया भी (खड़े रहना, बैठना इत्यादि का व्यापार) मोहोदय पूर्वक न होने से, केवलियों के क्रिया के फलभूत-बंध की साधन नहीं होती ।।४४॥ १. णिमदओ (ज० वृ०) । २. मायाचारो व (ज० .) । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] [ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथ केवलिनां रागाद्यभावाद्धर्मोपदेशादयोपि बन्धकारणं न भवन्तीति कथयति-ठाण लेज्जविहारा धम्मुददेसो य स्थानमूर्ध्वंस्थितिनिषेधा चासनं श्री विहारो धर्मोपदेशश्च शियदओ एते व्यापारा नियतयः स्वभावा अनीहिताः केषां ? लेसि अरहंताणं तेषामहंतां निर्दोषपरमात्मनां । क्व ? काले अर्हदवस्थायां । क इव ? मायाचारो व इत्यीणं मायाचार इव स्त्रीणामिति । तथाहि यथा स्त्रीणां स्त्रीवेदोदय सद्भावात्प्रयत्नाभावेऽपि मायाचारः प्रवर्तते, तथा भगवतां शुद्धाविपक्षभूत कार्य हा मावेपि श्रीविहारादयः प्रवर्तन्ते । मेधानां स्थानगमनगर्जनजलवर्षणादिवद्वा । ततः स्थितमेतत् मोहाद्यभावात् क्रियाविशेषा अपि बन्धकारणं न भवन्तीति ॥४४॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं कि केवली अरहंत भगवानों के तेरहवें सयोग केवली गुणस्थान में रागद्वेष आदि विभावों का अभाव है । इसलिये धर्मोपदेश विहार आदि भी बंध का कारण नहीं होता है । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तेसि अरहंताणं ) उन केवलज्ञान के धारी निर्दोष जीवन्मुक्त सशरीर अरहंत परमात्माओं के ( काले ) अर्हत अवस्था में (ठाण णिसेज्जविहारा ) ऊपर उठना अर्थात् खड़े होना, बैठना, विहार करना ( धम्मुवदेसो य) और धर्मोपदेश इतने व्यापार ( णिदयः ) स्वभाव से होते हैं । इन कार्यों के करने में केवली भगवान् की इच्छा नहीं प्रेरक होती है, मात्र पुद्गल कर्म का उदय प्रेरक होता है ( इच्छीणं) स्त्रियों के भीतर ( मायाचारोव ) जैसे स्वभाव से कर्म के उदय के असर से मायाचार होता है । भाव यह है कि जैसे स्त्रियों के स्त्रीवेद के उदय के कारण से प्रयत्न के बिना भी मायाचार रहता है जैसे भगवान् अहंतों के शुद्ध आत्मतत्व के विरोधी मोह के उदय से होने वाली इच्छापूर्वक उद्योग के बिना भी समवशरण में बैठना, विहार आदिक होते हैं अथवा जैसे मेघों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना, ठहरना, गर्जना, जल का वर्धना आदि स्वभाव से होता है, तंसे जानना । इससे यह सिद्ध हुआ कि मोह-राग-द्वेष के अभाव होते हुए विशेष क्रियायें भी बन्ध की कारण नहीं होती हैं ॥४४॥ अथैवं सति तीर्थकृतां पुण्यविपाकोऽकिचित्कर एवेत्यवधारयति - पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया । मोहादीहि विरहिदा' तम्हा सा खाइग' त्ति सदा ॥४५॥ पुण्यफला अर्हन्तस्तेषां क्रिया पुनह औदयिकी । मोहादिभिः विरहिता तस्मात् सा क्षायिकीति मता ॥ ४५॥ अर्हन्तः खलु सकलसम्यक् परिपक्व पुण्यकल्पपादपफला एव भवन्ति । क्रिया तु तेषां या काचन सा सर्वापि तदुदयानुभावसंभावितात्मभूतितया किलौदयिक्येव । अथैवंभूतापि सा १. बिरहिया २. खाइयति । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] समस्त महामोहमूर्द्धाभिषिक्तस्कन्धावारस्यात्यन्तक्षये [ १०३ संभूतत्वान्मोहरागद्वेषरूपाणामुपरजकानामभावाच्चैतन्यविकारकारणता मनासादयन्ती नित्यमौदयिकी कार्य मूलस्य बन्धस्थाका - रणभूसतया कार्यमूतस्य मोहन कारणता व सावि । कथं हि नाम नानुमन्येत ? अथानुमन्येत चेतहि कर्मविपाकोऽपि न तेषां स्वभावविघाताय ॥४५॥ भूमिका- ऐसा होने पर, तीर्थंकरों के पुण्य का विपाक अकचित्कर है ( स्वभाव का किंचित् भी घात नहीं करता है) ऐसा अब निश्चित करते हैं अन्वयार्थ – [ अर्हन्तः ] अरहन्त भगवान [ पुण्यफल: ] ( तीर्थंकर नामा) पुण्यप्रकृति के फल हैं [ पुनः ] और [तेषां क्रिया ] उनकी क्रिया [हि ] निश्चय से [ औदयिकी ] afrat है । [ मोहादिभिः विरहिता ] ( क्योंकि वह क्रिया) मोहादि से रहित है | तस्मात् | इसलिये [सा ] वह [ क्षयिकी ] क्षायिकी [ इति मता ] मानी गई है। $ टीका - अरहन्त भगवान् वास्तव में समस्त भली भांति परिपक्व पुण्य रूपी कल्पवृक्ष के फल ही हैं। उनकी जो भी क्रियायें हैं, वे सब उस (पुष्य) के उदय के प्रभाव से उत्पन्न होने के कारण औfunी ही हैं। ऐसा होने पर भी वह (ओदयिकी क्रिया) महामोह राजा की समस्त सेना के सर्वथा क्षय होने पर उत्पन्न होने से (तथा) मोह-राग-द्वेष रूपी उपरंजकों का अभाव होने से, चैतन्य के विकार का कारण नहीं होती हुई नित्य औदयिकी है, तो भी कार्यभूत बंध की अकारणभूतता से और कार्यभूत मोक्ष की कारणभूतता से क्षायिकी ही क्यों न मानी जाय ? ( अवश्य ही मानी जावं) जब क्षायिकी हो मानें तब कर्मविपाक ( कर्मोदय) भी उनके ( अरहन्तों के) स्वभाव के विधा के लिए ( विघात का कारण ) नहीं है (यह निश्चित होता है ) ॥४५॥ तात्पर्यदति अथ पूर्वं यदुक्तं रागादिरहितकर्मोदयो बन्धकारणं न भवति विहारादिक्रिया च तमेवार्थं प्रकारान्तरेण दृढयति पुष्णफला अरहंता पञ्चमहाकल्याणपूजा जनकं त्रैलोघयविजयकरं यत्तीर्थकरनाम पुण्यकर्म तफलभूता अर्हन्तो भवन्ति तेसि किरिया पुणो हि ओदइया तेषां या दिव्यध्वनिरूपवचनव्यापारादिक्रिया सा निःक्रियशुद्धात्मतत्वविपरीतक मंदिय ज नितत्वात्सर्वाप्यदयिकी भवति हि स्फुटं | मोहावोहि विरहिया निर्मोहशुद्धात्मतत्त्वप्रच्छादकममका राहङ्कारोत्पादन समर्थ मोहादिविरहितत्वाद्यतः तम्हा सा खाइयत्तिमदा तस्मात् सा यद्यप्योदयिकी तथापि निर्विकारशुद्धात्मतत्त्वस्य विक्रियामकुर्वती सती क्षायिकी मता । अत्राह शिष्यः -- ' औयिका भावाः बन्धकारणम्' इत्यागमवचनं तहि वृथा भवति । परिहारमा - औदयिका भावा बन्धकारणं भवन्ति परं किन्तु मोहोदनसहिताः । द्रव्यमोहोदयेऽपि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.४ ] [ पवयणसारो सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति । यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तहिं संसारिणां सर्वदेव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदेव बन्ध एवं न मोक्ष इत्यभिप्रायः ।।४५।। उत्थानिका-आगे पहले जो कह चुके हैं कि रागादि-रहित कर्मों का उदय तथा विहार आदि नियाबंध का कारण नहीं होती है, उस ही अर्थ को और भी दूसरे प्रकार से दढ़ करते हैं। अथवा यह बताते हैं कि अरहंतों के पुण्य कर्म का उदय बन्ध का कारण नहीं है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(अरहता) तीर्थकरस्वरूप अरहंत भगवान् (पुण्णफला) पुण्य के फलस्वरूप हैं--अर्थात् पंच महाकल्याणक की पूजा को उत्पन्न करने वाला तथा तीन लोक को जीतने वाला जो तीर्थकर नाम पुण्यकर्म उसके फलस्वरूप अहंत तीर्थकर होते हैं। (पुणो) तथा (तेसि) उन अरहतों की (किरिया) क्रिया अर्थात दिव्य-ध्वनि रूप वचन का व्यापार तथा विहार आदि शरीर का व्यापार रुए क्रिया दि) प्रगट रूप से (ओदइया) औवयिक है अर्थात् क्रिया रहित जो शुद्ध आत्मतत्व उससे विपरीत को कर्म उसके उदय से हुई है। (सा) वह क्रिया (मोहादोहिं) मोहादिकों से अर्थात् मोह रहित शुद्ध आत्मत्तत्व के रोकने वाले तथा ममकार अहंकार के पैदा करने को समर्थ मोह आदि से (विरहिया) रहित है (तम्हा) इसलिये (खाइय त्ति) क्षायिक है अर्थात् विकार रहित शुद्ध आत्मतत्व के भीतर कोई विकार को न करती हुई क्षायिक ऐसी (मदा) मानी यहाँ पर शिष्य ने प्रश्न किया कि जब आप कहते हैं कि कर्मों के उदय से क्रिया होकर भी क्षायिक है अर्थात् क्षय रूप है, नवीन बन्ध नहीं करती तब क्या जो आगम का वचन है कि "औदयिकाः भावाः बन्धकारणम्' अर्थात् औदयिक भाव बन्ध के कारण हैं, वृया हो जायेगा ? इस शंका का समाधान आचार्य करते हैं कि औदयिक भाव बन्ध के कारण होते हैं, यह बात ठीक है परन्तु वे बन्ध के कारण तब ही होते हैं जब वे मोह भाव के उदय सहित होते हैं। कदाचित् किसी जीव के द्रव्य मोह कर्म सम्यक्त्वप्रकृति का उदय हो तथापि जो वह शुद्ध आत्मा की भावना के बल से मोह रूप अर्थात् मिथ्यात्व रूप भाव न परिणमन करे तो बन्ध नहीं होवे और यहाँ अहंतों के तो द्रव्यमोह का सर्वथा अभाव ही है । यदि माना जाय कि कर्मों के उदय मात्र से बन्ध हो जाता है तब तो संसारी जीवों के सदा ही कर्मों के उदय से सदा ही बन्ध रहेगा कभी भी मोक्ष न होगा । तो ऐसा कभी नहीं हो सकता इसलिये मोह के उदय के बिना क्रियाबन्ध नहीं करती किन्तु जिस Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १०५ कर्म के उश्य से जो किया होती है वह कर्म झड़ जाता है। इसलिए उस क्रिया को क्षायिकी कह सकते हैं, ऐसा अभिप्राय है । भावार्थ- इस गाथा में भी आचार्य महाराज ने इसी बात को बतलाया है कि मिथ्यात्व व चारित्रमोह का उदय ही बन्ध का कारण है। आत्मा की भावना के बल से मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व महिला अपने कार उनम में नहीं आनी किन्तु सम्यक्त्वप्रकृति रूप (जो दर्शनमोह को प्रकृति है) संक्रमण कर उदय में आती है जिससे मोहरूप अर्थात् मिथ्यात्वरूप भाव नहीं होते। यदि मिथ्यात्व का उदय हो तो मिथ्यात्वरूप भाव है। अथ केयलिनामिय सर्वेषामपि स्वभावविधाताभावं निषेधयति-- जदि सो महो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण । संसारो वि ण 'विज्जदि सब्वेसि जीवकायाणं ॥४६॥ यदि स शुभो वा अशुभो न भवति आत्मा स्वयं स्वभावेन । संसारोऽपि न विद्यते सर्वेषां जीवकायानाम् ।।४६।। यदि खल्वेकान्तेन शुभाशुभभावस्वभावेन स्वयमात्मा न परिणमते तदा सर्ववैव सर्वथा निविधातेन शुद्धस्वभावेनैवयातिष्ठते । तथा च सर्वे एवं भूतग्रामाः समस्तबन्धसाधनशून्यत्वावाजवंजवाभावस्वभावतो नित्य-मुक्ततां प्रतिपद्येरन् । तच्च नाभ्युपगम्यते । आत्मनः परिणामधर्मस्वेन स्फटिकस्य जपातापिच्छरागस्वभाववत् शुभाशुभस्वभावत्वद्योतनात् ॥५६॥ भूमिका-अब, केलियों की तरह समस्त संसारी जीवों के भी स्वभाव-विघात होने के अभाव को निषेध करते हैं (अर्थात क्रिया सब संसारी जीयों के स्वभाव की घातक होती है, यह बताते हैं)। अन्वयार्थ- [यदि] जो (यह माना जाय कि) [स: आत्मा] वह आत्मा स्वयं] स्वयं [स्वभावेन ] स्व-भाव से (अपने भाव से) [शुभः वा अशुभ:] शुभ या अशुभ [न भवति] नहीं होता (शुभ अशुभ भाव में परिणत ही नहीं होता) तो [सर्वेषां जीवकायानां] तो समस्त जीवनिकायों के [ संसारः अपि] संसार भी [न विद्यते | विद्यमान नहीं है अर्थात् संसार ही न रहेगा (ऐसा सिद्ध होगा)। टीका-जो वास्तव में एकान्त से (यह माना जाय कि) शुभ-अशुभभाव रूप स्व-भाव से (अपने भाव से) आत्मा स्वयं परिणत नहीं होता, तब तो वह सदा ही सर्वथा निविघात शुद्ध स्वभाव से ही अवस्थित है । ऐसा होने पर, समस्त जीव समूह समस्त बन्ध १. विज्जइ (ज. वृ०) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पत्रयणसारो नित्य मुक्तता को किया जा सकता, शुभ-अशुभ, १०६ ] कारणों से रहित सिद्ध होने से, संसार के अभाव रूप स्वभाव के कारण प्राप्त हो जायेंगे ( नित्य मुक्त सिद्ध होंगे ) किन्तु ऐसा स्वीकार नहीं क्योंकि आत्मा के परिणमन धर्म के कारण (परिषी होने के निज भावपता प्रकाशित ( प्रगट ) है, "स्फटिकमणि के जपाकुसुम और तमाल-पुष्प के रङ्गनिज - भावपने (निज परिणाम) की तरह ।" भावार्थ – जैसे स्फटिकमणि लाल और काले फूल के निमित्त से लाल और काले निज भाव से परिणत होती है, उसी प्रकार आत्मा कर्मोपाधि के निमित्त से शुभ-अशुभ निजभाव रूप से परिणत होता है ॥४६॥ तात्पर्य वृत्ति अथ यथार्हतां शुभाशुभपरिणामविकारो नास्ति तकान्तेन संसारिणामपि नास्तीति सांख्यमतानुसारिशिष्येण पूर्वपक्ष कृते सति दूषणद्वारेण परिहारं ददाति - जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आबा सयं सहावेण यथैव शुद्धनयेनात्मा शुभाशुभाभ्यां न परिणमति तथैवाशुद्धन येनापि स्वयं स्वकीयोपादानकारणेन स्वभावेनाशुद्धनिश्चयरूपेणापि यदि न परिणमति तदा । किं दूषणं भवति । संसारोषि ण विज्जह निस्संसारशुद्धात्म स्वरूपात्प्रतिपक्षभूतो व्यवहारनयेनापि संसारो न विद्यते । केषां ? सम्बेसि जीवकायाण सर्वेषां जीवसंवातानामिति । तथाहि - आत्मा तावत्परिणामी स च कर्मोपाधिनिमित्ते सति स्फटिकमणिरिवोपाधि गृह्णाति ततः कारणात्संसाराभावो न भवति । अथ मतं - संसाराभावः सख्यिानां दूषणं न भवति, भूषणमेव । नैवम् । संसाराभावो हि मोक्षो भण्यते स च संसारिजीवानी न दृश्यते, प्रत्यक्षविरोधादिति भावार्थः ।।४६।। एवं रागादयो बन्धकारणं न च ज्ञानमित्यादिव्याख्यानमुख्यत्वेन षष्ठस्थले गाथापञ्चकं गतम् । उत्थानिका—- आगे जैसे अरहंतों के शुभ व अशुभ परिणाम के विकार नहीं होते तो एकान्त से संसारी जीवों के भी नहीं होते, ऐसे सांख्यमत के अनुसार चलने वाले शिष्य ने अपना पूर्वपक्ष किया, उसको दूषण देते हुए समाधान करते हैं— अथवा केवली भगवानों की तरह सर्वे ही संसारी जीवों के स्वभाव के घात का अभाव है, इस बात का निषेध करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अदि ) यदि ( सो आदा) वह आत्मा ( सहावेण ) स्वभाव से ( स ) आप हो ( सुहो) शुभ परिणामरूप (व असुहो ) अथवा अशुभ परिणाम रूप ( ण हवदि) नहीं होता है । अर्थात् 'जैसे शुद्धनय करके आत्मा शुभ या अशुभ भावों से अपने ही उपादानकारण से अर्थात् अशुभभावरूप नहीं परिणमन करता उसके लिये कहते हैं कि ( सवेंसि नहीं परिजन करता है तैसे ही अशुद्धनय से भी स्वयं स्वभाव से अथवा अशुद्ध निश्चय से भी यदि शुभ या है। ऐसा यदि माना जावे तो क्या दूषण आयेगा, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १०७ जीवमायाणं) सर्व ही जीव-समूहों को (संसारो यि ण विज्जइ) संसार अवस्था ही नहीं रहेगी । अर्थात् संसार रहित शुद्ध आत्मस्वरूप से प्रतिपक्षी जो संसार सो व्यवहारनय से नहीं रहेगा। भाव यह है कि आत्मा परिणमनशील है। वह कर्मों की उपाधि के निमित्त से स्फटिकमणि की तरह उपाधि को ग्रहण करता है इस कारण संसार का अभाव नहीं है । अब कोई शंकाकार कहता है कि साख्यों के यहां संसार का अभाव होना दूषण नहीं है किन्तु भूषण ही है ? उसका समाधान करते हैं कि ऐसा नहीं है। क्योंकि संसार के अभाव को ही मोक्ष कहते हैं सो मोक्ष संसारी जीवों के भीतर नहीं दिखलाई पड़ता है, इसलिये प्रत्यक्ष में विरोध आता है। ऐसा भाव है ॥४६॥ इस तरह यह बताया कि राग-द्वेष-मोह बन्ध के कारण हैं, ज्ञान बन्ध का कारण नहीं है इत्यादि कथन करते हुये छठे स्थल में पांच गाथाएं पूर्ण हुई। अथ पुनरपि प्रकृतमनुसृत्यातीन्द्रियज्ञानं सर्वज्ञत्वेनाभिनन्दति-- जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं समतदो सव्वं । अस्थं विचित्तविसमं तं गाणं 'खाइगं भणियं ॥४७॥ यत्तात्कालिकामितरं जानाति युगपत्समन्ततः सर्वम् । अर्थ विचित्रविषमं तत् ज्ञानं क्षायिक भणितम् ॥४॥ तत्कालकलितवृत्तिकमतीतोदकालकलिलवृत्तिकं चाप्येकपद एव समन्ततोऽपि सकलमप्यर्थजातं पृथक्त्ववृत्तस्ववृत्तणलक्ष्मीकटाक्षितानेकप्रकारव्यजितवैचित्र्यमितरेतरविरोधधापितासमान जातीयत्वोहामितवषम्यं क्षायिकं ज्ञानं किल जानीयात् । तस्य हि क्रमप्रवृत्तिहेतुभूतानां क्षयोपशमावस्थावस्थितज्ञानावरणीयकर्मपुद्गलानामत्यन्ताभाघातात्कालिकमतात्कालिकदाप्यर्थजातं तुल्यकालमेव प्रकाशैत । सर्वतो विशद्वस्थ प्रतिनियतदेशविशद्वेरन्तःप्लवनात समन्ततोऽपि प्रकाशेत । सर्वावरणक्षया शावरणक्षयोपशमस्यानवस्थानात्सर्वमपि प्रकाशेत । सर्वप्रकारज्ञानावरणीयक्षयावसर्वप्रकारज्ञानाधरणीयक्षयोपशमस्य विलयनाद्धिचित्रमपि प्रकाशेत । असमानजातीयज्ञानावरणक्षयात्समानजातीयज्ञानावरणीयक्षयोपशमस्य विनाशनाद्विषममपि प्रकाशेत । अलमथवातिविस्तरेण, अनिवारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ॥४७॥ ___ भूमिका-अब, पुनः प्रकृत (चालू विषय) को अनुसरण करके अतीन्द्रियज्ञान को सर्वज्ञपने से अभिनन्दन करते हैं (अतीन्द्रियज्ञान सबका ज्ञाता है, इस प्रकार उसको प्रशंसा करते हैं): १. खायं (ज०७०) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] ! पवयणसारो अन्वयार्थ- [यत् | जो [युगपत् ] एक ही साथ ।समन्ततः] सर्वतः (सर्व आत्मप्रदेशों से) [तात्कालिक] तात्कालिक (वर्तमानकालीन) [इतरं] या अतात्कालिक (भूत भविष्यत्) [विचित्र विचित्र (अनेक प्रकार के) और [विषमं] विषम (मूर्त-अमृत, चेतनअचेतन आदि असमान जाति के) [सर्व अर्थ] समस्त पदार्थों को [जानाति] जानता है [तत् ज्ञानं] वह ज्ञान [क्षायिक भणितं] क्षायिक कहा गया है। टीका-(१) वर्तमान काल में वर्तते, (२) भूत-भविष्यत् काल में वर्तते, (३) जिनमें पथक रूप से वर्तते स्वलक्षण रूप लक्ष्मी से आलोकित अनेक प्रकारों के कारण वैचित्र्य प्रगट हआ है, (४) और जिनमें परस्पर विरोध से उत्पन्न होने वाली असमान जातीयता के कारण वैषम्य प्रगट हुआ है, ऐसे (चार विशेषण वाले) समस्त पदार्थ समूह को एक समय में ही (युगपत्), सर्वतः (सर्व आत्म प्रदेशों से) क्षायिकज्ञान वास्तव में जानता है । इसी बात को युक्तिपूर्वक स्पष्ट रूप से समझाते हैं-(१) उस (केवलज्ञान) के वास्तव में कम-प्रवृत्ति के हेतु भूत, क्षयोपशम अवस्था में रहने वाले ज्ञानावरणीय कर्म-पुद्गलों का अत्यन्त अभाव होने से (बह क्षायिकज्ञान) तात्कालिक या अतात्कालिक पदार्थ-समूह को समकाल में (युगपत्) ही प्रकाशित करता है । (२) सर्वतः (सर्व प्रदेशों से) विशुद्ध (उस क्षायिक ज्ञान) के प्रतिनियत प्रदेशों की विशुद्धि (सवंतः विशुद्धि) के भीतर डूब जाने से, (वह क्षायिक ज्ञान) सर्वतः (सर्व आत्म-प्रदेशों से) ही प्रकाशित करता है। (३) सर्व आवरण का क्षय होने से, देश आवरण रूप क्षयोपशम के न रहने से (वह क्षायिकज्ञान) सबको भी प्रकाशित करता है (४) सर्व प्रकार ज्ञानावरणीय के क्षय से असर्व प्रकार के ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम के नाश होने से (यह क्षायिकज्ञान) विचित्र को (अनेक प्रकार के पदार्थों को) भी प्रकाशित करता है। (५) असमानजातीय ज्ञानावरण के क्षय से समान जातीय ज्ञानावरण के क्षयोपशम के नष्ट हो जाने से, (वह क्षायिकज्ञान) विषम को भी (असमानजाति के पदार्थों को भी) प्रकाशित करता है। सार-अथवा, अतिविस्तार से बस हो जिसका अनिवारित (रुकावट रहित फैलाव है) ऐसे प्रकाश स्वभावी होने से, क्षायिकज्ञान अवश्य ही सर्वदा (सर्वकालीन त्रिकालीन), सर्वत्र (सब क्षेत्र के लोक-अलोक के) सब पदार्थ को सर्वथा (सम्पूर्णरूप से) जाने अर्थात् जानता है। तात्पर्यवृत्ति अथ प्रथम तावात् केवलज्ञानमेव सर्वज्ञस्वरूपं, लदनन्तरं सर्वपरिज्ञाने सति एकपरिज्ञानं, एकपरिज्ञाने सति सर्व परिज्ञानमित्यादिकथनरूपेण गाथापच्चकपर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तद्यथा- अत्र ज्ञानप्रपञ्चध्याख्यानं प्रकृतं तावत्तत्प्रस्तुतमनुसृत्य पुनरपि केवलज्ञानं सर्वज्ञत्वेन निरूपयति Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १०६ जं यज्ज्ञानं कर्तृ जाणदि जानाति । के ? अत्थं अर्थ पदार्थमिति विशेष्यपदं । किं विशिष्टं ? सक्कालियमिवर तात्कालिके वर्तमानमितरं चातीतानागतम् । कथं जानाति ? जुगवं युगपदेकसम ये समंत समन्ततः सर्वात्मप्रकारेण वा । कतिसख्योपेतं? सव्ध समस्तं । पुनरपि किविशिष्ट ? विचित्तं नानाभेदभिन्नं । पुनरपि किरूपं ? यिसमं मूर्तामूर्तचेतनाचेतनादिजात्यन्त र विशेष विसदृशं तं गाणं खाइयं मणियं यदेवं गुणविशिष्टं शायि पिता। अभेदनगेन तदेत सर्वजस्वरूपं तदेवोपादेयभूतानन्तसुखाद्यनन्तगुणानामाधारभूतं सर्व प्रकारोपादेयरूपेण भावनीयम् । इति तात्पर्यम् ॥४७॥ उत्थानिका—आगे कहते हैं कि केवलज्ञान ही सर्वज्ञ का स्वरूप है। आगे कहेंगे कि सर्वज्ञ को जानते हुए एक का ज्ञान होता है तथा एक को जानते हुए सर्व का ज्ञान होता हैं। इस तरह पाँच गाथाओं तक व्याख्यान करते हैं। उनमें से प्रथम ही निरूपण करते हैं क्योंकि यहाँ ज्ञान प्रपंच के व्याख्यान की मुख्यता है, इसलिये उस ही को आगे लेकर फिर कहते हैं कि केवलज्ञान सर्वज्ञरूप है। ___अन्वय सहित विशेषार्थ—(ज) जो ज्ञान (समंतदो) सर्व प्रकार से आत्मा के प्रदेशों से (विचित्तं विसम) नाना भेवरूप अनेक जाति के मृत अमूर्त, चेतन-अचेतन, आधि (सम्वं अत्थं) सर्व पदार्थों को (तत्कालिगं) वर्तमान काल सम्बन्धी तथा (इतरं) भूत, भविष्यत् काल सम्बन्धी पर्यायों सहित (जुगवं) एक समय में व एक साथ (जाणदि) जानता है। (तं गाणं) उस ज्ञान को (खाइयं) क्षायिक (भणियं) कहा है । अभेद नय से वही सर्वज्ञ का स्वरूप है इसलिये वही ग्रहण करने योग्य अनन्त सुख आदि अनन्त गुणों का आधारभूत सब तरह से प्राप्त करने योग्य है, इस रूप से भावना करनी चाहिए। यह तात्पर्य है ॥४६॥ अथ सर्वमजानन्नेकमपि न जानातीति निश्चिनोतिजो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे । णा तस्स ण सक्कं सपज्जयं दत्वमेगं वा ॥४८॥ यो न विजानाति युगपदर्थान् वकालिकान् त्रिभुवनस्थान् । ज्ञातुं तस्य न शक्यं सपर्ययं द्रष्य मेक वा ॥४८॥ इह किलंकमाकाशद्रव्यमेकं धर्मद्रव्यमेकमधर्मद्रध्यमसंख्येयानि कालद्रव्याण्यनन्तानि जीवद्रव्याणि । ततोऽप्यनन्तगुणानि पुद्गलद्रव्याणि । तथैषामेव प्रत्येकमतीतानागतानुभूयमानभेदभिन्न निरवधिवृत्तिप्रवाहपरिपातिनोऽनन्ताः पर्यायाः । एवमेतत्समस्तमपि समुदित ज्ञेयं, इहैवैफ किचिज्जीवद्रव्यं ज्ञात । अथ यथा समस्तं दाह्य दहन वहनः समस्त वाह्यहेतुकसमस्तदायाकारपर्यायपरिणतसकलैकबहनाकारमात्मानं परिणमति, तथा समस्तं ज्ञेयं जानन माता समस्तशेयहेनुकसमस्तजेयाकारपर्यायपरिणतसकलैकज्ञानाकार चेतनत्वात् Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो स्वाभवप्रत्यक्षमात्मानं परिणमति । एतं किल द्रव्यस्वभावः । यस्तु समस्तं ज्ञेय न जानाति स, समस्तं वाह्यमवहन् समस्त दाह्यहेतुकसमस्तदाह्याकारपर्यायपरिणतसकलंकदहनाकारमात्मानं दहन इव समस्तज्ञे यहेतुकसमस्तज्ञेयाकारपर्यायपरिणतसकलंकज्ञानाकारमात्मानं चेतनत्वात् स्वानुभवप्रत्यक्षत्वेऽपि न परिणमति । एवमेतधायाति यः सर्वन जानाति स आत्मानं न जानाति ॥४८॥ भूमिका-अब, सबको नहीं जानता हुआ एक (आत्मा) को भी नहीं जानता है, यह निश्चय करते हैं अन्वयार्थ-- [यः] जो [युगपत्] एक ही साथ [कालिकान् त्रिभुवनस्थान्] त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ (तीनों काल के और तीनों लोक के) [अर्थात्] पदार्थों को [न विजानाति] नहीं जानता है [तस्य ] उसके [सपर्ययं] पर्याय सहित [एक द्रव्यं वा] एक (आत्मा) द्रव्य भी [ज्ञातुं न शक्यं] जानना शक्य नहीं है। टीका-इस विश्व में वास्तव में एक आकाश द्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, असंख्य कालद्रव्य और अनन्त जीयद्रव्य तथा उससे भी अनन्तगुणे पुद्गलद्रव्य हैं। उनमें से प्रत्येक के अतीत अनागत और वर्तमान ऐसे (तीन) प्रकारों से भेदवाली निरवधि (अमर्यादित) वृत्ति प्रवाह के भीतर पड़ने वाली अनन्त पर्यायें हैं। इस प्रकार यह समस्त हो (द्रव्यों और पर्यायों का) समुदाय ज्ञेय है। उनमें ही कोई एक मी जीव द्रव्य ज्ञाता है। अब यहाँ, जैसे समस्त (इंधन) को जलाती हुई अग्नि, समस्त दाह्यकहेतुक (समस्त दाह्य के निमित्त से होने वाले) समस्त वाह्याकार (इंधन आकार) पर्याय रूप परिणत सकल एक बहन जिसका आकार (स्वरूप) है, ऐसे अपने रूप परिणत होती है, वैसे ही समस्त जेय को जानता हुआ ज्ञाता (आत्मा), समस्त-शेय-हेतुक (समस्त जेय के निमित्त से होने वाले) समस्त ज्ञेयाकार पर्याय रूप परिणत सकल एक ज्ञान जिसका आकार (स्वरूप) है तथा जो चेतनपने के कारण स्वानुभव-प्रत्यक्ष है, ऐसे उस अपने भात्मा रूप परिणत होता है। वास्तव में ऐसा द्रव्य का स्वभाव है । जैसे समस्त वाह्य को न दहती हुई अग्नि, समस्तबाह्य-हेतुक समस्त दाहाकार पर्यायरूप परिणत सकल एक दहन जिसका आकार है, ऐसे अपने रूप में परिणत नहीं होती, उसी प्रकार जो समस्त ज्ञेय को नहीं जानता है, वह आत्मा, समस्त-ज्ञेय-हेतुक समस्त ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणत सकल एक ज्ञान जिसका आकार है, ऐसे अपने रूप में स्वयं चेतनपने के कारण स्वानुभव प्रत्यक्ष होने पर भी परिणत नहीं होता, (अपने को परिपूर्णतया अनुभव नहीं करता-नहीं जानता)। इस Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ १११ प्रकार यह फलित होता है कि जो सबको नहीं जानता वह अपने को ( आत्मा को ) नहीं जानता ॥४८॥ तात्पर्यवृत्ति अथ यः सर्व न जानाति स एकमति न जानातीति विचारयति - जो ण विजाणवि यः कर्ता नैव जानाति । कथं ? जुगवं युगपदेकक्षणं । कान् ? अत्ये अर्थान् । कथंभूतान् ? किलिये त्रिकालपर्यायपरिणतान् । पुनरपि कथंभूतान् ? तिहृवणत्थे त्रिभुवनस्थान् भावु तस्स ण सक्कं तस्य पुरुषस्य सम्बन्धिज्ञानं ज्ञातुं समर्थ न भवति । कि ? दख्वं ज्ञेयद्रव्यं । किविशिष्टं सपज्जयं अनन्तपर्यायसहितं । कतिसंख्योपेतं ? एगं वा एकमपीति । तथाहि - आकाशद्रव्यं तावदेक, धर्मद्रव्यमेकं, तथैवाधर्मेद्रव्यं च लोकाकाशप्रमितासंख्येय कालदव्याणि ततोऽनन्तगुणानि जीवद्रव्याणि तेभ्योप्यनन्तगुणानि पुद्गलद्रव्याणि । तथैव सर्वेषां प्रत्येक मनन्तपर्यायाः, एतत्सर्व ज्ञेयं तावत्तत्रकं विवक्षितं जीवद्रव्यं ज्ञात् भवति । एवं तावद्वस्तुस्वभात्रः । तत्र तथा दहन: समस्तं वाह्य दहन् सन् समस्तवाह्यहेतुकस मस्त ह्याकारपर्यायपरिणतसकलै कद हनस्वरूपरिणततृणपर्णाद्याकारमात्मानं स्वकोयस्वभावं परिणमति । तथायमात्मा समस्तं ज्ञेयं जानन् सन् समस्त ज्ञेय हेतु समस्त ज्ञेयाकारपय विपरिणतसकलै काखण्डज्ञानरूपं स्वकीयमात्मानं परिणमति जानाति परिच्छिति । तथैव च स एव दहन: पूर्वोक्तलक्षणं दाह्यमदहन् सन् तदाकारेण न परिणमति, तथामापि पूर्वोक्तलक्षणं समस्तं ज्ञयमजानन् पूर्वोक्तलक्षणमेव सकलैकाखण्डज्ञानाकारं स्वकीयमात्मानं न परिणमति न जानाति न परिच्छिनत्ति । अपरमप्युदाहरणं दीयते यथा कोऽप्यन्धक आदित्यप्रकाश्यान् पदार्थानपश्यनादित्यमिव, प्रदीपप्रकाश्यात् पदार्थनपश्यन् प्रदीपमिव, दर्पणस्थविम्वान्यपश्यन् दर्पणमिवस्वकीयदृष्टिप्रकाश्यान् पदार्थानपश्यन् हस्तपादाद्यवयवपरिणतं स्वकीयदेहाकारमात्मानं स्वकीयदृष्ट्या न पश्यति तथायं विवक्षितात्मापि केवलज्ञानप्रकाश्यान् पदार्थानजानन सकलाखण्डेककेवलज्ञानरूपमात्मानमपि न जानाति । तत एतत्स्थितं यः सर्व न जानाति स आत्मानमपि न जानातोति ॥ ४८ ॥ उत्थानिका -- -आगे आचार्य विचारते हैं कि जो ज्ञान सबको नहीं जानता वह ज्ञान एक पदार्थ को भी नहीं जान सकता है । अन्वय सहित विशेषार्थ -- ( जो ) जो कोई आत्मा (जुगवं ) एक समय में ( तिक्का लिगे) तीन काल की पर्यायों में परिणमन करने वाले ( तिहुक्णत्थे ) तीन लोक में रहने वाले ( अत्थे ) पदार्थों को (ण विजानदि) नहीं जानता है। ( तस्स) उस आत्मा का ज्ञान ( सपज्जयं) अनन्त पर्याय सहित ( एकं दवं ) एक द्रव्य को (वा) भी ( णा) जानने के लिये ( सक्क) नहीं समर्थ होता है । - भाव यह है कि आकाश द्रव्य एक है, धर्मद्रव्य एक है, तथा अधर्मद्रव्य एक है और लोकाकाश के प्रदेशों के प्रमाण असंख्यात कालद्रव्य हैं, उससे अनन्तगुणे जीवद्रव्य हैं, उससे भी अनन्त - गुणे पुद्गल ब्रभ्य है, क्योंकि एक-एक जीवद्रव्य में अनन्तकर्म धर्मणाओं का सम्बन्ध है तैसे ही अनन्त नोकर्मवगंणाओं का सम्बन्ध है । तँसे ही इन सब द्रव्यों में Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ } [ पवयणसारो प्रत्येक द्रव्य की अनन्तपर्यायें होती हैं क्योंकि काल के समय पुद्गलद्रव्य से भी अनन्तानन्त गुणे हैं। यह सब ज्ञेय - जानने योग्य हैं और इनमें एक कोई भी विशेष जीवद्रव्य ज्ञाता जानने वाला है। ऐसा ही वस्तु का स्वभाव है । यहाँ जंसे अग्नि सब जलाने योग्य ईंधन को जलाती हुई सब जलाने योग्य कारण के होते हुए सब ईंधन के पर्याय में परिणमन करते हुए सर्वमग्री एक अग्निस्वरूप हो जाती है अर्थात् वह अग्नि उष्णता में परिणत तृण व पत्तों आदि के आकार अपने स्वभाव को परिणमाती है । तैसे यह आत्मा सर्व ज्ञेयों को जानता हुआ सर्व ज्ञेयों रूप कारण के होते हुए सर्वोपरिन करते हुए सर्वमयो एक अखंडज्ञानरूप अपने ही आत्मा को परिणमाता है अर्थात् सबको जानता है, और जैसे वही अग्नि पूर्व में कहे हुए ईंधन को नहीं जलाती हुई उस ईंधन के आकार नहीं परिणमन होती है तँसे ही आत्मा भी पूर्व में कहे हुए सर्व ज्ञेयों को न जानता हुआ पूर्व में कहे हुए लक्षण रूप सर्व को जानकर एक अखड ज्ञानाकार रूप अपने हो आत्मा को नहीं परिणमाता है अर्थात् सर्व का ज्ञाता नहीं होता। दूसरा भी एक उदाहरण देते हैं । जैसे कोई अन्धा पुरुष सूर्य से प्रकाश ने योग्य पदार्थों को नहीं देखता, दीपक से प्रकाश ने योग्य पदार्थों को न देखता हुआ दीपक को भी नहीं देखता, दर्पण में झलकती हुई परछाई को न देखते हुए वर्पण को भी नहीं देखता, अपनी हो दृष्टि से प्रकाशने योग्य पदार्थो को न देखता हुआ हाथ, पैर आदि अंग रूप अपने ही अपने को अपनी दृष्टि से नहीं देखता है । तैसे इस प्रकरण में प्राप्त कोई आत्मा भी केवलज्ञान से प्रकाशते योग्य पदार्थों को नहीं जानता हुआ सकल अखंड एक केवलज्ञानरूप अपने आत्मा को नहीं जानता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो सबको नहीं जानता है वह अपने आत्मा को भी नहीं जानता है । देह के आकार को अर्थात् विशेष - यदि यहाँ पर कोई शंका करे कि ६ माह = समय में ६०८ जीव मोक्ष जाते रहते हैं । जीवों से काल अनन्तगुणा है, अत: सब भव्य जीव मोक्ष चले जायेंगे । सो यह शंका ठीक नहीं है। ऐसा नियम है कि सब वस्तु प्रतिपक्ष सहित होती हैं । इसलिये सब भव्य जीवों के मुक्त हो जाने पर भव्य जीवों का अभाव हो जायगा । भध्य जीवों के अभाव होने पर उनके प्रतिपक्षी अभव्य जीवों का भी अभाव हो जायगा । भव्य और अभव्य जीवों का अभाव होने पर संसारी जीवों का भी अभाव हो जायगा । संसारी जीवो का अभाव होने पर उनके प्रतिपक्षी मुक्त जीवों का भी अभाव हो जायगा । इस प्रकार जीव मात्र के अभाव का प्रसंग आ जायगा । [ धवल पु० १४ १० २३३-३४] ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] श्री पंचास्तिकाय गाथा ८ में भी 'सम्पडिववखा हबई' शब्दों द्वारा इस सिद्धान्त का समर्थन होता है कि सब सप्रतिपक्ष हैं। अत: 'नियति' भी अपने प्रतिपक्ष अनियति की अपेक्षा रखती है । यदि अनियत पर्यायों का अभाव माना जायगा तो नियत पर्यायों का भी अभाव हो जायगा । नियत और अनियत पर्यायों के अभाव से पर्याय मात्र का अमाव हो जायगा, और पर्याय मात्र के अभाव हो जाने से द्रव्य के अभाव का प्रसंग आ जायगा। अतः पर्याय नियत और अनियत बोनों प्रकार की हैं ॥४॥ अर्थकमजानन सयं न जानतीति निश्चिनोति-- दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दवजादाणि । ण विजाणवि जदि जुगवं 'किध सोसम्वाणि जाणादि ॥४६॥ द्रव्यमनन्तपर्यायमेकमनन्तानि द्रव्यजाताति । न विजानाति यदि युगपत् कथं स सर्वाणि जानाति ॥४६॥ आत्मा हि तावत्स्वयं ज्ञानमयत्वे सति ज्ञातृत्वात् ज्ञानमेव । ज्ञानं तु प्रत्यात्मवति प्रतिभासमयं महासामान्यम् । तत्तु प्रतिभासमयानन्तविशेषव्यापि । ते च सर्वप्रध्यपर्यायनिबन्धनाः । अथ यः सर्वद्रव्यपर्यायनिबन्धनानन्तविशेषव्यापिप्रतिभासमयमहासामान्यरूपमात्मानं स्वानुभवप्रत्यक्ष न करीत स कथं प्रतिम समयमहासामान्यध्यायप्रतिमासमयानन्तविशेषनिबन्धनभूतसर्वद्रव्यपर्यायान् प्रत्यक्षीकुर्यात् । एवमेतदायाति य आत्मानं न जानाति स सर्व न जानाति । अथ सर्वज्ञानावात्मज्ञानमात्मज्ञानात्सर्वज्ञानमित्यवष्ठिते । एवं च सति ज्ञानमयत्येन स्वसंचेतकत्वादात्मनो ज्ञातशेययोर्वस्तुत्वेनान्यत्वे सत्यपि प्रतिभासप्रतिभास्यमानयोः स्वस्थामवस्थायामन्योन्यसंवलनेनात्यन्तमशक्यविवेचनत्वात्सर्वमात्मनि निखात मिव प्रतिभाति । यद्येवं न स्यात् तदा ज्ञानस्य परिपूर्णात्मसंचेतनाभावत् परिपूर्णस्यकस्यात्मनोऽपि ज्ञानं न सिद्धयत् ॥४६॥ भूमिका-अब, एक को न जानने वाला सबको नहीं जानता, यह निश्चित करते हैं अन्वयार्थ-[यदि] जो [अनन्तपर्यायं] अनन्त पर्याय वाले [एक द्रव्यं ] एक द्रव्य को (आत्मद्रव्य को) [न विजानाति] नहीं जानता [सः] तो वह [युगपत् ] एक ही साथ [सर्वाणि अनन्तानि-द्रव्यजातानि] सर्व अनन्त द्रव्य जातियों को [कथं जानाति] कैसे जान सकेगा (अर्थात् नहीं जान सकता)। टीका-पहले तो आत्मा वास्तव में स्वयं ज्ञानमय होने पर ज्ञातृत्व के कारण ज्ञान ही है। प्रत्येक आत्मा में रहने वाला ज्ञान प्रतिभासमय महा-सामान्य है। वह (1) कधं (ज० वृ०)। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] पवयणसारो प्रतिभासमय अनन्त विशेषों में व्याप्त होने वाला है। और वे (अनन्त विशेष) सर्व द्रव्यपर्याय-निमित्तक है । जो पुरुष सर्व द्रध्य पर्याय जिनके निमित्त हैं ऐसे अनन्त विशेषों में व्याप्त होने वाले प्रतिभासमय महासामान्यरूप आत्मा को स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता है, वह प्रतिभासमय महासामान्य के द्वारा व्याप्त जो प्रतिभासमय अनन्त विशेष हैं उनके कारणभूत सर्व द्रव्य पर्यायों को कैसे प्रत्यक्ष करें ? (नहीं कर सकता)। इससे यह फलित हआ कि जो आत्मा को नहीं जनता, वह सबको नहीं जानता। अब (गाथा ४८ से) सर्व के ज्ञान से आत्मा का ज्ञान और (गाथा ४६ से) आत्मा के ज्ञान से सर्व का ज्ञान होता है, यह (सिद्धान्त) निश्चित होता है। ऐसा होने से आत्मा के ज्ञानमयता के कारण स्वसंचेतकपना होने से, ज्ञाता और जेय का वस्तु रूप से अन्यत्व होने पर भी प्रतिभास (ज्ञान) और प्रतिभास्यमान (ज्ञेयाकार) का अपनी अवस्था में अन्योन्य मिलन होने के कारण (ज्ञान और ज्ञेय आकार, आत्मा की ज्ञान की अवस्था में परस्पर मिश्रित एकमेक रूप होने के कारण) उन्हें भिन्न करना अत्यन्त अशक्य होने से सब कुछ आत्मा में खुदे हुए के समान प्रतिभासित होता है। (आत्मा ज्ञानमय है इसलिये वह अपने को अनुभव करता है--जानता है, और अपने को जानने पर समस्त ज्ञेय ऐसे ज्ञात होते हैं मानों वे ज्ञान में स्थित ही हों, क्योंकि ज्ञान की अवस्था में से ज्ञेयाकारों को भिन्न करना अशक्य है)। यदि ऐसा न हो तो (यदि आत्मा सबको न जानता हो तो) ज्ञान के परिपूर्ण आत्मसंचेतन का अभाव होने से परिपूर्ण तक आत्मा का भी ज्ञान सिद्ध नहीं होता ॥४॥ तात्पर्यवृत्ति अथै कमजानन् सर्वं न जानातीति निश्चिनोति दव्यं द्रव्यं अपंतपज्जयं अनन्तपर्यायं एमं एक अणंताणि दन्वजावाणि अनन्तानि द्रव्यजातानि जो ण विजापदि यो न विजानाति अनन्तद्रव्यसमूहान् कधं सो सवाणि जाणादि कथं स सर्वान् जानाति जुगवं युगपदेक समये, न कथमपीति तथाहि-आरमलक्षणं तावज्ज्ञानं तच्चाखण्डप्रतिभासमयं सर्वजीवसाधारण महासामान्यम् । तच्च महासामान्य ज्ञानमयानन्तविशेषव्यापि । ते च ज्ञानविशेषा अनन्तद्रव्यपर्यायाणां विषयभूतानां ज्ञवभूतानां परिछंच्नका ग्राहकाः । अखण्डे कप्रतिभासमयं यन्महासामान्य तत्स्वभावमात्मानं योसौ प्रत्यक्षं न जानाति स पुरुष: प्रतिभासमयेन महासामान्येन ये व्याप्ता अनन्तशानविशेषास्तेषां विषयभूताः येऽनन्तद्रव्यायास्तान् कथं जानाति ? न कथमपि । अथ एतदायात य: आत्मानं न जानाति स सर्व न जानातीति । तथा चोक्तम् "एको भाव: सर्वभावस्वभावः, सर्व भावा एकभावस्वभावाः । • एको भावस्तत्वतो येन बुद्धः, सर्वे भावास्तत्वतस्तेन बुद्धा: ।।१।।" Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारी ] अत्राह शिष्य:-आत्मपरिज्ञाने सति सर्वपरिजनं भवतीत्यत्र व्याख्यातं, तत्र तु पूर्वसूत्रे भणितं सर्वपरिज्ञाने सत्यात्मपरिज्ञानं भवतीति । यद्य व तहि छद्मस्थानां सर्वपरिज्ञानं नास्त्यात्मपरिज्ञानं कथं भविष्यति ? आत्मपरिज्ञानाभावे चात्मभावना फथ ? तदमावे केवलज्ञानोत्पत्तिस्तिोति । परिहारमाह - परमाणभूतनाग माना जागते : दशमिति चेत् लोकालोक.दिपरिज्ञानं व्याप्तिज्ञानरूपेण छद्मस्थानामपि विद्यते, तच्च व्याप्तिज्ञानं परोक्षाकारेण केवलज्ञानविषयग्राहक कविदात्मैव भव्यते । अथवा स्वसंवेदनज्ञानेनात्मा ज्ञायते, ततश्च भावना क्रियते, तया रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानभावनया केवलज्ञानं च जायते । इति नास्ति दोष: ।। ४६) उत्थानिका-आगे निश्चय करते हैं कि जो एक को नहीं जानता वह सबको भी नहीं जानता है। अन्वय सहित विशेषार्थ—(अदि) यदि कोई आत्मा (एगं अगंतपज्जयं बव्य) एक अनन्त पर्यायों के रखने वाले द्रव्य को (ण विजाणदि) निश्चय से नहीं जानता है (सो) वह आत्मा (क) किस तरह (सवाणि अणंताणि दध्वजादाणि) सर्व अनन्तद्रव्य समूहों को (जुगवं) एक समय में (जाणादि) जान सकता है ? अर्थात् किसी तरह भी नहीं जान सकता। विशेष यह है कि आत्मा का लक्षण ज्ञानस्वरूप है। सो अखंड रूप से प्रकाश करने वाला सर्व जीवों में साधारण महासामान्यरूप है। वह महासामान्य ज्ञान अपने ज्ञानमयी अनन्त विशेषों में व्यापक है, वे ज्ञान के विशेष अपने विषय रूप ज्ञेय पदार्थ जो अनन्त तथ्य और पर्याय हैं उनको जानने वाले, ग्रहण करने वाले हैं जो कोई अपने आत्मा को अखण्ड रूप से प्रकाश करते हुए महासामान्य स्वभाव रूप प्रत्यक्ष नहीं जानता है वह पुरुष प्रकाशमान महासामान्य के द्वारा जो अनन्सज्ञान के विशेष व्याप्त हैं उनके विषय रूप जो अनन्त द्रव्य और पर्याय हैं उनको कैसे जान सकता है ? अर्थात् किसी भी तरह नहीं जान सकता । इससे यह सिद्ध हुआ कि जो अपने आत्मा को नहीं जानता है वह सर्व को नहीं जानता है । ऐसा कहा भी है एको मावः सर्व-भाव-स्वभावः सवें भावा एक-भाव-स्वभावाः । एको भावस्तत्त्वतो येन बद्रः सर्व भावास्तत्वतस्तेन बद्धाः॥ भाव यह है कि एक-भाव सर्व-भावों का स्वभाव है और सर्व-भाव एक-भाव के स्वभाव हैं । जिसने निश्चय से-यथार्थ रूप से एक भाव को जाना उसने यथार्थ रूप से सर्व भावों को जाना है। यहाँ शाता और ज्ञेष सम्बन्ध लेना चाहिये, जिसने ज्ञाता को जाना उसने सब ज्ञेयों को जाना ही है। यहाँ पर शिष्य ने प्रश्न किया कि आपने यहाँ यह व्याख्या की कि आत्मा को जानते हुए सर्व का ज्ञानपना होता है और इसके पहले सूत्र में कहा था कि सब ज्ञान से Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पबयणसारो मात्मा का ज्ञान होता है। यदि ऐसा है तो मृदाम्थों को पर्व का ज्ञान नहीं है, तब उनको आत्मा का ज्ञान कैसे होगा? यदि उनको आत्मा का ज्ञान न होगा तो उनके आत्मा को भावना कसे होगी ? यदि आत्मा की भावना न होगी तो उनको केवलज्ञान को उत्पत्ति नहीं होगी ? इस शंका का समाधान करते हैं कि परोक्ष प्रमाणरूप श्रुप्तज्ञान से सर्व पदार्थ जाने जाते हैं। यह कसे सो कहते हैं कि छमस्यों को भी लोक और आलोक का ज्ञान व्यारित ज्ञानरूप से है। वह व्याप्ति ज्ञान परोक्ष रूप से केवलज्ञान के विषय को ग्रहण करने वाला है इसलिये किसी अपेक्षा से मात्मा ही कहा जाता है। अथवा स्वसवेदन ज्ञान आत्मा को जानते हैं, और फिर उसकी भावना करते हैं। इसी रागद्वेषादि विकल्पों से रहित स्वसंवेदन ज्ञान की भावना के द्वारा केवलज्ञान पैदा हो जाता है। इसमें कोई दोष नहीं है ॥४॥ अथ क्रमकृतप्रवृत्त्या ज्ञानस्य सर्वगतत्वं न सिद्धयतीति निश्चितोतिउप्पज्जदि जदि गाणं कमसो अढे पडुच्च णाणिस्स । तं व हदि णिच्चं ण खाइगं व सत्वगदं ॥५०॥ उत्पद्यते यदि ज्ञानं क्रमशोऽर्थान् प्रतीत्य शानिनः । तन्नैव भवति नित्यं न क्षायिक नैव सर्वगतम् ॥५०॥ यत्किल कमेणंककमर्थमालम्ब्य प्रवर्तते ज्ञानं, तबेकार्थालम्बनादुत्पन्नमन्यार्थालम्बनात् प्रतीयमानं नित्यमसत्तथा कर्मोदयादेको व्यक्ति प्रतिपन्नं पुनर्व्यक्त्यन्तरं प्रतिपद्यमान क्षायिकमायसवनन्तद्रव्यक्षेत्रकालभावानाक्रान्तुमशक्तत्वात् सर्वगतं न स्यात् ॥५०॥ भूमिका-अब क्रम से होने वाली प्रवृत्ति से ज्ञान की सवंगतता सिद्ध नहीं होती, यह निश्चित करते हैं अन्वयार्थ- [यदि] जो [ज्ञानिन: ज्ञान] आत्मा का ज्ञान [क्रमशः] क्रम से [अर्थात् प्रतीत्य] पदार्थों का अवलम्बन लेकर [उत्पद्यते ] उत्पन्न होता है [तत्] तो वह ज्ञान [न एव नित्यं भवति] नित्य नहीं है, [न क्षायिक] क्षायिक नहीं है, [न एव सर्वगतं | और सवंगत [सबके जानने वाला] नहीं है। टीका-जो ज्ञान वास्तव में क्रम से एक-एक पदार्थ का अवलम्बन लेकर प्रवृत्त होता है वह एक पदार्थ के अवलम्बन से उत्पन्न और दूसरे पदार्थ के अवलम्बन से नष्ट (हो जाने से) नित्य नहीं होता। तथा कर्मोदय के कारण से एक व्यक्ति (पर्याय-विशेष) १. खाइयं (ज० वृ०) (२) णेव सव्वगयं (ज० वृ.) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ११७ को प्राप्त फिर अन्य व्यक्ति को प्राप्त होता हुआ (अर्थात् ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होनाधिक होता हुआ) क्षायिक भी नहीं होता। अनन्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को प्राप्त करने के लिये (जानने के लिये) असमर्थपने से सर्वगत नहीं होता है ॥५०॥ तात्पर्यत्ति अथ क्रमप्रवृत्तज्ञानेन सर्वज्ञो न भवतीति व्यवस्थापयति अप्पज्जवि जवि णाणं उत्पद्यते ज्ञान यदि चेत् कमसो क्रमशः सकाशात् किं कृत्वा ? अटठेपच्च ज्ञेयार्थानाश्रित्य कस्य ? णाणिस्स ज्ञानिन: आत्मन: तं णेष हववि णिच्चं उत्पत्तिनिमित्तभूतपदार्थविनाशे तस्यापि विनाश इति नित्यं न भवति । ण खाइयं ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमाधीनत्वात् क्षायिकमपि न भवति । णेव सध्वगयं यत एवं पूर्वोक्तप्रकारेण पराधीनत्वेन नित्यं न भवति, क्षयोपशमाधीनत्वेन क्षायिकं न भवति तत एव युगपत्समस्नद्रव्य क्षेत्रकालभावानां परिज्ञानसामाभावासवंगतं न भवति । अत एतत्स्थितं यद् ज्ञानं क्रमेणार्थान् प्रतीत्य जायते तेन सर्वज्ञो न भवति इति ।।५०।। उत्थानिका--आगे कहते हैं कि जो ज्ञान क्रम से पदार्थों के जानने में प्रवत्ति करता है उस ज्ञान से कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है अर्थात् क्रम से जानने वाले को सर्वज्ञ नहीं कह सकते। अन्वय सहित विशेषार्थ-(जदि) यदि (णाणिस्त) ज्ञानी आत्मा का (णाण) ज्ञान (अ) जानने योग्य पचायों को चिच) आश्रय कर कमलो) क्रम से (उपज्जवि) पैदा होता है। तो (तं) वह ज्ञान (णिच्च) अविनाशी (व) नहीं (हादि) होता है अर्यात जिस पदार्थ निमित्त से ज्ञान उत्पन्न हुआ है उस पदार्थ के नाश होने पर उस पदार्थ का ज्ञान भी नाश होता है इसलिये वह ज्ञान सदा नहीं रहता है, इससे नित्य नहीं है। (ण खाइयं) न क्षायिक है क्योंकि वह परोक्षज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के अधीन है (व सन्चगयं) और न यह सर्वगत है, क्योंकि जब वह पराधीन होने से नित्य नहीं है, क्षयोपशम के अधीन होने से क्षायिक नहीं है, इसीलिये ही वह ज्ञान एक समय में सर्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों को मानने के लिये असमर्थ है इसलिये सर्वगत नहीं है। इसले यह सिद्ध हुआ कि जो ज्ञान क्रम से पदार्थों का आश्रय लेकर पैदा होता है उस ज्ञान के रखने से सर्वज्ञ नहीं हो सकता ।।५०॥ अथ योगपद्यप्रवृत्त्यय ज्ञानस्य सर्वगतत्वं सिद्धचतीति व्यवतिष्ठते तिक्कालगिच्चविसमं सयलं सम्वत्थसंभवं चित्तं । जुगवं जाणवि जोण्हं अहो हि णाणस्स महाप्पं ॥५१॥ काल्पनित्यविषमं सकलं सर्वत्रसंभवं चित्रम् । युगपज्जानाति जैनमहो हि ज्ञानस्य माहात्म्यम् ।।५१।। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ 1 [ पवयणसारो क्षायिक हि ज्ञानमतिशयास्पदीभूतपरममाहात्म्यं, यत्तु युगपदेव सर्वार्थानालम्ब्य प्रवर्तते ज्ञानं तट्टोत्कीर्णन्यायावस्थितसमस्तवस्तुज्ञेयाकारतयाधिरोपितनित्यत्वं प्रतिपन्नसमस्तव्यक्तित्वेनाभिव्यक्तस्वभावभासिक्षायिकभावं त्रैकाल्येन नित्यमेव विषमीकृतां सकलामपि सर्वार्थसंभूतिमनन्तजातिप्रापितवैचित्र्यं परिच्छिन्दवक्रमसमानान्तानन्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया प्रकटीकृताद्भुतमाहात्म्यं सर्वग्तमेव स्यात् ॥५१॥ भूमिका-अब, युगपत् प्रवृत्ति से ही ज्ञान का सर्वगतपना सिद्ध होता है, यह निश्चित करते हैं अन्वयार्थ-[काल्यनित्यविषमं] त्रिकालिक, नित्य, विषम, [सर्वत्र संभव | सर्व क्षेत्रों में होने वाले, तथा [चित्रं] अनेक प्रकार के, [सकलं] समस्त पदार्थों को [जनं] जिनदेव का ज्ञान [युगपत्] एक साथ [जानाति] जानता है। [अहो हि] अहो ! [ज्ञानस्य माहात्म्य ] (यह) ज्ञान का माहात्म्य है ।। टीका–क्षायिकज्ञान वास्तव में सवोत्कृष्टता का स्थानभूत परम महिमा वाला है। (क्यों ? इसी को आचार्य स्वयं स्पष्ट करते हैं। लागिकजान युगपत् (एक साथ ही) समस्त पदार्थों का आलम्बन लेकर प्रवर्तता है, तथा समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकार टंकोत्कीर्ण न्याय से अवस्थित (अपने में स्थित) होने से जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है, तथा समस्त व्यक्तित्व को प्राप्त कर लेने से जिसने स्वभाव-प्रकाशक क्षायिकभाव प्रगट किया है, ऐसा वह ज्ञान कालिक, नित्य तथा विषम (असमानजाति रूप से परिणत होने वाले), अनन्त प्रकारों के कारण विचित्रता को प्राप्त, सम्पूर्ण सर्व पदार्थों के समूह को जानता हुआ, अक्रम से (युगपत् ) अनन्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को प्राप्त होने से जिसने अद्भुत माहात्म्य को प्रगट किया है, सर्वगत ही है ॥५१॥ तात्पयत्ति अथ युगपत्परिच्छित्तिरूपज्ञानेनव सर्वज्ञो भवतीत्यावेदयति .. जाणवि जानाति । कि कर्तृ ? जोण्हं जनं ज्ञानं । कथं ! जुगवं युगपदेकसमये अहो हि गाणस्स माहप्पं अहो हि स्फुटं जनज्ञानस्य माहात्म्यं पश्यताम् । किं जानाति ? अर्थमित्यध्याहारः । कथंभूतं ? तिवकालणिच्चविसमं त्रिकालविषयं त्रिकाल गतं नित्यं सर्वकालं । पुनरपि किंविशिष्ट ? सयल समस्तं । पुनरपि कथंभूतं ? सम्बत्यसंभव सर्वत्रलोके संभवं समुत्पन्न स्थितं । पुनश्च किरूपं ? चित्तं नानाजातिभेदेन विचित्रमिति । तथाहि युगपत्सकलग्राहकज्ञानेन सर्वज्ञो भवतीति ज्ञात्वा किं कर्तव्यं ? ज्योतिष्कमन्त्रवादरससिद्धचादीनि यानि खण्डविज्ञानानि मूढजीवानां चित्तचमत्कारका रणानि परमात्मभावनाविनाशकानि च तत्र ग्रहं त्यक्त्वा जगत्रयकाल श्यसकलवस्तु युगपत्प्रकाशकमविनश्वरमखण्डकप्रतिभासरूपं सर्वज्ञ. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ११६ शब्दवाच्य यस्केवलज्ञानं तस्यैवोत्पत्ति रणभूतं यत्समस्त रागादिविकल्पजालेन रहितं सहजशुद्धात्मनो. ऽभेदज्ञानं तत्र भावना कर्तव्या, इति तात्पर्यम् ।।५।। एवं केवलज्ञान मेव सर्वज्ञ इति कथनरूपेण गाथै का, तदनन्तरं सर्वपदार्थपरिज्ञानमिति प्रथमग्नथा परमात्मज्ञानाच्च सर्वपदार्थ परिज्ञानमिति द्वितीया चेति । ततश्च क्रमप्रवृत्तज्ञानेन सर्वज्ञो न भवतीति प्रथमगाथा, युगगदग्राहकेण स भवतीति द्वितीया ति समुदायेन सप्तमस्थले गाथापच्वकं गतम् । भूमिका--अब यह प्रगट करते हैं कि जो एक समय में सब को जान सकता है, उसी शान से सर्वन होता है अन्वय सहित विशेषार्थ-(जोव्ह) जिनेन्द्र का ज्ञान अर्थात् जिनशासन में जिस प्रत्यक्षज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं वह ज्ञान (जुगवं) एक समय में (सव्वत्थसंभव) सर्व लोकालोक में स्थित तथा (चित्त) नाना जाति भेद से विचित्र (सपलं) सम्पूर्ण (तिकालणिच्चयिसम) तीन काल सम्बन्धी पदार्थों को सदा काल विषमरूप अर्थात् जैसे उनमें भेद हैं उन भेदों के साथ अथवा 'तिक्कालगिच्चविसयं' ऐसा भी पाठ है जिसका अर्थ है तीन काल के सर्व द्रव्य अपेक्षा नित्य पदार्थों को (जाणदि) जानता है। (अहो हि णाणस्स माहप्पं) अहो निश्चय से ज्ञान का माहात्म्य आश्चर्यकारी है। विशेष भाव यह है कि एक समय में सर्व को ग्रहण करने वाले ज्ञान से ही सर्वज्ञ होता है ऐसा जानकर क्या करना चाहिये सो कहते है ज्योतिष, मन्त्र, वाद, रस-सिद्धि आदि के जो खण्डज्ञान हैं तथा जो मूढ जीवों के चित्त में चमत्कार करने के कारण हैं और जो परमात्मा की भावना के नाश करने वाले हैं उन सर्व ज्ञानों में आग्रह या हठ त्याग करके तीन जगत् च तीन काल की सर्व वस्तुओं को एक समय में प्रकाश करने वाले, अविनाशी तथा अखण्ड और एक रूप से उद्योत रूप तथा सवंजत्व शब्द से कहने योग्य जो केवलज्ञान है, उसकी ही उत्पत्ति का कारण जो सर्व रागद्वेषादि विकल्प-जालों से रहित स्वाभाविक शुद्धात्मा का अभेदज्ञान अर्थात् स्वानुभव रूप ज्ञान है उसमें भावना करनी योग्य है, यह तात्पर्य है ॥५१॥ . इस प्रकार केवलज्ञान ही सर्वज्ञपना है, ऐसा कहते हुए गाथा एक, फिर सर्व पदार्थों के परिज्ञान से परमात्मज्ञान होता है ऐसी एक गाथा, परमात्मज्ञान से सर्व पदार्थ का परिज्ञान होता है ऐसी दूसरी गाथा है। फिर क्रम से होने वाले ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होता है, ऐसा कहते हुए एक गाथा तथा एक समय में सर्व को जानने से सर्वज्ञ होता है, ऐसा कहते हुए दूसरी, इस तरह सातवें स्थल में पांच गाथाएं पूर्ण हुई। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० । [ पवयणसारो अथ ज्ञानिनो ज्ञप्तिक्रियासद्भावेऽपि कियाफलभूतं बन्धं प्रतिषेधयन्नुपसंहरतिण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पज्जदि व तेसु अठेसु । जाणपणवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ॥५२॥ नापि परिणमति न गृह्णाति उत्पद्यते नेव तेश्र्थषु । जानपि तानात्मा अनन्धकस्तेन प्रज्ञप्त: ॥५२॥ ___ इह खलु "उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया । तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि ॥” इत्यत्र सूत्रे उदयगतेषु पुद्गलकर्मीशेषु सत्सु संचेतयमानो मोहरागद्वेषपरिणतत्वात् ज्ञेयार्थपरिणमनलक्षणया क्रियया युज्यमानः क्रियाफलभूतं बंधमनुमवति, न तु ज्ञानादिति प्रथम मेवार्थपरिणमनक्रियाफलत्धेन बन्धस्य समर्थितत्वात् । तथा 'गेण्हदि णेव ण मुञ्चदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं मिरवसेस ।।' इत्यर्थपरिणमनादिक्रियाणामभावस्य शुद्धात्मनो निरूपितत्याच्चार्थानपरिणमतोऽगृहृतस्तेस्वनुत्पद्यमानस्य चात्मनो ज्ञप्तिक्रियासद्भावेऽपि न खलु क्रियाफलभूतो बन्धः सिद्धयेत् ॥५२॥ भूमिका-अब ज्ञानी के (केवलज्ञानी के), ज्ञप्ति-क्रिया का सद्भाव होने पर भी, क्रिया के फल रूप बन्ध को निषेध करते हुए उपसंहार करते हैं (केवलज्ञानी आत्मा के जानने की क्रिया होने पर भी बन्ध नहीं होता, यह कहकर ज्ञान अधिकार पूर्ण करते हैं) : ___ अन्वयार्थ-[आत्मा] (केवलज्ञानी) आत्मा [तान जानन अपि] उन पदार्थों को जानता हुआ भी [ न अपि परिणमति ] उस रूप परिणत नहीं होता, [न गृह्णाति] उन्हें ग्रहण नहीं करता, [तेषु अर्थेषु न एव उत्पद्यते] और उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न नहीं होता [तेन] इसलिये [अबन्धकः प्रज्ञप्तः] (वह) अबन्धक कहा गया है। टोका-यहां वास्तव में 'उदयगताः कर्माशाः जिनवरवृषभः नियत्या मणिताः । तेषु विमूढः रक्तः दुष्टः वा बंधमनुभवति' इस ४३वे गाथा-सूत्र में "उदयगत पुद्गल कर्माशों के विद्यमान रहने पर (उन्हें) संचेतन करता हुआ (अनुभव करता हुआ) मोह-राग-द्वेष रूप परिणमन स्वरूप क्रिया के साथ युक्त होता हमा आत्मा क्रियाफल-भूत बंध को अनुभव करता है, ज्ञान से नहीं" । इस प्रकार प्रथम ही अर्थ-परिणमन-क्रिया के फलरूप से बन्ध का समर्थन किया गया है तथा 'गृह्णाति नंब न मुचंति न परं परिणमति केवली भगवान् । पश्यति समन्ततः सः जानाति सर्व निविशेष' इस ३२वें गाथा-सूत्र में शुद्धात्मा के, अर्थ परिणमन आदि क्रियाओं का अभाव, निरूपित किया गया है। इसलिये पदार्थ रूप में Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्यणसारो ] [ १२१ परिणत नहीं होने वाले, पदार्थों को ग्रहण नहीं करने वाले तथा उन पदार्थों में उत्पन्न नहीं होने वाले (उस) आत्मा के ज्ञप्ति-क्रिया का सद्भाव होने पर भी वास्तव में क्रिया-फलभूत बन्ध सिद्ध नहीं होता। जानन्नध्येष विश्वं युगपदपि भवाविभूतं समस्तं, मोहामावाचदात्मा परिणामति परं नैव निलनकर्मा । तेनास्ते मुक्त एव प्रसविकसितमप्तिविस्तारपीत ज्ञेयाकारां त्रिलोकों पृथगपृथगप द्योतयन् ज्ञानमूतिः ॥४॥ इति ज्ञानाधिकार: अन्वय-(पेन) निलनकर्मा एषः आत्मा भवद्भाविभूतं समस्तं विश्वं युगपत् जानन अपि मोहाभावात् परं नव परिणमप्ति तेन अथ प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीतज्ञेयाकारां त्रिलोकी पृथक् अपृथक् द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः मुक्तः एव आस्ते । अन्वयार्थ-[येन] क्योंकि निलूनकमा] जिसने कमाँ को छेद डाला है ऐसा [एषः आत्मा] यह आत्मा [भवद्भाविभूतं] भूत, भविष्यत् और वर्तमान [समस्तं विश्वं] समस्त विश्व को (तीनों काल की पर्यायों से युक्त पदार्थों को [युगपत् ] एक ही साथ [जानन] जानता हुआ [अपि] भी [मोहाभावात् ] मोह के अभाव के कारण [परं] पररूप [नव परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [तेन] इसलिये [अथ] अब, [प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीतज्ञेयाकारां] अत्यन्त विकसित ज्ञाप्ति के विस्तार से जिसने स्वयं समस्त ज्ञेयाकारों को पी लिया है, ऐसे तीनों लोकों के पदार्थों को [पृथक् अपृयक् द्योतयन्] पृथक् और अपृ. थक् प्रकाशित करता हुआ वह [ज्ञानमूर्तिः] ज्ञानमूर्ति [मुक्तः एव आस्ते] मुक्त ही रहता है । तात्पर्यवत्ति अथ पूर्व यदुक्त पदार्थपरिच्छित्तिमद्भावेऽपि रागद्वेषमोहाभावात् केवलिनां बन्धो नास्तीति तमेवार्थ प्रकारान्तरेण दृढीकुर्वन् ज्ञानप्रपञ्चधिकारमुपसंहरति ण वि परिणमदि यथा स्वकीयात्मप्रदेशः समरसीभावेन सह परिणमति तथा ज्ञेयरूपेण न परिणमति प गेहवि यथैव चानन्त ज्ञान दिचतुष्टयरूपामात्मरूपमात्मरूपतया गृणाति तथा ज्ञेयरूपं न गृह्णाति उप्पज्जदि णेच लेसु अठे सु यथा च निर्विकारपरमानन्दै कसुखरूपेण स्वकीयसिद्धपर्यायेणोत्पद्यते तर्थव च शेयपदार्थेषु नोत्पद्यते कि कुर्वन्नपि ? जाणण्णवि ते तान् जयपदार्थान् स्वस्मात् पृथग्रूपेण जानन्नपि । स क: कर्ता ? आवा मुक्तात्मा अबंधमो तेण पणत्तो ततः कारणात्कर्मणामबन्धक: प्रज्ञप्त इति । तथा-रागादिरहितज्ञानं बन्धकारणं न भवतीति ज्ञात्वा शुद्धात्मोपलम्भलक्षणमोक्षविपरीतस्य नारकादिदुःखकारणकर्मबन्धस्य कारणानीन्द्रियमनोजनितान्येकदेशविज्ञानानि त्या सकलविमलकेवलज्ञानस्य कर्मवन्धाकारणभुतस्य यद्वीजभूतं निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानं तव भावना कर्तव्येत्यभिप्राय: एवं रागद्वेष मोहितत्वात्केवलिनां बन्धो नास्तीति कथनरूपेण ज्ञानप्रपञ्चसमाप्ति. मुख्यत्वेन चैकसूत्रेणाष्टमस्थलं गतम् ॥५२॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] । पबयणसारो उत्थानिका--आगे पहले जो यह कहा था कि पदार्थों का ज्ञान होते हुए भी राग द्वेष मोह का अभाव होने से केवलज्ञानियों को बन्ध नहीं होता है, उस ही अर्थ को दूसरी तरह से दृढ़ करते हुए ज्ञान प्रपंच का संकोच करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ- (आदा) आत्मा अर्थात् मुक्त स्वरूप केवलज्ञानी या सिद्ध भगवान की आत्मा (ते जाणण्णवि) उन जेय पदार्थों को अपने आत्मा से भिन्न रूप जानते हुए भी (तेसु अट्ठे सु) उन ज्ञेय पदार्थों के स्वरूप में (ण यि परिणमदि) न तो परिणमन करता है अर्थात जैसे अपने आत्मप्रदेशों के द्वारा समतारस से पूर्ण भाव के साथ परिणमन कर रहा है वैसा जेय पदार्थों के स्वरूप नहीं परिणमन करता है अर्थात् आप अन्य पदार्थ रूप नहीं हो जाता है । (ण गेण्हदि) और न उनको ग्रहण करता है अर्थात् जैसे वह आत्मा अनन्तज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय रूप अपने आत्मा के स्वभाव को आत्मा के स्वभाव रूप से ग्रहण करता है वैसे वह जेय पदार्थों के स्वभाव को ग्रहण नहीं करता है। (णेव उप्पज्जवि) और न वह उन रूप पैदा होता है अर्थात् जैसे वह विकार रहित परमानंदमयी एक सुखरूप अपनी ही सिद्ध पर्याय करके उत्पन्न होता है वैसा यह शुद्ध आत्मा ज्ञेय पदार्थों के स्वभाव में पंदा नहीं होता है। (सेण) इस कारण से (अबंधगो) कर्मों का बंध नहीं करने वाला (पण्णत्तो) कहा गया है। भाव यह है कि रागद्वेष रहित ज्ञान बंध का कारण नहीं होता है, ऐसा जानकर शुद्ध आत्मा का प्राप्ति रूप है लक्षण जिसका ऐसा जो मोक्ष उससे उल्टा जो नरक आदि के दुःखों को कारणभूत कर्म बंध की अवस्था, जिस बंध अवस्था के कारण इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले एक देश ज्ञान उन सर्व को त्याग कर सर्व प्रकार निर्मल ज्ञान ओ कर्म बंध का कारण नहीं है उसका बीजमूत जो विकाररहितस्वसंबेवनज्ञान या स्वानुभव उसमें ही भावना करनी योग्य है, ऐसा अभिप्राय है ॥५२॥ अथ ज्ञानप्रपञ्चव्याख्यानानन्तरं ज्ञानाधारसर्वज्ञं नमस्करोति -. तस्स गमाई लोगो देवासुरमणुअरायसंबंधो। मत्तो करेषि णिचं उवजुत्तो तं तहाधि अहं ॥५२-१॥ करेवि करोति । स क: ? लोगो लोकः । कथंभूतः ? देवासुरमणुरायसंबंधो देवासुरमनुष्यराजसंबन्धः । पुनरपि कथंभूतः ? भत्तो भक्तः । णिच्चं नित्यं सर्वकालं । पुनरपि किविशिष्टः ? उवजुत्तो उपयुक्त उद्यतः । इत्थम्भूतो लोक; कां करोति ? णमाइंसमस्यां नमस्क्रियां। कस्य ? तस्स तस्य पूर्वोक्तसर्वज्ञस्य । तं तहावि अहं तं सर्वज्ञ तथा तेनैव प्रकारेणाहमपि ग्रन्थको नमस्करोमोति । अयमश्रार्थ -- यथा देवेन्द्रचक्नवादयोऽनन्ताक्षयसुखादिगुणास्पदं सर्वज्ञस्वरूपं नमस्कुर्वन्ति, तथैवाहमपि तत्पदाभिलाषी परमभक्त्या प्रणमामि । ५२-१॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ १२३ एवमष्टाभिः स्थलद्वात्रिंशद्गाथास्तदनन्तरं नमस्कारगाथा चेति समुदायेन त्रयस्त्रिशत्सूत्रशनिप्रपंच-नामा तृतीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । _अथ सुखत्रपञ्चाभिधानान्तराधिकारेऽष्टादश गाया भवन्ति । अत्र पञ्चस्थलानि तेषु प्रथमस्थले “अत्थि अमुत्तं” इत्याद्यधिकारगाथासूत्रमेकं तदनन्तरमतीन्द्रियज्ञान मुख्यत्वेन "जं छो" इत्यादि सूत्रमेकं अथेन्द्रियज्ञानमुख्यत्वेन "जीवों सयं अमुत्तो" इत्यादि गाथाचतुष्टयं अथानन्तरमिन्द्रियसुखप्रतिपादनरूपेण गाथाष्टकं तत्रास्यष्टकमध्ये प्रथमत इन्द्रियसुखस्य दुःखत्वस्थापनार्थ "मणुआ सु" इत्यादि गाथाद्वयं, अथ मुक्तात्मनां देहाभावेपि सुखमस्तीति ज्ञापनार्थ देहः सुखकारणं न भवतीति कथनरूपेण "पय्या इट्ठे विसये" इत्यादि सूत्रद्वयं तदनन्तरमिन्द्रियविषया अपि सुखकारणं न भवन्तीति कथने "तिमिरहरा" इत्यादि गाथाद्वयं, अतोपि सर्वज्ञनमस्कार मुख्यत्वेन "तेजोदिदि" इत्यादि गाथाद्वयम् । एवं पञ्चमस्थले अन्तरस्थल चतुष्टयं भवतीति सुखप्रपञ्चाधिकारे समुदायपातनिका ।। उत्थानिका- आगे ज्ञान प्रपंच के व्याख्यान के पीछे ज्ञान के आधार सर्वज्ञ भगवान को नमस्कार करते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ -- जैसे (देवासुरमणुअरायसम्बंधी ) कल्पवासी, मवनत्रिक तथा मनुष्यों के इन्द्रों सहित (भत्तो) भक्तिमान ( उयजुतो ) तथा उद्यमवंत ( लोगों ) यह लोक ( तस्स माई ) उस सर्वज्ञ को नमस्कार ( पिच्च) सदा (करेदि ) करता है ( तहावि) से ही (अहं) मैं ग्रन्थकर्त्ता श्री कुन्दकुन्दाचार्य (तं) उस सर्वज्ञ को नमस्कार करता हूँ । भाव यह है कि जैसे देवेन्द्र व चक्रवर्ती आविक अनन्त और अक्षय सुख आदि गुणों के स्थान सर्वज्ञ के स्वरूप को नमस्कार करते हैं जैसे मैं भी उस पद का अभिलाषी होकर परमभक्ति से नमस्कार करता हूँ ।।५२०११ इस तरह आठ स्थलों के द्वारा बत्तीस गाथाओं से और उसके पीछे एक नमस्कार गाथा ऐसे तेतीस गाथाओं से ज्ञान प्रपंच नाम का तीसरा अंतर अधिकार पूर्ण हुआ। आगे सुख प्रपंच नाम के अधिकार में अठारह गाथाएं हैं जिसमें पांच स्थल हैं, उनमें से प्रथम स्थल में "अत्थि अमुक्त' इत्यादि अधिकार गाथा सूत्र एक है, उसके पीछे अतीन्द्रिय ज्ञान की मुख्यता से 'जं पेच्छो' इत्यादि सूत्र एक है। फिर इन्द्रियजनितज्ञान की मुख्यता से 'जीवो सयं अमुक्तो' इत्यादि गाथाएं चार हैं फिर अभवनय से केवलज्ञान ही सुख है ऐसा कहते हुए गाथाएं ४ हैं । फिर इन्द्रिय-सुख का कथन करते हुए गाथाएं आठ हैं । इनमें भी पहले इंद्रियसुख का रूप स्थापित करने के लिये 'मणुआसुरा' इत्यादि गाथाएं दो हैं । फिर मुक्त आत्मा के देह न होने पर भी सुख है इस बात को बताने के लिये देह सुख का कारण नहीं है, इसे जनाते हुए "पय्या इट्ठे विसये" इत्यादि सूत्र दो हैं। फिर इन्द्रियों के विषय इस गाधा की टीका श्री अमृतचन्द्रसूरि ने नहीं की है । * Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] । पबयणसारो भी सुख के कारण नहीं हैं, ऐसा कहते हुए 'तिमिरहरा' इत्यादि गाथाएं वो हैं, फिर सर्वज्ञ को नमस्कार करते हुए 'तेजो विट्ठि' इत्यादि सूत्र दो हैं ? इस तरह पांच अंतर अधिकार में समुदाय पातनिका है। अथ ज्ञानादभिन्नस्य सौख्यस्य स्वरूपं प्रपञ्चयन ज्ञानसौख्ययोः हेयोगदेयत्वं चिन्तयति अस्थि अमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदियं च अत्थेसु । णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं ॥५३॥ अस्त्यमूतं मूर्तमतीन्द्रियमंन्द्रियं चार्थेषु । ज्ञानञ्च तथा सौख्यं यत्तेषु परञ्च तत् ज्ञेयम् ।।५३।। __ अत्र ज्ञान सौख्यं च मूर्तमिन्द्रियजं चैकमस्ति । इतरदमृतमतीन्द्रियं चास्ति । तत्र यवमूर्तमतीन्द्रियं च तत्प्रधानत्वादुपादेयत्वेन ज्ञातव्यम् । तत्राद्यं मूर्ताभिः क्षायोपशमिकीमिरुपयोगशक्तिभिस्तथाविधेभ्य इन्द्रियेभ्यः समुत्पद्यमानं परायसत्वात् कादाचित्कत्वं, क्रमकृतप्रवृत्ति-सप्रतिपक्ष सहानिवृद्धि च गौणमिति कृत्वा ज्ञानं च सौख्यं च हेयम् । इतरत्पुनरमूर्ताभिश्चैतन्यानुविधायिनीभिरेकाकिनीभिरेवात्मपरिणामशक्तिभिस्तथाविधेभ्योऽतीन्द्रिये भ्यः स्थाभाविकचिदाकारपरिणामेभ्यः समुत्पञ्चमानमत्यन्तमात्मायत्तत्वान्नित्यं, युगपत्कृतप्रवृत्ति निःप्रतिपक्षमहानिवृद्धि च मुख्यमिति कृत्वा ज्ञानं सौख्य चोपावेयम् ॥५३॥ भूमिका--अब, ज्ञान से अभिन्न रूप सुख के स्वरूप को विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए ज्ञान और सुख को हेय-उपादेयता का विचार करते हैं ___ अन्वयार्थ-[अर्थेषु ज्ञान] पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान [अमूर्त-मूर्त] अमूर्त या मूर्त, [अतीन्द्रियं ऐन्द्रियं च अस्ति] अतीन्द्रिय या ऐन्द्रिय होता है, [च तथा सौख्यं] और इसी प्रकार (अमूर्त या मूर्त, अतीन्द्रिय या ऐन्द्रिक) सुख होता है। [तेषु च यत परं] उन (दो प्रकार के ज्ञान-सुख) में जो (अमूर्त-अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख) प्रधान (उत्कृष्ट) है. [तत् ज्ञेयं] बह अमूर्त-अतीन्द्रियज्ञान और सुख (उपादेयरूप) जानने योग्य है। टीका-(ज्ञान तथा सुख दो प्रकार का है उनमें से यहाँ) एक ज्ञान तथा सुख मूर्त है और इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला इन्द्रियज है और दूसरा (ज्ञान तथा सुख) अमूर्त है और अतीन्द्रिय है, उसमें जो अमूर्त और अतीन्द्रिय है वह प्रधान होने से उपादेय रूप से जानने योग्य है। (गाथा का अर्थ पूरा हो गया । अब इसके भाव को टीकाकार स्वयं स्पष्ट करते हैं) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] । १२५ वहां (उनमें से) पहला ज्ञान तथा सुख (१) मूर्तरूप (२) क्षायोपमिक (३) उपयोग शक्तियों से उस उस प्रकार की इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होता हुआ, पराधीन होने से कादानिक (अनित्य) क्रमशः प्रवृत्त होने वाला, सप्रतिपक्ष और हानि-वृद्धियुक्त है। इसलिये गौण है, और गौण होकर वह हेय है । दूसरा ज्ञान तथा सुख (१) अमूर्तरूप (२) चैतन्यानुविधायी, (३) एकाकी, (४) आत्म-परिणाम-शक्तियों से तथाविध अतीन्द्रिय, (५) स्वाभाविक चिवाकार परिणामों के द्वारा उत्पन्न होता हुआ अत्यन्त आत्माधीन होने से नित्य, युगपत् प्रवर्तमान, निःप्रतिपक्ष, और हानि वृद्धि से रहित है। इसलिये मुख्य है और मुख्य होकर वह (अमूर्त-अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख) उपादेय हैं ॥५३॥ तात्पर्यवृत्ति __ अचातीन्द्रियसुखस्योपादेयभूतस्य स्वरूप प्रपञ्चयनतीन्द्रियज्ञानमतीन्द्रियसुखं चोपादेयमिति, यत्पूनरिन्द्रियज झानं सुखं च तद्धेयमिति प्रतिपादनरूपेण प्रथमतस्तावदधिकारस्थलगाथया स्थलचतुष्ठयं सूत्रय ति,-- ___ अस्थि अस्ति विद्यते । किं कर्त ? णाणं ज्ञान मिति भिन्नप्रक्रमो व्यवहितसम्बन्धः । किविशिष्टं ? अमुत्तं मृत्तं अमृत मूर्त च । पुनरपि किविशिष्टं ? अविदियं इंवियं च यदमूर्त तदतीन्द्रियंमतं पुनरिन्द्रियजं । इत्थंभूतं ज्ञानमस्ति । केषु विषयेषु ? अस्थेसु ज्ञेयपदार्थेष, तहा सोक्खं च तथव जानवदमूर्तमतीन्द्रियं भूत मिन्द्रियजं च सुखमिति । ज तेसु परं च तं यं यत्तेषु पूर्वोक्तज्ञानसुखेषु मध्ये परमुत्कृष्टमतीन्द्रियं तदुपादेवमिति ज्ञातव्यम् । तदेव विवियते-अमर्ताभि: क्षायिकीभिरतीन्द्रियाभिश्चिदानन्दै कलक्षणाभिः शुद्धात्मशक्तिभिरुपनत्वादतीन्द्रियज्ञानं सुखं चात्माधीनत्वेनाविनश्वरत्वादुपादेयमिति पूर्वोक्त।मूर्तशुद्धात्मशक्तिभ्यो विलक्षणाभि: क्षायोपमिकेन्द्रियशक्तिभिरुत्पन्नत्वादिन्द्रियजं ज्ञानं सुखं च परायत्तत्वेन विनश्वरत्वाद्धेयमिति तात्पर्यम् ॥५३।। एवमधिकारगाय या प्रथमस्थलं गतम् __उत्थानिका—आगे अतीन्द्रियसुख जो उपादेय रूप है उसका स्वरूप कहते हुये अतीन्द्रियज्ञान तथा अतीन्द्रियसुख उपादेय है और इन्द्रियजनितज्ञान और सुख हेय हैं इस तरह कहते हुये पहले अधिकार स्थल की गाथा से चार स्थल का सूत्र कहते हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(अस्थेसु) झेय पदार्थों के सम्बन्ध में (णाणं) ज्ञान (अमुत्तं) जो अमूर्तिक है सो (अदिदिय) अतीन्द्रिय है तथा (मुत्तं) जो मूर्तिक है सो (इन्दियं) इन्द्रिय-जन्य (अस्थि) है (तहा च सोक्ख) तैसे ही अर्थात् ज्ञान की तरह अमूर्तिकसुख अतीन्द्रिय है तथा मूर्तिकसुख इन्द्रिय-जन्य है (तेसु जं परं) इन ज्ञान और सुखों में जो उत्कृष्ट अतीन्द्रिय हैं (तं च यं) उनको ही, उपाश्य हैं ऐसा जानना चाहिये । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ 1 [ पवयणसारो इसका विस्तार यह है कि अमूर्तिक, क्षायिक, अतीन्द्रिय, चिदानन्द लक्षण-स्वरूप शुद्धात्मा की शक्तियों से उत्पन्न होने वाला अतीन्द्रियज्ञान और सुख आत्मा के ही अधीन होने से अविनाशी हैं, इससे उपादेय है तथा पूर्व में कहे हुए अमूर्त शुद्ध आमा की शक्ति से विलक्षण जो क्षायोपशमिक इन्द्रियों की शक्तियों से उत्पन्न होने वाला ज्ञान और सुख हैं, व पराधीन होने से बिनाशवान हैं, इसलिये हेय हैं, ऐसा तात्पर्य है। अतीन्द्रियज्ञान व सुख की अपेक्षा इन्द्रिय-जनित ज्ञान व सुख हेय हैं, सर्वथा हेय नहीं हैं ॥५३॥ अथातीन्द्रियसौख्यसाधनीभूतमतीन्द्रियज्ञानमुपादेयमभिष्टौति जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छपणं । सयलं सगं च इदरं तं 'णाणं हवदि पच्चक्कं ॥५४॥ यत्प्रेक्षमाणस्यामूर्त मृतवतीन्द्रिञ्च प्रच्छन्नम् । __ सकलं स्वकञ्च इतरत् तदज्ञान भवति प्रत्यक्षम् ।। ५४॥ अतीन्द्रियं हि ज्ञानं यदमूतं यन्मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियं यत्प्रच्छन्नं च तत्सकलं स्वपरविकल्पान्तःपाति प्रेक्षत एव । तस्य खल्वमूतेषु धर्माधर्माविषु, मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियेषु परमाण्वाविष, ध्यप्रच्छानेषु कालाविषु, क्षेत्रप्रच्छन्नेष्वलोकरकाशप्रदेशादिष, कालप्रच्छन्नेष्यसाप्रतिकपर्यायेषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायान्तीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि स्थपरव्यवस्थाव्यव. स्थितेष्वस्ति द्रष्टत्वं प्रत्यक्षत्वात् । प्रत्यक्षं हि ज्ञानमुद्धिनान्तशुद्धिसन्निधानमनादिसिद्धचंतन्यसामान्यसंबन्धमेकमेवाक्षनामानमात्मानं प्रतिनियमितरां सामग्रीममगयमाणमनन्तशक्तिसद्भावतोऽनन्ततामुपगतं दहनस्येव दाह्याकाराणां ज्ञानस्य ज्ञेयाकाराणामनतिक्रमाद्यथोदितानुभावमनुभवत्तत् केन नाम निवार्येत । अतस्तदुपादेयम् ॥५४॥ भूमिका—अब, अतीन्द्रियसुख का साधनभूत अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है, इस प्रकार उसकी प्रशंसा करते हैं:-- अन्वयार्थ--[प्रेक्षमाणस्य यत् ] देखने वाले का जो ज्ञान' [अमूर्तं] अमूर्त को, [मुर्तषु अतीन्द्रियं] मुर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय (परमाणु आदि) को, [च प्रच्छन्नं] (काल या क्षेत्र की अपेक्षा गुप्त-इन्द्रिय-अग्राह्य को, [सकलं] इन सबको [स्वयं च इतरत्] स्व तथा पर को [पश्यति] देखता है (जानता है) [तत् ज्ञान] बह ज्ञान [प्रत्यक्ष भवति] प्रत्यक्ष है। टीका-जो अमूर्त है, जो मूर्तों में भी अतीन्द्रिय है, और जो प्रच्छन्न (काल या क्षेत्र की अपेक्षा गुप्त-इन्द्रिय है ग्राह्य नहीं) है, उस सबको जो कि स्व और पर इन दो (१) तण्णाणं (ज० वृ)। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १२७ भेदों में समा जाता है, अतीन्द्रिय ज्ञान अवश्य देखता है । अभूतं धर्मास्तिकाय आदि को और मूर्ती में भी अतीन्द्रिय परमाणु इत्यादिकों में तथा द्रव्य से प्रच्छन्न काल- अणु आदिकों में, क्षेत्र से प्रच्छन्न अलोकाकाश के प्रदेश आदिकों में, काल में प्रच्छन्न असाम्प्रतिक ( भूत-भविष्यत ) पर्यायों में, तथा भाव से प्रच्छन्न स्थूल पर्यायों में अन्तलीन सूक्ष्म पर्यायों में यानि उन सब ही में जो कि स्व और पर की व्यवस्था में व्यवस्थित हैं, प्रत्यक्ष होने से वास्तव में उस अतीन्द्रियज्ञान के दृष्टापन है ( उन सबको वह अतीन्द्रियज्ञान देखता है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष है ) | अब इसको न्याय से आचार्य स्वयं सिद्ध करते हैं - ( १ ) जिसको अनन्त शुद्धि का समाव प्रगट हुआ है, ( २ ) जो चतन्य सामान्य के साथ अनादि-सिद्ध सम्बन्ध वाला है (३) एक ही अक्ष नामक आत्मा के प्रति जो नियत है, (४) जो (इन्द्रियादिक उपात्त अनुपात्त ) अन्य सामग्री को नहीं ढूंढता है, (जिसे अन्य सामग्री की सहायता की आवश्यकता नहीं है ) और (५) जो अनन्तशक्ति के सद्भाव के कारण अनन्तता को प्राप्त है, ऐसा वह प्रत्यक्ष ज्ञान जैसे दाह्यकारों से दहन का अतिक्रमण ( उलंघन ) नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञेयाकारों से ज्ञान का अतिक्रमण ( उलंघन ) न होने से यथोक्त प्रभाव का अभाव करता हुआ ( उपर्युक्त अतिशयों सहित होने से ) वास्तव में वह किसके द्वारा रोका जा सकता है ? ( किसी से भी नहीं रोका जा सकता ) । इसलिये वह अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है ||५४ || तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वोक्तमुपादेयभूतमतीन्द्रियज्ञानं विशेषेण व्यक्ती करोति जं यदन्तीन्द्रियं ज्ञानं कर्तृ । पेच्छवो प्रेक्षमाणपुरुषस्य जानाति । किं किं ? अमृतं अमूर्तमतीन्द्रियनिरुपरागसदानन्दैक सुखस्वभावं यत्परमात्मद्रव्यं तत्प्रभृति समस्तामूर्तद्रमसमूहं मुत्ते अयं च मूर्तेषु पुद् गलद्रव्येषु यदतीन्द्रिय परमाण्वादि पच्छष्णं कालानुप्रभृतिद्रव्यरूपेण प्रच्छ यतिमन्तरितं लोकाकाशप्रदेश प्रमृति क्षत्रप्रच्छन्नं निविकारपरमानन्द क सुखास्वादपरिणतिरूपपरमात्मनो वर्तमानसमयगतपरिणामास्तत्प्रभृतयो ये समस्तद्रव्याणां वर्तमान समयगत परिणामास्ते कालप्रच्छन्नाः तस्यैव परमात्मनः सिद्धरूप शुद्धव्यञ्जनपर्यायः शेषद्रव्याणां च ये यथासम्भवं जनपर्यायास्तेष्वन्तर्भूताः प्रतिसमयप्रवर्तमानषट्कार वृद्धिहानिरूपणं अथपर्यायां भावप्रच्छन्ना भण्यन्ते । सयलं तत्पूर्वोक्तं समस्तं ज्ञेयं द्विधा भवति । कथमिति चेत् ? समं च इवरं किमपि ? यथासम्भवं स्वद्रव्यगतं इतरत्परद्रव्यगतं तदुभयं यतः कारणाज्जानाति तेन कारणेन तण्णाणं तत्पूर्वोक्तज्ञानं यदि भवति । कथंभूतं ? पच्त्रयखं प्रत्यक्षमिति । अत्राह शिष्यः - ज्ञानप्रपञ्चाधिकारः पूर्वमेव गतः अस्मिन् सुखप्रञ्चाधिकारे सुखमेव कथनीयमिति । परिहारमाह-- घदतीन्द्रियं ज्ञानं पूर्वं भणितं तदेवाभेवनयेन सुखं भवतीति ज्ञापनार्थ, अथवा ज्ञानस्य मुख्यवृत्या तत्र हेयोपादेयचिन्ता नास्तीति ज्ञापनार्थ वा । एवमतिन्द्रियज्ञानमुपादेवमिति कथन मुख्यत्वेने गाथया द्वितीयस्थलं गतम् ।।५४।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] [ पश्यणसारो उत्थानिका-आगे उसी पूर्व में कहे हुए अतीन्द्रियज्ञान का विशेष वर्णन करते हैं--- अन्वय सहित विशेषार्थ-(पेच्छदो) अच्छी तरह देखने वाले केवलज्ञानी पुरुष का (ज) जो अतीन्द्रिय केवलज्ञान है सो (अमुत्तं) अमूर्तिक को अर्थात् अतीन्द्रिय तथा राग रहित सदा आनन्दमयी सुखस्वभाव के धारी परमात्मध्य को आदि लेकर सब अमतिकद्रव्य समूह को, (मुत्तेसु) मूर्तिक पुद्गल द्रव्यों में (अदिवियं) अतीन्द्रिय-इन्द्रियों के अगोचर परमाणु आदिकों को (च पच्छण्णं) तथा गुप्त को अर्थात् द्रव्यापेक्षा कालाणु आदि अप्रगट तथा दूरवर्ती द्रव्यों को, क्षेत्र अपेक्षा गुप्त अलोकाफाश के प्रदेशादिकों को, काल की अपेक्षा प्रच्छन्न-विकाररहित परमानन्दमयी एक सुख के आस्वादन की परिणति रूप परमात्मा के वर्तमान समय सम्बन्धी परिणामों को आदि लेकर सब द्रव्यों की वर्तमान समय की पर्यायों को तथा भाव की अपेक्षा उस ही परमात्मा की सिद्ध रूप शुद्ध व्यंजन तथा अन्य द्रव्यों की जो यथासंभव ध्यंजनपर्याय उनमें अंतर्भूत अर्थात् मग्न जो प्रति समय में वर्तन करने वाली छ: प्रकार वृद्धि हानि स्वरूप अर्थ-पर्याय इन सब प्रच्छन्न द्रव्य क्षेत्र काल भावों को; और (सगं च इवर) जो कुछ भी यथासम्भव अपना अभ्य सम्बन्धी तथा परद्रव्य सम्बन्धी या दोनों सम्बन्धी है (साल) सर्व लेटको जाता है (तं गाणं) वह जान (पच्चरखं) प्रत्यक्ष (हवदि) होता है । यहां शिष्य ने प्रश्न किया कि जान-प्रपंच का अधिकार तो पहले ही हो चुका । अब इस सुख प्रपंच के अधिकार में तो सुख का ही कथन करना योग्य है ? इसका समाधान यह है कि जो अतीन्द्रियज्ञान पहले कहा गया है वह ही अभेदनय से सुख है इसकी सूचना के लिये अथवा ज्ञान की मुख्यता से सुख है क्योंकि इस ज्ञान में हेय उपादेय की चिता नहीं है इसके बताने के लिये कहा है। इस तरह अतीन्द्रियज्ञान हो ग्रहण करने योग्य है, ऐसा कहते हुए एक गाथा द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ॥५४॥ अथेन्द्रियसौख्यसाधनीभूतमिन्द्रियज्ञानं हेयं प्रणिन्दति जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं । ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तं ण' जाणादि ॥५॥ जीवः स्वयममूर्तो मूर्तिगतस्तेन मूर्तन मूर्तम् । अवगृह्य योग्यं जानाति वा तन्न जानाति ।।५।। इन्द्रियज्ञानं हि मूर्तोपलम्भकं मूर्तोपलभ्यं च तद्वान् जीवः स्वयममूर्तीऽपि पञ्वेन्द्रियास्मकं शरीरं मूर्तमुपागतस्तेन ज्ञप्तिनिष्पत्तौ बलाधाननिमित्ततयोपलम्भकेन मूर्तेन मूर्त १. तण्ण । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्ष्यणसारो ] [ १२६ स्पर्शाविप्रधानं वस्तूपलभ्यतामुपागतं योग्यमवगृह्य पदाचित्तदुपर्युपरि शुद्धिसंभवादवगज्छति, कदाचित्तदसंभवान्नावगच्छति । परोक्षत्वात् । परोक्षं हि ज्ञानमतिदृढतराजानतमोयन्थिगुण्ठनाग्निमीलितस्यानादिसिन्दचतन्यसामान्यसंबन्धस्याप्यात्मतः स्वयं परिच्छेत्तमर्थमसमर्थस्योपात्तानुपातपरप्रत्ययसामग्रीमार्गणथ्यग्रतयात्यन्तविसंष्ठुलत्वमवलम्बमानमनन्तायाः शक्तः परिस्खलनान्नितान्तविक्लवीभूतं महामोहमल्लस्य जीवववस्थत्वात् परपरिणतिप्रवर्तिताभिप्रायमपि पदे पदे प्राप्तविप्रलम्भमनुपलम्भसंभावनामेव परमार्थतोऽहति । अतस्तडेयम् ॥५५॥ भूमिका—अब, इन्द्रियसुख का साधनभूत इन्द्रियज्ञान हेय है, इस प्रकार उसकी निन्दा करते हैं ___अन्वयार्थ-[स्वयं अमुर्तः] स्वयं अमूर्त [जीवः ] जीव [मूर्तिगतः] मूर्त शरीर को प्राप्त होता हुआ [तेन मूर्तेन] उस मूर्त शरीर के द्वारा [योग्यं मूर्त] (इन्द्रिय से ग्रहण) योग्य मूर्त पदार्थ को [अवग्रह्य ] अवग्रह करके [जानाति] जानता है [वा तत् न जानाति] अथवा उसको नहीं जानता है (कभी जानता है और कभी नहीं जानता है)। __टीका-इन्द्रियज्ञान वास्तव में मूर्त-उपलम्भक है और मूर्त-उपलभ्य है। अर्थात् इन्द्रियज्ञान जिस चीज के द्वारा जानता है वह भी मूर्त है और जिस चीज को जानता है यह भी मूर्त है। उस इन्द्रियज्ञान बाला जीव स्वयं अमूर्त होने पर भी मूर्त पंचेन्द्रियात्मक शरीर को प्राप्त होता हुआ, ज्ञप्ति उत्पन्न करने में बलधारण (बल देने रूप) निमित्त होने से जो उपलम्भक है, ऐसे उस मूर्त (शरीर) के द्वारा ज्ञेयता तथा योग्यता को प्राप्त मूर्त स्पर्श आदि प्रधान वस्तु को अवग्रह करके, कदाचित् उससे ऊपर ऊपर को शुद्धि के सद्भाव के कारण जानता है और कदाचित् अवग्रह के ऊपर ऊपर की शुद्धि के असद्भाव के कारण नहीं जानता है, क्योंकि वह (इन्द्रियज्ञान) परोक्ष है। अब इसको न्याय से सिद्ध करते हैं। चतन्य-सामान्य के साथ जिसका अनादि-सिद्ध सम्बन्ध होने पर भी जो अति दृढतर अज्ञानरूप तमोग्नन्थि (अन्धकारसमूह) द्वारा आवृत्त होने से संकुचित हो गया है (और इसलिये) स्वन्य पदार्थों को जानने के लिये असमर्थ हो गया है, ऐसे आत्मा के, (१) उपात्त और अनुपात्त पर-पदार्थ रूप कारण-सामग्री को ढूंढने को व्यग्रता से अत्यन्त चंचल-तरल अस्थिरता को अवलम्बन करता हुआ, (२) अनन्तशक्ति से च्युत होने से अत्यन्त विक्लव (खिन्न) वर्तता हुआ, (३) महामोह मल्ल के जीवित अवस्था में रहने से पर-परिणति का (पर को परिणमित करने का) अभिप्राय करने पर भी पद पद पर Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० 1 [ पवयणसारो ठगाई को प्राप्त होता हुआ — वह परोक्षज्ञान वास्तव में न जानने की सम्भावना को प्राप्त हैं। इसलिये यह इन्द्रियज्ञान हेय है ।। ५५ ।। तात्पर्य वृत्ति अथ हेयभूतस्येन्द्रिय सुखस्य कारणत्वादल्पविषयत्वाच्चेन्द्रियज्ञानं हेयमित्युपदिशति - जीवो सयं अमुक्तो जोवस्तावच्छवितरूपेण शुद्धयार्थिकनयेनामूर्खातीन्द्रियज्ञान सुखस्वभावः, पश्चादनादिबन्धवशाद् व्यवहानयेन मुत्तिगदी मूर्तशरीरगतो मूर्तशरीरखरिणतो भवति । तेण मुत्तिणा तेन मूर्तशरीरेण मूर्तशरीराधारोत्पन्नमूर्तद्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियाधारेण मुखं मूर्त वस्तु ओगेव्हित्ता अवग्रहादिकेन क्रमकरणव्यवधानरूपं कृत्वा जोगं तत्स्पर्शादिमूर्त वस्तु । कथंभूतं ? इन्द्रियग्रहृणयोग्यं जाणवि वा तण जाणादि स्वाव रणक्षयोपशमयोग्यं किमपि स्थूलं जानाति विशेषक्षयोपशमाभावात् सूक्ष्मं न जानातीति । अयमत्र भावार्थ:- इन्द्रियज्ञानं यद्यपि व्यवहारेण प्रत्यक्ष भण्यते, तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव परोक्षं तु यावतांशेन सूक्ष्मार्थं न जानाति तावतांशेन चित्तखेदकारणं भवति । वेदश्च दुःखं ततो दुःखजनकत्वादिन्द्रियज्ञानं हेयमिति ॥ ५५ ॥ उत्थानिका— आगे त्यागने योग्य इन्द्रियसुख का कारण होने से तथा अल्प विषय के जानने की शक्ति होने से इन्द्रियज्ञान त्यागने योग्य है ऐसा उपदेश करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जीवो सयं अमुत्तो ) जीव स्वयं अमूर्तिक है अर्थात् शक्ति से व शुद्धद्रव्याधिकमय से अभूतिक अतीन्द्रियज्ञान और सुखमयी स्वभाव को रखता है तथा अनादिकाल से कर्म बंध के कारण से व्यवहार में ( मुत्तिगदी ) मूर्तिक शरीर में प्राप्त है व मूर्तिमान शरीरों द्वारा मूर्ति कसा होकर परिणमन करता है ( तेण सुतिणा) उस मूर्तशरीर के द्वारा अर्थात् उस मूर्तिकशरीर के आधार में उत्पन्न जो मूर्तिक द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय, उनके आधार से (जोग्गं मुत्तं ) योग्य मूर्तिक वस्तु को अर्थात् स्पर्शादि इंद्रियों से ग्रहण योग्य मूर्तिक पदार्थ को (ओगेहिता ) अवग्रह आदि से क्रम क्रम से ग्रहण करके ( आदि ) जानता है अर्थात् अपने आवरण के क्षयोपशम के योग्य कुछ भी स्थूल पदार्थ को जानता है (वा ताण जाणावि) तथा उस मूर्तिक पदार्थ को नहीं भी जानता है, विशेष क्षयोपशम के न होने से सूक्ष्म या दूरवर्ती, व काल से मायी काल के बहुत से मूहिक पदार्थों को नहीं जानता है । यहाँ यह इन्द्रियज्ञान यद्यपि व्यवहार से प्रत्यक्ष कहा जाता है तथापि निश्चय से अपेक्षा से परोक्ष ही है । परोक्ष होने से जितने अंश में वह सूक्ष्म पदार्थ को नहीं जानता है उतने अंश में जानने की इच्छा होते हुए न जान सकने से चित्त को खेद का कारण होता हैं, खेद ही दुख है इसलिये दुःखों को पैदा करने से इन्द्रियज्ञान त्यागने योग्य है ।। ५५॥ प्रच्छन्न व भूत भावार्थ है कि केवलज्ञान को Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १३१ अथेन्द्रियाणां स्वविषयमात्रेऽपि युगपत्प्रवृत्त्यसंभवाद्धेय मेवे न्द्रियज्ञान मित्यवधारयति - फासो रसोय गंधो वण्णो सद्दो य पुग्गला' होंति । अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गण्हंति ॥ ५६ ॥ स्पर्शी रतश्च गन्धो वर्ण: शब्दश्च पुद्गला भवन्ति । अक्षाणां तान्यक्षाणि युगपत्तान्तंव गृह्णन्ति । ५६ ॥ इन्द्रियाणां हि स्परसगन्धवर्णप्रधानाः शब्दश्व ग्रहणयोग्याः पुद्गलाः । अथेन्द्रिययुगपत्तेऽपि न गृह्यन्ते तथाविधक्षयोपशमनशक्तेरसंभवात् । इन्द्रियाणां हि क्षयोपशमसंज्ञिकायाः परिच्छेत्र्याः शक्तेरन्तरङ्गायाः काकाक्षितारकवत् क्रमप्रवृत्तिवशादनेकतः प्रकाशयितुमसमर्थत्वात्सत्स्वपि द्रव्येन्द्रियद्वारेषु न यौगपद्येन निखिलेन्द्रियार्थावबोधः सिद्धय ेत्, परोक्षत्वात् ॥५६॥ भूमिका – अब, इन्द्रियों के अपने विषय मात्र में भी युगपत् प्रवृत्ति को असंभवता होने से इन्द्रियज्ञान हेय है, इस प्रकार उसकी निन्दा करते हैंअन्वयार्थ – [ स्पर्शः ] स्पर्श | रसः ] रस [ गंध: ] गंध, [ वर्ण: ] वर्ण [च] और [शब्द: ] शब्दरूप [ पुद्गलाः ] पुत्रगल [ भवन्ति । हैं । वे [ अक्षाणां (त्रिषयाः) भवन्ति ] इन्द्रियों के विषय हैं । [तानि अक्षाणि ] ( परन्तु ) वे इन्द्रियाँ [तान् ] उनको [भी] [युगपत्] एक साथ [न एव गृलुम्ति ] ग्रहण नहीं करती हैं ( युगपत् नहीं जान सकती हैं) । 1 टीका स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण प्रधान ( गुणवाला) तथा शब्दरूप पुद्गल वास्तव में इन्द्रियों के ग्रहण करने योग्य | किन्तु इन्द्रियों के द्वारा एक साथ वे पुद्गल भी ग्रहण नहीं होते हैं। क्योंकि क्षयोपशम से उस प्रकार की शक्ति का होना असम्भव है । क्षयोपशम नाम की अन्तरंग ज्ञातृशक्ति के कौवे की आंख की पुतली को भांति, क्रमिक प्रवृत्ति के यश से अनेकतः प्रकाश के लिये (एक ही साथ अनेक विषयों को जानने के लिये) असमर्थता होने से ब्रध्येन्द्रिय द्वारों के विद्यमान होने पर भी, इन्द्रियों के युगपत् पने से समस्त इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि इन्द्रियज्ञान परोक्ष है ॥५६॥ तात्पर्यवति अथ चक्षुरादीन्द्रियज्ञानं रूपादिस्वविषयमपि युगपन जानाति तेन कारणेन हेयमिति निश्चिनोति - फासो रसोय गन्धो वण्णो सद्दोय पोग्गला होंति स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दा: पुद्गला मूर्ती भवन्ति । ते च विषयाः । कॆषां ? अक्खाणं स्वर्शनादीन्द्रियाणां ते अक्खा तान्यक्षाणोन्द्रियाणि कर्तृणि जुगवं ते जेब गेहंति युगपत्तान् स्वकीयविषयानपि न गृह्णन्ति न जानन्तीति । १. मोग्गला (ज० वृ० ) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ) [ पवयणसारो अयमत्राभिप्राय:-यथा सर्वप्रकारोपादेयभूतस्यानन्तसुखस्योपादानकारणभूत केवलज्ञानं युगपत्समस्तं वस्तु जानत्सत् जीवस्य सुखकारणं भवति तथेमिन्द्रियज्ञानं स्वकीयविषयेऽपि युगपत्परिज्ञानाभावात्सुखकारणं न भवति ।।५६॥ उत्थानिका--आगे यह निश्चय करते हैं कि चक्षु आदि इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान अपने-अपने रूप रस, गंध, आदि विषयों को भी एक साथ नहीं जान सकता, इस कारण से त्यागने योग्य है। अन्वय सहित विशेषार्थ—(अक्खाणं) स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों के (फासो रसो य गंधो वण्णो सहो य) स्पर्श, रस, गन्ध वर्ण और शब्द ये पांचों ही विषय (पोग्गला होति) पुद्गलमयी हैं या पुद्गल द्रव्य हैं या मूर्तिक हैं (ते अक्खा) वे इंद्रियाँ (तेणेव) उन अपने विषयों को भी (जुगवं) एक समय में एक साथ (ण गेण्हंति) नहीं ग्रहण कर सकती हैं-नहीं जान सकती। अभिप्राय यह है कि जैसे सब तरह से ग्रहण करने योग्य अनन्तसुख का उपादानकारण जो केवलज्ञान है सोही एक समय में सब वस्तुओं को जानता हुआ जीव के लिये सुख का कारण होता है तैसे यह इन्द्रिय-ज्ञान अपने विषयों को भी एक समय में न जान सकने के कारण सुख का कारण नहीं है ॥५६॥ अथेन्द्रियज्ञानं न प्रत्यक्ष भवतीति निश्चिनोति परदवं ते अक्खा व सहावो ति अप्पणो भणिदा'। उवलद्धं तेहि कधं पच्चक्खं अप्पणो होदि ॥५७।। परद्रव्यं तान्यक्षाणि नव स्वभाव इत्यात्मनो भणितानि । उपलब्धं तैः कथं प्रत्यक्षमात्मनो भवति ।।५७॥ आत्मानमेव केवलं प्रतिनियतं केवलज्ञान प्रत्यक्षं, इदं तु व्यतिरिक्तास्तित्वयोगितया परद्रव्यतामुपगतरात्मनः स्वभावतां मनागन्यसंस्पर्शाद्धरिन्द्रियरुपलभ्योपजन्यमानं नवात्मनः प्रत्यक्षं भवितुमर्हति ॥५७॥ भूमिका-अन, इन्द्रिय-ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता है, यह निश्चय करते हैं: अन्वयार्थ—[तानि अक्षाणि] वे इन्द्रियाँ [परद्रव्यं ] पर द्रव्य हैं। [आत्मनः स्वभावः इति] वे आत्मा के स्वभाव रूप [न एव भणितानि] नहीं कही गई है। [तैः] उनके द्वारा [उपलब्धं] ज्ञात (जाना हुआ ज्ञान) [आत्मनः] आत्मा को [प्रत्यक्षं] प्रत्यक्ष [कथं भवति] कैसे हो सकता है ? (यानि नहीं हो सकता)। १. भणिया (ज० वृ०) । २. कहं (ज० वृ०) । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३३ वयसा ] जो टीका---जो केवल के प्रति ही नियत हो, वह केवलज्ञान प्रत्यक्ष है । भिन्न अस्तित्व वाली होने से परद्रव्यत्व को प्राप्त हुई हैं, और आत्मा के स्वभावपने को किचित् मात्र भी स्पर्श नहीं करतीं ऐसी इन्द्रियों के द्वारा उपलब्धि करके ( ऐसी इन्द्रियों के निमित्त से पदार्थों को जानकर ) उत्पन्न हुआ यह ( इन्द्रियज्ञान) आत्मा के प्रत्यक्ष होने योग्य नहीं है ॥५६॥ तात्पर्यवृत्ति अथेन्द्रियज्ञानं प्रत्यक्षं न भवती त व्यवस्थापयति पर से अक्खा तानि प्रसिद्धान्यक्षाणीन्द्रियाणि परद्रव्यं भवन्ति । कस्य ? आत्मनः क्षेत्र सहावो त्ति अध्यणो मणिया योसो विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव आत्मनः संबन्धी तत्स्वभावानि निश्चयेन न भणितानीन्द्रियाणि । कस्मात् ! भिन्नास्तित्वनिष्पन्नत्वात् । उबलद्धं तेहि उपलब्धं ज्ञातं यत्पञ्चेन्द्रियविषयभूतं वस्तु तैरिन्द्रियैः कहूं पच्चक्खं अप्पणी होदि तद्वस्तु कथं प्रत्यक्षं भवत्यात्मनो ? न कथमपीति । तथैव च नानामनोरथव्याप्तिविषये प्रतिपाद्यप्रतिपादकादिविकल्पजालरूपं यन्मनस्तदपीन्द्रियज्ञानवनिश्चयेन परोक्षं भवतीति ज्ञात्वा । किं कर्तव्यं ? सकलं काखण्ड प्रत्यक्ष प्रतिभासमयपरमज्योति कारणभूते स्वशुद्धात्मस्वरूपभावना समुत्पन्नपरमाह्लादै कलक्षण सुख संवित्त्या कारपरिण तिरूपे रागादिविकल्पोपाधिरहिते स्वसवेदनज्ञाने भावना कर्तव्या इत्यभिप्रायः ।। ५७ ।। उत्थानिका --- आगे कहते हैं कि इंद्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है अन्य सहित विशेषार्थ - (ते अक्खा) वे प्रसिद्ध पाँचों इन्द्रियों (अप्पणी) आत्मा की अर्थात् विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावधारी आत्मा की (सहावो णेव भणिया ) स्वभाव रूप निश्चय से नहीं कही गई हैं क्योंकि उनकी उत्पत्ति भिन्न पदार्थ से हुई है ( ति परं ददयं ) इसलिये वे परद्रव्य अर्थात् पुद्गल द्रव्यमयी हैं ( तेहि उबलद्धं ) उन इन्द्रियों के द्वारा जाना हुआ उन्हीं के विषय योग्य पदार्थ सो (अप्पणो पच्वक्खं कहं होदि ) आत्मा के प्रत्यक्ष किस तरह हो सकता है ? अर्थात् किसी भी तरह नहीं हो सकता है । जैसे पाँचों इन्द्रियाँ आत्मा के स्वरूप नहीं हैं ऐसे ही नाना मनोरथों के करने में 'यह बात कहने योग्य है, मैं कहने वाला हूँ इस तरह नाना विकल्पों के जाल को बनाने वाला जो मन है वह भी इन्द्रियज्ञान की तरह निश्चय से परोक्ष ही है, ऐसा जानकर क्या करना चाहिये सो सकते हैं- सर्व पदार्थों को एक साथ अखंड रूप से प्रकाश करने वाले परम ज्योतिस्वरूप केवलज्ञान के कारण रूप तथा अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की भावना से उत्पन्न परम आनन्द एक लक्षण को रखने वाले सुख के वेवन के आकार में परिणमन करने वाले और रागद्वेषादि विकल्पों को उपाधि से रहित स्वसंवेदनज्ञान में भावना करनी चाहिये, यह अभिप्राय है ॥१५७॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ [ पवयणसारो अथ परोक्षप्रत्यक्षलक्षणमुपलक्षयतिजं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं त्ति भणिदमत्थेसु । जदि केवलेण णादं हदि हि जीवेण पच्चक्खें ॥५॥ यत्परतो विज्ञानं तत्तु परोक्षमिति णितमर्थेषु । ___ यदि केवलेन ज्ञातं भवति हि जीवेन प्रत्यक्षम् ।।५८॥ यत्तु खलु परद्रव्यभूतावन्तःकरणादिन्द्रियात्परोपदेशानुपलब्धः संस्कारादालोकादेवानिमित्ततामुपगतात् स्वविषयमुपगतस्यार्थस्य परिच्छेदन तत् परतः प्रादुर्भवत्परोक्षमित्यालक्ष्यते । यत्पुनरन्तःकरणमिन्द्रिय परोपदेशमुपलब्धिसंस्कारमालोकादिकं वा समस्तमपि परद्रव्यमनपेक्ष्यात्मस्वभावमेवेक कारणरवेनोपादाय सर्वद्रव्यपर्यायजातमेकपद एवाभिव्याग्य प्रवर्तमानं परिच्छेदनं तत् केवलादेवात्मनः संभूतत्वात् प्रत्यक्षमित्यालक्ष्यते । इह हि सहजसौख्यसाधनीभूतमिदमेव महाप्रत्यक्षमभिप्रेतमिति ॥५॥ भूमिका-अब, प्रत्यक्ष और परोक्ष के लक्षण को बतलाते हैं__ अन्वयार्थ-[परतः] पर के द्वारा होने वाला [यत् | जो [अर्थेष विज्ञानं] पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान है [तत् तु] वह तो [परोक्षं] परोक्ष [इति ] इस नाम से [भणितं] कहा गया है [यदि] जो [केवलेन जीवेन ] मात्र जीव के द्वारा ही [ज्ञातं भवति] जाना जाता है [वह प्रत्यक्षं] वह ज्ञान वास्तब में प्रत्यक्ष है । ___टीका-परोक्ष का लक्षण निमित्तरूप से बने हए परद्रध्यभूत अन्तःकरण (मन) से, इन्द्रिय से, परोपदेश से, उपलब्धि से (ज्ञानावरण के क्षयोपशम से प्राप्त लब्धि से) या प्रकाश आदिक से अपने विषय को प्राप्त पदार्थ का जो जानना है, वह (जानना) पर के द्वारा प्रगट होता हुआ 'परोक्ष' लक्षित किया जाता है अर्थात् परोक्ष है। प्रत्यक्ष का लक्षण-अन्तःकरण की इन्द्रिय की, परोपदेश को, उपलब्धि-संकार की या प्रकाश आदिक की अथवा सभी पर-द्रव्यों की अपेक्षा न करके एकमात्र आत्मस्वभाव को ही कारण रूप से ग्रहण करके सर्व द्रव्य पर्याय समूचे को युगपत् (एक समय में) ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान जो जानता है वह (जानना) केवल आत्मा के द्वारा ही उत्पन्न हुआ होने से 'प्रत्यक्ष' लक्षित किया जाता है, अर्थात् प्रत्यक्ष है। सार-यहाँ (इस प्रकरण में) वास्तव में सहज सुख का साधनभूत ऐसा यही महा प्रत्यक्षज्ञान ही इष्ट है (उपादेय है) ॥५॥ -- १. अटुंसु (ज० वृ०)। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयमसारो ] [ १३५ तात्पर्यवृत्ति अथ पुनरपि प्रकारान्तरेण प्रत्यक्ष परोक्षलक्षणं कथयति जं परदो विष्णाणं तं तु परोक्खंत्ति भणि यत्परतः सकाशाद्विज्ञानं परिज्ञानं भवति तत्पुनः पशेकमिति भणित ! केषु क्षिपयेषु : अहसुज्ञ पदाचेंषु जवि केवलेण णाद हदि हि यदि केवलेनासहा येन ज्ञातं भवति हि फुट । केन कर्तु भूतेन ! जोवेण जीवेन त हि पच्चक्ख प्रत्यक्षं भवतीति। __ अतो विस्तर:- इन्द्रियमनः-परोपदेशावलोकादिवहिरङ्गनिमित्तभुतात्तथैव च ज्ञानावरणीयक्षयोपशमनितार्थग्रहणशक्तिरूपाया उपलब्धे रविधारणरूपसंस्काराच्चान्तरङ्गकारणभूतात्सकाशादुप्पद्यते यद्विज्ञान तत्पराधीनत्वात्परोक्षमित्युच्यते । यदि पुन: पूर्वोक्नसमस्तपरद्रव्यमनपेक्ष्य केवलाउद्धबुद्धं कस्वभावात्परमात्मन: सकाशात्समुत्पद्यते ततोऽक्षनामानमात्मानं प्रतीत्योत्पद्यमानत्वात्प्रत्यक्ष भवतीति सूत्राभिप्रायः एवं हेयभूतेन्द्रियज्ञानकथन मुख्यतया गाथाचतुष्टयेन तृतीयस्थल गतम् ।।५८|| उत्थानिका-आगे फिर भी अन्य प्रकार से प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान का लक्षण कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(अट्ठेसु) ज्ञेय पदार्थों में (परदो) दूसरे के निमित्त या सहायता से (जं विण्णाणं) जो ज्ञान होता है (तं तु परोपखं त्ति भणिदं) उस ज्ञान को तो परोक्ष है, ऐसा कहते हैं तथा (यदि केवलेण जीवेण णादं हि हवदि) जो केवल बिना किसी सहायता के जीव के द्वारा निश्चय से जाना जाता है सो (पच्चक्वं) प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसका विस्तार यह है कि इंद्रिय तथा मन-सम्बन्धी जो ज्ञान है वह पर के उपदेश, प्रकाश आदि वाहरी कारणों के निमित्त से तथा ज्ञानावरणीकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए अर्थ को जानने की शक्ति रूप उपलब्धि और अर्थ को जानने रूप संस्कारमयी अन्तरंग निमित्त से पैदा होता है वह पराधीन होने से परोक्ष है, ऐसा कहा जाता है। परन्तु जो ज्ञान पूर्व में कहे हुए सर्व परद्रव्यों की अपेक्षा न करके केवल शुद्धबुद्ध एक स्वभावधारी परमात्मा के द्वारा उत्पन्न होता है वह अक्ष कहिये आत्मा उसी के द्वारा पैदा होता है इस कारण प्रत्यक्ष है, ऐसा सूत्र का अभिप्राय है। इस तरह त्यागने योग्य इन्द्रिय-जनित ज्ञान के कथन की मुख्यता करके चार माथाओं से तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ॥५८॥ अर्थतदेव प्रत्यक्षं पारमार्थिकसौख्यत्वेनोपक्षिपति जादं सयं 'समंत गाणमणंथवित्थडं विमलं । 'रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं त्ति एगतियं भणि' ॥५६॥ जातं स्वयं, समत, ज्ञानमनन्तार्थविस्तृत, विमलम् । रहितं स्वअवग्रहादिभिः, सुखमित्य कान्तिकं भणितम् ॥५६।। १. समतं (ज० ३०) २, णाणमणंतत्थ विन्यदं । ३. रहियं (ज. व.)। ४. भणियं (ज. १०)। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पवयणसारो ___ स्वयं जातत्वात्, समन्तत्वात्, अनन्तार्थविस्तृतत्वात्, विमलत्वात्, अथग्रहादिरहितत्वाच्च प्रत्यक्षं ज्ञानं सुखमंकान्तिकमिति निश्चीयते, अनाकुलत्वैकलक्षणत्वात्सौख्यस्य । यतो हि परतो जायमानं पराधीनतया, असमंतमितरद्वारावरणेन, कतिपयार्थप्रवृत्तमितरार्थबुभुत्सया, समलमसम्यगवबोधेन, अवग्रहादिसहित क्रमकृतार्थग्रहणखेदेन परोक्षं ज्ञानमत्यन्तमाकुलं भवति । ततो न तत् परमार्थतः सौख्यम् । इदं तु पुनरनाविज्ञानसामान्यस्वमावस्योपरि महायिकाशेनाभिव्याप्य स्वत एव व्यवस्थितत्वात्स्वयं जायमानमात्माधीनतया, समन्तात्मप्रदेशान् परमसमक्षज्ञानोपयोगीभूयाभिध्याप्य व्यवस्थितत्वात्समन्तम् अशेषद्वारापावरणेन, प्रसभं निपीतसमस्तवस्तुजेयाकारं परमं वैश्वरूप्यमध्यिाय व्यवस्थितत्वादनन्तार्थविस्तृतम् समस्तार्थाबुभुत्सया सकलशक्तिप्रतिबन्धककर्मसामान्यनि:कान्ततया परिस्पष्टप्रकाशभास्वरं स्वभावममिव्याप्य व्यवस्थितत्वाविमलम् सम्यगवबोधेन । युगपत्समर्पितत्रैसमयिकात्मस्वरूपं लोकालोकमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वादवग्रहाविरहितं क्रमकृतार्थग्रहण खेदाभाथेन प्रत्यक्ष शालमनागुरु यति । इटावार नायक खलु सौख्यम् ॥५६॥ ___ भूमिका-अब, इसी प्रत्यक्षज्ञान को पारमार्थिकसुख ऐसे (अर्थात् यह प्रत्यक्षज्ञान हो पारमार्थिकसुख है ऐसा) बतलाते हैं: अन्वयार्थ-(१) [स्वयं जातं] अपने आप से उत्पन्न (स्व-आश्रयभूत-स्वाधीन) (२) [समंत] समंत (सर्व प्रदेशों से जानता हुआ), (३) [अनन्तार्थविस्तृतं] अनन्त पदार्थों में फैला हुआ, (४) [विमलं] निर्मल [तु] और (५) [अवग्रहादिमिः रहित] अवग्रहादि से रहित, [ज्ञानं] ऐसा प्रत्यक्षज्ञान [ऐकान्तिकं सुखं] ऐकान्ति कसुख है (सर्वथा सुख रूप है) [इति भणितं] ऐसा (सर्वज्ञदेव के द्वारा) कहा गया है। टीका-(१) स्वयं उत्पन्न होने से (स्वाश्रित होने से अथवा स्वाधीन होने से) (२) समन्त (सर्व प्रदेशों से जानने वाला) होने से, (३) अनन्त पदार्थों में फैला हुआ होने से, (४) कर्म मल-रहित होने से और (५) अवग्रहादि से रहित होने से, प्रत्यक्षज्ञान ऐकान्तिक सुख रूप है, यह निश्चित होता है, क्योंकि सुख का एकमात्र लक्षण अनाकुलता है । इसी बात को विस्तारपूर्वक समझाते हैं: ऐन्द्रिय परोक्षज्ञान की दुखरूपता-(१) पर से उत्पन्न होता हुआ पराधीन होने (के कारण) से, (२) असमन्त (कुछ प्रदेशों द्वारा जानता हुआ) इतर द्वारों के आवरण (के कारण) से, (३) कुछ पदार्थों में प्रवर्तमान होता हुआ अन्य पदार्थों को जानने की इच्छा (के कारण) से, (४) कर्म मल सहित होता हुआ असम्यक् (विपरीत या अस्पष्ट) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ १३७ जानने के कारण से और ( ५ ) अवग्रहादि सहित होता हुआ क्रम-पूर्वक पदार्थ ग्रहण के खेद के कारण से ( इन ५ कारणों से) परोक्षज्ञान अत्यन्त आकुल ( दुःखमयी) होता है । इसलिये वह परमार्थ से सुख रूप नहीं है । अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान की सुखरूपता - ( १ ) अनाविज्ञान सामान्य रूप स्वभाव के ऊपर महा विकास से व्याप्त होकर स्वतः ही व्यवस्थित रहने से स्वयं उत्पन्न हुआ आत्माधीनता से, ( २ ) परम प्रत्यक्षज्ञानोपयोग रूप होकर समस्त आत्म- प्रदेशों को व्याप्त करके व्यवस्थित पने के कारण से, समन्त हुआ यानि सम्पूर्ण द्वार के खुल जाने के कारण से, ( ३ ) समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकारों को सर्वथा पो जाता हुआ, परम विविधता को व्याप्त होकर व्यवस्थित रहने से, अनन्त पदार्थों में विस्तृत होता सर्व पदार्थों को जानने की इच्छा का अभाव होने से, ( ४ ) सकल शक्ति को रोकने वाले कर्म सामान्य के ( सम्पूर्ण ज्ञानावरण के ) निकल जाने के कारण से, अत्यन्त स्पष्ट प्रकाश के द्वारा प्रकाशमान स्वभाव में व्याप्त होकर व्यवस्थित रहने से, विमल होता हुआ सम्यक्तया जानने के कारण से तथा (५) जिनने त्रिकाल का अपना स्वरूप युगपत् समर्पित किया है ऐसे लोकालोक व्याप्त होकर व्यवस्थित रहने से, अवग्रह आदि से रहित होता हुआ क्रमपूर्वक किये गये परार्थ ग्रहण के खेद का अभाव होने से ( इन पाँच कारणों से ) यह प्रत्यक्षज्ञान अनाकुल (आकुलता रहित ) सुखरूप है । इसीलिये वह (प्रत्यक्षज्ञान ) वास्तव में पारमार्थिक सुखरूप है ॥ ५६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथाभेदनयेन पञ्चविशेषणविशिष्टं केवलज्ञानमेव सुखमिति प्रतिपादयति जावं जातं उत्पन्नं । किं कर्तृ ? गाणं केवलज्ञानं । कथं जातं ? सयं स्वयमेव । पुनरपि किविशष्ट ? समस्तं परिपूर्ण पुनरपि किरूपं ? अनंतत्थवित्थवं अनन्तार्थ विस्तीर्णम् । पुनः कीदृशं ? विमलं संशयादिमल रहितं । पुनरपि । कीदृक् ? रहियं तु ओग्गहाविहिं अवग्रहादिरहितं चेति एवं पञ्चविशेषणविशिष्टं यत्केवलज्ञानं सुहंत्ति एगतियं भणियं तत्सुखं भणितं । कथंभूतं ? ऐकान्तिकं नियमेनेति । तथाहि परनिरपेक्षत्वेन चिदानन्दैकस्वभावं निजशुद्धात्मानमुपादानकारणं कृत्वा समुत्पद्यमानत्वात्स्वयं जायमानं सत्सर्वं शुद्धात्मप्रदेशाधारत्वेनोत्पन्नत्वात्समस्तं सर्वज्ञानाविभागपरिच्छेदपरिपूर्ण सत् समस्तावरणक्षयेनोत्पन्नत्वात्समस्तज्ञेयपदार्थ ग्रहाकत्वेन विस्तीर्ण सत् संशयविमोहविभ्रमरहितत्वेन सूक्ष्मादिपदार्थ परिच्छित्तिविषयेऽत्यन्त विशदत्वाद्विमलं सत् क्रमकरणव्यवधानजनितखेदाभावादवग्रहादिरहितं च सत्, यदेवं पञ्चविशेषणविशिष्टं क्षायिकज्ञानं तदनाकुलत्वलक्षणपरमानन्दैकरूपप/रमादिकसुखात्संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि निश्चयेनाभिन्नत्वात्पारमार्थिकसुख भण्यते । इत्यभि प्रायः ।। ५६ ।। उत्थानका- आगे कहते हैं कि अभेदनय से पाँच विशेषण सहित केवलज्ञान ही सुखरूप है | Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] [ पवयणसारो अन्वय सहित विशेषार्थ - - ( णाणं) यह केवलज्ञान (सयं जादं) स्वयमेव ही उत्पन्न हुआ है, (समत्तं ) परिपूर्ण है ( अणतत्थवित्थदं ) अनन्त पदार्थों में व्यापक है, (विमलं ) संशय आदि मलों से रहित है, (ओग्गहादिहि तु रहियं) अवग्रह, ईहा अवाय, धारणा आदि के क्रम से रहित है । इस तरह पाँच विशेषणों से गर्भित जो केवलज्ञान है वही ( एगंतियं ) नियम करके (सुहं त्ति मणियं ) सुख है, ऐसा कहा गया है। भाव यह है कि यह केवलज्ञान पर पदार्थों की सहायता की अपेक्षा न करके चिदानन्दमयी एक स्वभाव रूप अपने ही शुद्धात्मा के एक उपादानकारण से उत्पन्न हुआ है इसलिये स्वयं पैदा हुआ है, सर्व शुद्ध आत्मा के प्रदेशों में प्रगटा है इसलिये सम्पूर्ण है, अथवा सर्वज्ञान के अविभाग- प्रतिच्छेद अर्थात् शक्ति के अंश उनसे परिपूर्ण है, सर्वआवरण के क्षय होने से पैदा होकर सर्व ज्ञेय पदार्थों को जानता है इससे अनन्त पदार्थ arrer है, संशय, विमोह विभ्रम से रहित होकर व सूक्ष्म आदि पदार्थों के जानने में अत्यन्त विशद होने से निर्मल है । तथा क्रमरूप इन्द्रियजनित ज्ञान के खेद के अभाव से अवग्रहाविरहित अक्रम है। ऐसा यह पाँच विशेषण सहित क्षायिकज्ञान अनाकुलता लक्षण को रखने वाला परमानन्दमयी एक रूप पारमार्थिक सुख से संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा से भेदरूप होने पर भी निश्चयनय से अभिन्न होने से पारमार्थिक या सच्चा स्वाभाविक सुख कहा जाता है, यह अभिप्राय है ।। ५६ ।। अथ केवलस्थापि परिणामद्वारेण खेदस्य सम्भवादैकान्तिक सुखत्वं नास्तीति प्रत्याचष्टे जं केवलति णाणं तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो' जम्हा घादी' खयं जादा ॥ ६०॥ यत् केवलमिति ज्ञानं तत् सौख्यं परिणामश्च सश्चैव । वेदस्तस्य न भणितो यस्मात् घातीनि क्षयं जातानि ॥ ६० ॥ अत्र को हि नाम खेदः, कश्च परिणामः कश्च केवल सुखयोव्र्व्यतिरेकः, यतः केवलस्यैकालिकसुखत्वं न स्यात् । खेदस्यायतनानि घातिकर्माणि न नाम केवलं परिणाममात्रम् । घातिकर्माणि हि महामोहोत्पादकत्वादुन्मत्त कव दर्तास्मस्तद्बुद्धि माधाय परिषछेद्यमथं प्रत्यात्मानं यतः परिणामयन्ति ततस्तानि तस्य प्रत्यर्थं परिणम्य श्राम्यतः खेदनिदानतां प्रतिपद्यन्ते । तदभावात्कुतो हि नाम केवले खेदस्योद्भेदः । यतश्च त्रिसमयावच्छ १. भणिओ ( ज ० ० ) । २. खादिस्वयं ( ज० वृ० ) । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] न्नसकलपवार्थपरिच्छेद्याकारश्वरूप्य प्रकाशनास्पदीभूतं चित्रभित्तिस्थानीयमनन्तस्वरूप स्वयमेव परिणामत्केवलमेव परिणामः, ततः कुतोऽन्यः परिणामो यद्वारेण खेदस्यात्मलाभः, यतश्च समस्तस्वभावप्रतिघाताभावात्समुल्लसितनिरङ् कुशानन्तशक्तितया, सकलं कालिकं लोकालोकाकारमभिव्याप्य कूटस्थत्वेनात्यन्तनिःप्रकम्पं व्यवस्थितत्वादनाकुलता सौख्यलक्षणभूतामात्मनोऽव्यतिरिक्तां विभ्राणं केवलमेव सौख्यम् । ततः कुतः केवलसुखयोध्यंतिरेकः । अतः सर्वथा केवलं सुखमेकान्तिकमनुमोदनीयम् ॥६०॥ भूमिका-अब, केवलज्ञान के भी परिणाम-द्वार से (परिणमन होने के कारण) संभवते खेद के होने से ऐकान्तिक (सर्वथा) सुखपना नहीं है, इस अभिप्राय का खण्डन करते हैं ___ अन्धयार्थ—यत् ] जो | केवलं इति ज्ञानं] 'केवल' नाम का ज्ञान है [तत् सौख्य] वह सुख है [च] और [परिणामः | परिणाम भी [सः एव] वह ही है। [तस्य खेद: न भणितः ] उसके खेद नहीं कहा गया है [यस्मात् ] क्योंकि [घातीनि] घातिकर्म [क्षयं जातानि] क्ष्य को प्राप्त हो गये हैं। टीका-यहाँ (केवलज्ञान के सम्बन्ध में) खेद क्या है ? (२) परिणाम क्या है ? तथा (३) केवलज्ञान और सुख में भिन्नता क्या है ? कि जिससे केवलज्ञान के ऐकान्तिक (सर्वथा) सुखपना न हो? (१) खेद के आयतन (स्थान) घातिकर्म हैं, केवल परिणाम मात्र (खेद का स्थान) नहीं है। क्योंकि घातिकर्म महामोह के उत्पादक होने से, उन्मत्त करने वाली वस्तु की भांति, अतत् में तत-बुद्धि कराकर आत्मा को ज्ञेय पदार्थ के प्रति परिणमन कराते हैं, इसलिये वे (घातिकर्म) प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणमित हो-होकर थकने वाले उस आत्मा के लिये खेद के कारणपने को प्राप्त होते हैं । उन (घातिकर्मों) का अभाव हो जाने से केवलज्ञान में खेद की प्रगटता किस कारण से हो सकती है ? (यानि नहीं हो सकती) । (२) और क्योंकि तीनकाल-जितने (कालिक) समस्त पदार्थों को ज्ञेयाकार रूप विविधता को प्रकाशित करने का स्थान-भूत (केवलज्ञान) चित्रित वीवार की भांति स्वयं ही अनन्त स्वरूप परिणमन करता हुआ केवलज्ञान ही परिणाम है। इसलिये अन्य परिणाम कहाँ है कि जिसके द्वारा खेद की उत्पत्ति हो ? (अर्थात् नहीं है)। और (३) समस्त स्वभाव प्रतिघात के अभाव से निरंकुश अनन्तशक्ति के उल्लसित होने से समस्त अकालिक लोकालोक के आकार को व्याप्त होकर कूटस्थपने के कारण से अत्यन्त निष्कंप व्यवस्थित रहने से आत्मा से अभिन्न सुख-लक्षणभूत अनाकुलता को धारण करता हुआ केवलज्ञान ही सुख है। इसलिये केवलज्ञान और सुख में भिन्नता कहां है ? (नहीं है)। इससे, 'केवलमान ऐकान्तिक सुख है' यह सर्वथा अनुमोदन करने योग्य है ।।६०॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] । पबयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथानन्तपदार्थपरिच्छेदनारकेवलज्ञानेऽपि खेदोस्तीति पूर्वपक्षे सति परिहारमाह जं केवलत्ति णाणं तं सोरखं यत्केवलमिति ज्ञानं तत्सौख्यं भवति, तस्मात् खेदो तस्स ण मणिओ तस्य केवल ज्ञानस्य खंदा दुःखं न भणितं तदपि कस्मात् ? जम्हा घाविष्खयं जावा यस्मान्मो. हादिघातिकर्माणि क्षयं गतानि । तहि तस्यानन्तपदार्थ परिच्छित्तिपरिणामो दुःखकारणं भविष्यति । नवम् । परिणमं च सो चेव तस्य केवलज्ञानस्य संबन्धी परिणामश्च स एव सुखरूप एवेति । इदानी विस्तर:-ज्ञानदर्शनावरणोदये सति युगपदन् ज्ञातुमशक्यत्वात् क्रमकरणव्यवधानग्रहणे खेदो भवति, आवरणद्वयाभावे सति युगपद्महणे केवल ज्ञानस्य खेदो नास्तीति सुख मेव । तथैव तस्य भगवतो जगत्त्रयकालत्रयति समस्तपदार्थयुगपत्परिच्छित्तिसमर्थमखण्डेकरूपं प्रत्यक्षपरिच्छित्तिमयं स्वरूपं परिणमत्सत् केवलज्ञान मेब परिणामो न च केवलज्ञानाद्मिन्न परिणामोऽस्ति येन खेदो भविष्यति । अथवा परिणामविषये द्वितीयव्याख्यानं क्रियते युगपदनन्तपदार्थपरिच्छत्तिपरिणामपि वीर्यान्तरार्यानरवशेषक्षयादनन्तवीयंत्वात् खेदकारणं नास्ति, तथैव च शुद्धात्मसर्वप्रदेशषु समरसीभावेन परिणममानानां सहजशुद्धानन्दकलक्षणसुखरसास्वादपरिणतिरूपामात्मनः सकाशादभिन्नामनाकूलता प्रति खेदो नास्ति। संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि निश्चयेनाभेदरूपेण परिणममानं केवलज्ञानमेव सुखं भण्यते । ततः स्थितमेतत्केवलज्ञानाद्भिन्नं सुखं नास्ति । तत एव केवलज्ञाने खेदो न संभवतीति 11६०॥ ___ उत्थानिका—आगे कोई शंका करता है कि ज्ञब केवलज्ञान में अनन्त पदार्थों का ज्ञान होता है तब उस ज्ञान के होने में अवश्य खेद या श्रम करना पड़ता होगा। इसलिये वह निराकुल नहीं है । इसका समाधान करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ--(जं केवलत्ति णाणं) जो केवलज्ञान है (तं सोवख) वही सुख है (सा चेव परिणमं च) तथा केवलज्ञान सम्बन्धी परिणाम आत्मा का स्वाभाविक परिणमन है। (जम्हा) क्योंकि (घादी खयं जादा) मोहनीय आदि धातियाकर्म नष्ट हो गये (तस्स खेको ण भणिओ) इसलिये उस अनंत पदार्थों को जानने वाले केवलज्ञान के भीतर दुःख का कारण खेर नहीं कहा गया है। इसका विस्तार यह है कि जहां ज्ञानावरण दर्शनावरण के उदय से एक साथ पदार्थों के जानने की शक्ति नहीं होती है किन्तु क्रम-क्रम से पदार्थ जानने में आते हैं वहीं खेद होता है। दोनों दर्शन-ज्ञान आवरण के अभाव होने पर एक साथ सर्व पदार्थों को जानते हुए केवलज्ञान में कोई खेद नहीं है, किन्तु सुख हो है। तैसे ही उन केवलो भगवान् के भीतर तीन जगत् और तीन कालवर्ती सर्व पदार्थों को एक समय में जानने को समर्थ अखंड एकरूप प्रत्यक्षज्ञानमय स्वरूप से परिणमन करते हुए केवलज्ञान ही परिणाम रहता है। कोई केवलज्ञान से भिन्न परिणाम नहीं होता है, जिससे कि खेद Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ १४९१ होगा । अथवा परिणाम के सम्बन्ध में दूसरा व्याख्यान करते हैं- एक समय में अनंत पदार्थों के ज्ञान के परिणाम में भी वीर्यान्तराय के पूर्ण क्षय होने से अनन्तवीर्य के सद्भाव से खेद का कोई कारण नहीं है । वैसे हो शुद्ध आत्मप्रदेशों में समतारस के भाव से परिणमन करने वाली तथा सहज शुद्ध आनन्दमयी एक लक्षण को रखने वाली, सुखरस के आस्वाद में रमने वाली आत्मा से अभिन्न निराकुलता के होते हुए खेद नहीं होता है । ज्ञान और सुख संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि का भेद होने पर भी निश्चय से अभेदरूप से परिणमन करता केवलज्ञान ही सुख कहा जाता । इससे यह ठहरा कि केवलज्ञान से भिन्न सुख नहीं है, इस कारण से ही केवलज्ञान में खेद का होना सम्भव नहीं है ॥६०॥ भूमिका -- अथ पुनरपि केवलस्य सुखस्वरूपतां निरूपयन्नुपसंहरतिणाणं अत्यंतगयं लोयालोएसु' वित्थडा बिट्ठी । णट्ठमणिट्ठ सव्वं इट्ठ पुण जं तु तं लद्धं ॥ ६१ ॥ ज्ञानमर्थान्तगतं, लोकालोकेषु विस्तृता दृष्टिः । 2 नष्टमनिष्टं सर्वमिष्टं पुनः यत्तु तत् लब्धम् ॥ ६१ ॥ स्वभावप्रतिघाताभाव हेतुकं हि सौख्यम् । आत्मनो हि दृशिज्ञप्ती स्वभावः तयोलोकालोक विस्तृतत्वेनार्थान्तगतत्वेन च स्वच्छन्दविजृम्भितत्वाद्भवति प्रतिघाताभावः । ततस्तद्धेतुकं सौख्यमभेदविवक्षायां केवलस्य स्वरूपम् । किंच केवलं सौख्यमेव, सर्वानिष्टप्रहाणात् सर्वेष्टोपलम्माच्च । यतो हि केवलावस्थायां सुखप्रतिपत्तिविपक्षभूतस्य दुःखस्य साधनतामुपगतमज्ञानमखिलमेव प्रणश्यति, सुखस्य साधनीभूतं तु परिपूर्ण ज्ञानमुपजायते । ततः केवलमेव सौख्यमित्यलं प्रपञ्चेन ॥ ६१॥ भूमिका – अब, फिर भी केवलज्ञान की सुखस्वरूपता को निरूपण करते हुए उपसंहार करते हैं- अन्वयार्थ – [ ज्ञानं ] ज्ञान [ अर्थान्तगतं ] पदार्थों के पार को प्राप्त है । [ दृष्टिः ] दृष्टि (दर्शन) [ लोकालोकेषु विस्तृताः ] लोकालोक में फैली हुई है । ( इसलिये केवलज्ञान सुख स्वरूप है ) [ सर्वम् अनिष्टं ] सर्व अनिष्ट [ नष्टं] नष्ट हो चुका है। [ पुनः ] और [ यत् तु] जो [ इष्ट ] इष्ट है [ तत् ] वह सब [ लब्धं ] प्राप्त हो चुका है (इसलिये भी केवल - ज्ञान सुखस्वरूप है ) | टीका- सुख का कारण स्वभाव के प्रति घात का अभाव है। आत्मा का स्वभाव वास्तव में दर्शन ज्ञान है । (दर्शन) लोक अलोक में फैला होने से और (ज्ञान) पदार्थों के १. सोयालीयेसु (ज० वृ० ) । २. हि (ज० ० ) । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] [ पश्य णसारो पार को प्राप्त होने से (दर्शन-ज्ञान के) स्वच्छन्दतापूर्वक (स्वतन्त्रतापूर्वक) विकसितपना होने के कारण से प्रतिघात का अभाव है। इसलिये स्वभाव के प्रतिघात का अमाव जिसका कारण है ऐसा सुख अभेद विवक्षा में केवलज्ञान का स्वरूप है। प्रकारान्तर से केवलज्ञान की सुखस्वरूपता बतलाते हैं-- केवलज्ञान सुख-स्वरूप ही है क्योंकि सई अनिष्ट का नाश हो चुका है और सर्व इष्ट का लाभ हो चुका है। क्योंकि वास्तव में केवल अवस्था में सुख-प्राप्ति के विपक्षभूत दुःख के साधनपने को प्राप्त अज्ञान सम्पूर्ण हो नाश हो जाता है और सुख का साधनभूत परिपूर्ण ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । इसलिये केवलज्ञान हो सुखस्वरूप है। अधिक विस्तार से बस है ॥६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पुनरपि केवलज्ञानस्य सुखस्वरूपता प्रकारान्तरेण दृढयति - णाणं अत्यंत गये ज्ञानं केवलज्ञानमन्तिगतं ज्ञेयान्तप्राप्त लोयालोयेसु वित्थडा विठ्ठी लोकालोकयोविस्तृता दृष्टिः केवलदर्शनं । णमणिह्र सम्बं अनिष्टं दुःखमज्ञानं च तत्सर्वं नष्ट इठ्ठं पुण जं हि त लद्धं इष्ट पुनर्यद् ज्ञानं सुखं च हि स्फुट तत्सर्व लब्धमिति । - तद्यथा-स्वभावप्रतिघाताभावहेतुक सुखं भवति । स्वभावो हि केवलज्ञानदर्शनद्वयं, तयोः प्रतिधात आवरणतयं तस्याभावः केलिनां, ततः कारणात्स्वभावप्रतिघाताभावहेतुकमक्ष यानन्तसुखं भवति । यतश्च परमानन्दै कलक्षणसुख प्रतिपक्षभूतमाकुलत्वोत्पादकमनिष्टं दुखमज्ञानं च नष्ट, यतश्च पूर्वोक्तलक्षणसुखाविनाभूतं लोक्योदरविवरवर्तिसमस्तपदार्थयुगपत्प्रकाशकमिष्ट ज्ञानं च लब्ध, ततो ज्ञायते केवलिनां ज्ञानमेव सुखमित्यभिप्रायः ।। ६१॥ उत्थानिका--आगे फिर भी केवलज्ञान को सुखरूपपना अन्य प्रकार से कहते हुए इसी बात को पुष्ट करते हैं--- ___ अवन्य सहित विशेषार्थ—(णाण) केवलज्ञान (अत्यंतगयं) सर्वज्ञेयों के अंत को प्राप्त हो गया अर्थात् केवलज्ञान ने सब जान लिया (विट्ठी) केवलदर्शन (लोयालोयेसु वित्थडा) लोक और अलोक में फैल गया (सव्यं अणिठ्ठ) सर्व अनिष्ट अर्थात् अज्ञान और दुःख (गट्ठ) नष्ट हो गया (पुण) तथ (जं तु इठं तं तु लद्धं) जो कुछ इष्ट है अर्थात् पूर्ण ज्ञान तथा सुख है सो सब प्राप्त हो गया। इसका विस्तार यह है कि आत्मा के स्वभाव के घात का अभाव है सो सुख है। आत्मा का स्वभाव केवलज्ञान और केवलदर्शन है। इनके घातक केवलज्ञानावरण तथा केबलदर्शनावरण हैं सो इन दोनों आवरणों का अभाव केवलज्ञानियों के होता है, इसलिये स्वभाव के घात के अमाव से होने वाला सुख होता है । क्योंकि परमानन्दमयो एक लक्षण Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १४३ रूप सुख से उल्टे आकुलता के पैदा करने वाले सर्व अनिष्ट अर्थात् दुःख और अज्ञान नष्ट हो गए तथा पूर्व में कहे हुए लक्षण को रखने वाले सुख के साथ अविनाभूत-अवश्य होने वाले तीन लोक के अन्दर रहने वाले सर्व पदार्थों को एक समय में प्रकाशने वाला इष्ट ज्ञान प्राप्त हो गया, इसलिये यह जाना जाता है केवलियों के ज्ञान ही सुख है, ऐसा अभिप्राय है ॥६१॥ अथ केवलिनामेव पारमार्थिक सुखमिति श्रद्धापयति णो सद्दहति सोक्खं सुहेसु परमं त्ति विगदघादीणं । सुणिदूण ते अभब्वाभव्वा वा तं पडिच्छंति ॥६२॥ न श्रद्दधति सौख्य सुख्नेषु परममिति विगतघातिनाम् । श्रुत्वा ते अभव्या भव्या वा तत्प्रतीच्छन्ति ।।६२।।। __ इह खलु स्वभावप्रतिघातादाकुलत्वाच्च मोहनीयादिकर्मशालशालिनां सुखाभासेऽप्यपारमाथिकी सुखमिति सहिः। कलिना गवतां प्रयोगधातिकर्मणां स्वभावप्रतिघातामावादनाकुलत्वाच्च यथोदितस्य हेतोलक्षणस्य च सद्भावात्पारमार्थिकं सुखमिति श्रद्धेयम् । न किलवं येषां श्रद्धानमस्ति ते खलु मोक्षसुखसुधापानदूरयतिनो मृगतृष्णाम्मोमारमेषासम्याः पश्यन्ति । ये पुनरिदमिशनीमेव वचः प्रतीच्छन्ति ते शिवनियो भाजनं समासन्नभव्याः भवन्ति । ये तु पुरा प्रतीच्छन्ति ते तु दूरभण्या इति ॥६२॥ भूमिका—अब, केवलज्ञानियों के ही पारमार्थिक सुख है-यह श्रद्धा कराते हैं__ अन्वयार्थ-[विगतघातिनां] नष्ट हो गये हैं घातिकर्म जिनके उन केवलियों के [सुखेषु परमं] (सर्व) सुखों में उत्कृष्ट [सौख्यं] सुख है, [इति श्रुत्वा यह सुनकर [ये] जो [न श्रद्धधाति] श्रद्धान नहीं करते हैं [ते अभव्याः ] वे अभव्य हैं। [भव्या] भव्य तो तत् ] उसको (केवलियों के सर्वोत्कृष्ट सुख है, इसको) [प्रतीच्छन्ति ] स्वीकार करते हैं (उसकी श्रद्धा करते हैं)। टीका-इस लोक में निश्चय से मोहनीय-आदि-कर्मजाल-वालों के स्वभाव प्रतिघात के कारण से और आकुलता के कारण से सुखाभास होने पर भी (उस सुखामास को 'सुख' ऐसा कहने की अपारमार्थिक रूढि (लोक पति) है । नष्ट हो चुके हैं घातिकर्म जिनके और जो भगवान् हैं (बड़ी महिमा वाले हैं) ऐसे केवली मगवन्तों के, स्वभाव प्रतिघात के अभाव के कारण से और अनाकुलता के कारण से (सुख के) यथोक्त कारण का और लक्षण का सद्भाव होने से पारमाधिकसुख है, यह श्रद्धा करने योग्य हैं। जिनके Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] [ पवयणसारो वास्तव में ऐसी श्रद्धा नहीं है वे वास्तव में मोक्ष सुख के सुधापान से दूर रहने वाले अभव्य मृगतृष्णा में जल-समूह को ही देखते हैं (इन्द्रियसुख को ही सुख मानते हैं)। ओ इस वचन को इसी समय स्वीकार (श्रद्धा) करते हैं वे शिवश्री (मोक्षलक्ष्मी) के पात्र निकट-मध्य होते हैं, और जो आगे जाकर स्वीकार करेगे वे दूर-भव्य हैं ॥६२।। तात्पत्ति अथ पारमर्षिकसुखं केलिनामेव, संसारिणां ये मन्यते तेऽभव्या इति निरूपयति - णो सद्दहति नैव श्रद्दधति न मन्यन्ते । कि? सोख निविकारपरमालादकसुखं । कथं भूतं न मन्यन्ते ! सुहेसु परमंत्ति सुखेषु मध्ये तदेव परमसुख । केषां सम्मधि यत्सुख ? विगाघादीणं विगतधातिकर्मणां केवलिना । कि कृत्वापि मन्यन्ते ? सुणिदूण "आद सयं समत्तं" इत्यादिपूर्वोक्तगाथात्रयकथितप्रकारेण श्रुत्वापि ते अभवा ते अभव्या: ते हि जीवा वर्तमानकाले सम्यक्त्वरूपभव्य. स्वव्यक्त्यभावादभव्या भण्यन्ते, न पुनः सर्वथा भावात पलिच्छति ये वर्तमानकाले सम्यक्त्वरूपभव्यस्वव्यक्तिपरिणतास्तिष्ठन्ति ते तदनन्तसुख मिदानीं मन्यन्ते । ये च सम्यक्त्वरूप मन्यत्वव्यक्त्या भाविकाले परिणमिष्यन्ति ते च दूरभव्या अग्न श्रद्धानं कुर्यरिति ।। ___ अयमत्रार्थ:--मारणार्थ तलवरगृहीततस्करस्य मरणमिव यद्यपीन्द्रियसुमिष्टं न भवति, तथापि तलवरस्थानीयचारित्रमोहोदयेन मोहितः सन्निरूपरागस्वात्मोत्यसुखमलभमानः सन् सरागसम्यग्दृष्टिसत्मनिन्दादिपरिणतो हेम्णा नदनुभवति : ये नर्गत पदाटम: शुक्षोपयोगिनस्तेषां, मत्स्यानां स्थलगमनमिवाग्निप्रवेश इव या निविकारशुद्धात्मसुखाच्च्यवनमपि दु:खं प्रतिभाति । तथा चोक्त "समसुखशीलितमनसा च्यवनमपि द्वषमेति किमु कामाः। स्थलमपि दहति झषाणां किमङ्ग पुनरङ्गमङ्गारा:" ॥६२।।। एवमभेदन येन केवलज्ञानमेव सुखं भण्यते इति कथनमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन चतुर्थस्थलं गतं । उत्थानिका-आगे कहते हैं कि पारमार्थिक सच्चा अतीन्द्रिय आनन्द केवलज्ञानियों के ही होता है, जो कोई संसारियों के भी ऐसा सुख मानते हैं, वे अभव्य हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ— (विगदघादोणं) धातियाकर्मों से रहित केवली भगवन्तों के (सुहेसु परमं त्ति) सुखों के बीच में उत्कृष्ट जो (सोक्खं) विकार-रहित परम आल्हादमयो एक सुख है उसको (सुणिदण) 'जादं सयं समत्त' इत्यादि पहले कहीं हई तीन गाथाओं के कथन प्रमाण सुनकर के भी जान करके भी (ण हि सद्दहति) निश्चय से नहीं श्रयान करते हैं नहीं मानते हैं, (ते अभया) वे अमन्य जीव हैं अथवा वे सर्वथा अभव्य नहीं है किन्तु दूरमध्य हैं, जिनको वर्तमानकाल में सम्यक्त्वरूप भव्यत्वशक्ति को व्यक्ति का अभाव है (वा) तथा (भध्या) जो भव्य जीव हैं अर्थात् जो सम्यकदर्शनरूप भव्यत्वशक्ति की प्रगटता में परिणमन कर रहे हैं। भावार्थ-जिनके भव्यत्वशक्ति को व्यक्ति होने से सम्यक्दर्शन प्रगट हो गया Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 [ १४५ है वे ( तं पडिच्छंति) उस अनन्तसुख को वर्तमान में श्रद्धान करते हैं तथा मानते हैं और जिनके सम्यक्त्वरूप भव्यत्वशक्ति की प्रगटता की परिणति भविष्यकाल में होगी, ऐसे दूरभव्य हैं, वे आगे श्रद्धान करेंगे । यहाँ यह भाव है कि जैसे किसी पोरन मारने के लिये ले जाता है, तब चोर मरण को लाचारी से भोग लेता है तैसे यद्यपि सम्यग्दृष्टियों को इन्द्रियसुख इष्ट नहीं है तथापि कोतवाल के समान चारित्रमोहनीय के उदय से मोहित होता हुआ सरागसम्यग्दृष्टि जीव वीतरागरूप निज आत्मा से उत्पन्न सच्चे सुख को नहीं भोगता हुआ इन्द्रियसुख को अपनी निन्दा गहां आदि करता हुआ त्याग बुद्धि से भोगता है । तथा जो वीतराग सम्यग्दृष्टि शुद्धोपयोगी हैं, उनको विकार रहित शुद्ध आत्मा के सुख से हटना ही, उसी तरह दुःखरूप झलकता है जिस तरह मछलियों को भूमि पर आना तथा प्राणी को अग्नि में घुसना दुःखरूप भासता है। ऐसा ही कहा हैसमसुखशीलितमनसां च्यवनमपि द्वेषमेति किमु कामा: । स्थलमपि वहति शषाणां किमङ्गः पुनरंङ्गमङ्गाराः ॥ भाव यह है - समतामयी सुख को भोगने वाले पुरुषों को समता से गिरना ही जब बुरा लगता है तब भोगों में पड़ना कैसे दुःख रूप न भासेगा ? जब मछलियों को जमीन ही दाह पैदा करती है, है आत्मन् ! तब अग्नि के अंगारे दाह क्यों न करेंगे ॥६२॥ अथ परोक्षज्ञानिनामपारमार्थिकमिन्द्रियसुखं विचारयति-मणुआसुरारिवा अभिदुवा' इन्दियेहिं सहजेहि । असहंता तं दुक्खं रमंति विसएसु रम्मेसु ॥ ६३॥ मनुजासुरामरेन्द्राः अभिद्रुता इन्द्रियैः सहजैः । असमानास्तद्दुःखं रमन्ते विषयेषु रम्येषु ।। ६३|| अमीषां प्राणिनां हि प्रत्यक्षज्ञानाभावात्परोक्षज्ञानमुपसर्पतां सत्सामग्रीभूतेषु स्वरसत एवेन्द्रियेषु मंत्री प्रवर्तते । अथ तेषां तेषु मंत्रीमुपगतानामुदीर्ण महामोहक लानल कवलितानां तप्तायोगोलानामियात्यन्तमुपात्ततृष्णानां तद्दुः खवेगमसहमानानां व्याधिसात्म्यतामुपगतेषु रम्येषु विषयेषु रतिरूपजायते । ततो व्याधिस्थानीयत्वादिन्द्रियाणां व्याधिसात्म्यसमत्वाद्विषयाणां च न छद्मस्थानां पारमार्थिकं सौख्यम् ॥ ६३॥ भूमिका - अब, परोक्षज्ञानियों के अपारमार्थिक इन्द्रियसुख का विचार करते हैं। १. अहिदा ( वृ० ) । 13‍ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] [ पवयणसारो ___ अन्वयार्थ-[मनुजासुरामरेन्द्राः] मनुष्येन्द्र (चक्रवर्ती), असुरेन्द्र (धरणीन्द्र) और सुरेन्द्र (देवेन्द्र) [सहजः इन्द्रियैः] स्वाभाविक (परोक्षज्ञान बालों को जो स्वाभाविक हैं ऐसी) इन्द्रियों से [अभिद्रुताः] पीड़ित होते हुए (तथा [नन् दुः] उस इन्दिय दुःख को [असहमानाः] सहन न कर सकते हुए [रम्येयु विषयेषु] रम्य विषयों में [रमन्त] रमण करते हैं। टीका---प्रत्यक्षशान के अभाव के कारण) से परोक्षज्ञान को आश्रय लेने वाले इन प्राणियों के वास्तव में उस (परोक्षज्ञान) की सामग्री रूप (साधनरूप) इन्द्रियों के प्रति निज रस से (स्वभाव से) ही मैत्री प्रवर्तती है, (१) उन (इन्द्रियों में मैत्री को प्राप्त (२) उदय को प्राप्त महामोह रूपी कालाग्नि से कलित (ग्रसित) (३) तप्त हुए लोहे के गोले की भांति (जैसे गरम किया हुआ लोहे का गोला पानी को शीघ्र ही सोख लेता है) अत्यन्त तृष्णा को प्राप्त, (४) उस इन्द्रिय-दुःख के वेग को सहन न कर सकने वाले ऐसे उन प्राणियों के, प्रतिकार को प्राप्त (रोग में थोड़ा सा आराम जैसा अनुभव कराने वाले उपचार को प्राप्त) रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है। इसलिये, इन्द्रियों की व्याधि समान होने से और विषयों को व्याधि के प्रतिकार समान होने से, (य्याधि के समान इन्द्रियों के प्रतिकार समान छप्रस्थों के विषयों से रहित पारमाथिक (सच्चा अतीन्द्रिय) सुख नहीं है ॥६३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ संसारिणामिन्द्रियज्ञानसाधकमिन्द्रियसुखं विचारयति मणुआसुरारिदा मनुजाऽसुरामरेन्द्राः । कथंभूता ? अहिद वा इन्दियहि सहजेहि अभिवृताः कथिता: दु:खिताः । कः ? इन्द्रियः सहजैः असहता तं दुक्खं तदुःखोद्रेकमसहमाना: सन्त: रमते विसएसु रम्मेसु रमन्ति विषयेषु रम्याभासेषु इति ।। अथ विस्तर:-मनुजादयो जीवा अमुर्तातोन्द्रियशान सुखास्वादमलभमानाः सन्तः मूर्तेन्द्रियज्ञानसुखनिमित्तं तन्निमित्त पञ्चेन्द्रियेषु मैत्री कुर्वन्ति । ततश्च तप्तलोहगो लकानामुदकाकर्षणमिव विषयेषु तीव्रतष्णा जायते । तां तृष्णामसहमाना विषयाननुभवन्ति इति । ततो ज्ञायते पञ्चेन्द्रियाणि व्याधिस्थानीयानि, विषयाश्च तत्प्रतीकारोषधस्थानीया इति संसारिणां वास्तवं सुखं नास्ति ।।६३॥ उत्थानिका-आगे संसारी जीवों के जो इन्द्रियजनित ज्ञान के द्वारा साधा जाने वाला इन्द्रियसुख होता है, उसका विचार करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ-(मणुआऽसुरामरिंदा) मनुष्य, भवनवासी, ध्यंतर, ज्योतिषी तथा कल्पवासी देव और मनुष्यों के इन्द्र चक्रवर्ती राजा तथा चार प्रकार के देवों के सर्व इन्द्र (सहजेहिं) अपने अपने शरीरों में उत्पन्न हुई अथवा स्वभाव से पैदा हुई Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारी ] [ १४७ (ई दिहि) इन्द्रियों की चाह के द्वारा (अहिद्द दा) पीडित या दुःखित होकर (तं दुक्खं असहंता) उस दुःख को तीव्र धारा को न सहन करते हुए (रम्मेसु विसएसु) सुन्दर मालूम होने वाले इन्द्रियों के विषयों में (रमंति) रमण करते हैं। ___ इसका विस्तार यह है कि जो मनुष्यादिक जीव अमूर्त अतीन्द्रियज्ञान तथा सुख के आस्वाद को नहीं अनुभव करते हुए मूलिक इन्द्रियजनित ज्ञान तथा सुख के निमित्त पांचों इन्द्रियों के भोगों में प्रीति करते हैं उनमें जैसे गर्म लोहे का गोला चारों तरफ से पानी को खींच लेता है उसी तरह पुनः पुनः विषयों में तीन तष्णा पैदा होती है। उस तृष्णा को न सह सकते हुए वे विषय भोगों का स्वाद लेते हैं । इसलिये ऐसा जाना जाता है कि पांचों इन्द्रियों को तष्णा रोग के समान है। तथा उसका उपाय विषयभोग करना यह भौषधि के समान है। इसलिये संसारी जीवों को वास्तविक सच्चे सुखका लाभ नहीं होता है ॥६३॥ .. .... अथ यावविन्द्रियाणि तावत्स्वभावादेव दुःखमेवं वितर्कयति-- जेसि विसयेसु 'रदी तैसि दुक्खं वियाण सब्भावं । जवि तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥६४॥ येषां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि स्वभावम् । यदि तन्न हि स्वभावो व्यापारो नास्ति विपयार्थम् ।।६४।। येषां जीवदेवस्थानि हतकानिन्द्रियाणि, न नाम तेषामुपाधिप्रत्ययं दुःखम् । किंतु स्वाभाविकमेव, विषयेषु रतेरवलोकनात् । अवलोक्यते हि तेषां स्तम्बेरमस्य करेणुकुट्टनीगावस्पर्श इव, सफरस्य बडिशामिषस्वाद इव, इन्दिरस्य संकोचसंमुखारविन्दामोद इव, पतङ्गस्य प्रदोपाचिरूप इव, कुरङ्गस्य मृगयुगेयस्वर इव, दुनिवारेन्द्रियवेदनावशीकृतानामासन्न निपातेष्वपि विषयेष्वभिपातः । यदि पुनर्न तेषां दुःखं स्वाभाविकमभ्युपगम्येत तदोपशांतशीतज्वरस्य संस्वेदनभिव, प्रहीणवाहज्वरस्यारनालपरिषेक ३व, निवृत्तनेत्रसंरम्भस्य च वटाचूर्णावचूर्णमिव, विनष्ठकर्णशूलस्य अस्तमूत्रपूरणमिव, रूढवणस्यालेपनदानमिव, विषयव्यापारो न दृश्येत । दृश्येत चासो। ततः स्वभावभूतदु.खयोगिन एव जीवविन्द्रियाः परोक्षज्ञानिनः ॥४४॥ भूमिका-अब, जहां तक इन्द्रियां हैं वहां तक स्वभाव से ही दुख है, इस प्रकार से निश्चित करते हैं। १. रई (ज. वृत) । २. जइ (जल वृ०)। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] [ पबयणसारो अन्वयार्थ- [येषा] जिनके [विषयेषु रतिः] विषयों में रति है [तेषां] उनके [स्वभावं दुःखं] स्वाभाविक दुख [विजानीहि] तू जान [हि] क्योंकि [यदि तत् ] जो वह दुःख [स्वभाव म] स्वाभाविक अर्थात् जो स्वभाव से न होता तो उसका [विपयार्थ] इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों में [च्यापार:] व्यापार भी [न अस्ति ] न होता। टीका-जिनको हत (निकृष्ट-निद्य) इन्द्रियां जीवित अवस्था में हैं उनके उपाधि के कारण से होने वाला (बाह्या संयोग के कारण से होने वाला औपाधिक) दुःख न भी हो तो भी स्वाभाविक दुःख है ही, क्योंकि (उनकी) विषयों में रति देखी जाती है। हाथी के हथिनी रूपी कुट्टनी के शरीर स्पर्श की तरह, मछली के बंसी में फंसे हुए मांस के स्वाद को तरह, भ्रमर बन्द होने के सम्मुख कमल की गंध की तरह, पतंग के दीपक की ज्योति के रूप की तरह और हिरन के शिकारी के स्थर की तरह दुनिवार इन्द्रिय-वेदना के वशीभूत होते हुए उनके (अर्थात् जिनके इन्द्रियां जीवित हैं उनके) अत्यन्त नाशवाले (क्षणिक) विषयों में भी पतन देखा जाता है। 'उनका दुःख स्वाभाविक है यदि ऐसा स्वीकार न किया जाय तो, जिसका शीतज्वर उपशान्त हो गया है उसके पसेव (पसीना) को तरह, जिसका दाहज्वर उतर गया है उसके कांजी के परिषेक की तरह, जिसकी आंखों का दुख दूर हो गया है उसके वटचूर्ण (शंख इत्यादि का चूर्ण) आंजने की तरह, जिसका कान का दं नष्ट हो गया है उसको बकरे का मूत्र कान में डालने को तरह और जिसका घाव पूरा भर गया है उसके फिर लेप करने की तरह (अर्थात जिसका रोग शमन हो गया है उस रोग के प्रतिकार या इलाज के लिए औषधि आदि सेवन नहीं देखा जाता, उसी प्रकार यदि उन जीवित इन्द्रिय वालों के यदि बांछा रूपी रोग न होता तो उनके श्री) विषय-व्यापार न देखा जाता; (किन्तु) यह (विषय व्यापार) देखा जाता है । इससे (सिद्ध हुआ कि) जिनकी इन्द्रियां जीवित हैं, ऐसे परोक्षज्ञानी स्वभावभूत दुःख वाले (स्वाभाविक दुखी ही) है ॥६४॥ तात्पर्यवृत्ति अथ यावदिन्द्रियव्यापारस्तावदुःखमेवेति कथयति-- जेसि विसये पु रई येषां निविषयातीन्द्रियपरमात्मस्वरूपविपरीतेषु विषयेषु रतिः तेसि दुक्खं वियाण सम्भावं तेषां वहिर्मुख जोवानां निजशुद्धात्मद्रव्यसंवित्तिसमुत्पन्ननिरुपाधिपारमार्थिक सुखविपरीत स्वभावेनैव दुःखमस्तीति विजानीहि । कस्मादिति चेत् ? पञ्चेन्द्रियविषयेषु रतेरवलोकनात् जह त ण हि सहभादं यदि तदुःखं स्वभावेन नास्ति हि स्फुटं बावारो गस्थि विसपस्थं तहि विषयार्थ व्यापारी नास्ति न घटते । व्याधिस्थानामोषधेष्वित्र विषयार्थ व्यापारो दृश्यते चेत्तत एव ज्ञायते दुःखमस्तीत्यभिप्रायः । एवं परमार्थेनेन्द्रियसुखस्य दुःख स्थापनार्थं गाथाद्वय गतम् ॥६४।। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ १४६ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जब तक इन्द्रियों के द्वारा यह प्राणी विषयों के व्यापार करता रहता है तब तक इसको दुःख ही है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(जेसि विसयेसु रई) जिन जीवों की विषयरहित अतींद्रिय परमात्म स्वरूप से विपरीत इन्द्रियों के विषयों में प्रीति होती है (सि सम्भावं दुवखं वियाण) उनको स्वाभाविक दुःख जानो अर्थात् उन बहिर्मुख मिथ्यादृष्टि जीवों को अपने शुद्ध आत्मद्रव्य के अनुभव से उत्पन्न, उपाधिरहित निश्चय सुख से विपरीत स्वभाव से ही दुःख होता है, ऐसा जानो (जदि तं सम्भावं ण हि) यदि वह दुःख स्वभाव से निश्चय करके न होवे तो (विसयत्थं वावारो पत्थि) विषयों के लिये व्यापार न होये । जैसे रोग से पीड़ित होने वालों के ही लिये औषधि का सेवन होता है, वैसे ही इन्द्रियों के विषयों के सेवने के लिये ही व्यापार दिखाई देता है, इसी से यह जाना जाता है कि उनके दुख है, ऐसा अभिप्राय है । इस प्रकार निश्चय से इन्द्रियजनित सुख दुःखरूप ही है, ऐसा स्थापन करते हुए वो गाथाएं पूर्ण हुईं ॥६॥ अथ मुक्तात्मसुखप्रसिद्धये शरीरस्य सुखसाधनता प्रतिहन्ति पप्पा इठे विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण । परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहंण हवदि देहो ॥६५॥ प्राप्येष्टान् विषयान् स्पर्श: समाश्रितान् स्वभावेन। परिणममान आत्मा स्वयमेव सुखं न भवति देहः ।।६।। अस्य स्खल्वात्मनः सशरीरावस्थायामपि न शरीरं सुखसाधनतामापद्यमानं पश्यामः, यतस्तदापि पोतोन्मत्तकरसरिव प्रकृष्टमोहवशतिभिरिन्द्रियैरिमेऽस्माकमिष्टा इति क्रमेण विषयानभिपतारसमोचीतवृत्तितामनुभवन्नुपरुद्धशक्तिसारेणापि ज्ञानवर्शनवीर्यात्मकेन निश्चयकारणतामुपागतेन स्वभावेन परिणममानः स्यमेवायमात्मा सुखतामापद्यते । शरीरं त्वचेतनत्वादेव सुखत्वपरिणतेनिश्चयकारणतामनुपगच्छन्न जातु सुखतामुपढीकत इति ॥६५॥ भूमिका -अब, मुक्त-आत्मा के सुख की प्रसिद्धि के लिये, शरीर की सुख-साधनता का खण्डन करते हैं ?--सिद्ध भगवान के शरीर के बिना भी सुख होता है यह माय स्पष्ट समझाने के लिये संसार अवस्था में भी शरीरसुख का (इन्द्रियसुख का) साधन नहीं है, यह निश्चित करते हैं ___ अन्वयार्थ-[स्पर्शः समाश्रितान् ] स्पर्शन आदिक इन्द्रियां जिनका आश्रय लेती हैं ऐसे [इष्टान् विषयान् ] इष्ट विषयों को [प्राप्य] पाकर [स्वभावेन] (अपने अशुद्ध) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] [ पक्यणसारो स्वभाव से (परिणममानः] परिणमन करता हुआ [आत्मा] आत्मा [स्वयमेव] स्ययं ही [सुखं सुखरूप (इन्द्रियसुख रूप) होता है [देहः न भवति ] (किन्तु) देह सुखरूप नहीं होती हैं। टीका-वास्तव में इस आत्मा के सशरीर अवस्था में भी शरीरसुख की साधनता को प्राप्त होता हुआ हम नहीं देखते हैं, क्योंकि तब भी, मानो उन्माद-जनक मदिरा का पान किया हो ऐसी प्रबल मोह के वश में वर्तने वाली (तथा) 'यह (विषय) हमें इष्ट है। इस प्रकार क्रम से विषयों में पड़तो (प्राप्त) हुई इन्द्रियों के द्वारा असमीचीन (अयोग्य) परिणति को अनुभव करता हुआ, रुक गई है शक्ति को उत्कृष्टता (परम शुद्धता) जिसकी ऐसे भी (अपने) ज्ञान-दर्शन-वीर्यात्मक तथा निश्चय कारणता को प्राप्त-स्वभाव से परिणमन करता हुमा यह आत्मा स्वयमेव तुखोपने को प्राप्त करता है, (सुखरूप होता है) शरीर तो अचेतन होने के कारण ही, सुखत्य-परिणति के निश्चय-कारणता को प्राप्त न होता हुमा, किंचित् मात्र भी सुखत्व को प्राप्त नहीं करता ॥६५॥ तात्पर्यवृत्ति अथ मुक्तात्मनां शरीराभावेपि सुखमस्तीति ज्ञापनार्थ शरीर सुखकारणं न स्यादिति व्यक्तीकरोति पप्पा प्राप्य । कान् ? इछे विसये इष्टपञ्चेन्द्रियविषयान् । कथंभूतान् ? फाहिं समस्सिदे स्पर्शनादीन्द्रियरहित शुद्धात्मतत्वविलक्षणः स्पर्शनादिभिरिन्द्रियः समाश्रितान् सम्यक-प्रा-यान् ग्राह्यान्. इत्थंभूतान् विषयान् प्राप्य । स क: ? अप्पा आत्मा कर्ता किविशिष्ट: ? सहाधेण परिणममाणो अनन्तसुखोपादानभूत शुद्धात्मस्वभावविपरीतेनाशुद्धसुखोपादान लेनाशुद्धात्मस्वभावेन परिणममानः । इत्थंभूत: सन् सयमेव सुहं स्वयमेवेन्द्रियसुखं भवति परिणति । | हदि देहो देहः पुनर चेतनस्वात्सुखं न भवतीति । ____ अयमत्रार्थः- कवितसंसारिजीवानां यदिन्द्रियसुखं तत्रापि जीव उपादानकारणं न च देहः, देहकमरहितमुक्तात्मनां पुनयंदनन्तातीन्द्रियसुखं तत्र विशेषेणात्मैव कारणमिति ॥६५॥ उत्थानिका-आगे यह प्रगट करते हैं कि मुक्त आत्माओं के शरीर न होते हुए भी सुख रहता है, इस कारण शरीर मुख का कारण नहीं हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(अप्पा) यह संसारी आत्मा (फासेहि) स्पर्शन आदि इन्द्रियों से रहित शुद्धात्मतत्व से विलक्षण स्पर्शन आदि इन्द्रियों के द्वारा (समस्सिवे) मले प्रकार ग्रहण करने योग्य (इठेविसये) अपने को इष्ट ऐसे विषय भोगों को (पप्पा) पाकर के या ग्रहण करके (सहावेण परिणममाणो) अनन्त सुख का उपादान कारण जो शुद्ध आत्मा का स्वभाव उससे विरुद्ध अशुद्ध सुख का उपादानकारण जो अशुद्ध आत्मस्वभाव Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्मणसारो [ १५१ उससे परिणमन करता हुआ (सयमेव) स्वयं ही (सुहं) इन्द्रिय सुखरूप हो जाता है, या परिणमन कर जाता है, तथा (देहो ण हवि) शरीर अचेतन होने से सुख रूप नहीं होता है। यहाँ यह अर्थ है कि कर्मों के आवरण से मैले संसारी जीवों के जो इन्द्रियसुख का होता है वहाँ भी जीव ही उपादानकारण नहीं है। जो देह-रहित व कर्मबंध-रहित मुक्त जीव हैं उनको जो अनन्त अतीन्द्रियसुख है, वहीं तो विशेष करके आत्मा ही कारण है ॥६॥ अथैतदेव दृढयति एगतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा । विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा ॥६६॥ एकान्तेन हि देहः सुखं न देहिनः करोति स्वर्गे वा। विषयवशंन तु सौख्यं दुःखं वा भवति स्वयमात्मा ।।६६।। अयमत्र सिद्धान्तो यहिण्यये क्रियिकत्वेऽपि शरीरं न खलु सुखाय कल्प्येतेतीष्टानामनिष्टानां या विषयाणां वशेन सुखं वा दुखं वा स्वयमेवात्मा स्यात् ॥६६॥ भूमिका- अब इसी बात को दृढ़ करते हैं अन्वयार्थ-[एकान्तेन हि] एकान्त से अर्थात् नियम से [स्वर्गे] स्वर्ग में [वा] भी [देहः] शरीर [देहिनः] शरीरी (आत्मा) के [सुखं न करोति ] सुख नहीं करता [विषयवशेन तु] परन्तु विषयों के वश से [सौख्यं वा दुःखं] सुखरूप अथवा दुःख रूप [स्वयं आत्मा भवति] स्वयं आत्मा [परिणमित) होता है। ___टीका-यहाँ यह सिद्धान्त है कि दिव्य वैक्रियिक-पना होने पर भी शरीर से पास्तव में सुख के लिए कल्पना नहीं की जा सकती (वैक्रियिकशरीर सुख देता है, यह कल्पना नहीं की जा सकती है), क्योंकि इष्ट अथवा अनिष्ट विषयों के वश से सुख अथवा दुःख रूप स्वयं आत्मा (परिणत) होता है ॥६६॥ तात्पर्यवति . अथ मनुष्यशरीरं मा भवतु, देवशरीरं दिव्यं तरिकल सुखकारणं भविष्यतोत्याशङ्कां निरा. करोति एगतेण हि बेहो सुहं ण देहिस्स कुणदि एकान्तेन हि स्फुटं देहः कर्ता सुखं न करोति । कस्य ? देहिनः संसारिजीवस्य । क्य ? सग्गे वा आस्तां तावन्मनुष्याणां मनुष्यदेहः सुखं न करोति, स्वर्गे वा मासो दिव्यो देवदेहः सोप्युपचार विहाय सुखं न करोति । विसयरसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हयदि सयमादा किन्तु निश्चयेन निविषयामूर्तस्वाभाविकसदानन्दै कसुखस्वभावोपि व्यवहारेणानादिकमबन्ध Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] [ पवयणसारो शाद्विषयाधीनत्वेन परिणम्य सांसारिक सुखं दुःखं वा स्वयमात्मैव भवति न च देह इत्यभिप्रायः । एवं मुक्तात्मनां देहाभावेपि सुखमस्तीति परिज्ञानार्थं संसारिणामपि देहः सुखकारणं न भवतीतिकथनरूपेण गाथाद्वयं गतम् ॥ ६६ ॥ - उत्थानका – अब आगे यहाँ कोई शंका करता है कि मनुष्य का शरीर जिसके नहीं है किन्तु देव का दिव्य शरीर जिसको प्राप्त है, वह शरीर तो उसके लिये अवश्य सुख का कारण होगा | आचार्य इस शंका को हटाते हुए समाधान करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( एगतेण हि ) सब तरह से निश्चयकर यह प्रगट है कि (देहिस्स) शरीरधारी संसारी प्राणी को (देहो ) यह शरीर ( सभी वा ) स्वर्ग में भी ( सुहं ण कुणदि) सुख नहीं करता है । मनुष्यों को मनुष्य देह तो सुख का कारण नहीं है, यह बात दूर ही है । स्वर्ग में भी जो देवों का मनोश वैकिथिक देह है वह भी विषय वासना के उपाय बिना सुख नहीं करता है । ( आदा) यह आत्मा ( सयं ) अपने आप ही ( विसयवसेण ) विषयों के वश से अर्थात् निश्चय से विषयों से रहित अमूर्त स्वाभाविक सदा आनन्दमयी एक स्वभाव रूप होने पर भी व्यवहार से अनादि कर्म के बंध के वश से विषयों के भोगों के अधीन होने से (सोक्खं या युवखं हवदि) सुख व दुःख रूप परिणमन करके सुख या दुःख रूप हो जाता है शरीर सुख या दुःख रूप नहीं होता है, यह अभिप्राय है । इस तरह मुक्त जीवों के देह न होते हुए भी सुख रहता है, इस बात को समझाने के लिये संसारी प्राणियों को भी देह सुख का कारण नहीं है, ऐसा कहते हुए दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥ ६६ ॥ अथात्मनः स्वयमेव सुखपरिणामशक्ति योगित्वाद्विषयाणामकिचित्करत्वं द्योतयत्ति - तिमिरहरा जड़ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि काय' । तघ सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ||६७ || तिमिरहरा यदि दृष्टिः जनस्य, दीपेन नास्ति कर्तव्यम् । तथा सौख्यं स्वयमात्मा विषयाः किं तत्र कुर्वन्ति ॥ ६७॥ यथा हि केषांचिन्नक्तंचराणां चक्षुषः स्वयमेव तिमिरविकरणशक्तियोगित्वान्न तदपाकरणप्रवणेन प्रदीपप्रकाशादिना कार्य, एवमस्यात्मनः संसारे मुक्तौ वा स्वयमेव सुखतया परिणममानस्य सुखसाधनधिया अबुधैर्मुधाध्यास्यमाना अपि विषयाः किं हि नाम कुर्युः ॥ ६७|१ भूमिका – अब, आत्मा के स्वयं ही सुख रूप परिणमने की शक्ति युक्त होने से, विषयों के अकिंचित्-कर-पने को प्रगट करते हैं १. काय ( ज० बु० ) । २. तह (ज० पृ० ) 1 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १५३ अन्वयार्थ – [ यदि ] यदि [ जनस्य दृष्टि: ] प्राणी की आँख [तिमिरहरा ] अंधकार को नाश करने वाली (अंधेरे में देखने वाली ] हो तो [ दीपेन नास्ति कर्तव्यं ] ( उसको ) दीपक से कोई प्रयोजन नहीं है (अर्थात् दीपक उसको कुछ नहीं कर सकता ) [ तथा ] इसी प्रकार ( जहां ) [ आत्मा] आत्मा [ स्वयं ] स्वयं [ सौख्यं ] सुखरूप ( परिणमन करता है ) [न] वहां [ विषया: 1 विषय [ किं कुर्वन्ति ] क्या करते हैं ? (यानी कुछ नही ) । जैसे किन्हीं निशाचरों के ( उल्लू आदि रात्रि में विचरने वाले नाशक स्वभाव वाले दीपक के प्रकाशादि से कोई प्रकाश कुछ नहीं करता), इसी प्रकार इस आत्मा के पने से परिणमन करने वाले के, सुख साधन बुद्धि से ये भी विषय क्या करें (कुछ नहीं कर सकते ) ॥६७॥ टीका - आंख के स्वयमेव अन्धकार को नष्ट करने की शक्ति का सम्बन्ध होने से जीवों के ) अंधकार का प्रयोजन नहीं होता ( उन्हें दीपक का संसार अथवा मुक्ति में स्वयमेव सुखअज्ञानियों के द्वारा व्यर्थ आश्रय किए तात्पर्यवृति अथात्मनः स्वयमेव सुखस्वभावत्वान्निश्चयेन यथा देहः सुखकारणं न भवति तथा विषया अपीति प्रतिपादयति - जइ यदि विट्ठी नवतंत्ररजनस्य दृष्टिः तिमिरहरा अन्धकारहरा भवति जणस्स जनश्य ataण गरि कायध्वं दीपेन नास्ति कर्तव्यं तस्य प्रदीपादीनां यथा प्रयोजनं नास्ति तह सो सयमावा विसा कि सत्य कुरुवंति तथा निर्विषया मूर्त सर्व प्रदेशाह्लादक सहजानन्दैक लक्षण सुखस्वभावो निश्चयेनास्मय, तत्र मुक्तौ संसारे वा विषयाः किं कुर्वन्ति न किमपीति भावः ॥ ६७॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं कि यह आत्मा स्वयं सुख स्वभाव को रखने वाला है इसलिये जैसे निश्चय करके देह सुख का कारण नहीं है वैसे इन्द्रियों के पदार्थ भी कारण नहीं हैं । के सुख अर्थात् दीपको का उसके लिए जो निश्चय करके पंचेन्द्रियों के अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जइ ) जो ( जणस्स दिट्ठी) किसी प्राणी को दृष्टि रात्रि को ( तिमिरहरा) अंधकार को हरने वाली है अर्थात् अंधेरे में देख सकती है तो ( बोवेण काथव्वं णत्थि ) दीप से कर्त्तव्य कुछ नहीं है । कोई प्रयोजन नहीं है । ( तह) तैसे ( आदा सयम् सोक्खं ) षियों से रहित, अमूर्तिक, अपने सर्व प्रदेशों में आह्लाद रूप सहज आनन्द एक लक्षणमयी सुख स्वभाव वाला आत्मा स्वयं है ( तत्थ विसया कि कुव्वंति ) तो वहां मुक्ति अवस्था में तो इन्द्रियों के विषय रूप पदार्थ क्या कर सकते हैं ? यानी कुछ भी नहीं कर सकते, यह भाव है ||६७॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] [ पवयणसारो अथात्मनः दृष्टान्तेन सुखस्वभावत्वं दृढयति- सयमेव जहादिनचो' तेजो उण्हो य देवदा णमसि । सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च लोगे तहा देवो ॥ ६८ ॥ स्वययेव यथादित्यतेज उष्ण च देवता नभसि । सिद्धोऽपि तथा ज्ञानं सुखञ्च लोके तथा देवः ||६८|| यथा खलु नभसि कारणान्तरमनपेक्ष्यँव स्वयमेव प्रभाकरः प्रभूतप्रभाभारभाव - स्वरूप विकस्वरप्रकाशशालितया तेजः, यथा च कादाचित्कौष्ण्यपरिणतायः पिण्डयन्नित्यमेवष्ण्यपरिणामापन्नत्वादुष्णः, यथा च देवगतिनामकर्मोदयानुवृत्ति वशवर्तिस्वभावतया देव: तथैव लोके कारणान्तरमनपेक्ष्यंव स्वयमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशनसमर्थनिविसथानन्तशक्ति सहजसंवेदनतादात्म्यात् ज्ञानं तथैव चात्मतृप्तिमुपजातपरिनिवृतिप्रतितानाकुलत्वसुस्थितत्वात् सौख्यं तथैव चासन्नात्मतत्त्वोपलम्भलब्धवर्ण जनमानसशिलास्तम्भो कीर्णसमुदीर्णद्युतिस्तुतिवियोग दिव्यात्मस्वरूपत्वाद्द वः । अतोऽस्यात्मनः सुखसाधनाभासविषयेः पर्याप्तम् ॥ ६८ ॥ इति आनन्दप्रपञ्चः । t भूमिका – अब आत्मा के सुखस्य भावपने को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं-अन्वयार्थ – [ यथा ] जैसे [ नभसि ] आकाश में [ आदित्यः ] सूर्य [स्वयमेव ] अपने आप ही [तेज: ] तेज [ उष्णः ] उष्ण [च] और [ देवता ] देव है [लोके ] लोक में [ सिद्धः अपि ] सिद्ध भी [ स्वयमेव ) [ ज्ञानं ] सुख [ तथा ] और [ देवः ] देव है । [ तथा ] उसी प्रकार ज्ञान [च] और [ सुखं ] टीका - जैसे वास्तव में आकाश में, अन्य कारण की अपेक्षा बिना स्वयमेव हो सूर्य ( १ ) अति अधिक प्रभा समूह से चमकते हुए स्वरूप के द्वारा विकसित प्रकाशयुक्त होने से तेज है, (२) कभी-कभी उष्णता रूप परिणत लोहे के गोले की भाँति, सदा ही उष्णता परिणाम को प्राप्त होने से उष्ण है और (३) देवगति नाम कर्म के उदय की अनुवृत्ति (धारावाहिक उदय) के वशवर्ती स्वभाव से देव है, इसी प्रकार लोक में अन्य कारण को अपेक्षा रखे बिना हो भगवान् आत्मा स्वयमेव हो ( १ ) स्वपर की प्रकाशित करने में समर्थ यथार्थ अनन्त शक्तियुक्त सहज-संवेदन के साथ तादात्म्य होने से ज्ञान है, (२) आत्म-तृप्ति से उत्पन्न होने वाली परिनिवृत्ति ( उत्कृष्ट उपेक्षा वीतरागता ) से प्रवर्तमान १. जहाच्चो (ज० १०) । २. लोये (ज० वृ० ) । *योगिदिध्यात्म' इति पाठान्तरम् । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो ] [ १५५ अनाकुलता में सुस्थितता के कारण सौख्य है, और (३) निकट है आत्म तत्त्व की प्राप्ति जिनको ऐसे बुद्धजनों (ज्ञानियों) के मनरूपी शिलास्तम्भ में जिसकी अतिशय युति स्तुति के योग द्वारा दिव्य आत्म स्वरूपवान् होने से देव है। इसलिये इस आत्मा के सुखसाधनाभास विषयों से बस हो ॥६॥ अतीन्द्रियसुख का विस्तार समाप्त हुआ। तात्पर्यवृत्ति अथात्मनः सुखस्वभावत्वं ज्ञानस्वभावत्वं च पुनरपि दृष्टान्तेन दृढयति सय मेव जहाइचो तेजो जोहो य देयवा णभसि कारणान्तर निरपेक्ष्य स्वयमेव यथादित्यः स्वपरप्रकाशरूपं तेजो भवति, तथैव च स्वयमेवोष्णो भवति, तथा चाज्ञानिजनानां देवता भवति । क्व स्थित: ? नभसि आकाशे सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च सिद्धोपि भगवांस्तथैव कारणान्तरं निरपेक्ष्य स्वभावेनैव स्वपरप्रकाशकं केवलज्ञान, तथैव परमतृप्तिरूपममाकुलत्वलक्षणं सुखं । क्व ? लोये जगति तहा देवो निजशद्वात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मक निर्विकल्पसमाधि समुत्पन्न सुन्दरानन्दस्यन्दिसुखामृतपानपिपासितानां गणधरदेवादिपरमयोगिनां देवेन्द्रादीनां चासन्नभव्यानां मनसि निरन्तर परनाराध्य, तथैवानिशानादिगुणस्तान स्तुत्य पद्दिव्यमात्मस्वरूप तत्स्वभावत्वातर्थव देवश्चेति । ततो ज्ञायते मुक्तात्मनां विषयैरपि प्रयोजनं नास्तीति ॥६८।। एवं स्वाभावेनैव सुख स्वभावत्वाद्विषया अपि मुक्तात्मनां सुखकारणं न भवन्तीति कथनरूपेण गाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका-आगे आत्मा सुख स्वभाव वाला भी है ज्ञान स्वभाव वाला भी है इस ही बात को दृढ़ करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(णभसि) आकाश में (सयमेव जहाइच्चो) जैसे दूसरे कारण को अपेक्षा न करके स्वयं ही सूर्य (तेजो) अपने और दूसरे को प्रकाश करने वाला तेज रूप है (उण्हो य) तथा स्वयं उष्णता देने वाला है (देवदा य) तथा देवता है अर्थात् ज्योतिषी देव है अथवा अज्ञानी मनुष्यों के लिये पूज्य देव है (तहा) तैसे ही (लोये) इस लोक में (सिद्धी वि णाणं सुहं च तहा देवो) सिद्ध भगवान् भी दूसरे कारण को अपेक्षा न करके स्वयं ही स्वभाव से स्व-पर-प्रकाशक केवलज्ञान स्वरूप हैं तथा परम तृप्तिरूप निराकुलता लक्षणमय सुखरूप हैं तैसे ही अपने शुद्ध आत्मा के सम्यक श्रद्धान, ज्ञान तथा चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमय निर्विकल्पसमाधि से पंदा होने वाले सुन्दर आनन्द में भोगे हुए सुखरूपी अमृत के प्यासे गणधर देव आदि परम योगियों, इन्द्रादि देवों व अन्य निकट भन्यों के मन में निरन्तर भले प्रकार आराधने योग्य तैसे ही अनंतज्ञान आदि गुणों के स्तवन से स्तुति-योग्य जो दिव्य आत्मस्वरूप-स्वभावमय होने से देवता हैं। इससे जाना जाता है कि मुक्ति प्राप्त आत्माओं को विषयों की सामग्री से भी कुछ प्रयोजन नहीं है। वास्तव में शरीर तथा इन्द्रियों के इस तरह स्वभाव से ही आत्मा सुख स्वभाव है, अतएव Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] [ पवयणसारो इन्द्रियों के विषय मी मुक्तात्माओं के सुख के कारण नहीं होते हैं, ऐसा कहते हुए वो गाथाएँ पूर्ण हुई ॥ ६८ ॥ तात्पर्यवृति अथेदानीं श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाः पूर्वोक्तलक्षणानन्त सुखाधारभूतं नमस्कुर्वन्ति - सर्वज्ञ वस्तुस्तवेन तेज बिट्ठी जाणं इड्ढी सोखं तहेव ईसरियं । तिहवणहाणदयं माह जस्स हो अरिहो ॥ ६६- १॥ तेजो विट्ठी गाणं इड्ढी सोमख सहेब ईसरियं तिहूवणपाणवइयं तेजः प्रभामण्डलं, जगत्त्रयकालत्रय वस्तुगतयुगपत्सामान्या स्तित्व ग्राहक केवलदर्शनं तथंव समस्तविशेषास्तित्व ग्राहक केवलज्ञानं, ऋद्धिदेन समादिमा विभूतः सुखदेनाव्या वाघान तसुख, तरपदाभिलाष इन्द्रादयोऽपि भूत्यत्वं कुर्वन्तीत्येवं लक्षणमैश्वयं त्रिभुवनाधीशानामपि वल्लभत्वं देवं भण्यते माहम्पं जस्स सो अरिहो इत्थंभूतं माहात्म्यं यस्य सोऽहंन् भण्यते । इति वस्तुस्तवनरूपेण नमस्कारं कृतवन्तः । उत्थानिका- आगे श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव पूर्व में कहे हुए लक्षण के धारी अनन्तसुख के आधारभूत सर्वज्ञ भगवान् को वस्तु स्वरूप से स्तवन की अपेक्षा नमस्कार करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तेजो) प्रभा का मण्डल ( दिट्ठी) तीन जगत् व तीन काल की समस्त वस्तुओं की सामान्य सत्ता को एक काल ग्रहण करने वाला केवलदर्शन ( णानं) तथा उनकी विशेष सत्ता को ग्रहण करने वाला केवलज्ञान ( इड्डी) समवशरण की सर्व विभूति (सोक्ख) बाधा रहित अनन्ततसुख (ईसरियं) व जिनके पद की इच्छा से इन्द्रादिक भी जिनकी सेवा करते हैं, ऐसा ईश्वरपना (तहेव तिहुवणपाणवइयं ) तैसे ही तीन भुवन के वल्लभपना या इष्टपना ऐसा देवपना इत्यादि ( जस्स माहप्प ) जिसका महात्म्य है ( सो अरिहो ) वही अरहंतदेव है । इस प्रकार वस्तु का स्वरूप कहते हुए नमस्कार किया ॥६८॥ १ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ तस्येव भगवतः सिद्धावस्यायां गुणस्तवन रूपेण नमस्कारं कुर्वन्तितं गुणदो अधिगवरं अविच्छिदं मणुवदेवपविभावं । बपुणतमावणिबद्धं प्रणममि पुणो- पुणो सिद्धं ॥ ६८-६ ॥ पणमामि नमस्करोमि पुणो पुणो पुनः पुनः । कं ? तं सिद्ध परमागमप्रसिद्ध सिद्ध । कथंभूतं ? गुणदो अधिगवरं अवयावाधानन्तसुखादिगुणं रधिकतरं समधिकतरगुणं । पुनरपि कथंभूतं ? अविच्छिदं मणुवदेवपविभा यथा पूर्वमर्हदवस्यायां मनुज देवेन्द्रादयः समवशरणं समागत्य नमस्कुर्वन्ति तेन प्रभुत्वं भवति, तदतिक्रान्तत्वादतिक्रान्तमनुजदेवपतिभावं । पुनश्च कि विशिष्टं ? अमावणिबद्ध व्रत्यक्षेत्रादिपञ्चप्रकारमवाद्धिलक्षणः शुद्धबुद्धे स्वभाव निजात्मोपलम्भलक्षणो योसी मोक्षस्तस्याधीन Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १५७ स्वादपुनर्भावनिबद्धमिति भावः । एवं नमस्कारमुख्यत्वेन गाथाद्वयं गतम् । इति गायाष्टकेन पञ्चमस्थलं ज्ञातव्यं । एवमष्टादशगाथाभिः स्थल पञ्चकेन "सुखप्रपञ्च" नामान्तराधिकारो गतः । इति पूर्वोक्तप्रकारेण "एस सुरासुर" इत्यादि चतुर्दशगाथाभिः पोरिका गताः तदनन्तरं सप्तमायाभिः सामान्यसर्वज्ञसिद्धिः, तदनन्तरं त्रयत्रिंशद्गाथाभिः ज्ञानप्रपञ्चः तदनन्तरमष्टादशगाथाभिः सुखप्रपञ्च इति समुदायेन द्वासप्ततिगाथाभिरन्त राधिका र चतुष्टयेन शुद्धोपयोगाधिकारः समाप्तः । इत क पञ्चविंशतिगाथापर्यन्तं ज्ञानकण्ठिकाचतुष्टयाभिधानोऽधिकारः प्रारभ्यते, तत्र पञ्चविंशतिगाथामध्ये प्रथमं तावच्छुभाशुभ विषये मूढत्वनिराकरणार्थ "देव जदिगुरू" इत्यादि दशगाथः पर्यन्तं प्रथमज्ञानकण्ठिका कथ्यते । तदनन्तरमाप्तात्मस्वरूपपरिज्ञानविषये मूढत्वनिराकरणार्थ "चत्ता पावारम्भं" सप्तगाथापर्यन्तन्तं द्वितीयज्ञानकण्ठिका, अथानन्तरं द्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानविषये मूढत्वनिराकरणार्थं इत्यादि “दवादीएसु" इत्यादि षट्कगाथापर्यन्तं तृतीयज्ञानकण्ठिका । तदनन्तरं स्वपरतत्त्वपरिज्ञानविषये मूढत्वनिराकरणार्थ 'णाणपगं' इत्यादि गाथाद्वयेन चतुर्थज्ञानकण्ठिका । इति चतुष्टयाभिधानाधिकारे समुदायपातनिका । अथेदानीं प्रथमज्ञान कण्ठिकायां स्वतन्त्र व्याख्यानेन गाथाचतुष्टयं तदनन्तरं पुण्यं जीवस्य विषयतृष्णामुत्पादयतीति कथनरूपेण गाथाचतुष्टयं तदनन्तरमुपसंहाररूपेण गाथाद्वयं इति स्थलत्रयपर्यन्तं क्रमेण व्याख्यानं क्रियते । उत्थानिका— आगे सिद्ध भगवान् के गुणों का स्तवनरूप नमस्कार करते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तं ) उस (सिद्धं ) सिद्ध भगवान् को जो ( गुणदो अधिगतरं) अव्यावाध, अनन्तसुख आदि गुणो करके अतिशयपूर्ण हैं, ( अविच्छिदं मणुवदेवपदिभावं ) मनुष्य व देवों के स्वामीपने से उल्लंघन कर गए हैं अर्थात् जैसे पहले अरहंत अवस्था में मनुष्य व देव व इन्द्रादिक समवशरण में आकर नमस्कार करते थे, इससे प्रभुपना होता था अब यहां उस भाव को लांघ गए हैं । अर्थात् सिद्ध अवस्था में न समयशरण है न देवादि आते हैं, न प्रत्यक्ष नमस्कार करते हैं । भव, ( अपुणमायणिवद्ध ) तथा मुक्तावस्था में निश्चल अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप पंचपरावर्तन रूप संसार से विलक्षण शुद्ध बुद्ध एक स्वभावमय निज आत्मा की प्राप्ति है लक्षण जिसका ऐसी मोक्ष के अधीन हैं अर्थात् स्वाधीन व मुक्त हैं ( पुणो पुणो पणमामि ) बार बार नमस्कार करता हूँ । विशेष – यह है कि यहाँ टीकाकार ते अविच्छिदं तथा मणुवदेवपदिभावं इन दोनों पदों को एक में मानकर ऐसा अर्थ किया है । यदि हम इन दोनों पदों को अलग-अलग मान लें तो यह अर्थ होगा कि वह सिद्ध भगवान् अविनाशी हैं। उनकी अवस्था का कर्मों से अभाव नहीं होगा तथा वे मनुष्य व देषों के स्वामीपन को प्राप्त हैं अर्थात् उनसे महान् इस संसार में कोई प्राणी नहीं है । सब उन हो का ध्यान करते हैं । यहाँ तक कि तीर्थंकर भी सिद्धों का हो ध्यान छद्यस्थ अवस्था में करते हैं । इस प्रकार नमस्कार की मुख्यता से Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] पवयणसारो दो गाथाएं पूर्ण हुई। इस तरह आठ गाथाओं से पाचवा स्थल जानना चाहिये। इस सह अठारह गाथाओं से व स्थल से सुख प्रपंच नाम का अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ इस तरह पूर्व में कहे प्रमाण "एस सुरासुर" इत्यादि चौदह गाथाओं से पीठिका का वर्णन किया । फिर सात गाथाओं से सामान्यपने सर्वज्ञ की सिद्धि की, फिर तैंतीस गाथाओं से ज्ञानप्रपंच, फिर अठारह गाथाओं से सुख-प्रपंच, इस तरह समुदाय से बहत्तर गाथाओं के द्वारा तथा चार अन्तर- अधिकारों से शुद्धोपयोग नाम का अधिकारपूर्ण किया । उत्पानिका --- इसके आगे पचीस गाथा पर्यंत ज्ञानकंठिका चतुष्टय नाम का अधिकार प्रारम्भ किया जाता है । इन पच्चीस गाथाओं के मध्य में पहले शुभ व अशुभ उपयोग में मूढ़ता को हटाने के लिये "देवदजदि गुरु" इत्यादि दश गाथाओं तक पहली ज्ञानकंठिका का कथन हैं। फिर परमात्मा के स्वरूप के ज्ञान में मूढ़ता को दूर करने के लिये "चत्ता पावारम्भं" इत्यादि सात गाथाओं तक दूसरी ज्ञानकंठिका है । अनन्तर द्रव्यगुण पर्याय के ज्ञान के सम्बन्ध में मूढ़ता को हटाने के लिये "दव्वादीएसु" इत्यादि छः गाथाओं तक तीसरी ज्ञानकठिका है। फिर स्व और पर तत्व के ज्ञान के सम्बन्ध में मूढ़ता को हटाने के लिये " णाणप्पगं" इत्यादि दो गाथाओं से चोथी ज्ञानकठिका है। इस चार अधिकार की समुदायपातनिका है। अब यहाँ पहली ज्ञानकंठिका में स्वतन्त्र व्याख्यान के द्वारा चार गाथाएँ हैं । इसके बाद पुण्य जीव के भीतर विपयभोग की तृष्णा को पैदा कर देता है। ऐसा कहते हुए गाथाएं चार हैं । तदन्तर संकोच करते हुए गाथाएँ दो हैं—- इस तरह तीन स्थलतक क्रम से व्याख्यान करते हैं । अथ शुभ परिणामाधिकारप्रारम्भः । अथेन्द्रियसुख स्वरूपविचारमुपक्रममाणस्तत्साधन स्वरूपमुपन्यस्यति-देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु । उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ॥ ६६ ॥ देवतातिगुरुपूजासु चैव दाने वा सुशीलेषु । उपवासादिषु रक्तः शुभोपयोगात्मक आत्मा ॥६६॥ यदायमात्मा दुःखस्य साधनीभूतां द्वेषरूपामिन्द्रियार्थानुरागरूपां चाशुभोपयोगभूमिकामतिक्रम्य देवगुरुयतिपूजा दानशीलोपवासप्रोतिलक्षणं धर्मानुरागमङ्गीकरोति तदेन्द्रियसुखस्य साधनीभूतां शुभोपयोग भूमिकामधिरूढोऽभिलयेत् ॥६६॥ भूमिका - अब, इन्द्रिय सुख स्वरूप के विचार को प्रारम्भ करते हुये उसके कारण ( शुभ परिणाम) के स्वरूप को कहते हैं Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १५६ य अन्वयार्थ – [ देवता- - यतिगुरुपूजासु] देव, यति और गुरु की पूजा में [ चैव ] तथा [ दाने] दान में [ सुशीलेषु वा ] तथा सुशीलों में [ उपवासादिषु ] और उपवासादिकों में [ रक्तः आत्मा ] लीन आत्मा [ शुभोपयोगात्मकः] शुभोपयोगात्मक (शुभोपयोगमयी ) है । टीका - जब यह आत्मा दुःख की साधनभूत द्वेषरूप तथा इन्द्रिय विषय के अनुराग रूप अशुभोपयोग भूमिका को उल्लंघन करके, देव गुरु यति की पूजा, दान, शील और उपarafar के प्रीतिस्वरूप धर्मानुराग को अंगीकार करता है, तब ( वह ) इन्द्रियसुख के कारणभूत शुभोपयोग भूमिका में अधिरुढ कहलाता है । विशेषार्थ - अतीन्द्रियसुख का कथन करने के पश्चात्, अब आचार्य महाराज इन्द्रियसुख को हेय, दुःखरूप तथा त्याज्य दिखलाते हैं । उसी प्रकरण में, इस इन्द्रिय-सुख के साधनभूत निरतिशय शुभ परिणाम (पुण्य) को भी, कारण में कार्य का उपचार करके, हेय, दुखरूप तथा त्याज्य बतलाते हैं । अतः यहां इस प्रकरण में उस निरतिशय पुण्य का कथन है, जो इन्द्रिय-सुख को उपादेय मानते हुये, मात्र उस इन्द्रिय-सुख की प्राप्ति के लिये किया जाता है। इस कुल प्रकरण में इस बात को ध्यान रखने को अत्यन्त आवश्यक है, वरना भ्रम हो सकता है । जो सातिशयपुण्य परमार्थदृष्टि से मोक्ष प्राप्ति के लिये किया जाता है, उस सातिशयपुण्य कथन स्वयं ग्रंथकार ने आगे गाथा २४५ से प्रारम्भ किया है और उसको मोक्ष का साधन बतलाया है। विशेषकर गाथा २४५ से २६० तक देखने योग्य है । आचायों के कथन में पूर्वापर-विरोध नहीं हो सकता है । अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां गाया ६६ से कुल प्रकरण निरतिशयपुण्य का है, जो मात्र इन्द्रिय-सुख की प्राप्ति के लिये किया जाता है । इन्द्रिय सुख हेय है, अतः उसके साधनभूत इन्द्रिय-जनित ज्ञान अथवा क्षायोपशमिकज्ञान को भी गाथा ६४ आदि में हेय बतलाया है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि क्षायोपशमिकज्ञान तथा शुभोपयोग सर्वथा हेय हैं । तात्पर्यवृत्ति तद्यथा - अथ यद्यपि पूर्व गाथापट्केनेन्द्रियसुखस्वरूपं भणितं तथापि पुनरपि तदेव विस्तरेग कथयन् सन् तत्साधकं शुभोपयोगं प्रतिपादयति, अथवा द्वितीयपातनिका -पीठिकायां यच्छुभोपयोगस्वरूपं सूचितं तस्येदानीमिन्द्रियसुख विशेषविचार प्रस्तावे तत्साधकत्वेन विशेष विवरणं करोति - teefay जासु चेr दाणम्मि वा सुसीले देवतायतिगुरुपूजासु चैव दाने वा सुशीलेषु उवासाविसु रत्तो तथैवोपवासादिषु च रक्त आसक्तः अप्पा जीवः सुहोबओगप्पगो शुभयोगात्मको भण्यते इति । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] [ पवयणसारो तथाहि--देवता निर्दोषिपरमात्मा, इन्द्रियजयेन शुद्धात्मस्वरूप प्रयत्नपरी यतिः, स्वयं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकस्तदर्थिनां भव्यानां जिनदीक्षादायको गुरुः पूर्वोक्तदेवतायतिगुरूणां तत्प्रतिविम्बादोनां च यथासम्भवं द्रव्यभावरूपा पूजा, आहारादिचतुविधदानं च आचारादिकथितशीलतानि तथंबोदिसा जिन गुणसंपत्त्यादिविधिविशेषाश्च । एतेषु शुभानुष्ठानेषु योऽसौ रतः द्वेषरूपे विषयानुरागरूपे शुभानुष्ठाने विरतः स जीवः शुभोपयोगी भवतीति सूत्रार्थः ॥१६६॥ उत्थानिका -- यद्यपि पहले छः गाथाओं के द्वारा इन्द्रियों के सुख का स्वरूप कहा है तथापि फिर भी उसी को विस्तार के साथ कहते हुए उस इन्द्रिय सुख के साधक शुभोयोग को कहते हैं— अथवा दूसरी पातनिका है कि पीठिका में जिस शुभोपयोग का स्वरूप सूचित किया है उसीका यहां इन्द्रियसुख के विशेष कथन में इन्द्रिय सुख के विशेष कथन में इन्द्रिय सुख का साधक रूप विशेष आध्यान करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ --- जो ( देववजदिगुरुपूजासु) देवता, यति, गुरु की पूजा में ( चैव दाणम्मि) तथा दान में ( वा सुसोलेसु) और सुशील रूप चारित्रों में ( उववासादिसु ) तथा उपवास आदिकों में (ग्लो ) रत है, यह (सहोवओगप्पगो अप्पा) शुभोपयोगधारी आत्मा कहा जाता है । विशेष यह है कि जो सवं दोष-रहित परमात्मा है, यह देवता है, जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके शुद्ध आत्मा के स्वरूप के साधन में उद्यमवान है । वह यति है। जो स्वयं निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय का आराधना करने वाला है और ऐसी आराधना के बाहने वाले भव्यों को जिन-दीक्षा का देने वाला है, वह गुरु है । इन देवता, यति और गुरुओं की तथा उनकी मूर्ति आदिकों को यथासम्म अर्थात् जहां जैसी सम्भय हो वैसी द्रव्य और भाव पूजा करना, आहार, अभय, औषधि और विद्यादान ऐसा चार प्रकार दान करना आचारादि ग्रन्थों में कहे प्रमाण शीलव्रतों को पालना तथा जिनगुणसम्पत्ति को आदि लेकर अनेक विधि विशेष से उपवास आदि करना, इतने शुभ कार्यों में लीनता करता हुआ तथा द्वेषरूप भाव व विषयों के अनुराग रूप भाव आदि अशुभ उपयोग से विरक्त होता हुआ जीव शुभोपयोगी होता है, ऐसा सूत्र का अर्थ है ॥ ६६ ॥ भावार्थ - यहां आचार्य ने शुद्धोपयोग में प्रीतिरूप शुभोपयोग का स्वरूप बताया है अथवा अरहंत, सिद्ध परमात्मा के मुख्य ज्ञान और आनत्व स्वभायों का वर्णन करके उन परमात्मा के आराधन की सूचना की है अथवा मुख्यता से उपासक का कर्तव्य बताया है। शुभोपयोग तोत्र कषायों के अभाव में होता है । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] श्री समन्तभद्राचार्य ने स्वयम्भूस्तोत्र में भक्ति करते हुए यह भाव झलकाया है, जैसे स विश्वमा धमोचित: सातो तर विडमरजपुतारं गतः पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो जिनो जितक्षुल्लकवा विशासनः ॥५॥ वह जगत् को देखने वाले, साधुओं से पूजनीय पूर्ण ज्ञानमय देह के धारी, निरंजन व अल्पज्ञानी अन्यवादियों के मत को जीतने वाले श्री नाभिराआ के पुत्र श्री वृषभ जिनेन्द्र मेरे चित्त को पवित्र करो। भावों को निर्मलता होने से जो शुभ राग होता है, वह तो अतिशय पुण्यकर्म को बांधता है, जो मोक्ष-प्राप्ति में सहकारी कारण होते हैं। जैसे तीर्थकर, उत्तमसंहनन आदि । शुभोपयोग में वर्तन करने से उपयोग अशुभोपयोग से बचा रहता है तथा यह शुभोपयोग शुद्धोपयोग में पहुंचने के लिए सीढ़ी है । इसलिये शुद्धोपयोग की भावना करते हुए शुभोपयोग में वर्तन करना चाहिये। वास्तव में शुभोपयोग सम्यगदृष्टि के ही होता है । तात्पर्य यह है कि शुद्धोपयोग को इस काल में उपादेय मानकर उसी की भावना से प्राप्ति के लिये अरहंत-भक्ति आदि शुभोपयोग के मार्ग में वर्तना चाहिये ।। अथ शुभोपयोगसाध्यत्वेनेन्द्रियसुखमाख्याति जुत्तो सुहेण आदा तिरियो वा माणुसो व देवो वा । भूदो तावदि कालं लहदि' सुहं इन्दियं विविधं ॥७॥ युक्तः शुभेन आत्मा तिर्यग्वा मानुषो वा देवो वा । भूतस्तावत्कालं लभते सुखमैन्द्रियं विविधम् ।।७।। अयमात्मेन्द्रियसुखसाधनीभूतस्य शुभोपयोगस्य सामर्थ्यात्तदधिष्ठानभूतानां तिग्मानुषदेवत्वभूमिकानामन्यतमा भूमिकामवाप्य यावत्कालमवतिष्ठते, तावत्कालमनेक प्रकारमिन्द्रियसुखं समासादयतीति ॥७०॥ भूमिका-अब, शुभोपयोग के साध्यपने से इन्द्रियसुख को कहते हैं अन्वयार्थ-- [शुभेन युक्तः] शुभ परिणाम से युक्त [आत्मा] आत्मा | तिर्यक् ] तिर्यञ्च [वा] अथवा [मानुषः] मनुष्य [वा] अथवा [देवः ] देव [भूतः] होता हुआ [तावत्कालं] उतने समय तक [विविधं] अनेक प्रकार के [ऐन्द्रियं] इन्द्रिय-सम्बन्धी [सुख ] सुख को [लभते] पाता है। टीका-यह आत्मा इन्द्रिय-सुख के साधनभूत शुभोपयोग की सामर्थ्य से, उसके (इन्द्रिय सुख के) स्थानभूत (आधारभूत) तियंञ्च, मनुष्य और देवत्व की भूमिकाओंमें से १. लहइ (ज० वृ०)। २. विविहं (ज० व०) । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] [ पत्रयणेसारो किसी एक भूमिका को प्राप्त करके जितने समय तक ( उसमें ) ठहरता है, उतने समय तक अनेक प्रकार के इन्द्रिय-सुख को प्राप्त करता है ॥७०॥ सत्पर्यषुत्ति अथ पूर्वोक्त शुभोपयोगेन साध्यमिन्द्रियसुखं कथयति- " सुहेण जुत्तो आदा यथा निश्चयरत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोगेन युक्तो मुक्तो 'भूत्वाऽन्तकाल - मतीन्द्रियसुखं लभते तथा पूर्वसूत्रोक्तलक्षणशुभोपयोगेन युक्तः परिणतोऽयमात्मा तिरियो वा माणुसो व देवो वा भूवो तिर्यग्मनुष्य देवरूपो भूत्वा तावदि कालं तावत्कालं स्वकीयायुः पर्यन्तं लहइि सुहं इन्दियं fafar इन्द्रियजं विविधं सुखं लभते इति सूत्राभिप्रायः ॥ ७० ॥ उत्थानिका— आगे बताते हैं कि पूर्व गाथा में कथित शुभोपयोग के समय जो पुण्यकर्मबन्ध होता है उसके उदय से इंद्रियसुख प्राप्त होता है । अन्वय सहितं विशेषार्थ -- ( सुहेण जुत्तो भादा ) जैसे निश्चयरत्नत्रयमय शुद्धोपयोग से युक्त आत्मा मुक्त होकर अनन्त काल तक अतीन्द्रियसुख को प्राप्त करता है तैसे ही पूर्व सूत्र में कहे हुए शुभोपयोग में परिणमन करता हुआ यह आत्मा ( तिरियो वा माणुसो वा देवो वा सूदो ) तियंच, मनुष्य या देव होकर ( तावदि कालं) अपनी-अपनी आयु पर्यंत (विविहं इंदियं सुहं लहदि) नाना प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न सुख को पाता है । यह इस गाथा का अभिप्राय है ॥७०॥ अर्थवमिन्द्रियसुखमुत्क्षिप्य दुःखत्वे प्रक्षिपति सोक्खं सहावसिद्धं णत्थि सुराणं पि सिद्धमुवदेसे । ते देहवेदणट्टा' रमंति विसएसु रम्मेसु ॥ ७१ ॥ सौख्यं स्वभावसिद्ध नास्ति सुराणामपि सिद्धमुपदेशे ते वेदना रमन्ते विषयेषु रम्येषु ॥७१॥ इन्द्रियसुखभाजनेषु हि प्रधाना दिवौकसः, तेषामपि स्वाभाविकं न खलु सुखमस्ति प्रत्युक्त तेषां स्वाभाविकं दुःखमेवावलोक्यते । यतस्ते पञ्चेन्द्रियात्मकशरीर पिशाचपीडया परवशा भृगुप्रपातस्थानीयान्मनोज्ञ विषयानभिपतन्ति ॥ ७१ ॥ भूमिका – अब इस प्रकार इन्दिय सुख को उठाकर दुःख-रूप में डालते हैं (अर्थात् इन्द्रिय सुख परमार्थ से दुःख ही है, यह बतलाते हैं ) : अन्वयार्थ – [ उपदेसे सिद्धं ] उपदेश से ( आगम से ) सिद्ध है कि [ सुराणां अपि ] देवों के भी [ स्वभावसिद्धं ] स्वभावसिद्ध [ सौख्यं ] सुख ( आत्मा से उत्पन्न होने वाला 2 १. भूत्वाऽयं जीवोऽनन्तकालमतीन्द्रियसुखम् इति पाठान्तरम् । २. देहू वेदत्ता ( ज० वृ०) । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] अतीन्द्रियसुख) [नास्ति ] नहीं है। [ते] वे [देहवेदनार्ताः] (पंचेन्द्रियमय) देह को वेदना से पीड़ित हुये (रम्येषु विषयेषु] रम्य (मनोहर) विषयों में [रमन्ते] रमन्ते हैं। ____टीका-इन्द्रिय-सुख के भाजनों (पात्रों) में प्रधान देव हैं । उनके भी वास्तव में स्वाभाविक सुख नहीं है, उलटा उनके स्वाभाविक दुख ही देखा जाता है, क्योंकि वे पंचेन्द्रियात्मक शरीर रूपी पिशाच की पीड़ा के परवश हुए, पर्वत से गिरकर मरने के समान मनोहर इन्द्रिय विषयों में पतन करते है (पडते) हैं ॥७१॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वोक्तमिन्द्रियसुखं निश्चयनयेन दुःखमेवेत्युपदिशति सोक्खं सहावसिद्ध रागाधुपाधिरहितं चिदानन्दै कस्वभावेनोपादान कारणभूतेन सिद्धमुत्पन्न पत्स्वाभाविकसुखें तत्स्वभावसिद्धं भण्यते । तच्च णत्थि सुराणपि आस्तां मनुष्यादोनां सुख देवेन्द्रादीनामपि नास्ति सिजमुवदेसे इति सिद्धपुपदिष्टमुपदेशे परमागमे। ते वेहवेदणता रमंति विसएसु रम्मेसु तथाभूतसुखाभापति देवालयों देहवेदनाः पीडिताः कथिता सन्तो रमन्ते विषयेषु रम्याभासेविति । ___ अथ विस्तर:-अधोभागे सप्तन रकस्थानीयमहाऽजगरप्रसारितमुखे, कोणचतुष्के तु क्रोधमानमायालोभस्थानीयसर्प चतुष्कप्रसारित देहस्थानीयमहान्धकूपे पतित: सन् कश्चित् पुरुषविशेष, संसारस्थानीयमहारण्ये मिथ्यात्वादिकुमार्गे नष्ट: पतितः सन् मृत्युस्थानीयहस्तिभयेनायुष्कर्मस्थानीये साटिकविशेषे शुक्लकृष्णपक्षस्थानीय शुक्लकृष्णमूषकद्वय छेद्यमानमूले व्याधिस्थानीयमधुमक्षिकावेष्टिते लग्नस्ते नैव हस्तिना हन्यमाने सति विषयसुखस्थानायमधु विन्दुसुस्वादेन यथा सुखं मन्यते, तथा ससारसुखम् । पूर्वोक्तमोक्षसुखं तु तद्विपरीतमिति तात्पर्यम् । ७१।। उत्थानिका-आगे आचार्य दिखाते हैं कि पूर्वगाथा में जिस इंद्रियसुख को बतलाया हैं वह सुख निश्चयनय से सुख नहीं है, दुःखरूप ही है । ___अन्वय सहित विशेषार्थ-—मनुष्याधिकों के सुख की तो बात ही क्या है (सुराणयि) देवों व इन्द्रों के भी (सहावसिद्धं सोखं) स्वभाव से सिद्ध सुख अर्थात् रागद्वेषादि को उपाधि रहित चिदानन्दमयी एक स्वभाव रूप उपादानकारण से उत्पन्न होने वाला जो स्वाभाविक अतींद्रियसुख है सो (णत्थि) सुख नहीं होता है। (उबदेसे सिद्धं) यह परमागम में उपदेश किया गया है। ऐसे अतींद्रियसुख को न पाकर (ते देहवेवणत्ता) ये देवाविक शरीर को देवना से पीड़ित होते हुए (रम्भेसु विसयेसु रमंति) रमणीक दिखने वाले इन्द्रिय विषयों में रमण करते हैं। इसका विस्तार यह है कि संसार का सुख इस तरह का हैं कि जैसे कोई पुरुष किसी वन में हो, हाथी उसके पीछे दौड़े, वह घबरा कर ऐसे वृक्ष पर चढ़ जावे जिसके नीचे महा अजगर मुख फाड़े बैठा हो व चार कोनों में चार सांप मुख फैलाए बैठे हों भौर Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ 1 [ पवयणसारो वह पुरुष उस कूप में लगे हुए वृक्ष की शाखा को पकड़ कर लटक जाए जिसकी जड़ को सफेद और काले चूहे काट रहे हों तथा उस वक्ष में मधु मक्खियों का छत्ता लगा हो जिसकी मक्खियाँ उसके शरीर में चिपट रही हों, हाथी वृक्ष को टक्कर पर टक्कर मार रहा हो ऐसी विपत्ति में पड़ा हुआ यदि वह मधु के छत्ते से गिरती हुई मधु बूंद के स्वाद को लेता हुआ अपने को सुखो माने, तो उसको मूर्खता है क्योंकि वह शीघ्र हो कूप में पड़कर मरण को प्राप्त करेगा, यह दृष्टांत ऐसे हैं कि यह संसाररूपी महा वन है जिसमें मिथ्यादर्शन आदि कुमार्ग में पड़ा हुआ कोई जीव मरण रूपी हाथी के भय से त्रासित होता हुआ किसी मनुष्यलोक को प्राप्त हो जिसके नीचे सातवां नरकरूपी अजगर हो व क्रोध, मान, माया, लोभरूप चार सर्प चारों कोनों में बैठे हों, जीव आयु कर्मरूपी शाखा में लटक जाए जिस शाखा की जड़ को शुक्ल कृष्ण पक्षरूपी चूहे निरंतर काट रहे हों व उसके शरीर में मधुमक्खियों के समान अनेक रोग लग रहे हों तथा मरण रूपी हाथी खड़ा हो और वह मधु की बूंद के समान इन्द्रिय विषय के सुख को भोगता हुआ अपने को सुखी माने, सो उसकी अज्ञानता है । विषय सुख दुःख का घर है। ऐसा सांसारिक सुख त्यागने योग्य है, जबकि मोक्ष का सुख आपत्ति-रहित स्वाधीन तथा अविनाशी है, इसलिये ग्रहण करने योग्य है, यह तात्पर्य है ॥७१॥ अर्थवमिन्द्रियसुखस्य वुःखतायां युक्त्यावतारितायामिन्द्रियसुखसाधनीभूतपुण्यनिर्वर्तकशुभोपयोगस्य दुःखसाधनीभूतपापनिर्वर्तकाशुभोपयोगविशेषावविशेषत्वमवतारयति परणारयतिरियसुरा भजन्ति जवि देहसंभवं दुक्खं । किध' सो सुहो व असुहो उवओगो हववि जीवाणं ॥७२॥ नरनारकतिर्थक्सुराः भजन्ति यदि देहसंभवं दुःखं । कथं स शुभो वा अशुभ उपयोगो भवति जोवानाम् ।।७२।। यदि शुभोपयोगजन्यसमुदीर्णपुण्यसंपदस्त्रिदशादयोऽशुभोपयोगजन्यपर्यागतपातकापदो वा नारकादयश्च, उभयेऽपि स्वाभाथिकसुखाभावादविशेषेण पञ्चेन्द्रियात्मकशरीरप्रत्ययं दुःखवानुभवन्ति । ततः परमार्थतः शुभाशुभोपयोगयोः पृथक्त्वव्यवस्था नावतिष्ठते ॥७२॥ भूमिका-इस प्रकार इन्द्रिय-सुख की दुःख-रूपता प्रगट करके अब इन्द्रिय-सुख के साधनभूत पुण्य को उत्पन्न करने वाले शुभोपयोग तथा दुःख के साधनभूत पाप को उत्पन्न करने वाले अशुभोपयोग की अविशेषता को (यानी-दोनों में कुछ अन्तर नहीं है, इस बात को) प्रगट करते हैं १. किह (ज० वृ०) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] अन्वयार्थ-- [नरनारकतिर्यक्सुराः] मनुष्य, नारकी, तिर्यच और देव (सभी) [यदि | जो [देहसम्भवं ] देहोत्पन्न (पाँच इन्द्रियमयी शरीर से उत्पन्न होने वाले) [दुखं] दुःख को [भजति ] अनुभव करते हैं तो [जीवानां] जीवों के [सः उपयोगः] वह उपयोग [शुभः वा अशुभः] शुभ और अशुभ ऐसे दो प्रकार का [कथं भवति] कैसे है (हो सकता) (अर्थातु नहीं हो सकता है)। टीका-यदि शुभोपयोगजन्य उपयगत पुण्य की सम्पत्ति वाले देवादिक, (शुभोपयोग से उत्पन्न हुए पुण्य के उदय से प्राप्त होने वाली ऋद्धि वाले देव इत्यादिक) तथा अशुभोपयोग जन्य उदयागत पाप को आपदा वाले नरकादिक दोनों ही स्वाभाविकसुख के अमाव (के कारण) से अविशेषरूप से (बिना अन्तर के समान रूप से) पंचेन्द्रियात्मक शरीर के कारण से होने वाले दुःख को ही अनुभव करते हैं, तो इस (कारण) से परमार्थ से शुभ और अशुभ उपयोग की भिन्नपने की व्यवस्था नहीं ठहरती है ॥७२॥ | বাবলি अथ पूर्वोक्तप्रकारेण शुभोपयोगसाध्यस्येन्द्रियसुखस्य निश्चयेन दु:खत्वं ज्ञात्वा तत्साधकशुभोपयोगस्याप्य शुभोपयोगेन सह समानत्वं व्यवस्थापयति णरणारयतिरियसुरा मजति जवि देहसंभवं बुक्खं सहजातीन्द्रियामूर्तसदानन्दकलक्षणं वास्तवसुखमेव । सुखमलभमानाः सन्तो नरनारकतिर्थक्सुरा यदि चेदविशेषण पूर्वोक्तपरमार्थसुखाद्विलक्षणं पञ्धेन्द्रियात्मक शरीरोत्पन्न निश्चयनयेन दुःखमेव भजन्ते सेवन्ते किह सो सुहोब असहो उदोगो हववि जीवाणं व्यवहारेण विशेषेऽपि निश्चयेन सः प्रसिद्धः शुद्धोपयोगाद्विलक्षण: शुभाशुभोपयोगः कथं भिन्नत्वं लभते ? न कथमपीति भावः ।।७२।। एवं स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन प्रथमस्थलं गतम् । उत्थानिका-आगे पूर्व कहे प्रमाण शुभोपयोग से होने वाले इन्द्रियसुख को निश्चय से दुःखरूप जानकर, मात्र उस इन्द्रियसुख के साधक ऐसे शुभोपयोग को भी अशुभोपयोग को समानता में स्थापित करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ-(जदि) जो (णरणारयतिरियसुरा) मनुष्य, नारको, पशु और देव स्वाभाविक अतींद्रिय अमूर्तिक सदा आनन्दमयी जो सच्चा सुख है, उसको नहीं प्राप्त अर्थात् श्रद्धान करते हुए (देह संभवं दुक्खं भजति) पूर्व में कहे हुए निश्चय सुख से विलक्षण पंचेन्द्रियमयी शरीर से उत्पन्न हुई पीड़ा को ही निश्चय से सेवते हैं तो (जीवाणं सो सुहो व असुहो उवओगो किह हवदि) ऐसे जीवों के शुद्धोपयोग से विलक्षण वे शुभ या अशुभ उपयोग व्यवहार से भिन्न होने पर भी निश्चय से किस तरह भिन्नता को रख Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] [ पवयणसारो सकता है ? अर्थात् किसी भी तरह भिन्न नहीं है । मिथ्यादृष्टि जीव का शुभ व अशुभ उपयोग एक रूप ही है ॥ ७२ ॥ इस तरह स्वतन्त्र चार गाथाओं से प्रथम स्थल पूर्ण हुआ । अथ शुभोपयोगजन्यं फलवत्पुष्यं विशेषेण दूषणार्थमम्युपगम्योत्थापयतिकुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेह । देहावीणं विद्धि करेंति सुहिदा इवाभिरदा ॥ ७३ ॥ कुलिशायुधचक्रधराः शुभोपयोगात्मकः भोगेः । देहादीनां वृद्धि कुर्वन्ति सुखिता इवाभिरताः ॥ ७३ ॥ यतो हि शक्राश्चक्रिणश्च स्वेच्छोपगतं भर्गः शरीरादीन् पुष्णन्तस्तेषु दुष्टशोणित इव जलौकसोऽत्यन्तमासक्ताः सुखिता इव प्रतिभासन्ते । ततः शुभोपयोगजन्यानि फलवन्ति पुण्यान्यवलोषयन्ते ||७३। भूमिका -- ( जैसे इन्द्रिय-सुख को दुःखरूप और शुभोपयोग को अशुभोपयोग के समान बताया है इसी प्रकार ) अब शुभोपयोग - जन्य फलवाले पुण्य को विशेष रूप से दूषण देने के लिये ( इस गाया में उस पुण्य के अस्तित्व को ) स्वीकार करके ( अगली गाथा में उसको खण्डन करते हैं- अन्वयार्थ - ( क्योंकि ) [ कुलिशायुधचक्रधराः ] ब्रजधर (इन्द्र) और चक्रधर (चक्रबती) [ शुभोपयोगात्मकः भोगः ] शुभोपयोगमूलक ( पुण्यों के फल रूप) भोगों के द्वारा [ देहादीनां | देहादि की [ वृद्धि कुर्वन्ति ] पुष्टि करते हैं और [ अभिरता: ] ( इस प्रकार ) भोगों में रत होते हुए [ सुखिताः इव ] सुखी - जैसे भासित होते हैं (इसलिये पुण्य विद्यमान अवश्य है ) | टीका — क्योंकि वास्तव में इन्द्र और चक्रवर्ती, अपनी इच्छानुसार प्राप्त भोगों के द्वारा शरीरादि को पुष्ट करते हैं, (तथा) जैसे गोंचें (जोंकें) हृषित रक्त में अत्यन्त आसक्त वर्तती हुई सुखी-जैसी भासित होती हैं, उनकी तरह उन (पुण्य-जन्य भोगों) में अत्यन्त आसक्त वर्तते हुए, सुखी- जैसे भासित होते हैं । इस कारण से शुभोदयोगजन्य फलवाले पुण्य दिखाई देते हैं (अर्थात् शुभोपयोग का अस्तित्व अवश्य है ) किन्तु ॥७३॥ तात्पर्यवृति अथ पुण्यानि देवेन्द्रचक्रमर्थ्यादिपदं प्रयच्छन्ति इति पूर्व प्रशंसां करोति | किमर्थम् ? तत्फलाधारेणाग्रे तृष्णोत्पत्तिरूप दुःखदर्शनार्थम् - Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारी ] [ १६७ कुलिसाउहचवधरा देवेन्द्राश्चक्रवतिनपत्र कारः सुहोवोगध्यहि भोगेहि शभोपयोगजन्यभोगः कृत्वा वेहादीणं विद्धि करंति विकुर्वणारूपेण देहपरिवारादीनां वृद्धि कुर्वन्ति । कथंभूताः सन्तः ? सुहिया इवाभिरवा सुखिता इवाभिरला आसक्ता इति । अयमत्रार्थः—यसरमातिशयतृप्तिमुत्पादकं विषयतृष्णाबिच्छित्तिकारकं च स्वाभाविकसुखं सदलभ माना दुष्टशोणिते जलयूका इवासक्ताः सुखाभासेन देहादोनां दृद्धि कुर्वन्ति । ततो ज्ञायते तेषां स्वाभाविक सुखं नास्तीति ॥७३।। उत्थानिका—आगे व्यवहारनय से पुण्यकर्म देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि के पद देते हैं इसलिये उनकी प्रशंसा करते हैं, सो इसलिये बताते हैं कि आगे इन्हीं उत्तम फलों के आधार से मिथ्याष्टियों के तृष्णा की उत्पत्ति रूप दुःख दिखाया जाएगा। अन्वय सहित विशेषार्थ—(कुलिसाउहचक्कधरा) देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदिक (सहिदा इव अभिरदा) मानों सखी हैं आसक्त होते हुए अर्थात श्रद्धा करते हुए (सहोवओगप्पगेहि) भोगेहि) शुभोपयोग के द्वारा पैदा हुये व प्राप्त हुये भोगों से विक्रिया करते हुए (देहादीणं) शरीर परिवार आदि की (विद्धि करेंति) बढ़ती करते हैं। यहां यह अर्थ है कि जो परम अतिशयरूप तृप्ति को देने वाला विषयों की तृष्णा को नाश करने वाला स्वाभाविक सुख है उसकी श्रद्धा न करते हए जीव, जैसे जोंके विकार वाले खून में आसक्त हो जाती हैं वैसे आसक्त होकर सुखाभास में सुख जानते हुए देह आदि की वृद्धि करते हैं। इससे यह जाना जाता है कि उन इन्द्र व चक्रवर्ती आदि बड़े पुण्यवान जीवों के भी स्वाभाविक सुख को श्रद्धा नहीं है ॥७३॥ अर्थवमभ्युपगतानां पुण्यानां दुःखबोजहेतुत्वमुद्भावयत्तिजदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुन्भवाणि विविहाणि । जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं ॥७॥ यदि सन्ति हि पुण्यानि च परिणामसमुद्भवानि विविधानि । जनयन्ति विषयतृष्णां जीवानां देवतान्तानाम् ।।७४|| यदि नामैवं शुभोपयोगपरिणामकृतसमुत्पत्तोन्यनेकप्रकाराणि पुण्यानि विद्यन्ते इत्यभ्युपगम्यते, तदा तानि सुधाशनानप्यवधि कृत्वा समस्तसंसारिणां विषयतृष्णामवश्यमेव समुत्पादयन्ति । न खलु तृष्णामन्तरेण दुष्टशोणित इब जलूकानां समस्तसंसारिणां विषयेषु प्रवृत्तिरवलोक्यते । अवलोक्यते च सा । ततोऽस्तु पुण्यानां तुष्णायतनत्वमबाधितमेव ।।७४॥ भूमिका-अब, इस प्रकार स्वीकार किये गये पुण्यों के दुःख के बीजरूप-हेतुपने को (न्याय से) प्रगट करते हैं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पसारो अन्वयार्थ-[यदि हि] (पूर्वोक्त प्रकार से) जो [परिणामसमुद्भवानि] (शुभोपयोग रूप) परिणामों से उत्पन्न होने वाले [विविधानि पुण्यानि ] अनेक प्रकार के पुण्य [संति] हैं (वे पुण्य) [देवान्तानां जीवानां] देवों तक के जीवों के [विषयतृष्णा ] विषय तृष्णाको [जनयन्ति] उत्पन्न करते हैं। टीका-यदि इस प्रकार शभोपयोग परिणामों से की है उत्पत्ति जिन्होंने (उत्पन्न होने वाले) ऐसे अनेक प्रकार के पुण्य विद्यमान हैं, यह स्वीकार किया है तो वे (पुण्य) देवों तक के समस्त संसारियों के विषय-तृष्णा को (अवश्य ही उत्पन्न करते है यह भी स्वीकार करना पड़ेगा)। वास्तव में तृष्णा के बिना दूषित रक्त में जोंकों (गोंचों) की तरह, समस्त संसारियों की विषयों में प्रवृत्ति दिखाई न दे, किन्तु यह (प्रवृत्ति) तो दिखाई देती है, इस कारण से पुण्यों के तष्णा की स्थापना भवाधित ही है (अर्थात् पुण्य तृष्णा के घर हैं, यह अविरोध रूप से सिद्ध होता है) ॥७४॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पुण्यानि जीवस्य विषयतृष्णामुत्पादयन्तोति प्रतिपादयति जदि संति हि पुण्णाणि य यदि चेनिश्चयेन पुण्यपापरहितपरमात्मनो विपरीतानि पुण्यानि सन्ति । पुनरपि किविशिष्टानि ? परिणामसमुभवाणि निर्विकारस्वसंवित्तिविलक्ष शुभपरिणामसमुद्भवानि विविहाणि स्वकीयानन्तभेदेन बहुविधानि । तदा तानि कि कुर्वन्ति ? जगति विसयतण्ह जनयन्ति । कां ? विषयतृष्णां । केषां ? जोवाणं वेबदताणं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षारूपनिदान बन्धप्रभृतिनानामनोरथहेयरूपविकल्पजालरहितपरमसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतरूपां सत्मिप्रदेशेषु परमालादोत्पत्तिभूतामेकाकारपरमसमरसीभावरूपां विषयाकाङ्क्षाग्निजनितपरमदाहविनाशिका स्वरूपतृप्तिमलभमानानां देवेन्द्रप्रतिबहिर्मुखसंसारिजीवानामिति । इदमत्र तात्पर्यम् -- यदि तथाविधा विषयतृष्णा नास्ति तहि दुष्ट शोणिते जलयूका इव कथं ते विषयेषु प्रवृत्ति कुर्वन्ति । कुर्वन्ति चेत् पुण्यानि तृष्णोत्पादकत्वेन दुःख कारणानि इति जायन्ते ॥७४।। उत्थानिका—आगे कहते हैं कि पुण्यकर्म मिथ्यादष्टि जीवों में विषय की तृष्णा को पैदा कर देते हैं अन्वय सहिन विशेषार्थ-(जदि हि) यद्यपि निश्चय करके (परिणामसमुन्भवाणि) विकार रहित स्वसंवेदन भाव से विलक्षण शुभ परिणामों के द्वारा पैदा होने वाले (विधिहाणि पुण्णाणि संति) अपने अनन्तभेद से नाना तरह के तथा पुण्य व पाप से रहित परमात्मा से विपरीत पुण्य कर्म होते हैं तथापि वे (देवदंताणं जीवाणं) देवता तक के जीवों के भीतर (विसयताह) विषयों की चाह को (जणयंति) पंदा कर देते हैं। ये पुण्यकर्म जन देवेन्द्र आदि बहिर्मुखी जीवों के भीतर विषय को तृष्णा बढ़ा देते हैं। जिन्होंने देखे, सुने, Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १६६ अनुभूत भोगों की इच्छा रूप निदानबन्ध को आदि लेकर नाना प्रकार के मनोरथरूप विकल्पजालों से रहित जो परमसमाधि उससे उत्पन्न जो सुखामृत रूप तथा सर्व आत्मा के प्रदेशों में परम आल्हाद को पैदा करने वाली एक आकार स्वरूप परमसमरसीभावमघी और विषयों की इच्छा रूप अग्नि से पंदा होने वाले जो परमदाह उसको शांत करने वाली ऐसी अपने स्वरूप में तृप्ति को नहीं प्राप्त किया है । तात्पर्य यह है कि जो ऐसी विषयों की तृष्णा आसक्ति की तरह कौन विषय भोगों में प्रवृत्ति करे ? करते देखे जाते हैं तब अवश्य यह मालूम होता है कि पैदा कर देने से दुःख का कारण है ।।७४ || अथ पुण्यस्य दुःखबीज विजयमाधोषयति न होवे तो गंबे रुधिर में और जब वे बहिर्मुखी पुण्यकर्म ऐसे जीवों के जोंकों की जीव प्रवृत्ति तृष्णा को ते पुण उदिण्णता दुहिदा तहाहिं विसयसोक्खाणि । इच्छंति 'अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता ॥७५॥ ते पुनरुदीर्णं तृष्णाः दुखितातृष्णाभिविषय सोख्याति । इच्छन्त्यिनुभवन्ति च कामरण दुःखसंतप्त अथ ले पुनस्त्रिदशावसानाः कृत्स्नसंसारिणः समुदीर्णतृष्णाः पुण्यनिर्वर्तिताभिरपि तृष्णाभिर्दुः खबीजतयाऽत्यन्तदुःखिताः सन्तो मृगतृष्णाभ्य इवाम्भांसि विषयेभ्यः सौख्यामिलन्ति । तद्दुःखसन्तातापवेगमसहमाना अनुभवन्ति च विषयान् जलायुक्का इय तावद्यावत् कयं यान्ति । यथा हि जलायुकास्तृष्णाबीजेन विजयमानेन दुःखाङ्कुरेण क्रमशः समाक्रम्यमाणा दुष्टकीलालमभिलषन्त्यस्तदेवानुभवन्त्यश्चाप्रलयात् क्लिश्यन्ते । एवममी अपि पुण्यशालिनः पापशालिन इव तृष्णाबोजेन विजयमानेन दुःखाङ्कुरेण क्रमतः समाक्रम्यमाणा विषयानभिलषन्तस्तानेवानुभवन्तश्चाप्रलयात् क्लिश्यन्ते । अतः पुण्यानि सुखाभासस्य दुःखस्यैव साधनानि स्युः ॥७५॥ भूमिका -- अब ( निरतिशय) पुण्य के दुख के बीज-रूप विजय को घोषित करते हैंअन्वयार्थ – [ पुनः ] और फिर [ उदीर्णतृष्णाः ते ] जिनके तृष्णा उदय हुई है, ऐस जीव [ तृष्णाभिः दुःखिता ] तृष्णाओं के द्वारा दुखी होते हुए [विषय - सौख्यानि इच्छन्ति ] विषयों को चाहते हैं [च] और | दुःखसन्तप्ताः ] दुखों से संतप्त होते हुए ( दुख दाह को सहन न करते हुए ) [आमरण] मरण पर्यन्त ( उन विषयों को ) | अनुभवति ] भोगते हैं । टीका- अब जिनके तृष्णा उदय हुई है ऐसे देवपर्यन्त वे समस्त संसारी जीव पुण्य से रची हुई होने पर भी दुःख के बोजभूत तृष्णाओं के द्वारा अत्यन्त दुखी होते हुए, मृग (१) अणुहवंति ( ० वृ० ) । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] [ पक्यणसारो तृष्णा से जल प्राप्ति की इच्छा को भांति, विषयों से सुख को चाहते हैं। (जसे हरिण मृग-तृष्णा से जल प्राप्ति की इच्छा कर दुःखी होता है, वैसे हो संसारी जीव विषयों से सुख की इच्छा करके दुःखी होते हैं, क्योंकि विषयों में सुख नहीं है, किन्तु आकुलता रूप दुःख ही है)। उस (तृष्णा) के दुःख रूप संताप के वेग को सहन न कर सकने से, जोंक की मांति, विषयों को तब तक भोगते हैं जब तक कि मरण को प्राप्त नहीं हो जाते । भावार्थ-जैसे जोंक (गोंध), वास्तव में तृष्णा जिसका बीज है और जो तृष्णा विजयशील है, ऐसे दुःखांकुर से क्रमशः व्याप्त होती हुई दूषित रक्त को चाहती है, और उसी को पीती हुई मरण पर्यंत दुःख को पाती है। उसी प्रकार ये (निरतिशय) पुण्यशाली जीव भी पापशाली जीवों की भांति, तृष्णा जिसका बीज है और जो विजय को प्राप्त है, ऐसे दुखांकुर के द्वारा क्रमशः व्याप्त होते हुए विषयों को चाहते हुए और उनको ही भोगते हुए मरण-पर्यंत दुःख पाते हैं। इस कारण से (निरतिशय) पुण्य सुखाभास रूप दुःख का साधन है। विशेषार्थ-गाथा ४४ में ग्रंथकार स्वयं 'पुण्य का फल अरिहंत पद है' ऐसा कह चुके हैं । इस गाथा में निरतिशय पुण्य का कथन है, जो कि भोगों की वांछा से किया जाता है। तात्पर्यवृत्ति अथ पुण्यानि दुःखकारणानीति पूर्वोक्त मेवाथं विशेषेण समर्थयतिः ते पुण उदिण्णतण्हा सहजशुद्धात्मतृप्तेरभावात्ते निखिलसंसारिजीवाः पुनरुदोगतृष्णा: सन्तः दुहिता तहाहि स्वसंवित्तिस मुत्पन्नपारमार्थिकसुखाभावात्पूर्वोक्ततृष्णाभिर्दु खिताः सन्तः । कि कुर्वन्ति ? विसयसोक्खाणि इच्छंति निविषयपरमात्मसुखाद्विलक्षणानि विषयसुखानि इच्छन्ति । न केवलमिच्छन्ति अणुहति य अनुभवन्ति च । किं पर्यन्तम् ? आमरणं मरणपर्यन्तं । कथंभुताः ? दुक्खसंतत्ता दुःखसंतप्ता इति । अवार्थ:-यथा तृष्णोद्रे फेण प्रेरिताः जलौकसः कीलालमभिलषन्त्यस्तदेवानुभवन्त्यश्चामरणं दुःखिता भवन्ति, तथा निजशुद्धात्मसंवित्तिपराङ्मुखा जीवा अपि मृगतृष्णाभ्योऽमांसीव विषयानभिलषन्तस्तथैवानुभवन्तश्चामरणं दुःखिता भवन्ति । तत एतदायातं तृष्णातकोत्पादकत्वेन पुण्यानि वस्तुतो दुःखकारणानि इति ॥७॥ उत्थानिका-आगे पुण्यकर्म मिथ्यादष्टि जीवों के लिये दुःख के कारण हैं, इस ही पूर्व के भाव को विशेष करके समर्थन करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ--(पुण) तथा फिर (ते) वे अज्ञानी सर्व संसारी जीव (उदिण्णतण्हा) स्वाभाविक शुद्ध आत्मा में तृप्ति को न पाकर तृष्णा को उठाए हुए (तण्हाहि Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १७१ सुहिदा ) स्वसंवेदन से उत्पन्न जो पारमार्थिक सुख उसकी श्रद्धा के अभाव से अनेक प्रकार की तृष्णा से दुःखी होते हुए व ( आमरणं दुक्ख संतत्ता ) मरण पर्यंत दुःखों से संतापित रहते हुए ( विषयोक्खाणि) विषयों से रहित परमात्मा के सुख से विलक्षण विषय के सुखों को (इच्छति चाहते रहते हैं (अणुहवंति व ) और भोगते रहते हैं । यहाँ यह अर्थ है कि जैसे तृष्णा की तीव्रता से प्रेरित होकर जोंक जंतु खराब रुधिर की इच्छा करता है तथा उसको पीता है, इस तरह करती हुई जोंक मरण पर्यंत दुःखी रहती है अर्थात् खराब रुधिर पीते-पीते उसका मरण हो जाता है परन्तु उसकी तृष्णा नहीं मिटती, तसे अपने शुद्ध आत्मा के अनुभव को न पाने वाले अर्थात् श्रद्धा न करने वाले जीव भो, जैसे मृग तृषातुर होकर बार-बार सूखी नदी के मैदान में जल जान जाता है, परन्तु तृषा न बुझाकर दुःखी हो रहता है, इसी तरह जीव विषयों को चाहते तथा अनुभव करते हुए मरण पर्यंत दुःखो रहते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि अज्ञानी जीवों में तुष्णा रूपी रोग को पैदा करने के कारण से पुण्यकर्म वास्तव में दुःख का ही कारण है ।। ७५ ।। अथ पुनरपि पुण्यजन्यस्येन्द्रियसुखस्य बहुधा दुःखत्वमुद्योतयतिपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । 2 जं इंदिएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तथा ॥ ७६ ॥ परं बाधासहितं विच्छिन्नं बन्धकारणं विषमम् । यत् इन्द्रियैः लब्धं तत्सौख्यं दुःखं एवं तथा ।। ३६ ।। सपरत्वात् बाधासहितत्वात् विच्छिन्नत्वात् बंधकारणत्वात् विषमत्वाच्च पुण्यजन्यमपीन्द्रियसुखं दुःखमेव स्यात् । सपरं हि सत् परप्रत्ययत्वात् पराधीनतया, बासासहितं हि सबशनायो बन्यावृषस्यादिभिस्तृष्णाव्यक्तिभिश्पेतत्वातृ अत्यन्ताकुलतया बिच्छिन्तं हि सबसद्वद्योदयमच्या विससद्वद्योदयप्रवृत्ततयाऽनुभथत्वादुभूतविपक्षतया बन्धकारणं हि सद्धिषयोपभोगमार्गानुलग्न रागादिदोष सेनानुसार संगच्छ मानधन कर्मपांसुपर लत्या बुदकं दुःसहतया, विषमं हि सदभिवृद्धिपरिहाणिपरिणतत्वादत्यन्तविसंष्ठुलतया च दुःखमेव भवति । अथैवं पुण्यमपि पापबद्दुःख साधनमायालम् ॥७६॥ भूमिका – अब, फिर भी पुण्यजन्य इन्द्रियसुख के अनेक प्रकार से दुःखपने को प्रगट करते हैं अन्वयार्थ – [ यत् ] जो [ इन्द्रियः लब्धं ] इद्रियों से प्राप्त होता है [ तत् सौख्यं ] १. बाधासहियं (ज० वृ० ) । २. इंदियेहि (ज० बृ० ) । २, तहा (ज० वृ० ) । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] [ पबयणसारो वह सुख (१) [सपरं] पर सम्बन्ध युक्त (पराधीन) (२) [बाधासहितं] बाधासहित, (३) [विच्छिन्नं] विच्छिन्न, (४) [बंधकारणं] बंध का कारण, (५) [विषम] और विषम है, [तथा] इस प्रकार [दुःख एवं] वह दुख ही है। ___टीका--(१) पर-सम्बन्ध-युक्त होने से, (२) बाधा-सहित होने से, (३) विच्छिन्न होने से, (४) बन्धका कारण होने से, और (५) विषम होने से पुण्य-जन्य भी इन्द्रियसुख दुखरूप ही है। गाथा का अर्थ पूरा हो चुका। अब उसके भाव को स्वयं टीकाकार स्पष्ट करते हैं-(१) 'परके सम्बन्ध वाला' होता हुआ पराश्रयता के कारण पराधीनता से, (२) 'वाधा सहित' होता हुआ भोजन, पानी और मैथुन आदि तृष्णा को प्रगटताओं से युक्त होने के कारण अत्यन्त आकुलता से, (३) 'विच्छिन्न' होता हआ असातावेदनीय का उदय जिसे च्युत कर देता है, ऐसे सातावेदनीय के उदय को प्रवर्तता से अनुभव में आने के कारण विपक्ष की उत्पत्ति वाला होने से, (४) 'बंध का कारण होता हुआ, विषय-उपभोष के मार्ग में लगी हुई रागादि दोषों की सेना के अनुसार बन्ध वाले धन-कर्म-समूह के कारण परिणाम में (फल समय में) दुःसह (दुःख से सहने योग्य) होने से और (५) विषम' होता हुआ विशेष वृद्धि और विशेष हानि में परिणत होने के कारण अत्यन्त अस्थिरता से (इन्द्रिय सुख) दुःख ही है। जबकि ऐसा है (इन्द्रिय सुख दुःख ही है) तो पुण्य भी पाप की भांति दुःख के साधन-पने को प्राप्त हुआ। (दुःसा का साधन ही सिद्ध हुआ)। तात्पर्यवसि अथ पुनरपि पुण्योत्पन्नस्येन्द्रियसुखस्य बहुधा दुःखत्वं प्रकाशयति, सपरं सह परद्रव्यापेक्षया वर्तते सपरं भवतीन्द्रियसुखं, पारमाथिकसुखं तु परद्रव्यनिरपेक्षत्वादात्माधीन भवति । बाधासहिय तीब्रक्षुधातृष्णाद्यनेकबाधासहितत्वाद्वाधासहितमिन्द्रियसुखं, निजात्मसुखं तु पूर्वोक्तसमस्तवाधारहितत्वादन्यावाधं । विच्छिणं प्रतिपक्षभूतासातोदयेन सहितत्वाद्विश्छिन्नं सान्तरितं भवतीन्द्रियसुखं, अतीन्द्रियसुखं तु प्रतिपक्षभूतासातोदयाभावान्निरन्तरं । बंधकारण दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षाप्रभूत्यनेकापध्यानवशेन भाविन रकादिदुःखोत्पादककर्मबन्धोत्पादकत्वाद्वन्धकारणमतीन्द्रियसुखं तु सर्वापध्यानरहितत्वादमन्धकारणं । विसमं विगतः शमः परमोपशमो यत्र तद्विषममतृप्तिकरं हानिवृद्धिसहितत्वाद्वा विषमं, अतीन्द्रियसुखं तु परमतृप्तिकर हानिवृद्धिरहितं च । मं इंदियहि लद्धतं सीवखं दुक्खमेव तहा यदिन्द्रियैलब्ध संसारसुखं तत्सुखं यथा पूर्वोक्तपञ्चविशेषण विशिष्टं भवति तथैव दुःखमेवेत्यभिप्रायः ॥७६।। एवं पुण्यानि जीवस्य तृष्णोत्पादकत्वेन दुःखकारणानि भवन्तीति कथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १७३ उत्थानिका—आगे फिर भी पुण्य से उत्पन्न जो इन्द्रिय सुख होता है, उसको बहुत प्रकार से दुःखरूप प्रकाश करते हैं ___ अन्वय सहित विशेपार्थ-(ज) जो संसारिकसुख (इंदियेहि लद्धं) पांचों इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होता है (तं सोरखं) वह सुख (सपरं) परद्रव्य की अपेक्षा से होता है इसलिये पराधीन है, जब कि पारमाथिकसुख परद्रव्य की अपेक्षा न रखने से आत्मा के अधीन पानी स्वाधीन है। इन्द्रियसुख (वाधासहियं) तीव्र क्षुधा तृणा आदि अनेक रोगों का सहकारी है, जबकि आत्मीक सुख सर्व बाधाओं से रहित होने से अव्याबाध है। इन्द्रियसुख (विच्छिण्णं) साताका विरोधी जो असाताबेदनीयकर्म उसके उदय सहित होने से नाशवंत तथा अन्तर सहित होने वाला है, जबकि अतीन्द्रियसुख असाता के उदय के न होने से निरन्तर विना अन्तर पड़े व नाश हुए रहने वाला है। इन्द्रियसुख (बन्धकारणं) देखे, सुने, अनुभव लिये हुए भोगों की इच्छा को आदि लेकर अनेक खोटे ध्यान के अधीन होने से भविष्य में नरक आदि के दःखों को पैदा करने वाले कर्मबन्ध को बांधने वाला है अर्थात कर्मबन्ध का कारण है, जबकि अतीन्द्रियसुख सर्व अपध्यानों से शून्य होने के कारण से बंध का कारण नहीं है । तथा (विसम) यह इन्द्रियसुख परम उपशम या शान्तभाव से रहित तृप्तिकारी नहीं है अथवा हानि वृद्धि रूप होने से एकसा नहीं चलता किन्तु विषम है, जब कि अतीन्द्रियसुख परम तुप्तिकारी और हानि वृद्धि से रहित है, (तथा दुक्खमेव) इसलिये यह इन्द्रियसुख पांच विशेषण सहित होने से दुःखरूप ही है, ऐसा अभिप्राय है ॥६॥ इस सरह (मिथ्यावृष्टि) जीव के भीतर तृष्णा पैदा करने निमित्त होने से यह पुण्यकर्म दुःख का कारण है, ऐसा कहते हुए दूसरे स्थल में चार गाथाएं पूर्ण हुई। अथ पुण्यपापयोरविशेषत्वं निश्चिन्यन्नुपसंहरति ण हि मण्णदि जो एवं पत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । हिंदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ॥७७॥ न हि मन्यते य एवं नास्ति विशेष इति पुण्यपापयोः । हिण्डति घोरमपारं संसार मोहसंछन्नः ।।७७।। एवमुक्तकमेण शुभाशुभोपयोगद्वैतमिव सुखदुःखद्वतमिव च न खलु परमार्थतः पुण्यपापद्वैतमवतिष्ठते, उभयत्राप्मनात्मधर्मत्वाविशेषत्वात् । यस्तु पुनरमयोः कल्याणकालायसनिगडयोरिकाहङ्कारिक विशेषमभिमन्यमानोऽहमिन्द्रपक्षादिसंपदा निदानमिति निर्भरतरं Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] [ पवयणसारो धर्मानुरागमवलम्बते स खलूपरक्तचित्तमित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शारीरं दुःखमेवानुमवति ॥७७॥ भूमिका—अब, पुण्य और पाप के अविशेषपने को (अन्तर न होने पनेको-समानता को) निना करते हुए इस नया का उपहार करते हैं ___ अन्वयार्थ-[एवं| इस प्रकार [पुण्यपापयोः] पुण्य और पाप में [विशेष: नास्ति | अन्तर नहीं है [इति ] इस बात को [यः] जो [न मन्यते] नहीं मानता है [मोहसंछन्नः] वह मोह से आच्छादित (मिथ्या अभिप्राय से युक्त) होता हुआ [घोरं अपार संसार] धोर अपार (अन्तरहित) संसार में [हिण्डति] परिभ्रमण करता है । टीका-यों पूर्वोक्त प्रकार से शुभाशुभ उपयोग के द्वैत की भांति, और सुख-दुःख के वैत को भांति, परमार्थ से पुण्यपाप का द्वंत नहीं टिकता है क्योंकि दोनों में ही अनात्मधर्मत्व को अविशेषता (समानता) है । (दोनों आत्मा के धर्म नहीं हैं। (ऐसा होने पर भी) जो उन दोनों में, सुवर्ण और लोहे को बेडी की भांति, अहंकारिक अन्तर मानता हुआ, (पुण्य) अहमिन्द्र पद आदि सम्पदाओं का हेतु है, इस कारण से अत्यन्त गाढ धर्मानुराग को (शुभ परिणाम को) आश्रय करता है । वह वास्तव में चित्तभूमि के उपरक्त होने के (मनके गाढ रागी हो जाने से) जिसने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है ऐसा वर्तता हुआ, संसारपर्यन्त शारीरिक दुःख को ही भोगता है ॥७७॥ तात्पयंवत्ति अथ निश्चयेन पुण्यपापयाविशेषो नास्तीति कथयन् पुण्यपापयोख्यिानमुपसंहरति,--- ण हि मण्णवि जो एवं न हि मन्यते य एवं । कि ? णस्थि विसेसो ति पुण्णपावाण पुण्यपापयोनिश्चयेन विशेषो नास्ति। स किं करोति ? हिदि घोरमपार संसारं हिण्डति भ्रमति । के ? संसारं। कथंभूतं? घोरं अपारं चाभव्यापेक्षया। कथंभूतः ! मोहसळपणो मोहप्रच्छादित इति । तथाहि - द्रव्यपुण्यपापयोव्र्यवहारेण भेदः, भावपुण्यपाइयोस्तकलभूतसुखदुःखयोश्चाशुद्धनिचयेन भेदः, शुद्धनिश्चयेन तु शुद्धात्मनोऽभिन्नत्वा दो नास्ति एवं शुद्धनयेन पुण्यपापयोर भेदं योसो न मन्यते स देवेन्द्रचक्रवर्ति बलदेववासुदेवकामदेवादिपदनिमित्तं निदानबन्धेन पुण्यमिच्छन्निर्मोहशुद्ध त्मतस्वविपरीतदर्शनचारित्रमोहाच्छादितः सुवर्ण लोहनिगडदयसमानपुण्यपापद्वयबद्धः सन् संसाररहितशुद्धात्मनो विपरीतं संसारं भ्रमतीत्यर्थः ।।७७।। __उत्थानिका--आगे निश्चय से पुण्य पाप में कोई विशेष नहीं है ऐसा कहकर फिर इसी व्याख्यान को संकोचते हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुण्णपादाणं णस्थि विसेसो ति) पुण्य पापकर्म में निश्चय से भेद नहीं है (जो एवं ण हि मण्णदि) जो कोई इस तरह नहीं मानता है (मोहसंछण्णो) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ १७५ वह मोहक से आच्छादित जीव (घोरं अपारं संसारं हिंडदि ) भयानक और अभव्य की अपेक्षा से अपार संसार में भ्रमण करता है । विशेष यह है कि द्रव्यपुष्य और द्रव्यपाप में व्यवहार नय से भेद है, भावपुष्य और भावपाप में तथा पुण्य के फल रूप सुख और दुःख में अशुद्ध निश्चयनय से भेद है । परन्तु शुद्ध निश्चयनय के ये द्रव्यपुण्य पापादिक सब शुद्ध आत्मा के स्वभाव से भिन्न हैं, इसलिये इन पुण्य पापों में कोई भेद नहीं है । इस तरह शुद्ध निश्चयतय से पुण्य व पाप की एकता को जो कोई नहीं मानता है वह इन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, कामदेव आदि के पदों के निमित्त निदान-बन्ध से पुण्य को चाहता हुआ मोह रहित शुद्ध आत्मतत्त्व से विपरीत दर्शनमोह तथा चारित्रमोह से ढका हुआ सोने और लोहे की दो बेडियों के समान पुण्य पाप दोनों से बंधा हुआ संसार रहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में भ्रमण करता ॥७७॥ अर्थवमवधारितशुभाशुभोपयोगाविशेषः समस्तमपि रागद्वेषद्वैतमपहासयन्नशेषदुःखक्षयाय सुनिश्चितमनाः शुद्धोपयोगमधिवसति- एवं विदित्यो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा । उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुरूभवं दुक्खं ॥ ७८ ॥ एवं विदितार्थीयो द्रव्येषु राममेति द्वेषं वा । उपयोगविशुद्धः सः क्षपयति देहोद्भवं दुःखम् ||७८ ॥ यो हि नाम शुभानामशुभानां च भावानामविशेषदर्शनेन सम्यक्परिच्छिन्न वस्तुस्वरूपः स्वपरविभागावस्थितेषु समग्रेषु ससमग्रपर्यायेषु द्रव्येषु रागं द्वेषं चाशेषमेव परिवर्जयति स किलैकान्तेनोपयोग विशुद्धतया परित्यक्तपरद्रव्यालम्बनोऽग्निरिवायः पिण्डादननुष्ठितायः सारः प्रचण्डघनघातस्थानीयं शारीरं दुःखं क्षपयति, ततो ममायमेवैकः शरणं शुद्धोपयोगः ॥ ७८ ॥ भूमिका -- अब इस प्रकार शुभ और अशुभ उपयोग की अविशेषता अवधारित करके समस्त ही राग द्वेष के द्वैत को दूर करते हुए सम्पूर्ण दुःख को क्षय करने के लिये मन बुढ़ निश्चय करने वाला जीव शुद्धोपयोग में निवास करता है, शुद्धोपयोग में निवास करता है, शुद्धोपयोग की शरण लेता है अन्वयार्थ – [ एवं ] इस प्रकार [विदितार्थः] जान लिया है पदार्थ को जिसने [य] ऐसा जो जीव [ द्रव्येषु ] द्रव्यों में [ रागं वा द्वेषं ] राग अथवा द्वेष को [न एति प्राप्त नहीं होता है, [ उपयोगविशुद्धः ] उपयोग से विशुद्ध [ स ] वह जीव [ देहोद्भवं दुःखं ] पञ्चेन्द्रिय सहित देह से उत्पन्न हुए दुःख को [ क्षपयति ] नाश कर देता है । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] [ पवयणसारो टीका----शुभ और अशुम भावों के अविशेष दर्शन से (समानता को श्रद्धा से) सम्यक प्रकार से जान लिया है वस्तु के स्वरूप को जिसने ऐसा जो जीव वास्तव में स्व और पर ऐसे दो विभागों में रहने वाले तथा (अपनी) समस्त पर्यायों सहित (क्तने वाले) ऐसे समस्त द्रव्यों में राग और द्वेष को सम्पूर्ण को ही (सर्वथा) छोड़ देता है, वह जीव वास्तव में, एकान्त से उपयोग की विशुद्धता (सर्वथा शुद्धोपयोगी होने) से जिसने पर द्रव्य का आलम्बन छोड़ दिया है, ऐसा वर्तता हुआ-लोहे के गोले में से लोहे के सार का अनुसरण न करने वाली अग्नि की भांति प्रचंड धन के आघात समान शारीरिक दु.ख का क्षय करता है। (जैसे अग्नि लोहे के गोले में से लोहे के सत्व को धारण नहीं करती इस लिये अग्नि पर प्रचंड घन के प्रहार नहीं होते, इसी प्रकार पर-द्रव्य का आलम्बन न करने वाले आत्मा को शारीरिक दुःख का वेदन नहीं होता) इस कारण से मेरे यही एक शुद्धोपयोग शरण है ॥७॥ तात्पर्यवृत्ति ___ अर्थवं शुभाशुभयोः समानत्वपरिज्ञानेन निश्चितशुखात्मतत्त्वः सन् दुःखक्षयाय शुद्धोपयोगानुष्ठानं स्वीकरोति एवं विविदत्थो जो एवं चिदानन्दकस्वभावं परमात्मतत्त्वमेवोपादेयमन्यदशेषं हेयमिति हेयोपादेयपरिज्ञानेन विदितार्थ तत्त्वों भूत्वा य दवेसु ण रागमेवि वोसं वा निजशुद्धात्मद्रव्यादन्येषु शुभाशुभसर्वद्रव्येषु राग द्वेषं वा न मच्छति उधोगविसुद्धो सो रागादिरहित शुद्धात्मानुभूतिलक्षणेन शुद्धोपयोगेन विशद्धः सन सः खयेवि देहुबभव सुक्खं तप्त लोहपिण्डस्थानीयदेहादुद्भवं, अनाफूलत्वलक्षणपारमाथिकसुखाद्विलक्षणं परमाकुलस्वोत्पादकं लोहपिण्डरहितोऽग्निरिव घनघातपरम्परास्थानीयदेहरहितो भूत्वाशारीरं दुःखं क्षपयतीत्यभिप्राय: एबमुपसंहाररूपेण तृतीयस्थले गाधाद्वयं गतम् ।।७।। इति शुभाशुभमूढत्वनिरासार्थ गाथादशकपर्यन्तं स्थलत्रयसमुदायेन प्रथमज्ञानकष्ठिका समाप्ता। उत्थानिका-इस तरह निश्चयनय से शुभ तथा अशुभ उपयोग को समान जानकर निश्चय शुद्धात्मतत्व होता हुआ संसार के दुःखों के क्षय के लिये शुद्धोपयोग के साधन को स्वीकार करता है, ऐसा कहते हैं । __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(एवं विदिदत्थो जो) इस तरह चिदानन्दमयो एक स्व. भाव रूप परमात्मतत्व को उपादेय तथा इसके सिवाय अन्य सर्व को हेय जान करके हेयोपादेय के यथार्थ ज्ञान से तत्त्व स्वरूप का ज्ञाता होकर जो कोई (बध्येसु ण राणमेदि बोसं वा) अपने शुद्ध आत्म द्रव्य से अन्य शुभ तथा अशुभ सर्व द्रव्यों में रागद्वेष नहीं करता है। (सो उवोगविसुद्धो) वह रागादि से रहित शुद्धात्म अनुभवमयी लक्षण बाले शुद्धोपयोग Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १७७ से विशुद्ध होता हुआ ( देहुन्भवं दुःखं खवेदि) देह के संयोग से उत्पन्न दुःख का नाश करते हैं । अर्थात् यह शरीर गर्म लोहे के पिण्ड समान है । उससे उत्पन्न दुःख का जो निराकुलता लक्षणमयी निश्चयसुख से विलक्षण है और बड़ी भारी आकुलता को पैदा करने वाला है, वह संयमी आत्मा लोहपिण्ड से रहित अग्नि के समान अनेक चोटों का स्थान जो शरीर उससे रहित होता हुआ नाश कर देता है, यह अभिप्राय है । इस तरह संक्षेप करते हुए तीसरे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुईं ऊपर लिखित प्रमाण शुभ तथा अशुभ की गूढता को दूर करने के लिये दश गाथाओं तक तीन स्थलों के समुदाय से पहली ज्ञान कंठिका पूर्ण हुई । अदि सर्वसाद्ययोगमतीत्य चरित्रमुपस्थितोऽपि शुमोपयोगानुवृत्तिवशतया मोहामूलयामि ततः कुतो मे शुद्धात्माम इति सर्वारम्भेणोत्तिष्ठते चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सहम्मि चरियम्मि' | ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सद्धं ॥ ७६ ॥ त्यक्त्वा पापारंभं समुत्थितो वा शुभे चरित्रे । न जहाति यदि मोहादीन्न लभते स भात्मकं शुद्धम् ।। ७६ ।। यः खलु समस्तसावद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणं परमसामायिकं नाम चारित्रं प्रतिज्ञाया पिशुभोपयोगवृत्त्या — काभिसारिकयेवाभिसार्यमाणो न मोहवाहिनीविधेयतामवकिरति सकिल समासन्न महाबुःखसङ्कटः कथमात्मानम विप्लुतं लभते । अतो मया मोहवाहिनीविजयाय बद्धा कक्षेयम् ॥७६॥ 1 भूमिका -- अब सर्व सावध ( सर्व पाप) योग को छोड़कर, चारित्र अङ्गीकार किया हो, तो भी यदि मैं शुभोपयोग परिणति के वश के कारण, मोहादि को उन्मूलन न करूं, मेरे शुद्ध आत्मा का लाभ कहां से होगा ? (अर्थात् नहीं होगा ) इस प्रकार विचार करके (मोहावि के उन्मूलन के लिये ) सर्वारम्भ (सर्व उद्यम- सर्व पुरुषार्थ ) से कटिबद्ध होता हूँअन्वयार्थ - [ पापारम्भं] पाप आरम्भ को [ त्यक्त्वा ] छोड़कर [ शुभे चारित्रे ] शुभ चारित्र में [ समुत्थितः ] उद्यत हुआ भी [ यदि ] यदि [ मोहादीन् ] मोह आदि को [न जहाति ] नहीं छोड़ता है तो [ स ] वह [ शुद्ध आत्मकं ] शुद्ध अत्मा को [ न लभते ] प्राप्त नहीं करता । टीका --- जो जीव वास्तव में समस्त - सावध (पाप) योग के प्रत्याख्यान (त्याग) स्वरूप परम सामायिक नामक चारित्र की प्रतिज्ञा करके भी धूर्त अभिसारिका ( शील-रहित स्त्री) की भांति शुभ उपयोग परिणति से अभिसार (मिलन) को प्राप्त होता हुआ १. चरियम्हि (ज० वृ० ) । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ) । पवयणसारो (शुभोपयोग परिणति बेला में पूरा हुआ, मोह को सेना भी वशवर्तिता को दूर नहीं कर डालता (तो) जिसे महा-दुःख संकट निकट है, ऐसा वह निश्चय से कैसे शुद्ध आत्मा को प्राप्त कर सकता है ? (नहीं कर सकता) इस कारण से मेरे द्वारा मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने के लिये कमर कसी गई है ॥७६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ शुभाशुभोपयोगनिवृत्तिलक्षणशुद्धोपयोगेन मोक्षो भवतोति पूर्वसूत्रे भणितम् । अतु द्वितीयज्ञानकण्ठिकाप्रारम्भे शुद्धोपयोगाभावे शुद्धारमानं न लभते, इति तमेवार्थ व्यतिरेकरूपेण दृढयति चत्ता पायारंभ पूर्व गृहवासादिरूपं पापारम्भं त्यक्तवा समुठिो वा सुहम्मि चरियम्हि सम्यगुपस्थितो वा पुनः क्व ? शुभचरित्रे ण जहादि जदि मोहाबो न त्यजति यदि चेन्मोहरागद्वेषान् ण लहवि सो अपगं सुद्धन लभते स आत्मानं शुद्धमिति । इतो विस्तर:-कोऽपि मोक्षार्थी परमोपेक्षालक्षणं परमसामायिक पूर्व प्रतिज्ञाय पश्चाविषयसुखसाधक शुभोपयोगपरिणत्या मोहितान्तरङ्गः सन् निर्विकल्पसमाधिक्षणणपूर्वोक्तसामायिकचारित्राभावे सति निमोहशुद्धात्मतत्त्वप्रतिपक्षभूतान मोहादोन्न त्यजति यदि चेतहि जिनसिद्धसदृशं निजशुद्धात्मानं न लभत इति सूत्रार्थः ॥७६॥ उत्थानिका-आगे पूर्व सूत्र में यह कह चुके हैं कि शुभ तथा अशुभ उपयोग से रहित शुद्ध उषयोग से मोक्ष होता है। अब यहां दूसरी ज्ञान कठिका के व्याख्यात के प्रारम्भ में शुद्धोपयोग के अभाव में वह आत्मा शुद्ध आत्मीक स्वभाव को नही प्राप्त करता है ऐसा कहते हुए उस ही पहले प्रयोजन को व्यतिरेकपने से दृढ़ करते हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ--(पामारंभं चत्ता) पहले गृह में वास करना मादि पाप के आरम्भ को छोड़कर (वा सुहम्मि चरियम्हि समुठियो) तथा शुभचारित्र में भले प्रकार आवरण करता हुआ (जदि मोहादी ण जहवि) यदि कोई मोह, रागद्वेषावि भाषों को नहीं त्यागता है (सो अप्पगं सुद्धं ण लहदि) सो शुद्ध आत्मा को नहीं पाता है। इसका विस्तार यह है कि कोई भी मोक्ष का अर्थी पुरुष परम उपेक्षा या वैराग्य के लक्षण को रखने वाले परम सामायिक करने की पूर्व में प्रतिज्ञा करके पीछे विषयों के सुख के साधन के लिये जो शुभोपयोग को परिणतियां हैं उनमें परिणमन करके अंतरंग में मोही होकर यदि निर्विकल्पसमाधिलक्षणमयी पूर्व में कहे हुए मोह रहित शुद्ध आत्मतत्व के विरोधी मोह आदिकों को नहीं छोड़ता है, तो वह जिन या सिद्ध के समान अपने आत्मस्वरूप नहीं पाता है ।।७६॥ तात्पर्यवति अथ शुद्धोपयोगाभावे यादृशं जिनसिद्धस्वरूपं न लभते तमेव कथयति तबसंजमप्पसिद्धो सुद्धो सग्गापयग्गमगकरो। अमरासुरिवाहिवो देवो सो लोयसिहरत्वो ॥७९-१॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारी ] [ १७६ तबसंजमप्पसिद्धो समस्तरागादिपरभावेच्छात्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः, बहिरंगेन्द्रियप्राणसंयमबलेन स्व युद्धात्मनि संयमनात्समरसीभावेन परिणमनं संयमः, ताभ्यां प्रसिद्धो जातस्तप.संयमप्रसिद्धः सुद्धो क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितः सम्गापवरामग्गकरो स्वर्ग: प्रसिद्धः केवलज्ञानद्यनन्तचतुष्टयलणणोऽपवर्गों मोक्षस्तयोर्मागं करोत्युपदिशति स्वर्गापवर्गमार्गकर: अमरासुरिंदमहिवो तत्पदाभिलाषिभिरमरासुरेन्द्र महितः पूजितोऽमगसुरेन्द्रमहितः देवो सो स एवं मुणविशिष्टोऽहंन् देवो भवति । लोयसिहरत्थो स एव भगवान् लोकायशिखरस्थः सन् सिद्धो भवतीति जिनसिद्धस्वरूपज्ञातव्यम्। उत्थानिका-आगे शुद्धोषयोग के अभाव में जिस तरतुद के जिन व सिद्ध स्वरूप को यह नहीं प्राप्त करता है उसको कहते हैं-- ___अन्वय सहित विशेषार्थ-(सो देवो) वह देव (तवसंजमापसिद्धो) सर्व रागादि परमावों की इच्छा के त्याग रूप अपने स्वरूप में दीप्तमान होना ऐसा जो तप तथा बाहरी इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम के बल से अपने शुद्धात्मा में स्थिर होकर समतारस के भाव से परिणमना जो संयम इन दोनों से सिद्ध हुआ है, (सुद्धो) क्षुधा आदि अठारह वर्षों से रहित शुद्ध वीतराग है, (सग्गापवयममाकरो) स्वर्ग तथा केवलज्ञान आदि अनंत चतुष्टय लक्षण रूप मोक्ष इन दोनों के मार्ग का उपदेश करने वाला है, (अमरासुरिदमहिवो) उसही पद के इच्छुक स्वर्ग के अथवा भवनत्रिक के इन्द्रों द्वारा पूजनीय है, तथा (लोयसिहत्थो) लोक के अग्न शिखर पर विराजित है, ऐसा जिन सिद्ध का स्वरूप जानना योग्य है ॥७६१॥ तात्पर्यवसि अब तमित्थंभूतं निर्दोषिपरमात्मानं ये श्रद्दधति मन्यन्ते तेऽक्षयसुखं लभन्त इति प्रज्ञापयति-- तं देवदेवदेवं अदिवरवसहं गुरू तिलोयस्स। पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ॥७६-२॥ तं देवदेवदेवं देवदेवाः सौधर्मेन्द्रप्रभृतयस्तेषां देव आराध्यो देवदेवस्त देवदेवदेव, जविवरवसह जितेन्द्रियत्वेन निजशुद्धात्मनि यत्लपरास्ते यतयस्तेषां वरा गणधरदेवादयस्तेभ्योऽपि वृषभः प्रधानो यतिवरवृषभस्तं यतिवरवृषभं, गुरू तिलोयस्स अनन्तज्ञानादिगुरुगुणस्त्रलोक्यस्यापि गुरुस्तं त्रिलोकगुरु पणमति जे अणुस्सा तमित्यंभूतं भगवन्तं ये मनुष्यादयो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणमन्त्याराधयन्ति ते सोक्खं अक्खयं जंति ते तदाराधनाफलेन परम्परयाउक्षयानन्तुसौख्यं यान्ति लभन्त इति सूत्रार्थः ॥७६-२॥ उत्थानिका--आगे सूचना करते हैं कि जो कोई इस प्रकार निर्दोष परमात्मा को मानते हैं, अपनी श्रद्धा में लाते हैं वे ही अविनाशी आत्मीक सुख को पाते हैं __अन्वय सहित विशेपार्थ-(जे मणुस्सा) जो कोई भव्य मनुष्य आदिक (तं देवदेवदेवं) उस महादेव को जो देवों के देव सौधर्म इन्द्र आदि का भी देव है अर्थात् उनके द्वारा आराधना के योग्य है, (जदियरयसह) इन्द्रियों के विषयों के जीतकर अपने शुद्ध आत्मा में Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० । [ पवयणसारो यत्न करने वाले यतियों में श्रेष्ठ जो गणधराविक उनमें भी प्रधान है, तथा (तिलोयस्स गुरु) अनन्तज्ञान आदि महान गुणों के द्वारा जो तीन लोक का भी गुरु है, उसे (पणमंति) द्रव्य और भाव नसस्कार के द्वारा प्रणाम करते हैं तथा पूजते हैं व उसका ध्यान करते हैं (ते) वे उसकी सेवा के फल से (अक्खयं सोक्वं जति) परम्परा करके अविनाशी अतीन्द्रियसुख को पाते हैं, ऐसा सूत्र का अर्थ है। यहां आचार्य ने उपासक के लिये यह शिक्षा दी है कि 'जो जैसा भावं सो तसा हो जावे" अविनाशी अनंत अतींद्रियसुख का निरंतर लाभ आत्मा की शुद्ध अवस्था में होता है। उस अवस्था की प्राप्ति का उपाय यद्यपि साक्षात् शुद्धोपयोग में तन्मय होकर निर्विकल्पसमाधि में वर्तन करना है तथापि परम्परा से उसका उपाय अरहंत और सिद्ध जमाकर उनको नमस्कार करना, पूजन करना, स्तुति करना आदि है ॥७६-२॥ अथ कथं मया विजेतम्या मोहवाहिनीत्युपायमालोचयति जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु 'जादि तस्स लयं ॥८॥ यो जानात्यहन्तं द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः ।। सः जानात्यात्मानं मोहः खलु याति तस्य लयम् ।।१०।। यो हि नामार्हन्तं द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः परिच्छिनत्ति स खल्वात्मानं परिस्छिनत्ति, उभयोरपि निश्चयेनाविशेषात् । अर्हतोऽपि पाककाष्ठागतकार्तस्वरस्येव परिस्पष्टमात्मरूपं, ततस्तत्परिच्छेदे सस्मिपरिच्छेदः । तत्रान्बयो द्रव्यं, अन्वयविशेषणं गुणः, अन्वयव्यतिरेक: पर्यायाः। तत्र भगवत्यर्हति सर्वतो विशुद्धे त्रिभूमिकमपि स्वमनसा समय मुत्पश्यति । यश्चेततोऽयमित्यन्वयस्तद्रध्यं, यच्चान्वयाश्रितं चैतन्यमिति विशेषणं स गुणः, ये चंकसमयमात्रायतकालपरिणामतया परस्परपरावृत्ता अन्वयव्यतिरेकास्ते पर्यायाश्चिद्विवर्तननन्थय इति यावत् । अथैवमस्य त्रिकालमप्येककालमाकलयतो मुक्ताफलानोव प्रलम्बे प्रालम्बे चिद्विवर्ताश्चेतन एव संक्षिप्य विशेषणविशेष्यत्ववासनान्तर्धानावलिमानमिव प्रालम्बे चेतन एव चैतन्यमन्तहितं विधाय केवलं प्रालम्बमिव केवलमात्मानं परिच्छिन्दतस्तदुत्तरोत्तरक्षणक्षीयमाणकर्तृकर्मक्रियाविभागतया निःक्रियं चिन्मानं भायमधिगतस्य जातस्य मणेरिवाकम्पप्रवृत्तनिर्मलालोकस्यावश्यमेव निराश्रयतया मोहतमः प्रलीयते । यद्येवं लब्धो मया मोहवाहिनीविजयोपायः ॥५०॥ - ---- -.. . -- १. जाइ (ज० १०)। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १८१ भूमिका-अब कैसे मेरे द्वारा मोह की सेना जीतने योग्य है, इसके उपाय को सोचते हैं___अन्वयार्थ--[यः] जो [अरहत] अरहन्त को [द्रच्यत्वगुणत्वपर्ययत्वः] द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने द्वारा [जानाति] जानता है, [सः] वह [आत्मानं ] (अपने) आत्मा को [जानाति] जानता है और [तस्य मोहः] उस जीव का मोह [खलु] अवश्य [लयं याति] नाश को प्राप्त होता है। टीका-जो वास्तव में अरहंत को द्रव्य रूप से गुण रूप से और पर्याय रूप से जानता है वह वास्तव में अपने आत्मा को जानता है क्योंकि दोनों (अरहंत और अपनी आत्मा) में निश्चय से अन्तर नहीं है। अरहंत का रूप भी अन्तिम ताब को प्राप्त सोने के स्वरूप की भांति परिस्पष्ट (शुद्ध) आत्मा का रूप (ही) है, इस कारण से उनका (मरहन्त का) ज्ञान होने पर सर्व आत्मा का ज्ञान होता है। वहाँ (अरहन्त में) अन्धय रूप द्रव्य है, अन्दय का विशेषण गुण है, और अन्वय के व्यतिरेक (भिन्न-मिन्न, क्रम से होने वाली) पर्यायें हैं । यहाँ सर्वतः विशुद्ध भगवान् अरहन्त में (जीव) तीनों प्रकार युक्त समय को भी (द्रव्य गुण पर्यायमय निज आत्मा को भी) अपने मन से देख लेता है। जो यह चेतन है, यह अन्वय है, वह द्रव्य है, जो अन्वय के आश्रय रहने वाला चंतन्य है, यह विशेषण है, वह गुण है, और जो एक समय मात्र मर्यादित काल परिमाण के कारण से परस्पर भिन्न-भिन्न अन्वय के व्यतिरेक हैं वे पर्याय हैं जो कि चिद्विवर्तन की (आत्मा के परिणमन को) ग्रन्थियाँ (गांठे) हैं। इस प्रकार अरहन्त के द्रव्य गुण पर्याय का स्वरूप है। अब, (१) इस प्रकार कालिक को भी (त्रिकाल इसी स्वभाव को धारण करने वाली अपनी आत्मा को भी) एक काल में समझ लेने वाले, (२) झूलते हुए हार में मोतियों की तरह (जैसे मोतियों को झूलते हुए हार में अन्तर्गत माना जाता है उसी प्रकार चिवियतों को (चैतन्य पर्यायों को) चेतन में हो अन्तर्गत करके तथा विशेषण विशेष्यता की वासना का अन्तर्धान होने से, हार में सफेदी की तरह (जैसे सफेदी को हार में अन्तहित किया जाता है, उसी प्रकार) चैतन्य को चेतन में ही अन्तहित करके केवल हार की तरह (जैसे मोती व सफेदी आदि के विकल्प को छोड़कर मात्र हार को जानता है, उसी प्रकार) केवल आत्मा को जानने वाले, (३) उसके उत्तर क्षण में कर्ता-कर्मक्रिया का विभाग नाश को प्राप्त हो जाने के निष्क्रिय चिन्मात्र भाव को प्राप्त होने वाले, (४) उत्तम मणि की भांति अकम्परूप से प्रवंत रहा है निर्मल प्रकाश जिसका, ऐसे उस Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] [ पवयणसारो जीव के अवश्य ही निराश्रयता के कारण से मोहांधकार नष्ट हो जाता है। यदि ऐसा है तो मेरे द्वारा मोह को सेना को जीतने के लिये उपाय प्राप्त कर लिया गया ॥८॥ तात्पर्यवृत्ति अथ "चत्तापायारंभ" इत्यादि सूत्रेण यदुक्तं शखोपयोगाभावे मोहादिविनाशो न भवति, मोहादिबिनाशाभावेन शद्धात्मलाभो न भवति तदर्थमेवेदानीमुपायं समालोचति जो जाणवि अरहंतं यः कर्ता जानाति । के ? महन्तं । कैः कृत्वा ? बव्यत्तगुणसपज्जयहि द्रव्यत्वगुणत्वपोयत्वः सो जादि अपाणं स पुरुषोऽर्हत्परिज्ञानात्पश्चादात्मानं जानाति मोहो खलु जाइ सस्स लयं तत आत्मपरिज्ञानात्तस्य मोही दर्शनमोहो लयं विनाशंक्षयं यातीति । तद्यया- केवलज्ञानादयो दिघोषगुणा, अस्तित्वादयः सामान्य गुणाः, परमौदारिकशरोराकारेण यदात्म-प्रदेशानामवस्थान स व्यञ्जनपर्याय:, अगुरुलघुकगुणषडवृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमाना अर्थपर्यायाः एवं लक्षणगुणपर्यायाधारभूतममूर्तमसंख्यातप्रदेशं शुद्धचंतन्यान्वयरूपं द्रव्यं वेति, इत्थंभूतं द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं पूर्वमहदभिधाने परमात्मनि ज्ञात्वा पश्चाग्निश्चयनयेन तदेवागमसारपदभूतयाऽध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मभावनाभिमुखरूपेण सविकल्पस्वसंदवेनज्ञानेन तथैवागमभाषयाधःप्रवत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञदर्शनमोहक्षपणसमर्थपरिणामविशेषबलेन पश्चादात्मनि योजयति । तदनन्तरमविकल्प स्वरूप रूपे प्राप्ते, यथा पर्यायस्थानीय मुक्ताफलानि गुणस्थामौर्य वलयं पाभवनयेन हार एवं, तथापूर्वोक्तद्रव्यगुणपर्याया अभेदनयेनात्मैवेति भावयतो दर्शनमोहान्धारः प्रलीयते । इति भावार्थः ।।८।। उत्थानिका-आगे "चत्तापावारम्भ' इत्यादि सूत्र से जो कहा जा चुका है कि शुद्धोपयोग के बिना मोह आदि का नाश नहीं होता है और मोहादि के नाश के बिना शुद्धात्मा का लाभ नहीं होता है, उस ही शुद्धात्मा के लाभ के लिये अब उपाय बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई (अरहत) अरहंत भगवान् को (बव्वत्तगुणतपज्जत्तेहि) द्रव्यपने, गुणपने, तथा पर्यायपने को (जाणदि) जानता है (सो) वह पुरुष (अप्पाणं जाणादि) अहंत के ज्ञान के पीछे अपने आत्मा को जानता है । उस आत्मज्ञान के प्रताप से (तस्स मोहो) उस पुरुष का दर्शनमोह (खल लयं जादि) निश्चय से क्षय हो जाता है। इसका विस्तार यह है कि अहंत मात्मा के केवलज्ञान आदि विशेष गुण हैं। अस्तित्व आदि सामान्य गुण हैं । परम औदारिकशरीर के आकार जो आत्मा के प्रदेशों का होना सो व्यंजनपर्याय है। अगुरुलघुगण द्वारा छः प्रकार वृद्धि-हानि रूप से वर्तन करने वाली अर्थ-पर्याय हैं। इस तरह लक्षणधारी गुण और पर्यायों के आधाररूप, अमूर्तिक असंख्यात प्रदेशी, शुद्ध चैतन्यमयी अन्वयरूप अर्थात् नित्यस्वरूप अरहंत द्रव्य है । इस तरह द्रव्य गुण पर्याय स्वरूप अरहंत परमात्मा को पहले जानकर फिर निश्चयनय से उसी द्रव्यगुण पर्याय को आगम की सारभूत जो अध्यात्मभाषा है, उसके द्वारा अपने शुद्ध आत्मा Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यणसारी । [ १८३ की भावना के सन्मुख होकर अर्थात् विकल्प-सहित स्वसंवेदनज्ञान में परिणाम करते हुए तसे ही आगम की भाषा से अधःकरण अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण नाम के परिणाम विशेषों के बल से जो विशेषभाव दर्शनमोह के अभाव करने में समर्थ हैं, अपने आत्मा में जोड़ता है। उसके पीछे निविकल्प स्वरूप की प्राप्ति के लिए जैसे पर्याय रूप से मोती के दाने, गुण रूप से सफेदी आदि अभेदनय से एक हार रूप ही मालूम होते हैं, तैसे पूर्व में कहे हुए द्रव्य पुण पर्याय अभेद-नय से आत्मा ही है, इस तरह भावना करते-करते दर्शनमोह का अन्धकार नष्ट हो जाता है ॥५०॥ अर्थवं प्राप्तचिन्तामणेरपि मे प्रमादो दस्युरिति जागति जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्म । जहदि जति रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥८१।। जीवो व्यपगतमोह उपलब्धवांतत्त्वात्मनः सम्यक् । जहाति यदि रागद्वेषौ स आत्मानं लभते शुद्धम् ॥१॥ एवमुपवणितस्वरूपेणोपायेन मोहमपसार्यापि सम्यगात्मतत्त्वमुपलभ्यापि यदि नाम रागद्वषो निर्मूलयति तदा शुद्धमात्मानमनुभवति । यदि पुनः पुनरपि तावनुवर्तेते तदा प्रमावतश्त्रतया लुण्ठितशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भचिन्तारत्नोऽन्तस्ताम्यति । अतो मया रागद्वेषनिषेधायात्यन्तं जागरितव्यम् ॥८॥ भूमिका-अब, इस प्रकार प्राप्त कर लिया है चिन्तामणि रत्न जिसने ऐसे मेरे मी प्रमाद चौर हैं-यह विचार कर जागृत रहता है अन्वयार्थ---[व्यपगतमोहः] दूर हो गया है मोह जिसका और [आत्मनः सम्यक तत्त्वं उपलब्धवान] आत्मा के सम्यक् (वास्तविक) तत्त्व को प्राप्त हुआ-सा [जीवः | जीव [यदि] जो [रागद्वेषौ | राग द्वेष को [जहाति] छोड़ता है तो [स:] वह [शुद्धं आत्मान] शुद्ध आत्मा को [लभते] प्राप्त कर लेता है। टीका-इस प्रकार जिस उपाय का स्वरूप वर्णन किया है, उस उपाय के द्वारा मोह को दूर करके भी तथा सम्यक् आत्मतत्त्व को प्राप्त करके भी यदि (जीव) राप द्वेष को निर्मल करता है तो शुद्ध आत्मा को अनुभव करता है । और यदि पुनः पुनः (राग-द्वेष) को अनुसरण करता है, तो प्रमाद की अधीनता से शुद्धात्म-तत्त्व की प्राप्तिरूप चितामणिरत्न लुट गया है जिसका, ऐसा वह जीव अन्तरंग में होव को प्राप्त होता है। इसलिये. मुझको राग द्वेष को दूर करने के लिये अत्यन्त जागृत रहना चाहिये ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] [ पवयणसारो तात्पर्यंवृत्ति अथ प्रमादोत्पादकचारित्र मोहसंज्ञश्चौरोस्तीति मत्वाप्तपरिज्ञानादुपलब्धस्य शुद्धात्मचिन्तामणेः रक्षणार्थं जागतति कथयति I जीवो जीवः कर्ता । कि विशिष्टः ? ववगदमोहो शुद्धात्मतत्त्वरुचिप्रतिबन्धकविनाशितदर्शनमोहः । पुनरपि किविशिष्टः ? उवलो उपलब्धवान् ज्ञातवान् । कि ? तच्च परमानन्दकस्वभावात्मतत्त्वं । कस्य सम्बन्धी ? अध्यणो निजशुद्धात्मनः । कथं ? सम्मं सम्यक् संशयादिरहितत्वेन जहजि जवि रागोसे शुद्धमानुभूतिलक्षणवीतरागचारित्र प्रतिबन्धको चा त्रमोहसंज्ञी रागद्वेषो यदि त्यजति सो अप्पाणं लहरि सुद्धं स एवमभेदरत्नत्रयपरिणतो जीवः शुद्धबुद्धकस्वभावमात्मानं लभते मुक्तो भवतीति । किंच पूर्व ज्ञानकण्ठिकायां “उबओगमिसुद्धो सो खवेदि देकमवं तुष" इत्युक्तं, अत्र तु "जहदि जदि रागदोसे सो अध्वाणं लहूदि सुखं" इति भणितम् उभयत्र मोक्षोस्ति को विशेष: ? प्रत्युत्तरमाह – तत्र शुभाशुभ योनिश्चयेन समानत्वं ज्ञात्वा पश्चाक्छुद्धे शुभरहिते निजस्वरूपे स्थित्वा मोक्षं लभते तेन कारणेन शुभाशुभमूढत्वनिरासार्थं ज्ञानकण्ठिका भण्यते । अत्र तु द्रव्यगुणपर्याप्तस्वरूपं ज्ञात्वा पश्चात्तद्रूपे स्वशुद्धात्मनि स्थित्वा मोक्षं प्राप्नोति, ततः कारणादियमाप्तात्ममूढत्वनिरासार्थं ज्ञानकण्ठिका इत्येतावान् विशेषः ।।८।। उत्थानिका— आगे कहते हैं कि इस जगत् में प्रमाद को उत्पन्न करने वाला चारित्रमोह नाम का घोर है, ऐसा मानकर आप्त श्री अरहंत भगवान् के स्वरूप के ज्ञान से जो शुद्धात्मारूपी चितामणिरत्न प्राप्त हुआ है उसकी रक्षा के लिये ज्ञानी जीव जागता रहता है । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( वक्षगदमोहो जीवो) शुद्धात्मतत्व की रुचि के रोधक दमोह को जिसने दूर कर दिया है, ऐसा सम्यग्दृष्टि आत्मा (अप्पणी तच्च सम्म उवलद्धी) अपने ही शुद्ध आत्मा के परमानंदमयी एक स्वभावरूप तत्व को संशय आदि से रहित भले प्रकार जानता हुआ (जबि रागबोसे जहवि ) यदि शुद्धात्मा के अनुभव रूपी लक्षण को धरने वाले वीतरागचारित्र के बाधक चारित्रमोहरूपी रागद्वेषों को छोड़ देता हैं ( सो सुद्धं अप्पाणं लहदि ) तब यह निश्चय अभेवरत्नत्रय में परिणमन करने वाला आत्मा शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप आत्मा को प्राप्त कर लेता है अर्थात् मुक्त हो जाता है । शंका- ज्ञानकंठिका में 'उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहु भवं दुक्खं" ऐसा कहा था । यहां 'अहदि जदि रागबोसे अप्पाणं लहवि सुद्ध" ऐसा कहा है। दोनों में हो मोक्ष की बात है, इनमें विशेष क्या है ? समाधान - वहाँ तो शुभ या अशुभ उपयोग को निश्चय से से समान जानकर फिर शुभ से रहित शुद्धोपयोग रूप निज आत्मस्वरूप में ठहरकर मोक्ष पाता है, इस कारण से शुभ अशुभ सम्बन्धी मूढ़ता हटाने के लिये ज्ञानकंठिका को कहा है। यहां तो द्रव्य, गुण, पर्यायों Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १८५ के द्वारा आप्त---अरहंत के स्थान को जानकर पीछे लगते सुद्ध आत्मा के स्वरूप में ठहरकर मोक्ष प्राप्त करता है । इस कारण से यहां आप्त और आत्ममूढता के निराकरण के लिए ज्ञान कंठिका को कहा है इतना होविशेष है ॥१॥ सूचना-इस गाथा में आचार्य ने स्पष्ट रूप से चारित्र की आवश्यकता को बता दिया है। अथायमेवैको भावद्भिः स्वयमनुभूयोपदशितो निःश्रेयसस्य पारमार्थिकः पन्या इति मति व्यवस्थापयति सब्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण' खविदकम्मंसा । किच्चा "तधोवदेसं णिव्वादा ते णमो तेसि ॥२॥ सर्वेऽपि चाहन्तस्तेन विधानेन क्षपितकमांशाः ।। कृत्वा तथोपदेशं निर्वृत्तास्ते नमस्तेभ्यः ॥२॥ यतः खल्बतीतकालानुभूतक्रमप्रवृत्तयः समस्ता अपि भगवन्तस्तीर्थकराः प्रकारान्तरस्यासंभवादसंभावितद्वैतेनामुनवैकेन प्रकारेण क्षपणं कर्माशाना स्वयमनुभूय, परमाप्ततया परेषामप्यायत्यामिशनीत्वे वा मुमुक्षणां तथैव तदुपदिश्य निःश्रेयसमध्याश्रिताः । ततो नायवर्त्म निर्धाणस्येत्यवधार्यते । अलमथवा प्रलपितेन । व्यवस्थिता मतिर्मम, ममो भगवडूपः ॥२॥ भूमिका-अब, (पूर्वोक्त गाथाओं में णित यह ही एक, भगवन्तों के द्वारा स्वयं अनुभव करके दिखलाया गया मोक्ष का सच्चा मार्ग है, इस प्रकार बुद्धि को व्यवस्थित (निश्चित करता है अन्वयार्थ— [सर्वेऽपि च) सब ही [अर्हन्तः] अरहन्त [तेन विधानेन] उसी विधि से क्षपितकर्माशाः] कर्मा शों का क्षय करके (और) [तथा] उसी प्रकार [उपदेश कृस्वा] उपदेश को करके [ते निवृताः] वे निर्माण को प्राप्त हुए | नमः तेभ्यः] उनके लिये नमस्कार हो। टीका—क्योंकि वास्तव में भूतकाल में क्रमशः हुए सब ही तीर्थकर भगवान्, प्रकारान्तर का असंभव होने से जिसमें दंत संभव नहीं है, ऐसे इस एक ही प्रकार से कर्माशों के क्षय को स्वयं अनुभव करके (तथा) परम आप्तता के कारण भविष्यकाल में अथवा इस (वर्तमान) काल में अन्य मुमुक्षुओं के भी इसी प्रकार से उस (कर्मक्षय) का उपदेश १. विहाणेण (ज० ००)। २. तहोवदेसं (जव०)। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] [ पवयणसारो देकर निःश्रेयस (मोक्ष) को प्राप्त हुए । इस कारण से निर्वाण का अन्य कोई मार्ग नहीं है यह निश्चित किया जाता है । अथवा, अधिक प्रलाप से बस हो, मेरी बुद्धि व्यवस्थित ( सुनिश्चित ) हो गई है । भगवन्तों के लिये नमस्कार हो ॥२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्व द्रव्यगुण पर्याप्तस्वरूपं विज्ञाय पश्चात्तथाभूते स्वात्मनि स्थित्वा सर्वेप्यर्हन्तो मोक्षं गता इति स्वमनसि निश्चयं करोति सोविय अरहंता सर्वेऽपि चान्तः तेण विहाणेण द्रव्यगुणपर्यायः पूर्व महत्परिज्ञानासश्चात्तथाभृतस्वात्मावस्थानरूपेण तेन पूर्वोक्तप्रकारेण खविवक्रम्मंसा क्षपितकर्माशा विनाशितकर्मभेदा भूत्वा किच्च तहोवदेसं अहो भव्या अयमेव निश्चय रत्नत्रयात्मकशुद्धात्मोपलम्भलक्षणो मोक्षमार्गे नान्य इत्युपदेशं कृत्वा णिव्यादा निर्वृता अक्षयानन्तसुखेन तृप्ता जाता, ते ते भगवन्तः । णमो तसि एवं मोक्षमार्गनिश्चर्य कृत्त्वा श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवास्तस्मै निजशुद्धात्मानुभूतिस्वरूप मोक्षमार्गाय तदुपदेश केभ्योऽर्हद्द्भ्यश्च तदुभयस्वरूपाभिलाषिणः सन्तो 'नमोस्तु तेभ्यः' इत्यनेन पदेन नमस्कारं कुर्वन्तीन्यभिप्राय: ॥ ८२ ॥ उत्थानिका— आगे आचार्य अपने मन में यह निश्चय करके वैसा ही कहते हैं। कि पहले द्रव्य गुण पर्यायों के द्वारा आप्त के स्वर को नाम पीछे उसी रूप अपने आत्मा में ठहर कर सर्व हो अर्हत हुए मोक्ष गए हैं- अन्वय सहित विशेषार्थ -- ( तेण विहाणेण ) इसी विधान से जैसा पहले कहा है कि पूर्व में द्रव्य गुण, पर्यायों के द्वारा अरहंतों के स्वरूप को अपने आत्मा में ठहरकर अर्थात् पुनः पुनः आत्मध्यान करके ( खविदकम्मंसा ) कर्मों के भेदों को क्षय करके ( सन्धेविय अरहंता ) सर्व ही अरहंत हुए (तहोवरे किच्चा ) फिर वैसा ही उपदेश करके कि अहो भव्य जीवो ! यह निश्चय रत्नत्रयमयो शुद्धात्मा की प्राप्ति रूप लक्षण को धरने वाला मोक्षमार्ग है, दूसरा नहीं है, (ते णिव्यावा) वे भगवान् निर्वृत्त हो गए अर्थात् अक्षय अनंत सुख से तृप्त सिद्ध हो गए ( तेसि णमो ) उनको नमस्कार हो । श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव इस तरह मोक्षमार्ग का निश्चय करके अपने शुद्ध आत्मा के अनुभव स्वरूप मोक्षमार्ग और उसके उपदेशक अरहंतों को इन दोनों के स्वरूप को इच्छा करते हुए " नमोस्तु तेभ्य:" इस पद से नमस्कार करते हैं - वह अभिप्राय है ॥८२॥ तात्पर्यवृति अथ रत्नत्रयाराधका एवं पुरुषा दानपूजागुणप्रशंसानमस्कारार्हा भवन्ति नान्य इति कथयति - दंसणसुद्धा पुरिसा णाणपहाणा समाचरियत्था । पूजासककाररिहा बाणस्स य हि ते णमो तेति ॥ ८२-१॥ दंसणसुद्धा निजशुद्धात्म रुचिरूप निश्चय सम्यक्तस्त्वसाधकेन मूढप्रयादिपविशतिमलरहितेन तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणेन दर्शनेन शुद्धा दर्शनशुद्धाः पुरिसा पुरुषा जीवाः । पुनरपि कथंभूताः ? णाण Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १८७ पहाणा निरुपरागरस्वसंवेदनज्ञानसाधकेन वीतरागसर्वज्ञप्रणोतपरमागमाभ्यासलक्षणज्ञाने प्रधानाः समर्थाः प्रौढज्ञानप्रधानाः । पुनश्च कथंभूता: ? समग्गवरियत्था निबिकारनिश्चलात्मानुभूतिलक्षण निश्चयचारित्रसाधनाचारादि शास्त्रकथितमुलोत्तरगुणानुष्ठानादिरूपेण चारित्रेण समग्रा: परिपूर्णा: समग्रचारित्रस्था: पूजासक्काररिहा द्रव्यभावलक्षणपुजा गुणप्रशंसा सत्कारस्तयोरही योग्यः भवन्ति । वाणस्स यहि दानस्य च हि स्फुटं ते पूर्वोक्तरत्नत्रयाधारा णमो सि नमस्तेभ्य: नमस्कारस्यापि त एवं योग्या: ।।८२-१।। एवमाप्तात्मस्वरूपविषये मूडत्वनिरासार्थ गाथासप्त केन द्वितीयज्ञानकण्ठिका गता। __उत्थानिका---आगे कहते हैं कि जो पुरुष रत्नत्रय के आराधन करने वाले हैं वे ही दान, पूजा, गुणानुवाद, प्रशंसा तथा नमस्कार के योग्य होते हैं, और कोई नहीं। ___अन्वय सहित विशेषार्थ- (दसणसुद्धा) अपने शुद्ध आत्मा की रुचि-रूप सम्यग्दर्शन को साधने वाले, तीन मूढता आदि पच्चीस दोष रहित तत्त्वार्थ का श्रद्धानरूप लक्षण के धारी सम्यग्दर्शन से जो प्राद्ध हैं णाणपहाणाजामा रहित स्तरखेटन नान के साधक बोतराग सर्वज्ञ से कहे हुए परमागम के अभ्यास रूप लक्षण के धारी ज्ञान में जो समर्थ हैं तथा (समग्गचरियथा) विकार रहित निश्चल आत्मानुभूति के लक्षण रूप निश्चयचारित्र के साधने वाले आचार आदि शास्त्र में कहे हुए मूलगुण और उत्तरगुण की क्रिया रूप बारित्र से जो पूर्ण हैं अर्थात् पूर्ण धारिय के पालने वाले (पुरिसा) जो जीव हैं वे (पूजासरकाररिहा) द्रव्य व भावरूप पूजा व गुणों की प्रशंसारूप सत्कार के योग्य हैं, (दाणस्स यहि) तथा प्रगटपने वान के योग्य हैं। (णमो तेसि) उन पूर्व में कहे हुए रत्नत्रय के धारियों को नमस्कार हो क्योंकि वे ही नमस्कार के योग्य हैं। भावार्थ-आचार्य ने इसके पहले की गाथा में सच्चे आप्त को नमस्कार करके यहां सच्चे गुरु को नमस्कार किया है। इस माथा में बता दिया है कि जो साधु निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय के धारी हैं उन्हीं को अष्टद्रध्य से भाय सहित पूजना चाहिये, व उन्हीं की प्रशंसा करनी चाहिये । उन्हीं का पूर्ण आदर करना चाहिये तथा उन्हीं को दान देना चाहिये व उन्हीं को नमस्कार करना चाहिये । प्रयोजन यह है कि उक्च आदर्श हो हमारा हितकारी हो सकता है। उन्हीं का भाव व आचरण हम उपासकों को उन रूप वर्तन करने की योग्यता की प्राप्ति के लिये प्रेरणा करता है। निर्ग्रन्थ साधु ही मोक्षमार्ग पर चलते हुए भक्तजनों को साक्षात् मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले होते हैं। जैन गृहस्थों का मुख्य कर्तव्य है कि ऐसे साधुओं की सेवा करें, व साधुपद धारने की चेष्टा में उत्साही रहें ॥२१॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] [ पत्रयणसारो इस तरह आप्त और आत्मा के स्वरूप में मूढता या अज्ञानता को दूर करने के लिये सात गाथाओं से दूसरी ज्ञानकंठिका पूर्ण की। अथ शुद्धात्मलाभपरिपन्यिनो मोहस्य स्वभावं भूमिकाश्च विभावयति — दव्वादिसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहो ति । खुम्भदि तेणुच्छष्णो 'पप्पा रागं व दोसं वा ॥ ८३ ॥ द्रव्यादिकेषु मूढो भावो जीवस्य भवति मोह इति ॥ क्षुभ्यति तेनावच्छन्नः प्राप्य रागं वा द्वेषं वा ॥८३॥ यो हि द्रव्यगुणपर्यायेषु पूर्वमुपर्वाणतेषु पीतोन्मत्तकस्येव जीवस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणो मूढो भावः स खलु मोहः तेनावच्छम्नात्मरूपः सन्नायमात्मा परद्रव्यमात्मद्रव्यत्वेन परगुणमात्मगुणतया परपर्यायानात्मपर्यायभावेन प्रतिपद्यमानः प्ररूढदृढतरसंस्कारतया परद्रव्यमेवाहरहरुपाददानो दग्धेन्द्रियाणां रुचिवशेनाद्वैतेऽपि प्रवर्तितद्वतो रुचितारुचितेषु विषयेषु रागद्वेषाखुपश्लिष्य प्रचुरतरम्बोमाररयाहतः सेतुबन्ध इव द्वेधा विदार्यमाणो नितरां क्षोभमुपैति । अतो मोहरागद्वेषभेवास्त्रिभूमिको मोहः ॥८३॥ भूमिका – अब, शुद्धात्म लाभ के लुटेरे मोह के स्वभाव को और भेदों को व्यक्त करते हैं अन्वयार्थ – [ जीवस्य ] जीव का [ द्रव्यादिकेषु | द्रव्यादिकों में [ मूढः भावः ) जो मूढभाव अर्थात् अज्ञानभाव है [ इति मोहः भवति | वह मोह है [ तेन अवच्छन्नः ] उस मोह से व्याप्त हुआ ( यह जीव ) [ रागं वा द्वेषं प्राप्य ] राग अथवा द्वेष को प्राप्त करके [ क्षुभ्यति ] क्षुब्ध होता है । टीका-पूर्व ( गाथा ८० में ) वर्णित द्रव्य गुण पर्यायों में धतूरा खाये हुए पुरुष की भांति जीव के जो तव में अप्रतिपत्ति लक्षण ( वास्तविक स्वरूप को अश्रद्धा रूप ) मूढभाव ( अज्ञानभाव ) है, वह वास्तव में मोह है । उस मोह से आच्छादित हो गया है निज रूप जिसका, ऐसा आच्छादित होता हुआ यह आत्मा ( १ ) पर ब्रव्य को आत्म द्रव्य रूप से, परगुण को आत्म-गुण रूप से और पर-पर्याय को आत्म-पर्याय भाव से समझता हुआ (अंगीकार करता हुआ, ( २ ) अतिरूद्ध दृढतर संस्कार के कारण से पर-द्रव्य को ही दिन प्रतिदिन (सदर) ग्रहण करता हुआ, (३) ( निन्दनीय ) इन्द्रियों की रुचि के दश से अद्वैत में भी द्वैतरूप प्रवतत होते हुए रुचिकर और अरुचिकर विषयों में रागद्वेष को करके, अति १. पय्या (ज० बु० ) 1 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १८८६ प्रचुर जल-समूह के वेग से प्रहार को प्राप्त ( खण्डों को प्राप्त) सेतुबन्ध (पुल) को भांति ( रागद्वेष रूप ) दो भागों में खण्डित हुआ, अत्यन्त क्षोभ को प्राप्त होता है । इस कारण मोह, राग और द्वेष के भेद से मोह तीन प्रकार का है ||८३ || तात्पर्यवृत्ति अथ शुद्धात्मोपलम्भप्रतिपक्षभूत मोहस्य स्वरूपं भेदोश्च प्रतिपादयति tree शुद्धात्माद्रिध्येषु तेषां द्रव्याणामनन्तज्ञानाद्यस्तित्वादिविशेषसामान्य लक्षण गुणेषु शुद्धात्मपरिणतिलक्षणसिद्धत्वादिपर्यायेषु च यथ संभवं पूर्वोपवणतेषु वक्ष्यमाणेषु च मूढो माघो एतेषु पूर्वी द्रव्यगुणपर्यायेषु विपरीताभिनिवेशरूपेण तत्त्वसंशयजनको मूढो भाव: जीवस्स हवदि मोहोत्ति इत्थंभूतो भावो जीवस्य दर्शनमोह इति भवति । खुक्ष्मदि तेणुच्छण्णो तेन दर्शनमोहेनावच्छ्न्नो झम्पितः सन्तक्षुभितात्मतत्त्वविपरीतेन क्षोभेण क्षोभं स्वरूपचलनं विषयं गच्छति । किं कृत्वा ? पथ्या रागं व air निर्विकारशुद्धात्मनो विपरीतमिष्टानिष्टेन्द्रियविषयेषु हर्षविषादरूपं चारित्रमोहसंज्ञं रागद्वेषं वा प्राप्य चेति । अनेन किमुक्तं भवति । मोहो दर्शनमोहो रागद्वेषद्वयं चारित्रमोहश्चेति त्रिभूमिको मोह इति ॥ ८३॥ उत्पानिका - आगे शुद्ध जात्मा के लाभ के विरोधी मोह के स्वरूप और भेदों को कहते हैं .. अवन्य सहित विशेषार्थ - ( दध्यादिएस) शुद्ध आत्मा आदि द्रव्यों के अनन्तज्ञानादि य अस्तित्व आदि विशेष और सामान्य गुणों में तथा शुद्ध आत्मा की परिणति रूप सिद्धत्व आदि पर्यायों में जिनका यथा सम्भव पहले वर्णन हो चुका है व जिनका आगामी वर्णन किया जायगा इन सब द्रव्य गुण पर्यायों में विपरीत अभिप्राय रखकर ( मूढो भावो ) तत्वों में संशय रूप अज्ञानभाव को उत्पन्न करने वाला ( जीवस्त मोहो त्ति हवदि) इस संसारी जीव के दर्शन - मोहनीय कर्म है ( तेणोच्छष्णो ) इस वर्शन - मोहनीयकर्म से आच्छादित हुआ यह जीव ( रागं व दोसं वा पय्या) विकार रहित शुद्धात्मा से विपरीत इष्ट अनिष्ट इन्द्रियों के विषयों में हर्ष विषाद रूप चारित्रमोहनीय नाम के रागद्वेष भाव को पाकर ( खुम्भदि) क्षोभ रहित आत्मतत्व से विपरीत क्षोभ के कारण अपने स्वरूप से चलकर वर्तन करता है । इस कथन में यह बतलाया गया कि दर्शनमोह का एक और चारित्र मोह के दो भेद राग, द्वेष इन तीन भेवरूप मोह है ॥८३॥ अथानिष्टकार्यकारणत्वमभिधाय त्रिभूमिकस्यापि मोहस्य क्षयमासूत्रयति - मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स । जायदि ' विविधो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ॥ ८४ ॥ १. विविहो ( ज० वृ० ) । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] [ पवमणसारो मोहेन वा रायेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य जीवस्य । जायते विविधो बन्धस्तस्माते संक्षपयितव्याः ।।४।। एवमस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिनिमीलितस्य मोहेन वा रागेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य तृणपटलावच्छन्नगर्तसंगतस्य करेणुकुट्टनीगानासक्तस्य प्रतिद्विरवदर्शनोद्धतप्रषिधावितस्य च सिन्धुरस्येव भवति नाम नानाविधो बन्धः । ततोऽमी अनिष्टकार्यकारिणो मुमुक्षुणा मोहरागद्वेषाः सम्यग्निर्मूलकाषं कषित्वा क्षपणीयाः ॥४॥ भूमिका-अब, (मोह से) अनिष्ट कार्य के कारण-पने को कह कर तीन भेद वाले भी मोह के नाश करने को सूत्र द्वारा कहते हैं: अन्वयार्थ----[वा मोहेन] अथवा मोह से, [वा रागेण] अथवा राग से, [वा द्वेषेण अथवा द्वेष से [परिणतस्य जीवस्य] परिणत जीव के [विविधः बन्धः] विविध (नाना प्रकार) का बन्ध [जायते] होता हैं। [तस्मात्] इसलिये [ते] वे (मोह, राग, द्वेष) [संक्षपयितव्याः ] पूर्णतया नाश करने गेग्य हैं। ___टीका-इस प्रकार (१) तत्त्व को अप्रतिपत्ति (वस्तु-स्वरूप के अज्ञान) से (२) मोह रूप से अथवा रागरूप से अथवा द्वेषरूप से परिणत, ऐसे इस जीव के (१) धास के ढेर से ढके हुए खड्डे को प्राप्त होने वाले, (२) हथिनी रूपी कुट्टनी के शरीर में आसक्त, तथा (३) विरोधी हाथी को देखकर उत्तेजित होकर (उसकी ओर) दौड़ने वाले हाथी की भांति, विविध प्रकार का बन्ध होता है। इस कारण से अनिष्ट कार्य को करने वाले मोह, राग और द्वेष मुमुक्षु द्वारा भले प्रकार जड़मूल से उखाड़कर नाश करने चाहिये (अर्थात् जिस प्रकार से उनकी सत्ता बिल्कुल समाप्त हो जाय, उस प्रकार से नाश करने चाहिये) ॥५॥ तात्पर्यवत्ति अथ दुःखहेतुभूतबन्धस्य कारणभूना रागद्वेषमोहा निर्मूलनीया इत्याघोषयति-- मोहेण व रागेण व बोसेण व परिणवस्त जीवस्स मोहरागद्वेषपरिणतस्य मोहादिरहितपरमात्मस्वरूपपरिणतिच्युतस्य बहिर्मुख जीवस्य जायवि विविहो बंधो शुद्धोपयोगलक्षणो भावमोक्षस्तबलेन जीवप्रदेशकर्मप्रदेशानामत्यन्तविश्लेषो द्रव्यमोक्षः, इत्थंभूतद्रव्यभाव मोक्षाद्विलक्षणः सर्वप्रकारोपादेयभूतस्वाभाविकसुखविपरीतस्य नारकादिदुःखस्य कारणभूतो विविधबन्धो जायते। तम्हा ते संखवइदव्या यतो रागद्वेष मोहपरिणतस्य जीवस्येत्थंभूतो बन्धो भवति ततो रागादिरहितशुद्धात्मध्यानेन ते रागद्वेषमोहाः सम्यक् क्षपयितव्या इति तात्पर्यम् ।।४।। ___ उत्थानिका--आगे आचार्य यह घोषणा करते हैं कि इन राग द्वेष मोह को जो संसार के दुखों के कारणरूप कर्मबंध के कारण हैं, निर्मूल करना चाहिए। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] अन्वय सहित विशेषार्थ-(मोहेण व रागेण व दोसेण वा परिणदस्स जीवस्स) मोह राग द्वेष से वर्तने वाले बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि जीव के जो मोहादि-रहित परमात्मा के स्वरूप में परिणमन करने से दूर है (विनिहो बंधो जायदि) नाना प्रकार कर्मों का बंध उत्पन्न होता है अर्थात् शुद्धोपयोग लक्षण को रखने वाला भाव--मोक्ष है, उस भावमोक्ष के बल से जीव के प्रदेशों से कर्मों के प्रदेशों का बिल्कुल अलग हो जाना द्रव्यमोक्ष है, इस प्रकार द्रथ्य, भाष मोक्ष से विलक्षण तथा सर्व तरह से ग्रहण करने योग्य स्वाभाविक सुख से विपरीत जो नरफ आदि का दुःख उसको उदय में लाने वाला कर्म-बंध होता है (तम्हा ते संखवइवव्या) इसलिये जब राग द्वेष मोस वर्तने वाले जीव के इस तरह कर्मबंध होता है, तब रागादि से रहित शुद्ध आत्मा ध्यान बल से इन राग द्वेष मोह का भले प्रकार क्षय करना योग्य है, यह तात्पर्य है ।। अथामी अमीमिलिगरुपलभ्योद्भवन्त एव निशुम्भनीया इति विभावयति-- अछे अजधागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु'। विसएसु य 'पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ॥८॥ अर्थे अयथाग्रहणं करुणाभावश्च तिर्यकमनुजेषु। विषयेषु च प्रसङ्गो मोहस्येतानि लिङ्गानि ||८५॥ भनामयथातथ्यप्रतिपत्त्या तिर्यग्मनुष्येष प्रेक्षा]ष्वपि कारुण्यबुद्धधा च मोहमभीष्टविषयसंगेन रागमनभीष्टविषयाप्रीत्या द्वेषमिति त्रिमिलिङ्गरधिगम्य समिति संभवन्नपि विभूमिकोऽपि मोहो निहन्तव्यः ॥८॥ ____ भूमिका--अब, ये (राग, द्वेप और मोह) इन चिन्हों द्वारा पहिचान कर, उत्पन्न होते ही नष्ट करने योग्य हैं, यह प्रकट करते हैं:-- अन्वयार्थ--[अर्थे अयथाग्रहणं| पदार्थ में अन्यथा ग्रहण (पदार्थों का मिथ्यास्वरूप ग्रहण करना) [च] और [तिर्यड्मनुजेषु करुणाभावः] तियंचों मनुष्यों में करुणाभाव, [विषयेषु प्रसंगः च] तथा विषयों में प्रसंग (इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयों में अप्रीति) [एतानि] ये सब [मोहस्य लिंगानि] मोह के चिन्ह हैं । टीका-पदार्थों की अयथार्थ (मिथ्या) प्रतिपत्ति (जानना श्रद्धान) से तथा जानने देखने योग्य तिर्यञ्चों, मनुष्यों में करुणाबुद्धि से मोह मिथ्यात्व को (जानकर), इष्ट विषयों की प्रीति से राग को और अनिष्ट विषयों की अप्रीति से द्वष को (जानकर) इस प्रकार १. मणुवतिरिएसु (ज. वृ०)। २. विसयेमु (जत यू०) । ३. अप्पसंगो (ज० व०) । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] [ पवयणसारो तीन लिंगों से ( तीन प्रकार के मोह को) पहिचानकर, तत्काल ही उत्पन्न होते ही तीन प्रकार का मोह नष्ट कर देने योग्य है ॥६५॥ तात्पर्यवृत्ति अथ स्वकीयस्वकीयलिङ्ग रागद्वेषमोहान् ज्ञात्वा यथासंभवं त एव विनाशयितव्या इत्युपदिशति- अट्ठे अजधागहणं शुद्धात्मादिपदार्थे यथास्वरूपस्थितेऽपि विपरीताभिनिवेशरूपेणायथाग्रहणं करुणाभावो य शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरमो पेशा संयमाद्विपरीतः करुणाभावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभावः । केषु विषयेषु ? मणुवतिरिएसु मनुष्यतिर्यग्जीवेषु इति दर्शनमोहचिन्हं | बिसयेसु अध्वसंगो निर्विषयसुखास्वादरहित बहिरात्मजीवानां मनोज्ञामनोज्ञविषयेषु च यस प्रकर्षेण सङ्गः संगगंस्तं दृष्ट्वा प्रीत्यप्रीतिलिङ्गाभ्यां चारित्रमोहसंज्ञौ रागद्वेषी च ज्ञायेते विवेकिभिः, ततस्तत्परिज्ञानानन्तरमेव निर्विकारस्वशुद्धात्मभावनया मोहस्सेदक्षणि लिंगाणि रागद्वेषमोहा निहन्तव्या इति सूत्रार्थः ॥ ८५ ॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं कि राग द्वेष मोहों को उनके चिन्हों से पहचानकर यथासम्भव उनका विनाश करना चाहिये । अन्वय सहित विशेषार्थं - ( अट्ठे अजधागहणं ) शुद्ध आत्मा आदि पदार्थों के स्वरूप में उनका जैसा स्वभाव है उस स्वभाव में उनको रहते हुए भी विपरीत अभिप्राय से और का और अन्यथा समझना तथा ( करुणाभावो य मणुवतिरिएस) शुद्धात्मा की प्राप्तिरूप परम उपेक्षा संयम से विपरीत दया का परिणाम अथवा व्यवहारनय की अपेक्षा से तियंञ्च मनुष्यों में दया का अभाव होना दर्शनमोह का चिन्ह है (विसएसु अप्पसंगो) विपय-रहित सुख के स्वाद को न पाने वाले बहिरात्मा जीवों का इष्ट अनिष्ट इन्द्रियों के विषयों में जो अधिक संसर्ग रखना क्योंकि इसको देखकर विवेकी पुरुष प्रीति अप्रीतिरूप चारित्रमोह के राग द्व ेष भेद को जानते हैं, इसलिये (मोहस्राणि लिंगाणि) मोह के ये ही चिन्ह हैं । अर्थात् इन चिन्हों को जानने के पीछे ही विकार - रहित अपने शुद्ध आत्मा की भावना के द्वारा इन राग द्व ेष मोह का घात करना चाहिये, ऐसा सूत्र का अर्थ है ॥८५॥ भावार्थ - यहाँ पर करुणा में जो अध्यवसाय है उसको अथवा करुणा के अभाव को मोह का चिन्ह कहा है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने बोधपाहुड गाथा २५ में 'धम्मो क्याविसुद्ध' शब्दों द्वारा यह कहा है कि धर्म क्या करि विशुद्ध है, भावपाहुड गाथा १३१ में मुनि को जीवों की रक्षा करने का उपदेश दिया है। शीलपाहुड गाथा १६ में जीव दया को जीव का स्वभाव बतलाया है जीवदया दम सच्चे अचोरियं वंभचेर संतोसे । समहंसण णाणं तओ य सोलस्स परिवारो ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ १६३ अर्थात्-जीव दया, वम, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप ये सब शील (जीघ स्वभाव के परिवार हैं। श्री वीरसेनस्वामी ने भी धवल ग्रन्थ में कहा है-"करुणाए कारणं कम्मं करणे त्ति कि ण बुत्तं ? ण करणाए जोषसहावस्स फम्मणिदतबिरोहायो। अकरुणाए कारणं कम्मं वत्तन्वं ? ण एस दोसो, संजमघादि-फम्माणं फलभावेण तिस्से अखभुवगमादो।" शंका-करुणा का कारण भूत करुणा फर्म है, यह क्यों नहीं कहा ? समाधान नहीं, फरणा जीव का स्वभाव है, अतएव उसे कर्म-जनित मानने में विरोध आता है। शंका-तो फिर अकरुणा का कारण कर्म कहना चाहिये ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उसे संयमघातिया कमो के फलरूप से स्वीकार किया गया है। अथ मोहक्षपणोपायान्तरमालोचयति-- जिणसत्थादो अछे पच्चक्खादीहि बुज्झदो णियमा। खोयदि 'मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिवव्वं ॥८६॥ जिनशास्त्रात् अर्थान् प्रत्यक्षादिभिर्बुध्यमानस्यनियमात् । क्षीयन्ते मोहोपचयः सस्मात् शास्त्रं समध्येतव्यम् ।।८५॥ पत्किल द्रव्यगुणपर्यायस्वभावेनाहंतो ज्ञानादात्मनस्तथा ज्ञानं मोहक्षपणोपायत्वेन प्राक प्रतिपक्षम् । तत् खलपायान्तरमिदमपेक्षते । इदं विहितप्रथमभूमिकासंक्रमणस्य सर्वज्ञोपजतया सर्थतोऽप्यबाधितं शाब्बं प्रमाणमाक्रम्य क्रीडतस्तत्संस्कारस्फुटोकृतविशिष्टसंवेदनशक्तिसंपवःसहृदयहृदयानंदोभेददायिना प्रत्यक्षेणान्येन था तदविरोधिना प्रमाणजातेन तत्त्वतः समस्तमपि वस्तुजातं परिच्छिन्दतः क्षीयत एषातत्त्वाभिनिवेशसंस्कारकारी मोहोपचयः। अतो हि मोहक्षपणे परमं शब्दब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भवृद्धीकृतपरिणामेन सम्पगधीयमानमुपायान्तरम् ॥८६॥ भूमिका-अब, मोह के नाश के दूसरे उपाय का विचार करते हैं अन्वयार्थ— [जिनशास्त्रात् ] जिन शास्त्र से (जिनेन्द्र द्वारा प्रणीत) [प्रत्यक्षादिभिः] (तथा) प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से [अर्थान् ] पदार्थों को [बुध्यमानस्य] जानने वाले (पुरुष) १. मोहोवचओ (ज० वृ०)। २. समाहिदब्बं (ज० ७०)। - - - - -- Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ [ पवयणसारो के [नियमात् नियम से [भोहोपचयः] मोह-समूह [क्षीयते] नष्ट हो जाता है। [तस्मात्] इस कारण से [शास्त्र] शास्त्र [समध्येतव्यं] सम्यक् प्रकार से अध्ययन करने योग्य है । टीका-जो द्रध्य-गुण-पर्याय स्वभाव रूप अरहन्त के ज्ञान से आत्मा का वैसा ज्ञान मोह क्षय के उपाय-पने से वास्तव में पहले (अस्सीवी गाथा में) प्रतिपादित किया गया है वह उपाय वास्तव में इस (निम्नलिखित) उपायान्तर को अपेक्षित करता है (उपायान्तर की अपेक्षा रखता है)। (१) प्रथम भूमिका में गमन करने वाले के (२) जो सर्वज्ञ के द्वारा जान कर कहा हुआ होने से सर्व प्रकार से अबाधित है, ऐसे इस शब्द प्रमाण को (द्रव्यश्रुतप्रमाण को) प्राप्त करके क्रीडा करने वाले के, (३) उसके संस्कार से प्रगट हो गई है विशिष्ट संवेदनशक्ति रूप सम्पदा जिसके, (४) सहृदयजनों के हृदय को आनन्द का उभेद देने वाले प्रत्यक्ष प्रमाण से अथवा उससे अविरोधी अन्य प्रमाण समूह से तत्वतः समस्त वस्तु मात्र को जानने वाले के, ऐसे जीव के अतस्व अभिनिवेश के संस्कार को करने वाला मोहोपचय (मोह समूह) क्षय को प्राप्त होता ही है । इस कारण से वास्तव में मोह के क्षय करने में शब्दब्रह्म को उत्कृष्ट उपासना (अर्थात्) भावज्ञान के अवलम्बन द्वारा दृढ किये गये परिणाम से सम्यक् प्रकार अभ्यास करना उपायान्तर है। (अर्थात् जो परिणाम भाव ज्ञान के अवलम्बन से दृढीकृत हो ऐसे परिणाम से द्रव्यश्रुत का अभ्यास करना सी मोह क्षय करने के लिये उपायान्तर है)॥८६॥ तात्पर्यवत्ति अथ द्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानाभावे मोहो भवतीति यदुक्त पूर्वं तदर्थमागमाभ्यासं कारयति, अथवा द्रव्यगुणपर्यायत्वरहत्परिज्ञानादात्मपरिज्ञानं भवतीति यदुक्त, तदात्मपरिज्ञानमिममागमाभ्यासमपेक्षत इति पातनिकायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति,जिणसत्थावो अछे पच्चक्खादोहि बुज्झवो णियमा जिनशास्त्रात्सकाशाच्छुद्धारमादिपदार्थान् प्रत्यक्षादिप्रमाणैर्बुध्यमानस्य जानतो जीवस्य नियमान्निश्चयात् । किं फलं भवति ? खोयवि मोहोवचओ दुरभिनिवेशसंस्कारकारी मोहोपचयः क्षीयते प्रलीयते क्षयं याति । तम्हा सत्थं समाहिदव्यं तस्माच्छास्त्रं सम्यगध्येतव्यं पठनीयमिति । तद्यथा-वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशास्त्रात् “एगो मे सस्सदो अप्पा" इत्यादि परमात्मोपदेशकश्रुतज्ञानेन तावदात्मानं जानीते कश्चिद्भव्यः, तदनन्तरं विशिष्टाभ्यासवशेन परमसमाधिकाले रागादिविकल्परहितमानसप्रत्यक्षेण च तमेवात्मानं परिच्छिनत्ति । तथैवानुमानेन वा, तथाहि-अत्रैव देहे निश्चयनयेन शुद्धबुद्धकस्वभावः परमात्मास्ति । कस्माद्धेतो: ? निर्विकारस्वसंवेदनप्रत्यक्षत्वात् सुखादिवत् इति, तथवान्येपि पदार्था यथासंभवमागमाभ्यासबलोत्पन्न प्रत्यक्षेणानुमानेन वा ज्ञायन्ते । ततो मोक्षार्थिना भव्येनागमाभ्यासः कर्तव्य इति तात्पर्यम् ।।८६।। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवणारी ] O १६५ उत्थानका- आगे यह पहले कह चुके हैं कि द्रव्य, गुण पर्याय का ज्ञान न होने से मोह रहता है इसलिये अब आचार्य आगम के अभ्यास की प्रेरणा करते हैं अथवा यह पहले कहा था कि द्रव्यपने, गुणपने व पर्यायपने के द्वारा अरहंत भगवान् का स्वरूप जानने से आत्मा का ज्ञान होता है । ऐस आत्मशान के लिये आगम के अभ्यास की अपेक्षा है । इस प्रकार दोनों पातनिकाओं को मन में रखकर आचार्य सूत्र कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जिणसत्थादो ) जिन शास्त्र की निकटता से ( अट्ठे ) शुद्ध आत्मा आदि पदार्थों को ( पच्चक्खाबीहिं) प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के द्वारा (बुज्झदो ) जानने वाले जीव के (णियमा ) नियम से ( मोहोयचओ) मिथ्या अभिप्राय के संस्कार को करने वाला मोहकर्म का समूह ( खीर्यादि) क्षय हो जाता है ( तम्हा) इसलिये ( सत्थं समादिव्वं ) शास्त्र को अच्छी तरह पढ़ना चाहिये । विशेष यह है कि कोई भव्य जीव वीतराग सर्वज्ञ से कहे हुए शास्त्र से “एगो मे सरसवो अप्पा" इत्यादि परमात्मा के उपदेशक श्रुतज्ञान के द्वारा प्रथम ही अपने आत्मा के स्वरूप को जानता है, फिर विशेष अभ्यास के वश से परमसमाधि के काल में रागादि विकल्पों से रहित मानस प्रत्यक्ष से उस ही आत्मा का अनुभव करता है। तंसे ही अनुमान से भी निश्चय करता है । जैसे इस हो देह में निश्चयनय से शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप परमात्मा है क्योंकि विकार रहित स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से यह इस ही तरह जाना जाता है, जिस तरह सुख दुःख आदि । तैसे ही अन्य भी पदार्थ यथासम्भव आगम से उत्पन्न प्रत्यक्ष सेवा अनुमान से जाने जा सकते हैं। इसलिये मोक्ष के अर्थी पुरुष को आगम का अभ्यास करना चाहिये, यह तात्पर्य है ॥ ८६ ॥ भावार्थ -- जिनवाणी में प्रसिद्ध चारों ही अनुयोगों का कथन हर एक मुमुक्षु को जानना चाहिये। जितना अधिक शास्त्रज्ञान होगा उतना अधिक स्पष्ट ज्ञान होगा। जितना स्पष्ट ज्ञान होगा उतना ही निर्मल मनन होगा । प्रथमानुयोग में पूज्य पुरुषों के जीवन चरित्र उदाहरण रूप से कर्मों के प्रपंत्र को व संसार या मोक्षमार्ग को दिखलाते हैं। कारणानुयोग में जीवों के भावों के वर्तन की अवस्थाओं को व कर्मों की रचना को व लोक के स्वरूप को इत्यादि तारतम्य कथन को किया गया है। चरणानुयोग में मुनि तथा व्यवहारचारित्र पर आरूढ़ किया गया है । आत्म-द्रव्य के मनन, चिंतन व ध्यान का दर्शाया गया है। इन चारों ही प्रकार के aran के चारित्र के भेदों को बताकर व्यानुयोग में छः द्रव्यों का स्वरूप बताकर उपाय बताकर निश्चय रत्नत्रय के पथ को Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] [ पवयणसारो सैकड़ों ग्रन्थ जिनवाणी में हैं - इनका अभ्यास सदा हो उपयोगी है । सम्यक्त्व होने के पीछे सम्यक्चारित्र को पूर्णता व सम्यग्ज्ञान की पूर्णता के लिये भी जिनवाणी का अभ्यास कार्यकारी है । इस पंचम काल में तो इसका आलम्बन हर एक मुमुक्षु के लिये बहुत ही आवश्यक है क्योंकि यथार्थ उपदेष्टाओं का सम्बन्ध बहुत दुर्लभ है। जिनवाणी के पढ़ते रहने से एक मूढ मनुष्य भी ज्ञानी हो जाता है। आम हित के लिये यह अभ्यास परम उपयोगी है । स्वाध्याय के द्वारा आत्मा में ज्ञान प्रगट होता है, कषायभाव घटता है संसार से ममत्व हटता है, मोक्ष भाव से प्रेम जगता है। इसी के निरन्तर अभ्यास से मिथ्यात्वकर्म और अनंतानुबन्धी कषाय का उपशम हो जाता है और सम्यग्दर्शन पैदा हो जाता है । श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने श्री समयसार कलश में कहा है उपनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदके जिनचर्चासि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परंज्योतिरुच्चै रनवमनयपक्षाक्षुण्णमोक्षन्त एव ॥ अर्थ -- निश्चयनय और व्यवहारनय के विरोध को मेटने वाली स्याद्वाद से लक्षित जिनवाणी में जो रमते हैं वे स्वयं मोह को वमन कर शीघ्र ही परमज्ञान ज्योतिमय शुद्धात्मा को, जो नया नहीं है और न किसी नय के पक्ष से खंडन किया जा सकता हैं, देखते ही हैं । स्वाध्याय श्रावकधर्म और मुनिधर्म के लिये उपकारी है। मन को अपने अधीन रखने में सहायक है ॥ ८६ ॥ अथ कथं जनेन्द्र शब्दब्रह्मणि किलार्थानां व्यवस्थितिरिति वितर्कयति - दव्वाणि गुणा तेसि पज्जाया अट्ठसण्णया भणिदा' । तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व त्ति उवदेसो ॥ ८७ ॥ द्रव्याणि गुणास्तेषां पर्यायाअर्थसंज्ञया भणिताः । तेषु गुणपर्यायाणामात्मा द्रव्यमित्युपदेशः ॥८७॥ द्रव्याणि च गुणाश्च पर्यायाश्च अभिधेयभेदेऽप्यभिधानाभेदेन अर्थाः, तत्र गुणपर्यायानिर्यात गुणपर्यायैरन्त इति वा अर्थाः द्रव्याणि द्रव्याण्याश्रयत्वेनेति द्रव्यंराश्रयभूतैरर्यन्त इति वा अर्था गुणाः द्रव्याणि क्रमपरिणामेनेर्यात द्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्थन्त इति वा अर्थाः पर्यायाः । यथा हि सुवर्ण पीततादीन् गुणान् कुण्डलादींश्च पर्यायानिर्यात तैरर्यमाणं वा अर्थो द्रव्यस्थानीयं यथा च सुवर्णमाश्रयत्वेनेयति तेनाश्रयभूतेनार्यमाणा वा अर्थाः पीततादयो गुणाः, यथा च सुवणं क्रमपरिणामेनेयति तेन क्रमपरिणामेनार्यमाणा वा अर्थाः १. भणिया (ज० वृ० ) । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो ] [ १६७ कुण्डलादयः पर्यायाः । एवमन्यत्रापि । यथा चैतेषु सुवर्णपोतताविपुणकुण्डलादिपर्यायेषु पीतताविगुणकुण्डलादिपर्यायाणां सुवर्णादपधम्मावात्सुवर्णमेवथात्मा तथा च तेषु द्रव्यगुणपर्यायेषु गुणपर्यायाणां द्रव्यादपृथग्भावाद्रव्यमेयात्मा ॥७॥ __ भूमिका----अब, जिनेन्द्र के शब्दब्रह्म में पदार्यों को व्यवस्था (स्थिति) किस प्रकार है, सो विचार करते हैं, अन्वयार्थ-[द्रव्याणि] द्रव्य [गुणाः] गुण [तेषां पर्यायाः] और उन द्रव्यों और गुणों की पर्यायें [अर्थसंज्ञया] अर्थ नाम से [भणिताः] कहे गये हैं। उनमें [गुणपर्यायाणां आत्मा द्रव्यं] गुण पर्यायों का आत्मा [तदात्मरूप आधार] द्रव्य है [इति उपदेशः] ऐसा उपदेश है। टीका—द्रव्य, गुण और पर्याय, अभिधेयभेद होने पर भी अभिधान का अभेद होने से, 'अर्थ' हैं [अर्थात् द्रव्य, गुण, पर्यायों में वाच्य का भेद होने पर भी वाचक में भेद न रखें तो 'अर्थ' ऐसे एक ही वाचक (शब्द) से ये तीनों कहे जाते हैं ।] उनमें (उन द्रव्य, गुण और पर्यायों में), जो गणों को और पर्यायों को प्राप्त करते हैं अथवा जो गुणों पर्यायों को प्राप्त करते हैं अथवा जो गुणों और पर्यायों को प्राप्त करते हैं अथवा जो गुणों और पर्यायों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं, ऐसे 'अर्थ' द्रव्य हैं। जो द्रव्यों को आश्रय-पने से प्राप्त करते हैं अथवा जो आश्रय भूत द्रव्यों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं, 'अर्थ' गुण हैं। जो द्रव्यों को क्रमपरिणाम से प्राप्त करते हैं, अथवा जो द्रव्यों के द्वारा क्रमपरिणाम से प्राप्त किये जाते हैं, ऐसे 'अर्थ' पर्याय हैं। जैसे वास्तव में जो (सुवर्ण) पीलापन इत्यादि गुणों को और कुण्डल इत्यादि पर्यायों को प्राप्त करता है अथवा उनके द्वारा प्राप्त किया जाता है वह स्वर्ण पदार्थ द्रव्य के स्थान पर है। जैसे (जो) सुवर्ण को आश्रय-पने से प्राप्त करते हैं, अथवा आश्रयभूत सुवर्ण के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं वे पदार्थ पीलापन आदि गुण हैं और जैसे (जो) सुवर्ण को कम-परिणाम से प्राप्त करती हैं अथवा सुर्वण के द्वारा उस क्रम परिणाम से प्राप्त की जाती हैं वे पदार्थ कुण्डल आदि पर्यायें हैं। इसी प्रकार अन्यत्र भी है (इस दष्टान्त की भांति सर्व द्रव्य, गुण, पर्यायों में भी समझना चाहिये)। और जैसे उन सुवर्ण, पीलापन इत्यादि गुण और कुण्डल इत्यादि पर्यायों में पीलापन आदि गुण और कुण्डल इत्यादि पर्यायों के सुवर्ण से अपृथक्पना होने से, सुवर्ण हो आत्मा है, उसी प्रकार उन द्रव्य गुण पर्यायों में, गुण-पर्यायों का आत्मा, द्रव्य से अपथकपना होने से, द्रव्य ही है ॥७॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] तात्पर्यवृति अथ द्रव्यगुणागार्थसंशयं कथयति serf गुणा तेपिज्जाया अठ्ठसण्णया भणिया द्रव्याणि गुणास्तेषां द्रव्याणां पर्यायाश्च त्रयोऽत्यर्थ संज्ञया भणिताः कथिता अर्थसंज्ञा भवन्तीत्यर्थः । तेसु तेषु त्रिषु द्रव्यगुणपर्यायेषु मध्ये गुणपज्जाणं अवगुणपर्यायाणां संबन्धी आत्मा स्वभावः । कः इति पृष्टे ? व्यत्ति उवदेसो द्रव्यमेव स्वभाव इत्युपदेशः, अथवा द्रव्यस्य कः स्वभाव ? इति पृष्टे गुणपर्यायानामात्मा एव स्वभाव इति । अथ विस्तरः - अनन्तज्ञानसुखादिगुणान् तथैवामूर्तत्वातीन्द्रियत्व सिद्धत्वादिपर्यायांश्च इयति गच्छति परिणमत्याश्रयति येन कारणेन तस्मादर्थो भण्यते । किं ? शुद्धात्मद्रव्यम् । तच्छुद्धात्मद्रव्यमाधारभूतमियत गच्छन्ति परिणमन्त्याश्रयन्ति येन कारणेन ततोर्था भण्यन्ते । ते ? ज्ञानत्वसिद्धत्वादिगुणपर्याया: । ज्ञानत्वसिद्धत्वादिगुणपर्यायाणामात्मा स्वभावः । क इति पृष्टे शुद्धात्मद्रव्यमेव स्वभावः अथवा शुद्धात्मद्रव्यस्य कः स्वभाव इति पृष्टे पूर्वोक्तगुणपर्याया एवं एवं शेषद्रव्यगुणपर्यायाणामप्यर्थसंज्ञा बोद्धव्येत्यर्थः ॥ ८७॥ I उत्थानिका— आगे द्रव्य, गुण पर्यायों की अर्थसंज्ञा को, कहते हैं - [ पवयणसारो T अन्वय सहित विशेषार्थ - ( दग्धाणि) द्रव्य, ( गुणा ) उनके सहभावी गुण व (तेसि पज्जाया) उन द्रव्यों की पर्यायें ये तीनों ही (अट्ठसण्णया) अर्थ के नाम से ( भणिया ) कहे गए हैं। अर्थात् तीनों को ही अर्थ कहते हैं । (ते) इन तीन द्रव्य गुण पर्यायों में से ( गुणपज्जयाणं अप्पा) अपने गुण और पर्यायों का सम्बन्धी स्वभाव (दव्य त्ति) द्रव्य है, ऐसा उपदेश है । अथवा यह प्रश्न होने पर कि द्रव्य का क्या स्वभाव है ? यही उत्तर होगा कि जो गुण पर्यायों का आत्मा या आधार है, वही द्रव्य है, यही गुण पर्यायों का निजभाव है । विस्तार यह है कि जिस कारण से शुद्धात्मा अनन्तज्ञान, अनन्तसुख आदि गुणों को तैसे ही अमूर्तिकपना, अतीन्द्रियपना, सिद्धपना आदि पर्यायों को इयत अर्थात् परिणमन करती है व आश्रय करती है इसलिये शुद्धात्मा द्रव्य अर्थ कही जाती है। जैसे ही जिस कारण से ज्ञानपना गुण और सिद्धपना आदि पर्यायें अपने आधारभूत शुद्धात्मा द्रव्य को इर्यात अर्थात् परिणमन करती है-आश्रय करती है, इसलिये वे ज्ञानगुण व सिद्धत्व आदि पर्यायें भी अर्थ कही जाती हैं। ज्ञानपना गुण और सिद्धपना आदि पर्यायों का जो कुछ सर्वस्व है वही उनका निजभावस्व भाव है और वह शुद्धात्मा द्रव्य ही स्वभाव है । अथवा यह प्रश्न किया जाय कि शुद्धात्मा द्रव्य का क्या स्वभाव है तो कहना होगा कि पूर्व में कही हुई गुण और पर्यायें हैं। जिस तरह आत्मा की अर्थ संज्ञा जानना, उसी तरह द्रव्यों की व उनके गुण पर्यायों की अर्थ संज्ञा है, ऐसा जानना चाहिये ॥७॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] अर्थवं मोहक्षपणोपायभूतजिनेश्वरोपदेशलाभेऽपि पुरुषकारोऽर्थक्रियाकारीति पौरुषं व्यापारयति जो मोहरागदोसे णिहदि उबलम्भ' जोण्हमुवदेसं । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥८॥ यो मोहरागद्वेषानिहन्ति उपलभ्य जैनमुपदेशम् । ___सः सर्वदुःखमोक्ष प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ।।८।। इह हि वाघीयसि सदाजवंजधपथे कथमप्यमुं समुपलभ्यापि जैनेश्वरं निशिततरवारिधारापथस्थानीयमुपदेशं य एव मोहरागद्वेषाणामुपरि दृढतरं निपातयति स एव निखिलदुःखपरिमोक्षं क्षिप्रमेवाप्नोति, नापरो व्यापारः करवालपाणिरिव । अत एव सर्वारम्भेण मोहक्षपणाय पुरुषकारे निषोदामि ॥१८॥ भूमिका-अब, इस प्रकार मोह क्षय के उपायभूत जिनेश्वर के उपदेश की प्राप्ति होने पर भी पुरुषार्थ अर्थ-क्रियाकारी (प्रयोजन-भूत क्रिया का करने वाला) है, इसलिये पुरुषार्थ करते हैं ___अन्वयार्थ-[यः] जो [जैनं उपदेशं] जिनेन्द्र के उपदेश को [उपलभ्य ] प्राप्त करके [मोहरागद्वेषान्] मोह, राग, द्वेष को | निहंति ] हनता है [नाश करता है | (स | वह [अचिरेण कालेन] अल्पकाल में [सर्वदुःखमोक्षं] सब दुःखों से छुटकारे को [प्राप्नोति] पाता है। टीका-वास्तव में इस अति-दीर्घ संसार मार्ग में किसी भी प्रकार से जिनेन्द्रदेव के इस तीक्ष्ण असिधारा (तलवार की धार) समान उपदेश को प्राप्त करके भी, जो कोई मोह राग द्वेष के ऊपर अतिवृढता-पूर्वक हाथ में तलवार लिये हुए (पुरुष) की भांति प्रहार करता है वही सब दुःखों से छुटकारे को शीघ्र ही प्राप्त होता है। अन्य (कोई) ज्यापार (प्रयत्न-क्रिया) समस्त दुःखों से परिमुक्त नहीं करता (जसे मनुष्य के हाथ में तीक्ष्ण तलवार होने पर भी वह शत्रुओं पर अत्यन्त वेग से उसका प्रहार करे तो ही वह शत्रु-सम्बन्धी दुःख से मुक्त होता है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार इस अनादि संसार में महा भाग्य से जिनेश्वर देव के उपदेश रूपी तीक्षण तलवार को प्राप्त करके भी जो जीव मोह रागद्वेष रूपी शत्रुओं पर अति दृढता-पूर्वक उसका प्रहार करता है, वही सर्व दुःखों से मुक्त होता है-अन्यथा नहीं)। इसलिये सम्पूर्ण प्रयत्न से मोह का क्षय करने के लिये मैं पुरुषार्थ में स्थित होता हूँ ॥८॥ १. उघलद्ध (ज० दृ०) । २. पावइ (ज. वृत)। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० [ पवयणसारो सात्वर्यवृत्ति अथ दुर्लभजनोपदेशं लब्ध्वापि य एव मोहरागद्वेषान्निहन्ति स एवाशेषदुःखक्षयं प्राप्नो तीरया वेदयति जो मोहरागोसे जिहणदि य एव मोहरागद्वेषात्रि हन्ति । किं कृत्वा ? उचलद्ध उपलभ्य प्राप्य । कम् ? जोहमुबदेसं जैनोपदेशं, सो सम्वदुक्ख मोषखं पावाइ स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोति । केन ? अचिरेण कालेन स्तोककालेनेति । तद्यया - एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियादिदुर्लभपरम्परया जैनोपदेशं प्राप्य मोहरापद्वेषविलक्षणं निजशुद्धात्मनिश्चलानुभूतिलक्षणं निश्चयसम्यक्त्वज्ञानद्वयाविनाभूतं वीतरागचारित्रसंज्ञं निशितखड्गं य एव मोहरागद्वेषशत्रूणामुपरि दृढतरं पातयति स एव पारमार्थिकाना कुलत्वलक्षणसुखविलक्षणानां दुःखानां क्षयं करोतीत्यर्थः ॥८८॥ एवं द्रव्यगुणविषये मूढत्वनिराकरणार्थ गाथाषट्केन तृतीयज्ञानकण्ठिका गता । उत्थानिका- आगे यह प्रगट करते हैं कि इस दुर्लभ जैन के उपदेश को प्राप्त करके जो भी कोई मोह रागद्वेषों को नाश करते हैं, वे ही सर्व दुःखों का क्षय करके निज स्वभाव प्राप्त करते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जो ) जो कोई भव्य जीव ( जोन्हमुवदर्स उवलच ) जैन के उपदेश को पाकर (मोहरागदोसे पिहणदि) मोह रागद्वेष को नाश करता है (सो) वह (अचिरेण कालेन ) अल्पकाल में ही (सन्यदुखमोक्खं पावइ) सर्व दुःखों से छूट जाता है । विषय यह है कि ओ कोई भव्य जीव एकेन्द्रिय से विकलेन्द्रिय, फिर पंचेन्द्रिय फिर मनुष्य होना इत्यादि दुर्भभपने की परम्परा को समझकर अत्यन्त कठिनता से प्राप्त होने वाले जैन तत्व के उपदेश को पाकर मोह रागद्वेष से विलक्षण अपने शुद्धात्मा के निश्चल अनुभव रूप निश्चयसम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से अविनाभूत वीतरागचारित्ररूपी तीक्ष्ण खड्ग को मोह रागद्वेष शत्रुओं के ऊपर पटकता है यह ही वीर पुरुष परमार्थ रूप अनाकुलता लक्षण को रखने वाले सुख से विलक्षण सब दुःखों का क्षय कर देता है यह अर्थ है || भावार्थ - - आचार्य ने इस गाथा में चारित्र पालने की प्रेरणा की है। तथा वृत्तिकार के भावानुसार यह बात समझनी चाहिये कि मनुष्य जन्म का पाना हो अति कठिन है । निगोद एकेन्द्रिय से उन्नति करते हुए पंचेन्द्रिय शरीर में आना बड़ा दुर्लभ है । मनुष्य होकर भी जिनेन्द्र भगवान् का सार उपदेश मिलना दुर्लभ है। यदि कोई शास्त्रों का मनन करेगा और गुरु से समझेगा तथा अनुभव में समझ पड़ेगा । भगवान् का उपदेश आत्मा लायेगा तो उसे निज भगवान् का उपदेश के शत्रुओं के नाश के लिये निश्चयरत्नत्रय Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्ष्यणसारो 1 [ २०१ रूप स्वात्मानुभव है। इसी के द्वारा रागद्वेष मोह का नाश हो सकता है। सिवाय इस खड्ग के और किसी में बल नहीं है जो इन अनादि से लगे हुए आत्मा के वैरियों का नाश कर सके । जो कोई इस उपदेश को समझ भी लेवे परन्तु पुरुषार्थ करके स्वात्मानुभव न करे तो वह कभी भी दुःखों से छूटकर मुक्त नहीं हो सकता। जंसा यहां आचार्य ने कहा है, वैसा ही श्री समयसार जी में आपने इन रागद्वेष मोह के नाश का उपाय इस गाथा से सूचित किया है जो आवभावणमिणं णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि। ___सो सम्बदुक्खमोक्खं पाववि अचिरेण कालेज ॥ अर्थ--जो कोई मुनि नित्य उद्यमवंत होकर निज आत्मा को भावना को आचरण करता है, वह शीघ्र ही सर्व दुःखों से छूट जाता है ।।८८॥ ___ इस तरह द्रव्य, गुण, पर्याय के सम्बन्ध में मूढता को दूर करने के लिये छह गाथाओं से तीसरी जानकंठिका पूर्ण हुई। अथ स्वपरविवेकसिद्धेरेव मोहक्षपणं भवतीति स्वपरविभागसिद्धये प्रयतते णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं । जाणदि जदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि ॥८६॥ ज्ञानात्मकमात्मानं परं च द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् । जानाति यदि निश्चयतो यः सो मोहक्षयं करोति ।।८।। य एवं स्वकीयेन चैतन्यात्मकेन द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धमात्मानं परं च परकीयेन यथोचितेन प्रव्यत्वेनाभिसम्बयमेव निश्चयतः परिच्छिनत्ति, स एव सम्यगवाप्तस्वपरविवेकः सकलं मोहं क्षपयति । भतः स्वपरविवेकाय प्रयतोऽस्मि ॥८॥ भूमिका-अब, स्व-परके विवेक की (भेदज्ञान की) सिद्धि से ही मोह का क्षय हो सकता है । इसलिये स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये प्रयत्न करते हैं ___ अम्बयार्थ-यः] जो [ज्ञानात्मक आत्मानं] ज्ञानमयी (ज्ञान-स्वरूप) अपने को [च] और [परं] पर को [द्रव्यत्वेन अभिसम्बद्धं] (निज निज) द्रश्यत्व से सम्बद्ध [निश्चयतः] निश्चय से (जानाति) जानता है [सः] वह [मोहक्षयं करोति मोह के क्षय को करता है। टीका-जो स्वकीय (अपने) चैतन्यात्मक द्रव्यत्व से भले प्रकार संबद्ध (संयुक्त) अपने को और परको परकीय (दूसरे के) यथोचित व्यत्व से भले प्रकार सम्बद्ध Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] [ पक्ष्यणसारो ही निश्चय से जानता है, स्व-परके विवेक को प्राप्त वह ही सम्पूर्ण मोहको नष्ट करता है। इस कारण से स्व-परके विवेक के लिये मैं नशील हूं । तात्पर्यवृत्ति अथ स्वपरास्मयोर्भेदज्ञानात् मोहक्षयो भवतीति प्रज्ञापयति णाणपगमप्पाणं परं च दक्षतणाहितबद्धं जाणविजवि ज्ञानात्मकमात्मानं जानाति यदि । कथंभूतं ? स्वकोयशुद्धचैतन्यद्रध्यत्वेनाभिसंबद्धं, न केवलमात्मानं । परं च यथोचित चेतनाचेतनपरकीयद्रव्यत्वेनाभिसंबद्ध। कस्मात् ? णिच्छयवो निश्चयत: निश्चयनयानुकुलं भेदज्ञानमाश्रित्य । जो यः कर्ता सो सः मोहक्खयं कुणदि निर्मोहपरमानन्दकस्वभाव-शुद्धात्मनो विपरीतस्य मोहस्य क्षयं करोतीति सूत्रार्थः ।। उत्थानिका-आगे सूचित करते हैं कि अपने आत्मा और पर के भेद-विज्ञान से मोह का क्षय होता है __अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई (णिच्छयदो) निश्चयनय के द्वारा भेदज्ञान को आश्रय करके (जदि) यदि (णाणप्पगप्मपाणं परं च दन्वत्तणाहिसंबद्धं जाणदि) अपने ज्ञान-स्वरूप आत्मा को अपने ही शुद्ध चैतन्य प्रध्य से सम्बन्धित तथा अन्य चेतन अचेतन पदार्थों को यथायोग्य अपने से भिन्न चेतन अचेतन द्रव्य से सम्बन्धित जानता है या अनुभव करता है (सो मोहक्खयं कुणदि) वही मोह-रहित परमानन्दमयी एक स्वभावरूप शुद्धात्मा से विपरीत मोह का क्षय करता है ।।८६॥ अथ सर्वथा स्वपर विवेकसिद्धिरागमतो विधातव्येत्युपसंहरति तम्हा जिणमग्गादो गुहं आदं परं च दन्वेसु । अभिगच्छदु' इच्छादि णिम्मोहं जवि अप्पणो अप्पा ॥६॥ तस्माज्जिनमार्गात् गुणरात्मानं परं च द्रव्येषु । भभिगच्छतु निर्मोहमिच्छति यद्यात्मन आत्मा 1६०॥ इह खल्वागमनिगदितेष्वनन्तेषु गुणेषु कैश्चिद्गुणरन्ययोगव्यवच्छेदकतया साधारणतामुपादाय विशेषणतामुपगतैरनन्तायां प्रव्यसंतती स्वपरविवेकमुपगच्छन्तु मोहप्रहाणप्रवणबुद्धयो लब्ध्रवर्णाः तथाहि-यविदं सबकारणतया, स्वतः सिद्धमन्तर्बहिर्मुखप्रकाशशालितया स्वपरपरिच्छेदकं मदीयं मम नाम चैतन्यमहमनेन तेन समानजातीयमसमानजातीयं वा द्रव्यमन्यदपहाय ममात्मन्येव वर्तमानेनात्मीयमात्मानं सकलत्रिकालकलितोयं द्रव्य जानामि । एवं पृथक्त्ववृत्तस्वलक्षणक्ष्यमन्यदपहाय तस्मिन्नेव च वर्तमानैः सकलत्रिकालकलितोयं द्रध्यमाकाशं धर्ममधर्म कालं पुदगलमात्मान्तरं च निश्चिनोमि । सतो नाह १. अहिगमछद (ज० वृ०)। २. इनछादि (ज० य०) । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २०३ माकाशं न धर्मो ना धर्मो न च कालो न पुद्गलो नात्मान्तरं च भवामि, यतोऽमीवेकापवरकप्रबोधितानेकदीपप्रकाशेविव, संभूयावस्थितध्यपि मच्चतन्यं स्वरूपावप्रच्युतमेव मां पृयगवगमयति । एवमस्य निश्चितस्वपर विवेकस्यात्मनो न खलु विकारकारिणो मोहाङ्कुरस्य प्रादुर्भूतिः स्यात् ॥६॥ भूमिका—अब, सब प्रकार से स्व-परके विवेक की सिद्धि आगम से करने योग्य है, इस प्रकार उपसंहार करते हैं अन्वयार्थ—[तस्मात् ] इस कारण से (क्योंकि स्व-पर के विवेक द्वारा मोह का नाश हो सकता है इस कारण से) [यदि] जो [आत्मा] आत्मा [आत्मनः] अपनी [निर्मोहे] निर्मोहता [पृच्छति ] चाहता है तो [जिनमार्गात् ] जिन मार्ग से (जिन आगम से) [नो] (छह, द्रों में गुणैः] (जि.) गुणों के द्वारा [आत्मानं परं च] स्व और पर को [अभिगच्छतु] जानो। ___टीका-मोहका क्षय करने के प्रति अभिमुख बुध-जन इस जगत् में निश्चय से आगम में कथित अनन्त गुणों में से किन्हीं गुणों के द्वारा-जो गुण अन्य (द्रव्य) के साथ योग (सम्बन्ध) रहित होने से असाधारणता को धारण करके विशेषत्व को प्राप्त हुए हैं, उनके द्वारा-अनन्त द्रव्य-परम्परा में स्व-परके विवेक को प्राप्त करो (मोह का क्षय करने के इच्छुक पडित जन आगम-कथित अनन्त गुणों में असाधारण लक्षणभूत गुणों के द्वारा अनन्त द्रव्य-परम्परा में 'यह स्व-द्रध्य है और यह पर द्रव्य है" ऐसा विवेक करो), जो कि इस प्रकार है--- सत् और अकारण होने से स्वतःसिद्ध, अन्तर्मुख और बहिर्मुख प्रकाशवाला होने से स्व पर का ज्ञायक, ऐसा जो यह मेरे साथ संबन्ध वाला मेरा चैतन्य है तथा जो (चैतन्य) समान-जातीय अथवा असमान-जातीय अन्य द्रव्य को छोड़कर मेरे आत्मा में ही वर्तता है, उस (चैतन्य) के द्वारा मैं अपने आत्मा को सकल त्रिकाल में ध्रुवत्व का धारक द्रव्य जामता है, इस प्रकार पृथक् रूप से वर्तने वाले स्वलक्षणों के द्वारा जो अन्य द्रव्य को छोड़कर उसी द्रब्य में वर्तते हैं उनके द्वारा-आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुदगल और अन्य आत्मा को सकल त्रिकाल में ध्रुवत्व-धारक द्रव्य के रूप में निश्चित करता हूँ (जैसे चैतन्य लक्षण के द्वारा आत्मा को ध्रुव द्रव्य के रूप में जाना, उसी प्रकार अवगाहहेतुत्व, गतिहेतुत्व, इत्यादि लक्षणों से जो कि स्वलक्षणभूत द्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में नहीं पाये माते उनके द्वारा-आकाश धर्मास्तिकाय इत्यादि को भिन्न-भिन्न ध्रय द्रव्यों के रूप में Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] [ पवयणसारो जानता हूँ) । इसलिये न मैं आकाश हूँ, न धर्म हूँ, न अधर्म हूँ, न काल हूँ, न पुद्गल हूँ और न आत्मान्तर ( अन्य आत्मा) हूँ, क्योंकि मकान के एक ही कमरे में जलाये गये अनेक दीपकों के प्रकाशों की भांति इकट्ठे ( एक क्षेत्रावगाही ) रहने वाले बच्चों में भी मेरा चैतन्य, निजस्वरूप से अच्युत ही रहता हुआ, मुझको पृथक् जनाता ( प्रगट करता ) है । इस प्रकार निश्चित किया है स्वपर का विवेक जिसने ऐसे इस आत्मा के वास्तव में विकार को उत्पन्न करने वाले मोहांकुर का प्रादुर्भाव नहीं होता ॥ ६० ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्व सूत्रे यदुक्तं स्वपरभेदविज्ञानं तदागमतः सिद्धयतीति प्रतिपादयति तम्हा जिणगावो यस्मादेवं भणितं पूर्वं स्वपरभेदविज्ञानाद् मोहक्षयो भवति, तस्मात्कारणाज्जिनमार्गाज्जिनागमात् गुणेह गुणैः आवं आत्मानं न केवलमात्मानं परं च परद्रव्यं च । केषु मध्ये ? सु शुद्धात्मादिषद्रव्यमध्येषु अहिगच्छतु अभिगच्छतु आनातु यदि । किं ? णिम्मोहं इच्चदि जनि निर्मोहभावमिच्छति यदिचेत् । स क: ? अप्पा आत्मा । कस्य संबन्धित्वेन ? अपणो आत्मन इति । I तथाहि यदिदं मम चैतन्यं स्वपरप्रकाशकं तेनाहं कर्ता शुद्धज्ञानदर्शनभावं स्वकीयमात्मानं जानामि, परं च पुद्गलादिपञ्चद्रव्य रूपं शेष जीवान्तरं च पररूपेण जानामि, ततः कारणादेकापचरकप्रबोधितानेकप्रदीपप्रकाशेष्वेव संभूयावस्थितेष्वपि सर्वद्रव्येषु मम सहजशुद्धचिदानन्देकस्वभावस्य केनापि सह मोहो नास्तीत्यभिप्रायः ॥ ६० ॥ एवं स्वपरपरिज्ञानविषये मूढत्वनिरासार्थं गाथाद्वयेन चतुर्थज्ञानकण्ठिका गता । इति पञ्चविशतिगाथाभिर्ज्ञानकण्ठिकाचतुष्टयाभिधानो द्वितीयोऽधिकारः समाप्तः । उत्थानिका -- आगे पूर्व सूत्र में जिस स्व-पर के भेद - विज्ञान की बात कही है, वह भेद - विज्ञान जिन आगम के द्वारा सिद्ध हो सकता है, ऐसा कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तम्हा ) क्योंकि पहले यह कह चुके हैं कि स्व पर के भेद-विज्ञान से मोह का क्षय होता है इसलिये ( जिणमगादो) जिन - आगम ( बब्सु ) शुद्धात्मा आदि छः द्रव्यों के मध्य में से ( गुणैः) उनके उन गुणों के द्वारा ( आदं परं च आत्मा को और परवव्य को (अहिगच्छक) जाने, (जदि ) यदि (अप्पा) आत्मा (अप्पणी ) अपने भीतर ( जिम्मोह) मोह-रहित भाव को ( इच्चदि ) चाहता है। विशेष यह है कि जो यह मेरा चैतन्यभाव अपने को और पर को प्रकाशमान करने वाला है उसी करके में शुद्ध ज्ञानदर्शन भाव को अपना आत्मा रूप जानता है तथा पर जो पुद्गल आदि पांच द्रव्य हैं तथा अपने जीव के सिवाय अन्य सर्व जीव हैं, उन सबको पररूप से जानता हूँ । इस कारण से जंसे एक घर में जलते हुए अनेक दोषकों का प्रकाश है किन्तु सबका प्रकाश अलग-अलग है । इस ही तरह सर्व द्रव्यों के भीतर में मेरा Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०५ वयनसारो ] सहज शुद्ध विवानन्दमय एक स्वभाव अलग है उसका किसी के साथ मोह नहीं है, यह अभिप्राय है ॥६०॥ इस तरह स्व-पर के ज्ञान में मूढता को हटाते हुए दो गाथाओं के द्वारा चौभी ज्ञानकठिका पूर्ण हुई । इस तरह पच्चीस गाथाओं के द्वारा ज्ञानकंठिका का चतुष्टय नाम का दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ । अथ जिनोविता श्रज्ञानमन्तरेण धर्मलाभो न भवतीति प्रतर्कयति - सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो सद्दहदि ण सो समणो तत्तो हि णेव सामण्णे । धम्मो ण संभवदि ॥ ६१ ॥ सत्तासम्बद्धानेतान् सविशेषान् यो हि नैव श्रामण्ये | श्रद्धघाति न सः श्रमणः ततो धर्मो न संभवति ॥ ६१ ॥ यो हि नामतानि सादृश्यास्तित्वेन सामान्यमनुव्रजन्त्यपि स्वरूपास्तित्वेनाश्लिष्टविशेषाणि द्रव्याणि स्वपरावच्छेदेनापरिच्छन्दन्न श्रद्दधानो वा एवमेव श्रामण्येनात्मानं दमयति सलुन नाम श्रमणः । यतस्ततोऽपरिच्छिन्नरेणुकनककणिका विशेषाद्ध विधान कात्कनकलाम इव निरपरागात्मतस्योपलम्भलक्षणो धर्मोपलम्भो न संभूतिमनुभवति ॥ ६१ ॥ भूमिका – अब, जिनेन्द्र के कहे हुए पदार्थो के श्रद्धान बिना धर्म लाभ नहीं होता, यह न्यायपूर्वक विचार करते हैं अन्वयार्थ – [ यः श्रामण्ये ] जो श्रमण अवस्था में [ एतान् सत्तासंबद्धान् सविशेयान् ] इन सत्ता - संयुक्त सविशेष पदार्थों को [न एव श्रद्दधाति ] श्रद्धान नहीं करता [सः ] वह [ श्रमणः न ] श्रमण नहीं है [ ततः ] उस ( श्रमणाभासपने ) से [ धर्मः न संभवति ] धर्म का उद्भव नहीं होता है । टीका - जो (जीव ) सादृश्य अस्तित्व से समानता को धारण करते हुये भी स्वरूप अस्तित्व से विशेष-युक्त इन द्रव्यों को स्व-पर के भेद से नहीं जानता हुआ और श्रद्धान नहीं करता हुआ, यों ही (ज्ञान श्रद्धान के बिना ) मात्र श्रमणता से ( द्रव्य मुनित्व से ) आत्मा को ( अपने को ) वमन करता है, वह वास्तव में भ्रमण नहीं है। क्योंकि जैसे रेत और स्वर्ण-कणों में भेद ज्ञात न होने पर, मात्र धूल के ( रेत के धोने से स्वर्ण का उद्भव नहीं होता, इसी प्रकार स्व-पर का भेद ज्ञान न होने से, मात्र श्रमणामाभपने से निरुपराग (निविकार) आत्मतत्व की उपलब्धि ( प्राप्ति ) लक्षण वाला धर्म लाभ का भी उद्भव नहीं होता १६१ || Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] [ पवयणसारी तात्पर्यवृत्ति अथ निर्दोषिपरमात्मप्रणीवपदार्थ श्रद्धानमन्तरेण श्रमणो न भवति, तस्माच्छुद्धोपयोगलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति निश्चिनोति सासंबद्ध महाससासंबधन सहिताम् एदे एतान् पूर्वोक्तशद्धजीवादिपदार्थान् । पुनरपि कि विशिष्टान् ? सविसेसे विशेषसत्तावान्तरसत्तास्वकीयस्वरूपसत्ता तया सहितान् जो हि व सामण्णे सद्दादि यः कर्ता द्रव्यश्रामण्ये स्थितोऽपि न श्राद्धत्ते हि स्फुट ण सो समणो निजशुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वपूर्वकपरमसामायिकसंयमलक्षणश्रामण्याभावात्स श्रमणो न भवति । इत्थंभूतभावश्रामण्याभावात् ततो धम्मो ण संभववि तस्मात्पूर्वोक्तद्रव्यश्रमणत्सकाशानिरुपरागशुद्धात्मानुभूतिलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति सूत्रार्थः ।।६।। उत्थानिका--आगे यह निश्चय करते हैं कि दोषरहित अरहंत परमात्मा द्वारा कहे हुए पदाथों के श्रद्धान के बिना कोई श्रमण या साधु नहीं हो सकता है ऐसे श्रद्धारहित साधु में शुद्धोपयोग लक्षण को रखने वाला धर्म भी संभव नहीं है-- ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई जीव (हि) निश्चय से (सामण्णे) द्रध्य रूप से साधु अवस्था में विराजमान होकर भी (सत्तासंबंद्ध सविसेसे) महासत्ता के संबंध रूप सामान्य अस्तित्व सहित तथा विशेष सत्ता या अवान्तर सत्ता या अपने स्वरूप को सत्ता सहित विशेष अस्तित्त्व सहित (एदे) इन पूर्व में कहे हुए शुद्ध जीव आदि पदार्थों को (ण सद्दहदि) नहीं श्रद्धान करता है (सो समणो ण) वह अपने शुद्ध आत्मा की रुचि रूप निश्चय सम्यग्दर्शनपूर्वक परम सामायिक संयम लक्षण को रखने वाले साधुपने के बिना भाव साधु नहीं है, इस तरह भाव साधुपने के अभाव से (तत्तो धम्मो ण संभवदि) उस पूर्वोक्त द्रव्य साधु से वीतराग शुद्धात्मानुभव लक्षण को धरने वाला धर्म भी नहीं पालन हो सकता है, यह सूत्र का अर्थ है ॥६१॥ ___ अथ 'उपसंपयामि सम्म जत्तो णियाणसंपत्ती' इति प्रतिज्ञाय 'चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिद्दिट्छो' इति साम्यस्य धर्मत्वं निश्चित्य 'परिणमदि जेण दन्वं तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्तं, तम्हा धम्मपरिणको आदा धम्मो मुणयन्त्रो' इति यदात्मनो धर्मत्त्वमासूत्रयितुमुपक्रान्तं, यत्प्रसिद्धये च 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो पाचदि णिवाणसुह' इति निर्वाणसुखसाधनशुद्धोपयोगोऽधिकर्तुमारब्धः, शुभाशुभोपयोगी च विरोधिनौ निर्वस्ती, शुद्धोपयोगस्वरूपं चोपणितं, तत्प्रसावजी चात्मनो ज्ञानानन्दौ सहजो समुद्योतयता संवेदन-स्वरूपं सुखस्वरूपं च प्रपञ्चितम् ।। तदधुना कथं कथमपि शुद्धोपयोगप्रसादेन प्रसाध्य परमनिःस्पृहमात्मतुप्तां पारमेश् Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथयणसारो ] [ २०७ वरीप्रवृत्तिमभ्युपगतः कृतकृत्यतामवाप्य नितान्तमनाकुलो भूत्वा प्रलीनभेदवासनोन्मेषः स्वयं साक्षाद्धर्म एघास्मीत्यवतिष्ठते जो णिहदमोहदिट्ठी आगमकुसलो विरागचरियम्हि । अन्भुठ्ठिदो महप्पा धम्मो ति विसेसिदो समणो ॥६॥ यो निहतमोहदृष्टिरागमकुशलो विरागचरिते । ___ अभ्युत्थितो महात्मा धर्म इति विशेषितः श्रमण: ।।२।। यदयं स्वयम्गमा धर्मो भवति म बल मनोरथ एव. तस्य त्वेका बहिर्मोहदृष्टिरेव विहन्त्री। सा चागमकौशलेनात्मज्ञानेन च निहता, नात्र मम पुनर्भावमापत्स्यते । ततो वीतरागचारित्रसूत्रितावतारो ममायमात्मा स्वयं धर्मो भूत्वा निरस्तसमस्तप्रत्यूहतया नित्यमेव निष्कम्प एवावतिष्ठते । अलमति विस्तरेण । स्वस्ति स्याद्वादमुद्रिताय जैनेन्द्राय शब्दब्रह्मणे स्वस्ति तन्मूलायात्मतत्त्वोपलम्भाय च, पत्प्रसादादुग्रन्यितो झगित्येवासंसारबद्धो मोहअन्थिः । स्वस्ति च परमवीतरागचारित्रात्मने शुद्धोपयोगाय, यत्प्रसादादयमात्मा स्वयमेव धर्मो भूतः ॥१२॥ भूमिका-"उपसंपये साम्यं यतो निर्बाणसंप्राप्तिः" इस प्रकार (पांचवीं गाथा में) प्रतिज्ञा करके, 'चारित्रं हलु धर्मः' धर्मः यः 'तत् साम्यं इति निर्दिष्टं' इस प्रकार (सातवीं गाथा में) साम्य के धर्म-पनेको निश्चित करके, 'परिणमति येन द्रव्यं तत्कालं तन्मयं इलि प्रज्ञप्तं तस्मात् धर्मपरिणत: आत्मा धर्मः मन्तव्यः" इस प्रकार (आठवीं गाथा में) जो आत्मा का धर्मस्व कहना प्रारम्म किया और जिसकी सिद्धि के लिये "धर्मण परिणतात्मा आत्मा यदि शुद्धसंप्रयोगयुतः प्राप्नोति निर्वाणसुखं'' इस प्रकार (ग्यारहवीं गाथा में) निर्वाण सुख का साधन शुद्धोपयोग कयन करने के लिये प्रारम्भ किया, विरोधी शुभ अशुभ उपयोगों को नष्ट किया (हेय बताया), शुद्धोपयोग के स्वरूप को (चौदहवीं गाथा में) वर्णन किया, उस (शुद्धोपयोग) के प्रसाद से उत्पन्न होने वाले आत्मा के सहज ज्ञान और आनन्द को समझाते हुये ज्ञान के स्वरूप का (गाथा २१ से ५२ तक) और सुख के स्वरूप का (माथा ५३ से ६८ तक) विस्तार किया, उसको (आत्मा के धर्मत्व को) अब किसी भी प्रकार शुद्धोपयोग के प्रसाद से (माथा ७८ से ६१ तक) सिद्ध करके, परम निःस्पृह आत्मतरत पारमेश्वरी प्रवृत्ति को प्राप्त होते हुये कृत कृत्यता को प्राप्त करके अत्यन्त अनाकुल होकर, जिनके मेवयासना (विकल्प परिणाम) की प्रगटता का प्रलय हुआ है ऐसे होते हुए ठहरते हैं। अब (आचार्य देव) मैं स्वयं साक्षात् धर्म ही हूँ" इस प्रकार रहते है (ऐसे भाव में निश्चल-स्थिर होते हैं) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] [ पययणसारो अन्वयार्थ-[यः] जो [निहतमोहदृष्टि:] जिसकी मोहदृष्टि नष्ट हो गई है (सम्यग्दृष्टि है) [आगम-कुशलः] आगम में कुशल है (सम्यग्ज्ञानी है) और [विरागचरिते अभ्युत्थितः] जो वीतरागचारित मारत है, निहारमा श्रमणः] (वह) महात्मा श्रमण [धर्मः इति विशेषितः] "धर्म" इस नाम से विशेषित किया गया है । अर्थात् वह धर्म ही है। टीका-जो यह आत्मा स्वयं धर्म होता है, वह वास्तव में मनोरथ ही है। उसके (आत्मा के या मनोरथ के) तो विघ्न डालने वाली एक (मात्र) बहिर्मोहदष्टि (बहिर्मुख मोहदृष्टि) ही है, और वह (मोह-दृष्टि) आगम-कौशल्य (आगम में कुशलता) से तथा आत्मज्ञान से नष्ट हो चुकी है। इसलिये अब वह मेरे पुनः उत्पन्न नहीं होगी । इसलिये वीतरागचारित्र रूप से प्रगटता को प्राप्त (वीतरागचारित्ररूप पर्याय में परिणत) मेरा यह आत्मा, स्थर्य धर्म होकर, समस्त विघ्नों का नाश हो जाने से, सदा निष्कम्प ही रहता है। अधिक विस्तार से बस हो। जयवन्त यतों स्याद्वार मुद्रित जैनेन्द्रशब्द-ब्रह्म और जयवन्त वर्तो शब्द-ब्रह्ममूलक आत्मतत्वोपलब्धि, कि जिसके प्रसाद से अनावि संसार से बंधी हुई मोहपन्थि तत्काल ही छूट गई है। और जयवन्त यतॊ परम धीतरागचारित्र स्वरूप शुद्धोपयोग, कि जिसके प्रसाद से यह आत्मा स्वयमेव धर्म हुआ है ॥६ ॥ कसश (मन्दाक्रांता छन्द) आत्मा धर्मः स्वयमिति भवन प्राप्य शुद्धोपयोग, मित्यानन्दप्रसरसरसंज्ञानतत्त्वे निसीय । प्राप्स्यत्युच्चरविचलता निःप्रकम्पप्रकाश, स्फूर्जज्योतिःसहजविलदरत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ॥५॥ अन्वय-इति शुद्धोपयोगं प्राप्य आत्मा स्वयं धर्मः भवन नित्यानन्दप्रसरसनसंज्ञानतत्त्वे उच्चैः अविचलतया स्फूर्जज्ज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य निःप्रकम्पप्रकाशां लक्ष्मी प्राप्स्यति । भन्धयार्घ-[इति] इस प्रकार [शुद्धोपयोगं] शुद्धोपयोग को [प्राप्य] प्राप्त करके [आत्मा] आत्मा [स्वयं] स्वयं [धर्मः भवन] धर्म होता हुआ [अर्थात् स्वयं धर्मरूप परिणत होता हुआ] [नित्यानन्दप्रसरसरसं ज्ञानतत्त्वे ] नित्य आनन्द के प्रसार से सरस (शाश्वत आनन्द के प्रसार से रस-युक्त) ज्ञान तत्त्व में (लोन होकर) [उच्चः अविचलतया | अत्यन्त अविचलता के कारण [स्फूर्जज्ज्योतिः-सहजबिलसदरत्नदीपस्य ] दैदीप्यमान और Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २०६ सहजरूप से विलसित (स्वभाव से ही प्रकाशित) रत्नदीपक की [निःकंप-प्रकाशां] निष्कंधप्रकाशमय [लक्ष्मी शोभा को प्राप्स्यति] पाता है (अर्थात् रत्नदीपक की भांति स्वभाव से हो निष्कपतया अत्यन्त प्रकाशित होता जानता रहता है)। निश्चित्यात्मन्यधिकृतमिति जानतन्वं यथावत् तत्सिद्धार्य प्रशमविषयं ज्ञेयसत्वं बुभुत्सुः । सनिर्थान् कलयति गुणद्रव्यपर्याययुक्त्या प्रादुर्भूतिनं भवति यथा जातु माहाकुरस्य ॥६॥ ___ अन्वय-आत्मनि अधिकृतं ज्ञानतत्त्वं इति यथावत् निश्चित्य तत्सिद्धचर्थ प्रशमविषयं शेयसत्त्वं बुभुत्सुः सर्वान् अर्थान् द्रध्यगुणपर्याययुक्त्या यथा कलयति येन मोहांकुरस्य जातु प्रादुर्भूतिः न भवति । अन्वयार्थ-[आत्मनि अधिकृतं] आत्मारूपी अधिकरण (आश्रय) में रहने वाले ज्ञान तत्व को [इति] इस प्रकार [यथावत् निश्चित्य] यथार्थतया निश्चय करके, [तत्सिद्धयर्थं] उसकी सिद्धि के लिये (केवलज्ञान प्रगट करने के लिये) [प्रशमविपयं] प्रशम के लक्ष्य से (उपशम प्राप्त करने के हेतु से) [ज्ञेयतत्त्वं बुभुत्सुः] ज्ञेय तत्त्व को जानने का इच्छुक जीव [सर्वान् अर्थान् ] सब पदार्थों को [द्रव्यगुणपर्याययुक्त्या ] द्रव्य-गुण-पर्याय सहित [यथा] इस प्रकार से [कलयति] जानता है | येन] (कि) जिससे [मोहांकुरस्य] मोहांकुर की [जातु] कभी किंचित् मात्र भी [प्रादुभूतिः न भवति] उत्पनि नहीं होती। प्रवचनसार श्री अमृतचन्द्र सूरि विरचित तत्वदीपिका नामक टोका सहित ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। तात्पर्यवृत्ति अथ "उपसंपयामि सम्म' इत्यादि नमस्कारगाथायां यत्प्रतिज्ञातं, तदनन्तरं "चारित्तं खलु धम्मो" इत्यादिसूत्रेण चारित्रस्य धर्मत्वं व्यवस्थापितं, अथ "परिणमदि जेण वध्वं" इत्यादिसूत्रेणात्मनो धर्मत्वं मणितमित्यादि । तत्सर्वं शुद्धोपयोगप्रसादात्प्रसाध्येदानी निश्चयरत्नत्रयपरिणत आत्मैव धर्म इत्यवतिष्ठते । अथवा द्वितीयपातनिकासम्यक्त्वाभावे श्रमणो न भवति तस्मात् श्रमणाद्धर्मोपि न भवति, तहि कथं श्रमणो भवति? इति पृष्टे प्रत्युत्तरं प्रयच्छन् ज्ञानाधिकारमुपसंहरांत जो णिहवमोहविठी तत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षणव्यवहारसम्यक्त्वोत्पन्नेन निज शुद्धात्मरुचिरूपेण निश्चयसम्यक्त्वेन परिणतत्वान्निहतमोहदृष्टिविध्वंसितदर्शनमोहो य: । पुनश्च किं रूपः ? आगमकुसलो निर्दोषिपरमात्मप्रणीतपरमागमाभ्यासेन निस्पाधिस्वसंवेदनज्ञान कुशलत्वादागमकुशाल आगमप्रवीणः । पुनश्च कि रूप: ? विरागचरियम्हि अन्भुट्टियो नतसमितिगुप्त्यादिबहिरङ्गचारित्रानुष्ठानवशेन स्वशुद्धात्मनि निश्चलपरिणतिरूपवीतरागचारित्रपरिणतत्वात् परमबोतरागचारित्रे सम्यगभ्युत्थितः उद्यतः । पुनरपि कथंभूतः ? महप्पा मोक्षलक्षणमहार्थसाधक वेन महात्मा धम्मोत्ति विसेतिको समको • जीवितमरणलाभालाभादिसमताभावनापरिणतात्मा स श्रमण एवाभेदनयेन धर्म इति विशेषितो मोहक्षोभविहीनात्मपरिणामरूपो निश्चयधर्मो भणित इत्यर्थः ।।२।। उत्थानिका-आगे आचार्य महाराज ने पहली नमस्कार को गाथा में "उवसंपयामि सम्म" आदि में जो प्रतिज्ञा की थी। उसके पीछे “चारित्तं खलु धम्मो' इत्यादि सूत्र से Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो चारित्र के धर्मपना व्यवस्थापित किया था तथा "परिणमदि जेण दवं" इत्यादि सूत्र से आत्मा के धर्मपना कहा था इत्यादि सो सब शुद्धोपयोग के प्रसाद से साधने योग्य है। अब यह कहते हैं कि निश्चयरत्नत्रय में परिणमन करता हुआ आत्मा ही धर्म है। अथवा दूसरी पातनिका यह है कि सम्यक्त्व के बिना मुनि नहीं होता है ऐसे मिथ्यादृष्टि श्रमण से धर्म सिद्ध नहीं होता है, तब फिर किस तरह श्रमण होता है ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हुए इस ज्ञानाधिकार को संकोच करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो समणो) जो साधु (णिहदमोहदिट्ठी) तत्वार्थ श्रद्धानरूप व्यवहार सम्यक्त्व के द्वारा उत्पन्न निश्चयसम्यग्दर्शन में परिणमन करने से दर्शनमोह को नाश कर चुका है, (आगमकुसलो) निर्दोष परमात्मा से कहे हुए परमागम के अभ्यास से उपाधि रहित स्वसंवेदनज्ञान की चतुराई से आगमज्ञान में प्रवीण है, (विरागचरियम्हि अन्भुदिठदो) व्रत, समिति, गुप्ति आदि बाहरी चारित्र के साधन के वश से अपने शुद्धारमा में निश्चल परिणमन रूप वीतरागचारित्र में घर्तने के द्वारा परम वीतरागचारित्र में भले प्रकार उद्यमी है तथा (महप्पा) मोक्ष रूप महा पुरुषार्थ को साधने के कारण महात्मा है वही (धम्मो त्ति विसेसिदो) जीना, मरना, लाभ, अलाम आदि में समता की भावना में परिणमन करने वाला श्रमण ही अभेदनय से मोह क्षोभ रहित आत्मा का परिणामरूप निश्चयधर्म कहा गया है ॥२॥ तात्पर्यवृत्ति अथैवंभूतनिश्चयरत्नत्रयपरिणतमहातपोधनस्य योऽसौ भक्ति करोति तस्य फलं दर्शयति जो तं विट्ठा तुट्ठो अग्भुत्तिा करेंदि सक्कारं। वंदणणमंसणाविहि तत्तो सो धम्ममादियदि ॥६२-१॥ जो तं विठ्ठा तुट्ठो यो भव्यवरपुण्डरीको निरुपरागशुद्धात्मोपलम्भलक्षणनिश्चयधर्मपरिणत पूर्वसूत्रोक्तं मुनीश्वरं दृष्ट्वा तुष्टो निर्भरगुणानुरागेण संतुष्टः सन् । किं करोति ? अम्भुद्वित्ता करेवि सक्कारं अभ्युत्थानं कृत्वा मोक्षसाधकसम्यवत्वादिगुणानां सत्कारं प्रशंसां करोति वंवणणमंसणाविहि तत्तो सो धम्ममावियदि "तवसिद्ध पयसिद्ध" इत्यादि वंदना भण्यते, नमोस्त्विति नमस्कारो भण्यते, तत्प्रभृतिभक्तिविशेषः तस्माद्यतिवरात्स भव्यः पुण्यमादत्ते पुण्यं गृह्णाति इत्यथैः ।।६२-१॥ उत्थानिका-आगे ऐसे निश्चयरत्नत्रय में परिणमन करने वाले महामुनि को जो कोई भक्ति करता है उसके फल को दिखाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो तं दिटठा तुट्ठो) जो कोई भव्यों में प्रधान वीतराग शुद्धात्मा के अनुभवरूप निश्चयधर्म में परिणामने वाले सूत्र में कहे हुए मुनीश्वर को देखकर पूर्ण गुणों में अनुरागभाव से संतोषी होता हुआ (अग्भुदिछत्ता) उठकर (वंदणणमंसणादिहिं सक्कारं करेवि) "तव सिद्ध जयसिद्धे" इत्यादि वंदना तथा "नमोस्तु" रूप नमस्कार इत्यादि भक्ति विशेषों के द्वारा सत्कार या प्रशंसा करता है (सो तत्तो धम्ममादियवि) सो भव्य उस यतिवर के निमित्त से धर्म प्राप्त करता है ॥२॥१॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो [ २११ तात्पर्यवृत्ति अथ तेन पुण्येन भवान्तरे कि फलं भवतीति प्रतिपादयति तेण जरा व तिरिच्छा देवि या माणुस गदि पय्या। विहविस्सरियेहि सया संपुण्णमणोरहा होति ।।६२-२२॥ तेण परा व तिरिच्छा तेन पूर्वोक्तपुण्येनात्र वर्तमानभवे नरा वा तिर्यञ्चो वा देवि वा माणति गदि पय्या भवान्तरे देवीं वा मानु राति पापा दिविटियहि मया संपण्णमणोरहा होति राजाधिराजरूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रादिपरिपूर्ण विभूतिविभवो भण्यते, आज्ञाफलमैश्वर्य भण्यते, ताभ्यां विभवैश्वर्याभ्यां संपूर्णमनोरथा भवन्तीति । तदेव पुण्यं भोगादिनिदानरहितत्वेन यदि सम्यक्त्वपूर्वकं भवति तहि तेन परम्परया मोक्ष लभन्त इति भावार्थः ।।६२-२॥ इति श्रीजयसेनाचार्य कृतायां तात्पर्यवृत्ती पूर्वोक्त प्रकारेण "एस सुरासुरमसिंदवंदिय" इतीमां गाथामादि कृत्वा द्वासप्ततिगाथाभिः शुद्धोपयोमाधिकारः, तदनन्तरं "देवजदिगुरुपूजासु" इत्यादि पञ्चविंशतिगाथाभिनिकण्ठिकाचतुष्टयाभिधानो द्वितीयोऽधिकार: ततपत्र "सत्तासंबंधे" इत्यादि सम्यक्त्वकथनरूपेण प्रथमा गाथा, रत्नत्रयाधारपुरुषस्य धर्मः सम्भवतीति "जो णिहदमोहदिद्यो" इत्यादि द्वितीया चेति स्वतन्त्रमाथाद्वयम्, तस्य निश्चयधर्मसंज्ञतपोधनस्य योऽसौ भक्ति करोति तत्कलकथनेन "जो तं दिट्ठा" इत्यादि गाथाद्वयम् । इत्यधिकार-द्वयेन पृथग्भूतगाथाचतुष्टयसहितेनकोत्तरशतगाथाभि-नितत्त्वप्रतिपादक-नामा प्रथमो महाधिकारः समाप्तः ॥१॥ उत्थानिका--आगे कहते हैं कि उस पुण्य से परभव में क्या फल होता है-- अन्वय सहित विशेषार्थ-(तेण) उस पूर्व में कहे हुए पुण्य से (णरा वा सिरिन्छा) वर्तमान के मनुष्य या तिथंच (देवि या माणुसि गवि पय्या) मरकर अन्यभव में देव या मनुष्य की गति को पाकर (विहविस्सरियहि सया संपुण्णमणोरहा होंति) राजाधिराज-सम्बन्धी रूप, सुन्दरता, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री आदि से पूर्ण विभूति तथा आज्ञारूप ऐश्वर्य से सफल मनोरथ होते हैं। वही पुण्य यदि भोगों के निदान विना सम्यकदर्शन पूर्वक होता है तो उस पुण्य से परम्परा मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह भारार्थ है ॥६॥२॥ इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य कृत तात्पर्य-वृत्ति टीका में पूर्व में कहे प्रमाण "एस सुरासुरमणुसिक्वंदिय" इस गाथा को आदि लेकर ७२ (बहत्तर) गाथाओं में शुद्धोपयोग का अधिकार है, फिर "देववदि गुरु पूजासु" इत्यादि पच्चीस गाथाओं से ज्ञानकठिका चतुष्टय नाम का दूसरा अधिकार है फिर "सत्तासंबद्धेदे" इत्यादि सम्यकदर्शन का कथन करते हुए प्रथम गाथा, तथा रत्नत्रय के धारी पुरुष के हो धर्म सम्भव है, ऐसा कहते हुए "जो णिहदमोहविट्ठी' इत्यादि दूसरी गाथा है, इस तरह दो स्वतन्त्र गाथाएं हैं। उस निश्चयधर्मधारी तपस्वी की जो कोई भक्ति करता है उसका फल कहते हुए "जो तं पिट्ठा" इस तरह दो अधिकारों से व पृथक चार गाथाओं से, सब एक-सौ-एक गाथाओं से यह जानतत्वप्रतिपादक नामक प्रथम अधिकार समाप्त । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन अथ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन, तत्र पदार्थस्य सम्यग्द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपमुपवर्णयति अत्थो खलु वन्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥६॥ अर्थः खलु जसो द्रव्याणि गुणाकालि गणितानि । तैस्तु पुन: पर्यायाः पर्ययमूढा हि परसमयाः ॥६॥ इह किल यः कश्चन परिच्छिद्यमानः पदार्थः स सर्व एव विस्तारायतसामान्यस. मुदायात्मना द्रव्येणाभिनित्तत्वाद्न्यमयः । द्रव्याणि तु पुनरेकाश्रयविस्तारविशेषात्मकैर्गुणैर भिनित्तत्याद्गुणात्मकानि । पर्यायास्तु पुनरायतविशेषात्मका उक्तलक्षणव्यरपि गुणैरप्यभिनित्तत्वाद्रव्यात्मका अपि गुणात्मका अपि । तत्रानेकद्रव्यात्मकंक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो द्रव्यपर्यायः । स द्विविधः, समानजातीयोऽसमानजातीयश्च । तत्र समानजातीयो नाम यथा अनेकपुद्गलात्मको घणुकस्यणुक इत्यादि, असमानजातीयो नाम यथा जीवपुहंगलात्मको देवो मनुष्य इत्यादि । गुणद्वारेणायतानैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो गुणपर्यायः। सोऽपि द्विविधः स्वमाषपर्यायो विभावपर्यायश्च । तत्र स्वभावपर्यायो नाम समस्तद्रव्याणामात्मीयात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिसमयसमुदोयमानषट्स्थानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः, विभावपर्यायो नाम रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योपदर्शितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिः । अथेनं दृष्टान्तेन द्रढयति-यथैध हि सर्व एवं पटोऽवस्थायिना विस्तारसामान्य समुदायेनाभिधावताऽऽयतसामान्यसमुदायेन चाभिनिर्वय॑मानस्तन्मय एव, तथैव हि सर्व एक पदार्थोऽवस्थायिना विस्तारसामान्यसमुदायेनाभिधावताऽऽयतसामान्यसमुदायेन च ब्रन्यनाम्नाभिनिर्वय॑मानो द्रव्यमय एव । यथैव च पटेऽवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायोऽभिधावन्नायतसामान्यसमुदायो वा गुणरमिनिर्वय॑मानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्माद्गुणात्मक एव । तथैव च पदार्थेष्ववस्थायी विस्तारसामान्यसमु. दायोऽभिधावन्नायतसामान्यसमुदायो वा द्रव्यनामा गुणरभिनिर्वय॑मानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद्गुणात्मक एव । तथैव च पदार्थेष्ववस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायोऽभिधावन्नायतसामान्य समुदायो वा द्रव्यनामा गुणरभिनिर्वय॑मानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद्गुणात्मक एव । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारों ] [ २१३ यथैव चानेकपटात्मको द्विपटिका त्रिपटिकेति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः, तथैव चानेकपुद्गलात्मको घणुकस्यणुक इति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः । यथैव चानेककौशेयककापाससमयपटात्मको द्विपटिकात्रिपटिकेत्यसमानजातीयो प्रथ्यपर्यायः, तथंव चानेकजीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः । यथैव च क्वचित्पटे स्थूलात्मीयागुरुलघुगणद्वारेण कालक्रमवृत्तेन नानाविधेन परिणमन्नानात्वप्रतिपत्तिर्गुणात्मकः स्वभावपर्यायः, तथंव च समस्तेष्वपि द्रव्येषु सूक्ष्मात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयमानषट्स्थानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूति: गुणात्मकः स्वभावपर्यायः। यथैव च पटे रूपादीनां स्वपरप्रत्ययप्रवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योपशितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिर्गुणात्मको विभावपर्यापः, तवं च समस्तेष्यपि द्रव्येषु रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपर प्रत्ययप्रवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योपशितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिर्गुणात्मकोविभावपर्यायः इयं हि सर्वपदार्थानां द्रव्यगुणपर्यायस्वभावप्रकाशिका पारमेश्वरी व्यवस्था साधीयसी, न पुनरितरा। यतो हि बहवोऽपि पर्यायमात्रमेवावलम्ब्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणं मोहमुपगच्छन्तः परसमया भवन्ति ॥ ३॥ भूमिका-अब जयतस्व का प्रज्ञापन करते हैं, अर्थात् ज्ञेयतत्त्व बतलाते हैं । उसमें (प्रथम हो) पदार्थ के द्रव्यगुणपर्याय के सम्यक् (यथार्थ) स्वरूप का वर्णन करते हैं: ___ अन्वयार्थ—[अर्थः खलु] पदार्थ वास्तव में [द्रव्यमयः] द्रव्यस्वरूप है, [द्रव्याणि] द्रव्य [गुणात्मकानि] गुणात्मक [भणितानि] कहें गये हैं; [तै: तु पुनः] और द्रव्य तथा गुणों से [पर्यायाः] पर्याय होती हैं। [पर्यायमूढाः हि] पर्यायमूढ जीब [परसमयाः] परसमय [मिथ्यादृष्टि) हैं। टीका-इस विश्व में वास्तव में जो कोई जानने में आने वाला पदार्थ है, वह समस्त ही विस्तारसामान्यसमुदायात्मक (गुणात्मक अर्थात् गुणों का समूह) और आयतसामान्यसमुदायात्मक (क्रमभावी पर्यायात्मक-पर्यायों का समूह) द्रव्य से रचित होने से व्रव्यमय है अर्थात् द्रव्य है और द्रव्य एक जिनका आश्रय हैं ऐसे विस्तार विशेष स्वरूप गुणों से रचित होने से, गुणात्मक है। पर्याय जो कि आयतधिशेष स्वरूप हैं, जिनके लक्षण (ऊपर) कहे गये हैं ऐसे वयों से, तया जिनके लक्षण ऊपर कहे गये ऐसे गुणों से रचित होने से—व्यात्मक भी हैं तथा गुणात्मक भी हैं । उनमें, अनेक द्रव्यात्मक एकता की प्रतिपत्ति को (ज्ञान कराने की) कारणभूत द्रव्यपर्याय है। वह दो प्रकार है। (१) समानजातीय (२) असमानजातीय। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] [ पवयणसारो उसमें (१) समानजातीय वह है, जैसे कि अनेक पुद्गलात्मक द्वयणुक त्र्यणुक इत्यादि ( २ ) असमानजातीय वह है, जैसे कि जीव पुद्गलात्मक देव, मनुष्य इत्यादि । गुण द्वारा आयतरूप अनेकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत गुणपर्याय है। वह भी दो प्रकार है । ( १ ) स्वभावप्रर्याय, ( २ ) विभावपर्याय। उसमें समस्त द्रव्यों के अपने-अपने अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षट्स्यानपतित हानि- वृद्धि रूप अनेकतत्व की अनुभूति स्वभाव पर्याय है, रूपादि के या ज्ञानाति के स्वपर के कारण वर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्य के कारण देखने में आने वाले स्वभाव विशेषरूप अनेकत्व से आ पड़ने वाली विभागपर्याय है । अब यह (पूर्वोक्त) कथन को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं जैसे सम्पूर्ण पट अवस्थायी ( स्थिर) विस्तार सामान्य समुदाय से (चौड़ाई से ) और दौड़ते ( बहते, प्रवाह रूप कालक्रम से चलते हुये ) आयत सामान्य समुदाय से ( लम्बाई से ) रचित होता हुआ तन्मय ही है, इसी प्रकार सब हो पदार्थ 'द्रव्य' नामक अवस्थायी विस्तार सामान्य समुदाय से और दौड़ते हुये आयत सामान्य समुदाय से रचित होता हुआ ब्रध्यमय ही है । और जंसे पट में, अवस्थायो विस्तार सामान्य समुदाय या दौड़ते हुये आयत सामान्यसमुदाय (रूप पद) गुणों से रचित होता हुआ गुणों से पृथक् नहीं प्राप्त होने से गुणात्मक हो है, उसही प्रकार से पदार्थों में, अवस्थायी विस्तार सामान्य समुदाय या दौड़ता हुआ आयत सामान्य समुदाय जिसका नाम 'द्रथ्य' है यह - गुणों से रचित होता हुआ गुणों से पृथक नहीं प्राप्त होने से गुणात्मक ही है । और जैसे अनेक घटात्मक ( एक से अधिक वस्त्रों से निर्मित) द्विपटिक, + त्रिपटिक समानजातीय द्रव्य-पर्याय है, उसी प्रकार अनेक पुद्गलात्मक द्वि-अणुक, त्रिअणुक आदि समानजातीय द्रव्यपर्याय है और जैसे अनेक रेशमी और सूती पटों के बने हुए द्विपटिक, त्रिपटिक ऐसी असमानजातीय द्रव्यपर्याय है, उसी प्रकार अनेक जीव पुद्गलात्मक देव, मनुष्य ऐसी असमानजातीय द्रव्य पर्याय है । जैसे कभी पट में अपने स्थूल अगुरुलघुगुण द्वारा कालक्रम से प्रवर्तमान अनेक प्रकार रूप से परिणमित होने के कारण अनेकत्व की प्रतिपत्ति रूप गुणात्मक स्वभावपर्याय है । उसी प्रकार समस्त द्रव्यों में अपने *—स्व उपादान और पर निमित्त है । + द्विपटिक दो थानों को जोड़कर ( सोंकर) बनाया गया एक वस्त्र (यदि दोनों यान एक ही जाति के हों तो समानजातीय द्रव्यपर्याय कहलाता है, और यदि दो था भिन्न जाति के हों (जैसे एक रेशमी और दूसरा सूती) तो असमान जातीय द्रव्यप्रयय कहलाता है । - Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 [ २१५ अपने सूक्ष्म अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिरूप अनेकत्व की अनुभति रूप (नाना-पनका ज्ञान कराने वाली) गुणात्मक स्वभावपर्याय है, और जैसे पट में स्व-पर के कारण रूपादिक के प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्य से विखलाये हुये स्वभाव विशेष अनेकपने से आ पड़ने रूप गुणात्मक विभावपर्याय है, उसी प्रकार समस्त द्रव्यों में रूपादि के या ज्ञानादि के स्व-पर के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्य से दिखलाये हुये स्वभाव विशेष से अनेकपने से आ पड़ने रूप गुणात्मक विमान-पर्याय है। वास्तव में यह सर्व पदार्थों के अध्यगण पर्याय स्वमात्र को प्रकाशक पारमेश्वरी व्यवस्था भली उत्तम-पूर्ण-योग्य है, अन्य कोई नहीं, क्योंकि बहुत से (जीव) पर्याय मात्र ही अबलम्बन करके तत्त्व की अप्रतिपत्ति जिसका लक्षण है, ऐसे मोह को प्राप्त होते हुए परसमय (मिथ्या-दृष्टि) होते हैं ॥३॥ be तात्पर्यवृत्ति - इतः ऊवं "सत्तासंबद्ध दे" इत्यादि गाथासूत्रेण पूर्व संक्षेपेण यद्वयाख्यातं सम्यग्दर्शनं तस्येदानी विषयभूतपदार्थव्याख्यान द्वारेण त्रयोदशाधिकशतप्रमितगाथापर्यन्तं विस्त रव्याख्यानं करोति । अथवा द्वितीयपातनिका-पूर्व यद्वयाख्यातं ज्ञानं तस्य ज्ञेयभूतपदार्थान् कपयति । तत्र त्रयोदशाधिकशतगाथासु मध्ये प्रथमस्तावत् "तम्हा तस्स णमाई" इमां गाथामादि कृत्वा पाठक्रमेण पञ्चत्रिशद्गाथापर्यन्त सामान्यज्ञेयव्याख्यानं, तदनन्तरं "वश्वं जीवमजीव" इत्यायेकोनविंशतिमाथापर्यन्तं विशेषज्ञेयव्याख्यान, अथानन्तरं "सपदेसेहि समगो लोगों" इत्यादि गाथाष्टकपर्यन्तं सामान्यभेदभावना, ततश्च "अस्थितणिज्छिवस्स हि" इत्यायेकपञ्चाशद्गायापर्यन्तं विशेषभंवभावना चेति, द्वितीयमहाधिकारे समुदायपातनिका । अथेदानी सामान्यज्ञेयव्याख्यानमध्ये प्रथमा नमस्कारगाथा, द्वितीया द्रव्यगुणपर्यायव्याख्यानमापा, तृतीया स्वसमयपरसमयनिरूपणाथा, चतुर्थी द्रव्यस्य सत्तादिलक्षणत्रयसूचनगाथा चेति पीठिकामिधाने प्रथमस्थले स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयं । तदनन्तरं "सभायो हि सहावो" इत्यादिगाथाचतुष्टयपर्यन्तं सत्तालक्षणव्याख्यानमुख्यत्वं, तदनन्तरं "ण भवो भंगविहिणो" इत्यादिगाथात्रयपर्यन्तमुत्पावष्यपध्रौव्यलक्षणकथनमुख्यता, तत्तश्च "पाडुभवदि य अण्णो" इत्यादि माथाद्वयेन द्रव्यपर्याय"निरूपणमुख्यता । अथानन्तरं "ण हवधि जवि सहब्ब" इत्यादि गाथाचतुष्टयेन सत्ताद्रव्ययोरभेदविपये युक्ति कथयलि, तदनन्तरं 'जो खलु दख्वसहायो' इत्यादि सत्ताद्रव्ययोर्गुणगुणिकथनेन प्रथम गाथा, प्रमेण सह गुणपर्याययोरभेदमुख्यत्वेन 'णस्थि गुणोति य कोई इत्यादि द्वितीया चेति स्वतन्त्रगाथाद्वयं, उदनन्तरं द्रष्यस्य द्रव्याथिकनयेन सदुत्पादो भवति, पर्यायाथिकनयेनासदित्यादिकथनरूपेण ‘एवं विहं' इतिप्रभृति गाथाचतुष्टयं, सतश्च 'अथित्ति य' इत्याद्य कसूत्रेण नयमप्तभङ्गोव्याख्यानमिति समुदायेन सुर्विशतिगाथाभिरष्टभिः स्थलद्रव्यनिर्णयं करोति । तद्यथा-अथ सम्यक्त्वं कथयति - Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ 1 । पदयणसारो सम्हा तस्स णमाई फिच्चा पिच्चंपि तम्मणो होज्ज । वोच्छामि संगहावो परमविणिच्याधिगमं ॥ सम्हा तस्स जमाई किवचा यस्मात्सम्यक्त्वं विना श्रमणो न भवति तस्मात्कारणात्तस्य सम्यचारित्रयुक्तस्य पूर्वोक्ततपोधनस्य नमस्यां नमस्क्रियां नमस्कारं कृत्वा पिच्चं पि तम्मणो होज्जं नित्पमपि तद्गतमना भूत्वा वोच्छामि वक्ष्याम्यहं कर्ता संगहादो संग्रहात्मज्ञेपासकाशात् । किं ? परमविणिच्छयाधिगमं परमार्थविनिश्चयाधिगम सम्यवत्वमिति परमार्थविनिश्चयाधिगमशब्धेन सम्यक्त्वं कथं भण्यत इति चेत्-परमोऽर्थः सर्ग: शासन माता पारमानरगार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः परमार्थनिश्चियरूपोऽधिगमः शङ्खाद्यष्टदोषरहितश्च य: परमार्थतोऽर्थावबोधो यस्मात्सम्यक्त्वात्तत् परमार्थविनिश्चयाधिगम। अथवा परमार्थ विनिश्चयोऽनेकान्तात्मकपदार्थ समूहस्तस्याधिगमो यस्मादिति । अथ पदार्थस्य द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं निरूपयति अस्थो खलु बल्बमओ अर्थो ज्ञानविषयभूतः पदार्थः खलु स्फुटं द्रव्यमयो भवति । कस्मात् ? तिर्यक्सामान्योर्ध्वतासामान्य लक्षणेन द्रव्येण निष्पन्नत्वात् । तिर्यकसामान्योवंतासामान्यलक्षणं कथ्यतेएककाले नानाध्यक्तिगतोन्वयस्तिर्यसामान्यं भग्यते, तत्र दृष्टान्तो यथा-नानासिद्धजीवेषु सिद्धोध्यमित्यनुगताकार: सिद्धजातिप्रत्ययः । नानाकालेष्वेकव्यक्तिगतोन्वय उध्वंतासामान्य भण्यते । तत्र दृष्टान्तः यथा-य एव केवलज्ञानोत्पत्तिक्षणे मुक्तात्मा द्वितीयादिक्षणेष्वपि स एवेतिप्रतीतिः, अथवा नाना गोशरीरेषु गौरयं गौरयमिति गोजातिप्रतीतिस्तिर्यक्सामान्यं । यथैव चैकस्मिन् पुरुषे बालकुमाराद्यवस्थासु स एवायं देवदत्त इतिप्रत्यय ऊर्वतासामान्यम् । वरवाणि गुणप्पगाणि भणिवाणि द्रध्याणि गुणात्मकानि भणितानि, अन्वयिनो गुणा अथवा सहभुवो गुणा इति गुणलक्षणं । यथा अनन्तज्ञानसुखादिविशेषगुणेभ्यस्तथागुरुलघुकादिसामान्य गुणे भ्यश्चाभिन्नत्वाद्गुणात्मकं भवति सिद्धजीवद्रव्यं, तथैव स्वकीयविशेषसामान्यगुणेभ्यः सकाशादभिन्नरवात् सर्वद्रव्याणि गुणात्मकानि भवन्ति । तेहि पुणो पज्जाया त: पूर्वोक्तलक्षणव्यगुणश्च पर्याया भवन्ति, व्यतिरेकिणः पर्याया, अथवा क्रमभुवः पर्याया इति पर्यापलक्षणं । यर्थकस्मिन् मुक्तात्मद्रव्ये किञ्चिदूनचरमशरीराकारगतिमार्गणाविलक्षणः सिद्धगतिपर्यायः तथागुरुलघुकगुणषड्वृद्धिहानिरूपाः साधारणस्वभावगुणपर्यायाश्च, तथा सर्वद्रव्येषु स्वभावद्रव्यपर्यायाः स्वजातीयविभावद्रव्यपर्यायाश्च, तथैव स्वभावविभावगुणपर्यायाश्च "जेसि अत्थसहाओ" इत्यादिगाथायां, तथैव "भावा जीवादीया" इत्यादिगाथायां च पञ्चास्तिकाये पूर्व कथितक्रमेण यथासंभवं ज्ञातव्याः पज्जयमूढा हि परसमया यस्मादित्थंभूतद्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानमूढा अथवा नरकादिपर्यायरूपो न भवाम्यहमिति मेद वज्ञानमूढाश्च परसमया मिथ्यादृष्टयो भवन्तीति । तस्मादिषं पारमेश्वरी द्रव्यगुणपर्यायव्याख्या समीचीना भद्रा भवतीत्यभिप्राय: ।।६३।। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २१७ पूर्व पीठिका—आगे इस द्वितीय अधिकार की सूची लिखते हैं-- इसके आगे "सत्ता संबढेदे" इत्यादि गाथा सूत्र से जो पूर्व में संक्षेप से सम्यग्दर्शन का व्याख्यान किया था, उसी को यहाँ विमान पदार्थों के व्याख्यान के द्वारा एकसौ तेरह गाथाओं में विस्तार से व्याख्यान करते हैं। अथवा दूसरी पातनिका यह है कि पूर्व में जिस ज्ञान का व्याख्यान किया था उसी ज्ञान के द्वारा जानने योग्य पदार्थो को अब कहते हैं । यहां इन एकसौ तेरह गाथाओं के मध्य में पहले ही "तम्हा तस्स णमाई" इस गाथा को आदि लेकर पाठ के क्रम से पैतीस गाथाओं तक सामान्य ज्ञेय पदार्थ का व्याख्यान है। उसके पीछे 'दध्वं जीवमजीवं' इत्यादि उन्नीस गाथाओं तक विशेष ज्ञेय पदार्थ का व्याख्यान है । उसके पीछे "सपदेसेहिं समग्गो लोगो" इत्यादि आठ गाथाओं तक सामान्य भेद की भावना है फिर "अत्थित्तणिच्छिदस्स हि" इत्यादि इक्यावन गाथाओं तक विशेष भेद की भावना है। इस तरह इस दूसरे अधिकार में समुदाय पातनिका है । अब यहाँ सामान्य ज्ञेय के व्याख्यान में पहले ही नमस्कार गाथा है फिर द्रव्य गुण १ पर्याय की व्याख्यान गाथा है। तीसरी स्वसमय परसमय को कहने वाली गाथा है। चौथी व्य की सत्ता आदि तीन लक्षणों को सूचना करने वाली गाथा है, इस तरह पीठिका नाम के पहले स्थल में स्वतन्त्र रूप से गाथायें चार हैं। उसके पीछे "सब्भावो हि सहावो' इत्यादि चार गाथाओं तक सत्ता के लक्षण के व्याख्यान की मुख्यता है फिर "ण भवो । मंगविहीणो' इत्यादि तीन गाथाओं तक उत्पाद व्यय ध्रौव्य लक्षण के कथन की मुख्यता * फिर "पाडुब्भवदि य अण्णो" इत्यादि दो गाथाओं से द्रव्य की पर्याय के निरूपण की व्यता है। फिर "ण हवदि जदि सव्वं" इत्यादि चार गाथाओं से सत्ता और द्रव्य का अभेद है इस सम्बन्ध में युक्ति को कहते हैं। फिर “जो खलु दवसहाओ" इत्यादि सत्ता और द्रव्य में गुण गुणी सम्बन्ध है ऐसा कहते हुए पहली गाथा, द्रव्य के साथ गुण और मियों का अभेद है इस मुख्यता से "णस्थि गुणोत्ति य कोई" इत्यादि दूसरी ऐसी दो हन्त्र गाथाएं हैं। फिर द्रव्य का द्रव्याथिकनय से सत् का उत्पाद होता है इत्यादि कथन रते हुए “एवं बिह' इत्यादि गाथाएं चार हैं। फिर "अस्थित्ति य" इत्यादि एक सूत्र से सनंगी का व्याख्यान है। इस तरह समुदाय से चौबीस गाथाओं से और आठ स्थलों से का निर्णय करते हैं । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] [ पवयणसारो अब आगे सम्यक्त्व को कहते हैं क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना साधु नहीं होता है ( तम्हा) इस कारण से ( तस्स ) उस सम्यक्त्व सहित सम्यक्चारित्र से युक्त पूर्व में कहे हुए साधु को ( माई किच्चा ) नमस्कार करके ( णिच्चति तं मणो होज्जं ) तथा नित्य ही उन साधुओं में मन को धारण करके ( परमविणिच्छयाधिगमं ) परमार्थ जो एक शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप परमात्मा है उसको विशेष करके संशय आदि से रहित निश्चय कराने वाले सम्यक्त्व को अर्थात् जिस सम्यक्त्व से शंका आदि आठ दोष रहित वास्तव में जो अर्थ का ज्ञान होता है उस सम्यक्त्व को अथवा अनेक धर्मरूप पदार्थ - समूह का अधिगम जिससे होता है ऐसे कथन को ( संगहादो) संक्षेप से (वोच्छामि ) कहूंगा । उत्थानिका- आगे पदार्थ के द्रव्य गुण पर्याय स्वरूप को कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( खलु ) निश्चय से ( अत्थो ) ज्ञान का विषयभूत पदार्थ ( दध्वमओ) द्रव्यमय होता है। क्योंकि वह पदार्थ तिर्यक्- - सामान्य तथा ऊध्यता सामान्यमय द्रव्य से निष्पन्न होता है अर्थात् उसमें तिर्यक सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य रूप द्रव्य का लक्षण पाया जाता है। इन दो प्रकार के सामान्य का स्वरूप ऐसा है-एक ही समय में नाना व्यक्तियों में पाया जाने वाला जो अन्वय उसको तिर्यक् सामान्य कहते हैं । यहाँ यह दृष्टांत है कि जैसे नाना प्रकार सिद्ध जीवों में यह सिद्ध हैं, ऐसा जोड़ रूप एक तरह के स्वभाव को रखने वाला सिद्धकी जाति का विश्वास है - इस एक जातिपने को तिर्यक् सामान्य कहते हैं तथा भिन्न-भिन्न समयों में एक ही व्यक्ति का एक तरह का ज्ञान होना सो उता सामान्य कहा जाता है। यहाँ यह दृष्टांत है कि जैसे जो कोई केवलज्ञान को उत्पत्ति के समय मुक्तात्मा है दूसरे तीसरे आदि समयों से भी वही है, ऐसी प्रतीति होना सो ऊर्ध्वता सामान्य है । अथवा दोनों सामान्य के दो दूसरे दृष्टांत हैं--जैसे नाना गौके शरीरों में यह गौ है, यह गौ है ऐसो गो-जाति की प्रतीति होना सो तिर्यक् सामान्य है । तथा जो कोई पुरुष बाल, कुमारादि अवस्थाओं में था सो ही यह देवदत्त है, ऐसा विश्वास सो ऊर्ध्वता सामान्य है । ( दव्वाणि) द्रश्य सब (गुणम्पगाणि) गुणमयी ( अणिदाणि) कहे गए हैं। जो द्रव्य के साथ अन्वयरूप रहें अर्थात् उसके साथ-साथ बतें वे गुण होते हैं- ऐसा गुण का लक्षण है । जैसे सिद्ध जीव द्रव्य है, सो अनन्तज्ञान सुख आदि विशेष गुणों से तथा अगुरुलघुक आदि सामान्यगुणों से अभिन्न हैं अर्थात् ये सामान्य विशेष गुण सिद्ध आत्मा के साथ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २१६ सदा पाए जाते हैं, तैसे ही सर्व द्रव्य अपने-अपने सामान्य विशेष गुणो से अभिन्न हैं, इसलिये सब द्रव्य गुणरूप होते हैं । (पुणो) तथा (तेहिं पज्जाया) उन्हीं पूर्व में कहे हुए लक्षण स्वरूप द्रव्य व गुणों से पर्यायें होती हैं जो एक दूसरे से भिन्न अथवा क्रम-क्रम से हों, उनको पारीक रहते हैं, गन पनि का लक्षण है। जैसे एक सिद्ध भगवानरूपी द्रव्य में अन्तिम शरीर से कुछ कम आकारमयी, गति मार्गणा से विलक्षण सिद्धगति रूप पयायें, है तथा अगुरुलघु गुण में षट्गुणी वृद्धि तथा हानिरूप साधारण स्वाभाविक गुण पर्याये, स्वजातीय विभाव द्रव्य पर्यायें तैसे ही स्वाभाविक और वैभाविक गुण पर्यायें होती हैं।" "जेसि अस्थिसहाओ" इत्यादि गाथा में तथा "भावा जीवादीया" इत्यादि गाथा में श्री पंचास्तिकाय के भीतर पहले कथन किया गया है सो वहाँ से यथासम्भव जान लेना योग्य है। (पज्जय मूढा) जो इस प्रकार द्रव्य गुण पर्याय के ज्ञान से मूढ़ हैं अथवा मैं नारकी आदि पर्यायरूप सर्वथा नहीं है इस भेदविज्ञान को अथवा अनेकान्त को न समझकर अज्ञानी हैं वे (हि) वास्तव में (परसमया) परात्मवादी मिथ्यादृष्टी हैं। इसलिये यही जिनेन्द्र परमेश्वर की करी हुई समीचीन द्रव्यगुण पर्याय की व्याख्या कल्याणकारी है, यह अभिप्राय है ॥६३॥ अयानुषङ्गिकीमिमामेव स्वसमयपरसमयव्यवस्था प्रतिष्ठाप्योपसंहरति जे पज्जयेसु गिरदा जीवा 'परसमग ति णिद्दिट्ठा । आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया "मुणेदव्वा ॥६॥ ये पर्यायेषु निरता जीवाः परसमयिका इति निर्दिष्टाः । आत्मस्वभावे स्थितास्ने स्वकसमया ज्ञातव्याः ।।६४॥ ये खलु जीवपुद्गलात्मकमसमानजातीयद्रव्यपर्यायं सकलाविद्यानामेकमूलमुपगता यथोवितात्मस्वभावसंभावनक्लीबास्तस्मिन्नेवाशक्तिमुपब्रजन्ति, ते खलूच्छलितनिरर्गलंकान्तवृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममैवतन्मनुष्यशरीरमित्यहङ्कारममकाराभ्यां विप्रलभ्यमाना अविचलितचेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात प्रच्युत्य कोडोकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च परद्रध्येण कर्मणा संगतत्वात्परसमया जायन्ते । ये तु पुनरसंकीर्णद्रव्यगुणपर्यायसुस्थितं भगवंतमात्मनः स्वभावं सकलविद्यानामेकमूलभुपगम्य अथोदितात्मस्वभावसंभावनसमर्थतया पर्यायमात्राशक्तिमत्यस्यात्मनः स्वभाव एव स्थितिमासूत्रयन्ति, ते खलु सहजविजृम्भितानेकान्तदृष्टिप्रक्षपितसमस्तैकान्तदृष्टिपरिग्रहग्रहा १. परसमयिग ति । २. मुणेयङ्मा (ज० ब०)। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] [ पवयणसारो मनुष्यादिगतिषु तद्विग्रहेषु चाविहिताहङ्कारममकारा अनेकापचरक संचारितरत्नप्रदीप मिव मेवाला, अनिचलित चेतना विलास मात्र मात्मव्यवहारमुररीकृत्य क्रोडीकृतसमस्त क्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमनाश्रयन्तो विश्रान्तरागद्वेषोन्मेषतया परममौदासीन्यमवलंबमाना निरस्त समस्त पर द्रव्यसंग तितया स्वद्रव्येर्णव केवलेन संगतत्वात्स्वसमया जायन्ते । अतः स्वसमय एवात्मनस्तत्यम् ॥६४॥ भूमिका- - अब आनुषंगिक ऐसी यह हो स्वसमय परसमय की व्यवस्था ( भेद ) निश्चित करके ( उसका ) उपसंहार करते हैं अन्वयार्थ -- [ ये जीवाः ] जो जीव [पर्यायेषु निरता: ] ( विभाव) पर्यायों में लीन हैं [ परसमयिकाः इति निर्दिष्टा: ] उन्हें पर समय कहा गया है [ आत्मस्वभावे स्थिताः ] जो जीव आत्मस्वभाव में स्थित हैं [ते] वे [ स्वकसमयाः ज्ञातव्याः ] स्व-समय जानने योग्य है । टीका - जो (१) जीव पुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्य पर्याय का, जो सकल अविद्याओं की ( मिथ्याज्ञान की ) एक जड़ है, आश्रय करते हैं ( २ ) यथोक्त आत्म स्वभाव की संभावना ( अनुभव ) करने में नपुंसक है, (३) उस (पर्याय) में ही आसक्ति को प्राप्त हैं, वे (१) जिनकी निरगंल एकान्तदृष्टि उछलती है, (२) 'यह मैं मनुष्य ही है, मेरा हो यह मनुष्य शरीर हैं' इस प्रकार अहंकार-ममकार से उगाये हुए, (३) अविचलितचेतनाविलासमात्र आत्म व्यवहार से च्युत होकर, (४) जिसमें समस्त क्रिया-कलाप को छाती से लगाया जाता है ऐसे मनुष्य व्यवहार का आश्रय करके, (५) राग-द्वेषी होते हुए, (६) परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगति के कारण वास्तव में परसमय होते हैं ( अर्थात् परसमयरूप परिणमित होते हैं ।) जो असंकीर्ण पर से भिन्न द्रव्य गुण-पर्यायों से सुस्थित भगवान् आत्मा के स्वभाव का, ओ सकल विद्याओं का एक मूल है, आश्रय करके, यथोक्त आत्मस्वभाव की संभावना में ( अनुभव में समर्थ होने से पर्यायमात्र को आसक्ति को छोड़ करके, आत्मा के स्वभाव में ही स्थिति करते हैं (लोन होते हैं), वे (१) जिन्होंने सहज विकसित अनेकान्तदृष्टि से समस्त एकान्तदृष्टि के परिग्रह के आग्रह प्रक्षीण ( नष्ट) कर दिये हैं, (२) मनुष्यादि गतियों में और उन गतियों के शरीरों में अहंकार-ममकार न करके, अनेक कक्षों ( कमरों) में संचारित रत्नदीपक को भांति एकरूप हो आत्मा को उपलब्ध ( अनुभव ) करते हुये, (३) अविचलितचेतनाविलासमात्र आत्म व्यवहार को अंगीकार करके, ( ४ ) जिसमें समस्त Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवमणसारो ] [ २२१ क्रिया-कलाप से भेंट की जाती है ऐसे मनुष्य व्यवहार का आश्रय नहीं करते हुए, (५) रागद्वेष की प्रगटता रुक जाने से, परम उदासीनता का आलंबन लेते हुये, (६) समस्त परद्रव्यों की संगति दूर कर देने से, मात्र स्वद्रव्य के साथ ही संगति होने से, वास्तव में स्वसमय होते हैं, अर्थात् स्वसमयरूप परिणमित होते हैं । इसलिये स्वसमय ही आत्मा का तत्व है । परसमय के कथन में जो बात जिस नम्बर पर कही गई है, स्वसमय के कथन में उसके सापेक्ष नम्बर पर ठीक उसके विपरीत बात दिखलाई गई है के लिये भाषा टीका में नम्बर डाले गये हैं ।। ६४ ।। । इसी बात का ध्यान दिलाने तात्पर्य वृत्ति अथ प्रसंगायतां परसमयस्त्रसमयव्यवस्थां कथयति पज्जयेसु गिरदा जीवा ये पर्यायेषु निरताः जीवाः परसमथिंग ति णिद्दिट्ठा ते परसमया इति निर्दिष्टाः कथिताः । तथाहि मनुष्यादिपर्यायरूपोऽहमित्यहङ्कारो भण्यते, मनुष्यादिशरीरं तच्छरीराधात्पापञ्चेन्द्रियविषयसुखस्वरूपं न ममेति ममकारी भण्यते ताभ्या परिमार रहित परम चैतन्यचमत्कारपरिणतेरच्युता ये ते कर्मोदयजनितपरपर्यायनिरतत्वात्परसमया मिथ्यादृष्टयो मध्यन्ते आवसहावम्मि विदा ये पुनरात्मस्वरूपे स्थितास्ते सगसमया मुणेयश्वा स्वसमया मन्तव्या ज्ञातव्या इति । तद्यथा— अनेकापवरकसंचारित करत्न प्रदीप इवानेकशरीरेष्वप्येको मिति "वृढ़संस्कारेण निजशुद्धात्मनि स्थिता ये ते कर्मोदयजनितपर्यायपरिणतिरहितत्वात्स्वलमया न्यर्थः ॥४६॥ arafter — आगे यहाँ प्रसंग पाकर परसमय और स्वसमय की व्यवस्था खाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जे जीवा ) जो जीव ( पज्जयेसु णिरबा) पर्यायों में लवसीन हैं। अर्थात् जिनको पर्याय के अतिरिक्त ब्रध्य सामान्य का बोध नहीं है (परसमयिग ति नारकी ) परसमयरूप कहे गए हैं। विस्तार यह है कि मैं मनुष्य, पशु, देव, या पर्याय रूप ही हूँ, इस भाव को अहंकार कहते हैं। यह मनुष्य आदि शरीर तथा शरीर के आधार से उत्पन्न पंचेन्द्रियों के विषय रूप सुख मेरे स्वभाव हैं इस भाव को कार कहते हैं। जो अज्ञानी ममकार और अहंकार से रहित परम चैतन्य चमत्कार की परिणति से अनभिज्ञ इन अहंकार मसकार भावों से परिणमन करते हैं, वे जीव कर्मों के से उत्पन्न परपर्याय में सर्वथा लोन होने के कारण से परसमय कहे जाते हैं। ( आबबम्म दिदा) जो ज्ञानी अपने आत्मा के स्वभाव में ठहरे हुए हैं ( ते समसमया मुणेक) से स्वसमग्ररूप जानने चाहिये। विस्तार यह है कि जैसे एक रत्न - दीपक अनेक विकार के घरों में घुमाए जाने पर भी एक रत्न रूप ही है, इसी तरह अनेक शरीरों में : $ NA Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] [ पवयणसारो घूमते रहने पर भी मैं एक वही आत्मद्रव्य हूँ, इस तरह बूढ़ संस्कार के द्वारा जो अपने शुद्धात्मा में ठहरते हैं वे कर्मों के उदय से होने वाली मनुष्य पर्याय में परिणति से रहित अर्थात् रागद्वेष न करते हुए स्वसमयरूप होते हैं, ऐसा अर्थ है ॥६४॥ अथ द्रव्यलक्षणमुपलक्षयति 2 'अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादव्ययधुवत्त संबद्ध' । गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्वं ति बुच्चति ॥ ६५॥ अपरित्यक्तस्वभावेनोत्पादव्यय ध्रुवत्वसंबद्धम् । गुपदश्च सपर्यायं मत्तनिति जन्ति क I - इह खलु यदनारम्यस्वभावभेदमुत्पादव्ययीव्यत्रयेण गुणपर्यायद्वयेन च यल्लक्ष्यते तद्द्रव्यम् । तत्र द्रव्यस्य स्वभावोऽस्तित्व सामान्यान्ययः, अस्तित्वं हि वक्ष्यति द्विविधं, स्वरूपा - स्तित्वं सादृश्यास्तित्वं चेति । तत्रोत्पादः प्रादुर्भावः, व्ययः प्रच्यवनं श्रौष्यमवस्थितिः । गुणा विस्तारविशेषाः ते द्विविधाः सामान्यविशेषात्मकत्वात् । सत्रास्तित्वं नास्तित्वमेकत्वमन्यत्वं द्रव्यत्वं पर्यायत्वं सर्वगतत्वम सर्वगतत्वं सप्रदेशत्वमप्रदेशत्वं मूर्तत्वममूर्तस्वं सक्रियत्वमक्रियत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं कर्तृत्वमकर्तृत्थं भोषतृत्थमभोक्तृत्वमगुरुलघुत्वं चेत्यादयः सामान्यगुणाः । अवगाहहेतुत्वं गतिनिमित्तता स्थितिकारणत्वं वर्तनायतनत्वं रूपादिमत्ता चेतनत्वमित्यादयो विशेषगुणाः । पर्याया आयतविशेषाः, ते पूर्वमेवोक्ताश्चतुविधाः । न ख तैरुत्पादादिभिर्गुणपर्याय सह द्रव्यं लक्ष्यलक्षणभेदेऽपि स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव द्रव्यस्य तथाविधत्वादुत्तरीयवत् । यथा खलुत्तरीयमुपात्तमलिनावस्थं प्रक्षालितममलादस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । द्रयमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरङ्गसाधनसन्निधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृ करणसामर्थ्यस्वमावेनांत रङ्गसाधनतामुपागतेनानुग्रहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथा च तदेवोत्तरोयममलावस्थयोत्पद्यमानं मलिनावस्था स्ययमानं तेन व्ययेन लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूपभेदनुपखजति स्वरूपत एव तथाविधत्यमवलम्बते । तथा तदेव द्रव्यमप्युत्तरावस्थयोत्पद्यमानं प्राक्तनावस्थया व्ययमानं तेन श्ययेन लक्ष्यते । न च तेन सह् स्वरूपभेदमुपव्रजति स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथैव च तदेवोत्तरीयमेककालममलावस्थयोत्पद्यमानं मलिनावस्था व्ययमानम १. अपरिचत्तसहावं (ज० वृ० ) । २. संजुत्तं (ज० वृ० ) । ३. दव्व त्ति ( ज० बु० ) । 2 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 पत्रयणसारो ] [ २२३ स्थायिन्योत्तरीयत्वावस्थया श्रीव्यमालम्बमानं श्रीव्येण लक्ष्यते । न च तेन सह स्वरूपने 2 जति स्वरूपत एव तथाविद्यत्वमवलम्बते । तथैव तदेव द्रव्यमप्येककालमुत्तरावस्थयोश्पद्यमानं प्रासनावस्थया व्ययमानमवस्थायिन्या द्रव्यत्वावस्थया धौव्यमालम्बमानं धौव्येपण लक्ष्यते न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथैव च सदेवोत्तरीयं विस्तारविशेषात्मकंगु लक्ष्यते । न च तैः सह स्वरूपभेवमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्यमवलम्बते । तथैव तदेव द्रव्यमपि विस्तारविशेषात्मकैगुणलक्ष्यते । न च तैः सह रूपमेतजति स्वरूप एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथैव च तदेवोत्तरीयमायतविशेषात्मकः पर्यायवतभिस्तन्तुभिर्लक्ष्यते । न च तैः सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्यमवलम्बते । तथैव तदेव द्रव्यमप्यायतविशेषात्मकैः पर्यायलक्ष्यते । न च तैः सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते ॥ ६५ ॥ भूमिका- - अब द्रव्य का लक्षण बतलाते हैं अन्वयार्थ – [ अपरित्यक्तस्वभावेन ] स्वभाव को छोडे बिना [ यत् ] जो [ उत्पादव्ययवत्वसम्बद्धम् ] उत्पाद-व्यय-धौन्य संयुक्त है [च] तथा [ गुणवत् सपर्यायं ] गुणयुक्त और पर्यायसहित है, [ तत् ] उसे [ द्रव्यम् इति ] 'द्रव्य' ऐसा [ब्रुवन्ति ] कहते हैं । टीका---- यहां ( इस विश्व में ) वास्तव में जो स्वभावमेव किये बिना उत्पाद-व्यय धौथ्य त्रयसे और गुण पर्यायद्वय से लक्षित होता है, वह द्रव्य है । इनमें से ( स्वभाव, उत्पाद, व्यय, धौव्य गुण और पर्याय में से) वास्तव में द्रव्य का स्वभाव अस्तित्वसामान्यरूप अन्वय' है, अस्तित्व को तो दो प्रकार का आगे कहेंगे - १. स्वरूप अस्तित्व २. सादृश्य अस्तित्व । उत्पाद, प्रादुर्भाव (प्रगट होना- उत्पन्न होना) है, व्यय, प्रच्युति ( नष्ट होना ) है, धौम्य, अवस्थिति ( टिकना) है, गुण, विस्तार - विशेष हैं। वे सामान्य विशेषात्मक' होने से दो प्रकार के हैं। इनमें अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व, अगस्व भोक्तृत्व, अगुरुलघुत्व इत्यादि सामान्य गुण हैं । अवगाह - हेतुत्व, गतिनिमितता, स्थितिकारणत्व, वर्तनायतनत्त्व, रूपादिमत्व, चेतनत्व इत्यादि विशेष गुण हैं। पर्याय नायत, विशेष हैं। वे पूर्व ही (६३वीं गाथा की टीका में ) कही गई चार प्रकार की हैं। } १. अस्तित्व सामान्यरूप अन्वय है, ऐसा एकरूप भात्र द्रव्य का स्वभाव है। अर्थात् विशेष-पर्यायों से निरपेक्ष धारावाही सामान्य स्वरूप | ( अन्वय एकरूपता, सादृष्यभाव ) । २. जो गुण एक से अधिक द्रव्यों में पाया जाम वह सामान्य है । जो मात्र एक ही द्रव्य में पाया जाय वह विशेष है । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] [ पक्यण सारो द्रव्य का उन उत्पादादि के साथ अथवा गुणपर्यायों के साथ लक्ष्य-लक्षण भेद होने पर भी स्वरूप भेद नहीं है (सत्ता भेद नहीं है) स्वरूप से ही द्रव्य वैसा होने से (अर्थात् द्रश्य ही स्वयं उत्पादि रूप तथा गुणपर्यायरूप परिणमन करता है, इस कारण स्वरूप भेद नहीं है), वस्त्र के समान । ___ जैसे मलिन अवस्था को प्राप्त वस्त्र, धोने पर निर्मल अवस्था से उत्पन्न होता हुआ उस उत्पादरूप लक्षित होता (देखा जाता है, किन्तु उसका उस उत्पाद के साथ स्वरूप भेद (सत्ता भेद) नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है (अर्थात् स्वयं उत्पादरूप से हो परिणत है), उसी प्रकार जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भो-जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में अनेक प्रकार की बहुत सी अवस्थायें करता है-अन्तरंगसाधनभूत' स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण के सामर्थ्यरूप स्वभाव से अनुगृहीत (सहित) हुआ । अवस्था से उत्पन्न होता हुआ, उत्पादरूप लक्षित होता (देखा जाता) है, किन्तु उसका उस उत्पाद के साथ स्वरूप भेव (सत्ता भेद) नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है और जैसे वही वस्त्र निर्मल अवस्था से उत्पन्न होता हु और मलिन अवस्था से प्यय को माया होता हुआ उस व्यय से लक्षित होता है, परन्तु उसका उस व्यय के साथ स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है, उसी प्रकार वहीं द्रव्य भी उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ और पूर्व अवस्था से व्यय को प्राप्त होता हुआ उस व्यय से लक्षित होता है, परन्तु उसका उस व्यय के साथ स्वरूपभेव नहीं है, वह स्वरूप से ही वैसा है और जैसे वही वस्त्र एक ही समय में निर्मल अवस्था से उत्पन्न होता हुआ, मलिन अवस्था से व्यय को प्राप्त होता हुआ और टिकने वाली वस्त्रत्व-अवस्था से ध्रुव रहता हुआ धौष्य से लक्षित होता है, परन्तु उसका उस ध्रौव्य के साथ स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है, इसी प्रकार वही द्रव्य भो एक ही समय उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ, पूर्व अवस्था से व्यय होता हुआ, और टिकने वाली द्रव्यत्य अवस्था से घुष रहता हुआ ध्रौव्य से लक्षित होता है। किन्तु उसका उस नौच्य के साथ स्वरूप भेद नहीं है, वह स्वरूप से ही बंसा है और जैसे वही स्त्र विस्तारविशेषस्वरूप (शुक्लत्वादि) गुणों से लक्षित होता है, किन्तु उसका उन पुणों के साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूप से ही वैसा है, इसी प्रकार बही द्रव्य भी विस्तारविशेषस्वरूप गुणों से लक्षित होता है, किन्तु उसका उन गुणों के साथ स्वरूप भेद नहीं है, वह --- १. ट्रच्य में निज में ही स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण होने की सामर्थ्य है। यह सामर्थ्य स्वरूप स्वभाव ही अपने परिणमन में (अवस्थान्तर करने में) अन्तरंग साधन है । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २२५ स्वरूप से ही वैसा है और जैसे वही वस्त्र आयतविशेषरूप पर्यायवर्ती (पर्यायस्थानीय) संतुओं से लक्षित होता है, किन्तु उसका उन तंतुओं के साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूप से हो घसा है। उसी प्रकार यही द्रव्य भी आयतविशेषस्वरूप पर्यायों से लक्षित होता है, परन्तु उसका उन पर्यायों के साथ स्वरूपभेद नहीं है, यह स्वरूप से ही वैसा है ॥६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्यस्य ससादिलक्षणत्रयं सूचयति___ अपरिच्चत्तसहाय अपरित्यकस्वभावभस्तित्वेन सहाभिन्न उप्पादत्वयधुवत्तसंजुत् उत्पादव्ययध्रौव्यैः सह संयुक्त गुणवं च सपज्जापं गुणवत्पर्यायसहितं च ज यदित्थंभूतं सत्तादिलक्षणत्रयसंयुक्त संबव्वति बुच्छति तं द्रव्यमिति ब्रुवन्ति सर्वज्ञः। इदं द्रव्य मुत्पादव्ययध्रौव्यै गुणपर्यायैश्च सह लक्ष्यलक्षणभेदे अपि सति सत्ताभदं न गच्छति । हि किं करोति । स्वरूपतयेव तथाविधत्वमवलम्बते । कोऽर्थः । उत्पादव्यय ध्रौव्यस्वरूप गुणपर्याय रूप पपरिणमति शुद्धात्मवदेव । .... तथाहि-केवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे शुद्धात्मरूपपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिरूपकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशे सति शुद्धात्मोपलम्भव्यक्तिरूपकार्यसमयसारस्योत्पादः कारणसमयसारस्य व्ययस्तदुभयाधारभूतपरमात्मद्रव्यत्वेन धौव्यं च । तधानन्तज्ञानादिगुणाः, गतिमार्गणाविपक्षभूतसिद्धतिः, इन्द्रियमाणाविपक्षभूतातीन्द्रियत्वादिलक्षणाः शुद्धपर्यायाश्च भवन्तीति । यथा शुद्धसत्तया सहाभिन्न परमात्मद्रव्यं पूर्वोक्तोत्पादव्यय ध्रौव्यगुणपर्यायैश्च सह संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि सति तैः सह सस्तादिभेदं न करोति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । तथाविधत्व कोर्थः ! उत्पादव्ययध्रौव्यगुणपर्यायस्वरूपेण परिणमन्ति, तथा सर्वद्रव्याणि स्वकीय स्वकीययथोचितोत्पादव्ययध्रौव्यस्तथंबगुणपर्यायैश्च सह यद्यपि संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभिर्भई कुर्वन्ति तथापि सत्तास्वरूपेण भेद न कुर्वन्ति, स्वभावत एव तथाविधत्वमवलम्बते । तथाविधत्वं कोऽर्थः ? उत्पादच्ययादिस्वरूपेण परिणमन्ति । अथवा या वस्त्रं निर्मलपर्यायेणोत्पन्न मलिनपर्यायेण विनष्टं तदुभयाधारभूतवस्त्ररूपेण ध्रुवमविनश्वरं, तथैव शुक्लवर्णादिगुणनवजीर्णादिपर्यायसहितं च सत् तैरुत्पादव्ययश्रीव्यस्तयं च स्वकीयगुणपर्यायैः सह संज्ञादिभेदेपि सति सत्तारूपेण भेद न करोति । तहि किं करोति ? स्वरूपत एवोत्सादादिरूपेण परिणमन्ति, तथा सर्वव्याणीत्यभिप्रायः ॥६५॥ एवं नमस्कारमाथा द्रव्य गुणपर्यायकथनगाथा स्वसमयपरसमयनिरूपणगाथा सत्तादिलक्षणत्रयसूचनगाथा चेति स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन पीठिकाभिधानं प्रथमस्यलं गतम् । उत्पानिका-आगे द्रव्य का लक्षण सत्ता आदि तीन रूप हैं ऐसा सूचित करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(यत्) जो (अपरिच्चतसहावेण) अभिन्न स्वभाव रूप से रहता है अर्थात अपने अस्तित्व या सत् स्वभाव से भिन्न नहीं है, (उप्पारम्बयधुवत्तसंजुत्तं) । उत्पाद, व्यय और प्रौष्य सहित है। (गुणवं च सपज्जाय) गुणवान होकर पर्याय-सहित है, Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] [ पवयणसारो इस तरह सत्ता आदि तीन लक्षणों को रखने वाला है ( तं दन्त्र त्ति ) उसको द्रव्य ऐसा ( बुच्चति ) सर्वज्ञ भगवान् कहते हैं । यह द्रव्य उत्पाद व्यय श्रव्य तथा गुण पर्यायों के साथ लक्ष्य और लक्षण की अपेक्षा भेद रूप होने पर भी सत्ता के भेद को नहीं रखता है । जिसका लक्षण या स्वरूप कहा जाय वह लक्ष्य है और जो उसका विशेष स्वरूप है वह लक्षण हैं । तब यह द्रव्य क्या करता है ? अपने स्वरूप से ही उस विधपने को आलंबन करता है । इसका भाव यह है कि यह द्रव्य शुद्धात्मा की तरह उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप तथा गुणपर्याय रूप परिणमन करता है । केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय में शुद्ध आत्मा के स्वरूप ज्ञानमयो निश्चल अनुभवरूप कारणसमयसार रूप पर्याय का विनाश होते हुए शुद्धात्मा का लाभ या उसकी प्रगटता रूप कार्य- समयसार का उत्पाद या जन्म होता है और इन दोनों पर्यायों के आधार रूप परमात्म द्रव्य की अपेक्षा से ध्रुवपना या स्थिरपना रहता है तथा उस परमात्मा के अनंतज्ञानादि गुण होते हैं । गतिमागंणा से विपरीत सिद्ध गति व इन्द्रिय मार्गणा से विपरीत अतींद्रियपना आदि लक्षण को रखने वाली शुद्ध पर्यायें होती हैं अर्थात् वह परमात्म-द्रथ्य जैसे अपनी शुद्ध सत्ता से भिन्न नहीं है, एक है, पूर्व में कहे हुए उत्पाद व्यय श्रीव्य स्वभावों से तथा गुण पर्यायों से संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि को अपेक्षा से भेद रूप होने पर भी उनके साथ सत्ता आदि के भेद को नहीं रखता है, स्वरूप से ही उसी प्रकार पने को धारण करता है अर्थात् उत्पाद-व्यय-धीव्य रूप तथा गुण पर्याय स्वरूप रूप परिणमन करता है तैसे ही सर्व द्रव्य अपने-अपने यथायोग्य उत्पाद व्यय धौव्यपने से तथा गुण पर्यायों के साथ यद्यपि संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद रखते हैं तथापि सत्ता स्वरूप से भेद नहीं रखते हैं, स्वभाव से ही उन प्रकार-रूपपने को आलम्बन करते हैं, अर्थात् उत्पाद व्यय श्रव्य स्वरूप या गुणपर्याय स्वरूप परिणमत करते हैं । अथवा जैसे वस्त्र जब स्वच्छ किया जाता है तब अपनी निर्मल पर्याय से पैदा होता है, मलिन पर्याय से नष्ट होता है और इन दोनों के आधार रूप वस्त्र स्वभाव से ध्रुव या अविनाशी है तसे ही अपने ही श्वेताविगुण तथा मलिन यथा स्वच्छ पर्यायों के साथ संज्ञा आदि की अपेक्षा भेट होने पर भी सत्ता रूप से भेद नहीं रखता है, तब क्या करता है ? स्वरूप से ही उत्पाद आदि रूप से परिणमन करता है, जैसे ही सर्व ब्रव्य परिणमन करते हैं यह अभिप्राय है ||३५|| भावार्थ - - इस गाथा में आचार्य ने द्रव्य के तीन लक्षण बताए हैं। सत्रूप, उत्पाद व्यय धौव्य रूप और गुण पर्याय रूप । अभेद की अपेक्षा द्रश्य जैसे अपने सत् स्वभाव से Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणसारो ] [ २२७ एक है वैसे वह उत्पाद व्यय धौव्य या गुण पर्यायों से एक है, भेद की अपेक्षा वह जैसे सपने को रखता है से वह उत्पादादि को रखता है ॥ ६५ ॥ इस तरह नमस्कार गाथा, द्रव्य गुण पर्याय कथनगाथा, स्वसमय परसमय निरूपणगाथा, सत्तावि लक्षणत्रय - सूचनगाथा, इस तरह स्वतंत्र चार गाथाओं से पीठिका नाम का पहला स्थल पूर्ण हुआ । अप क्रमेणास्तित्वं द्विविधमभिदधाति स्वरूपास्तित्वं सादृश्यास्तित्वं चेति तत्रेदं स्वरूपास्तित्वाभिधानम् - सम्भावो हि सहावो गुणेह 'सगपज्जएहि चित्तेह | दव्वस्स सव्वकालं उप्पादन्वयधुवत्तहिं ॥६६॥ सद्भावो हि स्वभावो गुणः स्वपर्ययेश्चिः । द्रव्यस्य सर्वकालमुपादव्ययध्रुवत्वैः ॥६६॥ अस्तित्वं हि किल द्रव्यस्य स्वभावः, तत्पुनरन्यसाधन निरपेक्षत्वादनाद्यनन्ततया हेतुकinster वृत्या नित्यप्रत्तत्वाद्विभावधर्मवैलक्षण्याच्च, भावभाववद्भावान्नानात्वेऽपि प्रदेशभावाद्रव्येण सत्यमवलम्बमानं द्रव्यस्य स्वभाव एव कथं न भवेत् । तत्तु द्रव्यान्तराणाfine ध्यगुणपर्यायाणां न प्रत्येक परिसमाप्यते । यतो हि परस्परसाधित सिद्धियुक्तत्वात्तेषामस्विमेकमेव कार्तस्वरवत् । यथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कार्तस्वरात् पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेण पीततादिगुणानां कुण्डलादिपर्यायाणां स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य, कार्तस्व रास्तित्वेन निष्पादित निष्पत्तियुक्तैः पीततादिगुणैः कुण्डलादिपर्यायैश्च यदस्तित्वं, कार्तस्वरस्य स स्वभाव:, तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण या कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानः कर्तृकरणाधिकरणरूपेण गुणानां पर्या★ स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तं गुर्ण पश्च यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । यथा वा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन व भावेन पीतता विगुणेभ्यः कुण्डलादिपर्यायश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणधिकरणरूपेण स्वरस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तः पीततादिगुणैः कुण्डलादिपर्यायैश्च निष्पासनिष्पत्तियुक्तस्य कार्तस्वरस्य मूलसाधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः, तथा ओ वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा गुणेभ्यः पर्यायेभ्यश्च पृथननुपलभ्यमानस्य करणाधिकरणरूपेण द्रव्यत्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तर्गुर्णः पर्यायैश्च निष्पा १. सहपज्जएहि ( ज ० ० ) 1 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ 1 [ पक्यणसारो वितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया तैनिष्पादितं यक्षस्तित्वं स स्वभावः । किंचयथा हि ध्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कार्तस्वरात्पृथगनुपलभ्यमानः, कत करणाधिकरणरूपेण कुण्डलाङ्गादपीतताधुत्पावध्ययनोव्याणणां स्वरूपमुपावाय प्रवर्तभानप्रवृत्तियुक्तस्य, कार्तस्थरास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तः कुण्डलाङ्गदपीततायुत्पादव्ययोध्ययवस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः, तथा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानः कत करणाधिकरणरूपेणोत्पादव्ययध्रौव्याणां स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्थ, द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तरुत्पावत्ययधौव्यर्यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । यथा वा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कुण्डलाङ्गवपीतताद्युत्पादव्ययधोध्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कत करणाधिकरणरूपेण कार्तस्वरस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैः कुण्डलाङ्गदपीतताधुत्पादच्ययध्रौव्यं. निष्पादितनिष्पतियुक्तस्य, कार्तस्वरस्य मूलसाधनतया तनिष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः तथा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वोत्पादध्ययनौव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कत करणाधिकरणरूपेण द्रष्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तरुत्पादव्ययात्रीयोनपादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया तनिष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः ॥६६॥ भूमिका-अब अनुकम से दो प्रकार का अस्तित्व कहते हैं। स्वरूप-अस्तित्व और सादृश्य-अस्तित्व इनमें से यह स्वरूपास्तित्व का कथन है-- अन्वयार्थ-[चित्रः गुणः] अनेक प्रकार के गुण तथा [चित्रैः स्वकपर्यायः । अनेक प्रकार की अपनी पर्यायों से | उत्पादन्ययध वत्वैः | और उत्पाद व्यय ध्रौव्य से [सर्वकालं] सर्वकाल में [द्रव्यस्य सद्भावः] द्रव्य का जो अस्तित्व है [हि] वह वास्तव में [स्वभावः] स्वभाव है। टीका-अस्तित्व वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है, और वह (अस्तित्व) (१) अन्य साधन से निरपेक्ष होने के कारण से, (२) अनादि-अनन्त, अहेतुक, एकरूप वृत्ति से सबा ही प्रवृत्त होने के कारण से, (३) विभाष धर्म से विलक्षण होने से, (४) भाव और भावबानता के भाव से अनेकत्व होने पर भी प्रदेशभेद न होने से, द्रव्य के साथ एकत्व को धारण करता हुआ द्रव्य का स्वभाव ही क्यों न हो ? (अवश्य होवे) वह अस्तित्व, जैसे भिन्न-भिन्न द्रव्यों में प्रत्येक में समाप्त हो जाताहै, उसी प्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय में प्रत्येक में समाप्त नहीं हो जाता, क्योंकि वास्तव में परस्पर में साधित सिद्धि (युक्त होने से) अर्थात् १. अस्तित्व तो (द्रव्य का) भाव है और द्रव्य भाववान् है । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २२६ यदि एक न हो तो दूसरे दो सुवर्ण की भांति । द्रव्य गुण और पर्याय एक दूसरे से परस्पर सिद्ध होते हैं, भी सिद्ध नहीं होते, (इसलिये ) उनका अस्तित्व एक ही है, जैसे वास्तव में, द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से सुधर्ण से पृथक् न प्राप्त होने वाले तथा सुवर्ण के अस्तित्व से बने हुए पीतत्वादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों के द्वारा जो अस्तित्व है वह (अस्तित्व), कर्ता-करण - अधिकरण रूप से पीतत्वादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान सुवर्ण का स्वभाव है । उसी प्रकार वास्तव में, द्रव्य क्षेत्र काल भाव से पृथक् प्राप्त न होने वाले तथा द्रव्य के अस्तित्व से बने हुए गुणों और पर्यायों के द्वारा जो अस्तित्व है, वह ( अस्तित्व), कर्ता-करण अधिकरण रूप से गुणों के और पर्यायों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान प्रवृत्ति युक्त द्रव्य का स्वभाव है । ( द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से सुवर्ण से भिन्न न दिखाई देने वाले पीतत्वादिक और कुण्डलादिक का जो अस्तित्व है वह सुवर्ण का हो अस्तित्व है, क्योंकि पीतत्वादिक के और कुण्डलादिक के स्वरूप को सुवर्ण ही धारण करता है, इसलिये सुवर्ण के अस्तित्व से ही पीतत्वादिक की और कुण्डलादि की निष्पत्ति सिद्धि होती है, सुवर्ण न हो तो पीतत्वादिक और कुण्डलादिक भी न हों। इसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से भिन्न नहीं दिखाई देने वाले गुणों और पर्यायों का जो अस्तित्व है यह द्रव्य काही अस्तित्व है, क्योंकि गुणों और पर्यायों के स्वरूप को द्रव्य ही धारण करता है, इसलिये द्रव्य के अस्तित्व से ही गुणों की और पर्यायों की निष्पत्ति होती हैं, द्रव्य न हो तों 'गुण और पर्यायें भी न हों। ऐसा अस्तित्व द्रव्य का स्वभाव है ।) अथवा, जैसे द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से पीतत्वादि गुणों से और कुण्डलादि पर्यायों से पृथक् प्राप्त होने वाले तथा कर्ता-करण - अधिकरण रूप से सुवर्ण के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान पीतत्वादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों से निष्पन्न होने वाले सुवर्ण का मूल साधन रूप से ( पीतत्वादिक गुणों और कुण्डलादि पर्यायों से) for हुआ अस्तित्व स्वभाव है, इसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से मों से और पर्यायों से जो पृथक नहीं दिखाई देने वाले तथा कर्ता-करण अधिकरण रूप से द्रव्य के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान गुणों और पर्यायों से निष्पन्न होने वाले शुष्य का मूल साधन रूप से गुणों और पर्यायों से निष्पन्न हुआ अस्तित्व स्वभाव है । ( पीतत्वादिक से और कुण्डलादिक से भिन्न न दिखाई देने वाले सुवर्ण का Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] [ पवयणसारो अस्तित्व है वह पीतत्वादिक और कुण्डलादिक का ही अस्तित्व है, क्योंकि सुवर्ण के स्वरूप को पीतत्वादिक और कुण्डलारिक ही धारण करते हैं, इसलिये पीतत्वारिक और कुण्डलादिक के अस्तित्व से ही सुवर्ण की निष्पत्ति होती है। पीतत्वादिक और कुण्डलाविक न हों तो सुधर्ण भी न हो। इसी प्रकार गुणों से और पर्यायों से भिन्न न दिखाई देने वाले द्रव्य का अस्तित्व है वह गुणों और पर्यायों का ही अस्तित्व है, क्योंकि द्रव्य के स्वरूप को गुण और पर्यायें ही धारण करती हैं, इसलिये गुण और पर्यायों के अस्तित्व से ही द्रव्य की निष्पत्ति होती है। यति गण और पर्पों न हो तो हम भी - हो। ऐसा अस्तित्व द्रव्य का स्वभाव है। जिस प्रकार द्रव्य का और गुण पर्याय का एक ही अस्तित्व है, ऐसा स्वर्ण के दृष्टान्त-पूर्वक समझाया, उसी प्रकार अब सुवर्ण के दृष्टान्त-पूर्वक ऐसा बताया आ रहा है कि द्रव्य का और उत्पाद-व्यय-धोव्य का भी एक ही अस्तित्व है।) जैसे वास्तव में द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से स्वणं से पृथक् नहीं प्राप्त होने वाले तथा स्वर्ण के अस्तित्व से बने हुए कुण्डलादि के उत्पाद, बाजूबंधादि के व्यय और पीतस्वादि के प्रौव्य से जो अस्तित्व है, वह (अस्तित्व), कर्ता-करण-अधिकरण रूप से कुण्डलावि के उत्पाद को, बाजूबंधादि के व्यय के और पीतत्वादि के धौव्य के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान प्रवृत्ति युक्त स्वर्ण का स्वभाव है। इसी प्रकार द्रव्य से जो अस्तित्व है, वह (अस्तित्व), कर्ता-करण-अधिकरण रूप से उत्पाद-व्यय-धान्य के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान द्रव्य का स्वभाव है । (द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से) द्रव्य से भिन्न दिखाई न देने वाले उत्पाद, व्यय और धोव्य का जो अस्तित्व है वह द्रव्य का ही अस्तित्व है, क्योंकि उत्पाद, व्यय और धोव्य के स्वरूप को द्रव्य हो धारण करता है, इसलिये द्रव्य के अस्तित्व से ही उत्पाद, व्यय और प्रौव्य को निष्पत्ति होती है। यदि द्रव्य न हो तो उत्पाद, व्यय प्रौव्य भी न हों। ऐसा अस्तित्व द्रव्य का स्वभाव है । अथवा, जैसे द्रश्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से कूण्डलादि के उत्पाद से बाजूबंधादि के व्यय से और पीतत्वादि के श्रीव्य से पथक नहीं प्राप्त होने वाले तथा कर्ता-करण-अधिकरण रूप से स्वर्ण के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान कुण्डलादि के उत्पाद से, बाजूबंधादि के व्यय से और पीतत्वादि के धौव्य से निष्पन्न होने वाले स्वर्ण का, मूल साधन रूप उनसे (कुण्डलादि के उत्पाद से, बाजूबंधादि के व्यय से पीतत्वादि के धौथ्य से निष्पन्न हुआ जो अस्तित्व है, वह (अस्तित्व) स्वभाव है । इसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से उत्पादध्यय-ौन्य से पथक नहीं प्राप्त होने वाले तथा कर्ता-करण-अधिकरण रूप से द्रव्य के Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २३१ स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान उत्पाद व्यय-धौव्य निष्पन्न होने वाले द्रव्य का, मूल साधनपने से उनसे (उत्पाद व्यय - श्रीव्य से ) निष्पन्न हुआ जो अस्तित्व है, वह (अस्तित्व ) स्वभाव है। उत्पाद से व्यय से और धौव्य से भिन्न न दिखाई देने वाले द्रव्य का अस्तित्व वह उत्पाद, व्यय और धौथ्य का ही अस्तित्व है, क्योंकि द्रव्य के स्वरूप को उत्पाद, व्यय और धौव्य ही धारण करते हैं, इसलिये उत्पाद व्यय और धौव्य के अस्तित्व से ही द्रव्य की निष्पत्ति होती है । यदि उत्पाद-व्यय-धौव्य न हों तो द्रव्य भी न हो। ऐसा अस्तित्व वह अस्तित्व य का स्वभाव है ॥ ६६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ प्रथमं तावत्स्वरूपास्तित्वं प्रतिपादयति सोहि स्वभाव: स्वरूपं भवति हि स्फुटं । कः कर्ता ? सहायो स‌द्भावः शुद्धसत्ता शुद्धास्तित्वं ॥ कस्य स्वभावा भवति ? दव्यस्स मुक्तात्मद्रव्यस्य तच्च स्वरूपास्तित्वं यथा मुक्तात्मनः सकाशात्पृथग्भूतानां पुद्गलादि पञ्चद्रव्याणां शेषजीवानां च भिन्नं भवति न च तथा । कै: सह ? गुणेहि सहज्जहि केवलज्ञानादिगुणैः किचिदूनच रम शरीराकारादिस्त्रकीय पर्यायैश्च सह । कथंभूतः ? चित्तह सिद्धगतित्व मतीन्द्रियत्व कायत्व मयोगत्वमवेदत्वमित्यादिबहुभेदभिन्नेन केवलं गुणपर्यायैः सह न भवति । उत्पादव्वय धुवत्तहिं शुद्धात्मप्राप्तिरूपमोज्ञपर्यायस्योपादो रागादिविकल्परहितपरमसमाधिरूपमोक्षमार्गपर्यायस्य व्ययस्तथा मोक्षमार्गाधारभूतान्वयद्रव्यत्वलक्षणं भोग्यं चेत्युक्तलक्षणोपच सह भिन्नं न भवति । कथं ? सध्वकालं सर्वकालपर्यन्तं यथा भवति । कस्मात्तंः सह भिन्नं न भवतीति चेत् ? यतः कारणाद्गुणपर्यायोऽस्तित्वं नोदव्यय श्रीव्यास्तित्वेन च कर्तृ भूतेन शुद्धात्मद्रव्यास्तित्वं साध्यते शुद्धात्मद्रव्यास्तित्वेन च गुणपर्यायोत्पादव्यय श्रीव्यास्तित्वं साध्यत इति । तद्यथा यथा स्वकीयद्रव्यक्षेत्र कालभावः सुवर्णादभिन्नानां पीतत्वादिगुणकुण्डलादिपर्यायाणां संधि वदस्तित्वjस एव सुवर्णस्य सद्भाव:, तथा स्वकीयद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परमात्मद्रव्यादभिन्नाना केव लज्ञानादिगुणकिञ्चनचरमधारीराकारादिपर्यायाणां संबन्धि यदस्तित्वं स एव मुक्तात्मद्रव्यस्य सद्द्भावः यथा स्वकीयद्रव्य क्षेत्रकालभावः पीतत्वादिगुणकुण्डलादिपर्यायेभ्यः सकाशादभिन्नस्य सुवर्णस्य सम्बन्धि स्तित्वं स एष पीतत्वादिगुणकुण्डलादिपर्यायाणां स्वभावो भवति, तथा स्वकीय द्रव्यक्षेत्र कालमश्वः केवलज्ञानादिगुणकिञ्चिदून चरम शरीराकारपर्यायेभ्यः सकाशादभिन्नस्य मुक्तात्मद्रव्यस्य सम्बन्धि स्तित्वं स एव केवलज्ञानादिगुण किञ्चिद्नच रमशरीराकारपर्यायाणां स्वभावो ज्ञातव्यः । अथेदानीमुत्पादव्ययश्रीच्याणामपि द्रव्येण सहाभिन्नास्तित्वं कथ्यते । यथा स्वकीयद्रव्यादिचतुष्टयेन सुत्रर्णादभिन्नानां कटकपर्यायोत्पादकङ्कणपर्यायविनाश सुवर्णत्वलक्षणश्रीव्याणां सम्बन्धि यदस्तित्वं स एव सुवर्णस्रभाव:, तथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन परमात्मद्रव्यादभिन्नानां मोक्षपर्यायोत्पादमोक्षमार्गपर्यायव्ययतदुभयाधारभूत परमात्मद्रव्यत्वलक्षणध्रौव्याणां सम्बन्धि यदस्तित्वं स एव मुक्तात्मन्यस्वभाव: यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन कटकपर्यायोत्पादकङ्कणपर्यायव्यय सुवर्णत्व लक्षण व्येभ्यः सकाशादभिन्नस्य सुवर्णस्य सम्बन्धि यदस्तित्वं स एव कटकपर्यायोत्पादकङ्कणपर्यायव्ययतदुभयाधारभूतसुवर्णत्वलक्षण Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] [ पवयणसारो ध्रौपाणां सद्भावः, तथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन मोक्षपर्यायोत्पादमोक्षमार्गपर्यायव्ययतदुभयाधारभूतमुक्तात्मद्रव्यत्वलक्षणध्रौव्येभ्य: सकाशादभिन्नस्य परमात्मद्र व्यस्य संबन्धि यदस्तित्वं स एव मोक्षपर्यायोत्पादमोक्षमार्गपर्यायव्ययतदुभयाधारभूतमुक्तात्मद्रव्यत्वलक्षणधोयाणां स्वभाव इति ! एवं यथा गुरुसाव्यस्य स्वकीय सुगमनीयात्वादध्ययनोव्यः सह स्वरूपास्तित्वाभिधानमवान्तरास्तित्वमभिन्न व्यवस्थापितं, तथैव समस्तशंषद्रव्याणामपि व्यवस्थापनीयमित्यर्थः ।।६६।। उत्थानिका-आगे अस्तित्त्व या सत् के दो प्रकार अस्तित्व में से स्वरूप अस्तित्व को बताते हैं __ अन्वय सहित विशेषार्थ---(चित्तेहि गुणेहि सहपज्जएहि) नाना प्रकार के अपने गुण और अपनी पर्यायों के साथ सिद्ध जीव की अपेक्षा से अपने केवलझान आदि गुण तथा अंतिम शरीर से कुछ कम आकार रूप अपनी पर्याय तथा सिद्ध गतिपना, अतीन्द्रियपना, कायरहितपना, योगरहितपना, वेदरहितपना इत्यादि नाना प्रकार की अपनी अवस्थाओं के साथ और (उप्पादम्बयधुबत्तेहि) उत्पाद व्यय नोव्यपने के साथ सिद्ध जीव की अपेक्षा से शुद्ध आत्मा की प्राप्ति रूप मोक्ष पर्याय का उत्पाद, रागद्वेषादि विकल्पों से रहित परमसमाधि रूप मोक्ष मार्ग की पर्याय का व्यय तथा मोक्षमार्ग और मोक्ष के आधारभूत चले आने वाले द्रव्यपने का लक्षणरूप धौव्यपना इन तीन प्रकार उत्पाद व्यय प्रौव्य के साथ (वश्वस्स) द्रव्य का अर्थात् मुक्तात्मा रूपी द्रव्य का (सन्वकाल) सर्व कालों में अर्थात् सदा ही (सब्भावो) शुद्ध अस्तित्व है या उसको शुद्ध सत्ता है (हि) सो ही निश्चय करके (सहावो) उसका निज भाव या निज रूप है, क्योंकि मुक्तात्मा इनके साथ अभिन्न हैं इसका हेतु यह है कि गुण पर्यायों के अस्तित्त्व से तथा उत्पाद व्यय धौन्यपने के अस्तित्त्व से ही शुद्ध आत्मा के द्रव्य का अस्तित्व साधा जाता है और शुद्ध आत्मा के द्रव्य के अस्तित्व से गुण पर्यायों का और उत्पाद व्यय प्रौव्यपने का अस्तित्व साधा जाता है। किस तरह परस्पर साधा जाता है सो बताते हैं जैसे स्वर्ण के पीतपना आदि गुण तथा कुंचल आदि पर्यायों का जो स्वर्ण के द्रव्य क्षेत्र काल माव की अपेक्षा स्वर्ण से भिन्न नहीं है, जो अस्तित्त्व है वहीं स्वर्ण का अपना अस्तित्त्व है या सद्भाव है । तैसे ही मुक्तात्मा के केवलज्ञान आदि गुण मौर अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार आदि पर्यायों का जो मुक्तात्मा के द्रव्य क्षेत्र काल भावों की अपेक्षा परमात्मा-द्रव्य से भिन्न नहीं है, जो अस्तित्त्व है वही मुक्तात्मा द्रव्य का अपना अस्तित्त्व या सभाव है। और जैसे स्वर्ण के पीतपना आदि गुण और कंडल आदि पर्यायों के साथ जो स्वर्ण अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावों की अपेक्षा अभिन्न हैं, उस स्वर्ण का जो अस्तित्त्व है वही पीतपना आदि गुण तथा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ २३३ कुंडल आदि पर्यायों का अस्तित्त्व या निज भाव है। तैसे ही मुक्तात्मा के केवलज्ञान आदि गुण और अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार आदि पर्यायों के साथ जो मुक्तात्मा अपने ध्य क्षेत्र काल भावों की अपेक्षा अभिन्न है उस मुक्तात्मा का जो अस्तित्व है, वहीं केवलज्ञानादि गुण तथा अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार आदि पर्यायों का अस्तित्त्व या निजमाव जानना चाहिये। अब उत्पाद व्यय छौव्य का भी द्रव्य के साथ जो अभिन्न अस्तित्त्व है उसको कहते हैं। जैसे स्वर्ण के द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा स्वर्ण से अभिन्न कटक पर्याय का उत्पाद और कंकण पर्याय का विनाश तथा स्वर्णपने का प्रौव्य इनका जो अस्तित्त्व है वही स्वर्ण का अस्तित्त्व व उसका निज भाव या स्वरूप है । तैसे ही परमात्मा के द्रव्य क्षेत्र काल भाव को अपेक्षा परमात्मा से अभिन्न मोक्ष पर्याय का उत्पाद और मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा इन दोनों के आधारभूत परमात्म-द्रव्यपने का धोव्य इनका जो अस्तित्व है वही मुक्तात्मा द्रष्य का अस्तित्त्व या उसका निजभाव या स्वरूप है । और जैसे अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव को अपेक्षा कटक पर्याय का उत्पाव और । कंकण पर्याय का व्यय तथा इन दोनों के आधारभूत स्वर्णपने का धौव्य इनके साथ अभिन्न जो स्वर्ण उसका जो अस्तित्त्व है वही कटक पर्याय का उत्पाद, कंकण पर्याय का व्यय तया इन दोनों के आधारभूत स्वर्णपना रूप धोव्य इनका अस्तित्त्व या निजमाव या स्वरूप है । तैसे ही अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव को अपेक्षा मोक्ष पर्याय का उत्पाद, और मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा दोनों के आधारभूत मुक्तात्मा द्रव्यपनारूप धौव्य इनके साथ अभिन्न जो परमात्मा द्रव्य उसका जो अस्तित्त्व है वही मोक्ष पर्याय का उत्पाद, मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा इन दोनों के आधारभूत मुक्तात्मा द्रव्य रूप प्रौव्य इनका अस्तित्व या निजभाव या स्वरूप है। इस तरह जैसे मुक्तात्मा द्रव्य का अपने ही गुण पर्याय और उत्पाद प्रोग्य के साथ स्वरूप का अस्तित्त्व या अवान्तर अस्तित्त्व अभिन्न स्थापित किया गया है तैसे ही शेष सर्व द्रव्यों का भी स्वरूप-अस्तित्त्व या अवान्तर अस्तित्त्व स्थापित करना चाहिये । इस गाथा का यह अर्थ है। भावार्थ-इस गाथा में आचार्य ने स्वरूप-अस्तित्व या अवान्तर-सत्ताका स्वरूप बताया है । हर एक द्रव्य अपने अखण्ड जितने प्रदेशों को लिये है चाहे वह एक प्रदेश हो अनेक, यह द्रव्य उतने प्रदेशों के साथ अपनी सत्ता को दूसरे द्रव्य से पृथक् रखता है । तथा असकी इस अवान्तर या पृथक सत्ता में ही गुणपर्यायपना या उत्पाद व्यय नौव्य रहते सम कोई द्रव्य कभी अपनी सत्ता को छोड़ता है, न गुणपर्याय से रहित होता है, न उत्पाद -. . Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] [ पवयणसारो व्यय धौव्य को त्यागता है । द्रव्य में हरसमय द्रव्य के ये तीनों ही लक्षण पाए जाते हैं । यही द्रव्य का स्वभाव है ॥६६॥ इदं तु सादृश्यास्तित्वाभिधानमस्तीति कथयति इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदित्ति सम्बगयं । उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं ॥६७॥ इह विविधलक्षणानां लक्षणमेक सदिति सर्वगतम् । उपदिशता खलु धर्म जिनवरवृषभण प्रज्ञप्तम् ॥६७।। इह किल प्रपञ्चितवैचित्र्येण द्रव्यान्तरेभ्यो न्यावृत्य वृत्तेन प्रतिद्रव्यं सीमानमासूत्रयता विशेषलक्षणभूतेन च स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि सर्वव्याणामस्तमितवैचित्र्यप्रपञ्चं प्रवृत्य वत्तं प्रतिद्रव्यमासूत्रितं सीमानं मिन्दत्सदिति सर्वगतं सामान्य लक्षणभूतं सादृश्यास्तित्वमेकं खल्ववबोद्धव्यम् । एवं सदित्यभिधानं सरिति परिच्छेदनं च सर्वार्थपराशि स्यात् । यदि पुनरिदमेव न स्यात्तदा किचित्सदिति किचिदसदिति किचित्सच्चासच्चेति किनिदवाच्यमिति च स्यात् । तत्तु विप्रतिषिद्धमेव प्रसाध्यं चैतवनोकहवत् । यथा हि बहनां बहविधानामनोफहानामात्मीयस्यात्मीयस्य विशेषलक्षणभूतस्य स्वारूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नात्व, सामान्यलक्षण-भूतेन सादृश्योद्भासिनानोकहत्त्वेनोत्थापितमेकत्वं तिरियति । तथा बहूनां बहुविधानां द्रव्याणामात्मीयात्मीयस्य विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नात्वं, सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिना सदित्यस्य भावनोत्थापितमेकत्वं तिरियति । यथा च तेषामनोकहानां सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्धासिनानोकहत्वेनोत्थापिलेनैकल्येन तिरोहितमपि विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्थावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नात्वमुच्चकास्ति, तथा सर्वद्रव्याणामपि सामान्य लक्षणभूतेन सादृश्योद्धा. सिना सदित्यस्य भावनोत्थापितेनकत्वेन तिरोहितमपि विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्थावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वमुच्चकास्ति ६७॥ भूमिका-अब सादृश्य-अस्तित्व का कथन करते हैं अन्वयार्थ-[धर्म] धर्म का [उपदिशता] उपदेश करने वाले [जिनवरवृषभेण] जिनवर वृषभ के द्वारा [इह] इस विश्व में [विविधलक्षणानां] विविध लक्षण वाले (भिन्न भिन्न स्वरूपास्तित्व वाले सर्व) द्रव्यों का [खलु] वास्तव में [सत् इति] 'सत्' ऐसा [सर्व गतं] सर्वगत (सब में व्यापने वाला) [एक लक्षणं] एक लक्षण [प्राप्तम्] कहा गया है । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 [ २३५ टीका-वास्तव में इस विश्व में, विचित्रता को विस्तारित करते हुये (विविधताअनेकत्व को दिखाते हुये), अन्य द्रव्यों से व्यावृत (भिन्न) रहकर प्रवर्तमान, और प्रत्येक द्रव्य की सीमा को बांधते हुये, ऐसे विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व से लक्षित भी सर्व द्रव्यों की, विचित्रता के विस्तार को अस्त करता हुआ, सर्व द्रव्यों में प्रवृत्त होकर रहने पाला, और प्रत्येक द्रव्य को बंधी हुई सीमा को भेदता (तोड़ता) हुआ, 'सत्' ऐसा जो सर्वगत सामान्य लक्षणभूत एक सादृश्यास्तित्व है, वह ही वास्तव में एक ही जानने योग्य है । इस प्रकार 'सत्' ऐसा कथन और 'सत्' ऐसा ज्ञान सर्व पदार्थों का परामर्श (स्पर्शग्रहण) करने वाला है। यदि वह ऐसा (सर्व पदार्थ परामर्शी) न हो तो कोई पदार्थ सत्, कोई असत्, कोई सत् तथा असत् और कोई अवाध्य होना चाहिये, किन्तु वह तो निषिद्ध हो है, और यह ('सत्' ऐसा कथन और ज्ञान के सर्व पदार्थ परामर्शी होने की बात) तो सिद्ध हो सकती है, वक्ष की भांति । जैसे वास्तव में बहुत से और अनेक प्रकार के बृक्षो को अपने-अपने विशेष लक्षणसूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्थित होते (खड़े होते) अनेकत्व को, सामान्य लक्षणभूत सादृश्यवर्शक वृक्षत्व से उत्थित होता एकत्व तिरोहित (अदृश्य) कर देता है, इसी प्रकार बहुत से और अनेक प्रकार के द्रव्यों को अपने-अपने विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उस्थित होते अनेकत्व को, सामान्य लक्षणभूत सादृश्यदर्शक 'सत्' पनेसे ('सत्' ऐसे भाव से, अस्तित्व से है-पने से) उत्थित होता एकत्व तिरोहित कर देता है। और जैसे उन वृक्षों के विषय में सामान्य लक्षणभूत सादृश्यवर्शक वृक्षत्व से उत्थित होते एकत्व से तिरोहित होता है तो भी, (अपने-अपने) विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्थित हुआ अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है, (बना रहता है, नष्ट नहीं होता), इसी प्रकार सर्व द्रव्यों के विषय में भी सामान्य लक्षण देत सादृश्यदर्शक मात्' पने से उत्थित होते एकत्व से तिरोहित होने पर भी, (अपने-अपने) विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्थित हुआ अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता तात्पर्यवृत्ति अथ सादृश्यास्तित्वशब्दाभिधेयां महासत्ता प्रज्ञापयति--- इह विविहलक्खणाणं इह लोके प्रत्येक सत्ताभिधानेन स्वरूपास्तित्वेन विविधलक्षणानां भिन्नलक्षणानां चेतनाचेतन मूर्तामुर्तपदार्थानां लक्खणमेगं तु एकमखण्डलक्षणं भवति । कि कृर्तृ ? सदित्ति स, सदिति महासत्तारूपं किविशिष्ट ? सधगयं संकरव्यतिकरपरिहाररूपस्वजात्यविरोधेन शुद्ध Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] [ पबयणसारो संग्रहनयेन सर्वगतं सर्वपदार्थव्यापक । इदं केनोक्तं? जबक्षिसदा खलु धम्म जिणवरयसहेण पण्णत धर्म वस्तुस्वभाव संग्रहमुपदिशता खलु स्फुटं जिनवरवृषभेण प्रज्ञप्तमिति । तद्यथा- यथा सर्वे मुक्तात्मनः सन्तीत्युक्ते सति परमान्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादरितावस्थलोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयात्मप्रदेशैस्तथा किञ्चिदूनचरमशरीराकारादिपर्यायश्च संकरव्यतिकरपरिहाररूपजातिभेदेन भिन्नानामपि सर्वेषां सिद्धजीवानां ग्रहणं भवति, तथा "सर्व सत्" इत्युक्ते संग्रहनयने सर्वपदाधाना ग्रहण भवति । अथवा सेनेयं वनमिदमित्युक्ते अश्वहस्त्यादिपदार्थानां निम्बाम्रादिवृक्षाणां स्वकीयस्वकीयजातिभेदभिन्नानां युगपद्ग्रहणं भवति, तथा सर्व सदित्युक्ते सति सादृश्यसत्त.भिधानेन महासत्तारूपेण शुद्धसंग्रहनयेन सर्व पदार्थानां स्वजात्य विरोधन ग्रहणं भवतीत्यर्थः ॥२७॥ उत्थानिका-आगे सादृश्य अस्तित्व शब्द से कहे जाने वाली महासत्ता का वर्णन करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(इह) इस लोक में (विविहलक्खणाणं) नाना प्रकार भिन्न-भिन्न लक्षणरखने वाले पदार्थों का (एग) एक (सव्वमय) सर्व पदार्थों में व्यापक (लक्खणं) लक्षण (सवित्ति) सत् ऐसा (धम्म) वस्तु के स्वभाव को (उदिसदा) उपदेश करने वाले (जिणवरवसहेण) श्री वृषभ जिनेन्द्र ने (खल) प्रगट रूप से (पण्णत्तं) कहा है। इस जगत में भिन्न-भिन्न लक्षण को रखने वाले चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त अनेक पदार्थ हैं, उनमें से प्रत्येक पदार्थ की सत्ता या स्वरूपास्तित्व भिन्न-भिन्न है तो भी इन सबका एक अखंड सर्व व्यापक लक्षण भी है। यह लक्षण मिलाप में भिन्नता के विकल्प से रहित अपनी-अपनी जाति में विरोध न पड़ने देने वाले शुद्ध संग्रहनय से सर्व पदार्थों में व्यापक एक सत् रूप है या महासत्ता रूप है ऐसा वस्तु स्वभावों के संग्रह को उपदेश करने वाले श्री तीर्थंकर भगवात् ने प्रगटरूप से वर्णन किया है। इस प्रकार-जैसे 'सर्व मुक्तात्मा हैं, ऐसा कहा जाने से सर्व ही सिद्धों का एक साथ ग्रहण हो जाता है । यद्यपि वे सर्व सिद्ध परमानंदमयी एक लक्षण घाले सुखामृत रस स्वाद से भरे हुए अपने-अपने शुद्ध लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशों की अपेक्षा तथा अपने-अपने अन्तिम शरीर से किंचित् न्यून पर्याय की अपेक्षा मित्र व भिन्नता के विकल्प से रहित अपनी-अपनी जाति के भेद से भिन्न हैं तो भी एक सत्ता लक्षण की अपेक्षा उन सब सिद्धों का ग्रहण हो जाता है । वैसे ही 'सर्व सत्' ऐसा कहने पर संग्रहनय से सर्व पदार्थों का ग्रहण हो जाता है । अथवा यह सेना है, ऐसा कहने पर अपनी-अपनी जाति से भिन्न घोड़े, हाथी आदि पदार्थों की भिन्नता है तो भी सबका एक काल में ग्रहण हो जाता है, अथवा यह वन है, ऐसा कहने पर अपनी-अपनी जाति से भिन्न निम्ब, आम्र Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 [ २३७ आदि वृक्षों की भिन्नता है तो भी सब वृक्षों का एक काल में ग्रहण हो जाता है। तैसे हो सर्व सत् ऐसे सदृश सत्ता कहने पर महासत्ता रूप से शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा सर्व हो आर्थो का बिना उनकी जाति से विरोध के एक साथ ग्रहण हो जाता है, ऐसा अर्थ है ॥६७॥ अथ मध्ये द्रव्यान्तरस्यारम्भं द्रव्यादर्थान्तरत्वं च सत्तायाः प्रतिहन्तिदव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा | सिद्धं तध' आगमदो नेच्छदि जो सो हि परसमओ ||६|| द्रव्यं स्वभावसिद्धं सदिति जिनास्तत्त्वतः समाख्यातवन्तः । सिद्धं तथा आगमतो नेच्छति यः स हि परसमयः ॥६८॥ न खलु द्रव्यं द्रव्यान्तराणामारम्भः सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं सु तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते । गुण पर्यायात्मानमास्मत: स्वभावमेव मूलसाधनमुपादाय स्वयमेव सिद्धसिद्धिमद्भूतं वर्तते । यत्तु द्रव्यंरारभ्यते न तद्रव्यान्तरं कादाचित्कत्वात् स पर्यायः । द्वचणुकादिवन्मनुष्यादिवच्च । द्रव्यं पुनरन'वधि त्रिसमयावस्थायि न तथा स्यात् । अथैव यथा सिद्ध स्वभावत एव द्रव्यं तथा सदिस्वपि तत्स्वभावत एव सिद्धमित्यवधार्यताम् । सत्तात्मनात्मनः स्वभावेन निष्पन्न निष्पत्तिमायुक्तत्वात् । न च द्रव्यादर्थान्तरभूता सत्तोपपत्तिमभिप्रवद्य ते यतस्तत्समवायात्तत्सविति स्यात् । सतः सत्तायाश्च न तावद्युत सिद्धत्वेनार्थान्तरत्वं तयोर्दण्डवण्डिवद्युत सिद्धस्या नात् । अयुत सिद्धत्वेनापि न तदुपद्यते । इहेवमितिप्रतीतेरुत्पद्यत इति चेत् किंनिबन्धना हीयमिति प्रतीतिः भवनिबन्धनेतिचेत् को नाम भेदः । प्रादेशिक अताद्भाविको वा । म तावत्प्रादेशिकः पूर्वमेव युक्त सिद्धत्वस्यापसारणात् । अताद्भाविकश्चेत् उपपन्न एव यं सन्न गुण इति वचनात् । अयं तु न खल्वेकान्ते ने हे वमिति प्रतीतेनिबन्धनं स्वयमे चमग्न निमग्नत्वात् । तथाहि — यदेव पर्यायेणायंते द्रव्यं तदेव गुणवदिदं द्रव्यमयमस्य गुणः शुभ्रमिदमुत्तरीयमयमस्य शुभ्रो गुण इत्यादिवदताद्भायिको भेद उन्मज्जति । यदा येणार्यते द्रव्यं तवास्तमितसमस्त गुणवासनोन्मेषस्य तथाविधं द्रव्यमेव शुभ्रमुत्तरीयत्यादिवत्प्रपश्यतः समूल एवाताद्भाविको भेदो निमज्जति । एवं हि भेत्रे निमज्जति प्रत्यया प्रतीतिनिमज्जति । तस्यां निमज्जत्यामयुत सिद्धत्वोत्थमर्थान्तरत्वं निमज्जति । समस्तमपि द्रव्यमेवैकं भूत्यावतिष्ठते । यदा तु भेद उन्मज्जति, तस्मिन्नुन्मज्जति १. तह ( ज० वृ० ) 1 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] [ पवयणसारो तत्प्रत्यया प्रतीतिरुन्मज्जति । तस्यामुन्मज्जत्यामयुत सिद्धत्वोत्थमर्थान्तरत्वमुन्मज्जति । तवापि तत्पर्यायत्वेनोमज्जज्जलराशेर्जलकल्लोल इव द्रव्यान्न व्यतिरिक्तं स्यात् एवं सति स्वयमेव सद्द्रव्यं भवति । यस्त्वेवं नेच्छति स खलु परसमय एव द्रष्टव्यः ॥६६॥ भूमिका – अब, द्रव्यों से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होने का और द्रव्य से सत्ता का अर्थान्तरत्य (अन्य भिन्न पदार्थ) होने का खण्डन करते हैं । (अर्थात् ऐसा निश्चित करते हैं कि किसी द्रव्य से अन्य द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती और द्रव्य से अस्तित्त्व कोई पृथक् पदार्थ नहीं है) :द्रव्य [स्वभाव - सिद्धं ] स्वभाव से सिद्ध और [ सत् इति ] ऐसा [जिना: ] जिनेन्द्रदेव ने [ तत्त्वतः ] यथार्थतः [ समाख्यात इस प्रकार [आगमत: ] आगम से [ सिद्ध ] सिद्ध है नहीं मानता [ सः ] वह [हि] वास्तव में अन्वयार्थ – [ द्रव्यं ] ( स्वभाव से ही ) 'सत्' है, वन्तः ] कहा है, [ यथा ] जो [ न इच्छति ] ( इसको [ यः ] ) [ प रसमयः ] पर समय है । टीका - वास्तव में थ्यों से द्रव्यान्तरों की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सर्व थ्यों के स्वभाव सपना है ( सर्व द्रव्य, पर-द्रव्य को अपेक्षा बिना, अपने स्वभाव से ही सिद्ध हैं) उनको स्वभावसिद्धता तो उनको अनादिनिधनता है, क्योंकि अनादिनिधन अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखता। वह (द्रव्य ) गुणपर्यायात्मक अपने स्वभाव को ही - जो कि मूलसाधन है, धारण करके स्वयमेव सिद्ध और सिद्धि वाला हुआ वर्तता है । जो द्रव्यों में उत्पन्न होता है वह तो द्रव्यान्तर नहीं है, ( किन्तु ) कादाचित्कता ( अनित्यता) के होने से वह पर्याय है, जैसे- द्विअणुक इत्यादि तथा मनुष्य इत्यादि । ब्रव्य तो अनवधि ( मर्यादा रहित ) त्रिसमय अवस्थायी (त्रिकालस्थायी ) है, ( इसलिये ) वंसा ( कादाचित्क-क्षणिक-अनित्य ) नहीं है । अब इस प्रकार - जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध है उसी प्रकार ( वह ) 'सत् है' ऐसा भी वह स्वभाव से ही सिद्ध है, ऐसा निर्णय हो, क्योंकि सत्तात्मक ऐसे अपने स्वभाव से निष्पन्न निष्पत्तिमत् भाव वाला है - ( द्रव्य 'सत्' है ऐसा भाव ब्रश्य के सत्तास्वरूप स्वभाव का ही बना हुआ है ) । द्रव्य से अर्थान्तरभूत सत्ता की उत्पत्ति नहीं है, कि जिसके समवाय से वह द्रव्य 'सत्' हो । ( इसी को स्पष्ट समझाते हैं ) - प्रथम तो सत् के ( द्रव्य के ) और सत्ता के युत सिद्धता से अर्थान्तरत्व नहीं है, क्योंकि दण्ड और दण्डी की भांति उनके सम्बन्ध में युतसिद्धता दिखाई नहीं देती। ( दूसरे ) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारी [ २३६ अयतसिद्धता से भी वह (अर्थान्तरत्व) नहीं बनता । 'इसमें यह है' (अर्थात् द्रव्य में सत्ता है) ऐसी प्रतीति होती है इसलिये वह बन सकता है-ऐसा कहा जाय तो (पूछते हैं कि) 'इसमें यह है' ऐसी प्रतीति किसके आश्रय (कारण) से होती है ? यदि ऐसा कहा जाय कि भेव के आश्रय से (अर्थात् द्रव्य और सत्ता में भेव हम से) होतो है हो वह कौनसा भेद है । प्रादेशिक या अताभाविक ? प्रादेशिक तो है नहीं, क्योंकि युतसिद्धत्व का पहले ही निषेध कर दिया गया है, और यदि अताभाविक कहा जाय तो वह उत्पन्न (ठीक) हो है, क्योंकि ऐसा (शास्त्र का) वचन है कि 'जो द्रव्य है यह गुण नहीं है। परन्तु (यहां यह भी ध्यान में रखना कि) यह अताभाविक भेद 'एकान्त से इसमें से यह है' ऐसी प्रतीति का आश्य (कारण) नहीं है, क्योंकि वह स्वयमेव उन्मग्न (प्रगट) और निमग्न (गौण) होता है। वह इस प्रकार है-जब द्रव्य को पर्याय को मुख्यता से (दृष्टि) से मुख्य किया जाता है (पर्यायायिकनय से देखा जाय) तब हो—'शुवल यह वस्त्र है, यह इसका शुक्लत्व गुण है इत्यादि की मांति, 'गुणवाला यह द्रव्य है, यह इसका गुण है' इस प्रकार अताभाविक मेव उन्मग्न होता है, परन्तु जब द्रव्य को द्रध्य को मुख्यता से (दृष्टि) से मुख्य किया जाता है (क्यायिकनय से देखा जाता है), तब जिसके समस्त गुणवासना के उन्मेष (प्रगटता) अस्त हो गयी है, ऐसे उस जीव के–'शुक्लवस्त्र ही है' इत्यादि की भांति-'ऐसा द्रव्य ही है, इस प्रकार बेखने वाले के समुल ही अताभाविक भेद निमग्न (गौण) होता है । इस प्रकार 'वास्तव में भेव के निमग्न होने पर उसके आश्रय से (कारण से) होने वाली प्रतीति निमग्न होती है। उसके निमग्न होने पर अयतसिद्धत्वजनित अर्थान्तरत्व निमग्न होता है, इसलिये समस्त ही एक द्रव्य ही होकर रहता है। और जब भेद उन्मग्न होता है, उसके उन्मग्न होने पर उसके आश्रय (कारण) से होने वाली प्रतोति उन्मग्न होती है, उसके उन्मग्न होने पर अत्युतसिद्धत्वजनित अर्यान्तरत्व उन्मग्न होता है, तब भी वह (सत्) द्रव्य के पर्यायरूप से उन्मग्न होने से, -जसे जलराशि से जलतरंगें व्यतिरिक्त नहीं हैं (अर्थात् समुद्र से तरंग अलग नहीं हैं) उसी प्रकार द्रव्य से व्यतिरिक्त नहीं होता । ऐसा होने से (यह निश्चित हुआ कि द्रव्य म्वयमेव सत् है । जो ऐसा नहीं मानता वह वास्तव में 'परसमय' भूमिच्यावृष्टि) हो मानना ॥६॥ तात्पर्यवृत्ति ___ अप यथा द्रव्यं स्वभावसिद्ध तथा सदपि स्वभाधित एवेन्याख्याति वस्वं सहावसिद्ध द्रव्यं परमात्मद्रव्यं स्वभावसिद्ध भवति । कस्मात् ? अनाद्यनन्तेन परहेतुतिरपेक्षेण स्वत सिद्ध न केवलज्ञानादिगुणाधारभूतेन प्रदान दे करूपमुखसुधारसपरमसमरमोभावपरिण Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] [ पवयणसारो तसर्वं शुद्धात्मप्रदेशभरितावस्थेन शुद्धोपादानभूतेन स्वकीयस्वभावेन निष्पन्नत्वात् । यच्च स्वभावसिद्ध ं न भवति तद्रव्यमपि न भवति । चणुकादिमुद्गलस्कन्धपर्यायवत् मनुष्यादिजीव पर्यायवच्च । सदिति यथा स्वभावतः सिद्ध ं तद्द्द्रव्यं तथा सदिति सत्तालक्षणमपि स्वभावत एव भवति न च भिन्नसत्तासमवायात् । अथवा यथा द्रव्यं स्वभावतः सिद्ध तथा तस्य योसौ सत्तागुणः सोपि स्वभावसिद्ध एव । कस्मादिति चेत् । सत्ताद्रव्पयोः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेपि दण्डदण्डिवद्भिन्तप्रदेश भावात् 1 इदं के कथितवन्तः । जिणा तच्चदो समखादा जिनाः कर्तारः तत्त्वतः सम्यगाख्यातवन्तः कथितवन्त. सिद्ध तह आगमबो सन्तानापेक्षया द्रव्य । थिकन येनानादिनिधनागमादपि तथा सिद्ध च्छवि जो, सो हि परसमओ नेच्छति न मन्यते य इदं वस्तुस्वरूपं स हि स्फुटं परसमयो मिध्यादृष्टिर्भवति । एवं था परमात्मद्रव्यं स्वभावतः सिद्धमव बोद्धव्यं तथा सर्वद्रव्याणीति । अत्र द्रव्यं केनापि पुरुषंग न क्रियते । सत्तागुणोषि द्रव्यादिधन्नो नास्तीत्यभिप्राय: ॥६५॥ उत्थानिका- आगे यह कहते हैं कि जैसे द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है वैसे ही सत् भी स्वभाव से सिद्ध है गाथार्थ - ( दव्वं ) द्रव्यं ( सहायसिद्धं ) स्वभाव से सिद्ध है ( सविति) सत् भी स्वभाव सिद्ध है ऐसा ( जिणा) जिनेन्द्रों ने ( तच्चवा) तत्व से ( समक्खादा ) कहा है ( तथ ) तैसे हो ( आगमदो ) आगम से (सिद्ध) सिद्ध है (जो ) जो कोई (मछदि) नहीं मानता है ( सो हि परसमओ) वही प्रगट रूप से परसमय रूप है । टीकार्थ - यहाँ परमात्म- द्रव्य पर घटाकर कहते हैं कि परमात्मारूपी द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है क्योंकि परमात्मा अनादि अनन्त, बिना अन्य कारणों की अपेक्षा के अपने स्वतः सिद्ध केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत हैं, सदा आनन्दमयी सुखामृत रूपी परम समरसी भाव में परिणमन करते हुए सर्व शुद्ध आत्मप्रदेशों से भरपूर हैं तथा शुद्ध उपादान रूप से अपने ही स्वभाव से उत्पन्न हैं। जो सत् स्वरूप स्वभाव से सिद्ध नहीं होता है वह द्रव्य भी नहीं होता है। जैसे द्विणुक आदि मुद्गलस्कंध की पर्याय व मनुष्यादि जीवपर्याय | जैसे द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है वैसे उसकी सत्ता भी स्वभाव से सिद्ध है, सत्ता किसी भिन्न सत्ता के समवाय से नहीं हुई है । क्योंकि सत्ता और द्रव्य में संज्ञा, लक्षण, प्रयोजनादि से भेद होने पर भी जैसे दण्ड और दण्डी पुरुष के प्रदेशों का भेद है, ऐसो प्रदेशों की भिन्नता सत्ता और द्रव्यों में नहीं है। इस बात को तीर्थंकरों ने भले प्रकार वर्णन किया है। तथा यही बात सन्तान की अपेक्षा द्रव्यार्थिकनय से अनादि अनंत आगम से भी सिद्ध है । जो ऐसा वस्तु का स्वरूप नहीं स्वीकार करता है यह मिथ्यावृष्टि है । इस तरह जैसा परमात्म द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है वैसे ही सर्व द्रव्यों को स्वभाव से सिद्ध जानना चाहिये द्रव्य को किसी पुरुष ने रचा नहीं है और न द्रव्य का सत्ता गुण ही द्रव्य से भिन्न है, इस गाथा का यह अभिप्राय है ॥६८॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ २४१ अधोत्पादश्ययाव्यात्मकत्येऽपि सद्व्यं भवतीति विभावयति सदवद्विदं सहावे दव्वं वन्धस्स जो हि परिणामो। अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो ॥६६॥ सदबस्थितं स्वभावे द्रव्यं द्रव्यम्य यो हि परिणामः । अर्थः । स्वमः लिन मानावः ६i इह हि स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति द्रव्यम् । स्वमावस्तु द्रव्यस्य धोव्योसाबोच्छेदेवयात्मकपरिणामः । यथैव हि द्रव्यवास्तुनः सामस्त्येनेकस्यापि विष्कम्मक्रमप्रवृत्तिवर्तिनः सूक्ष्मांशाः प्रदेशाः, तथैव हि व्यवृत्तेः सामस्त्येनकस्यापि प्रवाहकमप्रवृत्तिवर्तिनः सूक्मांशाः परिणामाः । यथा च प्रदेशानां परस्परब्य तिरेकनिबन्धनो विष्कम्मक्रमः, तथा परिणामाना परस्पर-व्यतिरेकनिबन्धनः प्रवाहकमः यथैव च ते प्रदेशाः स्वस्थाने स्वरूपपूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छन्नत्वात्सर्वत्र परस्परानुस्पूतिसूश्रितकवास्तुतयानुत्पन्नप्रलीनत्वाच्च संभूतिसंहारोग्यात्मकमात्मानं धारयन्ति, तथैव ते परिणामाः स्वावसरे स्वरूपपूर्वरूपाज्यामुत्पन्नोच्छन्नत्वात्सर्वत्र परस्परानुस्यूतिसूत्रितकप्रवाहतयानुत्पन्नप्रलीनत्वाच्च संभूतिसंहारधोव्यात्मकमात्मानं धारयन्ति । यर्थव च य एव हि पूर्वप्रदेशोच्छेवनात्मको वास्तुसी. मान्तः स एव हि तवुत्तरोत्पादात्मकः, स एव च परस्परानुस्यूतिसूत्रितकवास्तुतयातदुभमारमक इति । तथैव य एव हि पूर्वपरिणामोच्छेदात्मक: प्रवाहसीमान्तः स एव हि तयुत्तरोल्पावात्मकः, स एव च परस्परानुस्यूतिसूत्रितकप्रवाहतया तदुभयात्मक इति एवमस्य | स्वभावत एव विलक्षणायां परिणामपद्धतौ दुर्ललितस्य स्वभावानतिकमाविलक्षण मेष सास्वमनुमोदनीयम् मुक्ताफलदामवत् । यर्थव हि परिगृहोलद्राघिम्नि प्रलम्बमाने मुक्ताफलद्रामनि समस्तेष्वपि स्वधामसूच्वकासत्सु मुक्ताफलेषूत्तरोतरेषु धामसूत्तरोत्तरमुक्ताफलाभामुदयनात्पूर्वपूर्वमुक्ताफलानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य सूत्रकस्यावस्थामास्वंलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति, तथैव हि परिगृहीतनित्यवृत्तिनिवर्तमाने ब्रव्ये समस्तेयपि स्वावसरेखूपचकासत्तु परिणामेषत्तरोत्तरेष्ववसरेषत्तरोत्तरपरिणामानामुदयनात्पूर्वपूर्वपरिणामानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिमूत्रकस्य प्रवाहस्यावस्थानातलक्षण्यं प्रसिदिमवतरति ॥६॥ भूमिका-अब, यह बतलाते हैं कि उत्पाद-व्यय-धौम्यात्मक होने पर भी द्रव्य 'सर' है Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] [ पवयणसारो अन्वयार्थ -- [ स्वभाव ] स्वभाव में [ अवस्थितं] अवस्थित सत् ] सत् [ द्रव्यं ] द्रव्य हैं [द्रव्यस्य ] द्रव्य का [ अर्थेषु ] गुणपर्यायों में [यः हि ] जो [स्थितिसंभवना शसंबद्धः ] उत्पादध्ययौव्य सहित [ परिणामः ] परिणाम है [ सः ] वह [ स्वभाव: ] उसका स्वभाव है । टीका- यहां (विश्व में ) वास्तव में स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से सत् द्रथ्य है । स्वभाव द्रव्य का श्रव्य उत्पाद - विनाश को एकता स्वरूप परिणाम है । जैसे द्रव्य वास्तु के + समग्रता (अखण्डता से) एक होने पर भी विस्तार क्रम की प्रवृत्ति में वर्तने वाले सूक्ष्म अंश प्रदेश हैं, इसी प्रकार द्रव्य की वृत्ति ( द्रव्य परिणति, द्रव्य प्रवाह ) के, समग्रतया एक होने पर भी प्रवाह क्रम की प्रवृत्ति में वर्तने वाला सूक्ष्म अंश परिणाम है । जैसे प्रदेशों के परस्पर व्यतिरेक के कारण से होने वाला विष्कम्भ क्रम है, उसी प्रकार परिणामों के परस्पर व्यतिरेक के कारण से होने वाला प्रवाह क्रम है । जैसे प्रदेश अपने स्थान में स्व-रूप से उत्पन्न और पूर्व रूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एकवास्तुपने से अनुत्पन्न - अविनष्ट होने से उत्पत्ति संहार-व्यात्मक अपने स्वरूप को धारण करते हैं, उसी प्रकार वे परिणाम अपने अवसर में स्व-रूप से उत्पन्न और पूर्व रूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एक प्रवाहने से अनुत्पन्न अनिष्ट होने से उत्पत्ति संहार - धीव्यात्मक अपने स्वरूप को धारण करते हैं । और जैसे जो पूर्व प्रदेश के विनाश रूप वस्तुका सीमान्त है, वही उसके बाद के प्रदेश का उत्पाद स्वरूप है तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एक वास्तुत्व से दोनों (उत्पाद-व्यय) स्वरूप नहीं हैं (ध्रुव हैं) इसी प्रकार जो ही पूर्व परिणाम के विनाश रूप प्रवाह का सीमान्त है, वही उसके बाद के परिणाम के उत्पादस्वरूप है, तथा यही परस्पर अनुस्यूति से रचित एक प्रवाहत्व से दोनों (उत्पाद - ध्यय) स्वरूप नहीं हैं (ध्रुव है ) । इस प्रकार स्वभाव से ही त्रिलक्षण परिणाम पद्धति में ( परिणामों की परम्परा में ) प्रवर्तमान द्रश्य स्वभाव का अतिक्रम नहीं करता, इसलिये सत्य को त्रिलक्षण हो अनुमोदित करना चाहिये मोतियों के हार की भांति । जैसे— जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है ऐसे लटकते हुये मोतियों के हार में, अपने अपने स्थानों में प्रकाशित होते हुये समस्त मोतियों में, अगले- अगले स्थानों में अगले- अगले मोती प्रगट होते हैं इसलिये, और पहलेपहले के मोती प्रगट नहीं होते इसलिये तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति का रचयिता सूत्र + द्रव्य का वास्तु द्रव्यका स्व-विस्तार, द्रव्य का स्व क्षेत्र, द्रव्य का स्व-आकार, द्रव्य का स्त्रवल । ( वास्तु घर, निवासस्थान, आश्रय, भूमि ।) Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २४३ अवस्थित होने से, त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धि को प्राप्त होता है। इसी प्रकार जिसने नित्यवृत्ति ग्रहण की है ऐसे रचित (परिणमित) होते हुये समस्त परिणामों में अगले अगले अवसरां पर अगले परिणाम प्रगट होते हैं इसलिये और पहले-पहले के परिणाम नहीं प्रगट होते हैं इसलिये तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचने वाला प्रवाह अवस्थित होंने से, त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धि प्राप्त होती है ॥ ६६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथोत्पादव्ययश्रव्यत्वे सति सत्त्व द्रव्यं भवतीति प्रज्ञापयति--- I सठठदं सहावे दव्वं द्रव्यं मुक्तात्मद्रव्यं भवति । किं कर्तृ" ? सहित शुद्धतनान्यरूप भस्तित्वं । किविशिष्टं ? अवस्थितं । क्व ? रवभावे स्वभावं कथयति दव्वस्स जो हि परिणामो तस्य परमात्मद्रव्यस्य संबन्धी हि स्फुटं यः परिणामः केषु विषयेषु ? अत्थेसु परमात्मपदार्थस्य धर्मत्वादभेदन येनार्थी भयन्ते । के ते ? केवलज्ञानादिगुणाः सिद्धत्वादिपर्यायाश्च तेष्वर्थेषु विषयेषु यऽसौ परिणामः । सो सहाओ केवलज्ञानादिगुणसिद्धत्वादिपर्यायरूपस्तस्य परमात्मद्रव्यस्य स्वभावो भवति । स च कथंभूतः ? ठिविसंभवणासंबंधी स्वात्मप्राप्तिरूपमोक्षपर्यायस्य संभवस्तस्मिन्नेव क्षणे परमागमभाषयेकत्ववितर्क विचारद्वितीयशुक्लध्यानसंज्ञस्य शुद्धोपादानभूतस्य समस्त रागादिविकल्पोपाधिरहितस्य संवेदनज्ञानपर्यायस्य नाशस्तस्मिन्नेव समये तदुभयाधारभूतपरमात्मद्रव्यस्य स्थितिरित्युक्तलक्षणो पादव्ययश्रीन्यत्रयेण संबन्धो भवतीति । एवमुत्पादव्ययभौव्यय येणैकसमये यद्यपि पर्यायार्थिकनयेन परमात्मद्रव्यं परिणतं तथापि द्रव्याथिकनयेन सत्तालक्षणमेव भवति । त्रिलक्षणमपि सत्यतालक्षणं कथं भण्यत इति चेत् "उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" इति वचनात् । यथेदं परमात्मद्रव्य मेक समयेनोत्पादव्ययपरिणतमेव सत्तालक्षणं भण्यते, तथा सर्वद्रव्याणीत्यर्थः ॥६६॥ एवं स्वरूपसत्तारूपेण प्रथमगाथाथा, महासत्तारूपेण द्वितीया, यथा द्रव्यं स्वतः सिद्धं तथा सत्तागुणोपीति कथनेन तृतीया, उत्पादव्ययीव्यत्वेपि सत्त्व द्रव्यं मध्यत इति कथनेन चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन सत्तालक्षणविवरणमुख्यतया द्वितीयस्थलं गतम् । उत्थानका — आगे कहते हैं कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप होते हुए सत्ता ही द्रव्य स्वरूप है अथवा द्रव्य सत् स्वरूप है अन्वय सहित विशेषार्थ - ( सहावे ) स्वभाव में ( अवदिट्ठदं ) रहा हुआ (सत् ) सत् ( धध्वं ) द्रव्य है । ( दव्वहस ) द्रव्य का ( अत्थेसु) गुण पर्यायों में (जो ) जो ( ठिदिसंभवणाससंबद्धो ) धौव्य, उत्पाद व्यय सहित परिणाम है (सो) वह (हि) ही (सहाथो ) स्वभाव है । स्वभाव में तिष्ठा हुआ शुद्ध चेतना का अन्ययरूप ( बराबर) अस्तित्त्व परमात्मा द्रव्य है । उस परमात्मा द्रव्य का अपने केवलज्ञानादि गुण और सिद्धत्व (यहाँ अरहंतपने से मतलब है ) आदि पर्यायों में अपने आत्मा की प्राप्ति रूप उत्पाद उसो ही "समय में परभागम की भाषा से एकत्व वितर्क अयीचाररूप दूसरे शुक्लध्यान का या Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] [ पवयणसारो शुद्ध उपादान रूप सर्व रागादि के विकल्प की उपाधि से रहित स्वसंवेदन ज्ञान पर्याय का नाश तथा उसी समय इन दोनों उत्पाद व्यय के आधार रूप परमात्मद्रव्य की स्थिति इस तरह उत्पाद व्यय धौच्य सम्बन्धी जो परिणाम है वही निश्चय से उस परमात्म द्रव्य का केवलज्ञानादि गुण वा सिद्धत्व आदि पर्याय रूप स्वभाव है । गुण पर्याय द्रव्य के स्वभाव हैं इसलिये उनको अर्थ कहते हैं । इस तरह उत्पाद व्यय धौव्य इन तीन स्वभाव से एक समय में यद्यपि पर्यायार्थिकनय से परमात्म द्रव्य परिणमन करते हैं तथापि द्रव्यार्थिकनय से सत्ता लक्षण रूप ही हैं। तीन लक्षण रूप होते हुये भी सत्ता लक्षण क्यों कहते हैं ? इसका समाधान यह है कि सत्ता उत्पाद व्यय धौव्य स्वरूप है । जंसा कहा है "उत्पादव्ययश्रव्ययुक्तं सत्" जैसे यह परमात्म द्रव्य एक समय में हो उत्पाद व्यय श्रीव्य से परिणमन करता हुआ हो सत्ता लक्षण कहा जाता है तैसे ही सर्व द्रव्यों का स्वभाव है, यह अर्थ है ॥६६॥ कहते हुए दूसरी है इस तरह स्वरूप सत्ता को कहते हुये प्रथम गाथा, महासत्ता को गाथा, जैसे द्रव्य स्वतः सिद्ध है वैसे उसकी सत्ता गुण भी स्वतः सिद्ध तीसरी गाथा, उत्पाद व्यय धौम्य उप होते हुये ही सत्ता हो को गाथा इस तरह चार गाथाओं के द्वारा सत्ता लक्षण के व्याख्यान की मुख्यता करके बूसरा स्थल पूर्ण हुआ । ऐसा कहते हुये कहते हुये चौथी अथोत्पादव्ययव्याणां परस्पराविनाभावं दृढ़यति - ण भवो भंग विहोणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो । उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण' अत्येण ॥१००॥ न भवो भङ्गविहीन भङ्गो वा नास्ति संभवविहीनः । उत्पादोऽपि च भङ्गो न विना धाव्येणार्थेन ॥ १०० ॥ न खलु सर्गः संहारमन्तरेण न संहारो वा सर्वमन्तरेण न सृष्टिसंहारो स्थितिमन्तरेण, न स्थितिः सर्गसंहारमन्तरेण । य एव हि सर्गः स एव संहारः य एव संहारः स एव सर्गः यावेव सर्गसंहारो सैव स्थितिः, यैव स्थितिस्तायेव सर्गसंहाराविति । तथाहिय एव कुम्भस्य सर्गः स एव मृत्पिण्डस्य संहारः, भावस्य भावान्तराभावस्वभावेनावभासनात् । य एव च मृत्पिण्डस्य संहारः, स एव कुम्भस्य सर्गः, अभावस्य भावान्तरभा वस्त्रभावेनावभा सनात् । यो च कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारो सैव मृत्तिकायाः स्थितिः, व्यतिरेकमुखेनैवान्वयस्य १. दव्वेण (ज० वृ० ) । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परयणसारो ] [ २४५ प्रकाशनात। यैव च मृत्तिकायाः स्थितिस्तावेव कुम्मपिण्डयोः सर्गसंहारी, व्यतिरेकाणामबयानतिक्रमणात् । यदि पुनर्नेदमेवमिव्येत तदान्यः सर्गोऽन्यः संहारः अन्या स्थितिरित्यायाति तथा सति हि केवलं सर्ग मृगयमाणस्य कुम्भस्योत्पादनकारणाभावादमवनिरेव भवेत, असउत्पाद एवं वा । तत्र कुम्भस्याभवनों सर्वेषामेव भावानामभवनिरेव भवेत् । असदुत्पादे वा ध्योमप्रसवादीनामप्युत्पादः स्यात् । तथा केवल संहारमारभमाणस्य मृत्पिण्डस्य संहारकारणाभावावसहरणिरेव भवेत्, सदुच्छेद एव वा तत्र मृत्पिण्डस्यासंहरणौ सर्वेषामेव भावानामसं. हरभिरेव भवेत् । सवुच्छेदे वा संविदादीनामप्युच्छेदः स्यात् । तथा केवलां स्थितिमुपगच्छत्या मृत्तिकाया व्यतिरेकाक्रान्तस्थित्यन्वयाभावादस्थानिरेव भवेत, क्षणिकनित्यत्वमेव वा । सत्र मृत्तिकाया अस्थानौ सर्वेषामेव भावानामस्थानिरेव भवेत् । क्षणिकनित्यत्वे वा चिंत्तक्षणा। मामपि निरयत्य यात् । तर उत्तरोतरतिरेका तग पूर्वपूर्वव्यतिरेकाणां संहारेगावत्यावस्थानेनाविनाभूतमुद्योतमाननिर्विघ्नत्रलक्षण्यलाञ्छनं द्रव्यमवश्यमनुमन्तव्यम् ॥१००॥ भूमिका-अब, उत्पाद, व्यय और धौव्य का परस्पर अविनाभाव दृढ़ करते हैं अन्वयार्थ-[भवः] उत्पाद [भङ्गविहीनः] भंग (व्यय) रहित [न] नहीं होता [T] और [भङ्गः] व्यय [संभवविहीनः] उत्पाद-रहित [नास्ति] नही होता, [उत्पादः] है. उत्पाद [अपि च तथा [भङ्गः] व्यय [ध्रौव्येण अर्थेन बिना] ध्रौव्य पदार्थ के बिना [न] मही होता। टीका-वास्तव में उत्पाद, व्यय के बिना नहीं होता और व्यय, उत्पाद के बिना नहीं होता तथा उत्पाद और व्यय, स्थिति (प्रौव्य) के बिना नहीं होते, और प्रौव्य, उत्पाद सिमा व्यय के बिना नहीं होता। जो उत्पाद है वही व्यय है। जो व्यय है वही उत्पाद है, जो उत्पाद और व्यय है वही प्रौव्य है, जो ध्रौव्य है वही उत्पाद और व्यय है । वह इस प्रकार कि जो कुम्भ का उत्पाद है वही मृत्तिका-पिण्ड का व्यय है, क्योंकि भाव का भावान्तर अभाव स्वभाव से अवमासन है । (अर्थात् भाव अन्य भाव के अभाव रूप स्वभाव से लायित है-विखाई देता है ।) और जो मृत्तिका-पिण्ड का व्यय है, वही कुम्भ का लाव है, क्योंकि अभाव का भावान्तर के भाव-स्वभाव से अवभासन है, (अर्थात् व्यय माय भाव के उत्पाव रूप स्वभाव से प्रकाशित है।) और जो कुम्भ का उत्पाद और म का व्यय है, वही मृत्तिका का ध्रौव्य है, क्योंकि व्यतिरेकों के द्वारा ही अन्वय प्रकाशन है। और जो मृत्तिका का प्रौव्य है वही कुम्भ का उत्पाद और मृत्पिण्ड का श्योंकि व्यतिरेकों के अन्वय का उल्लंघन नहीं है, और यदि ऐसा न माना जाय Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ 1 । पवयणसारो तो ऐसा सिद्ध होगा कि उत्पाद अन्य है, व्यय अन्य है, ध्रौव्य अन्य है। (अर्थात् तीनों पृथक्-पृथक् हैं, ऐसा मानने का प्रसंग आजायगा ।) ऐसा होने पर (क्या दोष आता है, सो समझाते हैं)-केवल उत्पाद-अन्येषक को कुंभ की (व्यय और ध्रौव्य से भिन्न मात्र उत्पाद को जानने वाले व्यक्ति को कुंम की), उत्पादन के (उत्पत्ति के कारण का अभाव होने से, उत्पत्ति ही नहीं मिलेगी, अथवा असत् का ही उत्पाद होगा। और वहां, (१) यवि कुम्भ की उत्पत्ति न होगी तो समस्त ही भावों की उत्पत्ति ही न होगी। (अर्थात् जैसे कुम्भ को उत्पत्ति नहीं होगी, उसही प्रकार विश्व के किसी भी द्रव्य में किसी भी भाव का उत्पाद नहीं होगा, यह दोष आयगा), अथवा (२) यवि असत् का उत्पाद हो, तो आकाश के पुष्प इत्यादि का भी उत्पाद होगा, (अर्थात् शून्य में से पदार्थ उत्पन्न होने लगेगे,--यह दोष आएगा।) और, केवल व्यय को आरम्भ करने वाले (उत्पाद और प्रौव्य से रहित केवल व्यप करने को उद्यत) मृतपिण्ड का, व्यय के कारण का अभाव होने से, व्यय ही नहीं होगा, अथवा सत् का ही उच्छेद होगा। वहीं, (१) यदि मृत्पिण्डका व्यय न होगा तो समस्त ही भावों का व्यय ही नहीं होगा, (अर्थात् जसे मृत्तिकापिण्डका व्यय नहीं होगा उसी प्रकार विश्व के किसी भी द्रव्य में किसी भी भाव का व्यय ही नहीं होगा,-यह दोष आएगा), अथवा (यदि सत् का उच्छेद होगा तो चैतन्य इत्यादि का भी उच्छेद हो जाएगा, (अर्थात् समस्त द्रव्यों का सम्पूर्ण नाश हो जायेगा, यह दोष आयगा ।) और केवल प्रौव्य को प्राप्त करने को जाने वाली मृत्तिका का, व्यतिरेक सहित ध्रौव्य का अन्वय (मृत्तिका) अभाव होने से, धौन्य ही नहीं होगा, अथवा क्षणिक का ही नित्यत्व आजायगा। यहां (१) मृत्तिका का धौन्य न हो तो समस्त ही भावों का प्रौव्य ही नहीं होगा, (अर्थात् यदि मिट्टी ध्रुव न रहे तो मिट्टी की ही भांति विश्व का कोई भी द्रव्य ध्रुव ही नहीं रहेगा-यह दोष आयगा ।) अथवा (२) यदि क्षणिक का नित्यत्व हो तो चित्त के क्षणिक-भावों का भी नित्यत्व होगा, (अर्थात् मन का प्रत्येक विकल्प भी कालिक ध्रुव हो जाय यह बोष आयेगा।) इसलिये उत्तर उत्तर व्यतिरेकों की उत्पत्ति के साथ, पूर्व पूर्व व्यतिरेकों के संहार के साथ और अन्वय के अवस्थान (ध्रौव्य) के साथ अविनाभाव वाला, जिसका निविघ्न (अवाधित) त्रिलक्षणतारूप चिह्न प्रकाशमान है, ऐसा द्रव्य अवश्य मानने योग्य है ॥१०॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयणसारो ] [ २४७ तात्पर्यवृत्ति अथोत्पादव्ययनौव्याणां परस्परसापेक्षत्वं दर्शयति ग भवो भंगविहीणो निर्दोषपरमात्मरुचिरूपसम्यक्त्वपर्यायस्य भव उत्पादः, तद्विपरीतमिथ्यात्वपर्यायस्य भङ्ग विना न भवति । कस्मात् ? उपादानकारणाभावात्, मृत्पिण्डभङ्गाभावे घटोत्पाद इव । द्वितीयं च कारणं मिथ्यात्वपर्यायभङ्गस्य सम्यक्त्वपर्यायरूपेण प्रतिभासनात् । तदपि कस्मात् ? "भावातरस्वभावरूपो भवत्यभावः' इति वचनात् । घटोत्पादरूपेण मृत्पिण्डभङ्ग इव । यदि पुमिथ्यात्वपर्यायभङ्गस्य सम्यक्त्वोपादानकारणभूतस्याभावेऽपि शुद्धात्मानुभूतिरुचिरूपसम्यक्त्वस्वोत्पादो भवति, तपादानकारणरहिताना खपुष्पादीनामप्युत्पादा भवतु ? न च तथा । मंगी या गस्थि सभवविहीणो सरन्योपादेयरूपमिथ्यात्वस्य भङ्गो नास्ति । कथंभूतः ? पूर्वोक्तसम्यक्त्वपर्यायसंभवरहितः । कस्मादिति खेत ? भङ्गकारणाभावात्, घटोत्पादाभावे मृत्पिण्डस्येव । द्वितीयं च कारणं सम्यक्त्वपर्यायोत्पादस्य मिथ्यात्वपर्यायाभावरूपेण दर्शनात् । तदपि कस्मात् ? पर्यायस्य पर्यायान्तराभावरूपत्वाद्, घटपर्यायस्य भूपिण्डाभावरूपेणेव । यदि पुनः सम्यक्त्वोत्पादनिरपेक्षो भवति मिथ्यात्वपर्यायाभाबस्तहिअभाव एव न सस्यात् । कस्मात् ? अभावकारणाभावादिति, घटोत्पादाभावे मृत्पिण्डाभावस्य इव । उप्पादोवि य भंगो पिता बनेण अत्येण परमात्मरुचिरूपसम्यक्त्वस्योत्पादस्तद्विपरीतमिथ्यात्वस्य भङ्गो वा नास्ति । दिना? तदुभयाधारभूतपरमात्मरूपद्रव्यपदार्थ विना। कस्मात् ? द्रव्याभावे व्ययोत्पादाभावान्मृत्तिभाद्रव्यभावे घटोत्पादमृत्पिण्डभङ्गाभावादिति । यथा सम्यक्त्वमिथ्यात्वपर्यायद्वये परस्परसापेक्षमुत्पादात्रयं दशितं तथा सर्वव्यपर्यायेषु द्रष्टव्यमित्यर्थः ॥१०॥ उत्पानिका-आगे उत्पाद व्यय धौथ्य इन तीनों में परस्पर अपेक्षापना है, ऐसा दिखलाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(भंगविहीणो भवो ण) व्यय के विना उत्पाद नहीं होता (ग) तथा (संभवविहीणो भगो णत्थि) उत्पाद के विना भंग या व्यय नहीं होता है न) और (उप्पादो वि) उत्पाद तथा (भंगो) व्यय (दश्वेण अत्येण विणा ण) प्रौव्य हार्य के बिना नहीं होते। निर्दोष परमात्मा की रुचिरूप सम्यक्त्व अवस्था का उत्पाद सम्यक्त्व से विपरीत प्यारण पर्याय के नाश के विना नहीं होता है क्योंकि उपादानकारण के अभाव से कार्य नहीं बन सकेगा। जब उपादानकारण होगा तब ही कार्य हो सकता है। जैसे मिट्टी के का नाश हुए विना घड़ा नहीं पैदा हो सकता है। मिट्टी का पिंड उपादानकारण है। बा कारण यह है कि जो मिथ्यात्यपर्याय का नाश है वही सम्यक्त्व की पर्याय का लिमास है क्योंकि ऐसा सिद्धान्त का घचन है कि "भावान्तरस्वभावरूपो भव.यभावः" भाव रूप स्वभाव हो अभाव होता है अर्थात् अभाव नहीं होता-अन्य अवस्थारूप मलमना हो अमाव है, जैसे घटका उत्पन्न होना ही मिट्टी के पिंड का भंग (व्यय) है। यदि Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] [ पवयणसारं मिथ्यात्वपर्याय के भंगरूप सम्यक्त्व के उपादानकारण के अभाव में शुद्धात्मा की अनुभूति की वधि रूप सम्यक्त्व का उत्पाद हो जाये तो उपादानकारण से रहित आकाश के पुष्पं का भी उत्पाद हो जावे सो ऐसा नहीं हो सकता है। इसी तरह पर-द्रव्य उपादेय हैग्राह्य है, ऐसे मिथ्यात्व का नाश पूर्व में कहे हुए सम्यक्त्व पर्याय के उत्पाद विना नह होता है क्योंकि भंग के कारण का अभाव होने से भंग नहीं बनेगा जैसे घटको उत्पत्ति के अभाव में मिट्टी के पिड का नाश नहीं बनेगा। दूसरा कारण यह है कि सम्यक्त्व रूप पर्याग की उत्पति त्मिक पर्याय के नाम रूप से ही देखने में आती है क्योंकि एक पर्याय का अन्य पर्याय में पलटना होता है। जैसे घट पर्याय की उत्पत्ति मिट्टी के पिंड के अभाव रूप से ही होती है। यदि सम्यक्त्व की उत्पत्ति की अपेक्षा के बिना मिथ्यात्व पर्याय का अभाव होता है, ऐसा माना जाय तो मिथ्यात्वपर्याय का अभाव हो ही नहीं सकता क्योंकि अभाव के कारण का अभाव है अर्थात् उत्पाद नहीं है। जैसे घट की उत्पत्ति के बिना मिट्टी के पिंड का अभाव नहीं हो सकता इसी तरह परमात्मा की रुचि. रूप सम्यक्त्व का उत्पाद तथा उससे विपरीत मिथ्यात्वपर्याय का नाश ये दोनों बातें इन नोनों के आधारभूत परमात्म-रूप द्रव्य पदार्थ के बिना नहीं होती। क्योंकि द्रव्य के अभाव में व्यय और उत्पाद का अभाव है। मिट्टो द्रव्य के अभाव होने पर न घट की उत्पत्ति होती है, न मिट्री के पिंड का भंग होता है। जैसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्वपर्याय दोनों में परस्पर अपेक्षापना है ऐसा समानकर ही उत्पाद व्यय प्रोग्य तीनों दिखलाए गए हैं। इसी तरह सर्व द्रव्य को पर्यायों में देख लेना व विचार लेना चाहिये, ऐसा अर्थ है ॥१०॥ अयोत्पादादीनां द्रक्ष्यावन्तिरत्वं संहति उत्पावदिदिभंगा विज्जते पज्जएसु पज्जाया। बव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ॥१०१॥ उत्पादस्थितिभङ्गा विश्चन्ते पययिषु पर्याः । द्रव्ये हि सन्ति नियतं तस्माद्रव्यं भवति सर्वम् ।।१०१।। उत्पादव्ययात्रौव्याणि हि पर्यायानालम्बन्ते, ते पुन: पर्याया द्रव्यमालम्बन्ते । ततः समस्तमप्येतदेकमेव द्रव्यं न पुनद्रव्यान्तरम् । द्रव्यं हि तावत्पर्यायरालम्च्यते । समुदायिनः समुदायात्मकत्वात् पादपवत् । यथा हि समुदायो पारपः स्कन्धमूलशाखासमुदायात्मकः १. दबं (ज० व०)। - --.. __ - - -.. - Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २४६ स्कन्धमूलशाखाभिरालम्बित एष प्रतिभाति, तथा समुदायि द्रव्यं पर्यायसमुदायात्मक पर्यावैरालम्बितमेव प्रतिभाति । पर्यायास्तुत्पादव्ययध्रौव्यैरालम्ब्यन्ते उत्पादव्ययधौव्याणाम. राधर्मत्वात् जीजांकुरपादपत्ववत् । यथा किलाशिनः पादपस्य बीजांकुरपादपत्वलक्षणास्त्रयोंऽशा भङ्गोत्पाद-धोव्यलक्षणैरात्मधर्मरालम्बिताः सममेव प्रतिभान्ति, तथांशिनो द्रव्यस्योच्छिधमानोत्पद्यमानावतिष्ठमानभावलक्षणास्त्रयोंऽशा भङ्गोत्पादध्रौव्यलक्षणरास्मधर्मरालम्बिताः सममेव प्रतिभान्ति । यदि पुनर्भङ्गोत्पावनौव्याणि द्रव्यस्यैवेष्यन्ते तदा समग्रमेव विप्लवते। तथाहि भंगे तावत् क्षणभङ्गकटाक्षितानामेकक्षण एव सर्वद्रव्याणां संहरणाद्रव्यशून्यतावतारः सदुच्छेदो या । उत्पादे तु प्रतिसमयोत्पादमुद्रितानां प्रत्येकं द्रव्याणामानन्त्यमसमुत्पादो वा। ध्रौव्ये तु क्रमभुवां भावानामभावाद्य्यस्यामावः भणिकत्वं वा। अत उत्पादन्ययध्रौव्यरालम्ज्यन्ता पर्यायाः पर्यायश्च द्रव्यमालम्ब्यतां, येन समस्तमप्येतरेकमेव ध्यं भवति ॥१०॥ भूमिका-अब, उत्पादादि का द्रव्य से अर्थान्तरत्व को नष्ट करते हैं, (अर्थात् यह । सिद्ध करते हैं कि उत्पाद-व्यय-धोव्य द्रव्य से पृथक् पदार्थ नहीं हैं) अन्वयार्थ-[उत्पाद-स्थिति-भङ्गाः उलाद, धौमागिय पर्यायों में (अंशों में) [विद्यन्ते] रहते हैं [हि] निश्चय से [पर्यायाः] पर्यायें [द्रव्ये हि सन्ति] द्रव्य मैं होती हैं, [तस्मात् ] इसलिये [नियत] नियम से [सर्वं] वह सब (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य) द्रव्यं भवति ] द्रव्य हैं। टीका-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य वास्तव में पर्यायों (अंशों) को आलम्बन करते हैं और वे पर्यायें द्रष्य को आलम्बन करती हैं, इसलिये यह सब द्रब्य ही है, द्रव्यान्तर नहीं (उत्पाव व्यय-धोव्य द्रव्य से पृथक् पदार्थ नहीं हैं) वास्तव में प्रथम तो गच्य पर्यायों " (अंशों) के द्वारा आलम्बित किया जाता है, क्योंकि समुदायो (समुदायवान्) समुदाय स्वरूप होता है । वृक्ष की भांति जैसे समुदायी वृक्ष, स्कंधमूल और शाखाओं का समुदाय स्वाप होने से स्कंध, मूल और शाखाओं से आलम्बित ही प्रतिमासित होता है (दिखाई जीता है), इस ही प्रकार समवायी द्रव्य, पर्यायों का समदाय स्वरूप होने से पर्यायों के सारा आलम्बित ही प्रतिभासित होता है। (अर्थात् जैसे स्कंध, मूल और शाखायें वृक्षामत ही है-वृक्ष से भिन्न पदार्थ रूप नहीं हैं, उस ही प्रकार पर्याय द्रव्याभित ही हैं से भिन्न पदार्थ रूप नहीं हैं।) और पर्यायें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के द्वारा आलम्बित समर्थात् उत्पाद-पय-ध्रौव्य पर्यायाश्रित हैं) क्योंकि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के अंश-धर्मपना Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] [ पवयणसारो है, बीज, अंकुर और वृक्षत्व की भांति । जैसे अंशोवृक्ष के बीज वृक्षत्व स्वरूप तीन अंश, व्यय-उत्पाद-प्रौव्य स्वरूप निज धर्मों से आलम्बित एक साथ ही भासित होते हैं, उसो प्रकार अंशी-द्रव्य के, नष्ट होता हुआ भाव, उत्पन्न होता हुआ भाव, और अवस्थित रहने वाला भाव यह हैं लक्षण जिनके ऐसे तीनों अंश व्यय-उत्पाद-प्रौव्य स्वरूप निज धर्मों के द्वारा आलम्बित एक साथ ही मासित होते हैं। किन्तु यदि द्रव्य का ही (१) व्यय, (२) उत्पाद और (३) धौव्य माना जाय तो सारी गड़बड़ी हो जायेगी। यथा (१) अकेले, यदि द्रव्य का ही व्यय माना जाय, तो क्षण भंग से लक्षित समस्त द्रव्यों का एक क्षण में ही व्यय हो जाने से द्रव्य शून्यता आ जायगी, अथवा सत् का उच्छेव हो जायगा। (यदि द्रव्य का ही उत्पाद माना आय, तो समय-समय पर होने वाले उत्पाद के द्वारा चिन्हित द्रव्यों की अनन्तता आ जायगी। (अर्थात् समय-समय पर होने वाला उत्पाद जिसका चिन्ह हो ऐसा प्रत्येक द्रव्य अनन्त द्रव्यत्व को प्राप्त हो जायगा) अथवा असत् का उत्पाद हो जायगा, (३) यदि द्रव्य का ही ध्रौव्य माना जाय तो क्रमशः होने वाले भावों के अभाव के कारण द्रव्य का अभाव हो जायगा, अथवा क्षणिकत्व आ जायगा । इसलिये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के द्वारा पर्याय आलम्बित हों, और पर्यायों के द्वारा द्रव्य आलम्बित हो, कि जिससे यह सब एक ही द्रव्य होता है ॥१०१॥ तात्पर्यवत्ति अथोत्पादव्ययध्रौव्याणि द्रव्येण सह परस्पराधाराधेयभावत्वादन्वयद्रव्याथिकनयेन द्रव्यमेत्र भवतीत्युपदिशति, उप्पावविदिभंगा त्रिशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावात्मतत्त्वनिविकारस्वसंवेदनज्ञानरूपेणोत्पादस्तस्मिन्नेत्र क्षणे स्वसंवेदनज्ञानविलक्षणाज्ञानपर्यायरूपेण भङ्गः, तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपेण स्थितिरित्युक्तलक्षणास्त्रयो भङ्गा कर्तारः विज्जते विद्यन्ते तिष्ठन्ति । केषु ? पज्जएसु सम्यक्त्वपूर्वकनिर्विकारस्वसंवेदनज्ञानपर्याये तावदुत्पादस्तिष्ठति स्वसंवेदनज्ञानविलक्षणाज्ञानपर्यायरूपेण भंगस्तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपपर्यायेण ध्रौव्यं चेत्युक्तलक्षणस्वकीयस्वकीयपर्यायेषु पन्जाया दव्वं हि संति ते चोक्तलक्षणज्ञानाज्ज्ञानतदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपपर्याया हि स्फुटं द्रव्यं सन्ति णियदं निश्चित प्रदेशाभेदेपि स्वकीयस्वकीयसंज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेन तम्हा दत्वं हदि सव्यं यतो निश्चयाधाराधेयभावेन तिष्ठन्त्युत्पादादयस्तस्मात्कारणादुत्पादादित्रयं स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयं चान्वयद्रव्याथिकनयेन सर्व द्रव्यं भवति। पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्त्रयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विपयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्याथिकनयः । यथेवं ज्ञानाज्ञानपर्यायद्वये भंगत्रयं व्याख्यातं तथापि सर्वद्रव्यपर्यायेषु यथासंभवं ज्ञातव्यमित्यभिप्राय: ।।१०१॥ उत्थानिका—आगे यह बताते हैं कि उत्पाद व्यय प्रौव्य का द्रव्य के साथ परस्पर आधार---आधेय भाव है इसलिये अन्वय रूप द्रव्याथिकनय से वे द्रव्य ही हैं Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयणसारो । [ २५१ । अन्वय सहित विशेषार्थ-(उप्पाददिदिभंगा) उत्पाद, व्यय और प्रौव्य (पज्जएसु) पायों में (विज्जते) रहते हैं । (पज्जाया) पर्याय (णियदं हि) निश्चय से हो (व्वं) ष्य में (संति) रहती हैं। (तम्हा) इस कारण से (सध्वं) वे सब पर्याय (दवं) द्रव्य हिबकि) हैं । (वृत्तिकार सम्यग्दर्शन पर्याय का दृष्टांत देखकर बताते हैं कि) विशुद्धज्ञानधर्शन स्वभाव रूप आत्मतत्व निर्विकार स्वसंवेदनज्ञान रूप से उत्पाद, उसी ही समय में संवेदनशान से विलक्षण अज्ञान पर्याय रूप से ध्यय तथा इन दोनों का आधारभूत कारमय्यपने की अवस्था रूप से ध्रौव्य ऐसे ये तीनों ही भेद पर्यायों में रहते हैं अर्थात् सम्यक्त्व-पूर्वक निर्विकार स्वसंवेदनज्ञान पर्याय से उत्पाद है तथा स्वसंवेदन-रहित अज्ञान अषि रूप से व्यय तथा इन दोनों का आधार रूप आत्मद्रव्यपने की अवस्था रूप से मन्यि अपनी-अपनी पर्यायों में रहते हैं। और ये ऊपर कहे हुए लक्षण सहित जो ज्ञान, मान और इन दोनों का आधार रूप आत्म-द्रव्यपना ऐसी ये पर्याय निश्चय करके अपनेपाने संना लक्षण प्रयोजन आदि के भेद से भेद रूप हैं तथापि आत्मा के प्रदेशों में होने से रूप हैं इसलिये जब निश्चय से ये उत्पाद व्यय प्रौव्य आधार-आधेयभाव से द्रव्य हते हैं तब यह स्वसंवेदनान आदि पर्याय रूप उत्पाद व्यय धोव्य तीनों अन्वय गापिकनय से द्रव्य हैं। पूर्व कथित उत्पाद आदि तीनों का तैसे ही स्वसंवेदनज्ञान दि तीनों पर्यायों का अनुगत आकार से व अन्यय रूप से जो आधार हो सो अन्वय कहलाता है। अन्वय द्रव्य जिसका विषय हो उसको अन्वय ब्रव्याथिकनय कहते हैं। महाँ जान अज्ञान पर्यायों में तीन भेद कहे गये तैसे ही सर्व द्रव्य को पर्यायों में यथा जान लेना चाहिये, यह अभिप्राय है ॥१०१॥ पोत्पारावीनां क्षणभेदमुदस्य द्रव्यत्वं द्योतयति समवेवं खलु दवं संभवठिदिणाससण्णिवठेहि । . एक्कम्मि चेव समये लम्हा दव्वं खु तत्तिदयं ।।१०२॥ समवेतं खलु द्रव्यं संभबस्थितिनाशसंशितार्थः ।। एकस्मिन् चैव समये तस्माद्रव्यं खन्नु तत्वितयम् ।। १०२।। ह हि यो नाम वस्तुनो जन्मक्षणः स जन्मनेत्र व्याप्तत्वात् स्थितिक्षणो नाशक्षणश्च । यरच स्थितिक्षणः स खलुभयोरन्तरालदुर्ललितत्वाज्जन्मक्षणो नाशक्षणश्च - यश्च नाशक्षणः स तूत्पद्यावस्थाय च नश्यतो जन्मक्षणः स्थितिक्षणश्च न प्रत्युत्पावावीनां वितर्यमाणः क्षणभेदो हृदयभूमिमवतरति । अवतरत्येवं यदि Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] [ पबयणसारो द्रव्यमात्मनवोत्पद्यते आत्मनवाथतिष्ठते आत्मनव नश्यतीत्यभ्युपगम्यते। तत्तु नाभ्युपगतम् । पर्यायाणामेवोत्पादादयः कुतः क्षणभेदः । तथाहि---यथा कुलालदण्डचक्रचीवरारोप्यमाणसंस्कारसन्निधौ य एव वर्धमानस्य जन्मक्षणः स एवं मृत्पिण्डस्य नाशक्षणः स एव च कोटिद्वयाधिरूढस्य मृत्तिकात्वस्य स्थितिक्षणः। तथा अन्तरङ्गबहिरङ्गसाधनारोप्यमाणसंस्कारसन्निधौ य एवोत्तरपर्यायस्य जन्मक्षणः स एव प्राक्तनपर्यायस्य नाशक्षणः स एवं च कोटिद्वयाधिरूढस्य द्रव्यत्वस्य स्थितिक्षणः । यथा च वर्धमानमृतिपण्डमृत्तिकात्वेषु प्रत्येकवीन्यप्युत्पादव्ययधोव्याणि विस्वमावस्पशिन्यां मृत्ति कायां साभस्त्ये कसमय एवावलोक्यन्ते, तथा उत्तरप्राक्तनपर्यायव्यत्वेषु प्रत्येकवर्तीन्यप्युत्पादव्ययध्रौव्याणि निस्वभावस्पशिनी द्रव्ये सामस्त्येनैकसमय एवावलोक्यन्ते । यथैव च वर्धमानपिण्डमृत्तिकात्ववर्तीन्युत्पादव्ययनौय्याणि मृत्तिकव न वस्त्वन्तरं, तथैवोत्तरप्राक्तनपर्यायव्यत्ववतीन्यप्युत्पादव्ययात्रौव्याणि द्रव्यमेव न खल्वर्थान्तरम् ॥१०२॥ भूमिका—अब उत्पादिकों के समय-भेद को निराकृत करके, (उनके) द्रव्यपने को (एक ही द्रव्य हैं) प्रगट करते हैं ___ अन्वयार्थ-[द्रव्यं] द्रव्य [एकस्मिन् च एव समये] एक ही समय में [संभवस्थितिनाशगंजित बैं: जमाद, धौल्य और व्यय नामक अर्थों के साथ [खलु] वास्तव में [समवेतं] एकमेक है, [तस्मात् ] इसलिये [तत् त्रितयं] यह त्रितय [खलु] वास्तव में [द्रव्यं] द्रव्य है । टोका---(प्रथम शंका उपस्थित की जाती है) यहां (विश्व में) वस्तु का जो जन्मक्षण है वह जन्म से ही व्याप्त होने से स्थितिक्षण और नाशक्षण नहीं है, (यह पृथक ही होता है), जो स्थितिक्षण है वह दोनों के अन्तराल में (उत्पादक्षण और नाशक्षण के बीच) दृढतया रहता है, इसलिये (वह) जन्मक्षण और नाशक्षण नहीं है, वह, वस्तु उत्पन्न होकर और स्थिर रहकर फिर नाश को प्राप्त होती है इसलिये, जन्मक्षण और स्थितिक्षण नहीं है, इस प्रकार तर्क-पूर्वक विचार करने पर उत्पादादि का क्षणभेद हृदयभूमि में अवतरित होता है (अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का समय भिन्न-भिन्न होता है, एक नहीं होता, इस प्रकार की बात हृदय में जमती है।) __ यहां उपरोक्त शंका का समाधान किया जाता है--इस प्रकार उत्पादावि का क्षणभेद हृदयभूमि में तभी उतर सकता है, जब कि यह माना जाय कि 'द्रव्य स्वयं ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही ध्रुव रहता है और स्वयं ही नाश को प्राप्त होता है। किन्तु ऐसा तो माना Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २५३ नहीं गया है, (क्योंकि यह स्वीकार और सिद्ध किया गया है कि ) पर्यायों के उत्पाद आदि है, ( तब फिर ) वहाँ क्षणमेव कहाँ से हो सकता है ? यह समझाते हैं- जैसे कुम्हार, दण्ड, और चोर से द्वारोपित किये जाने वाले संस्कार की उपस्थिति में जो वर्धमान ( घड़ा ) का जन्मक्षण होता है वही मृत्तिकापिण्ड का नाशक्षण होता है, और वही दोनों कोटियों ( उत्पाद व्यय) में रहने वाले मृत्तिकात्व का स्थितिक्षण होता है, इसी प्रकार अन्तरंग ( उपादान) और बहिरंग ( निमित्त ) साधनों से आरोपित किये जाने वाले संस्कारों की उपस्थिति में, जो उत्तरपर्याय का जन्मक्षण होता है, वही पूर्व-पर्याय का नाशक्षण होता है और वही दोनों कोटियों ( उत्पाद-व्यय) में रहने वाले द्रव्यत्वका स्थितिक्षण होता है । जैसे रामपात्र में मृत्तिकापिण्ड में और मृत्तिकात्व में प्रत्येक में ( क्रमशः) बताते हुये भी उत्पाद, व्यय और धव्य त्रिस्वभावस्पर्शी मृत्तिका में सम्पूर्णतया (सभी एकत्रित ) एक समय में ही देखे जाते हैं, इसी प्रकार उत्तर - पर्याय में, और पूर्यपर्याय में, और saura में प्रत्येक में ( क्रमशः) प्रवर्तमान होने पर भी उत्पाद, व्यय और धौव्य त्रिस्व1 भावस्पर्शी व्रज्य में सम्पूर्णतया ( तीनों एकत्रित ) एक समय में ही देखे जाते हैं और जैसे (रामपात्र, मृतिकापिण्ड तथा मृत्तिकात्व में प्रवर्तमान उत्पाद, व्यय और धोय मिट्टी हो हैं, अभ्य, अन्य वस्तु नहीं हैं, उसी प्रकार उत्तर-पर्याय, पूर्व-पर्याय और द्रव्यत्व में प्रवर्तमान उत्पाद, व्यय और प्रौव्य ही हैं, अन्य पदार्थ नहीं ॥ १०२ ॥ तात्पर्य वृत्ति अथोत्पादादीनां पुनरपि प्रकारान्तरेण द्रव्येण सहाभेदं समर्थयति समयभेदं च निराकरोति समवेदं खलु वयं समवेतमेकीभूतमभिन्नं भवति खलु स्फुटं । किं ? आत्मद्रव्यं ॥ कैः सह ? संभवठिदिणासस ण्णिवट्ठेहिं सम्यक्त्वज्ञानपूर्वक निश्चलनिर्विकारनिजात्मानुभूतिलक्षणवीतरागचारित्रपर्यायेणोत्पादः तथैव रागादिपरद्रव्यैकत्वपरिणतिरूपचारित्रपर्यायेण नाशस्तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपपर्यायेण स्थितिरित्युक्तलक्षणसंज्ञित्वोत्पादव्ययध्रौव्यैः सह । तहि कि बौद्धमतवद्भिन्नभिन्नसमये त्र्यं भविष्यति ? नैवं । एकम्मि चैव समये अंगुलिद्रव्यस्य वक्रपर्यायवत्संसारिजीवस्य मरणकाले ऋजु- गतिवत् क्षीणकषायचरमसमये केवलज्ञानोत्सत्तिवदयोगिचरमसमये मोक्षवत्रेत्येकस्मिन्समय एव । सम्हा बच्वं खु तत्तिवयं यस्मात्पूर्वोक्तप्रकारेण कसमये भंगत्रयेण परिणमति तस्मात्संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि प्रदेशानामभेदात्त्रयमपि खु स्फुटं द्रव्यं भवति । यथेदं चारित्राचारित्रपर्यायद्वये मंगत्रयमभेदे दर्शितं तथा सर्वद्रव्यपर्यायेष्वव बोद्धव्यमित्यर्थः ।। १०२ || एवमुत्पादव्यय धौव्यरूपलक्षणव्याख्यानमुख्यतया गाथाश्रयेण तृतीयस्थलं गतम् । उत्थानिका—आगे फिर भी उत्पाद व्यय धौय का अन्य प्रकार से द्रव्य के साथ अभेद दिखाते हैं और उत्पाद व्यय नौन्य का समय भेद नहीं है, ऐसा बताते हैं व जो समयभेद माने उसका निराकरण करते हैं या खण्डन करते हैं--- Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ । [ पक्यणसारो अन्वय सहित विशेषार्थ-(वच्वं) द्रव्य (खलु) निश्चय से (एकम्मि चेव समये) एक ही समय में परिणमन करने वाले (संभवठिविणाससण्णिद.हिं) उत्पाद स्थिति व नाश के भावों से (समवे) एक रूप है अर्थात् अभिन्न है (तम्हा) इसलिये (दव्य) द्रव्य (यु) प्रगट रूप से (तत्तिदयं) उन तीन रूप है । आत्मा नामा द्रव्य जब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक निश्चल और विकार-रहित अपने आत्मा के अनुभवमय लक्षण वाले वीतरागचारित्र की अवस्था से उत्पन्न होता है अर्थात् जब सम्यग्दृष्टि और ज्ञानी आत्मा में वीतरागचारित्र को पर्याय का उत्पाद होता है तब ही रागादिरूप पर्याय का जो परद्रव्यों के साथ एकता करके परिणमन कर रहा था, नाश होता है और उसी समय इन दोनों उत्पाद और व्यय के आधाररूप आत्मा द्रव्य की अवस्थारूप पर्याय से ध्रौव्यपना है। इस तरह वह आत्मद्रव्य अपने ही उत्पाद व्यय ध्रौव्य को पर्यायों से एक रूप है या अभिन्न है। यही बात निश्चय से है। ये तीनों पर्याय मौसुमत की तरह मिन्न-भिन्न समय में नहीं होती हैं किन्तु एक ही समय में होती हैं । जैसे जब अंगुली को टेढा किया जावे तब एक ही समय में टेढ़ेपने की उत्पत्ति और सीधेपन का नाश तथा अंगुलीपने का धौव्य है । इसी तरह जब कोई संसारी जीव मरण करके ऋजुगति से एक ही समय में जाता है तब जो समय मरण का है वही समय ऋजुगति प्राप्ति का है तथा वह जीव अपने जीवपने से विद्यमान है हो । तैसे ही जब क्षीणकषाय नाम के बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में केवलज्ञान की उत्पति होती है तब ही अज्ञानपर्याय का नाश होता है तथा वीतरागी आत्मा को स्थिति है ही। इसी तरह जब अयोगकेवली के अन्त समय में मोक्ष होता है तब जिस समय मोक्ष पर्याय का उत्पाद है तब ही चौदहवें गुणस्थान को पर्याय का नाश है तथा दोनों ही अवस्थाओं में आत्मा ध्रुवरूप है ही। इस तरह एक ही समय में उत्पाद व्यय धौव्य सिद्ध होते हैं। संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि से भेद होते हुए भी प्रदेशों की अपेक्षा अभेद है, इसलिये द्रव्य प्रगट रूप से उत्पाद व्यय प्रौव्य स्वरूप है । जैसे यहां आत्मा में चारित्र पर्याय की उत्पत्ति और अचारित्रपर्याय का नाश समझाते हुए तीनों ही भंग अभेदपने से दिखाए गए हैं, ऐसे ही सर्व द्रव्यों को पर्यायों में भी जानना चाहिये, ऐसा अर्थ है ॥१०२॥ इस तरह उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप द्रव्य का लक्षण है । इस व्याख्यान की मुख्यता से तीन गाथाओं में तीसरा स्थल पूर्ण हुआ। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्य पवयणसारो ] [ २५५ अथ द्रव्यस्योत्पाव्यय धौव्याण्यनेकद्रव्यपर्यायद्वारेण चिन्तयतिपाब्भवदि य अण्णो पज्जाओ पज्जओ वयदि अण्णो । दव्यस्स तं पि दव्वं णेव पणट्ठ ण उप्पणं ॥ १०३ ॥ प्रादुर्भवति चान्यः पर्यायः पर्यायो व्येति अन्यः 1 द्रव्यस्य तदपि द्रव्यं नैव प्रणष्टं नोत्पन्नम् ॥१०३॥ इह हि यया किलैकस्यणुकः समानजातीयोऽनेकद्रव्यपर्यायो विनश्यत्यन्यश्चतुरणुकः प्रजायते, ते तु चत्वारो वा पुद्गला अविनष्टानुत्पन्ना एवावतिष्ठन्ते । तथा सर्वेपि समानजातीया द्रव्यपर्याया विनश्यन्ति प्रजायन्ते च । समानजातीनि द्रव्याणि त्वविनष्टामुत्पन्नान्येवावतिष्ठन्ते । यथा चंको मनुष्यत्यलक्षणोऽसमानजातीयो द्रव्यपर्यायो विनश्यत्यस्वस्त्रिदशत्वलक्षणः प्रजायते तौ च जीवपुद्गलो अनिष्टानुत्पन्नावेवावतिष्ठेते, तथा सर्वे समानजातीया द्रव्यपर्याया विनश्यन्ति प्रजायन्ते च असमानजातीति द्रव्याणि त्यविनुत्पन्नान्येवावतिष्ठन्ते । एवमात्मना ध्रुवाणि द्रव्यपर्यायद्वारेणोत्पादव्ययीभूतान्युत्पामुष्यधव्याणि द्रव्याणि भवन्ति ॥ १०३ ॥ भूमिका – अब, द्रव्य के उत्पाद-व्यय-श्रव्य को अनेक ( एक से अधिक ) द्रव्यों से होने वाली पर्याय द्वारा विचार करते हैं [प्रादुर्भवति ] नष्ट होती है, [ उत्पन्नं न] अन्वयार्थ -- [ द्रव्यस्य ] द्रव्य की [ अन्यः पर्यायः ] अन्य द्रव्य पर्याय होती है [च] और [ अन्यः पर्यायः ] कोई अन्य द्रव्य पर्याय [व्येति ] [[ ] फिर भी [arj] ] द्रव्य [ प्रणष्टं न एव ] न तो नष्ट होता है, उत्पन्न होता है । ( वह तो द्रव्यपने से ध्रुव रहता है | ) टीका - यहां (विश्व में ) वास्तव में जैसे एक त्रि-अणुक की समानजातीय अनेकहम्पपर्याय विनष्ट होती हैं और दूसरी चतुरणुक ( समानजातीय अनेकद्रव्यपर्याय ) उत्पन्न "होती हैं, परन्तु वे तीन या चार पुद्गल ( परमाणु ) तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं शुभव हैं ) इसी प्रकार सब ही समानजातीय द्रव्यपर्यायें विनष्ट होती हैं, किन्तु समानजातीय तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं (ध्रुव हैं) और जैसे एक मनुष्यत्वस्वरूप मिसमासजातीय द्रव्य पर्याय विनष्ट होती है और दूसरी देवत्वस्वरूप ( असमानजातीय द्रव्यउपाय) उत्पन्न होती है, परन्तु ये जीव पुद्गल तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं, प्रकार सब हो असमानजातीय द्रव्य-पर्यायें विनष्ट होती हैं और उत्पन्न होती हैं, १. गट्टे (ज० बु० ) Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] [ पवयणसारो परन्तु असमान-जातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं। इस प्रकार स्वतः (द्रध्यत्वेन) भ्रष और द्रव्य-पर्यायों द्वारा उत्पाद-व्ययरूप द्रव्य उत्पाद व्यय प्रौव्य है ॥१०॥ तात्पर्यव त्ति अथ द्रव्यपर्यायेणोत्पादब्ययध्रौव्याणि दर्शयति, पाडुम्भयदि य प्रादुर्भवति च जायते अण्णो अन्यः कश्चिदपूर्वानन्तज्ञानसुखादिगुणास्पदभूतः शाश्वतिकः । स कः ? पज्जाओ परमात्मावाप्तिरूपः स्वभावद्रव्यपर्यायः पज्जओ वयदि अण्णो पर्यायो व्यातिविनश्यति । कथंभूतः ? अन्य: पूर्वोक्तमोक्षपर्यायाद्भिन्नो निश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिरूपस्यैत्र मोक्षपर्यायस्योपादानकारणभूतः । कस्य सम्बन्धी पर्याय: ? दय्वस्स परमात्मद्रव्यस्य तंपि दध्वं तदपि परमात्मद्रव्यं व य प ण उप्पण्णं शुद्धद्रव्याथिकन येन नैव नष्टं न चोपन्नम् ।। अथवा संसारिजीवापेक्षया देवादिरूपो विभावद्रव्यपर्यायो जायते मनुष्यादिरूपो विनश्यति तदेव जीवद्रव्यं निश्चयेन न त्रोत्पन्न न च विनाटे, पुलगलद्रव्यं वा अणुकादिस्कन्धरूपस्वजातीयविभावद्रव्यपर्यायाणां विनोशोत्पादेपि निश्चयेन न चोत्पन्न न च विनष्टमिति । तत; स्थितं यतः कारणादुत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण द्रव्यपर्यायाणां विनाशोत्पादेऽपि द्रव्यस्य विनाशो नास्ति, ततः कारणाद्रव्यपर्याया अपि द्रव्यलक्षणं भवन्तीत्यभिप्रायः ।। १०३।।। उत्थानिका--आगे इस बात को दिखलाते हैं कि द्रव्य में पर्यायों की अपेक्षा उत्पाद व्यय ध्रौव्य है-- ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(दब्बस्स) द्रव्य की (अण्णो पज्जाओ) अन्य कोई पर्याय (पाडुम्भवदि) प्रगट होती है (य) और (अण्णो पज्जाओ) अन्य कोई पूर्व पर्याय (वयदि) नष्ट होती है (तपि) तोभी (बच्चं) द्रव्य (णेव पणटुंण उप्पण्णं) न तो नाश हुआ है और न उत्पन्न हुआ है। शुद्ध आत्मा द्रव्य के जब कोई अपूर्व और अनन्त ज्ञान सुख आदि गुणों के स्थान तथा अविनाशी परमात्म-स्वरूप की प्राप्तिरूप स्वभाव द्रव्य-पर्याय अथवा मोक्षअवस्था प्रगट होती है तब इस मोक्ष-पर्याय से भिन्न तथा निश्चय रत्नत्रयमयी निर्विकल्प समाधिरूप मोक्ष पर्याय की उपादानकारणरूप पूर्व पर्याय नाश होती है । तथापि वह परमात्मा द्रव्य शुद्ध द्रव्याथिकनय की अपेक्षा न नष्ट होता है न उत्पन्न होता है। ___ अथवा संसारी जीव की अपेक्षा जब देव आदि रूप विभाव-द्रव्य-पर्याय उत्पन्न होती है तब ही मनुष्य आदि रूप पर्याय नष्ट होती है । तथा वह जीव द्रव्य निश्चय से न उपजा है, न विनष्ट है । इसी तरह पुद्गल द्रव्य पर जब विचार किया जाय तो मालूम होगा कि दो अणु का स्कन्ध, चार अणु का स्कन्ध आदि स्कन्धरूप स्वजातीय विभाव-द्रव्य पर्याय जब कोई उत्पन्न होती है तब पूर्व पर्याय को नाश करके ही पैदा होती है। तो भी Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपरणसारो ] [ २५७ पुगल द्रव्य निश्चय से न उपजता है न नष्ट होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि उत्पाद व्यय प्रौव्य रूप होने के कारण द्रष्य की पर्यायों का नाश और उत्पाद होने पर भी द्रव्य का नाश नहीं होता है। इस हेतु से द्रव्य-पर्यायें भी द्रव्य लक्षण होती हैं, ऐसा अभिप्राय अथ द्रव्यस्योत्पादन्ययधौव्याण्धेकर व्यपर्यायद्वारेण चिन्तयति परिणमदि सयं दत्वं गुणदो य गुणंतरं सदविसिट्ठ। तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुन दव्यमेव त्ति ॥१०॥ परिणमति स्वयं द्रव्यं गुणतश्च गुणान्तरं सदविशिष्टम् । तस्माद् गुणपर्याया भणिताः पुनः द्रव्यमेवेति ।।१०४।। एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्यायाः, गुणपर्यायाणामेकद्रव्यत्वात् । एकद्रव्यत्वं हि तेषां सहकारफलवत् । यथा किल सहकारफलं स्वयमेव हरितभावात् पाण्डुभावं परिणमत्पूर्वोसरप्रवृत्तहरितपाण्डुभावाभ्यामनुभूतात्मसत्ताक हरितपाण्डुभावाभ्यां समविशिष्टसत्ताकतकमेव वस्तु न वस्त्वन्तरं, तथा द्रव्यं स्वयमेव पूर्वावस्थावस्थितिगुणादुत्तरावस्थावस्थिसगुणं परिणमत्पूर्वोत्तरावस्थावस्थिगुणाभ्यां ताभ्यामनुभूतात्मसत्ताक पूर्वोत्तरावस्थावमिसगुणाभ्यां सममविशिष्टसत्ताकतयकमेव द्रव्यं न द्रव्यान्तरम् । यर्थव चोत्पद्यमान पायुमावेन, व्ययमानं हरितभावेनावतिष्ठमानं सहकारफलत्वेनोत्पावव्ययात्रौव्यायेकवस्तुपर्यापद्वारेण सहकारफल तथैवोत्पधमानमुत्तरावस्थावस्थितगुणेन, व्ययमानं पूर्वावस्थावस्थितनावतिष्ठमानं द्रव्यत्वगुणेनोल्पाचव्ययधोव्याण्येकद्रव्यपर्यायद्वारेण द्रव्यं भवति ॥१०४॥ भूमिका-अब, द्रव्य के उत्पाद व्यय-ध्रौव्य एक पर्याय के द्वारा विचार करते हैंप अन्वयार्ष-[सदविशिष्टं] सत् से अभिन्न [द्रव्यं स्वयं] द्रश्य स्वयं ही गुणतः च राणान्तरं] गुण से गुणान्तररूप (एक गुणपर्याय से अन्य गुण पर्याय रूप) [परिणमते] रिणामता है, (द्रव्य की सत्ता गुण पर्यायों की सत्ता के साथ अविशिष्ट अभिन्न एक ही रहती है) [तस्मात् पुनः] और इस कारण से [गुणपर्यायाः] गुणपर्यायें [ द्रव्यम् एव ] व्य ही हैं [इति भणिताः] ऐसा कहा गया है। टीका—जो एक द्रष्य की पर्यायें हैं वह वास्तव में गण-पर्याय हैं, क्योंकि गुणपर्यायों के एक द्रव्यत्व है । उनका व्यत्व आम्रफल की भांति है । जैसे आम्रफल स्वयं ही हरितमान से पोतभावरूप परिणत होता हुआ, प्रथम और पश्चात् प्रवर्तमान हरितभाव १. अमेति । (ज. वृ०) । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] [ पवयणसारो और पीतभाव के द्वारा अपनी सत्ता का अनुभव करता है, इसलिये हरितभाव और पीतभाव के साथ अभिन्न सत्ता वाला होने से एक ही वस्तु, अन्य वस्तु नहीं, इसी प्रकार द्रव्य स्वयं ही पूर्व अवस्था में अवस्थित गुण में से उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणरूप परिणत होता हुआ, पूर्व और उत्तर अवस्था में अवस्थित उन गुणों के द्वारा अपनी सत्ता का अनुभव करता है, इसलिये पूर्व लोर उनर 7 में शामिशत गुणों के साथ अभिन्न सत्ता वाला होने से एक ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं है (अन्य द्रव्य नहीं है)। जंसे पीतभाव से उत्पन्न होता है, हरितभाव से नष्ट होता है, और आम्रफल रूप से स्थिर रहता है, इसलिए आम्रफल एक वस्तु को पर्याय के द्वारा उत्पादध्यय-प्रौव्य रूप है, उसी प्रकार उत्तर अवस्था में अवस्थित गुण से उत्पन्न, पूर्व अवस्था में भवस्थित गुण से नष्ट और द्रध्यत्व गुण से स्थिर होने से द्रव्य पर्याय के द्वारा उत्पाद-व्ययधोव्य रूप है ॥१०॥ तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्यस्योत्पादव्ययध्रौव्याणिगुणपर्यायमुख्यत्वेन प्रतिपादयति-- परिणमदि सयं वध्वं परिणमति स्वयं स्वयमेवोपादानकारणमूतं जीवद्रव्यं कर्तृ । कं परिणमति? गुणदो य गुणंतरं निरुपरागस्वसंवेदनज्ञानगुणात्केवलज्ञानोत्पत्तिवीजभूतात्सकाशात्सकलविमलकेवलज्ञानगुणान्तरं । कथंभूतं सत्परिणमति ? सदविसिठं स्वकीयस्वरूपत्वाच्चिद्रास्तित्वादविशिष्टभिन्नं । तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्यमेवत्ति तस्मात्कारणान्न केवलं पूर्वसूत्रोदिताः द्रव्यपर्यायाः द्रव्यं भवन्ति, गुणरूपपर्याया गुणपर्याया भण्यन्ते तेपि द्रव्यमेव भवन्ति । अथवा संसारिजीबद्रव्यं मतिस्मृत्यादिविभावगुणं त्यक्त्वा श्रुतज्ञानादिविभावगुणान्तरं परिणमति, पुद्गलद्रव्यं वा पूर्वोक्तशुक्लवर्णादिगुणं त्यक्वा रक्तादिगुणान्तरं परिणमति हरितगुणं त्यक्त्वा पाण्डुरगुणान्तरमाम्रफलमिवेति भावार्थः ।।१०४।। एवं स्वभावविभावरूपा द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्च नविभागेन द्रव्यलक्षणं भवन्ति इतिकथनमुख्यतया गाथाद्वयेन चतुर्थस्थलं गतम् । उत्थानिका-आगे द्रव्य के उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप को गुण पर्याय की मुख्यता से बताते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ— (सदविसिट्ठ) अपनी सत्ता से अभिन्न (दव्यं) द्रव्य (गुणवो) एक गुण से (गुणंतरं) अन्य गुणरूप (सयं) स्वयं आप ही (परिणमदि) परिणमन कर जाता है। (तम्हा) इस कारण से (य पुण) ही तब (गुणपज्जाया) गणों को पर्याय (दवमेवेत्ति) द्रव्य ही हैं ऐसी (भणिया) कही जाती हैं। एक जीव द्रव्य अपने चैतन्य स्वरूप से अभिन्न रहकर अपने ही उपादानकारण से आप ही केवलज्ञान की उत्पत्ति का बोज जो वीतराग स्वसंवेवन गुणरूप अवस्था उसको Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो [ २५६ छोड़कर सर्व प्रकार से निर्मल केवलज्ञान गुण की अवस्था को परिणमन कर जाता है इस कारण से जो गुण की पर्यायें होती हैं ये भी द्रव्य ही हैं, पूर्व सूत्र में कहे प्रमाण केवल द्रव्य-पर्यायें ही द्रव्य नहीं हैं अथवा संसारी जीव द्रव्य मति स्मृति आदि विभावज्ञानगुण की अवस्था को छोड़कर श्रुतज्ञानादि विभावज्ञानगुण रूप अवस्था को परिणमन कर जाता है ऐसा होकर भी जोब द्रव्य ही है । अथवा पुद्गल द्रव्य अपने पहले के सफेद वर्ण आदि गुण पर्याय को छोड़कर लाल आदि गुण पर्याय में परिणमन करता है ऐसा होकर श्री पुद्गल द्रव्य ही है। अथवा आम का फल अपने हरे गुण को छोड़कर वर्ण गुण को मीत पर्याय में परिणमन कर जाता है तो भी आम्र फल ही है । इस तरह यह भाव है कि गुण की पर्यायें भी द्रव्य ही हैं ॥ १०४ ॥ इस तरह स्वभावरूप या विभावरूप द्रव्य की पर्यायें तथा गुणों को पर्यायें नय की पेक्षा से द्रव्य का लक्षण हैं । ऐसे कथन को मुख्यता से दो गाथाओं से चौथा स्थल पूर्ण गा। अथ ससाध्ययोरनर्थान्तरत्वे युक्तिमुपन्यस्यति — ण हववि जवि सद्दवं असधुन्वं हवदि तं कहं दव्वं । हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता ॥ १०५ ॥ न भवति यदि सद्द्रव्यमसद्ध्रुवं भवति तत्कथं द्रव्यम् । भवति पुनरन्यद्वा तस्माद्रव्यं स्वयं सत्ता ॥ १०५ ॥ यदि हि द्रव्यं स्वरूपत एव सन्न स्यात्तदा द्वितयो गतिः असद्वा भवति, सत्तातः मावा सवति । तत्रासद्भव धौव्यस्यासंभवादात्मानमधारयद्द्रव्यमेवास्तं गच्छेत् । सत्तातः मव सत्तामन्तरेणात्मानं धारयतावन्मात्रप्रयोजनां सत्तामेवास्तं गमयेत् । स्वरूपतस्तु यस्य संभवावात्मानं धारयद्रव्यमुद्गच्छेत् । सत्तातोऽपृथग्भूत्वा चात्मानं धारमात्र प्रयोजनां सत्तामुद्गमयेत् । ततः स्वयमेव द्रव्यं सत्वेनाभ्युपगन्तव्यं, भावभावऔर स्वेनान्यत्वात् ॥ १०५ ॥ भूमिका -- अब सत्ता और द्रव्य के अभिन्नपने में ( प्रदेश भेव न होने में ) युक्ति करते हैं पार्थ -- [ यदि ] यदि [ द्रव्यं ] द्रव्य [सत् न भवति ] ( स्वरूप से ही ) सत् न हो तो + + सत्ता का कार्य इतना ही है कि वह द्रव्य को विद्यमान रखे। यदि द्रव्य सत्ता से भिन्न रहकर भी स्थिर फिर ख़ता का प्रयोजन ही नहीं रहता, अर्थात् सत्ता के अभाव का प्रसंग आ जायगा । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] [ पदयणसारो (१) [ध्रुवं असत् भवति] निश्चित असत् होगा, [तत् कथं द्रव्यं] (जो असत् होगा) बह द्रव्य कैसे हो सकता है ? (अर्थात् नहीं हो सकता) [पुनः वा] अथवा [यदि असत् न हो) तो (२) [अन्यत् भवति ] वह सत्ता से अन्य [पृथक् ] . होगा ? (सो भी कैसे हो सकता है ?) [तस्मात् ] इसलिये [द्रव्यं स्वयं] द्रव्य स्वयं ही [सत्ता] सत्ता रूप है। टीका–पवि द्रव्य स्वरूप से ही सत् न हो तो उसकी दो मति यह होंगी कि वह (१) असत् होगा, अथवा (२) सत्ता से पृथक होगा। उनमें से यदि असत् होगा तो, प्रौव्य के असम्भव होने से स्वयं को स्थिर न रखता हुआ द्रव्य ही लोप हो जायगा, और (२) यदि सत्ता से पृथक् होगा तो सत्ता के बिना भी अपनी सत्ता रखता हुआ, इतने (द्रव्य की सत्ता रखने) मात्र प्रयोजन वाली सत्ता का लोप कर देगा। स्वरूप से ही सत् होता हुआ (१) धौथ्य के सद्भाव के कारण स्वयं को स्थिर रखता हुआ, द्रव्य उदित होता है, (अर्थात् सिद्ध होता है), और (२) ससा से पृथक् रहकर (द्रव्य) स्वयं को स्थिर (विद्यमान) रखता हुआ, इतने ही मात्र प्रयोजन वाली सत्ता को उदित (सिद्ध) करता है। इसलिये द्रव्य स्वयं ही सत्त्व (सत्ता) रूप से स्वीकार करना चाहिये। क्योंकि भाव और भाववान् (द्रव्य) का अपृथक्त्व द्वारा अन्यत्व है (प्रदेश भेद न होते हुये संज्ञा-संख्या लक्षण आदि द्वारा अन्यत्व है ॥१०॥ तात्पर्यवृति अथ सत्ताद्रव्ययोरभेदविषये पुनरपि प्रकारान्तरेण युक्ति दर्शयति, ण हदि जवि सहन्वं परमचैतन्यप्रकाशरूपेण स्वरूपेण स्वरूपसत्तास्तित्वगुणेन यदि चेत् सन्न भवति । कि कर्तृ? परमात्मद्रव्यं तदा असद्धवं होदि असदविद्यमानं भवति ध्रुवं निश्चितं । अविद्यमानं सन् तं कह दम्वं तत्परमात्मद्रव्यं कथं भवति ? किन्तु नैव । स च प्रत्यक्षविरोधः । कस्मान् ? स्व. संवेदनज्ञानेन गम्यमानत्वात् । अथाविचारितरमणीयन्यायेन सत्तागृणाभावेप्यस्तीति चेत् तत्र विचार्यतेयदि केवलज्ञानदर्शनगुणाविनाभुतस्वकीयस्वरूपास्तित्वात्पृथग्भुता तिष्ठति तदा स्वरूपास्तित्वं नास्ति स्वरूपास्तित्वाभावे द्रव्यमपि नास्ति । अथवा स्वकीयस्वरूपास्तित्वात्संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेगि प्रदेशरूपेणाभिन्नं तिष्ठति तदा संमतमेव । अत्राबसरे सौगतमतानुसारी कश्चिदाह--सिद्धपर्यायसत्तारूपेण शुद्धात्मद्रव्यमुपचारेणास्ति, न च मुख्यवृत्त्येति, । परिहारमाह-सिद्धपर्यायोपादानकारणभूतपरमात्मद्रव्याभावे सिद्धपर्यायसत्तव न संभवति । वृक्षाभाबे फलमिव । अत्र प्रस्तावे नैयायिकमतानुसारी कश्चिदाह- हववि पुणो अण्णं वा तत्परमात्मद्रव्यं भवति पुनः किन्तु सत्तायाः सकाशादन्यद्भिन्नं भवति पश्चात्सत्तासमवायात्सद्भवति । आचार्याः परिहारमाहुः सत्तासमवायात्पूर्व द्रव्यं सदसद्वा? यदि सत्तदा सत्तासमवायो वृथा पूर्वमेवास्तित्वं तिष्ठति, अथासत्तहि खपुष्पवदविद्यमानद्रव्येण सह कथं सत्तासमवायं Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ २६१ करोति, करोतीति चेतहि खपुष्पेणापि सह सत्ता कर्तृ समवायं करोतु न च तथा । तम्हा दव्वं सयं सत्ता तस्मादभेदनयेन शुद्धचैतन्य स्वरूपसतंत्र परमात्मद्रव्यं भवतीति । यथेदं परमात्मद्रव्येण सह शुद्धचेतनासत्ताया अभेदव्याख्यानं कृतं तथा सर्वेषां चेतनाचेतनद्रव्याणां स्वकीयस्वकीयसत्ता सहाभेदव्याख्यानं कर्तव्यमित्यभिप्राय: ॥१०५॥ उत्थानिका- आगे सत्ता और द्रव्य का अभेद है इस सम्बन्ध में फिर भी अन्य प्रकार से युक्ति दिखलाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - (जदि) यदि (सद्दत्वं ) सत्ता रूप द्रव्य (ण हवदि) नहीं होंगे तो (संद असदद्धव्वं कहं हवदि) वह द्रव्य निश्चय से असत्ता रूप होता हुआ किस तरह हो सकता है (या पुणो अण्णं हवदि) अथवा फिर वह द्रव्य सत्ता से भिन्न हो जाये, क्योंकि ये दोनों बातें नहीं हो सकतीं ( तम्हा दध्वं सयं ) सत्ता इसलिये द्रव्य स्वयं सत्ता स्वरूप है। यहाँ वृत्तिकार परमात्म द्रव्य पर घटाकर कहते हैं- यदि यह परमात्म द्रव्य परम-चैतन्य प्रकाशमयी स्वरूप से व अपने स्वरूप सत्ता के अस्तित्व गुण से सत् रूप न हों तब वह निश्चय से नहीं होता हुआ किस तरह परमात्म द्रव्य हो सके ? अर्थात् सरमात्म द्रष्य ही न होवे। यह बात प्रत्यक्ष से विरोध रूप है, क्योंकि स्वसंवेदनज्ञान से अनुभव में आता है। यदि कोई बिना विचारे ऐसा माने कि सत्ता से उसकी अपेक्षा से, यदि द्रव्य सत्ता गुण के अभाव में भी रहता है ऐसा नेपा-क्या दोष आयेंगे उसका विचार किया जाता है। यदि केवलज्ञान, साथ अवश्य रहने वाले अपने स्वरूप की सत्ता से जुदा ही द्रव्य ठहर सकता है, ऐसा 'जाये तो जब उसके स्वरूप का अस्तित्त्व नहीं है तब अपने स्वरूप की सत्ता के बिना नहीं रह सकता अर्थात् द्रव्य का ही अभाव मानना पड़ेगा । अथवा यदि ऐसा माना खा है कि अपने-अपने स्वरूप के अस्तित्व से सत्ता और द्रश्य में संज्ञा, लक्षण तथा मनादि की अपेक्षा भेद होते हुए भी प्रदेशों की अपेक्षा भिन्नता नहीं है— एकता है, तो हमको भी सम्मत है क्योंकि द्रव्य का ऐसा ही स्वरूप है । इस अवसर पर बौद्ध अनुसार कहने वाला तर्क करता है कि ऐसा मानना चाहिये कि सिद्ध पर्याय की रूप से द्रव्य उपचार मात्र है, मुख्यता से नहीं है । इसका समाधान आचार्य करते यदि सिद्ध पर्याय का उपादानकारण रूप परमात्मा द्रथ्य का अभाव होगा तो समय की सत्ता ही नहीं सम्भव है। जैसे वृक्ष के बिना फल का होना सम्भव नहीं ऐसी प्रस्ताव में नैयायिकमत के अनुसार कहने वाला कहता है कि परमात्मा द्रव्य द्रव्य जुदा है तो माना जाये तो केवलदर्शन गुणों Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] [ पवयणसारो है किन्तु वह सत्ता से भिन्न रहता है, पीछे सत्ता के समवाय (सम्बन्ध) से वह सत् होता है । आचार्य इस पर प्रति-शंका करते हैं कि सत्ता के समवाय के पूर्व द्रव्य सत् या असत् है ? यदि सत् है तो सत्ता का समवाय वृथा है क्योंकि द्रव्य पहले से ही अपने अस्तित्व में है। यदि सत्ता के समवाय से पहले द्रव्य नहीं था तब आकाश पुष्प की तरह अविद्यमान उस द्रव्य के साथ किस तरह सत्ता का समवाय होगा? यदि कहो कि सत्ता का समवाय हो जावेगा, तब फिर आकाश पुरुष के साथ भी सत्ता का समवाय हो जावेगा, परन्तु ऐसा नहीं है । इसलिए जैसे अभेदनय से शुद्ध स्वरूप को सत्ता रूप ही परमात्म द्रव्य के साथ शुद्ध चेतना स्वरूप सत्ता का अभेद व्याख्यान किया गया तैसे ही सर्व चेतन द्रव्यों का अपनीअपनी सत्ता से अभेद व्याख्यान करना चाहिये । ऐसे ही अचेतन द्रव्यों का अपनी सत्ता से अभेद है, ऐसा समझना चाहिये ॥१०५॥ अय पृथक्त्वान्यत्वलक्षणमुन्मुद्रयति पविभत्तपदेस धत्तविदिशाल हि लीरा । अण्णत्तमतब्भावो ण तब्भवं होदि कधमगं ॥१०६॥ प्रविभक्तप्रदेशस्त्रं पृथक्त्वमिति शासनं हि वीरस्य । अन्यत्वमतद्भावो न तद्भवत् भवति कथमेकम् ॥१०६।। प्रविभक्तप्रवेशत्वं हि पृथक्त्वस्य लक्षणम् । तत्तु सत्ताद्रव्ययोर्न संभाव्यते, गुणगुणिनोः प्रविभक्तप्रदेशत्वाभावात् शुक्लोत्तरीयवत् । तथाहि-यथा य एव शुक्लस्य गुणस्य प्रदेशास्त एवोत्तरीयस्य गुणिन इति तयोनं प्रवेशविभागः, तथा य एव सत्ताया गुणस्य प्रदेशास्त एव द्रव्यस्य गुणिन इति तयोनं प्रदेश विभागः । एवमपि तयोरन्यत्वमस्ति तल्लक्षपसद्भावात् । असद्धायो ह्यन्यत्वस्य लक्षणं, तत्तु सत्ताद्रव्ययोविधत एव गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावात् शुक्लोत्तरीयवदेव । तथाहि-यथा यः किलैकचक्षुरिन्द्रिय-विषयमापद्यमानः समस्तरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवति, न खलु तदखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, यच्च किलाखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, न खलु स एकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः समस्तेत रेन्द्रियग्रामगोचरमतिकान्तः शुक्लो गुणो भवतीति तयोस्तद्धावस्याभावः । तथा या किलाश्रित्य वतिनी निर्गुणैकगुणसमुदिता विशेषणं विधायिका वृत्तिस्वरूपा च सत्ता भवति, न खलु तदनाश्रित्य यति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिभत्स्वरूपं च द्रव्यं भवति यत्तु फिलानाप्रित्य वति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिमत्स्वरूपं च द्रव्यं भवति, न खलु १. पृधत्त (ज० वृ०) । २. कहक्क (ज० वु०) । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पवयणसारो ] [ २६३ । साहित्यवतिनी निर्गुणकगुणसमुविता विशेषणं विधायिका वृत्तिस्वरूपा च सत्ता भवतीति योस्तद्रावस्याभायः। अत एव च सत्ताध्ययोः कथंचिवनर्थान्तरत्वेऽपि सबंर्थकत्वं न शमीयं, तङ्कायो हो कत्वस्य लक्षणम् । यत्तु न तद्भवद्विभाज्यते तत्कथमेकं स्यात् । अपि गुणगुणिरूपेणानेकमेवेत्यर्थः ॥१०६॥ ..' भूमिका—अब, पृथक्त्व का और अन्यत्व का लक्षण स्पष्ट करते हैं अम्बयार्थ-[प्रविभक्तदेशत्वं] विभक्तप्रदेशत्व (भिन्न भिन्न प्रदेशपना) [पृथक्त्वं] पृथक्त्व है, [इति हि] ऐसा निश्चित [वीरस्य शासनं] बोर का उपदेश है । [अतद्धावः] दवाव (उस रूप न होना) अन्यत्व है । (क्योंकि) [न तत् भवत्] जो उस रूप न हो बह [कथं एक ] एक कैसे हो सकता है ? कथञ्चित् संज्ञा-संख्या-लक्षण आदि की अपेक्षा सत्ता द्रव्य रूप नहीं है, और द्रव्य सत्तारूप नहीं है। इसलिए वे एक नहीं हैं अर्थात् धोनों में तद्भाव नहीं अताव है। ' टीका-निपत (मिन्त) प्रदेशस्त्र पथकत्व का लक्षण है। वह तो सत्ता और द्रध्य सम्भव नहीं है, क्योंकि गुण और गुणी में विभक्त प्रदेशत्व का अभाव होता है,-शुक्लत्व और वस्त्र की मांति । वह इस प्रकार है कि जैसे जो हो शुक्लत्य के गुण के प्रदेश हैं वे हो म के गुणो के (प्रवेश भेद नहीं है, इसी प्रकार जो हो सत्ता के गुण के (प्रदेश) हैं ये ही के गुणी के हैं, इसलिये उनमें प्रवेशभेद नहीं है । ऐसा होने पर भी उनमें (सत्ता और में) अन्यत्व है, क्योंकि (उनमें) अन्यत्व के लक्षण का सद्भाव है । अतद्भाव अन्यत्व लग है। वह (अतद्भाव) तो सत्ता और द्रव्य के है ही, क्योंकि गुण और गुणी के साव का अभाव होता है,-शुक्लत्व और वस्त्र की भांति । वह इस प्रकार है कि--जैसे निश्चय से एक चाइन्द्रिय के विषय में आने वाला और अन्य सब इन्द्रियों के समूह को न होने वाला शुक्लत्व गुण है वह समस्त इन्द्रिय समूह को गोचर होने वाला वस्त्र है और जो समस्त इन्द्रिय-समूह को गोचर होने वाला वस्त्र है वह एक चाइन्द्रिय के में आने वाला तथा अन्य समस्त इन्द्रियों के समूह को गोचर न होने वाला शुक्लत्व सही है। इसलिये उनके सद्भाव का अभाव है इसी प्रकार, किसी के (द्रव्य के) आश्रय बासी, निर्गुण (जिनके आश्रय अन्य गुण नहीं) एक गुण को बनो हुई, विशेषणरूप और वृत्तिस्वरूप (अस्तित्त्व रूप) जो सत्ता है वह किसी के आश्रय के बिना रहने गुनवाला, अनेक गुणों से निमित, विशेष्य, विधीयमान (अस्तित्व वाला) स्वरूप है, तथा जो किसी के आश्रय के बिना रहने वाला, गुणवाला, अनेक गुणों से - विशेष्य, विधीयमान और वृत्तिमानस्वरूप द्रव्य है वह किसी के आश्रित रहने वाली, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] [ पवयणसारो निर्गुण, एक गुण से निर्मित, विशेषण, विधायक और वृत्तिस्वरूप सत्ता नहीं है, इसलिये उनके तद्भाव का अभाव है । इस कारण से ही, सत्ता और द्रव्य के कथंचित् अनर्थान्तरत्व ( अभिन्न पदार्थत्व, अनन्यपदार्थत्व) है, तथापि उनके सर्वथा एकत्व होगा, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि सद्भाव एकत्व का लक्षण है । जो उसरूप ज्ञात नहीं होता, वह ( सर्वथा ) एक कैसे हो सकता है ? ( नहीं हो सकता ) । परन्तु यह गुण और गुणी रूप से अनेक ही है, यह अर्थ है ।। १०६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पृथक्त्वलक्षणं किमन्यत्वलक्षणं च किमिति पृष्टे प्रत्युतरं ददाति I पविभत्तपत्तं पृधत्तं पृथत्ववं भवति पृथक्त्वाभिधानो भेदो भवति । किविशिष्टं ? प्रकर्षेण त्रिभक्तप्रदेशत्वं भिन्नप्रदेशत्वं । किंवत् ? दण्डदण्डिवत् । इत्थम्भूतं पृथत्ववं शुद्धात्म शुद्धसत्तागुणयोर्न घटते, कस्माद्धेतो ? भिन्नप्रदेशाभावात् । कयोरिव ? शुक्लवस्त्र शुक्ल गुणयोरिव इवि सासणं हि वीरस्स इति शासनमुपदेश आज्ञेति । करन ? वीरस्य वी भिजानामि कारक देवस्य अण्णत्तं तथापि प्रदेशाभेदेऽपि मुक्तात्मद्रव्यशुद्धसत्तागुणयोरन्यत्वं भिन्नत्वं भवति । कथम्भूतं ? अभावो अतद्भावरूपं संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदस्वभावम् । यथाप्रदेशरूपेणाभे दस्तथा संज्ञा दिलक्षणरूपेणाप्यभेदो भवतु को दोष इति चेत् ? नैवम् । ण तब्भवं होदि तन्मुक्तात्मद्रव्यं शुद्धात्मसत्तागुणेन सह प्रदेशाभेदेऽपि संज्ञादिरूपेण तन्मयं न भवति कहमेक्कं तन्मयत्वं हि किलैकत्वलक्षणं संज्ञादिरूपेण तन्मयं त्वभावमेकत्वं किन्तु नानात्वमेव । यथेदं मुक्तात्मद्रव्ये प्रदेशाभेदेऽपि संज्ञादिरूपेण नानात्वं कथितं तथैव सर्वद्रव्याणां स्वकीय स्वकीय स्वरूपास्तित्वगुणेन सह ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥ १०६ ।। उत्थानिका— आगे आचार्य पृथक्त्व और अन्यत्व का लक्षण कहते हैं- अन्वय सहित विशेषार्थ - ( प विभतपदेसत्तं ) जिसमें प्रदेशों की अपेक्षा अत्यन्त भिन्नता हो (gधतमिदि ) वह पृथक्त्व है ऐसी ( वीरस्स हि सासणं ) श्री महावीर भगवान् की आज्ञा है । (अभाव) स्वरूप की एकता का न होना ( अण्णतम् ) अन्यत्व है । ( तब्भवं ण) ये सत्ता और द्रव्य एक स्वरूप नहीं हैं ( कहमेक्कं होदि ) अब किस तरह दोनों एक हो सकते हैं। जहां प्रदेशों की अपेक्षा एक दूसरे में अत्यन्त पृथकपना हो अर्थात् प्रदेश भिन्नभिन्न हों जैसे दण्ड और दण्डी में भिन्नता है । इसको पृथक्त्व नाम का भेद कहते है । इस तरह पृथक्त्व या भिन्नपना शुद्ध आत्मद्रव्य का शुद्ध सत्ता गुण के साथ नहीं सिद्ध होता है क्योंकि इनके परस्पर प्रदेश भिन्न-भिन्न नहीं हैं। जो द्रव्य के प्रदेश हैं वे ही सत्ता के प्रदेश हैं- जैसे शुक्ल वस्त्र और शुक्ल गुण का स्वरूप भेद है परंतु प्रवेश भेद नहीं है ऐसे गुणी और गुण के प्रवेश भिन्न-भिन्न नहीं होते। ऐसे श्रीवीर नाम के अंतिम तीर्थङ्कर परमदेव की आज्ञा है। जहां संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि से परस्पर स्वरूप की एकता नहीं है वहां अभ्यत्व नाम का भेद है ऐसा अन्यत्व या भिन्नपना मुक्तात्मा द्रव्य और उसके शुद्ध सत्ता गुण में है । यदि कोई कहे कि जैसे सत्ता और द्रव्य में प्रदेशों की अपेक्षा अभेद हैं Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २६५ वैसे संज्ञादि लक्षण रूप से भी अभेद हो, ऐसा मानने से क्या दोष होगा ? इसका समाधान करते हैं कि ऐसा वस्तु स्वरूप नहीं है। वह मुक्तात्मा द्रव्य शुद्ध अपने सत्ता गुण के साथ प्रदेशों की अपेक्षा अभेद होते हुए भी संज्ञा आदि के द्वारा सत्ता और द्रव्य तन्मयो नहीं है। तन्मय होना ही निश्चय से एकता का लक्षण है किन्तु संज्ञादि रूप से एकता का अभाव है । सत्ता और द्रव्य में नानापना है। जैसे यहाँ मुक्तात्मा द्रव्य में प्रदेश के अभेद होने पर भी संज्ञादि रूप से नानापना कहा गया है, तैसे ही सर्व द्रव्यों का अपने-अपने स्वरूप, सत्ता गुण के साथ नानापना जानना चाहिये, ऐसा अर्थ है ॥१०६॥ अयातद्भावमुदाहृत्य प्रथयति सददव्यं सच्च गणो सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो। जो खल तस्स अभावो सो तदभावो अतब्भावो ॥१०७॥ सद्व्यं संश्च गुण: मंश्चैव च पर्याय इति विस्तारः । यः खलु तस्याभाव: स तदभाबोतद्भावः ।।१६७ यथा खल्बेकं मुक्ताफलस्त्रग्दाम, हार इति सूत्रमिति मुक्ताफलमिति त्रेधा विस्तार्यते, अर्थक द्रव्यं प्रध्यमिति गुण इति पर्याय इति त्रेधा विस्तार्यते। यथा चैकस्य मुक्ताफललबामः शुक्लो गुणः शुक्लो हारः शुक्लं सूत्र शुक्लं मुक्ताफलमिति त्रेधा विस्तार्यते । सर्थकस्य वग्यस्य सत्तागुणः सद्रव्यं सद्गुणः सत्पर्याय इति धा विस्तार्यते । यथा कस्मिन मुक्ताफलस्त्रग्दाम्नि यः शुषलो गुणः स न हारो न सूत्रं न मुक्ताफलं, यश्व हारः म मुक्ताफलं वास न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्य यस्तस्यामाव: स तदमावलक्षणोऽतङ्कामोजन्यत्वानिबन्धनभूतः । तथैकस्मिन् द्रव्ये यः सत्तागुणस्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो न पर्यायो बन्नद्रव्यमन्यो गुणः पर्यायो वा स न सत्तागुण इतोतरेतरस्य यस्तस्याभावः स तवभावसानोऽतभावोऽन्यत्व निबन्धनभूतः ॥१०७॥ भूमिका-अब, अतद्भाव को उदाहरण पूर्वक स्पष्ट बतलाते हैंम अन्वयार्ष-[सद्रव्यं ] 'सत्द्रव्य' [सत् च गुण:] 'सत्गुण' [च] और [सत् र एक पर्यायः] 'सत् पर्याय' [इति ] इस प्रकार [विस्तार:] (सत्ता गुण का) विस्तार है । वरमें परस्पर) [यः खलु] जो वास्तव में [तस्य अभावः] उसका (उस रूप होने का) समान है (अर्थात् सत् का सर्वथा द्रव्य रूप, अन्य गुण रूप या पर्याय रूप होने का अभाव और इसी प्रकार द्रव्य का अन्य गुण का या पर्याय का सर्वथा सत् होने का अभाव है) प्र] वह [तदभावः] उसका अभाव [अतभावः] अतद्भाव है। टीका-जैसे एक मोसियों की माला हार के रूप में सूत्र (धागा) के रूप में और Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ । [ पवयणसारो मोती के रूप में ऐसे तीन प्रकार से विस्तारित की जाती है, उसी प्रकार एक द्रव्य-द्रव्य के रूप में, गुण के रूप में और पर्याय के रूप में-ऐसे तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है। और जैसे एक मोतियों को माला का शुक्लत्व गुण शुक्ल हार, शुक्ल धागा, और शक्ल मोती,-यों तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है, उसी प्रकार से द्रव्य का सत्तागुण-सत् द्रव्य, सत्गुण और सतपर्याय,-यों तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है। तथा जैसे मोतियों की माला में जो शुक्लत्व गुण है वह हार नहीं है, धागा नहीं है या मोती नहीं है, और जो हार, धागा या मोती है वह शुक्लत्व गुण नहीं है, इस प्रकार एक दूसरे में जो 'उसका अभाव, (अर्थात 'तप होने का अभाव' है) वह 'तद्अभाव' लक्षण वाला 'अतद्भाव' है, जो कि अन्यत्व का कारण है। इसी प्रकार एक द्रव्य में जो सत्ता गुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है, या पर्याय नहीं है, और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है वह सत्ता गुण नहीं है,- इस प्रकार एक-दूसरे में जो 'उसका अभाव' (अर्थात् 'तद्रूप होने का अभाव है) वह 'तद् अभाव' लक्षण वाला 'अतदभाव, है जो कि अन्यत्व का कारण है॥१०७॥ ___ तात्पर्यवृत्ति अथातद्भावं विशेषेण विस्तार्य कथयति.. सद्दब्वं सम्च गुणो सच्चेव य पज्जओत्ति वित्थारो सद्रव्यं संशच गुणः संश्चैव पर्याय इति सत्तागुणस्य द्रव्यगुणपर्यायेषु विस्तारः । तथाहि यथा मुक्ताफलहारे सत्तागुणस्थानीयो योऽसौ शुक्लगुणः स प्रदेशाभेदेन किं कि भण्यते ? शुक्लो हार इति शुक्लं सूत्रमिति शुक्लं मुक्ताफलमिति भण्यते, यश्च हारः सूत्रं मुक्ताफलं वा तस्त्रिभिः प्रदेशाभेदेनेन शुक्लो गुणो भण्यत इति तद्भावस्य लक्षणमिदं । तद्भावस्येति कोर्थः ? हारसूत्रमुक्ताफलानां शुक्लगुणेन सह तन्मयत्वं प्रदेशाभिन्नत्वमिति तथा मुक्तात्मपदार्थे योऽसौ शुद्धसत्तागुणः स प्रदेशाभेदेन कि कि भण्यते ? सत्तालक्षणः परमात्मपदार्थ इति, सत्तालक्षणः केवलज्ञानादिगुण इति, सत्तालक्षणः सिद्धपर्याय इति भण्यते । यश्च परमात्मपदार्थः केवलज्ञानादिगुणः सिद्धस्त्वपर्याय इति तैश्च त्रिभिः शुद्धसत्तागुणो भय्यत इति तद्भावस्य लक्षणमिदम् । तद्भावस्येति कोऽर्थः ? परमात्मपदार्थकेवलज्ञानादिगुणसिद्धत्वपर्यायाणां शुद्धसत्तागुणेन संज्ञादिभेदेपि प्रदेशस्तन्मयत्वमपि जो खलु तस्स अभावो यस्तस्य पूर्वोक्तलक्षणत'भावस्य स्खलु स्फुट संज्ञादिभेदविवक्षायामभावः सो तदभावो स पूर्वोक्तलक्षणस्तदभावो भण्यते । म च तदभावः कि भण्यते ? "अतभावो" तदभावस्तन्मयत्वं । किञ्चातभाव: संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदः इत्यर्थः । तद्यथा- यथा मुक्ताफलहारेयोऽसौ शुक्लग णस्तद्वाचकेन शवलमित्यक्षरद्वयेन हारो वाच्यो न भबति सूध वा मुक्ताफलं वा, हारसूत्रमूक्ताफल शब्दश्च शुक्लगणो वाच्यो न भवति । एवं परस्पर प्रदेशाभेदेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेद; स तस्य पूर्वोक्तलक्षणतद्भावस्याभावस्तद्भावो भण्यते । म च तद्भावः पुनरपि Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २६७ किं भव्यते ? अतभावः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेद इति । तथा मुक्तजीवे योऽसौ शुद्धसत्तागुणस्तवाचकेन सत्ताशब्देन मुक्तजीबो बाच्यो न भवति कोवलज्ञानादिगणो वा सिद्धपर्यायो वा मुक्तजीवकेवलज्ञानादि। गुणसिद्धपर्यायश्च शुद्धसत्तागुणो वाच्यो न भवति । इत्येवं परस्परं प्रदेशाभेदेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेदः संस्तस्य पूर्वोक्तलक्षणतभावस्याभावस्तदभावो भण्यते । स च तदभाव: पुनरपि कि भण्यते ? अतद्भावः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेद इत्यर्थः । यथात्र शुद्धात्मनि शुद्धसत्तागुणेन सहाभेद; स्थापितस्तथा यथासम्भवं सर्वद्रव्येषु ज्ञातव्य इत्यभिप्रायः ॥१०७।। उत्थानिका-आगे अन्यत्त्व का विशेष विस्तार के साथ कथन करते है अन्वय सहित विशेषार्थ— (सहव्व) सत्ता रूप द्रव्य है। (सच्च गुणो) और सत्ता रूप गुण है, (सच्चेव पज्जओत्ति) तथा सत्ता रूप पर्याय है, ऐसा (वित्थारो) सत्ता का विस्तार है (बलु) निश्चय करके (तस्स अभावो) जो उस सत्ता का परस्पर अभाव है (सो भावो) वह उसका अभाव रूप (असम्भावो) अन्यत्व है। जैसे मोती के हार में सत्ता गुण की जगह पर जो उसमें सफेदी का गुण है सो प्रदेशों को अपेक्षा एक रूप है तो भी उसको भेद करके इस तरह कहते हैं कि यह सफेद हार है, यह सफेद सूत है, यह सफेद मोती है तथा जो हार सूत या मोती है इन सीमों के साथ प्रदेशों का भेद न होते हुए सफेद गुण कहा जाता है यह एकता या तन्मयपमा का लक्षण है । तत-अभाव का क्या अर्थ है? हार सूत तथा मोती का शुक्ल गुण के साय तन्मयपना या प्रदेशों का अभिन्नपना यह अर्थ है । तैसे मुक्त-आत्मा नाम के पदार्च में जो कोई शुद्ध सत्ता गुण है यह प्रदेशों के अभेद होते हुए इस तरह कहा जाता ई-सत्ता लक्षण परमात्मा पदार्थ, सत्ता लक्षण केवलज्ञानावि गुण, सत्ता लक्षण सिद्ध पर्याय । जो कोई परमात्म पदार्थ व केवलज्ञानादि गुण व पर्याय है इन तीनों के साथ शुद्ध सता गुण कहा जाता है, यह तद्भाव या एकता का लक्षण है। तद्भाव का क्या प्रयोजन है ? परमात्मा पदार्थ, केवलज्ञानादि गुण, सिद्धत्व पर्याय न तीनों का शुद्ध सत्ता नामा गुण के साथ संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजन को अपेक्षा भेद होते हुए भी और प्रदेशों की अपेक्षा तन्मयपना होते हुए भी, निश्चय करके जो इस तद्भाव मा एकता का संज्ञा संख्या आदि की अपेक्षा से प.स्पर अभाव है उसको तद्भाव या नस एकता का अभाव या अतद्धाय या अन्यत्व कहते हैं। इस अन्यत्व का संज्ञा लक्षण प्रयोजनादि की अपेक्षा जो स्वरूप है उसको दृष्टांत देकर बताते हैं। जैसे मोती के हार में जो कोई शुक्ल गुण है उसका वाचक जो शुक्ल नाम का दो सनर का शब्द है उस शब्द से हार या सूत्र या मोती कोई वाच्य नहीं है अर्थात् शुक्ल Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पक्यणसारो शब्द से हार, सूत्र या मोती का ज्ञान नहीं होता है केवल मफेन गण का न होता है इसी तरह हार, सूत या मोती शब्दो से शुक्ल नहीं कहा जाता है। इस तरह हार, सूत तथा मोती के साथ शुक्ल गुण का प्रदेशों की अपेक्षा अभेद या एकत्त्य होने पर भी जो संज्ञा आदि का भेद है वह भेद पहले कहे हुए तभाव या तन्मयपने का अभाव रूप अतभाव है या अन्यत्त्व है अर्थात् संज्ञा लक्षण प्रयोजब आदि का भेद है। तैसे मुक्त जीव में जो कोई शुद्ध सत्तागण है उसको कहने वाले सत्ता शब्द से मुक्त जीव नहीं कहा जाता, न केवलज्ञानादि गुण कहे जाते हैं, न सिद्ध पर्याय कही जाती है और न मुक्त जीव केवलज्ञानादि गुण या सिद्ध पर्याय से शुद्ध सत्ता गुण कहा जाता है। इस तरह सत्ता गुण का मुक्त जीवादि के साथ परस्पर प्रदेशभेद न होते हुए भी जो संज्ञा आदिकृत भेद है वह भेद उस पूर्व में कहे हुए तद्भाव या तन्मयपने के लक्षण से रहित अतद्भाय या अन्यत्त्व कहा जाता है । अर्थात् संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि-कृत भेद है, ऐसा अर्थ है । जैसे यहां शुद्धात्मा में शुद्ध सत्ता गुण के साथ अभेद स्थापित किया गया, तैसे हो यथा-संभव सर्व द्रव्यों में जानना चाहिये, यह अभिप्राय है-अर्थात् आत्मा का और सत्ता का प्रदेश की अपेक्षा अभेद है, मात्र संज्ञादि स्वरूप को अपेक्षा भेद या अन्यत्व है। ऐसा ही अन्य द्रव्यों में समझना ॥१०॥ अथ सर्वथाऽमावलक्षणत्वमतद्धावस्य निषेधयति जं दव्वं तं ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो। एसो हि अतभावो व अभावो ति णिहिट्ठो ॥१०॥ यद्रव्यं तन्न गुणो योऽपि गुणः स न तत्त्वमर्थात् । एप ह्यतद्भावो नैव अभाव इति निर्दिष्टः ।।१०॥ एकस्मिन्द्रव्ये यद्रव्यं गुणो न तद्भवति, यो गुणः स द्रव्यं न भवतीत्येवं यद्रव्यस्य गुणरूपेण गुणस्य या द्रव्यरूपेण तेनाभवनं सोऽतद्धावः । एतावतवान्यत्वव्यवहारसिद्धेर्न पुनव्यस्याभावो गुणो, गुणस्याभावो द्रव्यमित्येवंलक्षणोऽभावोऽतद्भाव, एवं सत्येकद्रव्यस्यानेकत्वमुभयशन्यत्वमपोहरूपत्वं या स्यात् । तथाहि-यथा खलु चेतनद्रव्यस्याभावोऽचेतनद्रव्यमचेतनद्रव्यस्याभायश्चेतनद्रव्यमिति तयोरनेकत्वं, तथा द्रव्यस्याभावो गुणो गुणस्याभावो द्रव्यमित्येकस्यापि द्रव्यस्यानेकत्वं स्यात् । यथा सुवर्णस्याभावे सुवर्णत्वस्याभावः, सुवर्णत्वस्थाभाचे सुवर्णस्याभाव इत्युभयशून्यत्वं, तथा द्रव्यस्याभावे गुणस्याभावो गुणस्याभावे द्रव्य १. तण (ज० वृ०)। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २६६ स्याभाव इत्पुभयशून्यत्वं स्यात् । यथा पटाभावमात्र एव घटो घटाभावमात्र एव पट इत्युगणेशोतरूपत्वं तथा तन्याभाममान एव गणो गुणाभावमात्र एव द्रव्यमित्यत्राप्यपोहरूपत्वं स्यात् । ततो द्रव्यगुणयोरेयत्वमशन्यत्वमनपोहत्वं चेच्छता यथोदित एवातद्धावोऽभ्युपगन्तव्यः ॥१०॥ भूमिका--अब, सर्वथा अभाव अतद्भाव का लक्षण है, इसका निषेध करते हैं-- अन्वयार्थ-[अर्थात् ] स्वरूपापेक्षा से [यत् द्रव्यं जो द्रव्य है [तत् न गुणः] वह गुण नहीं है, [यः अपि गुणः] और जो गुण है [सः न तत्त्वं] वह द्रव्य नहीं है। [एषः हि अतभावः] यह ही वास्तव में अतद्भाव है, [न एव अभाव:] (सर्वथा) अभाव रूप ही (असद्भाव) नहीं है, [इति दिदिष्ट:] इस प्रकार से (जिनेन्द्र देव द्वारा) निर्देश किया गया है । टीका-एक द्रव्य में जो द्रव्य है वह गुण नहीं है, जो गुण है यह द्रव्य नहीं है-- इस प्रकार जो द्रव्य का गुण रूप से अथवा गुण का द्रव्य रूप से न होना है, वह अतद्भाव है। इसने से ही अन्यत्व व्यवहार (अन्यत्व रूप व्यवहार) सिद्ध होता है। (परन्तु) द्रव्य का अभाव गुण है, गुण का अभाव द्रव्य है-ऐसे लक्षण वाला अभाव अतद्भाव नहीं है। यदि ऐसा हो तो (१) एक द्रव्य को अनेकत्व (अनेक व्रव्यपना) आ जायगा, (२) उभय शून्यता दोनों का अभाव हो जायगा,) अथवा (३) अपोहरूपता (एक दूसरे का अभाव मात्र होना) आ जायेगी । इसी को समझाते हैं (१) जैसे अचेतन द्रव्य का अभाव चेतन द्रव्य है (और) चेतन द्रव्य का अभाव मवेतन द्रव्य है-इस प्रकार उनके अनेकत्व (द्वित्व) है, उसी प्रकार द्रव्य का अभाव गुण, (और) गुण का अभाव द्रव्य है-इस प्रकार एक द्रव्य के भी अनेकत्व आ जायगा । (अर्थात् द्रव्य के एक होने पर भी, द्रव्य स्वयं एक पृथक् द्रव्य हो जायेगा और उसके गुणों में से प्रत्येक गुण पृथक-पृथक् द्रव्य बन जायेंगे, इस प्रकार एक द्रव्य के अनेक द्रव्य बन जायेगे)। (२) जैसे सुवर्ण का अभाव होने पर सुवर्णत्व का अभाव हो जाता है, और सुवर्णब का अभाव होने पर सुवर्ण का अभाव हो जाता है इस प्रकार उभय शून्यत्व हो जाता है, उसी प्रकार द्रव्य का अभाव होने पर गुण का अभाव और गुण का अभाव होने पर विजय का अभाव हो जायेगा, इस प्रकार उभय शून्यता हो जायेगी। (अर्थात् द्रव्य तथा गुण धोनों के अभाव का प्रसंग आ जायेगा)। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] [ पवयणसारो (३) जैसे पटाभाव मात्र ही घट है, घटाभाव मात्र ही पट है, ( अर्थात् वस्त्र के केवल अभाव जितना ही घट है, और घट का केवल अभाव जितना ही वस्त्र है)-इस प्रकार दोनों के अपोहरूपता है, उस ही प्रकार द्रव्याभाव मात्र ही गुण और गुणाभाव मात्र ही द्रव्य होगा, इस प्रकार इसमें भी ( द्रव्य-गुण में भी ) अपोहरूपता आ जायेगी, ( अर्थात् केवल नकाररूपता का प्रसंग आ जायेगा । इसलिये द्रव्य और गुण का एकत्व, अशून्यत्व और अनपोहत्व चाहने वाले को यथोक्त हो अतद्भाव मानना चाहिये ||१०८ ॥ तात्पर्यवृत्ति . अथ गुणगुणिनोः प्रदेशभेदनिषेधेन तमेव संज्ञादिभेदरूपमतदुभावं द्रढयति गुणद्रव्यं स न गुणः यन्मुक्तजीवद्रव्यं स शुद्धः सन् गुणो न भवति । मुक्तजीवद्रव्यशब्देन शुद्धसत्तागुणो वाच्यो न भवतीत्यर्थः । जोदि गुणो सो ण तच्चमत्यादो योऽपि गुणः स न तत्त्वं द्रव्यमर्थतः परमार्थतः, यः शुद्धसत्तागुणः स मुक्तात्मद्रव्यं न भवति शुद्धसत्ताशब्देन मुक्तात्मद्रव्यं वाच्यं न भवतीत्यर्थः । एसो हि अतब्भावो एष उक्तलक्षणो हि स्फुटमतद्भावः । उक्तलक्षण इति कोऽर्थः ? गुणगुणिनोः संज्ञादिभेदेऽपि प्रदेश भेदाभावः णेव अभावोत्ति पिट्ठिो नैवाभाव इति निर्दिष्टः । नैव अभाव इति कोर्थः ? यथा सत्तावाचकशब्देन मुक्तात्मद्रव्यं वाच्यं न भवति तथा यदि सत्ताप्रदेश - रपि सत्तागुणात्सकाशाभिन्नं भवति तदा यथा जीवप्रदेोभ्य: पुद्गलद्रव्यं भिन्नं समुद्रव्यान्तरं भवति तथा सत्तागुणप्रदेशेभ्यो मुक्तजीवद्रव्यं सत्तागुणादभिन्नं सत्पृथग्द्रव्यान्तरं प्राप्नोति । एवं कि सिद्ध ? सत्तागुणरूपं पृथग्द्रव्यं मुक्तात्मद्रव्यं च पृथगिति द्रव्यद्वयं जातं, न च तथा द्वितीयं च दूषणं प्राप्नोतियथा सुवर्णत्वगुणप्रदेशेभ्यो भिन्नस्य सुवर्णस्याभावस्तथैव सुवर्णप्रदेशेभ्यो भिन्नस्य सुवर्णत्वगुणस्याप्यभावः, तथा सत्तागुणप्रदेशेभ्यो भिन्नस्य मुक्त जीवद्रव्यस्याभावस्तथैव मुक्तजीवद्रव्यप्रदेशेभ्यो भिन्नस्य सत्तागुणस्याप्यभावः इत्युभयशून्यत्वं प्राप्नोति । यथेवं मुक्तजीवद्रव्ये संज्ञा दिभेदभिन्नस्यातद्भावस्तस्य सत्तागुणेन सह प्रदेशाभेदव्याख्यानं कृतं तथा सर्वद्रव्येषु यथासम्भवं ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥ १०८ ॥ एवं द्रव्यस्यास्तित्वकथनरूपेण प्रथमगाथा पृथक्त्वलक्षणातद्भाव विधानान्यत्वलक्षणयोः कथनेन द्वितीया संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदरूपस्यातदुभावस्य विवरणरूपेण तृतीया तस्यैव दृढीकरणार्थ च चतुर्थीतिद्रव्यगुणयोरभ दविषये युक्तिकथनमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन पंचमस्थलं गतम् । उत्थानिका — गुण और गुणी में प्रदेश भेद नहीं है परन्तु संज्ञादि कृत भेद है इस तरह अन्यत्व को दृढ़ करते हैं - अन्वय सहित विशेषार्थ- - (जं दव्यं) जो द्रश्य है (तरण गुणो ) वह गुण नहीं है (जो वि गुणो ) जो निश्चय से गुण है ( सो अत्यादो ण तथ्चं ) वह स्वरूप के भेद से द्रव्य नहीं है ( एसो हि अतब्भावो ) ऐसा ही स्वरूप भेदरूप अन्यत्व है ( णेव अभावोत्ति ) निश्चय से सर्वथा अभाव नहीं है ऐसा ( णिदिट्ठो) सर्वज्ञद्वारा कहा गया है । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २७१ जो द्रव्य है सो स्वरूप से गुण नहीं है । जो मुक्त जीवद्रव्य है, वह शुद्ध सत्तागुण नहीं है उस मुक्त जीव द्रव्य शब्द से शुद्ध सत्ता गुण वाध्य नहीं होता है अर्थात् नहीं कहा जाता है । जो गुण है वह वास्तव में द्रव्य नहीं होता। इसी तरह जो शुद्ध सत्ता गुण है वह परमार्थ से मुक्तात्मा-द्रव्य नहीं होता है। शुद्ध सत्ता शब्द से मुक्तात्मा द्रव्य नहीं कहा जाता । यही अतद्भाव का लक्षण हैं । इस तरह गुण और गुणी में स्वरूप को अपेक्षा या संज्ञादि की अनेक्षा भेद है तो भी प्रदेशों का भेद नहीं है । इसमें सर्वथा एक का दूसरे में अभाव नहीं है ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने कहा हैपधि गुणी में गुण का सर्वथा अभाव माना जाये तो क्या-क्या दोष होंगे उनको समझाते हैं । असे सत्ता नाम के वाचक शब्द से मुक्तात्मा द्रव्य वाच्य नहीं होता तैसे यदि सत्ता के प्रदेशों से भी सत्तागुण के मुक्तात्म द्रव्य भिन्न हो जाये तब जैसे जीव के प्रदेशों से पुद्गल द्रव्य भिन्न होता हुआ अन्य व्रव्य है तैसे सत्ता गुण के प्रदेशों से सत्ता गुण से मुक्त जीव द्रव्य भिन्न होता हुआ मिन्न ही दूसरा द्रव्य प्राप्त हो जावे। तब यह सिद्ध होगा कि सत्तागुण । म निम्न द्रव्य और मुक्तात्मा द्रव्य भिन्न इस तरह दो द्रव्य हो जावेगे। सो ऐसा वस्तु स्वरूप नहीं है । इसके सिवाय दूसरा दूषण यह प्राप्त होगा कि जैसे सुवर्णपना नामा गुण के प्रदेशों से सुवर्ण भिन्न होता हुआ अभाव रूप हो जाएगा जैसे ही सुवर्ण द्रव्य के गों से सुवर्णपना गुण भिन्न होता हुआ अभाव रूप हो जायगा से सत्ता गुण के प्रदेशों । से मुक्त जीवनध्य भिन्न होता हुआ अभावरूप हो जाएगा, तैसे ही मुक्त जीव द्रव्य के प्रदेशों सत्ता गुण भिन्न होता हुआ अभाव रूप हो जाएगा, इस तरह दोनों का शून्यपना प्राप्त हो जायगा । इस तरह गुणी और गुण का सर्वथा भेद मानने से दोष आजावेंगे । जैसे जहां त जीव द्रष्य में सत्ता गुण के साथ संज्ञा आदि के भेद से अन्यपना है किन्तु प्रदेशों की अपेक्षा मभेद या एकपना है ऐसा व्याख्यान किया गया है तसे ही सर्व द्रव्यो में यथासम्भव मान लेना चाहिये, ऐसा अर्थ है ॥१०॥ - इस तरह दध्य के अस्तित्व को कथन करते हुए प्रथम गाथा, पृथकत्व लक्षण और भाष रूप अन्यत्व लक्षण को कहते हुए दूसरी पाथा, संज्ञा लक्षण प्रयोजनादि से भेदरूप अत. माव.को कहते हुए तीसरी गाथा, उसी को दृढ़ करने के लिये चौथी गाथा, इस तरह द्रव्य और गुण ३. सिमेव है इस विषय में युक्ति द्वारा कथन की मुख्यता से चार गाथाओं से पांचवां स्थल में हुआ। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] [ पवयणसारो अथ सत्ताद्रव्ययोर्गुणगुणिभावं साधयति जो खलु दव्वसहावो' परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठी । सहावे चव्व त्ति जिणोवदेसोयं ॥ १०६ ॥ सदट्ठवं यः खलु द्रव्यस्वभावः परिणामः स गुणः सदविशिष्टः । सदवस्थित स्वभावे द्रव्यमिति जिनोपदेशोंऽयम् ||१६|| द्रथ्यं हि स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति प्राक् प्रतिपादितम् । स्वभावस्तु द्रव्यस्य परिणामोऽभिहितः । य एव द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः, स एव सदविशिष्टो गुण इतीह साध्यते । यदेव हि द्रव्यस्वरूपवृत्तिभूतमस्तित्वं द्रव्यप्रधाननिर्देशात्सविति संशब्यते तदविशिष्टगुणभूत एवं द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः द्रव्यवृतेहि त्रिकोटिसमयस्पशिन्याः प्रतिक्षणं तेन तेन स्वभावेन परिणमना द्रव्यस्वभावभूत एव तावत्परिणामः । स त्वस्तित्वभूतद्रभ्यवृत्त्यात्मकल्पात्तदविशिष्टये क्ररविधानको गुण एवेति सत्ताम्रध्ययोनुंणगुणिभावः सिद्धयति ॥ १०६ ॥ भूमिका – अब, सत्ता और द्रव्य का गुण-गुणित्व सिद्ध करते हैं- अन्वयार्थ --- [ यः खलु | जो वास्तव में [ द्रव्यस्वभावः परिणामः ] द्रव्य का स्वभाव भूत ( उत्पादव्ययप्रौत्र्यात्मक ) परिणाम है [ सः ] वह [ सदविशिष्टः गुणः ] 'सत्' से अविशिष्ट ( सत्ता से अभिन्न) गुण है । [ स्वभावे अवस्थितं ] 'स्वभाव में अवस्थित ( होने से ) [ द्रव्यं ] द्रव्य [सत् ] सत् है - [इति अयं जिनोपदेश: ] ऐसा यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है । टीका - द्रव्य, स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से, सत् है, ऐसा पहले (६६वीं गाथा में ) प्रतिपादित किया गया है, और ( वहां ) स्वभाव तो द्रव्य का परिणाम कहा गया है। यहां यह सिद्ध किया जा रहा है कि जो हो द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम हैं यह हो 'सत्' से अविशिष्ट ( अस्तित्व से अभिन्न), गुण है । जो थ्य के स्वरूप का वृत्तिभूत अस्तित्व द्रव्यप्रधान कथन के द्वारा 'सत्' शब्द से कहा जाता है, उससे अविशिष्ट (उस अस्तित्व से अनन्य ) गुणभूत हो द्रव्य स्वभावभूत परिणाम है, क्योंकि द्रव्य की वृत्ति (अस्तित्व) तीन प्रकार के समय को ( भूत, भविष्यत, वर्तमान काल को ) स्पर्शित करती है, (और) प्रतिक्षण उस स्वभावरूप परिणमन करने के कारण द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम है। और वह ( उत्पादन्ध्यय-प्रौव्यात्मक परिणाम ) १. दव्वसहाओ (ज० वृ० ) 1 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २७३ अस्तित्वभूत aथ्य की वृत्ति स्वरूप होने से, 'सत्' से अविशिष्ट, द्रव्यविधायक ( द्रव्य का रचयिता ) गुण ही है । इस प्रकार सत्ता और द्रव्य का गुण गुणी संबंध है ॥ १०६ ॥ पर्यनि अथ सत्ता गुणो भवति द्रव्यं च गुणी भवतीति प्रतिपादयति- जो खलु दध्वसहाओ परिणामो यः खलु स्फुटं द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः पंचेन्द्रियविषयानुभवरूपमनोव्यापारोत्पन्नसमस्त मनोरथरूपविकल्पजालाभावे सति यश्चिदानन्देकानुभूतिरूपः स्वस्थभावस्तस्योत्पादः, पूर्वोक्तविकल्पजालविनाशो व्ययः, तदुभयाधारभूतं जीवत्वं प्रोन्यमित्युक्तलक्षणोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकजीवद्रव्यस्य स्वभावभूतो योऽसौ परिणामः सो गुणो स गुणो भवति स परिणाम: 1 कथम्भूतः सन्गुणो भवति ? सदविसिको सतोऽस्तित्वादविशिष्टोऽभिन्नस्तदुत्पादादित्रयं तिष्ठत्यस्तित्वं चैकं तिष्ठत्यस्तित्वेन सह कथमभिन्नो भवतीतिनेत् । "उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" इति वचनात् । एवं सति सत्तेव गुणो भवतीत्यर्थः । इति गुणव्याख्यानं गतम् । सदवट्ठिवं सहावे दत्त सदवस्थित स्वभावे प्रयमिति द्रव्यं परमात्मद्रव्यं किं कर्तृ ? सदिति । केन ? अभेदनयेन । कथम्भूतं ? मत् अवस्थितं । व ? उत्पादव्यय श्रीव्यात्मकस्वभावे जिणोवदेतोयं अयं जिनोपदेश इति "सदवदिदं सहात्रे दव्वं दब्दस्स जो हु परिणामो" इत्यादिपूर्वसूत्रे यदुक्तं तदेवेदं व्याख्यानं गुणकथनं पुनरधिकमिति तात्पर्यम् । यथेदं जीवद्रव्ये गुणगुणिनोर्व्याख्यानं कृतं तथा सर्वद्रव्येषु ज्ञातव्यमिति ।। १०६ ।। · उत्थानिक — आगे कहते है कि सत्ता गुण है और द्रव्य गुणी है। अन्वय सहित विशेषार्थ - ( खलु ) निश्चय से ( जो दव्वसहाओ परिणामो) जो द्रव्य का स्वभावमयी उत्पाद व्यय धौव्य रूप परिणाम है ( सो सदविसिट्ठी गुणो ) सो सत्ता से अभिन्न गुण है। (सहावे अवट्ठियं दधति सत् ) जो अस्तित्त्व स्वभाव में तिष्ठता है, वह द्रव्य है ( जिणो-बदेसोयं) ऐसा श्री जिनेन्द्र का उपदेश है । जब आत्मा में पंचेंद्रिय के विषयों के अनुभव रूप मन के व्यापार से होने वाले सब मनोरम रूप विकल्पजालों का अमाय हो जाता है, तब चिदानंद मात्र अनुभूति रूप जो आत्मा में ठहरा हुआ भाव है उसका उत्पाद होता है और पूर्व में कहे विकल्पजाल का नाश सो व्यय है, तथा इस उत्पाद और व्यय दोनों का आधार रूप अपना प्रौध्य है। इस तरह त्रयलक्षण वाले उत्पाद व्यय धौव्य स्वरूप जीव द्रव्य का कोई स्वभावभूत परिणाम है, वही सत्ता से अभिन्न गुण है । जीव में उत्पादादि तीन परिणमन है सो ही सत्गुण है जैसा कहा है "उत्पादव्यध्रौव्ययुक्तं सत्" । ऐसा पर यह सिद्ध हुआ कि सत्ता ही द्रव्य का गुण है । इस तरह सत्ता गुण का व्याख्यान गया। परमात्मा द्रश्य अभेदनय से अपने उत्पाद व्यय धौव्य रूप स्वभाव में तिष्ठा संत है, ऐसा श्री जिनेन्द्र का उपदेश है । "सदवट्ठिदं सहावे दव्यं वयस्स जो हु Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] [ पवयणसारो परिणामो" इत्यादि निन्यानवे गाथा में जो कहा था वही यहां कहा गया है। मात्र गुण का कथन किया गया है, यह तात्पर्य है। जैसा जीव द्रव्य में गुण और गुणो का व्याख्यान किया गया है वैसा सर्व द्रव्य में जानना चाहिये ॥१०॥ अथ गुणगुणिनोन नात्वमुपहन्ति पत्थि गुणो ति व कोई पज्जाओ तोह वा विणा दव्वं । दव्वत्तं पुण भावो तम्हा दवं सयं सत्ता ॥११॥ नास्ति गुण इति वा कश्चित् पर्याय इतीह वा बिना द्रव्यम् । द्रव्यत्वं पुनविस्तस्माद्रव्यं स्वयं सत्ता ॥११०।। न खलु द्रव्यात्याभूतो गुण इति वा पर्याय इति वा कश्चिदपि स्यात् । यथा सुवर्णात्पृथग्भूतं तत्पीतत्वादिकमिति या राकुण्डलल्यायिक.मिति । असा तु द्रव्यस्य स्वरूपवृत्तिभूतमस्तित्वाख्यं यद्व्यत्वं स खलु तद्भावास्यो गुण एव भवन् कि हि द्रव्यात्पृथग्भूतत्वेन वर्तते। न वर्तत एव । तहि द्रव्यं सत्ताऽस्तु, स्वयमेव ॥११०॥ भूमिका-अब, गुणी के अनेकत्व का (प्रदेश भेव सहित भिन्न-भिन्न पदार्थ होने का) खण्डन करते हैं ___अन्वयार्थ- [इह] इस विश्व में [द्रव्यं बिना] द्रव्य के बिना (द्रव्य से प्रदेश भेद सहित पृथक) [गुण इति] गुण ऐसी [वा] अथवा [पर्याय इति ] पर्याय ऐसी [कश्चित् ] कोई पदार्थ [नास्ति] नहीं है [पुनः] और [द्रव्यत्वं ] अस्तित्व [भावः | स्वभावभूत गुण है, [तस्मात् ] इसलिये [द्रव्यं] द्रव्य [स्वयं] आप ही [सत्ता] अस्तित्व रूप सत्ता है। टीका-वास्तव में द्रव्य से पृथग्भूत (प्रदेश भेद रूप) ऐसा गुण या ऐसो पर्याय कोई भी नहीं है, जैसे-सुवर्ण से पृथग्भूत उसका पीलापन आदि या उसका कुण्डलस्वादि नहीं होता। अब, उस द्रव्य के स्वरूप को वृत्तिभूत जो, अस्तित्व नाम से कहा जाने वाला, द्रव्यत्व है वह वास्तव में उसका 'भाव' नाम से कहा जाने वाला गुण ही होता हुआ क्या उस द्रव्य से पृथकरूप से रहता है ? (नहीं हो रहता)। तब फिर द्रव्य स्वयमेव सत्ता हो ॥११०॥ तात्पर्यवृत्ति अथ सह गुणपर्यायाभ्यां सह द्रव्यस्याभेदं दर्शयति त्थि नास्ति न विद्यते । स क: ? गुणोति य कोई गुण इति कश्चित् । न केवलं गुणः पज्जाओतोह वा पर्यायो वेतीह । कथं ? विणा विना। कि विना ? दवं द्रव्यमिदानों द्रव्यं कथ्यते दव्यत्तं पुण १. य (ज. वृ.)। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ २७५ मावो द्रव्यत्वभावो द्रव्यत्त्वमस्तित्वं । तत्पुनः कि भगवते ? भावः । कोऽर्थः ? उत्पादव्ययधौव्यात्मकसद्भावः तम्हा दववं सयं सत्ता तस्मादभेदनयेन सत्ता स्वयमेव द्रव्यं भवतीति । तद्यथा--मुक्तात्मद्रव्ये परमावाप्तिरूपो मोक्षपर्यायः केवलज्ञानादिरूपो गुणसपूहश्च येन कारशेन तद्वयमपि परमात्मद्रव्यं विना नास्ति न विद्यते । कस्मात्प्रदेशाभेदादिति ? उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक शुद्धसत्तारूपं मुक्तात्मद्रव्यं भवति । तस्मादभेदेन सर्वत्र द्रव्यमित्यर्थः । यथा मुक्तात्मद्रव्ये गुणपर्यायाभ्यां सहाभेदव्याख्यानं कृतं तथा यथासम्भव सर्वद्रव्येषु ज्ञातव्यमिति ॥११०॥ एवं गुणगुणिव्याख्यानरूपेण प्रथमगाथा द्रव्यस्य गुणपर्यायाभ्यां सह भेदो नारतीति कथनरूपेणद्वितीया चेति स्वतन्त्रगाथाद्वयेन पष्ठस्थलं गतम् । उत्थानिका-आगे गण और पर्यायों से द्रव्य का अभेद दिखलाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(इह) इस जगत् में (दव्वं विणा) द्रव्य के बिना कोई (गणो त्ति पजाओ तिथि) न कोई गुण होता है न कोई पर्याय होती है (पुण वध्वत्तं भावो) तथा ग्यपना या उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप से परिणमनपना द्रव्य का स्वभाव है (तम्हा दच्वं सयं सत्ता) इसलिये द्रव्य स्वयं सत्ता रूप है। मुक्तात्मा द्रव्य में केवलज्ञानादि रूप गुणों के समूह तथा परम पद की ...प्राति रूप मोक्ष पर्याय ये दोनों ही परमात्मा द्रव्य के बिना नहीं पाए जाते क्योंकि गुण और पर्यायों का द्रव्य के प्रदेशों से भेद नहीं है किन्तु एकत्त्य है तथा मुक्तात्मा द्रव्य उत्पाद म प्रोग्यमयी शुद्ध सत्तास्वरूप है। इसलिये अभेदनय से सत्ता ही द्रव्य है या द्रव्य ही ससा है। जैसे मुक्तात्मा द्रव्य में गुणपर्यापों के साथ अभेद व्याख्यान किया तैसे यथा सम्भव सर्व प्रध्यों में जान लेना चाहिये ॥११०॥ इस तरह गुण और गुणी का व्याख्यान करते हुए प्रथम गाथा तथा इन्य का अपने गुण व पर्यायों से भेद नहीं है ऐसा कहते हुए दूसरी गाथा इस तरह स्वतन्त्र वो माधाओं से छठा स्थल पूर्ण हुआ। भय द्रव्यस्य सदुत्पादासत्पादयोरविरोधं साधयति एवंविहं 'सहावे दव्वं दश्वत्यपज्जयहिं । सदसम्भावणिबद्ध पादुखभावं सदा' लभदि ॥१११॥ एवंविधं स्वभावे द्रव्यं द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्याम् । सदसद्भावनिबद्धं प्रादुर्भाव सदा लभते ॥१११११ एवमेतद्यथोवितप्रकारसाकल्याकलङ्कलाञ्छनमनादिनिधनं सत्स्वभाचे प्रादुर्भावमास्कपति द्रव्यम् । स तु प्रादुर्भावो द्रव्यस्य द्रन्याभिधेयतायां सद्भावनिबद्ध एवं स्यात् । पर्या १. एवं बिहसम्भावे (ज० वृ०)। २. सया (ज० व्०)। ३, लहदि (ज० वृ०)। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] [ पवयणसारो याभिधेयतायां त्वसद्भावनिबद्ध एव । तथाहिह - यदा द्रव्यमेवाभिधीयते न पर्यायास्तदा प्रभवावसानवजिताभियौगपद्यप्रवृत्ताभिर्द्रव्यनिष्पादिकाभिरन्वयशक्तिभिः प्रभवावसानला ञ्छनाः क्रमप्रवृत्ताः पर्यायनिष्यादिका व्यतिरेकव्यक्तोस्तास्ताः संक्रामतो द्रव्यस्य सद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भाव: हेमवत् । तथाहि —पदा हेमेवाभिधीयते नाङ्गदादय: पर्यायास्तवा हेमसमान जीविताभियोगपद्यप्रवृत्ताभिर्हेम निष्पादिकाभिरन्वयशक्तिभिरङ्गदादिपर्याय समानजीविताः क्रमप्रवृत्ता अङ्गदादिपर्याय निष्पादिका व्यतिरेकव्यक्तीस्तास्ताः संक्रामतो हेम्नः सद्भानिबद्ध एव प्रादुर्भावः । यदा तु पर्याया एवाभिधीयन्ते न द्रव्यं तदा प्रभवावसानलाञ्छनाभिः क्रमप्रवृत्ताभिः पर्याय निष्पादिकाभिर्व्यतिरेकव्यक्तिभिस्ताभिस्ताभिः प्रभवावसानवजिता यौगपद्यप्रवृत्ता द्रव्यनिष्पादिका अभ्वयशक्ती: संक्रामतो द्रव्यस्था सद्भाव निबद्ध एव प्रादुर्भावः हेमयदेव । तथाहि यदाङ्गदादिपर्याया एवाभिधीयन्ते न हेम तदाङ्गदादिपर्यायसमानजीविताभिः क्रमप्रवृत्ताभिरङ्गदादिपर्याय निष्पादिकाभिर्व्यतिरेकव्यक्तिभिस्ताभिस्ताभिहॅमसमानजीविता] यौगपद्यप्रवृत्ता हेमनिष्पादिका अन्चयशक्ती: संक्रामतो हेम्नोऽसद्भाव निबद्ध एव प्रादुर्भावः । अथ पर्यायाभिधेयतायामप्यस दुत्पत्तौ पर्यायनिष्पादिकास्तास्ता व्यतिरेकव्यक्तयो यौगपद्यप्रवृत्तिमासाद्यान्यय शक्तित्वमापन्नाः पर्यायान् द्रवीकुर्युः तथाङ्गदादिपर्याय निष्पा दिकाभिस्ताभिस्ताभिर्ध्यतिरेकव्यक्तिभियों गपद्यप्रवृत्तिमासाद्यान्ययशक्तित्वमापन्नाभिरगंदा दिपर्याया अपि मक्रियेत् । द्रव्याभिधेयतायामपि सदुत्पत्तौ द्रव्यनिष्पादिका अन्वयशक्तयः क्रमप्रवृत्तिमासाद्य तत्तद्वघतिरेकव्यक्तित्वमापन्ना द्रव्यं पर्यायीकुर्युः । तथा हेमनिष्पादिका - भिरन्वयशक्तिभिः क्रमप्रवृत्तिमासाद्य तत्तद्वयतिरेक मापन्नाभिर्हेमांगदादिपर्यायमात्री क्रियेत । ततो द्रव्यार्थादेशात्स दुत्पाद: पर्यायार्थादेशादसत् इत्यनवद्यम् ॥ १११ ॥ भूमिका – अब, द्रव्य के सत् उत्पाद और असत् - उत्पाद होने में अविरोध सिद्ध करते हैं अन्वयार्थ – [ एवंविधं द्रव्यं ] ऐसा ( पूर्वोक्त) द्रव्य [स्वभावे ] स्वभाव में [ द्रव्यापर्यायार्थाभ्यां ] द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों की अपेक्षा से [ सदसद्भावनिबद्धं प्रादुर्भाव ] सद्भाव संबद्ध और असद्भावसम्बद्ध उत्पाद को [ सदा लभते ] सदा प्राप्त करता है । टीका - इस प्रकार यह यथोचित ( पूर्वकथित ) सर्वप्रकार से निर्दोष लक्षणवाला अनादिनिधन थ्य सत्स्वभाव में उत्पाद को प्राप्त होता है । द्रव्य का यह उत्पाद द्रव्याfथक नय की अपेक्षा सद्भावसंबद्ध ही है और पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा असद्भावसम्बद्ध ही है । इसे स्पष्ट समझाते हैं Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पषयणसारो । [ २७७ . जब द्रव्य ही कहा जाता है, पर्याय नहीं, तब उत्पत्ति-विनाश से रहित, युगपत् प्रवर्तमान दम्य की उत्पन्न बार बाली अन्यय शक्तिकों के गुणों के) द्वारा, उत्पत्ति विनाश लक्षण बाली, क्रमशः प्रवर्तमान, पर्यायों को उत्पादक उन-उन व्यतिरेक व्यक्तियों 1 को प्राप्त होने वाले द्रव्य के समावसबद्ध ही उत्पाद है, सुवर्ण की भांति । जैसे-जम सुवर्ण ही कहा जाता है, बाजूबन्ध आदि पर्याय नहीं, तब सुवर्ण जितनी स्थायी, युगपत् अवर्तमान, स्वर्ण को उत्पादक अन्वयशक्तियों के द्वारा, बाजूबन्ध इत्यादि पर्याय जितनी स्थायी, क्रमश: प्रवर्तमान, बाजूबध इत्यादि पर्यायों को उत्पादक उन उन व्यतिरेक अक्तियों को प्राप्त होने वाले सुषर्ण के सद्भावसम्बद्ध ही उत्पाद है । (जो द्रव्य पूर्व पर्याय में था, वह ही अगली पर्याय को प्राप्त हुआ है, इस अपेक्षा से सत् का उत्पाद है)। और यस पर्यायें ही कही जाती हैं, द्रव्य नहीं, तब उत्पत्ति-विनाश जिनका लक्षण है ऐसी, क्रमशः नवर्तमान, पर्यायों को उत्पन्न करने वालो उन उन व्यतिरेक व्यक्तियों के द्वारा उत्पत्तिलाश रहित, युगपत् प्रवर्तमान द्रव्य की उत्पादक अन्वयशक्तियों को प्राप्त होने वाले के असभावसम्बद्ध ही उत्पाद है, सुवर्ण की ही भाति । यथा--जब बाजूबंधादि पर्याय ही की जाती हैं, स्वर्ण नहीं, तब बाजूबंध इत्यादि पर्याय जितनी टिकने वाली, क्रमशः प्रवर्तपास, बाजूबंध इत्यादि पर्यायों की उत्पादक उन उन व्यतिरेक व्यक्तियों के द्वारा, सुवर्ण माली टिकने वाली, युगपत् प्रवर्तमान, सुवर्ण की उत्पादक अन्वयशक्तियों को प्राप्त सुवर्ण मसदमावयुक्त ही उत्पाद है। (जिस पर्याययुक्त अब नहीं है, इस अपेक्षा से असत् का 1. अब, पर्यायों की अभिधेयता (अपेक्षा) के समय भी, असत्-उत्पाद में पर्यायों को न करने वाली वे वे व्यतिरेक व्यक्तियां, युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वय शक्तित्व प्राप्त होती हुई, पर्यायों को, द्रव्य करती हैं (पर्यायों की विवक्षा के समय भी व्यतिरेक कियां अपयशक्तिरूप बनती हई पर्यायों को, द्रव्यरूप करती हैं), जैसे बाजूबंध आदि डायों को उत्पन्न करने वाली बे-वे व्यतिरेकच्यक्तियां, युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वयतत्व को प्राप्त करती हुई, बाजूबन्ध इत्यादि पर्यायों को, सुवर्ण करती हैं । द्रव्य की मधेपता के समय भी, सत् उत्पादक अन्वयशक्तियां, कमप्रवृत्तिको प्राप्त करके उस उस हरेक व्यक्तित्व को होती हुई, द्रव्य को पर्यायरूप करती हैं, जैसे सुवर्ण की उत्पादक याक्तियां क्रमप्रवृत्ति प्राप्त करके उस उस व्यतिरेकत्य को प्राप्त होती हुई, सुवर्ण को मावि पर्यायमात्ररूप करती हैं । अतः द्रव्याथिक कथन से सत्-उत्पाद है, यह बात (निदोष, अबाध्य) है ॥१११॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ], [ पवयणसारो सूचना-इनको स्वयं ग्रन्थकार आगे स्पष्ट करते हैं। तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्यस्य द्रव्याथिकपर्यायार्थिकनयाभ्यां सदुप्पादासदुत्पादौ दशयति एवंविसभावे एवंविधसद्भावे सत्तालक्षणमुत्पादव्ययधोब्यलक्षणं गुणपर्यायलक्षणं द्रव्यं चेत्येवंविधपूर्वोक्तसद्भावे स्थितं अथवा एवंविह सहावे इति पाठान्तरम् । तत्रैवविधं पूर्वोक्तलक्षणं स्वकीयसद्भावेस्थितं । कि ? दध्वं द्रव्यं कर्तृ । किं करोति ? सया लहदि सदासर्वकालं लभते । कं कर्मतापन्न ? पादुम्भा प्रादुर्भावमुत्पादं कथम्भूतं ? सबसम्भावणिबद्ध सद्भावनिबद्धमसद्भाबनिबद्धं च । काभ्यां कृत्वा ? दश्वत्थपज्जयत्थेहि द्रश्यार्थिकपर्यायाथिकनयाभ्यामिति । तथाहि—यथा यदा काले द्रव्यार्थिकनयेन विवक्षा क्रियते यदेव कटकपर्याये सुवर्ण तदेव कङ्कणपर्याये नान्यदिति, तदा काले सद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादिति चेत् ? द्रव्यस्य द्रव्यरूपेणाविनष्टत्वात् । पदा पुनः पर्याय विवक्षा क्रियते कटकपर्यायात् सकाशादायी मा कङ्कणपर्याधः सुवर्णसम्बन्धा स एव न भवति । तदा पुनरसदुत्पादः कस्मादिति चेत् ? पूर्वपर्यायस्य विनष्टत्वात् । तथा यदा द्रव्याथिकनयविवक्षा क्रियते य एवं पूर्व गृहस्थावस्थायामेवमेवं गृहव्यापारं कृतवान् पश्चाग्जिनदीक्षां गृहीत्वा स एवेदानी रामादिकेवलीपुरुषो निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमात्मध्यानेनानन्तसुखामृत तृप्तो जातः, न चान्य इति । तदा सद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादिति चेत् । पुरुषत्वेनाविनष्टत्वात् । यदा तु पर्याय नवविवक्षा क्रियते । पूर्व सरागावस्थायाः सकाशादन्योऽयं भरतसगररामपाण्डवादिकेवलिपुरुषाणां सम्बन्धी निरुपरागपरमात्मपर्यायः स एव न भवति । तदा पुनरसद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादिति चेत् ? पूर्वपर्यायादन्यत्वादिति । यथेदं जीवद्रव्ये सदुत्पादासदुत्पादव्याख्यानं कृतं यथा सर्बद्रव्येषु यथासंभ्भव ज्ञात व्यमिति ।।१११॥ उत्थानिका—आगे द्रव्य का द्रव्याथिकनय से सत् उत्पाद और पर्यायार्थिकनय से असत् उत्पाद दिखलाते हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ--(एवं विह) इस तरह के (सबमावे) स्वभाव रखते हुए (द बं) द्रष्य (वस्वस्थ पज्जयत्थेहिं) द्रव्याथिक और पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से (सदसम्भावणिबद्ध) सद्भाव रूप और असद्भाव रूप (पादुठमाव) उत्पाद को (सया लहदि) सदा ही प्राप्त होता रहता है। जैसे सुवर्ण द्रव्य में जिस समय द्रव्याथिकनय की विवक्षा की जाती है अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से विचार किया जाता है, उस समय ही कटक रूप पर्याय में जो सुवर्ण है वही सुवर्ण उसकी कंकण पर्याय में है-दूसरा नहीं है। इस अवसर पर सद्भाव उत्पाद ही है क्योंकि द्रव्य अपने द्रव्य रूप से नष्ट नहीं हुआ किन्तु बराबर बना रहा और जब पर्याय मात्र की अपेक्षा से विचार किया जाता है तब सुवर्ण की जो पहले कटकरूप पर्याय थी उससे अब वर्तमान को कंकण रूप पर्याय भिन्न हो है । इस अवसर पर असत् Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायणसारो । [ २७६ उत्पाद है क्योंकि पूर्व पर्याय नष्ट हो गई और नई पर्याय पैदा हुई । तैसे ही यदि म्यार्षिकनय के द्वारा विचार किया जावे तो जो आत्मा पहले गृहस्थ अवस्था में जो-जो का व्यापार करता था वही पोछे जिनदीक्षा लेकर निश्चयरत्नश्यमयी परमात्मा के शान से अनन्त सुखामृत में तृप्त रामचंद्र आदि केवलो पुरुष हुआ अन्य कोई नहीं-यह भए उत्पाद है। क्योंकि पुरुष की अपेक्षा नष्ट नहीं हुआ। और जब पर्यायाथिकनय की अक्षा की जाती है तब पहली जो सराग-अवस्था थी उससे यह भरत, सगर, रामचंद्र, व आदि केवली पुरुषों की जो वीतरागपरमात्म-पर्याय है सो अन्य है, वही नहीं हैहै असत् उत्पाद है । क्योंकि पूर्व पर्याय से यह अन्य पर्याय है। जैसे यहां जीव द्रव्य में उत्पाद और असत् उत्पाद का व्याख्यान किया गया तसा सर्व द्रव्यों में यथासंभव जान लेना चाहिये ॥१११॥ 1 मय सदुत्पादमनस्यत्वेन निश्चिनोति1 जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो । कि दवत्तं 'पजहवि ण 'जहं अण्णो कहं होदि' ॥११२॥ जीवो भवन भविष्यति नरोऽमरो वा परो भूत्वा पुनः । कि द्रव्यत्वं प्रजहाति न जदन्यः कथं भवति ।।११२।। व्यं हि ताबद्रव्यल्वभूतामन्वयक्ति नित्यमप्यपरित्यजति सदेव । यस्तु द्रव्यस्य ताया व्यतिरेकच्यक्तेः प्रादुर्भावः, तस्मिन्नपि द्रव्यत्वभूताया अन्वयशक्तेरप्रयवनात लस्योग । ततोऽनत्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्य सदुत्पादः । तथाहि-जीयो द्रव्यं भवसिग्मनुष्यदेवसिद्धस्वानामन्यतमेन पर्यायेण द्रव्यस्य पर्यायदुर्ललितवृत्तित्वादवश्यमेव पति । स हि भूत्वा च तेन कि द्रव्यत्वभूतामन्वयशक्तिमुज्झति, नोति । यदि गति रुषमम्पो नाम स्यात्, येन प्रकटितत्रिकोटिसत्ताकः स एष न स्यात् ॥११२॥ ₹ भूमिका-अब, (सर्व पर्यायों में द्रव्य अनन्य है अर्थात द्रव्य यह ही रहता हैसे उसके सत् उत्पाद है, इस प्रकार) सत्-उत्पाद को अनन्यत्व के द्वारा निश्चित अबपार्ष-[जीवः] जोब [भवन्] परिणमित होता हुआ [नरः] मनुष्य, । देव [वा] अथवा [परः] अन्य (तिर्यंच, नारकी या सिद्ध) [भविष्यति] होगा, परन्तु [भूत्वा] मनुष्य देवादि होकर [किं] क्या वह [द्रव्यत्वं प्रजहाति] द्रव्यत्व १. पचयदि इति पाठान्तरम् । २. जहदि (ज० ५०) चयदि। ३. बदि (ज० बृ.) । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] [ पवयणसारो को छोड़ देता है ? [न जहत्] नही छोड़ता हुआ वह [अन्यः कथं भवति] अन्य कैसे हो सकता है ? (अर्थात् वह अन्य नहीं, वह का वही है)। टीका-प्रथम तो द्रव्य, द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति को कभी भी न छोड़ता हुआ, सत् ही है। द्रव्य के जो पर्यायभूत व्यतिरेकच्यक्ति का उत्पाद होता है, उसमें भी द्रव्यत्वभूत आव्यशक्ति का अच्युतपना होने से, द्रव्य अनन्य ही है, (अर्थात् उस उत्पाद में भी अन्वयशक्ति अपतित अविनष्ट-निश्चल होने से द्रव्य वह ही है, अन्य नहीं।) इसलिये अनन्यत्व के द्वारा द्रव्य के सत-उत्पाद निश्चित होता है, (अर्थात् उपरोक्त कथनानुसार द्रव्य का द्रध्यापेक्षा से, अनन्यत्व होने से, उसके सत्-उत्पाद है, ऐसा अनन्यत्व के द्वारा सिद्ध होता है । जैसे—द्रध्य का विचित्र पर्यायों में व्यापार होने के कारण से, जीव, द्रव्य होता हुआ, नारकत्व, तियंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व में से किसी एक पर्यायरूप अवश्य ही (परिणत) होगा । (परन्तु) वह जीव उस पर्यायरूप होकर क्या द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति को छोड़ देता है ? नहीं लड़ता यति नहीं छोड़ना है तो भन्या से हो सकता है, कि जिससे त्रिकोटि सत्ता (तीन प्रकार की सत्ता, कालिक अस्तित्व) जिसके प्रगट है ऐसा वह (जीव) यह हो न हो ? (अर्थात् तीनों काल में विद्यमान वह जीव अन्य नहीं, वह ही है।) ॥११२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वोक्तमेव सदुत्पादं द्रव्यादभिन्नत्वेन विवृणोति, जीवो जीवः कर्ता भवं भवन् परिणमन् सन् भविस्सदि भविष्यति तावत् । कि कि भविष्यति ? निर्विकारशुद्धोपयोगविलक्षणाभ्यां शुभाशुभोपयोगाभ्यां परिणम्य परोऽमरो वा परो नरो देवो परस्तिर्यनारकरूपो वा निर्विकारशुद्धोपयोगेन सिद्धो वा भविष्यति भवीय पुणो एवं पूर्वोक्तप्रकारेण पुनर्भवीय भूत्वापि । अथवा द्वितीयव्याख्यानं । भवन् बर्तमानकालापेक्षया भविष्यति भाविकालापेक्षया भूत्वा चेति भूतकालापेक्षया कालत्रये चैवं भूत्वापि कि दम्वत्तं पजहादि कि द्रव्यत्वं परित्यजति ? ण जहदि द्रव्याथिकनयेन द्रव्यत्वं न त्यजति द्रव्याशिन्नो न भवति । अपणो कहं हदि अन्यो भिन्नः कथं भवति ? किन्तु द्रव्यान्वयशक्तिरूपेण सद्भावनिबद्धोत्पादः स एवेति द्रव्यादभिन्न इति भावार्थः ।।११२।। उत्थानिका-आगे पहले कहा हुआ सत् उत्पाद द्रव्य से अभिन्न है ऐसा खुलासा करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ— (जीयो) यह आत्मा (म) परिणमन करता हुआ (णरोऽमरो वा परो) मनुष्य, देव या अन्य कोई (भविस्सदि) होवेगा (पुणो भवीय) तथा इस तरह होकर (किं वय्वसं पजहवि) क्या वह अपने द्रव्यपने को छोड़ बैठेगा ? (ण जहदि अष्णो कहं हववि) नहीं छोड़ता हुआ वह भिन्न कैसे होवेगा? अर्थात् द्रव्यपने से अन्य नहीं Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रमणसारो ] होगा। यह परिणमन स्वभाव जीय विकार रहित शुद्धोपयोग से विलक्षण शुभ या अशुभ उपयोग से परिणमन करके मनुष्य, वेब, पशु या नारकी अथवा निर्विकार शुद्धोपयोग में परिणमन करके सिद्ध हो जावेगा। इस प्रकार होकर के भी अथवा वर्तमान काल में होता हुमा भाविकाल में होगा व भूतकाल में हुआ था इस तरह तीनों कालों में पर्यायों को बदलता हुआ भी क्या अपने द्रव्यांप को छोड़ पैसा है? प्रमापिका से द्रव्यपने को कभी नहीं छोड़ता है तब अपनी अनेक भिन्न-भिन्न पर्यायों में दूसरा कैसे हो सकता है ? अर्थात् दूसरा नहीं होता किन्तु द्रव्य को अन्वयरूपशक्ति से सद्भाव उत्पाद रूप वही अपने द्रव्य से अभिन्न है, यह भावार्थ है ॥११२॥ अथासवुत्पादमन्यत्वेन निश्चिनोतिमणुवो ण होदि' देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा । एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ॥११३॥ ___मनुजो न भवति देवो देवो वा मानुषो वा सिद्धो बा। एवमभवन्ननन्यभावं कथं लभते ।। ११३॥ पर्याया हि पर्यायभूताया आत्मन्यतिरेकव्यक्तः काल एव सत्त्वात्ततोऽन्यकालेषु भवत्यसन्स एव । यश्च पर्यायाणां ब्रव्यत्वभूतयान्वयशक्त्यानुस्यूतः क्रमानुपाती स्वकाले प्रादुभविः तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकच्यक्तेः पूर्वमसत्त्वात्पर्याया अन्य एव। ततः पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपकर्तृ करणाधिकरणभूतत्वेन पर्यायेभ्योऽपृथग्भूतस्य सल्पस्यासदुत्पादः । तथाहि न हि मनुजस्त्रिदशो या सिद्धो वा स्यात् न हि त्रिदशो अनुजो वा सिद्धो वा स्यात् । एवमसन् कथमनन्यो नाम स्यात् येनान्य एव न स्यात् । येन व निष्पद्यमानमनुजादिपर्यायं जायमानक्लयादिविकारं काञ्चनमिव जीवद्रव्यमपि प्रतिसामन्यन्न स्यात् ॥११३॥ भूमिका-अब, असत्-उत्पाद को अन्यत्व के द्वारा निश्चित करते हैं* अन्वयार्थ-~-[मनुजः] मनुष्य [देवः न भवति] देव नहीं है, [बा] अथवा [देवः] भानुषः वा सिद्धः वा] मनुष्य या सिद्ध नहीं है, [एवं अभवन् ] इस प्रकार (मनुष्य, मादिक या देव, मनुष्यादिक) न होता हुआ [अनन्यभावं कथं लभते] अनन्यभाव को प्राप्त हो सकता है ? १. मणुओ ग हबदि (ज० वृ०)। २. कहं (ज० वृ०) । -- - - -- -... -- Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] [ परयणसारो ___टीका-पर्याय, पर्यायभूत स्वव्यतिरेकट्यक्ति के काल में ही सत् (विद्यमान) होने से, उससे अन्य कालों में असत् (अविद्यमान) ही हैं। पर्यायों का द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति के साथ गुंथा हुआ (एकरूपता से युक्त) जो क्रमानुपाती (क्रमानुसार) स्वकाल में उत्पाद होता है, उसमें, पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्ति का पहले असत्व होने से, पर्याय अन्य हैं। इसलिये पर्यायों को अन्यता के द्वारा, पर्यायों के स्वरूप का कर्ता, करण और अधिकरण होने से पर्याय रे अनुगः नः त्यहा असत-उत्पाद निश्चित होता है । जैसेमनुष्य, देव या सिद्ध नहीं है, और देव, मनुष्य या सिद्ध नहीं है, ऐसा न होता हुआ अनन्य (बह का वही) कसे हो सकता है, कि जिससे अन्य हो न हो और जिससे जिसके मनुष्यादि पर्याय उत्पन्न होती हैं ऐसा जीव द्रव्य भी, जिसको कंकणादिक पर्याय उत्पन्न होती हैं ऐसे सुवर्ण को भांतिपद-पद पर (प्रति पर्याय पर) अन्य न हो ? (अर्थात् अन्य हो होगा) ॥११३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्यस्यासदृत्पादं पूर्वपर्यायादन्यत्वेन निश्चिनोति, मणुओ ण हववि देवो आकुलस्त्रोत्पादकमनुज: देवादिविभावपर्यायविलक्षणमनाकुलत्वरूपस्वभावपरिणतिलक्षणं परमात्मद्रव्यं यद्यपि निश्चयेन मनुष्यपर्याये देवपर्याये च समान तथापि मनुजो देवो न भवति । कस्मान् ? देवपर्यायकाले मनुष्यपर्यायस्यानुपलम्भात् । वेवो या माणुसो व सिद्धो वा देवो वा मनुष्यो न भवति स्वात्मोपलब्धिरूपसिद्धपर्यायो वा न भवति । कस्मात् ? पर्यायाणां परस्परं भिन्नकालत्वात्, सुवर्णद्रव्ये कुण्डलादिपर्यायाणामिव । एवं अहोज्जमाणो एवमभवन्सन् अणपणभावं कहं लहदि अनन्यभावमेकरवं कथं लभते? न कथमपि । तत एतावदायाति असहभावनिबद्धोत्पादः पूर्वपर्यायादभिन्नो भवतीति ।।११३।। उस्थानिका-आगे द्रव्य के असत् उत्पाद को पूर्व पर्याय से भिन्न निश्चय करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(मणुओ) मनुष्य (देवो ण होदि) देव नहीं होता है। (वा देवो) अथवा देव (माणुसो व सिद्धो या) मनुष्य या सिद्ध नहीं होता है। (एवं अहोज्ज माणो) ऐसा नहीं होने पर भी (अणण्णभावं कह लहदि) एकपने को कैसे प्राप्त हो सकता है ? आकुलता-जनक देव मनुष्यादि पर्यायों से विलक्षण तथा निराकुल-स्वरूप अपने स्वभाव में परिणमन रूप लक्षण को धरने वाला परमात्मा द्रव्य यद्यपि निश्चय से मनुष्य पर्याय में तथा देव पर्याय में समान है तथापि मनुष्य देव नहीं होता है क्योंकि देव पर्याय के काल में मनुष्य पर्याय की प्राप्ति नहीं है, मनुष्य पर्याय के काल में देव पर्याय की तथा निज-आत्म-उपलब्धिरूप सिद्ध पर्याय की प्राप्ति नहीं है, क्योंकि पर्यायों का परस्पर भिन्न भिन्न काल है । जैसे सुवर्ण द्रव्य में कुण्डल कंकण आदि पर्यायों का भिन्न-भिन्न Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २८३ काल है। इस तरह एक पर्याय रूप द्रव्य दूसरे रूप न होता हुआ एकपने को कैसे प्राप्त हो सकता है ? किसी भी तरह प्राप्त नहीं हो सकता। इससे यह सिद्ध हुआ कि असद्भाव उत्पाद या सत् रूप उत्पाद पूर्व पूर्व पर्याय से भिन्न होता है ॥११३॥ अथैकद्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वविप्रतिषेधमुद्युनोति for सव्वं बच्वं तं पञ्जयट्ठिएण पुणो । हवदि य अण्णमणवणं तक्काले तम्मयत्तादो ॥ ११४ ॥ द्रव्यार्थिकेन सर्व द्रव्यं तत्पर्यायार्थिकेन पुनः । भवति चान्यदनन्यत्तत्काले तन्मयत्वात् ॥ ११४।। सर्वस्य हि वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यवि - से परिच्छिन्ती किल चक्षुषी, द्रव्यार्थिक पर्यायाथिक चेति । तत्र पर्यायार्थिकमेका निमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रध्यार्थिकेन यदावलोक्यते तथा नारकतिर्यङ्ग मनुव्यदेव सिद्ध पर्यायात्मकेषु विशेषेषु व्यवस्थितं जीव सामान्यमेकमलोकयतामवलोकितदि शेषाणां तत्सर्व जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति । यदा तु द्रव्याथिक मेकान्तनिमीलितं केवलोन्मी तेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यस्थितान्नारकतिग्मनुष्य देव सिद्धत्य पर्यामकान् विशेषानने कानवलोकयतामनवलोकित सामान्यानामन्यदन्यत्प्रतिभाति, विशेषेकाले ततद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत् । यदा से उसे अपि द्रव्याधिकपर्यायार्थिके तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत् इतश्चावलोक्यते तदा गारकति थंड मनुष्यदेव सिद्धत्व पर्यायेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता औरक सिग्मनुष्य देव सिद्धत्व पर्यायात्मका विशेषाश्च तुल्यकालमेवावलोक्यन्ते । तत्रंकचक्षु विलोकन मेक देशावलोकनं द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनं । ततः सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यवाग्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते ।। ११४ ।। द्रव्यस्य भूमिका – अब एक ही द्रव्य के अन्यत्व और अनन्यत्व होने में जो विरोध है, उसे करते हैं। ( अर्थात् उसमें विरोध नहीं आता, यह बतलाते हैं)अन्वयार्थ – [ द्रव्यार्थिकेन ] द्रव्यार्थिकनय से [ तत् सबै ] वह सब [ द्रव्यं ] द्रव्य है, : च] और फिर [पर्यायार्थिकेन ] पर्यायार्थिक नय से ( वह सब ) [ अन्यत् | अन्य-अन्य क्योंकि [ तत्काले तन्मयत्वात् ] उस समय ( द्रव्य, पर्यायों से ) तन्मय होने के मन्यत् ] ( द्रव्य, पर्यायों से ) अनन्य है । कारण से १. दब्येण ( ज० वृ०)। २. पज्जयठियेण (ज. वृ० ) । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] { पवयणसारो टीका-~-वास्तव में सभी वस्तु के सामान्यविशेषात्मकपना होने से, वस्तु के स्वरूप को देखने वालों के क्रमशः (१) सामान्य और (२) विशेष को जानने वाली दो आंखें हैं(१) द्रव्याधिक और (२) पर्यायाथिक । इनमें से पर्यायाधिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके, जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है, तब नारकत्व, तिर्यचत्य, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व-पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीवसामान्य को देखने वाले जीवों के वह सब जीव द्रव्य है' ऐसा भासित होता है । जब, द्रव्याथिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके, मात्र खुली हई पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है, उस समय जीव द्रव्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्य चत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों के (वह जीव द्रव्य) अन्य-अन्य भासित होता है, क्योंकि द्रव्य का उन-उन विशेषों के समय में उन-उन विशेषों से तन्मयपने से अनन्यपना है। उपले, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भांति । (जसे घास, लकड़ी इत्यादि की अग्नि उस-उस समय घासमय, लकड़ीमय इत्यादि होने से घास लकड़ी इत्यादि से अनन्य है, उसी प्रकार द्रव्य उन-उन पर्याय रूप विशेषों के समय तन्मय होने से उनसे अनन्य है, पृथक नहीं है।) जब, उन द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दोनों आंखों को एक ही काल में खोलकर, उसके और इसके (अर्थात् द्रव्याथिक तथा पर्यायाथिक चक्षु के) द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, तियंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायों में रहने वाला जीव सामान्य तथा जीव सामान्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्यवत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप विशेष एक काल में ही (एक ही साथ) दिखाई देते हैं। वहां एक आंख से देखना एक देश अवलोकन है और दोनों आंखों से देखना सर्वावलोकन (सम्पूर्ण अवलोकन) है । इसलिये सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व और अनन्यत्व विरोध को प्राप्त नहीं होते ॥११४॥ तात्पर्यवृत्ति अर्थकद्रव्यस्य पर्यायस्सहानन्यत्वाभिधानमेकत्वमन्यत्वाभिधानमनेकत्वं च नयविभागेन दर्शयति, अथवा पूर्वोक्तसद्भावनिबद्धासद्भावमुत्पादद्वयं प्रकारान्तरेण समर्थयति हवदि भवति । कि कर्तृ ? सम्वं दवं सर्व विवक्षिताविवक्षितजीवद्रव्यं । किविशिष्टं भवति ? अणण्णं अनन्यमभिन्नमेकं तन्मयमिति 1 केन सह ? तेन नारकतिर्यड्मनुष्यदेवरूपविभावपर्यायसमूहेन केवलज्ञानाद्यनन्त चतुष्टयशक्तिरूपसिद्धपर्यायेण च । केन कृत्वा ? दयाट्ठियेण शुद्धान्वयद्रव्याथिकनयेन । कस्मात्? कुण्डलादिपर्यायेषु सुवर्णस्येव भेदाभावात् तं पज्जयट्ठियेण पुणो तद्रव्यं पर्यायाथिकनयेन पुनः Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २८५ क्षणं अन्यद्भिन्नमनेकं पर्यायैः सह पृथग्भवति । कस्मादिति चेत् ? तक्काले सम्मयतादी तृणाग्निकाष्ठानिपत्राग्निवत् स्वकीय पर्यायैः सह तत्काले तन्मयत्वादिति । एतावता किमुत्रतं भवति ? द्रव्याचिकनयेन यथा वस्तुपरीक्षा क्रियते तदा पर्याय सन्तानरूपेण सर्वपर्यायिकदम्बकं द्रव्यमेव प्रतिभाति । यदा तु पर्यायनमविवक्षा क्रियते तदा द्रव्यमपि पर्यायरूपेण भिन्न भिन्न प्रतिभाति । यदा च परस्पर सापेक्षया नयद्वयेन युगपत्समीक्ष्यते, तदेकत्वमनेकत्वं च युगपत्प्रतिभातीति । यथेदं जीवद्रध्ये व्याख्यानं कृतं तथा सर्वद्रव्येषु यथासम्भवं ज्ञातव्यमित्यर्थः ।। ११४ ।। एवं सदुत्पादकथनेन प्रथमा सदुत्पादविशेषविवरण रूपेण द्वितीया तथैवासदुत्पादविशेषविवरणपेण तृतीया द्रव्यपर्याययोरेकत्वानेकत्वप्रतिपादनेन चतुर्थीति सदुत्पादासदुत्पादव्याख्यानमुख्यतया गाथा चतुष्टयेन सप्तमस्थलं गतम् । - उत्erfeet — आगे एक द्रव्य का अपनी पर्यायों के साथ अनन्यत्व नाम का एकत्व है तथा अन्यत्व नाम का है ऐसा नयों को अपेक्षा दिखलाते हैं । अथवा पूर्व में कहे गए सद्भावउत्पाद और असद्भाव उत्पाद को एक साथ अन्य प्रकार से दिखाते हैं— अन्वय सहित विशेषार्थ - ( दन्नट्ठियेण ) द्रव्यार्थिकनय से ( तं सव्वं ) वह सब (ब) तथ्य ( अणणं) अन्य नहीं है, वही है ( पुणो ) परन्तु (पज्जयट्ठियेण ) पर्यायार्थिक भय से ( अरणं य) अन्य मी (हवदि) है क्योंकि ( तवकाले तम्मयत्तादो) उस काल में द्रव्य स्वामी पर्याय से सम्मय हो रहा है। शुद्ध अन्वयरूप द्रव्याथिकनय से यदि विचार किया तो विवक्षित अविवक्षित सर्व हो जीव नामा द्रव्य अपनी नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव विवाद पर्यायों के साथ तथा केवलज्ञान दर्शन सुख योर्य रूप अनन्त चतुष्टयशक्ति सिद्ध पर्याय के साथ अन्य अन्य नहीं है किन्तु तन्मय है एक है । जैसे कुण्डल कंकण यदि पर्यायों में सुवर्ण का भेद नहीं है । वही सुवर्ण है । तैयार किया जाये तो अपनी अनेक पर्यायों अग्नि परन्तु यदि पर्याय को अपेक्षा से के साथ वह द्रव्य भिन्न-भिन्न ही है, क्योंकि अमि तृण की अग्नि, काष्ठ की पत्र को अग्नि रूप से भिन्न-भिन्न है, अपनी दियों के साथ उस समय तन्मय है। इससे यह बात कही गई कि जब द्रव्याथिकनय स्तु की परीक्षा की जाती है तब पर्यायों में सन्तान रूप से सब पर्यायों का समूह द्रव्य गट होता है । परन्तु जब पर्यायार्थिकनय की विवक्षा की जाती है तब पर्याय रूप वही ब्रम्य भिन्न-भिन्न झलकता है । और जब परस्पर अपेक्षा से दोनों नयों के द्वारा एक काल में विचार किया जाता है तब यह द्रव्य एक ही साथ एक रूप और अनेक रूप मालूम है। जैसे यहां जीव द्रव्य के सम्बन्ध में व्याख्यान किया गया है तंसे सब द्रव्यों के सम्म जान लेना चाहिये, यह अर्थ है ॥११४॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ । [ पवयणमारो अथ सर्वविप्रतिषेधनिषेधिका सप्तभंगोमवतारयति-- अस्थि ति य पत्थि ति य हवदि अवतवमिदि पुणो दव्वं । 'पज्जाएण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ।।११५॥ अस्तीति च नास्तीति च भवत्यवक्तव्यमिति पुनद्रव्यम् । पर्यायण तु केनचित् तदुभयमादिष्टमन्यद्वा ॥११५।। स्यादस्त्येव १, स्यान्नास्त्येव २, स्यादवक्तव्यमेव ३, स्यादस्तिनास्त्येव ४, स्थावस्त्यवक्तव्यमेव ५, स्याम्नास्त्यवक्तव्यमेव ६, स्थादस्तिनास्त्यवक्तव्यमेव ७, स्वरूपेण १, पररूपेण २, स्वपररूपयोगपोन ३, स्थपररूपक्रमेण ४, स्वरूपस्वपररूपयोगपद्याभ्यां ५, पररूपस्वपररूपयोगपद्याभ्यां ६, स्वरूपपररूपस्वपररूपयोगपद्यराविश्यमानस्य स्वरूपेण सतः, पररूपेणासतः, स्वपररूपाभ्यां युगपद्वक्तुमशक्यस्य, स्वपररूपाभ्यां क्रमेण सतोऽपतश्च, स्वरूपस्वपररूपयोगपद्याभ्यां सतो वक्तुमशक्यस्य च, पररूपस्वपररूपयोगपद्याभ्यामसतो वक्तुमशक्यस्य च, स्वरूपपररूपस्वपररूपयोगपद्यः सतोऽसतो वक्तुमशक्यस्य चाननधर्मणो द्रव्यस्यकै धर्ममाश्रित्य विवक्षिताविवक्षितविधिप्रतिषेधाभ्यामवतरन्ती सप्तभंगकंवकारविश्रान्तमधान्तसमुच्चार्यमाणस्यात्कारामोघमन्त्रपदेन समस्तमपि विप्रतिषेधविषमोहमुदस्थति ।।११५॥ भूमिका-अब, समस्त विरोधों को दूर करने वाली सप्तभंगो प्रगट करते हैं अन्वयार्थ-[द्रव्यं] द्रव्य [केनचित् पर्यायेण तु] किसी पर्याय से तो [अस्ति इति च] 'अरित' [नास्ति इति च] (किसी पर्याय से) 'नास्ति' [पुनः] और [अवक्तव्यम् इति भवति] (किसी पर्याय से) 'अधक्तव्य' है, [तदुभयं] (और किसी पर्याय से) अस्ति नास्ति (दोनों रूप) [वा] अथवा [अन्यत् आदिष्टम्] (किसी पर्याय से) अन्य (तोन भंगरूप) कहा गया है। टीका-द्रव्य (१) स्वरूपापेक्षा से 'स्यात् अस्ति हो' (२) पररूप की अपेक्षा से 'स्यात् नास्ति ही', (३) स्वरूप-पररूप को युगपत् अपेक्षा से 'स्यात् अवक्तव्य हो' (एक ही साथ द्रव्य स्वरूप-पररूप से नहीं कहा जा सकता, अतः अवक्तव्य है), (४) स्वरूप-पररूप के क्रम की अपेक्षा से 'स्यात् अस्ति-नास्ति ही', (५) स्वरूप की और स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से 'स्यात् अस्ति-अवक्तव्य ही', (६) पररूप को और स्वरूपपररूप को युगपत् अपेक्षा से 'स्यात नास्ति अबक्तव्य हो' और (७) स्वरूप की, पररूप को तथा स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से 'स्यात् अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य हो' है।। (१) जो स्वरूप से 'सत्' है, (२) जो पररूप से 'असत्' है, (३) जिसका स्वरूप १. पज्जायेण (ज० व्य) Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८३ सारो 1 ต और पररूप से युगपत् कथन अशक्य है, ( ४ ) जो स्वरूप से और पररूप से क्रमशः 'सत् और असत् ' है, (५) जो स्वरूप से और स्वरूप पररूप से युगपत् 'सत् और अवक्तव्य' है; (५) जो पररूप से और स्वरूप पररूप से युगपत् 'असत् और अवक्तव्य' है; तथा (७) जो रूप से-पर-रूप से और स्वरूपपररूप से युगपत् सत्, असत् और अाज्य है, -ऐसे कामह वाले कथनो द्रव्य के एक-एक धर्म का आश्रय लेकर विवक्षित रूप विधि-निषेध के प्रगट होने वाली सप्तभंगी सतत सम्यकृतया उच्चारित स्यात्कार रूपी अमोघ मंत्र के द्वारा 'एव' कार (एकान्त) रहने वाले समस्त विरोध - विष के मोह को दूर करतो ११५ । । तात्पर्यवृत्ति अथ समस्तदुर्नयैकान्तरूपविवादनिषेधिकां नयसप्तभङ्गी विस्तारयति- अस्थिति य स्यादस्त्येव । स्यादिति कोऽर्थः ? कथञ्चित् कथंचित्कोऽर्थः ? विवक्षितप्रकारेण यादिचतुष्टयेन । तच्चतुष्टयं, शुद्धजीवविषये कथ्यते । शुद्धगुणपर्यायाधारभूतं शुद्धात्मद्रव्यं भण्यते, काकाशप्रमिताः शुद्धासंख्येयप्रदेशा: क्षेत्र भण्यते, वर्तमानशुद्धपर्यायरूपपरिणतो वर्तमानसमयः कालो ते शुद्धचैतन्य भावश्चेत्युक्तलक्षणद्रव्यादिचतुष्टयेन इति प्रथमभङ्गः १ । णत्थित्तिय स्यान्नास्त्येव स्यादिति कोऽर्थः कथंचिद्विवक्षितप्रकारेण परद्रव्यादिचतुष्टयेन हवदि भवति २ । कथम्भूतं ? अवत्तग्व स्यादवक्तव्यमेव ३ स्यादिति कोऽर्थ ? कथंचिद्विवक्षितप्रकारेण युगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन अस्ति स्यान्नास्ति, स्थादवक्तव्यं स्यादस्ति नास्ति, स्यादस्त्येवावक्तव्यम्, स्यान्नास्त्येवावक्तव्यं स्तनास्त्यवक्तव्यम् । पुणो पुनः इत्थंभूतं । किं भवति ? दव्वं परमात्मद्रव्यं कर्तृ ? पुनरपि सम्पूर्ण भवति ? तदुभयं स्यादस्तिनास्त्येव । स्यादिति कोऽर्थः ? कथंचिद्विवक्षितप्रकारेण क्रमेण यादिचतुष्टयेन ४ । कथम्भूतं ? सदित्थमित्थं भवति । आविट्ठ आदिष्टं विवक्षितं सत् । केन पज्जायेण ब्रु पर्यायेण तु प्रश्नोत्तररूपनयविभागेन तु । कथम्भूतेन ? केणवि केनापि विवक्षितेन नियरूपेण अण्णं वा अन्यथा संयोगभङ्गत्रयरूपेण । तत्कथ्यते - स्यादस्त्येवावक्तव्यं स्यादिति कोऽर्थः चित् विवक्षित प्रकारेण स्वद्र व्यादिचतुष्टयेन युगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन च ५। स्यानास्त्येव्यं परद्रव्यादिचतुष्टयेन युगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन च ६ । स्यादस्तिनात्स्यवावक्तव्यं क्रमेण व्यादिचतुष्टयेन युगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन च ७ । पूर्व पञ्चास्तिकाये स्यादस्तीत्यावाक्येन प्रमाणसप्तभङ्गी व्याख्याता अत्र तु स्यादस्त्यैव यदेवकारग्रहणं तन्नयमप्तभङ्गीतामिति भावार्थः । यथेदं सप्तभङ्गीव्याख्यानं शुद्धात्मद्रध्ये दर्शितं तथा यथासम्भवं सर्वपदार्थेषु मिति ॥११५॥ एवं नयप्तभङ्गी व्याख्यानगाथयाष्टमस्थलं गतम् । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण प्रथमा नमस्कारगाथा द्रव्यगुणपर्यायकथनरूपेण द्वितीया, स्वसमयपरतिपादनेन तृतीया, द्रव्यस्य सत्तादिलक्षणत्रय सूचनरूपेण चतुर्थीति, स्वतन्त्र गाथाचतुष्टयेन पीठितदनन्तरमवान्तरसत्ताकथनरूपेण प्रथमा महासत्तारूपेण द्वितीया, यथा द्रव्यं स्वभावसिद्धं तथा Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ । [ पवयणसारो सत्तागणोऽपीति कथनरूपेण तृतीया, उत्पादव्ययध्रौव्यत्वेपि सनैव द्रव्यं भवतीति कथनेन चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन मत्तालक्षणविवरणमुख्यता । तदनन्तरमुत्पादव्ययधौव्य लक्षणविवरणमुख्यत्वेन गाथात्रयं, तदनन्तरं द्रव्यपर्यायकथनेन गुणपर्यायकथनेन च गाथाद्वयं, ततश्च द्रव्यस्यास्तित्वस्थापनारूपेण प्रथमा, पृथक्त्वलक्षणस्यातद्भावाभिधान्यत्वलक्षणस्य च कथनरूपेण द्वितीया, संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदरूपस्यातभावस्य विवरणरूपेण तृतीया, तस्यैव दृढीकरणार्थं चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन सत्ताद्रव्ययोरभेदविषये यक्षिक गुण : मारलाई सताइन्धयोर्गणगुणिकथनेन प्रथमा, गुणपर्यायाणां द्रव्येण सहाभेदक यनेन द्वितीया चेति स्वतन्त्रगाथाद्वयं । तदनन्तरं द्रव्यस्य सदुत्पादासदुत्पादयोः सामान्यव्याख्यानेन विशेषव्याख्यानेन च गाथाचतुष्टयं, ततश्च सप्तभङ्गीकथनेन गाथैका चेति समुदायेन चतुर्विंशतिगाधाभिरभिः स्थलैः सामान्यज्ञेयव्याख्यानमध्ये सामान्यद्रव्यप्ररूपणं समाप्तम् । . अतः परं तत्रैव सामान्यद्रव्यनिर्णयमध्ये सामान्यभेदभावनामुख्यत्वेनैकादशगाथापर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तत्र क्रमेण पञ्चस्थानानि भवन्ति । प्रथमस्तावहार्तिकव्याख्यानाभिप्रायेण सांख्यैकान्तनिराकरणं, अथवा शुद्धनिश्चयनयेन जनमतमेवेति व्याख्यानमुख्यतया एसो त्ति पत्थि कोई इत्यादि सूत्रागार्थका । तदनन्तरं मनुष्यादिपर्याय निश्चयनयेन कर्मफलं भवति, न च शुद्धात्मस्वरूपमिति तस्यैवाधि कारसुत्रस्य विवरणार्थं कम्मं णामसमक्खं इत्यादिपाठक्रमेण गाथा चतुष्टयं, ततः परं रागादिपरिणाम एव द्रव्यकर्मकारणत्वाभावकर्म भण्यत इति परिणाममुख्यत्वेन आदा कम्ममलिमसो इत्यादिसूत्रतयं, तदनन्तरं कर्मफलचेतना कर्मचेतना ज्ञानचेतनेति त्रिविधचेतनाप्रतिपादनरूपेण परिणमति चेदणाए इत्यादिसू त्रद्वयं तदनन्तरं शुद्धात्मभेदभावनाफलं कथयः। सन् कसाकरणं इत्यायेकसूत्रेणोपमहरनि । एवं भेदभावनाधिकारे स्थलपञ्चकेन समुदायपातनिका । उत्थानिका-आगे सब खोटी नयों के एकान्त रूप विवाद को मेटने वाली सप्तभंगी नय का विस्तार करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(दव्वं) द्रव्य (केणधि पज्जायेण) किसी एक पर्याय से (दु) तो (अत्थि ति) अस्ति रूप हो है (य) और किसी एक पर्याय से (णस्थिति य) नास्ति रूप ही है तथा किसी एक पर्याय से (अवत्तव्यमिदि) अवक्तव्य रूप ही (हदि) होता है। (पुणो तदुभयम्) तथा किसी एक पर्याय से अस्ति नास्ति दोनों रूप ही है। (वा अण्णं) अथवा किसी अपेक्षा से अन्य तीन रूप अस्ति एवं अवक्तव्य, नास्ति एवं अवक्तव्य तथा अस्ति नास्ति एवं अवक्तव्य रूप (आविट्ठम्) कहा गया है । यहाँ स्याद्वाद का कथन है, स्यात् का अर्थ कथंचित् है, अर्थात् किसी एक अपेक्षा से, वाद का अर्थ-कथन करना है। वत्तिकार यहां शुद्ध जीव के सम्बन्ध में स्थाबाद का या सप्तभंग का प्रयोग करके बताते हैं । शुद्ध जीव द्रव्य अपने ही स्थद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव के चतुष्टय की अपेक्षा स्थात् अस्तिरूप ही है अर्थात् जीव में अस्तिपना है । शुद्ध गुण तथा पर्यायों का आधारभूत जो शुद्ध आत्मद्रव्य है वह स्वद्रव्य है, लोकाकाश प्रमाण शुद्ध असंख्यात प्रदेश हैं सो स्वक्षेत्र कहा जाता है । वर्तमान शुद्ध पर्याय में परिणमन करता हुआ धर्तमान समय स्वकाल कहा Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २५६ जाता है। शुद्ध चैतन्य यह स्वभाव है। इस तरह स्वद्रव्यादि चतुष्टय को अपेक्षा शुद्ध जीव है अथवा शुद्ध जीव में अस्तित्व स्वभाव है । यह स्यात् अस्ति एव प्रथम भंग है तथा परद्रव्य, पर- क्षेत्र, पर- काल व परभावरूप परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप ही है । अर्थात् शुद्ध जीव में अपने सिवाय सब द्रयों के द्रव्यादि का प्रभाव है । यह "स्यात् नास्ति एवं दूसरा भंग है एक समय में हो जीव द्रव्य किती अपेक्षा से अस्तिरूप हो है व किसी अपेक्षा से नास्ति रूप ही है तथापि वचनों से एक समय में कहा नहीं जा सकता इससे अवक्तव्य हो है । यह तीसरा स्यात् अवक्तव्य एक भंग है । वह परमात्मद्रव्य स्वउमावि चतुष्य की अपेक्षा अस्ति रूप है, पर द्रव्यावि चतुष्टय की अपेक्षा नास्ति रूप है, ऐसे क्रम से कहते हुए अस्तिनास्ति स्वरूप ही है यह चौथा " स्यात् अस्तिनास्ति एव" भंग है । इस तरह प्रश्नोत्तर रूप नय विभाग से जैसे ये चार भंग हुए लंसे तीन भंग और हैं जिनको संयोगी कहते हैं। स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति हो है परन्तु एक समय में स्वaa की अपेक्षा अस्ति और परद्रव्यादि की अपेक्षा नास्ति होने पर मी अवक्तव्य है यह पांचवां भंग है । पर द्रव्यादि की अपेक्षा नास्ति रूप ही है परन्तु एक समय में स्व-परप्रत्यादि को अपेक्षा " अस्तिनास्ति" होने पर भी अववतथ्य है इससे स्यात् नास्ति एवं अवक्तव्य है यह छठा भंग है । क्रम से कहते हुए स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा अस्ति रूप ही है तथा परप्रध्यादिकी अपेक्षा नास्ति रूप हो है तथापि एक समय में अस्तिनास्ति रूप कहा नहीं जा सकता इससे स्यात् अस्तिनास्ति एवं अवक्तव्य रूप है, यह सातवां भंग है । पहले पंचास्तिकाय ग्रन्थ में स्यात् अस्ति इत्यादि प्रमाण वाक्य से प्रमाण सप्तभंगी का व्याख्यान किया गया, यहाँ "स्यात् अस्ति एव' के द्वारा जो "एव" का ग्रहण किया गया है वह नय-सप्तभंगी के बताने के लिये किया गया है। जैसे यहाँ शुद्ध आत्मद्रव्य में सप्तभंगी नयका व्याख्यान किया गया जैसे यथासंभव सब पदार्थों में जान लेना चाहिये ॥ ११५ ॥ नोट – इस तरह सप्तभंगी के व्याख्यान की गाथा के द्वारा आठवां स्थल पूर्ण हुआ । - इस तरह जैसा पहले कह चुके हैं पहले एक नमस्कार गाथा कही, फिर द्रव्य गुण पर्याय को कथन करते हुए दूसरी कही, फिर स्वसमय को दिखलाते हुए तीसरी, फिर द्रव्य के सत्ता आदि तीन लक्षण होते हैं इसकी सूचना करते हुए चौथी, इस तरह स्वतन्त्र गाथा चार से पीठिका कही । इसके पीछे अवान्तर सत्ता को कहते हुए पहली, महासत्ता को कहते दूसरी, जैसा द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है वैसे सत्ता गुण भी है ऐसा कहते हुए तीसरी, उत्पाद व्यय व्यपना होते हुए भी सत्ता ही द्रव्य हैं ऐसा कहते हुए चौथी, इस तरह चार Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] [ पक्ष्यणसारो गाथानों से सत्ता का लक्षण मुख्यता से कहा गया। फिर उत्पाद व्यय ध्रौव्य लक्षण का कहते हुये गाथा तीन, तथा द्रव्य पर्याय को कहते हुए य गुण पर्याय को कहते हुए गाथा दो, फिर द्रःय के अस्तित्व को स्थापन करते हुए पहली, पृथक्त्व लक्षणधारी अतद्भाव नाम के लक्षण को कहते हुये दूसरी, संज्ञा लक्षण प्रयोजनादि भेद रूप अतभाव को कहते हुए तोसरी, उसको ही दृढ़ करने के लिये चौथी, इस तरह गाथा चार से संत्ता ओर द्रव्य में अभेद है, इसको युक्तिपूर्वक कहा गया । इसके पीछे सत्ता गुण है, द्रव्य गुणी है ऐसा कहते हुये पहली. गुण पर्यायों का द्रव्य के साथ अभेद है ऐसा कहते हुए दूसरी ऐसी स्वततंत्र गाथायें दो हैं । फिर द्रव्य के सत् उत्पाद, असत् उत्पाद का सामान्य तथा विशेष व्याख्यान करते हुए गाथार्ये वार हैं। फिर सप्तभंगी को कहते हुए गाथा एक है, इस तरह समुदाय से चौबीस गाथाओं के द्वारा आठ स्थलों से सामान्य ज्ञेय के व्याख्यान में सामान्य द्रव्य का वर्णन पूर्ण हुआ । __ इसके आगे इसी ही सामान्य द्रव्य के निर्णय के मध्य में सामान्य भेद की भावना को मुख्यता करके ग्यारह गाथाओं तक व्याख्यान करते हैं । इसमें कम से पांच स्थान हैं। पहले वार्तिक के व्याख्यान के अभिप्राय से सांख्य के एकांत का खंडन है । अथवा शुद्ध निश्चयनय से फल कर्म रूप है , शुद्धात्मा का स्वरूप नहीं है ऐसी गाथा एक है । फिर इसी अधिकार सूत्र के वर्णन के लिये "कम्म णाम समक्खं" इत्यादि पाठ क्रम से चार गाथाएं इसके आगे रागादि परिणाम ही द्रव्य कर्मों के कारण हैं इसलिये भावकर्म कहे जाते हैं । इस तरह परिणाम की मुख्यता "आदा कम्म मलिमसो" इत्यादि सूत्र दो हैं । फिर कर्मफल चेतना, कर्मचेतना, ज्ञानचेतना इस तरह तीन प्रकार चेतना को कहते हुते "परिणमदि चेदणाए' इत्यादि तीन सूत्र हैं । फिर शुद्धात्मा की भेद भावना का फल कहते हुए "कत्ताकरण" इत्यादि एक सूत्र में उपसंहार है या संकोच है-इस तरह भेद भावना के अधिकार में पांच स्थल में समुदायपातनिका है। अथ निर्धार्यमाणत्वेनोदाहरणीकृतस्य जीवस्य मनुष्यादिपर्यायाणां कियाफलत्वेनान्यत्वं द्योतयति एसो त्ति पस्थि कोई ण णस्थि किरिया सहावणिवत्ता' । किरिया हि णस्थि अफला धम्मो जदि णिप्फलो परमो ॥११६॥ १. सभावणिवत्ता (जा वृ०)। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ २६१ एष इति नास्ति कश्चिन्न नास्ति क्रिया स्वभावनिता। क्रिया हि नास्त्यफला धर्मो यदि निष्फलः परमः ।।११६।। इह हि संसारिणो जीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधिसन्निधिप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविव. तनस्य किया फिल स्वभावनिर्वृत्तवास्ति । ततस्तस्य मनुष्याविपर्यायेषु न कश्चनाप्येष एवेति टोत्कीर्णोऽस्ति, तेषां पूर्वपूर्वोपमर्दप्रवत्तक्रियाफलत्वेनोत्तरोत्तरोपमद्यमानत्वात् फलमभिलष्येत या मोहसंवलनाविलयनात क्रियायाः। क्रिया हि तायतनस्य पूर्वोत्तरदशाविशिष्टचैतन्यपरिणामात्मिका। सा पुनरणोरप्यन्तरसंगतस्य परिणतिरिवात्मनो मोहसंवलितस्य यणुककार्यस्येव मनुष्यादिकार्यस्य निष्पादकत्वात्सफलंय । सैव मोहसंवलनविलयने पुनरणोरुच्छिन्नाण्वन्तरसंगमस्य परिणतिरिव द्वधणुककार्यस्पेव मनुष्यादिकार्यस्यानिष्पादकत्वात् परमद्रव्यस्वभाव भूततया परमधर्माख्या भवत्य फलैव ॥११६॥ भूमिका-अब, जिसका निर्धारण करना है, इसलिये जिसे उदाहरण रूप बनाया गया है ऐसे जीव की मनुष्यादि पर्यायें किया की फल हैं इसलिये उनका अन्यत्य (एक पर्याय का दूसरी पर्याय से भिन्नपना) प्रकाशित करते हैं अन्वयार्थ-[एषः इति कश्चित् मास्ति] यह पर्याय टंकोत्कीणं अविनाशी हैं, (नर नारकादि पर्यायों में) ऐसी कोई पर्याय नहीं है (अर्थात् नर-नारकादि पर्यायों में टंकोत्कीर्ण अविनाशी रहने वाली कोई पर्याय नही है) [स्वभाव-निवृत्ता क्रिया नास्ति न] (संसारी जीब के) रागादि अशुद्ध विभाव रूप स्वभाव से उत्पन्न होने वाली क्रिया न हो, ऐसा भी नहीं है (अर्थात् संसारी जीव के रागादि विभाव रूप स्वभाव से उत्पन्न होने वाली रागद्वेपमय क्रिया अवश्य होती ही है) [यदि] यदि [परमः धर्मः निष्फलः] (वीतरागभावरूप) उत्कृष्ट धर्म (नर-नारकादि उत्पन्न करने रूप) फल से रहित है (वीतराग रूप धर्म नर नारक आदि पर्याय उत्पन्न नहीं कर सकता है) तो ती [क्रिया हि अफला नास्ति] (रागादि परिणति रूप) क्रिया अवश्य ही (नर-नारकादि पर्याय उत्पन्न करने रूप) फल से रहित नहीं है (अर्थात् रागादिरूप क्रिया अवश्य ही नर-नारक आदि पर्याय उत्पन्न करती है)। टीका-यहां (इस विश्व में), अनादि कर्म पुद्गल की उपाधि के सन्निधि प्रत्यय (निमित्तकारण) से होने वाला प्रतिक्षण विपरिणमन जिसके होता रहता है, ऐसे संसारी जीव की क्रिया वारतव में स्वभाव-निष्पन्न ही है, इसलिये उसके मनुष्यादि पर्यायों में से कोई भी पर्याय 'यह हो' है ऐसी टकोत्कीर्ण नहीं है, क्योंकि वे पर्याय, पूर्व-पूर्व पर्यायों के नाश में प्रवर्तमान क्रिया की फलरूप होने से, उत्तर-उत्तर (अगली-अगली) पर्यायों के द्वारा Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] [ पवयणसारो नष्ट होती हैं । मोह के साथ मिलन ( iiii) का नाश न हुआ होने से, क्रिया का फल तो मानना चाहिये । क्रिया चेतन को पूर्वोत्तर दशा से विशिष्ट (विशेषित) चैतन्य परिणाम स्वरूप है । जैसे-दूसरे अणु के साथ युक्त अणु की परिणति द्विअणुक कार्य की निष्पावक है, उसी प्रकार मोह के साथ मिलित आत्मा की परिणति मनुष्यादि कार्य को निष्पादक होने से, यह (क्रिया) फल वाली ही है। जैसे दूसरे अण के साथ का सम्बन्ध जिसका नष्ट हो गया है ऐसे अणु की परिणति द्वि-अणुक कार्य की निष्पादक नहीं है, उसी प्रकार मोह के साथ मिलन का नाश होने पर द्रव्य की परम स्वभावभूत होने से 'परमधर्म' नाम से कही जाने वाली यही क्रिया, मनुष्यादि कार्य की निष्पादक न होने से, अफल ही है। सूचना-इस गाथा में नर-नारक आदि पर्यायों की उत्पत्ति को ही फल माना गया है। चूंकि संसारी जोय के रागादिक भाव विना प्रयत्न के स्वतः उत्पन्न होने रहते हैं, अतः रागादिक भाव को यहां स्वभाव कहा है ।।११६॥ तात्पर्यवृत्ति ___ अथ नर-नारकादिपर्याय: कर्माधीनत्वेन विनश्वरत्वादिति शुद्धनिश्चयनयेन जीवस्वरूपं न भवतीति भेदभावनां कथयति एसो ति पत्थि कोई टङ्कोत्कीर्णज्ञायककस्वभावपरमात्मद्रव्यवत्संसारे मनुष्यादिपर्यायेषु मध्ये सर्वदेवेष एकरूप एव नित्यः कोऽपि नास्ति? तर्हि मनुष्यादिपर्यायनिर्वतिका संसारक्रिया सापि न भविष्यति? णत्थि किरिया न नास्ति क्रिया मिथ्यात्वरागादिपरिणतिस्संसार: कर्मेति यावत् इति पर्यायनामचतुष्टयरूपा क्रियास्त्येव । सा च कथम्भूता? सभावणिवत्ता शुद्धात्मस्वभावाद्विपरीतापि नरनारकादिविभावपर्यायस्वभावेन निवृत्ता। तर्हि किं निष्फला भविष्यति ? किरिया हि णत्थि अफला क्रिया हि नास्त्यफला सा मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपा क्रिया यद्यप्यनन्तसुखादिगुणात्मकमोक्षकार्य प्रति निष्फला तथापि नानादुःखदायकस्वकीयकार्पभूतमनुष्यादिपर्यायनिर्वर्तकत्वात्सफलेति मनप्यादिपर्यायनिष्पत्तिरेवास्याः फलं । कथं ज्ञायत इति चेत् ? "धम्मो जदि णिष्फलो परमो" धर्मों यदि निष्फलः परमः नीरागपरमात्मोपलम्भपरिणतिरूपः आगमभाषया परमयथाख्यात चारित्ररूपो वा योऽसौ परमो धर्मः, स केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादकत्वात्सफलोऽपि नरनारकादिपर्यायकरणभूतं ज्ञानावरणादिकर्मबन्धं नोत्पादयति, ततः कारणानिष्फलः । ततो ज्ञायते नरनारकादिसंसारकार्य मिथ्यात्वरागादिक्रियायाः फलमिति । अथवास्य सूत्रस्य द्वितीयव्याख्यानं क्रियते—यथा शुद्धनयेन रागादिविभावेन न परिणमत्ययं जीवस्तथैवाशुद्धनयेनापि न परिणमतीति यदुक्तं सांख्येन तन्निराकृतं । कथमिति चेत् ? अशुद्धनयेन मिथ्यात्वरागादिविभावपरिणतजीवानां नरनारकादिपर्यायपरिणतिदर्शनादिति । एवं प्रथमस्थले सूत्रगाथा गता ।।११६॥ ----- - ख पुस्तके परिणमति रागादिभावेन जीवः सम्ओिन यदुक्तं' इति वर्तते । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयण सारो ] [ २६३ उत्थानिका--आगे कहते हैं कि नारक आदि पर्याय कर्म के अधीन हैं इससे नाशवंत हैं। इस कारण शुद्ध निश्चय से नारकादि पर्यायें जीब का स्वरूप नहीं हैं, ऐसी भेद भावना को कहते है ___ अन्वय सहित विशेपार्थ-(एसो त्ति णत्थि कोई) कोई भी मनुष्यादि पर्याय ऐसी नहीं है जो नित्य हो (ण सहायणिव्यत्ता किरिया णस्थि) और रागादि विभाव स्वभाव से होने वाली किया न होती हों ऐसा भी नहीं है अर्थात् रागादि रूप क्रिया अवश्य है। (किरिया हि अफला पत्थि) यह रागादि रूप क्रिया निश्चय से धिना फल के नहीं होती है अर्थात् मनुष्यादि पर्याय रूप फल को देती है (जदि परमा धम्मो णिप्फलो) किन्तु उत्कृष्ट वीतरागधर्म मनुष्यादि पर्याय रूप फल देने से रहित है । जैसे टंकोत्कीर्ण (टाकी से उकेरे के समान अमिट) ज्ञाता दृष्टा एक स्वभाव रूप परमात्मा द्रव्य नित्य है वैसे इस संसार में मनुष्य आदि पर्यायों में से कोई भी पर्याय ऐसी नहीं है जो नित्य हो तब क्या मनुष्यादि पर्यायों को उत्पन्न करने वाली संसार की क्रिया भी नहीं है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि मिथ्यादर्शन व रागद्वेषादिकी परिणति रूप सांसारिक क्रिया न होती हों, ऐसा नहीं है । ये मनुष्यादि चारों गतियां क्योंकि कर्म (कार्य) हैं इसलिये इनको उत्पन्न करने वाली रागादि क्रिया अवश्य है। यह क्रिया शुद्धात्मा के स्वभाव से विपरीत होने से नर नारकावि विभाव पर्याय के स्वभाव से उत्पन्न हुई है। तब क्या यह रागादि क्रिया निष्फल रहेगी ? मिथ्यात्व रागादि में परिणतिरूप क्रिया यद्यपि अनन्त सुखादि गुणमयी मोक्ष के कार्य को पैदा करने के लिये निष्फल है तथापि नाना प्रकार के दुःखों को देने वाली स्व-कार्यभूत मनुष्यादि पर्याय को पैदा करने के कारण फल सहित है, निष्फल नहीं है-इस रागादि क्रिया का फल मनुष्यादि पर्याय को उत्पन्न करना है। यह बात कैसे मालूम होती है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि यद्यपि वीतराग परमात्मा की प्राप्ति में परिणमन करने वाली क्रिया, जिसको आगम की भाषा में परम यथाख्यातचारित्र रूप परमधर्म कहते हैं, केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्टय की प्रगटता रूप कार्य-समयसार को उत्पन्न करने के कारण फल सहित है तथापि नर नारक आदि पर्यायों के कारणरूप ज्ञानावरणादि कर्मबंध को नहीं पैदा करती है इसलिये निष्फल है। इससे यह ज्ञात होता है कि नरनारक आवि सांसारिक कार्य मिथ्यात्व रागादि किया के फल हैं। अथवा इस सूत्र का दूसरा व्याख्यान किया जाता है जैसे शुद्ध निश्चयनय से यह जीव रागादि विभाव-भावों से नहीं परिणमन करता है तैसे ही अशुद्ध नय से भी नहीं परिणमन Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] [ पबयणसारो करता है ऐसा जो सांख्यमत कहता है उसका निषेध इस गाथा में है, क्योंकि अशुद्धनय से जो जीव मिथ्यात्व व रागावि विभावों में परिणमन करते हैं उन्हीं को नर नारक आदि पर्यायों की प्राप्ति है, ऐसा देखा जाता है। अथ मनुष्यादिपर्यायाणां जीवस्य क्रियाफलत्वं व्यनक्ति कम्मं णामसमक्खं सभावमध' अप्पणो सहावेण । अभिभूयं परं तिरियं रइयं वा सुरं कुणदि ॥११७॥ कर्म नामसमाख्यं स्वभावमथात्मन: स्वभावेन । ___ अभिभूय नरं तिर्यंचं नैरयिक वा सुरं करोति ।।११७।। क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वाकर्म, तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म, तत्कार्यभूता मनुष्यादिपर्याया जीवस्य क्रियाया मूलकारणभूतायाः प्रवृत्तत्वात कियाफलमेव स्युः । क्रियाऽभावे पुद्गलानां फर्मत्वाभावात्तत्कार्यभूतानां तेषामभावात् । अथ कथं ते कर्मणः कार्यभावमायान्ति, कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणत्वात् प्रदीपयत् । तथाहि—यथा खलु ज्योति-स्वभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाणः प्रदीपो ज्योतिःकार्य तथा कर्मस्वभावेन जीयस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्यायाः कर्मकार्यम् ॥११७।। भूमिका- अब, जीव के, मनुष्यादि पर्यायों का क्रिया का फलपना होना व्यक्त करते हैं अन्ययार्थ— [अथ] अब, [नामसमाख्यं कर्म] 'नाम' संज्ञावाला कर्म [स्वभावेन अपने स्वभाव से [आत्मनः स्वभाव अभिभूय] जीव के स्वभाव का पराभव करके, [नरं तिर्यञ्च नैरयिक वा सुरं) मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देव (इन पर्यायों) को [करोति] करता है। टीका-क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से कर्म है, (अर्थात् आत्मा किया को प्राप्त करता है इसलिये वास्तव में क्रिया ही आत्मा का कर्म है।) उसके निमित्त से परिणमन (द्रव्यकर्मरूप) को प्राप्त होता हुआ पुद्गल भी कर्म है । उस (पुद्गलकर्म) की कार्यभूत मनुष्यावि पर्याय, मूलकारणभूत जीव की क्रिया से प्रवर्तमान होने से, क्रियाफल ही हैं, क्योंकि क्रिया के अभाव में पुद्गलों के कर्मत्व का अभाव होने से, उस (पुद्गल कर्म) को कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायों का अभाव होता है । यहां, वे मनुष्यादि पर्याय कर्म के कार्य कैसे हैं ? (सो कहते हैं) क्योंकि वे (पर्याय) कर्मस्वभाव के द्वारा, जीव के स्वभाव १. अह (ज वृ०)। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवणसारो ] [ २६५ का पराभव करके, की जाती हैं, दीपक की भांति । यथा ज्योति (लो) के स्वभाव के द्वारा किया जाने वाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसी स्वभाव का पराभव करके जाने वाली मनुष्यादि तेल के स्वभाव का पराभव करके प्रकार कर्म स्वभाव के द्वारा जीव के पर्यायें कर्मके कार्य हैं ॥११७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ मनुष्यादिपर्याय: कर्मजनिता इति विशेषेण व्यक्तीकरोति- कम्मं कर्मरहितपरमात्मनां विलक्षणं कर्म कर्तृ कि विशिष्टं ? णामसमक्खं निर्नामनिर्गोत्रमुक्तामनो विपरीतं नामेति सम्यगाख्या संज्ञा यस्य तद्भवति नामसमाख्यं नामकर्मेत्यर्थः । सभावं शुद्धबुद्धेकपरमात्मस्वभावं अह् अथ अप्पणो सहावेण आत्मीयेन जानावरणादिस्वकीय स्वभावेन करणभूतेन अभिभूय तिरस्कृत्य प्रच्छाद्य तं पूर्वोक्तमात्मस्वभावं । पश्चाति करोति ? परं तिरियं रइयं वा सुरं कुणदि नरतियग्नारकसुररूपं करोतीति । अथमत्रार्थ: यथास्तिः कर्ता तैलस्वभावं कर्म्मतापन्नमभिभूय तिरस्कृत्य वर्त्याधारेण दीपशिखारूपेण परिणमयति, तथा कर्माग्निः कर्ता तैलस्थानीयं शुद्धात्मस्वभावं तिरस्कृत्य वर्तिस्थानीयशरीराधारेण दीपशिखा स्थानीयनरनारकादिपर्यायरूपेण परिणमयति । ततो ज्ञायते मनुष्यादिपर्यायाः निश्चयनयेन कर्मजनिता इति ॥ ११७ ॥ उत्थानिका -- आगे इसी सूत्र का विशेष कहते हुए बताते हैं कि ये मनुष्य आदि पर्यायें कर्मों के द्वारा पैदा होती हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अह ) तथा ( णामसमवखं कम्म ) नाम नामका कर्म ( सहायेण) अपने कर्म स्वभाव से ( अप्पणी सभावं ) आत्मा के स्वभाव को ( अभिभूय ) ढककर ( परं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि) उसे मनुष्य, तिर्यंच, नारकी या देवरूप कर देता है । कर्मों से रहित परमात्मा से विलक्षण ऐसा कर्म जिसको भले प्रकार नाम संज्ञा की गई है, अर्थात् नाम कर्म जो नामरहित, गोत्र-रहित परमात्मा से विपरीत है, अपने ही सहभावीज्ञानावरणादि कर्मो के स्वभाव से शुद्धबुद्ध एक परमात्मस्वभाव को आच्छादन कर उसे नर, नारक, तियंच या देवरूप कर देता है। यहां यह विशेष अर्थ है-जैसे अग्नि कर्ता होकर तल के स्वभाव को तिरस्कार करके बत्ती के आधार से उस तेल को दीपक की शिखारूप में परिणमन कर देती है तंसे कर्मरूपी अग्नि कर्ता होकर तैल के स्थान में शुद्ध आत्मा के स्वभाव को तिरस्कार करके बत्ती के समान शरीर के आधार से उसे दीपक को शिखा के समान नर, नारकादि पर्यायों के रूप से परिणमन कर देती है। इससे जाना जाता है कि मनुष्य आदि पर्यायें निश्चय से कर्म-जनित हैं ॥ ११७ ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] [ पवयणसारो अथ कुत्तो मनुष्यादिपर्यायेषु जीवस्य स्वभावाभिभवो भवतीति निर्धारयतिणरणारयतिरियसुरा जीवा खलु णामकम्मणिवत्ता । परिणममाणास कम्माणि ॥ ११८ ॥ ण हि ते लद्धसहावा नरनारकतिर्यक्क्षुराको खलु नामकर्मनिवृपाः । न हि ते लब्धस्वभावाः परिणममानाः स्वकर्माणि ।। ११८ ।। अमी मनुष्यादयः पर्याया नामकर्मनिर्वृत्ताः सन्ति तावत् । न पुनरेतावतापि तत्र जीवस्य स्वभावाभिमथोऽस्ति । यथा कनकबद्धमाणिक्य कङ्कणेषु माणिक्यस्य । यत्तत्र नैव जीवः स्वभावमुपलभते तत् स्वकर्मपरिणमनात् पयःपुरवत् । यथा खलु पयःपुरः प्रदेशस्वादाभ्या पिचुमन्दचन्दनादिवनराजों परिणमन्न द्रव्यत्वस्वादुत्वस्वभावमुपलभते तथात्मापि प्रदेशभावाभ्यां कर्मपरिणमनान्ना मूर्तत्व निरुपरागविशुद्धिमत्वस्वभावमुपलभते ॥ ११८ ॥ भूमिका- अब यह निर्णय करते हैं कि मनुष्यादि पर्यायों में जीव के स्वभाव का पराभव किस कारण से होता है ? अन्वयार्थ - [ नरनारकतिर्यक्सुराः जीवाः ] मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देवरूप जीव [ख] वास्तव में [ नामकर्म- निर्वृत्ताः] नामकर्म से निष्पन्न हैं । [ हि । वास्तव में [ते] वे जीव [स्वकर्माणि ] अपने अपने उपार्जित कर्मरूप [ परिणममानाः ] परिणत होते हुए [ न लब्धस्वभाव: ] ( चिदानन्द) स्वभाव को प्राप्त नहीं होते । टीका - प्रथम तो यह मनुष्यादि पर्यायें नामकर्म से निष्पन्न हैं, किन्तु इतने से भी यहां (उन पर्यायों में) जीव के स्वभाव का पराभव नहीं है, जैसे- सुधर्ण में जड़े हुये माणिक वाले कंकणों में माणिक के स्वभाव का पराभव नहीं होता। जो वहां (उन पर्यायों में ) ओव स्वभाव को प्राप्त नहीं करता ( अनुभव नहीं करता), सो स्वकर्म रूप परिणमित होने से है, पानी के पूर ( बाद) को भांति । जैसे -- पानी का पूर प्रदेश से और स्वाद से निम्ब-चन्दनादि वनराजिरूप ( नीम, चन्दन इत्यादि वृक्षों की लम्बी पंक्ति रूप ) परिणमित होता हुआ ( अपने ) द्रवत्व ( तरलता, बहना) और स्वादुत्व रूप ( स्वादिष्टपना ) स्वभाव को प्राप्त नहीं करता, उसी प्रकार आत्मा भी प्रदेश से और भाव से स्वकर्म रूप परिणमित होने से ( अपने ) अमूर्तत्व और निरुपराग -विशुद्धिमत्व रूप स्वभाव को प्राप्त नहीं करता ॥ ११८ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ नरनारकादिपर्यायेषु कथं जीवस्य स्वभावाभिभवो जातस्तत्र किं जीवाभाव इति प्रश्ने ? प्रत्युत्तरं ददाति - Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ २६७ रणारयतिरियसुरा जीवा नरनारकतिर्यक् सुरनामानो जीवाः सन्ति तावत् खलु स्फुटं । कथम्भूताः ? णामकम्मणिव्वत्ता नरनारकादिस्वकीयस्वकीयनामकर्मणा निवृत्ताः ण हि ते लद्धसहावा किन्तु यथा माणिक्यवद्धसुवर्ण कङ्कणेषु माणिक्यस्य हि मुख्यता नास्ति, तथा ते जीवाश्चिदानन्दैकशुद्धात्मस्वभावमलभमानाः सन्तो लब्धस्वभावा न भवन्ति तेन कारणेन स्वभावाभिभवो भव्यते, न च जीवाभावः । कथम्भूताः सन्तो लब्धस्वभावा न भवन्ति ? परिणममाणा सम्माणि स्वकीयोदयागतकर्माणि सुखदुःखरूपेण परिणममाना इति । अयमत्रार्थः - यथा वृक्षसेचनविषये जलप्रवाहश्चन्दनादिवनराजिरूपेण परिणतः सन्स्वकीयकोमलशीतलनिर्मलादिस्वभावं न लभते तथायं जीवोऽपि वृक्षस्थानीय कर्मोदयपरिणतः सम्परमाह्लादैकलक्षण सुखामृतास्वादनैर्मल्यादिस्वकीयगुणसमुहं न लभत इति ॥ ११८ ॥ उत्थानका — आगे शिष्य ने प्रश्न कियाकि नरनारकादि पर्यायों में किस तरह जीव के स्वभाव का तिरस्कार हुआ है। क्या जीव का अभाव हो गया है ? इसका समाधान आचार्य करते हैं से अन्वय सहित विशेषार्थ - ( भरणारयतिरियसुरा) मनुष्य, नारकी, तिथंच और देव पर्याय में तिष्ठने वाले ( जीवा ) जीव ( खलु ) प्रगटपने ( णाम कम्मणिवत्ता ) नामकर्म द्वारा उन गतियों में रचे ( जीवा ) जीव की ( णरणारयतिरियसुरा) मनुष्य, नारकी, तियंच और देव पर्यायें ( खलु) प्रगटपते ( णाम कम्मणिव्वत्ता) नामकर्म द्वारा रची हैं। इस कारण (ते) वे जीव ( सम्माणि परिणममाणा ) अपने-अपने कर्मों के उदय में परिणमन करते हुए (लद्धसहावा ण हि ) अपने स्वभाव को निश्चय नर, नारक, तिर्यंच, देव इन चार प्रगट गति रूप होता है, नर नारकादि नामकर्म के द्वारा रखी गई हैं । ये अपने-अपने उदय प्राप्त कर्मों के अनुसार सुख तथा दुःख को भोगते हुए अपने चिदानन्दमयी एक शुद्ध आत्म-स्वभाव को नहीं पाते हैं। जैसे माणिक जड़ित सुवर्ण-कंकण में माणिक की मुख्यता नहीं है, उसी तरह इन नर नारकादि पर्यायों में जीव-स्वभाव का तिरस्कार है । इससे जीव का अभाव नहीं हो जाता है । इसका यह भाव है जैसे जल का प्रवाह वृक्षों के सोचने में परिणमन करता हुआ चन्दन व नीम आदि बन के वृक्षों में जाकर उन रूप मीठा, कडुवा, सुगन्धित, दुर्गंधित होता हुआ अपने जल के कोमल, शीतल, निर्मल स्वभाव को नहीं रखता है, इसी तरह यह जीव भी वृक्षों के स्थान में कर्मों के उदय के अनुसार परिणमन करता हुआ परमानन्द रूप एक लक्षणमय सुखामृत का स्वाद तथा निर्मलता आदि अपने निज गुणों को नहीं प्राप्त करता है ॥ ११८ ॥ नहीं प्राप्त होते हैं । जीव क्योंकि ये गतियां अपने-अपने Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो अथ जीवस्य द्रव्यत्वेनावस्थितत्वेऽपि पर्यायरनवस्थितत्वे द्योतयति जायदि णेव ण णस्सदि खणभंगसमुभवे जणे कोई। जो हि भवो सो विलओ संभवविलय त्ति' ते गाणा ||११६॥ जायते नैव न नश्यति क्षणभङ्गसमुद्भवे जने कश्चित् । यो हि भवः स विलयः संभवविलयाविति तो नाना ।।११।। इह तावरन कश्चिज्जायते न म्रियते च । अथ च मनुस्यदेवतियङ्नारकात्मको जीवलोकः प्रतिक्षणपरिणमित्वादुत्संगितक्षणभंगोत्पावः । न च विप्रतिषिद्धमेतत्, संभवविलययोरेकत्वनानात्वाभ्याम् । यदा खलु भंगोत्पादयोरेकत्वं तदा पूर्वपक्षः, यदा तु नानात्वं तदोत्तरः । तथाहि-यथा य एव घटस्तदेव कुण्डमित्युक्ते घटकुण्डस्वरूपयोरेकत्वासंभवातदुभपाधारभूता मृत्तिका संभवति, तथा य एव संभवः स एव विलय इत्युक्ते संभवविलस्थस्वरूपयोरेकत्वासंभवात्तदुभयाधारभूतं प्रौव्यं संभवति । ततो देवादिपर्याये संभवति मनुव्याविपर्याये विलोयमाने च य एव संभवः स एवं विलय इति कृत्वा तदुभयाधारभूत धौव्यवज्जोवद्रव्यं संभाव्यत एव । ततः सर्वदा द्रव्यत्वेन जीवष्टकोत्कीर्णोऽवतिष्ठते । अपि च यथाऽन्यो घटोऽन्यत्कुण्डमित्युक्ते तदुभयाधारभूताया मृत्तिकाया अन्यत्वासंभवात् घटकुण्डस्वरूपे संभवतः, तथान्यः संभवोऽन्यो विलय इत्यक्ते तदुभयाधारभतस्य प्रौव्यस्यान्यत्वासंभवात्संभवक्लियस्वरूपे संभवतः। ततो देवाविपर्याये संमयति मनुष्याविपर्याय बिलीयमाने चान्यः संभवोऽन्यो विलय इति कृत्वा संभव विलयवन्तौ देवादिमनुष्पादिपर्यायौ संभाव्यते । ततः प्रतिक्षणं पर्यायीयोऽनवस्थितः ॥११॥ भूमिका-अब, जीव के, द्रव्य रूप से अवस्थितता (प्रोग्य वह का वह हो) होने पर भी पर्यायों से अनवस्थितता । (अत्रौव्यपना, भिन्न-भिन्नपना, नानापना) प्रकाशते हैं अन्वयार्थ-[क्षण-भङ्गसमुद्भवे जने] प्रतिक्षण उत्पाद और विनाश वाले जीव लोक में [कश्चित् ] कोई (भी जीव) [न एव जायते] (द्रव्यपने से) न उत्पन्न ही होता है, और [न नश्यति] न नष्ट होता है, क्योंकि) [हि निश्चय से [यः भवः सः विलयः] जी (जीब) उत्पाद रूप है वही विनाशरूप है, (किन्तु) [संभवविलयी इति तो नाना] उत्पाद तथा विनाश, ऐसी वे दोनों (पर्याय ) नाना (भिन्न-भिन्न, भेद रूप) हैं। टीका—प्रथम तो यहां न कोई (जीव) जन्म लेता है और न मरता है, (अर्थात इस लोक में कोई जीव न तो उत्पन्त होता है और न नाश को प्राप्त होता है), (ऐसा १. संभव विलो त्ति (ज० वृ०)। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] होने पर भी) मनुष्य-देव-तियंच-नारकात्मक जीव लोक, प्रतिक्षण परिणामी होने से, क्षणक्षण में होने वाले विनाश और उत्पाद से भी सहित हैं। यह विरोध को (भी) प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उद्भव और विलय का एकत्व और अनेकत्व है। जब उद्भव और विलय का एकत्व है तब पूर्वपक्ष है और जब अनेकत्व है तब उत्तरपक्ष है। (अर्थात्-जब उत्पाद और विनाश के एकत्व की अपेक्षा ली जाय तब यह पक्ष फलित होता है कि-'न तो जीव उत्पन्न होता है और मष्ट होता है और जन्म तस्माद र विनाश के अनेकत्व की अपेक्षा ली जाय तब प्रतिक्षण होने वाले विनाश और उत्पाद का पक्ष फलित होता है।) वह इस प्रकार है-जैसे-'जो घड़ा है वही कूडा है' ऐसा कहे जाने पर, घड़े और कूडे के स्वरूप का एकत्व असम्भव होने से, उन दोनों की आधारभूत मिट्टी प्रगट होती है, उसी प्रकार 'जो उत्पाद है वही विनाश है' ऐसा कहे जाने पर, उत्पाद और विनाश के स्वरूप का एकत्व असम्भव होने से उन दोनों का आधारभूत धौध्य प्रगट होता है, इसलिये देवादि पर्याय के उत्पन्न होने और मनुष्यादि पर्याय के नष्ट होने पर, 'जो उत्पाद है वही विलय है' ऐसा मानने से (इस अपेक्षा से) उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्य वाला जीवद्रव्य प्रगट होता ही है (लक्ष्य में आता है)। इसलिये सर्वदा द्रध्यपने से जीव टंकोत्कीर्ण रहता है और फिर, जैसे—'अन्य घड़ा है और अन्य कुंडा है। ऐसा कहे जाने पर, उन दोनों की आधारभूत मिट्टी का अन्यत्व (भिन्न-भिन्नपना) असंभव होने के कारण घड़े का और कूडे का (दोनों का मिन्न-भिन्न) स्वरूप प्रगट होता है, उस ही प्रकार 'अन्य उत्पाद है और अन्य व्यय है' ऐसा कहा जाने पर, उन दोनों के आधारभूत ध्रौव्य का अन्यत्व असंभव होने से, उत्पाद और ध्यय का स्वरूप प्रगट होता है, इसलिये देवादि पर्याय के उत्पन्न होने पर और मनुष्यादि पर्याय के नष्ट होने पर अन्य उत्पाद है और 'अन्य व्यय है' ऐसा मानने से (इस अपेक्षा से), उत्पाद और व्यय वाली देवादिपर्याय और मनुष्याविपर्याय प्रगट होती है (लक्ष्य में आती है)। इसलिये जीव प्रतिक्षण पर्याय से अनवस्थित (भेवरूप) है ॥११॥ तात्पर्यवृत्ति अथ जीवस्य द्रष्येण नित्यत्वेऽपि पर्यायेण विनश्वरत्वं दर्शयति जायदि व ण णस्सदि जायते नव न नश्यति द्रव्याथिक्रनयेन । क्व ? खुणभंगसमुरुभवे अणे कोई क्षणभङ्गसमुद्भवे जने कोऽपि । क्षणं क्षणं प्रति भङ्गसमन्वो यत्र सम्भवति क्षणभङ्गसमुद्भवस्तस्मिन्क्षणभङ्गसमुद्भबे बिनश्वरे द्रध्याथिकनयेन जने लोके जगति कश्चिदपि, तस्मान्नैव जायते न चोत्पद्यत इति हेतु बदति जो हि भयो सो विलओ द्रव्याथिकनयेन यो हि भवस्स एव विलयो यतः आदतथाहि-मुक्तात्मनों य एव सकलबिमलकेवलज्ञानादिरूपेण मोक्षपयायेण भव उत्पाद.स Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयण सारों एव निश्चयरत्नत्रयात्मकनिश्चयमोक्षमार्गपर्यायेण विलयो विनाशस्तौ च मोक्षपर्यायमोक्षमार्गपर्यायौं कार्यकारणरूपेण भिन्नौ, तदुभयाधारभूतं यत्परमात्मद्रव्यं तदेव मृत्पिण्डघटाधारभूतमृत्तिकाद्रव्यवत् मनुष्यपर्यायदेवपर्यायाधारभूतसंसारिजीवद्रव्यवहा । क्षणभंगसमुद्भवे हेतुः कथ्यते । संभवविलओ त्ति ते णाणा सम्भवविलयौ द्वाविति तो नाना भित्री यतः कारणात्ततः पर्यायाथिकनयेन भंगोत्पादौ । तयाहि—य एव पूर्वोक्तमोक्षपर्यायस्योत्पादो मोक्षमार्गपर्यायस्य विनाशस्तावेव भिन्नौ न च तदाधारभूतपरमात्मद्रव्यमिति । ततो ज्ञायते द्रव्याथिकनयेन नित्यत्वऽपि पर्यायरूपेण विनाशोऽस्तीति ।।११।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि द्रव्य की अपेक्षा जीवन नित्य है तथापि पर्याय की अपेक्षा विनाशीक या अनित्य है अन्वय सहित विशेषार्थ--(खणभंगसमुभवे जणे) पर्यायाथिकनय से क्षण-क्षण में नाश व उत्पन्न होता है ऐसे लोक में (कोई णेच जायदि ण णस्सदि) द्रव्याथिकनय से कोई जीव न तो उत्पन्न होता है और न नाश होता है। कारण (जो हि भवोसो विलओ) जो निश्चय से उत्पत्ति रूप है वही नाश रूप है। (ते संमय बिलयत्ति णाणा) वे उत्पाद और नाश भिन्न-मिन्न है। क्षण-क्षण में जहां पर्यायाथिकनय से अवस्था का नाश व उत्पाद होता है ऐसे इस लोक में कोई भी जीव द्रव्याथिकनय से न नया पैदा होता है, न पुराना नाश होता है । इसका कारण यह है कि पर्याय की अपेक्षा जो निश्चय से उपजे है वही नाश होय है । जैसे मुक्त आत्माओं का जो ही सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञानादि रूप मोक्ष की अवस्था से उत्पन्न होना है सो ही निश्चयरत्नत्रयमयी निश्चयमोक्षमार्ग को पर्याय की अपेक्षा बिनाश होना है। वे मोक्ष पर्याय और मोक्षमार्ग पर्याय यद्यपि कार्य और कारण रूप से परस्पर भिन्न-भिन्न हैं तथापि इन पर्यायों का आधार रूप जो परमात्मा द्रव्य है सो वही है, अन्य नहीं है। अथवा जैसे मिट्टी के पिण्ड के नाश होते हुए और घटके बनते हुए इन दोनों को आधारभूत मिट्टी वही है । अथवा मनुष्य पर्याय को नष्ट होकर देव पर्याय को पाते हुए इन दोनों का आधार रूप संसारी जीव द्रव्य वही है। पर्यायार्थिक नय से विचार करें तो वे उत्पाद और व्यय परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। जैसे पहली कही हुई बात में जो कोई मोक्ष अवस्था का उत्पाद है तथा मोक्षमार्ग की पर्याय का नाश है ये वोनों ही एक नहीं हैं किन्तु भिन्न-भिन्न हैं । यद्यपि इन दोनों का आधार रूप परमात्मद्रव्य भिन्न नहीं है अर्थात् यही एक है इससे यह जाना जाता है कि द्रव्याथिकनय से द्रष्य में नित्यपना होते हुए भी पर्याय की अपेक्षा नाश है ॥११६॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 अथ जीवस्यानवस्थितत्वहेतुमुद्योतयति तम्हा दु त्थि कोई सहावसमबढिदो त्ति संसारे । संसारो पुण किरिया संसरमाणस्स दव्वस्स' ॥१२०॥ तस्मात्तु नास्ति कश्चित् स्वभावसमवस्थित इति संसारे । संसारः पुनः क्रिया संसरतो द्रब्यस्य ॥१०॥ यतः खलु जीयो द्रव्यत्येनावस्थितोऽपि पर्याय रनवस्थितः, ततः प्रतीयते न कश्चिदपि संसारे स्वभावेनावस्थित इति । यच्चानानवस्थितत्वं तत्र संसार एब हेतुः। तस्य मनुष्यादिपर्यायात्मकत्वात् स्वरूपेणैव तथाविधत्वात् । अथ यस्तु परिणममानस्य व्रष्यस्य पूर्वोत्तरदशापरित्यागोपादात्मकः क्रियास्यः परिणामस्तत्संसारस्य स्वरूपम् ॥१२॥ भूमिका—अब, जीव को अनवस्थितता का हेतु प्रगट करते हैं अन्वयार्थ-[तस्मात् तु] इसलिये [संसारे] संसार में [स्वभावसमवस्थितः इति] स्वभाव से अवस्थित ऐसी [कश्चित् नास्ति। कोई (वस्तु) नहीं है, (अर्थात् संसार में किसी भी वस्तु का स्वभाव केवल एक रूप रहना नहीं है) [पुनः ] और (जो) [संसरतो द्रव्यस्य] (चारों गतियों में) भ्रमण करने वाले (जीव) द्रव्य की [क्रिया] (अन्य अवस्था रूप) परिणति है, (वही) [संसार:] संसार है। टीका-क्योंकि वास्तव में जीव द्रव्यत्व से अवस्थित होने पर भी पर्यायों से अनवस्थित है, इससे यह प्रतीत होता है कि संसार में कोई भी (वस्तु) स्वभाव से अवस्थित नहीं है (अर्थात् किसी का स्वभाव केवल अविचल-एकरूप रहना नहीं हैं) और यहां (इस संसार में) जो अनवस्थितता है उसमें संसार ही हेतु है, क्योंकि उसके (संसार के) मनुष्यादि पर्यायात्मकपना है, कारण कि वह संसार रूप से हो वैसा (अनस्थित) है । (अर्थात् संसार का स्वरूप ही ऐसा है।) अब, परिणमन करते हुये द्रव्य का जो पूर्व दशा का परित्याग तथा उत्तर दशा का ग्रहण रूप क्रिया नामक परिणाम है, वह ही संसार का स्वरूप है ॥१२०॥ तात्पर्यवत्ति अथ विनश्वरत्वे कारणमपन्यस्थति, अथवा प्रथमस्थलेऽधिकारसत्रेण मनुष्यादिपर्यायाणां कर्मजनितत्वेन यद्विनश्वरत्वं सुचितं तदेव गाथात्रयेण विशेषेण व्याख्यातमिदानीं तस्योपसंहारमाह तम्हा दु णस्थि कोई सहावसमबढिदो ति तस्मानास्ति कश्चित्स्वभावसमवस्थित इति । यस्मात्पूर्वोक्तप्रकारेण मनुष्यादिपर्यायाणां विनश्वरत्वव्याख्यानं कृतं तस्मादेव ज्ञायते परमानन्दैकलक्षणपरमचैतन्यचमत्कारपरिणतशुद्धात्मस्वभाव बदस्थितो नित्यः कोऽपि नास्ति। क्व? संसारे १. जीवस्स (ज० वृ०)। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो निस्संसारशुजात्मनो विपरीते संसारे। संसारस्वरूपं कथयति... संसारो पुण किरिया संसारः पुनः क्रिया निष्क्रियनिर्विकल्पशुद्धात्मपरिणतेविसदृशा मनुष्यादिविभावपर्यायपरिणतिरूपा क्रिया संसारस्वरूपं । सा च कस्य भवति ? संसरमाणस्स जीवस्स विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावमुक्तात्मनो विलक्षणस्य संसरतः परिभ्रमतः संसारिजीवस्येति। ततः स्थितं मनुष्यादिपर्यायात्मकः संसार एव विनश्वरत्वे कारणमिति ॥१२०॥ एवं शुद्धात्मनो भिन्नानां कर्मजनितमनुष्यादिपर्यायाणां विनश्वरत्व कथनमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन द्वितीयस्थलं गतम्। उत्थानिका-आग इस विनाश स्वरूप जगत् के लिये कारण क्या है ? उसको संक्षेप में कहते हैं अथवा पहले स्थल में अधिकार सुत्र से जो यह सूचित किया था कि मनुष्यादि पर्यायें कर्मो के उदय से हुई है इससे बिनाशीक हैं इसी ही बात को तीन गाथाओं से विशेष करके व्याख्यान किया गया अब उसको सकोचते हुए कहते हैं ___ अन्वय सहित विशेपार्थ- (तम्हा दु) इसी कारण से (संसारे) इस संसार में (कोई सहावसमदिदो ति जस्थि) कोई वस्तु स्वभाव से स्थिर नहीं है । (पुण) तथा (संसरमाणस्स जीवस्स) भ्रमण करते हुए जीव द्रव्य की (क्रिया) किया (संसारो) संसार है। जैसा पहले कह चुके हैं कि मनुष्यादि पर्याय नाशवन्त है इसी कारण से यह बात जानी जाती है कि जैसे परमानन्दमयी एक लक्षणधारी परम चैतन्य के चमत्काररूप परिणत शद्धात्म स्वभाव स्थिर है, वैसा कोई भी जीव पदार्थ इस संसार-रहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में अवस्थित नित्य नहीं है। तथा विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव के धारी मुक्तात्मा से विलक्षण संसार में भ्रमण करते हुये इस संसारी जीव की जो किया रहित और विकल्प रहित शुद्धात्मा की परिणति से विरुद्ध मनुष्यादि रूप विभावपर्याय में परिणमन रूप क्रिया है सो ही संसार का स्वरूप है । इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्यादि पर्यायस्वरूप संसार ही जगत् के नाश में कारण है ॥१२०॥ इस तरह शुद्धात्मा से भिन्न कर्मों से उत्पन्न मनुष्यादि पर्याय नाशवंत हैं इस कथन की मुख्यता से चार गाथाओं के द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ। अथ परिणामात्म के संसारे कुतः पुद्गलश्लेषो येन तस्य मनुष्यादिपर्यायात्मकत्वमित्यत्र समाधानमुपवर्णयप्ति आदा कम्ममलिमसो परिणामं लहदि कम्मसंजुत्तं । तत्तो सिलिसदि कम्मं तम्हा कम्मं दु' परिणामो ॥१२१॥ आत्मा कर्ममलीमसः परिणामं लभते कर्मसंयुक्तम् । लतः प्रिनयति कर्म तस्मात् कर्म तु परिणामः ॥१२१।। १. तु (ज० वृ०) Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३०३ यो हि नाम संसारनामायमात्मनस्तथाविधः परिणामः स एव द्रव्यकर्मश्लेषहेतुः । अथ तथाविधपरिणामस्यापि को हेतु:, द्रव्यकर्म हेतुः तस्य द्रव्यकर्मसंयुक्तश्वेनेवोपलम्भात् । एवं सतीतरेतराश्रयदोषः न हि । अनादिप्रसिद्धद्रव्य कर्माभिसंबद्धस्यात्मनः प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात् एवं कार्यकारणभूतनवपुराणद्रव्य कर्मत्वादात्मनस्तथाविधपरिणमो द्रव्यमेव । तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्द्रव्य कर्मकर्ता व्युपचारात् ॥ १२१ ॥ भूमिका -- अब, परिणमनस्वरूप संसार में किस कारण से पुद्गल का सम्बन्ध होता है कि जिससे उसके ( संसार के ) मनुष्यादि पर्यात्मकपना होता है ? इसका यहां समाधान करते हैं अन्वयार्थ --- [ कर्ममलीमसः आत्मा ] कर्म से मलिन आत्मा [ कर्म संयुक्तं परिणाम ] कर्मसंयुक्त परिणाम को (द्रव्यकर्म के संयोग से होने वाले अशुद्ध परिणाम को ) [ लभते ] प्राप्त करता है, [ततः ] उससे [ कर्म श्लिष्यति ] कर्म चिपक जाता है ( द्रव्य कर्म का बंध होता है), [तस्मात् तु | इसलिये [ परिणामः कर्म ] परिणाम कर्म है ! टीका - संसार' नामक जो यह आत्मा का तथाविध ( उस प्रकार का परिणाम है। परिणाम का हेतु क्योंकि द्रव्यकर्मी ' वही द्रव्यकर्म के चिपकने का ( बन्ध का ) हेतु है । कौन है ? ( इसके उत्तर में कहते हैं कि ) द्रव्यकर्म संयुक्तता से ही वह (अशुद्ध परिणाम ) कर्म है । अब, उस प्रकार के उसका हेतु है, शंका- ऐसा होने से इतरेतराश्रयदोष' आयगा, क्योंकि अनाविसिद्ध द्रव्यकर्म के साथ सम्बद्ध आत्माका जो पूर्वका द्रव्यकर्म है उसका वहां हेतुरूप से ग्रहण ( स्वीकार ) किया गया है। इसप्रकार नवीन द्रव्यकर्म जिसका कारणभूत है, और पुराना द्रव्यकर्म जिसका कारणभूत है, ऐसा आत्मा का तथाविध परिणाम होने से, वह उपचार से द्रव्यकर्म ही है, और आत्मा भी अपने परिणाम का कर्त्ता भी उपचार से है ।। १२२ ।। १. द्रव्यकर्म के संयोग से ही अशुद्ध परिणाम होते हैं, द्रव्यकर्म के बिना वे कभी नहीं होते। इसलिये द्रव्यकर्म अशुद्ध परिणाम का कारण है । २. एक असिद्ध बात को सिद्ध करने के लिये दूसरी असिद्ध बात का आश्रय लिया जाय, और फिर उस दूसरी बात को शिद्ध करने के लिये पहली का आश्रय लिया जाय, सो इस तर्कदोष को इतरेतराश्रमदोष कहा जाता है । द्रव्यकर्म का कारण अशुद्ध परिणाम कहा है। फिर उस अशुद्ध परिणाम के कारण के सम्बन्ध में पूछे जाने पर, उसका कारण पुनः द्रव्यकर्म कहा है, इसलिये शंकाकार को शंका होती है कि इस बात में इतरेतराश्रय दोष आता है । ३. नवीन द्रव्यकर्म का कारण अशुद्ध आत्मपरिणाम है, और उस अशुद्ध आत्म-परिणाम का कारण बहु का वही (नवीन) द्रव्यकर्म नहीं किन्तु पहले का ( पुराना ) द्रव्यकर्म है, इसलिये इसमें इतरेतराश्रय दोष नहीं आता । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] [ पत्रयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथ संसारस्य कारणं ज्ञानावारणादि द्रव्यकर्म तस्य तु कारणं मिथ्यात्व रागादिपरिणाम इत्यावेदयति आदा निर्दोषपरमात्मा निश्चयेन शुद्धबुद्धकस्वभावोऽपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशान् कम्ममलिमसो कर्ममलीमसो भवति । तथा भवन्सन किं करोति ? परिणामं लहदि परिणामं लभते । कथम्भूतं ? कम्मसंजुत्तं कर्मरहितपरमात्मनो विसदृशकर्मसंयुक्तं मिथ्यात्वरागादिविभाव परिणामं तत्तो सिलिसदि कम्मं ततः परिणामानु लिप्यति बध्नाति । किं ? कर्म । यदि पुननिर्मलविवेकज्योतिःपरिणामेन परिणमति तदा तु कर्म मुञ्चति तम्हा कम्मं तु परिणामो तस्मात् कर्म तु परिणामः । यस्माद्रागादिपरिणामेन कर्म बध्नाति तस्माद्रागाविधिकल्पस्य मानकसंस्थानोन सरागमरिणाम एवं कर्मकारणत्वादुपचारेण कर्मेति भण्यते । ततः स्थितं रागादिपरिणामः कर्मबन्धकारणमिति ।। १२१।। उत्थानिका -- आगे कहते हैं कि संसार का कारण ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म है और इन द्रव्यकर्म के बंध का कारण मिथ्यादर्शन व राग आदि रूप परिणाम हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( आदा कम्ममलिमसो) आत्मा द्रव्य कर्मो से अनादि काल से मंला है इसलिये (कम्मसंजुत्तं परिणामं ) मिथ्यात्व आदि भाव-कर्म रूप परिणाम ( लहूदि) प्राप्त होता है । ( तत्तो ) उस मिथ्यात्व आदि परिणाम से ( कम्म सिलिसदि ) पुद्गल कर्म जीव के साथ बंध जाता है (तम्हा) इसलिये ( परिणामों) मिथ्यात्व व रागादि रूप परिणाम हो ( कम्मं दु) भावकर्म है अर्थात् कर्म के बन्ध का कारण है। निश्चयनय से यह दोष रहित परमात्मा शुद्धबुद्ध एक स्वभाव वाला होने पर भी व्यवहार नयसे अनादि कर्मबन्ध के कारण कर्मो से मेला हो रहा है। इसलिये कर्म रहित परमात्मा से विरुद्ध कर्मसहित मिथ्यात्व व रागादि परिणाम को प्राप्त होता है— इस परिणाम से द्रव्य कर्मो को बांधता है । और जब निर्मल भेद - विज्ञान की ज्योतिरूप परिणाम में परिणमता है तब कर्मों से छूट जाता है, क्योंकि रागद्वेष आदि परिणाम से कर्म बंधता है । इसलिये राग आदि विकल्परूप जो भावकर्म या सरागपरिणाम है सो ही द्रव्यकर्मो का कारण होने से उपचार से कर्म कहलाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि राग आदि परिणाम ही कर्म बन्ध का कारण हैं ॥ १२१ ॥ अम परमार्थादात्मनो द्रव्यकर्माकर्तृत्वमुद्योतयति - परिणामी सयमादा सा पुण किरियत्ति होदि जीवमया । किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता ॥ १२२ ॥ परिणामः स्वयमात्मा सा पुनः क्रियेति भवति जीवमयी । क्रिया कमति मता तस्मात्कर्मणो न तु कर्ता ॥ १२२ ॥ १. तु ( ज ० ० ) Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३०५ ___ आत्मपरिणामो हि तावत्स्वयमानमेव, परिगामिनः परिणामस्वरूपकर्तृत्वेन परिणामादनन्यत्वात् । यश्च तस्य तथाविधः परिणामः सा जीवमय्येव क्रिया, सर्वव्याणां परिणामलक्षणकियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात् । या च क्रिया सा पुनरात्मना स्वतन्त्रेण प्राप्यत्वात्कर्म । ततस्तस्य परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एच कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मणः। अथ द्रव्यकर्मणः कः कर्तेति चेत् ? पुद्गलपरिणामो हि तावत्स्वयं पुद्गल एव, परिणामिनः परिणामस्वरूपक वेन परिणामादनन्यत्वात् । यश्च तस्य तथाविधः परिणामः सा पुद्गलमय्येव किया, सर्वव्याणों परिणामलक्षणक्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात् । या च क्रिया सा पुन: पुद्गलेन स्वतन्त्रेण प्राप्यत्वात्कर्म । ततस्तस्य परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एवं कर्ता, न त्वात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मणः तत आत्मात्मस्वरूपेण परिणमति न पुद्गलस्वरूपेण परिणमति ॥१२२॥ भूमिका-अब, परमार्य से आत्मा के द्रव्यकर्म का अकर्तृत्व प्रकाशित करते हैं (निश्चय से आत्मा द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं है ऐसा प्रगट करते हैं)--- अन्वयार्थ--[परिणामः] परिणाम [स्वयम्] स्वयं [आत्मा] आत्मा है, [सा पुनः] और वह [जीवमयी क्रिया इति भवति] जीवमय क्रिया है, [क्रिया] क्रिया को [कर्म इति मता| कर्म माना गया है, [तस्मात् ] इसलिये आत्मा [कर्मणः कर्ता तु न] द्रव्यकर्म का कर्ता तो नहीं है। टीका-प्रथम तो आत्मा का परिणाम वास्तव में स्वयं आत्मा ही है, क्योंकि परिणामी के परिणाम के स्वरूप का कर्त्तापना होने से, अनन्यपना है। जो उस (आत्मा) का तथाविध परिणाम है, वह जीवमयो ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्यों की परिणाम लक्षण वाली क्रिया आत्ममयता (निजमयता) से स्वीकार की गई है जो (जोवमयी) किया है, वह, आत्मा के द्वारा स्वतन्त्रतया प्राप्य होने से, कर्म है। इसलिये परमार्थ से आत्मा अपने परिणाम स्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है, किन्तु पुद्गल परिणाम स्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं। अब यहां यह प्रश्न होता है कि '(जीव भावकर्म का ही कर्ता है तब फिर) द्रव्य कर्म का कर्ता कौन है ?' इसका उत्तर इस प्रकार है—प्रथम तो पुद्गल का परिणाम वास्तव में स्वयं पुद्गल ही है, क्योंकि परिणामी के, परिणाम के स्वरूप का कर्तापना होने से अनन्यपना है। जो उस (पुद्गल) का तथाविध परिणाम है, वह पुद्गलमयो ही Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पबयणसारो क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्यों की परिणाम स्वरूप क्रिया निजमय होती है, यह स्वीकार किया गया है । जो (पुदगलमयी) क्रिया है, यह पुद्गल के द्वारा स्वतन्त्रतया प्राप्त होने से, कर्म है। इसलिये परमार्थ से पुरू अपने परिणाम स्वहा मल हाय हार का ही कर्ता है, किन्तु आत्मा के परिणाम स्वरूप भावकर्म का नहीं। इससे (यह समझना चाहिये कि) आत्मा आत्मस्वरूप परिणमित होता है, पुद्गलस्वरूप परिणमित नहीं होता ॥१२२॥ तात्पर्यवृत्ति अथात्मा निश्चयेन स्वकीयपरिणामस्यैव कर्ता, न च प्रन्यकर्मण इति प्रतिपादयति। अथवा द्वितीयपातनिकाशुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धनयेन यथैवाकर्ता तथैवाशुद्धनयेनापि सांख्येन यदुक्तं तनिषेधार्थमात्मनो बन्धमोक्षसिद्धयर्थं कथंचित्परिणामित्वं व्यवस्थापयतीति पातनिकाद्वयं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं निरूपयति-- परिणामो सयमादा परिणाम: स्वयमात्मा आत्मपरिणामस्तावदात्मैव । कस्मात् ? परिणामपरिणामिनोस्तन्मयत्वात् । सा पुण किरियत्ति होदि सा पुनः क्रियेति भवति स च परिणामः क्रिया परिणतिरिति भवति । कथम्भूता ? जीवमया जीवेन नित्तत्वाज्जीवमयी किरिया कम्म ति मदा जीवन स्वतन्त्रेण स्वाधिनेन शुद्धाशुद्धोपादानकारणभूतेन प्राप्यत्वात्सा क्रिया कर्मेति मता संमता । कर्म शब्देनात्र यदेव चिद्रूपं जीवादभिन्न भावकर्ममंझं निश्चयकर्म तदेव ग्राह्य । तस्यैव कर्ता जीवः तम्हा कम्मम्स ण दुकत्ता तस्माद्व्यकर्मणो न कर्तेति। अत्रैतदायाति-यद्यपि कथंचित् परिणामित्वे सति जीवस्य कर्तृत्वं जातं तथापि निश्चयेन स्वकीयपरिणामानामेव कर्ता पुद्गलकर्मणां व्यबहारेणेति । तत्र तु यदा शुद्धोपादानकारणरूपेण शुद्धोपयोगेन परिणमति तदा मोक्षं साधयति, अशुद्धोपादानकारणेन तु बन्धमिति । पुद्गलोऽपि जीववनिश्चयेन स्वकीयपरिणामानामेव कर्ता जीवपरिणामानां व्यवहारेणेति ॥१२२।। एवं रागादिपरिणामाः कर्मबन्धकारणं तेषामेव कर्ता जीव इतिकथनमुख्यतया गाथाद्वयन तृतीयस्थलं गतम् । उत्थानिका-आगे कहते हैं कि निश्चय से यह आत्मा अपने ही परिणाम का कर्ता है, द्रव्य कर्मों का कर्ता नहीं है। अथवा दूसरी उत्थानिका यह है कि शुद्ध पारिणामिक परम भाव को ग्रहण करने वाली शुद्धनय से जैसे यह जीव अकर्ता है वैसे ही अशुद्ध निश्चयनय से भी सांख्य मत के कहे अनुसार जीव अकर्ता है । इस बात के निषेध के लिये तथा आत्मा के बन्ध व मोक्ष सिद्ध करने के लिये किसी अपेक्षा परिणामीपना है ऐसा स्थापित करते हैं। इस तरह दो उत्थानिका मन में रखकर आगे का सूत्र आचार्य कहते है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(परिणामो सयम् आदा) जो परिणाम या भाव है सो स्वयं आत्मा है (पुण सा किरिय त्ति होदि) तथा वही परिणाम किया है। (जीवमयी) Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३०७ क्योंकि, वह क्रिया जीव के द्वारा की गई है इसलिये जोवनयी है (किरिया कम्मत्ति मदा) तथा जो क्रिया है उसी को जीव का कर्म ऐसा माना है ( लम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता ) इसलिये यह आत्मा द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं है । आत्मा का जो परिणाम होता है वह आत्मा ही है क्योंकि परिणाम और परिणामी तन्मय होते हैं । इस परिणाम को ही क्रिया कहते हैं क्योंकि यह परिणाम जीव से उत्पन्न हुआ है। जो क्रिया जीवने स्वाधीनता से शुद्ध या अशुद्ध उपादानकारण रूप से प्राप्त की है वह क्रिया जीव का कर्म है यह सम्मत है। यहां कर्म शब्द से जोब से अभिन्न चैतन्य कर्म को लेना चाहिये। इसी को भावकर्म या निश्चयकर्म भी कहते हैं । इस कारण यह यहां यह सिद्ध हुआ कि यद्यपि जीव कथंचित् परितथापि निश्चय से यह जीव अपने परिणामों का हो कर्मों का कर्त्ता है आत्मा द्रव्यकर्मो का कर्ता नहीं है। णामी है इससे जीव के कर्तापना है कर्ता है, व्यवहार मात्र से ही पुद्गल उपादान रूप से शुद्धोपयोग रूप से परिणमन करता है तब । इनमें से भी जब यह जीव शुद्ध मोक्ष को साधता है और जब । इसी तरह पुद्गल भी जीव अशुद्ध उपादान रूप से परिणमता है तब बन्ध को साधता के समान निश्चय से अपने परिणामों का ही कर्ता है। व्यवहार से जीव के परिणामों का कर्त्ता है, ऐसा जानना ॥१२२॥ इस तरह रागादि भाव कर्मबंध के कारण हैं उन्हीं का कर्ता जीव है, इस कथन मुख्यता से दो गाथाओं में तीसरा स्थल पूर्ण हुआ । की अथ किं तत्स्वरूपं येनात्मा परिणमतीति तदावेदयति परिणमदि चेदणाए आवा पुण चेदणा तिधा भिमदा | सा पुण जाणे कम्मे फलम्सि वा कम्मणो भणिदा ॥ १२३ ॥ परिणमति चेतनया आत्मा पुनः चेतना त्रिधाभिमता । सा पुनः ज्ञाने कर्मणि फले वा कर्मणो भणिता ॥ १२३ ॥ यतो हि नाम चैतन्यमात्मनः स्वधर्मव्यापकत्वं ततश्चेतनैवात्मनः स्वरूपं तथा खल्वात्मा परिणमति । यः कश्चनाध्यात्मनः परिणामः स सर्वोऽपि चेतनां नातिवर्तत इति तात्पर्यम् । चेतना पुनर्ज्ञानकर्मकर्मफलत्वेन त्रेधा । तत्र ज्ञानपरिणतिर्ज्ञानचेतना, कर्मपरिणतिः कर्मचेतना, कर्मफलपरिणतिः कर्मफलचेतना ॥ १२३ ॥ भूमिका – अब, यह कहते हैं कि वह कौन सा स्वरूप है जिसरूप आत्मा परिणमित होती है ? - Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] [ पथवणसारो अन्वयार्थ - [ आत्मा ] आत्मा [ चेतनया ] चेतनारूप से [ परिणमति ] परिणमित होता है । [ पुनः ] और [ चेतना ] चेतना [ त्रिधा अभिमता ] तीन प्रकार की मानी गई है, [ पुनः ] और [ सा ] वह [ जाने ] ज्ञान सम्बन्धी, [ कर्मणि] कर्मसम्बन्धी [वा ] अथवा [कर्मण: फले ] कर्मफल सम्बन्धी [ भणिता ] कही गई है । टीका- क्योंकि चैतन्य आत्मा का स्वधर्मव्यापक' है, इसलिये चेतना हो आत्मा का स्वरूप है, उस रूप ( चेतनारूप ) वास्तव में आत्मा परिणमित होती है। आत्मा का जो कुछ भी परिणाम हो वह सब ही चेतना का उल्लंघन नहीं करता, ( अर्थात् आत्मा का कोई भी परिणाम चेतना को किंचितमात्र भी नहीं छोडता - बिना चेतना के बिल्कुल नहीं होता ) - यह तात्पर्य है और चेतना ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप से तीन प्रकार की है । उसमें ज्ञानपरिणति ज्ञानचेतना, कर्म परिणति कर्मचेतना और कर्मफलपरिणति कर्मफल चेतना है ॥ १२३ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ येन परिणामेनारमा परिणमति तं परिणामं कथयति परिणमदि चेदणाए आदा परिणमति चेतनया करणभूतया । स कः ? आत्मा । यः कोऽप्यात्मनः शुद्धाशुद्धपरिणामः स सर्वोऽपि चेतनां न त्यजति इत्यभिप्रायः । पुण चेदणा तिधाभिमवा सा चेतना पुनस्त्रिधाभिमता । कुत्र कुत्र ? गाणे ज्ञानविषये कम्मे कर्मविषये फलम्मि वा फले वा । कस्य फले ? कम्मणो कर्मणः भणिदा भणिता कथितेति । ज्ञानपरिणतिः ज्ञानचेतना अग्रेवक्ष्यमाणा, कर्मपरिणतिः कर्मचेतना कर्मफलपरिणतिः कर्मफलचेतनेति भावार्थः ॥ १२३॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जिस परिणाम से आत्मा परिणमन करता है, वह परिणाम क्या है— अन्वय सहित विशेषार्थ - ( आदा) आत्मा ( चेदणाए ) चेतना के स्वभाव रूप से ( परिणमदि) परिणमन करता है ( पुणे ) तथा ( चेदणा तिघा अभिमदा) वह चेतना तीन प्रकार मानी गई है। (पुण) अर्थात् (सा) वह चेतना ( गाणे ) ज्ञान के सम्बन्ध में (कम्मे ) कर्म या कार्य के सम्बन्ध में ( वा कम्मणो फलम्मि) तथा कर्मों के फल में (भणिदा) कही गई है। हर एक आत्मा चेतना से परिणमन करता रहता है अर्थात् जो कोई भी आत्मा का शुद्ध या अशुद्ध परिणाम है वह सर्वे ही परिणाम चेतना को नहीं छोड़ता है। वह चेतना जब ज्ञान को विषय करती है अर्थात् ज्ञान की परिणति में वर्तन करती है तब उसको ज्ञान चेतना कहते हैं। जब वह चेतना किसी कर्म के करने में उपयुक्त है तब उसे कसं चेतना और जब वह कर्मों के फल को तरफ परिणमन कर रही है तब उसको कर्मफल चेतना कहते हैं । इस तरह चेतना तीन प्रकार की होती है ।।१२३ ॥ १. स्वधर्मव्यापकत्व निजधर्मो में व्यापकपना । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ३५ अथ ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपमुपवर्णयति णाणं अट्ठवियप्पो' कम्मं जीवेण जं समारद्धं । तमणेगविध भणिदं फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा ॥१२४॥ ज्ञानमर्थविकल्पः कर्म जीवेन यत्समारब्धम् । तदनेकविध भणितं फलमिति सौख्यं बा दुःखं वा ।।१२४॥ अर्थविल्कपस्तावत् ज्ञानम् । तत्र कः खल्वर्थः, ? स्वपरविभागेनावस्थितं विश्वं, विकल्पस्तदाकारावभासनम् । यस्तु मुकुरुन्दहृदयाभोग इव युगपदवभासमानस्वपराकारोयविकल्पस्तद् ज्ञानम् । क्रियमाणमात्मना कर्म, क्रियमाणः खल्वात्मा प्रतिक्षणं तेन तेन भावेन भवता यः तद्धावः स एव कर्मात्मना प्राप्यत्वात् । तत्त्वेकविधमपि द्रन्यकर्मोपाधिसन्निधिसद्भावासद्धावाभ्यामनेकविधम् । तस्य कर्मणो यन्निष्पाद्य सुखदुःखं तत्कर्मफलम् । तत्र यदव्यकर्मोपाधिसान्निध्यासद्भावात्कम तस्य फलमनाकुलत्वलक्षणं प्रकृतिभूतं सौख्यं, यत्तु द्रव्यकर्मोपाधिसान्निध्यसद्धावात्कर्म तस्य फलं सौख्यलक्षणाभावाद्विकृति भूतं दुःखम् । एवं ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपनिश्चयः ॥१२४॥ भुमिका--अब ज्ञान, कर्म और कर्म फल का स्वरूप वर्णन करते हैं अन्वयार्थ- [अर्थविकल्पः] अर्थ विकल्प (अर्थात् स्व-पर पदार्थों का भिन्नता पूर्वक युगपत् अवभासन) [ज्ञानं] ज्ञान है, [जीयेन ] जीव के द्वारा [यत् समारब्ध] जो किया जा रहा हो वह [कर्म] कर्म है, [तत् अनेकविधं] वह कर्म अनेक प्रकार का है, [सौख्यं वा दुःखं वा] सुख अथवा दुःख [फलं इति भणितम्] कर्मफल कहा गया है। टीका-प्रथम तो, अर्थविकल्प ज्ञान है। वहीं, अर्थ क्या है ? स्व-परके विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ (समस्त पदार्थ) है। उसके आकारों का अवमासन (प्रकाशित होना) विकल्प है। और दर्पण के निज विस्तार की भांति (अर्थात् जैसे दर्पण के निज विस्तार में स्व और पर आकार एक ही साथ प्रकाशित होते हैं; उसी प्रकार) जिसमें एक ही साथ स्व-परा-कार अवमासित होते हैं, ऐसा मर्थ-विकल्प ज्ञान है। जो आत्मा के द्वारा किया जाता है वह कर्म है। क्रिया करती हुई आत्मा वास्तव में प्रतिक्षण उनउन भावरूप होती है। जो वह भाव है वही, आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से, कर्म है। वह (कर्म) एक प्रकार का होने पर भी द्रव्यकर्मरूप उपाधि को निकटता के सद्भाव और असद्भाव के कारण अनेक प्रकार का है। १. अवियप्पं (ज० वृ०)। २. तमणेगविहं (ज० बृ०)। ३. भणिय (ज० वृ०)। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० । [ पवयणसारो अब कर्म से उत्पन्न किया जाने वाला सुख-दुःख कर्मफल है। यहां, द्रथ्य कर्मरूप उपाधि की निकटता के असद्भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल अनाकुलत्वलक्षण प्रकृति (स्वभाव) भूत-सुख है, और द्रव्यकर्म रूप उपाधि की निकटता के सद्भाव कारण जो कर्म होता है, उसका फल विकृति - (विकार) भूत दुःख है, क्योंकि वहां सुख लक्षण का अभाव है । इस प्रकार ज्ञान, कर्म और कर्मफल के स्वरूप निश्चित हुये ॥ १२४॥ तात्पर्यवृत्ति अथ ज्ञानकर्मकर्मफलरूपेण त्रिधा चेतनां विशेषेण विचारयति गाणं अट्ठवियप्पं ज्ञानं मत्यादिभेदेनाष्टविकल्पं भवति । अथवा पाठान्तरं गाणं अट्ठवियप्पो ज्ञानमर्थत्रिकल्पः तथाह्यर्थः परमात्मादिपदार्थः अनन्तज्ञानसुखादिरूपोऽहमिति, रागाद्यास्रवास्तु मत्तो भिन्ना इति स्वपराकारावभासेनादर्श इवार्थपरिच्छित्तिसमर्थो विकल्पः विकरूपलक्षणमुच्यते । स एव ज्ञानं ज्ञानचेतनेति । कम्मं जीवेण जं समारद्धं कर्म जीवेन यत्समारब्धं बुद्धिपूर्वकमनोदचनकायव्यापाररूपेण जीवेन यत्सम्यक्कर्त मारब्धं तत्कर्म भव्यते । सैव कर्मचंतनेति तमणेगविहं भणियं तच्च कर्म शुभाशुभशुद्धोपयोगभेदेनानेकविधं त्रिविधं भणितमिदानीं फलचेतना कथ्यते - फलंति सोक्खं च दुःखं वा फलमिति सुखं दुःखं वा विषयानुरागरूपं यदशुभोगयोगलक्षणं कर्म तस्य फलमाकुलत्वोत्पादकं नारकादिदुःखं यच्च धर्मानुरागरूपं शुभोपयोगलक्षणं कर्म तस्य फलं चक्रवर्त्यादिपञ्चेन्द्रियभोगानुभवरूपं तच्चाशुद्धनिश्चयेन सुखमप्याकुलोत्पादकत्वात् शुद्धनिश्चयेन दुःखमेव । यच्च रागादिविकल्परहित शुद्धोपयोगपरिणतिरूपं कर्म तस्य फलमनाकुलत्वोत्पादकं परमानन्दकरूपसुखामृतमिति । एवं ज्ञानकर्मकर्मफलचेतनास्वरूपं ज्ञातव्यम् ॥१२४।। उत्थानिका— आगे चेतना के तीन प्रकार ज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना के स्वरूप का विशेष विचार करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जाणं अट्ठवियत्वं ) ज्ञान मति आदि के भेद से आठ प्रकार का है । अथवा (अट्ठवियप्पो ) पदार्थों के जानने में समर्थ जो विकल्प है ( जाणं ) वह ज्ञान या ज्ञश्न चेतना है । ( जीवेण जं समारद्धं कम्म ) जीव के द्वारा जो प्रारम्भ किया हुआ कर्म है (तमणेगविहं भणियं ) वह अनेक प्रकार का कहा गया है इस कर्म की चेतना सो कर्म चेतना है ( वा सोवखं व दुक्खं फलत्ति ) तथा सुख या दुःख रूप फल में चेतना सो कर्मफल चेतना है | ज्ञान को अर्थ का विकल्प कहते हैं- जिसका प्रयोजन यह है कि ज्ञान अपने और परके आकार को झलकाने वाले दर्पण के समान स्व-पर पदार्थों को जानने में समर्थ है। वह ज्ञान इस तरह जानता है कि अनन्तज्ञान सुखादि रूप में परमात्मा पदार्थ हूँ तथा रागादि आलय को आदि लेकर सवं पुद्गलादि द्रव्य मुझसे भिन्न हैं । इसी Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] अर्थ विकल्प को ज्ञानचेतना कहते हैं। इस जीव ने अपनी बुद्धिपूर्वक मन वचन काय के व्यापार रूप से जो कुछ करना प्रारम्भ किया हो उसको कर्म कहते हैं। यही कर्मचेतना है । सो कर्मचेतना शुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोग के भेद से तीन प्रकार की कही गई । सुख तथा दुःख को कर्म का फल कहते हैं उसको अनुभव करना तो कर्मफलचेतना है । विषयानुराग रूप जो अशुभोपयोग लक्षण कर्म है उसका फल अति आकुलता को पैदा करने वाला नारक आदि का दुःख है। धर्मानुराग रूप जो शुभोपयोग लक्षण कर्म है उसका फल चक्रवर्ती आदि पंचेन्द्रियों के भोगों का भोगना है। यद्यपि इसको अशुद्धनिश्चयनय से सुख कहते हैं तथा यह आकुलता की उत्पन्न करने वाला होने से शुद्धनिश्चयनय से दुःख ही है । और जो रागादि रहित शुद्धोपयोग में परिणमन रूप कर्म है उसका फल अनाकुलता को पैदा करने वाला परमानन्दमयी एक रूप सुखामृत का स्वाद है। इस तरह ज्ञानचेतना, कर्म चेतना और कर्मफलचेतना स्वरूप जानना चाहिये ॥१२४।। अथ ज्ञानकर्मकर्मफलान्यात्मत्वेन निश्चिनोति अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी। तम्हा जाणं कम्म फलं च आदा मुणेदवो ॥१२॥ आत्मा परिणामात्मा परिणामी ज्ञानकर्मफलभावी । तस्मात् ज्ञानं कर्म फलं चात्मा ज्ञातव्यः ।।१२५।। आत्मा हि तावत्परिणामात्मैव, परिणामः स्वयमात्मेति स्वयमुक्तत्वात् । परिणामस्तु चेतनात्मकत्वेन ज्ञानं कर्म कर्मफलं वा भवितुं शीलः, तन्मयत्याच्चेतनायाः। ततो ज्ञान कर्म कर्मफलं चात्मय। एवं हि शुद्धद्रव्यनिरूपणायां परद्रव्यसंपर्कासंभवात्पर्यायाणां द्रव्यान्तःप्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते ॥१२॥ भूमिका-अब ज्ञान, कर्म और कर्मफल को आत्मा रूप से निश्चित करते हैं अन्वयार्थ— [आत्मा परिणामात्मा] आत्मा परिणाम स्वभाव वाली है, [परिणामः] परिणाम [ज्ञानकर्मफलभावो] ज्ञान रूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप होता है, [तस्मात् | इसलिये [ज्ञान, कर्म, फलं च] ज्ञान, कर्म और कर्मफल [आत्मा ज्ञातव्यः] आत्म-स्वरूप समझने चाहिये। टीका-प्रथम तो आत्मा वास्तव में परिणाम स्वरूप ही है, क्योंकि 'परिणाम स्वयं आत्मा है, ऐसा (१२२ वी गाथा में भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य देव ने) स्वयं कहा है। परिणाम तो चेतना स्वरूप होने से ज्ञान, कर्म और कर्मफल रूप होने के स्वभाव वाला Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] [ पवयणसारो है, क्योंकि चैतना तन्मय (ज्ञानमय, कर्ममय अथवा फर्मफलमय) होती है । इसलिये ज्ञान, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है। इसी प्रकार वास्तव में शुद्ध द्रव्य के निरूपण में, पर द्रव्य के सम्पर्क (सम्बन्ध) का असम्भव होने से और पर्यायों का द्रव्य के भीतर प्रलोन (लोप) हो जाने से, आत्मा शुद्ध द्रव्य ही रहता है ॥१२५॥ तात्पर्यवृत्ति अथ ज्ञानकर्मकर्मफयान्यभेदनयेनात्मैव भवतीति प्रज्ञापयति अप्पा परिणामप्पा आत्मा भवति ? कथम्भुतः ? परिणामात्मा परिणामस्वभावः । कस्मादिति चेत् ? "परिणामो सयमादा" इति पूर्व स्वयमेव भणितत्वात् । परिणाम: कथ्यते परिणामो णाणकम्मफलभावी परिणामो भवति । किविशिष्ट: ? ज्ञानकम्मकर्मफलभावी ज्ञानकर्मकर्मफलरूपेण भवितं शील इत्यर्थः तम्हा तस्मादेवं तस्मात्कारणात् णाणं पूर्वसूत्रोक्ता ज्ञानचेतना कम्मं तत्रैवोक्तलक्षणा कर्मचेतना फलं च पूर्वोक्तलक्षण कर्म फलनेतना च । आदा मुणेदव्यो इयं चेतना त्रिविधायभेदनयेनात्मौव मन्तव्यो ज्ञातव्य इति । एतावता किमक्तं भवति । त्रिविधचेतनापरिणामेन परिणामी सन्नात्मा। कि करोति ? निश्चयरत्नत्रयात्मकशुद्धपरिणामेन मोक्षं साधयति, शुभाशुभाभ्यां पुनर्बन्धमपि ॥१२५|| एवं त्रिविधचेतनाकथनमुख्यतया गाथात्रयेण चतुर्थस्थलम् गतम् । उत्थानिका-आगे कहते हैं कि यह आत्मा ही अभेदनय से ज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना रूप हो जाता है ।। अन्वय सहित विशेषार्थ--(अप्पा परिणागप्पा) आत्मा परिणाम-स्वभावी है। (परिणामो णाणकम्मफलभावी) परिणाम ज्ञानरूप कर्मरूप व कर्मफल रूप हो जाता है (तम्हा) इसलिये (आदा) आत्मा (णाणं कम्मं च फलं) ज्ञानरूप कर्मरूप व कर्म-फलरूप (मुणेदवो) जानना चाहिये । आत्मा परिणमन स्वभाव है, यह बात तो पहले ही "परिणामो सयमादा" इस गाथा में कही जा चुकी है । उसो परिणमन स्वभाव में यह शक्ति है कि आत्मा का भाव ज्ञानचेतना रूप, कर्मचेतना रूप व कर्मफलचेतना रूप हो जावे । इसलिये ज्ञान, कर्म, कर्मफलचेतना इन तीन प्रकार चेतना रूप अभेवनय से आत्मा को हो जानना चाहिये । इस कथन से यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि यह आत्मा तीन प्रकार चेतना के परिणामों से परिणमन करता हुआ निश्चयरत्नत्रयमयी शुद्ध परिणाम से मोक्ष का साधन करता है। तथा शुभ और अशुभ परिणामों से बन्ध को साधता है।।१२५।। इस तरह तीन प्रकार चेतना के कथन की मुख्यता से चौथा स्थल पूर्ण हुआ। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३१३ ___ अर्थवमात्मनो ज्ञेयतामापन्नस्य शुद्धत्वनिश्चयात ज्ञानतत्त्वसिद्धौ शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भो भवतीति तमभिनन्दन् द्रव्यसामान्यवर्णनामुपसंहरति कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि व अण्णं जदि अपाणं लहदि सुद्धं ॥१२६॥ कर्ता करणं कर्म कर्मफलं चात्मेति निश्चितः श्रमणः । परिणमति नैवान्यद्यदि आत्मानं लभते शुद्धम् ॥१२६।। । यो हि नामवं कर्तारं करणं कर्म कर्मफलं चात्मानमेव निश्चित्य न खलु परद्रव्यं परिणमति स एव विश्रान्तपरद्रव्यसंपर्क द्रव्यान्तःप्रलीनपर्यायं च शुद्धमात्मानमुपलभते, न पुनरस्यः । तथाहि-यदा नामानादिप्रसिद्धपौद्गलिककर्मबन्धनोपाधिसंनिधिप्रधावितोपरागरंजितात्मवृत्ति पापुष्पसंनिधिप्रधावितोपरागरंजितात्मवृत्तिः स्फटिकमणिरिव परारोपितधिकारोऽहमासं संसारी तदापि न नाम मम कोऽप्यासोत, तदाप्यहमेक एवोपरक्तचिस्वभावेन स्वतन्त्रः कर्तासम्, अहमेक एवोपरक्तचित्स्वभावेन साधकतमः करणमासम्, अहमेक एवोपरक्तचित्परिणमनस्वभावेनात्मना प्रायः कर्मासम्, अहमेक एव चोपरक्त चित्परिणमनस्वभावस्य निष्पाधं सौख्यं विपर्यस्तलक्षणं दुःखाख्यं कर्मफलमासम् । इदानी पुनरनादिप्रसिद्धपौद्गलिककर्मबन्धनोपाधिसन्निधिध्वंसविस्फुरितसुविशुद्धसहजात्मवृत्तिर्जपापुष्पसंनिधिध्वंसविस्फुरितसुविशद्धसहजात्मवृत्तिः स्फटिकमणिरिव विश्रान्तपरारोपितविकारोऽहमेशान्तेनास्मि मुमुक्षुः, इदानीमपि न नाम मम कोऽप्यस्ति, इदानीमध्यहमेक एव सुविशुद्धचित्स्वभावेन स्वतन्त्रः कर्तास्मि, अहमेक एव च सुविशुद्धचित्स्वभावेन साधकतमः करणमस्मि, अहमेक एव च सुविशद्धचित्परिणमनस्वभावेनात्मना प्राप्यः कर्मास्मि, अहमेक एब व सुविशुद्धचित्परिणमनस्वभावस्य निष्पाद्यमनाकुलत्वलक्षणं सौख्यास्यं कर्मफलमस्मि । एवमस्य बन्धपद्धतौ मोक्षपद्धतौ चात्मानमेकमेव भावयतः परमाणोरिवैकत्वभावनोन्मुखस्य परद्रव्यपरिणतिर्न जातु जायते । परमाणुरिवभावितकत्वश्च परेण नो संपृष्यते। ततः परद्रव्यासंपृक्तत्वात्तुविशुद्धो भवति । कर्तृकरणकर्मकर्मफलानि चात्मत्वेन भावयन् पर्यायन संकीर्यते ततः पर्यायासंकीर्णत्वाच्च सुविशुद्धो भवतीति ॥१२६॥ भूमिका-अब, इस प्रकार ज्ञेयत्व को प्राप्त आत्मा के, शुद्धता के निश्चय से, जान तत्व की सिद्धि होने से पर शुद्ध आत्म तत्त्व की उपलब्धि (प्राप्ति होती है, इस प्रकार उसका अभिनन्दन करते हुये (अर्थात् आत्मा की शुद्धता के निर्णय को प्रशंसा करते हुये) द्रव्य सामान्य के वर्णन का उपसंहार करते हैं Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] [ पक्ष्यणसारो अन्वयार्थ-[कर्ता करणं कर्म कर्मफलं च आत्मा] 'कर्ता-करण-कर्म-कर्मफल आत्मा है' [इति निश्चितः] ऐसा निश्चय करता हुआ [श्रमणः] मुनि [यदि] यदि [अन्यत् ] अन्यरूप [न एव परिणमति ] नही हो तो वह [शुद्ध आत्मानं] शुद्ध आत्मा को [लभते] प्राप्त करता है। टीका—जो पुरुष इस प्रकार 'कर्ता-करण-कर्म-कर्मफल आत्मा ही है। यह निश्चय करके वास्तव में परद्रव्य रूप परिणमित नहीं होता, जिसका परब्रव्य के साथ संपर्फ रुक गया है, और जिसकी पर्याय द्रव्य के भीतर प्रलीन हो गई है ऐसा वही पुरुष शुद्धारमा को प्राप्त करता है, अन्य कोई नहीं । ___ इसी को स्पष्टतया समझाते हैं.--"जब अनादिसिद्ध पौद्गलिफर्म को बंधनरूप उपाधि को निकटता से उत्पन्न हुये उपराग (उपाधि के अनुरूप विकारी भाव) के द्वारा जिसकी स्वपरिणति रंजित (विकृत) थी, ऐसा मैं-जपाकुसुम की निकटता से उत्पन्न हुये उपराग (लालिमा) से जिसकी स्वपरिणति रंजित (रंगी हुई) हो ऐसे स्फटिक मणिकी भांति-परके द्वारा आरोपित विकार-वाला होने से संसारी (अज्ञानी) था, तब भी (अज्ञान दशा में भी) वास्तव में मेरा कोई भी (संबंधी) नहीं था। तब भी मैं अकेला ही कर्ता था, क्योंकि में अकेला ही उपरक्त (विकृत) चैतन्यरूप स्वभाव से स्वतन्त्र था (अर्थात् स्वाधीनतया कर्ता था), मैं अकेला ही करण था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभाव के द्वारा साधकतम (उस्कृष्टसाधन) था, मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्य रूप परिणमित होने के स्वभाव के कारण, आत्मा से प्राध्य था और मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्य परिणामरूप स्वभाव से निष्पन्न तथा सुख से विपरीत लक्षण वाला 'दुःख' नामक कर्मफल रूप था। अब, जपाकुसुम को निकटता के नाश से जिसकी सुविशुद्ध सहज स्वपरिणति प्रगट हुई हो, ऐसी स्फटिकमणिको भांति-अनादिसिद्ध पौद्गलिक फर्म की बन्धनरूप उपाधि को निकटता के नाश से जिसको सुविशुद्ध साहजिक (स्वाभाविक) स्वपरिणति प्रगट हई है तथा जिसका पर के द्वारा आरोपित विकार रुक गया है, ऐसा मैं एकान्ततः मुमुक्षु (केवल मोक्षार्थी) हूँ, अब भी (मुमुक्षु दशा में ज्ञान दशा में भी) वास्तव में मेरा कोई भी नहीं है। अब भी मैं अकेला ही कर्ता हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्ध चैतन्य रूप स्वभाव से स्वतन्त्र हूँ, अर्थात् स्वाधीनतया कर्ता हूँ), मैं अकेला हो करण हूँ, क्योंकि मैं अकेला ही सुविशुद्धचैतन्य रूप स्वभाव से साधकतम हूँ, में अकेला ही कर्म हूँ, क्योंकि मैं अकेला हो सुविशुद्ध चैतन्य Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३१५ परिणमित होने के स्वभाव के कारण आत्मा से प्राध्य हैं और मैं अकेला ही विशद्ध चैतन्य परिणामरूप स्वभाव से निष्पन्न तथा अनाकुलता लक्षण वाला, 'सुख' नामक कर्मफल हूँ। इस प्रकार वंधमार्ग में तथा मोक्षमार्ग में आत्मा अकेला ही है, इस प्रकार चिन्तन करने वाले तथा परमाणु की भांति एकत्व की भावना के उन्मुख पुरुष के परद्रव्य रूप परिणतिकिंचित् भी नहीं होती। परमाणु की भांति एकत्व को समझने वाला पुरुष परके साथ संबद्ध नहीं होता। इसलिये परद्रव्य के साथ असंबद्धता के कारण बह सुविशुद्ध होता है । कर्ता, करण, कर्म तथा कर्मफल को आत्मारूप से (अभेदृष्टि से) जानता हुआ, वह पुरुष पर्यायों से संकीर्ण (खंडित) नहीं होता इसलिये-पर्यायों के द्वारा संकीर्ण न होने से यह सुविशुद्ध होता है ॥१२६॥ उक्त आशय को प्रगट करने हेतु काव्य लिखते हैंद्रव्यान्तरव्यतिकरावपसारितात्मा, सामान्यमज्जितसमस्तविशेषजातः । इत्येष शुद्धनय उद्धतमोहलक्ष्मी-लुण्टाकउत्कट विवेकविविक्ततत्यः ॥७॥ अर्थ-जिसने आत्मा को अन्य द्रव्य से मिन्नता के द्वारा हटा लिया है तथा जिसने समस्त विशेषों के समुदाय को सामान्य में अन्तर्भत किया है । ऐसा जो यह उद्धत मोह को लक्ष्मी को लूट लेने वाला शुद्धनय है, उसने उत्कृष्ट विवेक (प्रशस्तज्ञान) के द्वारा आत्मस्वरूप को प्राप्त किया है ॥७॥ इत्युच्छेदात्परपरिणतेः कर्तृकर्मादिभेद-भ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः । सञ्चिन्मात्रे महसि विशदे मच्छितश्चेतनोऽयं, स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एव ॥८॥ अर्थ-इस प्रकार पर परिणति के उच्छेन से और कर्ता कर्म आदि भेदों की भ्रान्ति के ध्वंस से भी जिसने बहुत लम्बे समय से शुद्धात्मतत्त्व को प्राप्त किया है ऐसा यह आत्मा चैतन्य मात्र स्वरूप निर्मल (पूर्ण विशुद्ध) तेज में लीन होता हुआ अपनी सहज महिमा के प्रकाश से प्रकाशित हमेशा मुक्त ही रहेगी ॥८॥ अब द्रव्य विशेष के वर्णन की सूचनार्थ काव्य लिखते हैं द्रष्यसामान्यविज्ञाननिम्नं कृत्वेति मानसम् । तद्विशेषपरिज्ञानप्राग्भारः क्रियतेऽधुना ॥६॥ इस प्रकार द्रव्यसामान्य का विशेषज्ञान मानस में उतारकर, अब द्रव्य विशेष के परिज्ञान (विस्तृत ज्ञान) का प्रारम्भ किया जाता है। इति प्रवचनसारवृत्तौ तत्त्वदीपिकायां श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि विरचित्तायां ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापने द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनम् समाप्तम् । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पबयणसासे इस प्रकार श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि विरचित प्रवचनसार को तत्वदीपिकावृत्ति का ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन में द्रव्यसामान्य कथन अधिकार समाप्त हुआ। तात्पर्यवत्ति अथ सामान्यज्ञेयाधिकारसमाप्तौ पूर्वोक्तभेदभावनायाः शुद्धात्मप्राप्तिरूपं फलं दर्शयति, कत्ता स्वतन्त्रः स्वाधीनः कर्ता साधको निष्पादकोऽस्मि भवामि ।'स कः ? अप्प ति आत्मेति । आत्मेति कोऽर्थः ? अहमिति । कथम्भूतः ? एकः । कस्याः साधक: ? निर्मलात्मानुभूतेः । किविशिष्ट: ? निर्विकारपरमचंतन्यपरिणामेन परिणत: सन् करणं अतिशयेन साधक साधकतमं करणमुपकरणं करणकारकमहमेक एवास्मि भवामि । कस्याः साधक ? सहजशुद्धपरमात्मानुभूतेः। केन कृत्वा ? रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानपरिणतिबलेन कम्मं शुद्धबुद्धकस्वभावेन परमात्मना प्राप्यं व्याप्यमहमेक एब कर्मकारकमस्मि । फलं च शुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मनः साध्यं निष्पाद्यं निजशुद्धात्मरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिरूपाभेदरत्नत्रयात्मकपरमसमाधिसमुत्पन्नसुम्बामृत रसास्त्रादपरिणतिरूपमहमेक एव फलं चास्मि णिच्छिदो एवमुक्त प्रकारेण निश्चितमतिः सन् समणो सुखदुःखजीवितमरणशत्रुमित्रादिसमताभावनापरिणत: श्रमणः परममुनिः परिणवि व अण्णं जदि परिणमति नैवान्यं रागादिपरिणामं यदिचत् ? अप्पाणं लहवि सुद्धम् तदात्मानं भावकदिव्यकर्मरहितत्वेन शुद्धं शुद्धबुद्धकस्वभावं लभते प्राप्नोति इत्यभिप्रायो भगवतां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवानाम् ।।१२६।। । उत्थानिका-आगे सामान्य ज्ञेय अधिकार की समाप्ति करते हुए पहले कही हुई भेदज्ञान की भावना का फल शुद्धात्मा की प्राप्ति है, ऐसा दिखलाते हैं--- अन्वय सहित विशेपार्थ-(कत्ता, करणं, कम्मफलं च अप्प त्ति) कर्ता, करण, कर्म तथा फल आत्मा ही है, ऐसा (णिच्छिदो) निश्चय करने वाला (समणो) श्रमण या मुनि (जदि) यदि (अण्णं) अन्य रूप (व परिणमदि) नहीं परिणमन करता है तो (सुद्धं अप्पाणं लहदि) शुद्ध आत्मीक स्वरूप को पाता है। मैं एक आत्मा ही स्वाधीन होकर अपनी निर्मल आत्मानुभूति का अपने विकाररहित परम-चैतन्य के परिणाम से परिणमन करता हुआ साधन करने वाला हूँ। इससे मैं ही कर्ता हूँ तथा मैं ही रागादि विकल्पों से रहित अपनी स्वसंवेवनज्ञान की परिणति के बल से सहज शुद्ध परमात्मा की अनुभूति का साधकतम हूँ, अर्थात् अवश्य साधने वाला हूँ इसलिमे मैं ही करण स्वरूप हूँ इसलिये मैं ही शुद्ध बुद्ध एक स्वभावरूप परमात्मा के स्वरूप से प्राप्ति योग्य हूँ इसलिये मैं ही कर्म हूँ तथा मैं ही शुद्ध ज्ञान-दर्शन-स्वभावरूप परमात्मा से साधने योग्य अपने ही शुद्धात्मा की रुचि, व उसी का ज्ञान व उसी में निश्चल अनुभूति रूप अभेद रत्नत्रयमयी परमसमाधि से पंदा होने वाले सुखामृत रस के आस्वाद में परिणमन रूप हूँ, इससे मैं ही फलरूप हूं। इस तरह निश्चयनय से बुद्धि को रखने वाला परम मुनि जो सुख-दुःख, जन्म-मरण, शत्रु-मित्र आदि में समता की भावना से परिणमन कर Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 रहा है यदि अपने से अन्य रागादि परिणामों में नहीं परिणादन करता है तो भावकर्म, द्रध्यकर्म, नोकर्म से रहित शुद्ध बुद्ध एक स्थमावरूप आत्मा को प्राप्त करता है। ऐसा अभिप्राय भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव का है ॥१२६॥ तात्पर्यवृत्ति एवमेकसूत्रेण पञ्चमस्थलं गतम् । इति सामान्यज्ञेयाधिकारमध्ये स्थलपंचकेन भेदभावना गता । इत्युक्तप्रकारेण तम्हा तस्स णमाई इत्यादि पंचत्रिंशत्सूत्रः सामान्यज्ञेयाधिकार व्याख्यानं समाप्तम् । इत ऊर्ध्वमेकोनविंशतिगाथाभिर्जीबाजीबद्रव्यादिविवरणरूपेण विशेषज्ञेयव्याख्यानं करोति । तत्राटस्थालानि भवन्ति । तेष्वादी जीवाजीवत्वकथनेन प्रथमगाथा, लोकालोकत्वकथनेन द्वितीया, सक्रियनिःक्रियत्वव्याख्यानेन तृतीया चेति । वध जीवमजीवं इत्यादिगाथात्रयेण प्रथमस्थलं, तदनन्तरं ज्ञानादिविशेषगुणानां स्वरूपकथनेन लिंगेहि जेहि इत्यादिगाथाद्वयेन द्वितीयस्थलम । अथानन्तरं स्वकीयस्वकीयविशेषगुणोपलक्षितद्रव्याणां निर्णयार्थ वण्णरस इत्यादिगाथात्रयेण तृतीयस्थलम् । अथ पंचास्तिकायकाथनमुख्यत्वेन जीवा पोग्गलकाया इत्यादिगाथाद्वयेन चतुर्थस्थलम् । अतः परं द्रष्याणां लोकाकाशमाधार इति कथनेन प्रथमा, यदेवाकाशद्रव्यस्य प्रदेशलक्षणं तदेव शेषाणामिति कथनरूपेण द्वितीया चेति, लोयालोयेसु इत्यादिसूत्रद्वयेन पंचमस्थलम् । तदनन्तरं कालद्रव्यस्याप्रदेशत्त्वस्थापनरूपेण प्रथमा, समयरूप: पर्यायकाल: कालाणुरूपो द्रव्यकाल इति कथनरूपेण द्वितीया चेति समओ दु अप्पदेसो इत्यादिगाथाद्वयेन षष्ठस्थलम् । अथ प्रदेशलक्षणकथनेन प्रथमा, तदनन्तर तिर्यक्प्रच योर्ध्वप्रचयस्वरूपकथनेन द्वितीया चंति, आयासमणुणिविट्ठ इत्यादिसूत्रद्वयेन सप्तमस्थलम् । तदनन्तरं कालाणुरूपद्रव्यकालस्थापनरूपेण उप्पादो परभंसो इत्यादिगाथात्रयेणाष्टमस्थलमिति विशेषज्ञेयाधिकारे समुदायपातनिका । समुदायपातनिका-इस तरह एक सूत्र से पांचवां स्थल पूर्ण हुआ इस तरह सामान्य ज्ञेय के अधिकार के मध्य में पांच स्थलों से भेद भावना कही गई । ऊपर कहे प्रमाण "तम्हा तस्स णमाई" इत्यादि पैतीस सूत्रों के द्वारा सामान्य ज्ञेयाधिकार का व्याख्यान पूर्ण हुआ। आगे उन्नीस गाथाओं से जीव अजीव द्रव्यादि का विवरण करते हुए विशेष ज्ञेय का व्याख्यान करते हैं । इसमें आठ स्थल हैं । इन आठ में से पहले स्थल में प्रथम ही जीवत्व व अजीवत्व को कहते हुए पहली गाथा, लोक और अलोकपने को कहते हुए दूसरी, सक्रिय और निःक्रियपने का व्याख्यान करते हुए तीसरी, इसी तरह "दव्वं जीवमजीवं' इत्यादि तीन गाथाओं से पहला स्थल है। इसके पीछे ज्ञान आदि विशेष गुणों का स्वरूप कहते हुए "लिहि जेहि' इत्यादि दो गाथाओं पर दूसरा स्थल है। आगे अपने-अपने गुणों से द्रव्य पहचाने जाते हैं इसके निर्णय के लिये “वण्णरस" इत्यादि तीन गाथाओं से तीसरा स्थल है आगे पंचास्तिकाय के कथन की मुख्यता से "जीवा पोग्गल काया" इत्यादि दो गाथाओं से चौथा स्थल है । इसके पीछे द्रव्यों का आधार लोकाकाश है ऐसा कहते हुये पहली, जसा आकाश द्रव्य का प्रदेश लक्षण है वैसा ही शेष द्रव्यों का है ऐसा कहते हुए Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] [ पवयणसारो दूसरी, इस तरह “लोयालोयेसु'' इत्यादि दो सूत्रों से पांचवा स्थल है। इसके पीछे काल द्रव्य को अप्रदेशी स्थापित करते हुये पहली, समयरूप पर्याय काल है कालाणुरूप द्रच्यकाय है ऐसा कहते हुए दूसरी, इस तरह "समओ दु अप्पदेसो' इत्यादि दो गाथाओं से छठा स्थल है ! आगे प्रदेश का लक्षण कहते हुए पहली, फिर तिर्यक् प्रचय को कहते हुए दूसरी इस तरह "आयासमणिवि' इत्यादि दो सूत्रों से सातवां स्थल है। फिर कालाणु को द्रव्य काल स्थापित करते हुए "उप्पादो पन्भंसो' इत्यादि तीन गाथाओं से आठवां स्थल है इस तरह विशेष ज्ञेय के अधिकार में समुदायपातनिका है । अथ द्रव्य विशेषप्रज्ञापनं तत्र द्रव्यस्य जीवाजीवत्वविशेष निश्चिनोति दव्वं जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवओगमओ। पोग्गलवन्वप्पमुहं अचेवणं हदि य' अजीवं ॥१२७॥ द्रव्यं जीवोऽजीवो जीबः पुनश्चेतनोपयोगमयः । पुद्गलद्रव्यप्रमुखोऽचेतनो भवति चाजोवः ।। १२७।। __ इह हि द्रव्यमेकत्वनिबन्धनभूतं द्रव्यत्वसामान्यमनुज्झदेव तदधिरूढविशेषलक्षणसद्भावादन्योन्यव्यवच्छेदेन जीवाजीयत्वविशेषमुपढौकते । तत्र जीवस्यात्मद्रव्यमेवैका व्यक्तिः । अजीवस्य पुनः पुद्गलद्रव्यं धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं कालद्रव्यमाकाशद्रव्यं चेति पञ्च व्यक्तयः । विशेषलक्षणं जीवस्य चेतनोपयोगमयत्वं, अजीवस्य पुनरचेतनत्वम् । तत्र यत्र स्वधर्मव्यापकत्वात्स्वरूपत्वेन द्योतमानयानपायिन्या भगवत्या संवित्तिरूपया चेतनया यत्परिणामलक्षणेन द्रव्यवृत्तिरूपेणोपयोगेन च निर्वृत्तत्वमवतीर्ण प्रतिभाति स जीवः । पत्र पुनरुपयोगसहचरिताया यथोदितलक्षणायाश्चेतनाया अभावाबहिरन्तश्चाचेतनत्वमवतीर्ण प्रतिभाति सोऽजीवः ॥१२७॥ भूमिका—अब, द्रव्यविशेष का प्रज्ञापन करते हैं, अर्थात् द्रव्यविशेषों को (द्रव्य के भेदों को) बतलाते हैं। उसमें (प्रथम) द्रव्य के जीवाजीयत्वरूप विशेष का निश्चय करते हैं, (अर्थात् द्रव्य के जीय और अजीब दो भेद बतलाते हैं) अन्वयार्थ-[द्रव्यं] द्रव्य [जीवः अजीवः] जीव और अजीय (ऐसे दो भेद रूप) है। [पुनः] और (उसमें) चेतनोपयोगमयः] चेतन तथा उपयोगमयी [जीव:] जीव है [च] और [पुद्गलद्रत्यप्रमुखः अचेतमः] पुद्गल आदि अनेतनद्रव्य [अजीवः भवति | अजीव हैं। १. ज वृ• गाथा में 'य पाठ नहीं है। २. अज्जीनं (ज० वृ.) । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३१६ टीका - यहां ( इस विश्व में ) वास्तव में, एकत्व के कारणभूत द्रव्यत्व सामान्य को छोड़े बिना ही, उसमें (द्रव्य में ) रहने वाले विशेष लक्षणों के सद्भाव के कारण एक दूसरे से पृथक्पने से, द्रव्य जोवत्व रूप और अजीवत्व रूप विशेषता को प्राप्त होता है, उसमें जीव का आत्मद्रव्य एक ही भेद है, और अजीव के पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य तथा आकाशद्रव्य यह पांच भेद है। जीव का विशेष लक्षण चेतनोपयोगमयत्व ( चेतनामयता और उपयोगमयता) है, और अजीव का अचेतनत्व है । उनमें (से) स्वधमों में व्यापकपना होने से स्वरूपपने से प्रकाशित होने वाली, अविनाशिनी, भगवती, (स्व) संवेदनरूप चेतना के द्वारा तथा चेतना परिणाम लक्षण, द्रव्य परिणति रूप उपयोग के द्वारा, जिसमें निष्पत्नत्व अवतरित प्रतिभासित होता है ( अर्थात् जो चेतना तथा उपयोग से रचा हुआ — बना हुआ है), वह जीव है जिसमें, उपयोग के साथ रहने वाली, यथोक्त (ऊपर कहे अनुसार ) लक्षण वाली चेतना का अभाव होने से बाहर तथा भोतर अचेतनत्व अवतरित प्रतिभासित होता है, वह अजीव है ॥१२७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ जीवाजीव लक्षणमावेदयति व्यं जीवमजीवं द्रव्यं जीवाजीवलक्षणं भवति जीवो पुण चेदणो जीवः पुनश्चेतनः स्वतःसिद्धया बहिरङ्गकारणनिरपेक्षया बहिरन्तश्च प्रकाशमानया नित्यरूपया निश्चयेन परमशुद्धचेतनया व्यवहारेण पुनरशुद्धचेतनया च युक्तत्वाच्चेतनो भवति । पुनरपि किविशिष्टः ? उवओगमओ उपयोगमयः अखण्डकप्रतिभासमयेन सर्वविशुद्ध न केवलज्ञानदर्शन लक्षणेनार्थ ग्रहणव्यापाररूपेण निश्चयन येनेत्थम्भूतशुद्धोपयोगेन, व्यवहारेण पुनर्मतिज्ञानाथशुद्धोपयोगेन च निर्वृतत्वान्निष्पन्नत्वादुपयोगमयः पोग्गल दखमुहं अचेदणं वदि अज्जीवं पुद्गलद्रव्यप्रमुखचेतनं भवत्यजीवद्रव्यं पुद्गलधर्माधर्माकाशकालसंज्ञं द्रव्यमंत्रकं पूर्वोक्तलक्षणचेतनाया उपयोगस्य चाभावादजीवमचेतनं भवतीत्यर्थः ।। १२७ ।। उत्थानिका -- आगे जीव और अजीव का लक्षण कहते हैं - अन्य सहित विशेषार्थ - ( दव्वं ) द्रव्य ( जीव मजीवं ) जीव और अजीव हैं ( पुणे ) और ( जीवो) जीव द्रव्य ( चेदणा उथओगमओ) चेतना स्वरूप तथा ज्ञान दर्शन उपयोगवान् हैं (य पोग्गलदश्वप्प मुहं ) और पुद्गलद्रव्य आदि ( अचेवणं ) चेतनारहित ( अजीवं ) अजीव हैं । द्रव्य के दो भेद हैं-जीव और अजीव, इनमें से जीवद्रव्य स्वयं सिद्ध बाहरी और अन्तरङ्ग व बाहर में प्रकाशमान नित्य रूप निश्चय से परम शुद्धचेतना से तथा व्यवहार में अशुद्ध चेतना से युक्त होने के कारण चेतन स्वरूप है तथा निश्चयनय से अखंड व Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] [ वयणसारो एक रूप प्रकाशमान व सर्व तरह से शुद्ध केवलज्ञान तथा केवलदर्शन लक्षणधारी पदार्थों के जानने देखने के व्यापार गुण वाले शुद्धोपयोग से तथा व्यवहारनय से मतिज्ञान आदि अशुद्धोपयोग से जो वर्तन करता है इससे उपयोगमयो है । तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह पांच द्रध्य पूर्व में कही हुई चेतना तथा उपयोग के अभाव से अजीब हैं, अचेतन हैं, ऐसा अर्थ है ॥ १२७॥ अथ लोकालोकत्व विशेषं निश्चिनोति— पोग्गलजीवणिबद्धो धम्माधम्मत्थिकायकालड्ढो । वट्टदि आगासे जो लोगो सो सव्वकाले दु ॥ १२८ ॥ पुद्गलजीवनिवद्धो धर्माधर्मास्तिकायकालाढ्यः । वर्तते आकाशे यो लोकः स सर्वकाले तु ॥ १२८ ॥ अस्ति हि द्रव्यस्य लोकालोकत्वेन विशेषविशिष्टत्वं स्वलक्षणसद्भावात् । स्वलक्षणं हि लोकस्य षड्द्रव्यसमवायात्मकत्वं अलोकस्य पुनः केवलाकाशात्मकत्वम् । तत्र सर्वद्रव्यव्यापिनि परममहत्याकाशे यत्र यावति जीवपुद्गलौ गतिस्थितिधर्माणो गतिस्थिती आस्कन्दतस्तद्गतिस्थितिनिबन्धनभूतौ च धर्माधर्मावभिव्याप्यावस्थित, सर्वद्रव्य वर्तनानिमित्तभूतश्च कालो नित्यदुर्ललितस्तत्तावदाकाशं शेषाण्यशेषाणि द्रव्याणि चेत्यमीषां समवाय आत्मत्वेन स्वलक्षणं यस्य स लोकः । यत्र यावति पुनराकाशे जीवपुद्गलयोर्गतिस्थिती न संभवतो धर्माधर्मौ नावस्थितौ न कालो दुर्ललितस्तावत्केवलमाकाशमात्मत्वेन स्वलक्षणं यस्य सोलोकः ॥ १२८ ॥ भूमिका1- अब ( द्रव्य के ) लोकालोकत्व रूप भेद का निश्चय करते हैं— अन्वयार्थ – [ आकाशे ] आकाश में [य] जो भाग [ पुद्गलजीवनिबद्धः ] पुद्गल और जीव से संयुक्त है, तथा [ धर्माधर्मास्तिकाय कालाढ्यः वर्तते ] धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, और काल से समृद्ध है, [स: ] वह [ सर्वकाले तु ] सर्वकाल में [लोकः ] लोक है । (शेष केवल आकाश अलोक है 1) टीका - वास्तव में द्रव्य के ( आकाश के ) अपने-अपने लक्षण के सद्भाव के कारण से, लोक और अलोकपने भेदरूप विशेषता है । लोक का स्वलक्षण षद्रव्यसमवायात्मकत्व ( छह द्रव्यों की समुदायरूपता) है, और अलोक का केवल आकाशात्मकत्व ( मात्र आकाश स्वरूपत्व ) है । वहां, सर्व द्रव्यों में व्याप्त होने वाले परम महान् आकाश में, जहां जितने में, गति स्थिति धर्म वाले जीव तथा पुद्गल गति, स्थिति को प्राप्त होते हैं Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३२१ तथा उनकी (जीव-पुद्गल को) गति, स्थिति में निमित्त भूत धर्म तथा अधर्म (द्रव्य) व्याप्त होकर रहते हैं और सर्व द्रव्यों को वर्तना में निमित्त भूत काल सदा वर्तता है, वह उतना आकाश, शेष समस्त द्रव्य उनका समुदाय जिसका स्व-रूपता से स्वलक्षण है, वह लोक है। जहां जितने भामाश में जोश न पागल की गति-मिति नहीं होती, धर्म तथा अधर्म नहीं रहते, और काल नहीं पाया जाता, उतना, केवल आकाश जिसका स्व-रूपता से स्वलक्षण है, वह अलोक है ॥१२८।। तात्पर्यवृत्ति अथ लोकालोकरूपेणाकाशपदार्थस्य द्वैविध्यमाख्याति,-- पोग्गलजीवणिबद्धो अणुस्कन्धभेदभिन्नाः पुद्गलास्तावतथैवामूर्तातीन्द्रियज्ञानमयत्वनिर्विकारपरमानन्दैकसुखमयत्वादिलक्षणा जीवाश्चत्थम्भूतजीवपुद्गलनिबद्धः संबद्धो भृतः पुद्गलजीवनिबद्धः धम्माधम्मस्थिकायकालड्दो धर्माधर्मास्तिकायौ च कालश्च धर्माधर्मास्तिकायकालास्तैराढ्यो भृतो धर्माधर्मास्तिकायकालाढ्यः जो यः एतेषां पंचानामित्वम्भूतसमुदायो राशिः समुहः वददि वर्तते । कस्मिन ? आगासे अनन्तानन्ताकाशद्रव्यस्य मध्यवर्तिनि लोकाकाशे सो लोगो स पूर्वोक्तगंचानां समुदायस्तदाधारभूतं लोकाकाशं चेति षड्द्रव्यसभुहो लोको भवति । क्व ? सव्वकाले दु सर्वकाले तु तद्वहि तमनन्तानन्ताकाशमलोक इत्यभिप्रायः ।।१२८॥ उत्थानिका-आगे लोक और अलोक के भेद से आकाश पदार्थ के दो भेद बताते हैं : अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जितना क्षेत्र (आगासे) इस आकाश में (पोग्गलजीवणिबद्धो) पुद्गल और जीवों से भरा हुआ तथा (धम्माधम्मत्यिकायकालड्ढो) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल से भरा हुआ (बट्टदि) वर्तन करता है (सो दु) वही क्षेत्र (सक्वकाले) सदा हि (लोगो) लोक है। पुद्गल के दो भेद हैं-अणु और स्कंध तथा जोब अमूर्तिक अतीन्द्रिय ज्ञान-मयी और निविकार परमनान्द रूप एक सुखमयी आदि लक्षणों के धारी हैं इनसे जितना आकाश भरा हुआ है व जिसमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल द्रव्य भी व्यापक हैं, इस तरह जो पांचों द्रव्यों के समूह को रखता हुआ वर्तता है वह इस अनन्तानन्त आकाश के मध्य में रहने वाला लोकाकाश है। वास्तव में आकाश सहित जो इन पांच द्रव्यों का आधार है वह छः द्रव्य का समूह रूप लोक सदा ही है उसके बाहर अनन्तानन्त खाली जो आकाश है वह अलोफाकाश है, ऐसा अभिप्राय है ॥१२॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ] पमयणसारो अथ क्रियाभावतद्भावविशेषं निश्चिनोति उप्पादछिमिया पोग्बालाजी लोगस । परिणामा जायते' संघादादो व भेदादो ॥१२६॥ उत्पादस्थितिभङ्गाः पुद्गलजीवात्मकस्य लोकस्य । परिणामाज्जायन्ते संघाताद्वा भेदात् ।। १२६।। ... . क्रियाभाववत्त्वेन केवलभाववत्त्वेन च द्रव्यस्थास्ति विशेषः । तत्र भाववन्तौ कियावन्तौ च पुदगलजीवी परिणामाझेदसंघाताभ्यां चोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वात् । शेषद्रव्याणि तु भाववन्त्येव परिणामादेवोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वादिति निश्चयः । तत्र परिणाममात्रलक्षणो भावः, परिस्पन्दनलक्षणा किया। तत्र सर्वाण्यपि द्रव्याणि परिणामस्वभावत्वात् परिणामेनोपात्तान्वयव्यतिरेकाण्यवतिष्ठमानोत्पद्यमानभज्यमानानि भाववन्ति भवन्ति । पुद्गलास्तु परिस्पन्दस्वभावत्वात्परिस्पन्देन भिन्नाः संघातेन संहताः पुनर्भेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठमानज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति । तथा जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्यात्परिस्पन्देन नूतनकर्मनोकर्मपुद्गलेभ्यो भिन्नास्तः सह संघातेन संहताः पुनर्भेदेनोल्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति ।।१२६॥ भूमिका--अब, किया-रूप और 'भाव' रूप जो द्रब्य के भाव हैं उनकी अपेक्षा से द्रव्य का भेद निश्चित करते हैं अन्वयार्थ -[पुद्गलजीवात्मकस्य लोकस्य] पुद्गल-जीवमयी लोक के (अर्थात् जीव पुद्गल के) [परिणामात्] परिणमन से, तथा [संघातात् या भेदात् ] संघात (मिलने) और भेद (पृथक् होने) से [उत्पादस्थितिभंगाः] उत्पाद, ध्रौव्य, और व्यय [जायन्ते] होते हैं । (सामर्थ्य से अर्थात् परिशेष न्याय से यह भी सिद्ध हो जाता है कि शेप चार द्रव्यों के केवल परिणमन से उत्पाद आदि होते हैं) टीका-कोई द्रव्य 'भाव' वाले तथा 'क्रिया वाले होने से और कोई द्रव्य केवल 'भाव' वाले होने से, इस अपेक्षा से बच्चों के भेव होते हैं। उनमें पुद्गल तथा जीव (१) भाव वाले तथा (२) क्रिया वाले हैं, क्योकि (१) परिणाम द्वारा तथा (२) संघात और भेद के द्वारा वे (जीव पुद्गल) उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं। शेष द्रव्य तो भाव वाले ही हैं, क्योंकि वे परिणाम के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं, ऐसा निश्चय है। १. ज्ञादि (जम वृ०) Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३२३ उसमें, 'भाव' परिणाममात्र लक्षण वाला है, (और) "किया' परिस्पंद (कम्पन) लक्षण वाली है। इनमें, समस्त द्रव्य भाव वाले तो हैं ही, क्योंकि परिणाम स्वभाव वाले होने से परिणाम के द्वारा अन्वय (सह भावित्व ध्रुवता) और व्यतिरेक (क्रम-भावित्व पर्याय) को प्राप्त होते हुये वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं। पुद्गल तो (भाव वाले होने के अतिरिक्त) किया वाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पंव-स्वभाव वाले होने से परिस्पंद के द्वारा पृथक् पृथक पुद्गल एकत्रित हो जाने से और एकत्रित-मिले हुये पुद्गल पुनः पृथक् हो जाने से वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं तथा जीव भी (भाव वाले होने के अतिरिक्त) क्रिया वाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पंद स्वभाव वाले होने से परिस्पंद के द्वारा नवीन कर्म-नोकर्मरूप भिन्न पुद्गलों के साथ एकत्रित होने से और कर्म-नोकर्मरूप एकत्रित हुये पुद्गलों से बाद में पृथक् होने से, ये जीव उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं, और नष्ट होते हैं ॥१२६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्याणां सक्रियनिःक्रियत्वेन भेदं दर्शयतीत्येका पातनिका, द्वितीया तु जीवपुद्गलयोरर्थव्यञ्जनपर्यायौ द्वौ, शेषद्रव्याणां तु मुख्यवृत्त्यार्थपर्याय इति व्यवस्थापयति, जायदि जायते। के कर्तारः ? उप्पादडिदिभंगा उत्पादस्थितिभङ्गा। कस्य संबन्धिनः ? लोगस्स लोकस्य । कि विशिष्टस्य ? पोग्गलजीवप्पगस्स । पुद्गलजीवात्मकस्य पुद्गलजीवावित्युपलक्षणं पड्द्रव्यात्मकस्य । कस्मात्सकाशात् जायन्ते ? परिणामादो परिणामात् एकसमयवतिनोऽर्थपर्यायात् संघाबाको व भेदादो केवलमर्थपर्यायात्सकाशाज्जायन्ते । जीवपुद्गलानामुत्पादादय: संघाताद्वा भेदाद्वा व्यञ्जनपर्यायादित्यर्थः । तथाहि-धर्माधर्माकाशकालानां मुख्यवृत्यकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया एव जीवपुद्गलानामर्थपर्यायव्यञ्नपर्यायाश्च । कथमिति चेत् ? प्रतिसमयपरिणतिरूपा अर्थपर्याया भण्यन्ते । यदा जीवोऽनेन शरीरेण सह भेदवियोगं त्यागं कृत्वा भवान्तरशरीरेण सह संघातं मेलापकं करोति तदा विभावव्यञ्जनपर्यायो भवति, तस्मादेव भवान्तरसंक्रमणात्सक्रियत्वं भण्यते पुद्गलानां तथैव विवक्षितस्कन्धविघटनात्सनियत्वेन स्कन्धान्तरसंयोगे सति विभावब्यञ्जनपर्यायो भवति । मुक्तजीवानां तु निश्चयरत्नत्रयलक्षणेन परमकारणसमयमारसंज्ञेन निश्चयमोक्षमार्गबलेनायोगिचरमसमये नखकेशान्बिहाय परमौदारिकशरीरस्य विलीयमानरूपेण विनाशे सति केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिलक्षणेन परमकार्यसमयसाररूपेण स्वभावव्यञ्जनपर्यायेण कृत्वा योऽसावुत्पादः स भेदादेव भवति न संघातात् । कस्मादितिचेत् ? शरीरान्तरेण सह संवन्धाभाबादिति भावार्थः ।।१२६॥ एवं जीवाजीवत्वलोकालोकत्वसक्रियनिः क्रियत्वकथनक्रमेण प्रथमस्थले गाथात्रयं गतम् । उस्थानिका—आगे द्रव्यों में सक्रिय और निःक्रिय भेद को दिखलाते हैं यह एक पातनिका है । दूसरी यह है कि जीव और पुद्गल में अर्थ-पर्याय और व्यंजन-पर्याय दोनों होती हैं जबकि शेष द्रव्यों में मुख्यता से अर्थपर्याय होती है, इसको सिद्ध करते हैं Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ [ पवयणसारी अन्वय सहित विशेषार्थ-(लोगस्स) इस छह ब्रव्यमयी लोक के (उप्पाददिदिभंगा) उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूपी अर्थपर्याय होते हैं तथा (पोग्गलजीवप्पगस्स) पुद्गल और जीवमयो लोक के अर्थात् पुद्गल और जीवों के (परिणाम) व्यंजन पर्यायरूप परिणमन भी (संधादादो) संघात से (ब) या (भेदादो) भेद से (जायदि) होते हैं। यह लोक छह द्रव्यमयो है । इन सब द्रव्यों में सत्पना होने से समय-समय उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप परिणमन हुआ करते हैं इनकी अर्थ-पयांय कहते हैं। जीव और पुद्गलों में केवल अर्थ-पर्याय ही नहीं होती किन्तु संघात या भेद से ध्यंजन पर्याय भी होती हैं। अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल की मुख्यता से एक समयवर्ती अर्थ-पर्यायें ही होती हैं तथा जीव और पुद्गलों के अर्थ-पर्याय और व्यंजन-पर्याय बोनों होती हैं। किस तरह होती हैं, सो कहते हैं, सो समयसमय परिणमन रूप अवस्था है उसको अर्थ-पर्याय कहते हैं। जब यह जीव इस शरीर को त्यागकर भवान्तर शरीर के साथ मिलाप करता है तब विभाव व्यंजनपर्याय होती है। इसी ही कारण से कि यह जीव एक जन्म से दूसरे जन्म में जाता है इसको क्रियावान् कहते हैं । तैसे ही पुद्गलों की भी व्यंजन-पर्याय होती हैं। जब कोई विशेष स्कंध से छूट कर एक पुद्गल अपने क्रियावानपने से दूसरे स्कंध में मिल जाता है तब विभाव ध्यंजनपर्याय होती है । मुक्त जीवों के स्वभाव व्यंजनपर्याय किस तरह होती है सो कहते हैं । निश्चयरत्नत्रयमयी परम कारण-समयसाररूप निश्चयमोक्षमार्ग के बल से अयोष केवली गुणस्थान के अंत समय में नख केशों को छोड़कर परमौदारिक शरीर का विलय होता है इस तरह का नाश होते हुए केवलज्ञान आदि अनंत चतुष्टय की व्यक्तिरूप परम कार्य-समयसार रूप सिद्ध अवस्था का स्वभाव-व्यंजन-पर्यायरूप उत्पाद होता है, यह भेद से ही होता है, संघात से नहीं होता है क्योंकि मुक्तात्मा के अन्य शरीर के सम्बन्ध का अभाव है॥१२६॥ इस तरह जीव और अजीवपना, लोक और अलोकपना, सक्रिय और निष्क्रियपना को कम से कहते हुए प्रथम स्थल में तीन गाथाएं समाप्त हुई । अथ द्रव्यविशेषो गुणविशेषादिति प्रज्ञापयति लिहिं हिं दव्वं जीवमजीवं च हवदि विण्णादं । तेऽतम्भावविसिट्ठा मुत्तामुत्ता गुणा या ॥१३०॥ लिगैयद्रव्यं जीवोऽजीवश्च भवति विज्ञातम् । तेऽतद्भावविशिष्टा मूर्तामूर्ता गुणा ज्ञेयाः ।।१३०।। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३२५ ___ द्रव्यमाश्रित्य परानाश्रयत्वेन वर्तमानलिङ्गयते गम्यते द्रव्यमेतैरिति लिङ्गानि गुणाः । ते च यद्रव्यं भवति न तद्गुणा भवन्ति, ये गुगा भवन्ति ते न द्रव्यं भवतीति द्रव्यादतभावेन विशिष्टाः सन्तो लिङ्गलिङ्गिप्रसिद्धौ तल्लिङ्गत्वमुपदोकन्ते । अथ ते द्रव्यस्य जीवोऽयमजीवोऽयमित्यादिविशेषमुत्पावयन्ति, स्वयमपि तद्भावविशिष्टत्वेनोपातविशेषत्वात् । यतो हि यस्य यस्य व्रव्यस्य यो यः स्वभावस्तस्य तस्य तेन तेन विशिष्टत्वात्तेषामस्ति विशेषः । अत एव च मूर्तानाममूर्तानां च द्रव्याणां मूर्तत्वेनामूर्तत्त्वेन च तद्भावेन विशिष्टत्वादिमे मूर्ता गुणा इमे अमूर्ता इति तेषां विशेषो निश्चेयः ॥१३०॥ भूमिका--अब यह बतलाते हैं कि-गुण-विशेष (गुणों के भेद) से द्रव्य-विशेष (द्रव्य का भेद) होता है अन्वयार्थ-[यः लिंगः] जिन लिंगों से [द्रव्यं ] द्रव्य [जीवः अजीवः च] जीव और अजीव के रूप में [विज्ञार मानि] ज्ञात होता है, [ने] वे [अत्तदभावविशिष्टाः] अतद्भाव से विशिष्ट (मूर्त गुण का अमूर्त में अतभाव तथा अमूर्त का मूर्त में अतद्भाव, अथवा अतद्भाव के द्वारा द्रव्य से भिन्न) [मूर्तामूर्ताः] मूर्त-अमूर्त [गुणाः] गुण [ज्ञेयाः] जानने चाहिये। टीका-द्रव्य का आश्रय लेकर और परके आश्रय के बिना प्रयतमान होने से जिनके द्वारा द्रव्य गलगित' (चिन्हित) होताहै-पहचाना जाता है, ऐसे लिंग गुण हैं । वे (गुण), 'जो द्रव्य हैं वे गुण नहीं हैं और जो गुण हैं वे द्रव्य नहीं हैं। इस अपेक्षा से द्रव्य से अतद्भाव के द्वारा विशिष्ट (भिन्न) रहते हुये, लिंगी के रूप में प्रसिद्धि (परिचय) के समय द्रव्य के लियत्व को प्राप्त होते हैं। अब, वे द्रव्य के-'यह जीव है, यह अजीव है-ऐसे भेद उत्पन्न करते हैं, क्योंकि स्वयं भी, तद्भाव (जीवत्व-अजीयत्व भाव) के द्वारा विशिष्ट (भिन्न) होने से विशेष (भेद) को प्राप्त है। क्योंकि जिस द्रव्य का जो जो स्वभाव हो उस उसका उस उसके द्वारा विशिष्टत्व होने से उनके विशेष (भेद) हैं। इसीलिये मूर्त तथा अमूर्त द्रव्यों का मर्तत्व अमूर्तत्व रूप तद्भाध के द्वारा विशिष्टत्य होने से, उनके इस प्रकार के भेद निश्चित करने चाहिये कि 'यह मूर्त गुण हैं और यह अमूर्तगुण हैं' ॥१३०॥ तात्पर्यवृत्ति अथ ज्ञानादिविशेषगुणभेदेन द्रव्यभेदमावेदयति लिंगेहि जेहि लिगैर्यः सहजशुद्धपरमचैतन्यविलासरूपैस्तथैवाचेत जडपर्वा लिगश्चिन्हैविशेषगुणयः करणभूतैर्जीवेन कतृ भूतेन हदि विष्णादं विणेषेण ज्ञातं भवति 1 कि कर्मतापन्न ? दवं द्रव्यं । कथम्भूतं ? जीवमजीवं च जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं च ते मुत्तामुत्तागुणा णेया ते तानि पुर्वोक्तचेतनाचेतन Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] [ पवयणसारो लिङ्गानि मूर्तामूर्तगुणा ज्ञेया ज्ञातव्याः । ते च कथम्भूताः ? अतन्मावविसिट्ठा अतद्भावविशिष्टाः । तद्यथा-शुद्धजीवद्रव्ये ये केवलज्ञानाविास्तेषां शुद्धीवत्रदेश सह यकत्वमा भन्नत्वं तन्मयत्वं स तद्भावो भण्यते, तेषामेव गुणाना तैः प्रदेशैः सह यदा संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदः क्रियते तदा पुनरतद्भावो भण्यते, तेनातद्भावेन संज्ञादिभेदरूपेण स्वकीयस्वकीयद्रव्येण सह विशिष्टा भिन्ना इति, द्वितीयव्याख्यानेन पुनः स्वकीयद्रव्येण सह तद्भावेन तन्मयत्वेनान्यद्रव्यादिविशिष्टा भिन्ना इत्यभिप्रायः ।।१३।। एवं गुणभेदेन द्रव्यभेदो ज्ञातव्यः । उत्थानिका-आगे ज्ञानादि विशेष गुणों के भेद से द्रव्यों के भेदों को बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जेहि लिगहि) जिन चेतन अचेतन लक्षणों से (जीवमजीवं बब्वं) जीव और अजीव द्रध्य (विण्णादं हवदि) जाने जाते हैं (ते) वे लक्षण या चिह्न (अभावविसिठ्ठा) यद्यपि वे लक्षण या चिन्ह संज्ञा आदि की अपेक्षा अतवभाव विशिष्ट (भिन्न) हैं तथापि प्रदेश अभिन्न होने से उनके साथ तन्मयता को रखने वाले हैं (मुत्ता. मुत्ता गुणा) वे चेतन और अचेतन मूर्तिक और अमूर्तिक गुण वाले हैं (णेया) ऐसा जानना चाहिये। स्वाभाविक शद्ध परम चैतन्य के विलासरूप विशेष गुणों से जीव द्रव्य तथा अचेतन या जड़रूप विशेष गुणों से अजीव द्रव्य पहचाने जाते हैं। ये चेतन तथा अचेतन गुण अपने-अपने द्रव्य से तन्मय हैं। जैसे शुद्ध जीव व्रज्य में जो केवलज्ञान आदि गुण हैं उनकी शुद्ध जीव के प्रदेशों के साथ जो एकता, अभिन्नता तथा तन्मयता है उसको तनाव कहते हैं। इस तरह शुद्ध जीव द्रव्य अपने प्रदेशों की अपेक्षा अपने शुद्ध गुणों से तन्मय है परन्तु जब गुणों का और उन प्रदेशों का जहां वे गुण पाए जाते हैं संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि से भेव किया जाता है तम गुण और द्रव्य में अतद्भावपना या भेवपना भी सिद्ध होता है। बच्य और गुण किसी अपेक्षा अभेदरूप व चिसो अपेक्षा भेदरूप हैं। अथवा दूसरा व्याख्यान यह है कि जिस द्रव्य के जो विशेष गुण हैं वे अपने द्रध्य से तवभाव रूप या तन्मय हैं परन्तु अन्य द्रव्यों से वे अतद्भाव रूप या भिन्न हैं । ये चेतन अचेतन मूर्तिक और अमूर्तिक गुण वाले हैं, ऐसा समझना चाहिये ॥१३०॥ इस तरह गुणों के भेव से द्रव्य का भेव जानना चाहिये । अथ मूर्तामूर्तगुणानां लक्षणसंबन्धमाख्याति मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा' । वव्वाणममुत्ताणं गुणा अमुत्ता मुणेदव्या ॥१३१।। १. अणेविा (ज. ३०)। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयपसारो ] [ ३२७ मुर्ता इन्द्रियग्राह्याः पुद्गलद्रव्यात्मका अनेकविधाः 1 द्रव्याणाममूर्तानां गुणा अमूर्ता ज्ञातव्याः ॥१३१।। मूर्तानां गुणानामिन्द्रियग्राह्यत्वं लक्षणम् । अमूर्तानां तवेय विपर्यस्तम् । ते च मूर्ताः पुद्गलद्रव्यस्य, तस्यवेकस्य मूर्तत्वात् । अमूर्ताः शेषद्रव्याणां, पुद्गलादन्येषां सर्वेषामप्यमूर्तत्वात् ॥१३१॥ भूमिका—अब मूर्त और अमूर्त गुण के लक्षण तथा सम्बन्ध (अर्थात् उनका किन द्रन्यों के साथ संबंध है, यह) कहते हैं ___ अन्वयार्थ-[मुर्ताः] मूर्त गुण [इन्द्रियग्राह्याः] इन्द्रिय-ग्राह्य हैं [पुद्गलद्रव्यात्मकाः] पुद्गल द्रव्यमयी हैं तथा [अनेक-विधाः] अनेक प्रकार के हैं, [अमूर्तानां द्रव्याणां] अमूर्त द्रव्यों के [गुणाः] गुण [अमूर्ता:ज्ञातव्याः] अमूर्त जानना चाहिये । ____टीका-मूर्त गुणों का लक्षण इन्द्रिय ग्राह्यत्व है, और अमूर्त गुणों का उससे विपरीत है, (अर्थात् अमूर्त गुण इन्द्रियों से ज्ञात नहीं होते ) और मूर्त गुण पुद्गल द्रव्य के हैं, क्योंकि वही (पुद्गल ही) एक मूर्त है, और अमूर्त गुण शेष द्रव्यों के हैं, क्योंकि पुद्गल के अतिरिक्त शेष द्रव्य अमूर्त हैं ॥१३॥ ___ तात्पर्यवृत्ति अथ मुर्तामूर्तगुणानां लक्षणं सम्बन्धं च निरूपयति__ मुत्ता इंदियगेज्झा मूर्ता गुणा इन्द्रियग्राह्या भवन्ति, अमूर्ताः पुनरिन्द्रियविषया न भवन्ति इति मूर्तामूर्तगुणानामिन्द्रियानिन्द्रियविषयत्वलक्षणमुक्तं । इदानीं मुर्तगुणाः कस्य सम्बन्धिनो भवन्तीति सम्बन्धं कथयति ? पोग्गलदव्यप्पगा अणयविहा मूर्तगुणाः पुद्गलद्रव्यात्मका अनेकविधा भवन्ति पुद्गलद्रव्यसम्बन्धिनो भवन्तीत्यर्थः । अभूर्तगुणानां सम्बन्ध प्रतिपादयति दवाणममुत्ताणं त्रिशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं यत्परमात्मद्रव्यं तत्प्रभृतीनाममूर्तद्रव्याणानां सम्बन्धिनो भवन्ति । ते के गुणाः ? गुणा अमुत्ता अमूर्ताः गुणाः केवलज्ञानादय इत्यर्थः । इति मुर्तामर्तगुणानां लक्षणसम्बन्धी मुणेदव्वा ज्ञातव्यौ ॥१३॥ एवं ज्ञानादिवशेषगुणभेदेन द्रव्यभेदो भवतीति कथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका-आगे मूर्तिक और अमूर्तिक गुणों का लक्षण और सम्बन्ध कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(इंदियगेज्मा) जो इन्द्रिय के ग्रहण करने योग्य हैं (मूत्ता) वे मूर्तिक हैं वे (अणेयविहा) अनेक प्रकार के हैं तथा (पोग्गल-दव्वप्पगर) पुद्गल-द्रव्यमयो हैं । (अमुताणं दब्याणं) अमूर्तिक द्रव्यों के (गुणा) गुण (अमुत्ता) अमूर्तिक (मुणेदध्वा) जानने योग्य हैं। जो इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने योग्य हैं वे मूर्तिक गुण हैं और जो अमूर्तिक गुण हैं वे इंद्रियों के द्वारा नहीं ग्रहण किये जाते हैं। इस तरह मूर्तिक गुणों का लक्षण इन्द्रियों का विषयपना है जब कि अमूर्तिक गुणों का लक्षण इन्द्रियों का विषयपना नहीं है। मूर्तिकगुण अनेक प्रकार के पुद्गल द्रव्य सम्बन्धी होते हैं तथा अमूर्तिकगुण Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] [ पवयणसारो विशद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावधारी परमात्म-द्रथ्य को आदि लेकर अमृतिकद्रव्यों के होते हैं। के अमूर्तिकगुण केवलज्ञान आदि होते हैं। इस तरह मूर्त और अमूर्त गुणों के लक्षण और सम्बन्ध जानने योग्य हैं ॥१३१॥ इस तरह ज्ञान आदि विशेष गुणों के भेद से द्रव्यों में भेद होता है, ऐसा कहते हुए दूसरे स्थल में दो गाथाएँ पूर्ण हुई। अप मूर्तस्य पुद्गल द्रव्यस्य गुणान गृणाति वण्णरसगंधफासा विज्जंते पुग्गलस्स सुहुमादो । पुढवीपरियंत्तस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो ॥१३२॥ वर्णरसगंधस्पर्शा विद्यन्ते पुद्गलस्य सूक्ष्मात् । पृथिवीपर्यन्तस्य च शब्दः स पुद्गलप्रिचत्रः ।।१३२।। इन्द्रियग्राह्याः किल स्पर्शरसगन्धवर्णास्तद्विषयत्वात, ते चेन्द्रियग्राह्यत्वव्यक्तिशक्तिवशात् गृह्यमाणा अगृह्यमाणाश्च आ एकद्रध्यात्मकसूक्ष्मपर्यायात्परमाणोः आ अनेकद्रव्यात्मकस्थूलपर्यायात्पृथियोस्कन्धाच्च सकलस्यापि पुद्गलस्याविशेषेण विशेषगुणत्वेन विद्यन्ते। ते च मूर्तत्वादेव शेषद्रव्याणामसंभवन्तः पुद्गलमधिगमयन्ति । शब्दस्यापोन्द्रियग्राह्यत्वाद्गुणत्वं न खल्वाशनीयं, तस्य वैचित्र्यप्रपञ्चितवैश्वरूपस्याप्यनेकद्रव्यात्मकपुद्गलपर्यायत्वेनाभ्युपगम्यमानत्वात् । गुणत्वे वा न तावदमूर्तद्रव्यगुणः शब्दः गुणगृणिनोरविभक्तप्रदेशत्वेनेकवेदनवेद्यत्वावमूर्तद्रव्यस्यापि श्रवणेन्द्रियविषयत्वापत्तेः । पर्यायलक्षणेनोत्खातगुणलक्षणत्वान्मर्तद्रव्यगुणोऽपि न भवति । पर्यायलक्षणं हि कायाचिकत्वं गुणलक्षणं तु नित्यत्वम् । ततः कादाचित्कत्वोत्खातनित्यत्वस्य न शब्दस्यास्ति गुणत्वम् । यत्तु तत्र नित्यत्वं तत्तदारम्भकपुद्गलानां तद्गुणानां च स्पर्शादीनामेव न शब्दपर्यायस्येति दृढतरं ग्राह्यम् । न ध पुद्गलपर्यायत्वे शब्दस्य पृथिवीस्कन्धस्येव स्पर्शनादीन्द्रियविषयत्वम् । अपां नाणेन्द्रियाविषयत्वात्, ज्योतिषो प्राणरसनेन्द्रियाविषयवात्, मरुतो घ्राणरसनचक्षुरिन्द्रियाविषयत्वाच्च । न चागन्धागन्धरसागन्धरसवर्णाः, एवमपज्योतिमारुतः, सर्वपुद्गलानां स्पर्शादिचतुष्कोपेतत्वाभ्युपगमात् । व्यक्तस्पर्शादिचतुष्कानां च चन्द्रकान्तारणियवानामारम्भकैरेव पुद्गलरव्यक्तगन्धाव्यक्तगन्धरसाव्यक्तगन्धरसवर्णानामपज्योतिरुदरमरुतामारम्भदर्शनात् । न च स्वचित्कस्यचित् गुणस्य व्यक्ताव्यक्तत्वं कावाचित्कपरिणामवैचित्र्यप्रत्ययं नित्यद्रव्यस्वभावप्रतिघाताय । ततोऽस्तु शब्दः पुद्गलपर्याय एवेति ॥१३॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 [ ३२६ भूमिका – अब मूर्त पुद्गल द्रव्य के गुण कहते हैं अन्वयार्थ – [ सूक्ष्मात् पृथिवीपर्यन्तस्य पुद्गलस्य ] सूक्ष्म (परमाणु) से लेकर समस्त पुद्गल के [ वर्णरसगंधस्पर्शाः ] वर्ण, रस, गंध और स्पर्श ( गुण ) [ विद्यन्ते ] होते हैं; [चित्र: शब्द: ] जो विविध प्रकार का शब्द है [ सः ] वह [ वुद्गलः ] पुद्गल है | ( अर्थात् मुगल की पर्याय है ) | टीका - स्पर्श, रस, गंध और वर्ण इन्द्रियग्राह्य हैं क्योंकि वे इन्द्रियों के विषय हैं । ये इन्द्रियग्राह्यता की व्यक्ति और शक्ति के यश से भले हो इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाते हों या न किये जाते हों तथापि वे एक द्रव्यात्मक सूक्ष्म पर्यायरूप परमाणु से लेकर अनेक अध्यात्मक स्थल पर्यायरूप पृथ्वीस्कंध तक के समस्त पुद्गल के अविशेषतया ( क्योंकि कोई भी पुद्गल ऐसा नहीं है जिसमें ये न पाये जायें अंतः साधारण रूप से या समस्त रूप से) विशेष गुणों के रूप में होते हैं (क्योंकि ये अन्य ब्रध्यों में नहीं हो सकते, अत: विशेष या असाधारण गुण हैं ।) और वे मूर्त होने के कारण से ही ( पुद्गल के अतिरिक्त) शेष द्रव्यों में न होने से, पुद्गल को बतलाते हैं (उसका ज्ञान कराते हैं) । ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि शब्द भी इन्द्रियग्राह्य होने से गुण होगा, क्योंकि विचित्रता के द्वारा विश्वरूपत्व को ( अनेकानेक प्रकारत्व को ) प्राप्त उसके ( शब्द के ) अनेक द्रव्यात्मक पुद्गल - पर्यायता स्वीकार की गई है ( अर्थात् शब्द पुद्गलस्कंध की पर्याय है ) । यदि शब्द को ( पर्याय न मानकर ) गुण माना जाय, तो वह क्यों योग्य नहीं है, उसका समाधान - प्रथम तो, शब्द अमूर्त द्रव्य का गुण नहीं है, क्योंकि गुण गुणी में अभिन्न- प्रदेश व होने से तथा वे ( गुण-गुणी ) ( एक वेदन से देद्य-एक ही ज्ञान से ज्ञात होने योग्य होने से, अमूर्त द्रव्य के भी श्रवणेन्द्रिय की विषयभूतता आ जायगी । (दूसरे, शब्द में ) पर्याय के लक्षण से गुण का लक्षण उत्थापित ( खण्डित) होने से, शब्द मूर्त द्रव्य का गुण भी नहीं है। पर्याय का लक्षण कादाचित्कत्व (अनित्यत्व ) है और गुण का लक्षण नित्यत्य है, इसलिये ( शब्द को ) अनित्यत्व से नित्यत्व के उत्थापित होने से ( अर्थात् शब्द कभी-कभी ही होता है, अतः नित्य नहीं है, इसलिये ) शब्द गुण नहीं है । जो वहां नित्यत्व है, वह उसको ( शब्द को ) उत्पन्न करने वाले पुद्गलों का और उनके स्पर्शादिक गुणों का ही है, शब्द पर्याय का नहीं, , - इस प्रकार अतिदृढ़ता पूर्वक ग्रहण करना चाहिये । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो "यदि शब्द युद्गल को पर्याय हो तो वह पृथ्वीस्कंध की भांति स्पर्शनादिक इंद्रियों का भी विषय होना चाहिये, अर्थात् जैसे पृथ्वीस्कंध रूप पुरगलपर्याय सर्व इन्द्रियों से ज्ञात होती है उसी प्रकार शब्दरूप पुद्गल पर्याय भी सभी इन्द्रियों से ज्ञात होनी चाहिये" (ऐसा तर्फ किया जाय तो) ऐसा भी नहीं है, क्योंकि जल (पुद्गल को पर्याय है, फिर भी) नाणेन्द्रिय का विषय नहीं है, अग्नि घ्राणेन्द्रिय तथा रसनेन्द्रिय का विषय नहीं है और वायु घ्राण, रसना तथा चक्षुइन्द्रिय का विषय नहीं है (इसलिये नाक तथा जीभ से अग्राह्य है) और वायु, गंध, रस वर्ण रहित है (इसलिये नाक, जीभ तथा आंखों से अग्राह्य है) क्योंकि सभी पुद्गल स्पर्शादिचतुष्क युक्त (स्पर्श-रस-गंध-वर्ण युक्त) स्वीकार किये गये हैं । क्योंकि जिनके स्पर्शाविचतुष्क व्यक्त हैं ऐसे (१) चन्द्रकान्तमणि को, (२) अरणिको और (३) जौ को जो पुद्गल उत्पन्न करते हैं उन्हीं के द्वारा (१) जिसकी गंध अव्यक्त है ऐसे पानी को, (२) जिसकी गंध तथा रस अन्यक्त है ऐसी अग्नि की और (३) जिसके गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त हैं ऐसी शरमायु की उत्पत्ति होती देखी जाती है । और कहीं (किसी पर्याय में) किसी गुण की कादाचित्क परिणाम को विचित्रता के कारण होने वाली व्यक्तता या अन्यक्तता नित्य द्रव्यस्वभाव का प्रतिघात नहीं करती। (अर्थात् अनित्यपरिणाम के कारण होने वाली गुण की प्रगटता और अप्रगटता नित्य व्रध्यस्वभाव के साथ कहीं विरोध को प्राप्त नहीं होती। इसलिये शब्द पुद्गल की पर्याय ही है ॥१३२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ मूर्तपुद्गलद्रव्यस्य गुणानावेदयति, वण्णरसगन्धफासा विज्जते पोग्गलस्स वर्णरसगन्धस्पर्शा विद्यन्ते । कस्य ? प्रदगलस्य। कथम्भूतास्प? सुहमादो पुढवीएरियंतस्स य। "पुढवी जलं च छाया च उरिदियविसयकम्मपरमाणू । छविहमेयं भणियं पोग्गलदब्बं जिणबरेहि"॥ इति गाथाकथितक्रमेण परमाणु लक्षणसूटमस्वरूपादेः पृथ्वीस्कन्धलक्षणस्थूलस्वरूपपर्यन्तस्य च । तथाहि—यथानन्तज्ञानादिचतुष्टयं विशेषलक्षणभूतं यथासम्भवं सर्वजीवेषु साधारणं तथा वर्णादिचतुष्टयं विशेषलक्षणभूतं यथासम्भवं सर्वपुद्गलेषु साधारणम् । यथैव चानन्तज्ञानादिचतुष्टयं मुक्तजीवेऽतीन्द्रियज्ञानविषयमनुमानगम्यमागमगम्यं च, तथा शुद्धपरमाणुद्रव्ये वर्णादिचतुष्टयमप्यतीन्द्रियज्ञानविषयमनुमानगम्यमागमगम्यं च । यथा वानन्तचतुष्टयस्य संसारिजीवे रागादिस्नेहनिमित्तेन कर्मबन्धवशादशुद्धत्वं भवति तथा वर्णादिचतुष्टयस्यापि स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तन द्वयणुकादिबन्धावस्थायामशुद्धत्वम् । यथा वानन्तज्ञानादिचतुष्टयस्य रागादिस्नेहरहितशुद्धात्मध्यानेन शुद्धत्वं भवति तथा वर्णादिचतुष्टयस्यापि स्निग्धगुणाभावे बन्धने सति परमाणु पुद्गलावस्थायां शुद्धत्वमिति। सद्दो सो पोग्गलो यस्तु शब्द: स पौद्गलः यथा जीवस्य नरनारकादिविभावपर्यायाः तथायं शब्द: पुद्गलस्य विभावपर्यायो Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवमणसारो ] [ ३३१ न च गुणः । कस्मात् ? गुणस्याविनश्वरत्वात् अयं च विनश्वरो। नैयायिकमतानुसारी कश्चिद्वदत्याकाशगुणोऽयं शब्दः । परिहारमाहू-आकाशगुणत्वे सत्यमूत्तों भवति । अमूर्तश्च श्रवणेन्द्रियविषयो न भवति, दृश्यते च श्रवणेन्द्रियविषयत्वं । शेषेन्द्रिविषयः कस्मान्न भवतीति चेत् ? अन्येन्द्रिविषयोऽन्ये न्द्रियस्य न भवति वस्तुस्वभावादेव रसादिविषयवत् । पुनरपि कथंभूतः ? चित्तो चित्रः भाषात्मकाभाषात्मकरूपेण च प्रायोगिक वैनसिकरूपेण च नानाप्रकारः तच्च । “सद्दो खंधप्पभवो” इत्यादि माथायां पंचास्तिकाये व्याख्यातं तिष्ठत्यत्रालं प्रसंगेन ॥१३२॥ उत्थानिका-आगे मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के गुणों को कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(सहमादो पढवीपरियंतस्स) मूक्ष्म परमाणु से लेकर पृथ्वी पर्यंत (पोग्गलस्स) पुद्गल द्रव्य के (वण्णरसगंधफासा) वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, (विजंते) विद्यमान होते हैं । (य) और (सद्दो) शब्द है (सो पोग्गलो चित्तो) वह नाना प्रकार का है और पौगलिक है। पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण स्पर्श रस गंध वर्ण हैं। वे पुद्गल सूक्ष्म परमाणु से लेकर स्थूल पृथ्वी स्कंध रूप तक हैं। जैसे इस गाथा में कहा है जिनेन्द्र देव ने पुद्गल को छह प्रकार कहा है, पृथ्वी, जल, छाया, चार इन्द्रियों के विषय, कार्मणवर्गणा और परमाणु । जैसे सर्व जीवों में अनन्तज्ञानादि-चतुष्टय-विशेष लक्षण यथासंभव साधारण हैं तसे ही वर्णावि चतुष्टय रूप विशेष लक्षण यथासम्भव सर्व पुद्गलों में साधारण हैं और जैसे अनन्तज्ञानादि चतुष्टय मुक्तजीव में प्रगट हैं सो अतीन्द्रियज्ञान का विषय है । हमको अनुमान से सथा आगम प्रमाण से मान्य हैं तैसे ही शुद्ध परमाणु में वर्णादि-चतुष्टय भी अतीन्द्रिय ज्ञान का विषय है। हमको अनुमान से तथा आगम से मान्य हैं। जैसे यहो अनन्तचतुष्टय संसारी जीव में रागद्वेषादि चिकनाई के कारण कर्मबंध होने के वश से अशुद्धता रखते हैं तैसे ही स्निग्ध रूक्ष गुण के निमित्त से दो अणु तीन अणु आदि को बंध अवस्था में वर्गादि-चतुष्टय भी अशुद्धता को रखते हैं। जैसे रागद्वेषावि रहित शुद्ध आत्मा के ध्यान से इन अनन्तज्ञानादि-चतुष्टय की शुद्धता हो जाती है तैसे ही यथायोग्य स्निग्ध रूक्ष गुण के न होने पर बन्धन न होते हुए एक पुद्गल परमाणु की अवस्था में शुद्धता रहती है। और जैसे नरनारक आदि जीव की विभावपर्याय हैं तैसे यह शब्द मी पुद्गल की विभावपर्याय है, गुण नहीं है क्योंकि गुण अविनाशी होता है परन्तु यह शब्द विनाशीक है। यहां नयायिक मत के अनुसार कोई कहता है कि यह शब्द आकाश का गुण है, इसका खंडन करते हुए कहते हैं कि यदि शब्द आकाश का गुण हो तो शब्दअमूर्तिक हो जावे । जो अमूर्त वस्तु है वह कर्ण इन्द्रिय से ग्रहण नहीं हो सकती और यह प्रत्यक्ष प्रगट है कि शब्द कर्ण Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ] [ पवयणसारो इन्द्रिय का विषय है । वह बाकी इन्द्रियों का विषय क्यों नहीं होता है ? ऐसी शंका का समाधान यह है कि अन्य इन्द्रिय का विषय अन्य इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता, ऐसा वस्तु का स्वभाव है। जैसे रसादि विषय रसना इन्द्रिय आदि के रूप, प्रायोगिक और वैrसिकरूप अनेक प्रकार का है जैसा कि पंचास्तिकाय की “सद्दो खंधत्वभवो" इस गाथा में समझाया है यहां इतना ही कहना पर्याप्त है ॥ १३२ ॥ । यह शब्द भाषा भावार्थ - श्री पंचास्तिकाय में भी कहा है सद्दो धप्पमवो बंधो परमाणु संगसंधादो । पुट्ठेसु तेसु जायदि सही उप्पावगो यिदो ॥७६॥ शब्द स्कंधों के द्वारा पैदा होता है, स्कंध परमाणुओं के मेल से बनते हैं और उन स्कंधों के परस्पर संघट्ट होने पर शब्द पैदा होता है । भाषावगंणा के योग्य सूक्ष्म स्कंध जो शब्द के अभ्यंतर कारण हैं लोक में हर जगह, हर समय मौजूद हैं। जब सालु, ओठ आदि का व्यापार होता है या घंटे की चोट होती है या मेघादि का मिलान होता है तब भाषावर्गणा योग्य पुद्गल शब्द रूप में परिणमन कर जाते हैं। निश्चय से भाषावर्गणा योग्य पुद्गल ही शब्दों के उत्पन्न करने वाले हैं ।। १३२ ॥ अमूर्तानां शेषद्रव्याणां गुणान् गृणाति धम्मद्दव्वस्स आगासस्तवगाहो गमणहेदुत्तं । धम्मेदरदव्वस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा ॥१३३॥ कालस्स वट्टणा से गुणोवओगो त्ति अप्पणी भणिदो । या संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं ॥१३४॥ जुगलं । आकाशस्यावगाहो धर्मद्रव्यस्य गमनहेतुत्वम् । धर्मेतरद्रव्यस्य तु गुणः पुनः स्थानकारणता १११३३॥ कालस्य वर्तना स्यात् गुण उपयोग इति आत्मनो भणितः । ज्ञेयाः संक्षेपाद्गुणा हि मूर्तिप्रहणानाम् ॥ १३४ ॥ युगलम् । विशेषगुणो हि युगपत्सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वमाकाशस्य, सकृत्सर्वेषां गमनपरिणामिनां जीवपुद्गलानां गमनहेतुत्वं धर्मस्य, सकृत्सर्वेषां स्थानपरिणामिनां जीवपुद्गलानां स्थान हेतुत्वमधर्मस्य, अशेषशेषद्रव्याणां प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुत्वं कालस्य, चैतन्यपरिणामो जीवस्य । एवमसूर्तानां विशेषगुणसंक्षेपाधिगमे लिङ्गम् । तत्रैककालमेव सकलद्रव्यसाधारणावगाहसम्पादनमसर्वगतत्वादेव शेषद्रव्याणामसंभवदाकाशमधिगमयति । तर्थकवारमेव गतिपरिणतसमस्त जीवपुद्गलानामालोकाद्गमन हेतुत्वम प्रदेशत्वात्कालपुद्गलयोः Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयणसारो । [ ३३३ समुद्घातादन्यत्र लोकासंख्येयभागमात्रत्वाज्जीवस्य लोकालोकसीम्नोऽचलितत्वादाकाशस्य विरुद्धकार्यहेतुत्वादधर्मस्यासंभन्नहर्ममधिगमयति । तथैकवारमेय स्थितिपरिणतसमस्तजीवपुरगलानामालोकात्स्थानहेतुत्वमप्रदेशत्वात्कालपुद्गलयोः, समुद्घातादन्यत्र लोकासंस्पेयभागमात्रत्वाज्जीवस्य, लोकालोकसीम्नोऽचलितत्वादाकाशस्य, विरुद्धकार्यहेतुत्वाद्धर्मस्य चासम्भवदधर्ममधिगमयति । तथा अशेषशेषद्व्याणां प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुत्वं कारणान्तरसाध्यत्वात्समयविशिष्टाया वृत्तः स्वतस्तेषामसंभवत्कालमधिगमयति । तथा चैतन्यपरिणामश्चेतनत्वादेव शेषद्रव्याणामसंभवन् जीवमधिगमयति । एवं गुणविशेषाद्वव्यविशेषोऽधिगन्तव्यः ॥१३३।१३४॥ भूमिका-अब, शेष अमूर्तद्रव्यों के गुण कहते हैं अन्वयार्थ—[आकाशस्यावगाहः) आकाश का अवगाह, [धर्मद्रव्यस्य गमनहेतुत्वं] धर्मद्रव्य का गमनहेतुत्व [तु पुनः] और [ धमतरद्रव्यस्य गुणः] अधर्म द्रव्य का गुण [स्थानकारणता] स्थान कारणता है। [कालस्य] काल का गुण [वर्तना स्यात्] वर्तना है, [आत्मनः गुणः] आत्मा का गुण | उपयोगः इति भणितः] उपयोग कहा है। [ मूर्तिप्रहीणानां गुणा: हि] इस प्रकार अमूर्तद्रव्यों के गुण [संक्षेपात्] संक्षेप से [जेयाः] जानने चाहिये। टीका-युगपत् सर्वद्रव्यों के साधारण अवगाह का हेतुत्व आकाश का विशेष गुण है । एक ही साथ गतिरूप परिणमित सर्व जीव-पुद्गलों के गमन का हेतुत्व धर्म का विशेष गुण है। एक ही साथ स्थितिरूप परिणमित सर्व जीव-पुद्गलों के स्थिर होने का हेतुत्व अधर्म का विशेष गुण है। (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों की प्रति-पर्याय में समयवृत्ति का हेतुत्व (समय-समय की परिणति का निमित्तत्व) काल का विशेष गुण है। चैतन्यपरिणाम जीय का विशेष गुण है । इस प्रकार अमूर्तद्रव्यों के विशेषगुणों का संक्षिप्त ज्ञान होने पर अमूर्तद्रव्यों को जानने के लिंग (चिन्ह, लक्षण, साधन) प्राप्त होते हैं, अर्थात् उन-उन विशेष गुणों के द्वारा उन-उन अमूर्त द्रव्यों का अस्तित्व ज्ञात होता हैसिद्ध होता है । (इसी को स्पष्टता-पूर्वक समझाते हैं वहां एक ही काल में समस्त द्रव्यों को साधारण अवगाह का संपादन (अवगाह हेतुत्व रूप लिंग) आकाश को ज्ञात कराता है, क्योंकि शेष द्रव्यों के सर्वगत-पना न होने से उनके वह (अवगाह-संपादन) संभव नहीं है। इसी प्रकार एक ही काल में गति-परिणत समस्त जीव-पुद्गलों को लोक तक गमन का हेतुत्व धर्म को ज्ञात कराता है, क्योंकि काल Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ । [ पवयणसारो और पुद्गल अप्रदेशी हैं इसलिये उनके वह संभव नहीं है, जीव समुद्धात को छोड़कर मान्यः लोक हे असंरयासने भागमान है, इसलिये उसके संभव नहीं है, लोक अलोक को सीमा अचलित होने से आकाश के यह संभव नहीं है, और विरुद्ध कार्य का हेतु होने से अधर्म के वह संभव नहीं है । काल और पुद्गल एक--प्रदेशी हैं, इसलिये वे लोक तक गमन में निमित्त नहीं हो सकते, जीव समुद्घात को छोड़कर अन्य काल में लोक के असंख्यातवें भाग में ही रहता है, इसलिये वह भी लोक तक गमन में निमित्त नहीं हो सकता, यदि आकाश गति में निमित्त हो तो जीव और पुद्गलों को गति अलोक में भी होने लगे, जिससे लोकालोक की मर्यादा हो न रहेगी। इसलिये गति-हेतुत्व आकाश का भी गुण नहीं है, अधमंद्रव्य तो गति से विरुद्ध-स्थिति कार्य में निमित्तभूत है, इसलिये यह भी गति में निमित्त नहीं हो सकता। इस प्रकार गतिहेतुत्वगुण धर्म नामक द्रव्य का अस्तित्व बतलाता है) ___ इसी प्रकार एक ही काल में स्थिति-परिणत समस्त जीव-पुद्गलों को लोक तक स्थिति का हेतुत्व अधर्म को ज्ञात कराता है, क्योंकि काल और पुदगल अप्रदेशी हैं, इसलिये उनके यह संभव नहीं है, जीव समुद्घात को छोड़कर अन्यत्र लोक के असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिये उसके यह संभव नहीं है, लोक और अलोक की सीमा अचलित होने से आकाश के वह संभव नहीं हैं और विरुद्ध कार्य का हेतु होने से धर्म के वह संभव नहीं है। इसी प्रकार (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों के, प्रत्येक पर्याय में समयवृत्ति का हेतत्व काल को ज्ञात कराता है, क्योंकि उनके, समयविशिष्टवृत्ति (समय समय परिणमन) कारणान्तर से साध्य होने से (अर्थात उनके समय से विशिष्ट परिणति अन्य कारण से होती है, इसलिये ) स्वतः उनके वह (समयवृत्ति-हेतुत्व) संभवित नहीं है । इसी प्रकार चैतन्य परिणाम जीव को ज्ञात कराता है, क्योंकि वह चेतन है, इसलिये शेष द्रव्यों के यह संभव नहीं है । इस प्रकार गुण-विशेष से द्रव्यविशेष जानना चाहिये ।।१३३-१३४॥ तात्पर्यवृत्ति अथाकाशाद्यमुर्त्तद्रव्याणां विशेषगुणान्प्रतिपादयति आगासस्सवगाहो आकाशस्याबगाहहेतुत्वं, धम्मपन्बस्स गमण हेदुत्तं धर्मद्रव्यस्य गमनहेतुत्वं धम्मेदरदम्बस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा धर्मतरद्रव्यस्य तु पुनः स्थान कारणता गुणो भवतीति प्रथमगाथा गता। कालस्स वट्टणा कालस्य वर्तना स्याद्गुणः गुणोवओगोत्ति अप्पणो भणिदो ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयमित्यात्मनो गुणो भणितः । णेया संखेवादो गुणा हि मुत्तिष्पहीणाणं एवं संक्षेपादमुर्तद्रव्याणां गुणा ज्ञेया इति । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो | तथाहि - सर्वद्रव्याणां साधारणमवगाहहेतुत्वं विशेषगुणत्वादेवान्यद्रव्याणामसम्भवत्सदाकाशं निश्चिनोति । गतिपरिणत समस्त जीवपुद्गलानामेकसमये साधारणं गमनहेतुत्वं विशेषगुणत्वादेवान्यद्रव्याणामसम्भबत्सद्धम्र्म्मद्रव्यं निश्चिनोति । तथैव च स्थितिपरिणतसमस्त जीवपुद्गलानामेकसमये साधारणं स्थितिहेतुत्वं विशेषगुणत्वादेवान्यद्रव्याणामसम्भवदधर्म्मद्रव्यं निश्चिनोति । सर्वद्रव्याणां युगपत्र्यापरिणतिहेतुत्वं विशेषगुणत्वादेवान्यद्रव्यापारवत्कानिन्निति जीवसाधारणं सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनद्वयं विशेषगुणत्वादेवान्या चेतन पञ्चद्रव्याणामसम्भवत्सच्छुद्ध बुद्ध कस्वभावं - परमात्मद्रव्यं निश्चिनोति । अयमत्रार्थः यद्यपि पंचद्रव्याणि जीवस्योपकारं कुर्वन्ति तथापि तानि दुःखकारणान्येवेति ज्ञात्वा । यदि वाक्षयानन्तसुखादिकारणं विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावं परमात्मद्रव्यं तदेव मनसा ध्येयं वचसा वक्तव्यं कायेन तत्साधकमनुष्ठानं च कर्त्तव्यमिति ।। १३३ - १३४ ।। एवं कस्य द्रव्यस्य के विशेषगुणा भवन्तीति कथनरूपेण तृतीयस्थले गाथात्रयं गतम् । उत्थानिका— आगे आकाश आदि अमूर्तद्रव्यों के गुणों को बताते हैंअन्वय सहित विशेषार्थ--- ( आगास स्वगाहो ) आकाश द्रव्य का विशेष गुण सर्व तथ्यों को जगह देना ऐसा अवगाह हेतुत्व गुण है, ( धम्मद्दव्यस्स गमण हेदुत्तं ) धर्म द्रव्य का विशेष गुण जीव पुद्गलों के गमन में कारण ऐसा गमनहेतुत्व है, (पुणो धम्मेदरदध्वस्त दु गुणी ठाणकारणता ) तथा अधर्मेद्रव्य का विशेष गुण जीव पुद्गलों को स्थिति का कारण स्थानकारणता है, (कालस्स वट्टणा से ) कालद्रव्य का विशेष गुण सभी द्रव्यों में समय समय परिणमन की प्रवृत्ति का कारण वर्तना है और (अप्पणी गुणोबओगोति भणिदो ) आत्मा का विशेष गुण उपयोग है, ऐसा कहा गया है। (हि) निश्चय से ( मुत्तिप्प होणाणं गुणा ) मूर्तिक रहित थ्यों के विशेष गुण इस तरह (संवादो णेया) संक्षेप से जानने योग्य हैं । सर्व द्रयों को साधारण रूप से अवगाह देने का कारणपना आकाश का ही विशेष गुण है क्योंकि अन्य द्रव्यों में यह गुण असंभव है इसलिये इस विशेष गुण से आकाश का निश्चय होता है। एक समय में गमन करते हुए सर्व जीव तथा पुद्गलों को साधारण गमन में हेतुपना धर्मद्रव्य का ही विशेष गुण है क्योंकि अन्य द्रव्यों में यह असंभव है । इसी गुण से धर्मद्रव्य का निश्चय होता है । इसी तरह एक समय में स्थिति करते हुए जीव पुद्गलों को साधारण स्थिति में कारणपना अधर्मद्रव्य का ही विशेष गुण है क्योंकि अन्य द्रथ्यों में यह असम्भव है। इसी गुण से अधर्मद्रव्य का निश्चय होता है । एक समय में सर्व द्रव्यों को पर्यायों के परिणमन में हेतुपना कालद्रव्य का विशेष गुण हैं क्योंकि अन्य द्रव्यों में यह असम्भव है । इसी गुण से कालद्रव्य का निश्चय होता है । सर्व जीवों में साधारण ऐसा सर्व तरह निर्मल ऐसा केवलज्ञान और केवलदर्शन जीवद्रव्य का विशेष गुण है क्योंकि अन्य पाँच अचेतन द्रव्यों में यह असम्भव है, इसी विशेष उपयोग गुण से शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव परमात्म- द्रव्य का निश्चय होता है। यहाँ पर यह प्रयोजन है कि [ ३३५ . Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ] [ पवयणसारो यद्यपि पाँच द्रव्य जीव का उपकार करते हैं तो भी इनको दुःख का कारण जान करके नो अक्षय और अनन्तसुख आदि का कारण विशुद्ध ज्ञान दर्शन-स्वभावरूप परमात्म द्रव्य है उसी को ही मन से ध्याना चाहिये, वचन से उसका ही वर्णन करना चाहिये, तथा शरीर से उस हो का साधक जो अनुष्ठान या क्रियाकर्म है, उसको करना चाहिये ॥१३३-१३४॥ इस तरह किस द्रव्य के क्या विशेष गुण होते हैं ऐसा कहते हुए तीसरे स्थल में तीन गाथाएँ पूर्ण हुई। अय द्रव्याणां प्रवेशवत्थाप्रदेशवत्वविशेषं प्रज्ञापयति जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगासं। सपदेसेहि असंखादा' पत्थि पदेस त्ति कालस्स ॥१३॥ जीवाः पुद्गलकाया धर्माधमौं पूनश्चाकाशम् । स्वप्रदेशरसंख्याता न सन्ति प्रदेशा इति कालस्य ॥१३॥ प्रदेशवन्ति हि जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानि अनेकप्रदेशवत्त्वात् । अप्रदेशः कालाणुः प्रदेशमात्रत्वात् । अस्ति च संवर्तविस्तारयोरपि लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशापरित्यागाज्जीवस्य, ध्येण प्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्स्वेऽपि द्विप्रदेशाविसंख्येयासंख्येयानन्तप्रवेशपर्यायेणानवधारितप्रदेशत्वात्पुद्गलस्य, सकललोकव्याप्यसंख्येयप्रदेशप्रस्ताररूपत्वात् धर्मस्य, सकललोकच्याप्यसंख्येयप्रदेशप्रस्ताररूपत्वावधर्मस्य, सर्वव्याप्यनन्तप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादाकाशस्य च प्रदेशवत्वम् । कालाणोस्तु द्रोण प्रदेशमात्रत्वात्पर्यायेण तु परस्परसंपर्कासंभवावप्रवेशत्व. मेवास्ति । ततः कालद्रव्यमप्रदेशं शेषद्रव्याणि प्रदेशवन्ति ॥१३४॥ भूमिका-अब, द्रव्यों का प्रवेशवत्व और अप्रदेशवत्वरूप विशेष (भेद) बतलाते हैं अन्वयार्थ— [जीवाः] जीद, [पुद्गलकायाः] पुद्गलकाय (पुद्गल-स्कंध), [धर्मा. धमौं ] धर्म, अधर्म [पुनः च] और [आकाशं] आकाश [स्वप्रदेशः] स्वप्रदेशों की अपेक्षा से [असंख्याताः] असंख्यात अर्थात् अनेक (एक से अधिक प्रदेश वाले) हैं, [इति] इस प्रकार [कालस्य] काल के [प्रदेशाः] अनेक प्रदेश [न सन्ति] नहीं हैं। टीका-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य अनेक प्रदेश वाले होने से प्रदेशवान हैं । कालाणु प्रवेश मात्र (एक प्रदेशी) होने से अप्रदेशी है । इसी को स्पष्ट करते हैं-) संकोच-विस्तार के होने पर भी जीव लोकाकाशतुल्य असंख्य प्रदेशों को नहीं छोड़ता, इसलिये वह प्रवेशवान् है । पुद्गल, यद्यपि द्रव्य अपेक्षा से प्रदेशमात्र (एक प्रदेशी) होने से १. असंखा। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३३७ अप्रवेशी है, सथापि दो प्रवेशों से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशों वाली पर्यायों को अपेक्षा से अनिश्चित प्रदेश वाला होने से, प्रदेशवान् है। सकल लोक-व्यापी असंख्य प्रदेशों के विस्ताररूप होने से धर्म प्रदेशवान है। सकललोक-व्यापी असंख्य प्रदेशों के विस्ताररूप होने से अधर्मद्रध्य प्रदेशवान है। सर्व-व्यापी अनन्त प्रदेशों के विस्तार रूप होने से आकाश प्रदेशवान् है। कालाणु तो, द्रव्यतः प्रदेशमात्र होने से और पर्यायतः परस्पर सम्पर्क न होने से, अप्रदेशी है। इसलिये कालद्रव्य अप्रदेशी है और शेष द्रव्य प्रदेशवान् हैं ॥१३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ काल द्रव्यं विहाय जीवादिपञ्चद्रव्याणामस्तिकायत्वं व्याख्याति, जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आयासं जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मों पुनश्चाकाशम्। सपदेसेहि असंखा। एते पंचास्तिकायाः किविशिष्टाः ? स्वप्रदेशैरसंख्येयाः । अत्रासंख्येयप्रदेशशब्देन प्रदेशबहुत्वं ग्राह्यम् । तच्च यथासम्भवं योजनीयम् । जीवस्य तावत्संसारावस्थायां विस्तारोपसंहारयोरपि प्रदीपबत्प्रदेशानां हानिवृद्धयोरभावाद्वयवहारेण देहमात्रेऽपि निश्चयेन लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वम् । धर्माधर्मयोः पुनरवस्थितरूपेण लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वम् । स्कन्धाकारपरिणतपुद्गलानां तु संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशत्वम् । किन्तु पुद्गलव्याख्यानेन प्रदेश शब्देन परमाणवो ग्राह्या, न च क्षेत्रप्रदेशा: । कस्मात्पुद्गलानामनन्तप्रदेशक्षेवेऽवस्थानाभावादिति ? परमाणोव्यक्तिरूपेणैकप्रदेशत्वं शक्तिरूपेणोपचारेण बहुप्रदेशत्वं च । आकाशस्यानन्ता इति । णस्थि पदेसत्ति कालस्स न सन्ति प्रदेशा इति कालस्य । कस्माद्ध्यरूपेणैकप्रदेशत्त्वात् ? परस्परसम्बन्धाभावात्पर्यायरूपेणापीति ।।१३।। उत्थानिका—आगे काल द्रव्य को छोड़कर जीव आदि पाँच द्रव्यों के अस्तिकायपना है ऐसा व्याख्यान करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(जीया पोग्गलकाया) अनन्तानंत जीव और अनन्तानन्त पुद्गल (धम्माऽधम्मा) एक धर्मद्रव्य एक अधर्मद्रव्य (पुणो य आयासं) और एक आकाश द्रव्य (देसेहि असंखादा) अपने प्रदेशों की गणना की अपेक्षा संख्या-रहित हैं, (कालस्स पत्थि पदेसत्ति) काल द्रव्य के बहुत प्रदेश नहीं हैं। यहां पर 'असंख्यात प्रदेश' शब्द से बह-प्रदेशी' ग्रहण करना चाहिये । वह यहां यथासम्भव घटित कर लेना चाहिये । हर एक जीव संसार को अवस्था में व्यवहारनय से अपने प्रदेशों में संकोच विस्तार होने के कारण से दीपक के प्रकाश की तरह अपने प्रदेशों की संख्या में कमती व बढ़ती न होता हुआ शरीर के प्रमाण आकार रहता है तो भी निश्चय से लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेश चाला है। धर्म और अधर्म सदा ही स्थित हैं उनके प्रदेश लोकाकाश के बराबर असंख्यात हैं। स्कंध अवस्था में परिणमन किये हुए पुद्गलों के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं, Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो किन्त पुद्गल के न्यास्यान में प्रदेश गन्द से परमाणु ग्रहण करने योग्य हैं, क्षेत्र के प्रदेश नहीं क्योंकि पुद्गलों का स्थान अनन्त प्रदेश वाला क्षेत्र नहीं है। (सर्व पुद्गल असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश में हैं। उनके स्कंध अनेक जाति के बनते हैं-संख्यात परमाणुओं के, असंख्यात परमाणुओं के तथा अनन्त परमाणुओं के स्कंध बनते हैं वे सूक्ष्म परिणमन वाले भी होते हैं इससे लोकाकाश में सब रह सकते हैं।) एक पुद्गल के अविभागी परमाणु में प्रगट रूप से एक प्रदेशपना है. मात्र शक्तिरूप से उपचार से बहादेशीपना है। क्योंकि वे परस्पर मिल सकते हैं)। आकाशदथ्य के अनन्त प्रदेश हैं । कालद्रव्य के बहुत प्रदेश नहीं है। हरएक कालाण कालद्रव्य है सो एक प्रदेश मात्र है। कालाणुओं में परमाणुओं को तरह परस्पर सम्बन्ध करके स्कंध को अवस्था में बदलने की शक्ति नहीं है ॥१३॥ अथ तमेवार्थ दढयति-- एदाणि पंचदव्याणि उझियकालं तु अत्थिकायत्ति । भण्णते काया पूण बप्पदेसाण पचयत्तं ॥१३५-१॥ एतानि पंचद्रव्याणि उज्झितकालंतु अस्तिका इति । भण्यंते कायाः पुनः बहुप्रदेशानां प्रचयत्वं ॥१३५-१॥ एदाणि पंचदवाणि एतानि पूर्वसूत्रोक्तानि जीवादिषड्व्याण्येव उज्यिकालं तु कालद्रव्यं विहाय अत्थिकायत्ति भण्णते अस्तिकायाः पंचास्तिकाया इति भण्यन्ते काया पुण कायाः कायशब्देन पुनः । कि भण्यते ? बहुप्पदेसाण पचयत्तं बहुप्रदेशानां सम्बन्धि प्रचयत्वं समूह इति । अत्र पंचास्तिकायमध्ये जीवास्तिकाय उपादेयस्तथापि पंचरमेष्ठिपर्यायावस्था तस्यामप्यहत्सिद्धावस्था तत्रापि सिद्धावस्था । वस्तुतस्तु रागादिसमस्तविकल्पजालपरिहारकाले सिद्धजीवसदृशा स्वकीयशुद्धात्मावस्थेति भावार्थः ।।१३५॥ एवं पंचास्तिकायसंक्षेपसूचनरूपेण चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतम् ।। उत्थानिका-आगे ऊपर के ही भाव को दृढ़ करते हैं.... अन्वय सहित विशेषार्थ- (एदाणि दत्वाणि) इन छः द्रव्यों में से (उजिमय कालं तु) काल द्रव्य को छोड़कर (पंच अस्थिकात्ति) शेष पांच द्रव्य पांच अस्तिकाय हैं ऐसा (भण्णते) कहा है (पुण) तथा (बहुप्पदेसाण पचयत्तं काया) बहुत प्रदेशों के समूह को काय कहते हैं । इन पांच अस्तिकायों के मध्य में एक जीव अस्तिकाय ही ग्रहण करने योग्य है । उनमें भी अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु पांच परमेष्ठी की अवस्था, इनमें से भी अरहंत और सिद्ध अवस्था, फिर इनमें से भी मात्र सिद्ध-अवस्था ग्रहण करनी योग्य है । वास्तव में तो या निश्चयनय से तो रागद्वेषादि सर्व विकल्पजालों के त्याग के समय में सिद्ध जीव के समान अपना ही शुद्धात्मा ग्रहण करने योग्य है, यह भाव है । १३५-१॥ ___इस प्रकार पांच अस्तिकाय को संक्षेप में सूचना करते हुए चौथे स्थल में वो गाथाएं पूर्ण हुई। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] अथ क्वामी प्रदेशिनोऽप्रदेशाश्चावस्थिता इति प्रज्ञापयति लोगालोगेसु णभो धम्माधम्हि आददो लोगो। सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला' सेसा ॥१३६।। लोकालोकयो भो धर्माधर्माभ्यामाततो लोकः । शेषो प्रतीत्य कालो जीवाः पुनः पुद्गलाः शेषौ ॥१३६।। आकाशं हि तावत् लोकालोकयोरपि बद्न्यसमायासमवाययोरविभागेन वृत्तत्वात् । धर्माधर्मों सर्वत्र लोके तन्निमित्तगमनस्थानानां जीवपुद्गलानां लोकाहिस्तदेकदेशे च गमनस्थानासंभवात् । कालोऽपि लोके जीवपुद्गलपरिणामव्यज्यमानसमयादिपर्यायत्वात्, स तु लोककप्रदेश पन्नाप्रदेशत्वात । लीवपुदगलौ तु यक्तित एव लोके षड्व्य समवायात्मक त्वाल्लोकस्य । किन्तु जीवस्य प्रदेशसंवर्तविस्तारधर्मत्वात् पुद्गलस्य बन्धहेतुभूतस्निग्धरूक्षगुणधर्मत्वाच्च तदेकदेशसर्वलोकनियमो नास्ति कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश अनेकद्रव्यापेक्षया पुनरञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोक एवेति ।।१३६॥ भूमिका-अब, यह बतलाते हैं कि ये प्रदेशो और अप्रदेशी द्रव्य कहां रहते हैं अन्वयार्थ-[नभः] आकाश [लोकालोकयोः] लोकालोक में है, [लोक:] लोक [धर्माधर्माभ्याम् आततः] धर्म और अधर्म से व्याप्त है, [शेपी प्रतीत्य] शेष दो द्रव्यों की (जीव-पुद्गल की) प्रतीति से [कालः] काल (लोक में) तिष्ठ रहा है, [पुनः ] और [शेषौ] वे शेष दो द्रव्य | जीवाः पुद्गलाः] जीव और पुद्गल (लोक में) हैं। टीका-प्रथम तो, आकाश लोक तथा अलोक में है, क्योंकि वह छह द्रव्यों के समवाय और असमवाय में विना विभाग के रहता है। धर्म और अधर्म प्रन्य सर्वत्र लोक में है, क्योंकि उनके निमित्त से जिनकी गति और स्थिति होती है ऐसे जीव और पुद्गलों को गति या स्थिति लोक से बाहर नहीं होती और न लोक के एक-देश में होती है, (अर्थात् लोक में सर्वत्र होती है)। काल भी लोक में है, क्योंकि जीव और पुद्गलों के परिणामों के द्वारा (काल को) समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं और वह काल लोक के एक प्रदेश में है, क्योंकि वह अप्रवेशी है । जीव और पुद्गल तो युक्ति से ही लोक में हैं, क्योंकि लोक छह व्रव्यों का समयायस्वरूप है। किन्तु प्रदेशों का संकोच विस्तार होना जीव का धर्म होने के कारण और बंध के हेतुभूत स्निग्ध-रूक्ष गुण पुद्गल का धर्म होने के कारण जीव और पुवमल का समस्त लोक १. गुग्गला (ज० वृत) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] [ पवयणसारो में या उसके एक प्रदेश में रहने का (कोई) नियम नहीं है। काल, जीव तथा पुद्गल एक द्रव्य को अपेक्षा से लोक के एक देश में रहते हैं और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा से अंजनचूर्ण (काजल) से भरी हुई डिबिया के न्यायानुसार समस्त लोक में हो हैं ॥१३६।। तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्याणां लोकाकाशेऽवस्थानमाख्याति लोगालोगेसु णमो लोकालोक्योरधिकरणभूतयोर्नभ आकाशं तिष्ठति धम्माधम्महि आददो लोगो धर्माधर्मास्तिकायाभ्यामाततो व्याप्तो भूतो लोकः । कि कृत्वा ? सेसे पडुच्च शेषो जीवपुद्गलो प्रतीत्याधित्य । अयमत्रार्थः—जीवपुद्गली तावल्लोके तिष्ठतस्तयोर्गतिस्थित्योः कारणभूतो धर्माधर्मावपि लोके। कालो कालोऽपि शेषो जीवपद्गलौ प्रतीत्ये लोके । कस्मादिति चेत् ? जीवपुद्गलाभ्यां नवजीर्णपरिणत्या व्यज्यमानसमय टिकादिपर्यायत्वात्। शेषशब्देन कि भण्यते ? जीवा पुण पुग्गला सेसा जोपा. पुद्गलाश्च पुनः शेम भण्वन्त इति । जनमत्र भावः—यथा सिद्धा भगवन्तो यद्यपि निश्चयेन लोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयप्रदेश केवलज्ञानादिगुणाधारभूते स्वकीयस्वकीयभावे तिष्ठन्ति तथापि ब्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठन्तीति भण्यन्ते। तथा सर्वे पदार्था बपि निश्चयेन स्वकीयस्वकीयस्वरूपे तिष्ठन्ति तथापि व्यवहारेण लोकाकाशे तिष्ठन्तीति । अत्र यद्यप्यनन्तजीवद्रव्येभ्योऽनन्तगुणपुद्गलास्तिष्ठन्ति तथाप्येकदीपप्रकाशे बहुदीपप्रकाशवद्विशिष्टावगाहाक्तियोगेनासंख्येयप्रदेशेऽपि लोकेऽवस्थानं न विरुध्यते ।।१३६॥ उत्थानिका-आगे द्रव्यों का स्थान लोकाकाश में हैं, ऐसा बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ (णमो) आकाश द्रव्य (लोपालोगेसु) लोक और अलोकरूप है (सेसे पडुचच) शेष जीव पुद्गल को आश्रय करके (लोगो धम्माधम्मेहिं आददो) लोक धर्म और अधर्म द्रव्य से व्याप्त है तथा (कालो) काल है। (पुण सेसा जीवा पुग्गला) और वे दो शेष द्रव्य जीव और पुद्गल हैं । लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों का आधार एक आकाश द्रव्य है। इनमें से जीव पुद्गलों की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय हैं, जिनसे यह लोकाकाश व्याप्त है । अर्थात् इस लोकाकाश में जीव और पुद्गल भरे हैं उन ही की गति और स्थिति को कारण रूप ये धर्म अधर्म भी लोक में हैं। काल भी इन जीव पुद्गलों की अपेक्षा करके लोक में है क्योंकि जीव पुद्गल को नई पुरानी अवस्था के होने से कालद्रव्य को समय घड़ी आदि पर्याय प्रगट होती हैं तथा जीव और पुद्गल तो इस लोक में हैं ही। यहां यह भाव है कि जैसे सिद्ध भगवान् यद्यपि लोकाकाश प्रमाण अपने शुद्ध असंख्यात प्रदेशों में हैं जो प्रदेश केवलज्ञान आदि गुणों के आधारभूत हैं तथा अपने-अपने स्वमाव में ठहरते हैं तथापि व्यवहारनय से मोक्षशिला पर ठहरते हैं, ऐसा आचार्य कहते Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३४१ हैं, तैसे सर्व पदार्थ यद्यपि निश्चय से अपने स्वरूप में ठहरते हैं तथापि व्यवहारनय से लोकाकाश में ठहरते हैं। यहां यद्यपि अनन्त जीव द्रव्यों से अनन्तगुणे पुद्गल हैं तथापि एक दीप के प्रकाश में जैसे बहुत से दीपकों के प्रकाश समा जाते हैं तंसे विशेष अवगाहना की शक्ति के योग से असंख्यात प्रदेशी लोक में ही सर्व द्रव्यों का स्थान विरोधरूप नहीं है ॥ १३६ ॥ अथ प्रवेशवत्त्वाप्रदेश वत्स्वसंभवप्रकारमा मूत्रयति- जध' ते णभप्पदेसा' तधप्पदेसार हवंति सेसाणं । अपदेसी परमाणू तेग व भणिदो ॥१३७॥ यथा ते नभः प्रदेशास्तथा प्रदेशा भवन्ति शेषाणाम् । अप्रदेशः परमाणुस्तेन प्रदेशोद्भवो भणितः ॥ १३७॥ सूत्रयिष्यते हि स्वयमाकाशस्य प्रदेशलक्षण मेकाणुव्याप्यत्वमिति । इह तु यथाकाशस्य प्रवेशास्तथा शेषद्रव्याणामिति प्रदेशलक्षणप्रकारकत्वमा सृश्यते । ततो यथैकाव्याप्येनांशेन गण्यमानस्याकाशस्यानन्तांशत्वादनन्तप्रदेशत्वं तथैकाणुय्याप्येनांशेन गण्यमानानां धर्माधर्मेकजीवानामसंख्येयांशत्यात् प्रत्येकम संख्येय प्रदेशत्वम् । यथा चावस्थित प्रमाणयोर्धर्माधर्म योस्तथा संवर्तविस्ताराभ्यामनवस्थितप्रमाणस्यापि शुकार्द्रत्वाभ्यां चर्मण इव जीवस्थ स्वांशाल्पबहुत्वाभावावसंख्येयप्रदेशत्वमेव । अमूर्त संवर्त विस्तारसिद्धिश्च स्थूलकृशशिशुकुभारशरीरथ्यापित्वादस्ति स्वसंवेदनसाध्यैव । पुद्गलस्य तु द्रव्येणैकप्रवेशमात्रत्वादप्रदेशत्ये यथोदिते सत्यपि द्विप्रदेश। द्युद्भवहेतु भूततथाविध स्निग्धरूक्षगुणपरिणामशक्तिस्वभावात्प्रदेशोयत्वमस्ति । ततः पर्यायेणानेकप्रदेशत्वस्यापि संभवात् द्वयादिसंख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशत्वमपि न्याय्यं पुद्गलस्य ॥१३७॥ । भूमिका - अब, यह कहते हैं कि प्रदेशयत्व और अप्रवेशवत्त्व किस प्रकार से संभव है अन्वयार्थः -- [ यथा ] जैसे [ते नभः प्रदेशाः ] वे आकाश के प्रदेश हैं [ तथा ] उसी प्रकार [शेषाणां ] शेष द्रव्यों के ( भी ) [ प्रदेशाः भवन्ति ] प्रदेश हैं । ( अर्थात् जैसे आकाश के प्रदेश परमाणुरूपी गज से नापे जाते हैं, उसी प्रकार शेष द्रव्यों के प्रदेश भी परमाणुरूपी गज से नापे जाते हैं । [ परमाणुः ] परमाणु [अप्रदेश: ] अप्रदेशी हैं, [तेन ] उसके द्वारा [ प्रदेशोद्भवः भणित: | प्रदेशों का होना कहा है । १. जह ( ज ० वृ० ) २. हृष्पदेसा ( ज० वृ७ ) ३. तहुप्पदेसा (ज० वृ० ) । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] [ पवयणसारो टीका - ( भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य) स्वयं ही ( १४० यें ) सूत्र द्वारा कहेंगे कि आकाश के प्रदेश का लक्षण एकाणुव्याप्यत्व ( अर्थात् एक परमाणु से व्याप्त होना) है। यहां (इस सूत्र या गाथा में ) ' जिस प्रकार आकाश के प्रदेश हैं उसी प्रकार शेष द्रव्यों के प्रदेश हैं' इस प्रकार प्रदेश के लक्षण की एक प्रकारता कही जाती है। इसलिये, एकाणुव्याप्य ( जो एक परमाणु से व्याप्य हो ऐसे ) अंश के द्वारा गिने जाने पर जैसे आकाश के अनन्त अंश होने से आकाश अनन्त प्रदेशी हैं, उसी प्रकार एकाणुध्याप्य अंश के द्वारा गिने जाने पर धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात अंश होने से वे प्रत्येक असंख्यातप्रदेशी हैं । जैसे ( संकोच - विस्तार - रहित होने की अपेक्षा) अवस्थित प्रमाण वाले धर्म तथा अधर्म असंख्यात - प्रदेशी हैं, उसी प्रकार संकोच विस्तार के कारण ( संकोच - विस्तार होने की अपेक्षा) अनवस्थित प्रमाण वाले जीव के सूखे गीले चमड़े की भांति - निज अंशों का अल्पबहुत्व नहीं होता ( संख्या में प्रदेशों की हानि-वृद्धि नहीं होती ) इसलिये असंख्यातप्रदेशित्व ही है । ( यहां यह प्रश्न होता है कि अमूर्त जीव का संकोच विस्तार कैसे संभव हैं ? उसका समाधान किया जाता है - ) अमूर्त के संकोच - विस्तार को सिद्धि तो अपने अनुभव से ही साध्य है, क्योंकि ( सबको स्वानुभव से स्पष्ट है कि) जीव स्थूल तथा कृश शरीर में तथा बालक और कुमार के शरीर में व्याप्त होता है। ( जीव के जो प्रदेश मोटे शरीर में फैले हुये थे, वे ही शरीर के पतले हो जाने पर सिकुड़ गये तथा बालक के शरीर में जो जीव के प्रवेश सिकुड़े हुये थे, वे ही कुमार अवस्था के शरीर में फैल जाते हैं । इस प्रकार से जीव के प्रदेशों का संकोच तथा विस्तार सिद्ध होता है। पुद्गल तो द्रव्य की अपेक्षा से एक प्रदेश मात्र होने से यथोक्त ( पूर्वकथित) प्रकार से अप्रदेशी है, तथापि वो प्रदेश आदि (द्वघणुक आदि) स्कंधों के हेतुभूत तथाविध ( उस प्रकार के ) स्निग्ध और रूक्ष गुणरूप परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभाव के कारण उस पुद्गल के प्रदेशों का ( बहु प्रदेशत्व का) उद्भव है । इसलिये पर्यायतः अनेक प्रदेशित्व की भी संभावना होने से पुद्गल द्विप्रदेशत्व से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशत्व भी न्याययुक्त है ॥१३७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ यदेवाकाशस्य परमाणुव्याप्तक्षेत्रं प्रदेशलक्षणमुक्त शेषद्रव्यप्रदेशानां तदेवेति सूचयतिजहते हम्पदेसा यथा ते प्रसिद्धाः परमाणुत्र्याप्तक्षेत्रप्रमाणा काशप्रदेशाः तत्पदेसा हवं ति सेसाणं तेनैवाकाशप्रदेशप्रमाणेन प्रदेशा भवन्ति । केषां ? शुद्धबुद्धकस्वभावं यत्परमात्मद्रव्यं तत्प्रभृतिशेषद्रव्याणाम् । अपदेसो परमाणु अप्रदेशो द्वितीय | दिप्रदेशरहितो योसी गुद्गलपरमाणु तेण पदेसुब्भवो Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३४३ भणिवो तेन परमाणुना प्रदेशस्योद्भव उत्पत्ति भणिता | परमाणुब्याप्तक्षेत्र प्रदेशो भवति । तदये विस्तरेण कथयति इह तु सूचितमेव ॥१३७।। एवं पञ्चमस्थल स्वतन्त्रगाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका-जैसे एक परमाणु से व्याप्त क्षेत्र को आकाश का प्रदेश कहते हैं वैसे ही अन्य द्रव्यों के प्रदेश भी होते हैं, ऐसा कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जह) जैसे (ते णहप्पदेसा) वह परमाणु से व्याप्त क्षेत्र आकाश द्रव्य का प्रदेश होता है (तहप्परेसा सेसाणां हवंति) तैसे ही धर्मादि अन्य तथ्यों के प्रदेश होते हैं। (परमाणु अपदेसो) एक अविभागी पुद्गल परमाणु अप्रदेशी है (तेण) उस परमाणु से (पदेसुब्भयो भणिदो) प्रदेश की प्रगटता होती है। एक परमाणु जितने आकाश क्षेत्र को रोकता है उसको प्रदेश कहते हैं उस परमाणु के दो आदि प्रदेश नहीं हैं। इस प्रदेश की माप से आकाशद्रव्य को तरह शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव परमात्म द्रव्य को आदि लेकर शेष ध्यों के भी प्रदेश होते हैं। इनका विस्तार से कथन आगे करेगे ॥१३७॥ इस तरह पांचवें स्थल में स्वतन्त्र दो गाथाएं गई। अथ कालाणेरप्रदेशत्वमेवेति नियमयति समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दवजावस्स । वदिववदो सो वट्टदि पदेसमागासदव्वस्स ॥१३८॥ समयस्त्वप्रदेशः प्रदेशमात्रस्य द्रव्यजातस्य । व्यतिपततः स वर्तते प्रदेशमाकाशद्रव्यस्य ।।१३८॥ अप्रदेश एव समयो द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात् न च तस्य पुद्गलस्येव पर्यायेणाप्यनेकप्रदेशत्वं यतस्तस्य निरन्तरं प्रस्तारविस्तृतप्रदेशमात्रासंख्येयद्व्यत्वेपि परस्परसंपर्कासंभवादेकंकमाकाशप्रदेशमभिव्याप्य तस्थुषः प्रदेशमात्रस्य परमाणोस्तदभिव्याप्तमेकमाकाशप्रदेश मन्दगत्या व्यतिपतत एव वृत्तिः ॥१३॥ भूमिका-अब, यह नियम बतलाते हैं कि 'कालाणुके अप्रदेशत्व हो है'-~ अन्वयार्थ—[समयः तु] काल तो [अप्रदेशः] अप्रदेशी (एक प्रदेशी) है, [प्रदेशमात्रस्य द्रव्यजातस्य] प्रदेशमात्र पुद्गल-परमाणु [अकाशद्रव्यस्य प्रदेशं] आकाश द्रव्य के प्रदेश को [व्यतिपततः] मंदगति से उल्लंघन कर रहा हो तब [सः वर्तते] वह (काल) वर्तता है, अर्थात् निमित्तभूततया परिणमित होता है। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] [ पवयणसारो ___टीका--काल, द्रव्यतः प्रदेशमात्र होने से, अप्रदेशी ही है। उसके (काल के), पुद्गल की भांति, पर्यायतः भी अनेक प्रदेशित्व नहीं है, क्योंकि उसके परस्पर अन्तर के बिना प्रस्तार रूप (फैले हुये) विस्तृत प्रदेशमात्र असंख्यात कालद्रव्यत्व होने पर भी, परस्पर संपर्क न होने से एक एक आकाश प्रदेश को व्याप्त करके रहने वाले कालद्रव्य की वृत्ति तभी होती है (अर्थात् कालाणुको परिणति तभी निमित्तभूत होती है) जब प्रदेश मात्र (एक प्रदेशो) परमाणु उस (कालाणु) से व्याप्त एक आकाश प्रदेश को मन्दगति से उल्लंघन करता हो। ____ भावार्थ.....लोकाःसा है अयप्रदेश हैं। एक-एक प्रदेश में एक-एक कालाणु विद्यमान है। वे कालाणु स्निग्ध-सक्षगुण के अभाव के कारण रत्नों की राशि की भांति पृथक्-पृथक् ही रहते हैं, पुद्गल परमाणुओं की भांति परस्पर मिलते नहीं हैं । जब पुद्गल परमाणु आकाश के एक प्रदेश को मन्दगति से उल्लंघन करता है (अर्थात् एक प्रदेश से दूसरे अनन्तर-निकटतम प्रदेश पर मन्दगति से जाता है) तब उस (उल्लंधित किये जाने वाले) प्रदेश में रहने वाला कालाणु उसमें निमित्तभूत रूप से रहता है । इस प्रकार प्रत्येक कालाणु पुद्गल परमाणु के एक प्रदेश तक के गमन पर्यंत ही सहकारी रूप से रहता है, अधिक नहीं । इससे स्पष्ट होता है कि काल द्रव्य पर्यायतः भी अनेक प्रदेशी नहीं है ॥१३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ कालद्रव्यस्य द्वितीयादिप्रदेशरहितत्वेनाप्रदेशत्वं व्यवस्थापयति समओ समयपर्यायस्योपादानकारणत्वात्समयः कालाण: बु पुनः । स च कथंभूतः ? अप्पदेसो अप्रदेशो द्वितीयादिप्रदेशरहितो भवति । स च किं करोति ? सो यदि स पूर्वोक्तकालाणुः परमाणोगंतिपरिणतेः सहकारित्वेन वर्तते । कस्य सम्बन्धी योऽसौ परमाणुः ? पदेसमेत्तस्स दवजादस्स प्रदेशमाअपुद्गलजातिरूपपरमाणु द्रव्यस्य। किं कुर्वतः ? विवववो व्यतिपततो मन्दगत्या गच्छतः । कं प्रति ? पदेसं कालाणुब्याप्तमेकप्रदेशम् । कस्य सम्बन्धिन ? आगासवव्यस्स आकाशद्रव्यस्येति । तथाहि कालाणुरप्रदेशो भवति । कस्मात् ? द्रव्येणकप्रदेशत्वात् । अथवा यथा स्नेहाणेन पुद्गलानां परस्परबन्धो भवति तथाविधबन्धाभावात्पर्यायेणापि । अयमत्रार्थः यस्मात्पुद्गलपरमाणोरेकप्रदेशगमनपर्यन्तं सहकारित्वं करोति नचाधिक तस्मादेव ज्ञायते सोऽप्येकप्रदेश इति ।। १३८॥ उत्यानिका-आगे काल द्रव्य के दो तीन आदि प्रदेश नहीं हैं, मात्र एक प्रदेश है इसी से वह अप्रदेशी है, ऐसी व्यवस्था करते हैं Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ३४५ अन्वय सहित विशेषार्थ-(समओ दु अप्पदेसो) काल द्रव्य निश्चय से अप्रदेशी है (सो) वह काल द्रव्य (पदेसमेत्तस्स बच्चजास्स) प्रदेश मात्र पुद्गल द्रव्यरूप परमाणु के (आगासदत्वस्स पदेस) आकाश द्रव्य के प्रदेश को (वदिवदवो) उल्लंघन करने से (वट्टदि) वर्तन करता है। ___समय नामा पर्याय का उपादान कारण कालाणु है इससे कालाणु को समय कहते हैं। वह कालाणु दो तीन आदि प्रदेशों से रहित मात्र एक प्रदेश वाला है इससे उसको अप्रवेशी कहते हैं। वह कालाण पुदगल द्रव्य की परमाणु की गति की परिणति रूप सहकारी कारण से वर्तन करता है। हर एक कालाणु से हर एक लोकाकाश का प्रदेश व्याप्त है। जब एक परमाणु मंदगति से ऐसे पास वाले प्रदेश पर जाता है तब इसकी गति की सहायता से कालद्रव्य वर्तन करता हुआ लमय पर्याय को उत्पन्न करता है। जैसे स्निग्ध रुक्ष गुण के निमित्त से पुद्गल के परमाणुओं का परस्पर बन्ध हो जाता है इस तरह का बंध कालाणुओं का कभी नहीं हो सकता इसलिये कालाणु को अप्रदेशी कहते हैं। यहां यह भाव है कि पुदगल परमाणु का एक प्रदेश तक गमन होना ही सहकारी कारण है, अधिक दूर तक मा सहकार का नहीं हारे लोकान होता है कि कालाणु द्रव्य एक प्रदेश रूप ही है ॥१३८॥ अथ कालपदार्थस्य द्रव्यपर्यायौ प्रज्ञापयति वदिवददो तं देसं तस्सम समओ तदो परो पुवो। जो अत्थो सो कालो समओ उप्पण्णपद्धंसी ॥१३६॥ व्यतिपततस्तं देशं तत्समः समयस्ततः परः पूर्वः ।। योऽर्थः स काल: समय उत्पन्न प्रध्वंसी ।।१३।। यो हि येन प्रदेशमात्रेण कालपदार्थेनाकाशस्य प्रदेशोऽभिव्याप्तस्तं प्रदेश मन्वगत्यातिक्रमतः परमाणोस्तत्प्रदेशमाअातिक्रमणपरिमाणेन तेन समो यः कालपदार्थसूक्ष्मवत्तिरूपसमयः स तस्य कालपदार्थस्य पर्यायस्ततः एवंविधात्पर्यायात्पूर्वोत्तरवृत्तिवृत्तत्वेन व्यञ्जितनित्यत्वे योऽर्थः तत्तु द्रव्यम् । एवमनुत्पन्नाविध्वस्तो द्रव्यसमयः, उत्पन्न प्रध्वंसी पर्यायसमयः । अनंशः समयोऽयमाकाशप्रदेशस्यानंशत्वान्यथानुपपत्तेः । न चैकसमयेन परमाणो. रालोकान्तगमनेऽपि समयस्य सांशत्वं विशिष्टगतिपरिणामाद्विशिष्टावगाहपरिणामवत् । तथाहि—यथा विशिष्टायगाहपरिणामावेकपरमाणुपरिमाणोऽनन्तपरमाणुस्कन्धः परमापोरनंशत्वात् पुनरप्पनन्तांशत्वं न साधयति तथा विशिष्टगतिपरिणामादककालाणुध्याप्काफाशप्रदेशातिक्रमणपरिमाणावच्छिन्नेनैकसमयेनैकस्माल्लोकान्ताद्वितीयं लोकान्तमाकामतः परमाणोरसंख्येयाः कालाणवः समयस्यानंशत्वावसंख्येयांशत्वं न साधयन्ति ।।१३६॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] [ पवयणसारो अब काल पदार्थ के द्रव्य पर्याय को बतलाते हैं अन्वयार्थ - [ तं देशं व्यतिपततः ] परमाणु एक आकाश प्रदेश को (मन्दगति से ) ( जब ) उल्लंघन करता है तब [ तत्समः ] उसके बराबर जो काल ( लगता है) वह [ समय: ] 'समय' (पर्याय) है, [ततः पूर्वः परः ] उस ( समय ) से पूर्व तथा पश्चात् ऐसा (नित्य) [यः अर्थः ] जो पदार्थ है [ सः कालः ] वह कालद्रव्य है, [ समयः उत्पन्नप्रध्वंसी ] समय उत्पन्नध्वंसी है, ) समय पर्याय तो उत्पन्न होती है और नाश होती है | ) टीका – किसी प्रदेशमात्र काल पदार्थ के द्वारा आकाश का जो प्रवेश व्याप्त हो, उस प्रदेश को जब परमाणु मन्दगति से उल्लंघन करता है, तब उस प्रदेश मात्र अतिक्रमण ( उल्लंघन ) के परिमाण (काल) के बराबर जो काल पदार्थ की सूक्ष्मवृत्ति ( परिणति ) रूप 'समय' है, वह उस काल पदार्थ की पर्याय है और ऐसी उस पर्याय से पूर्व की तथा बाद की वृत्ति रूप से वर्तित होने से जिसका नित्यत्व प्रगट होता है, ऐसा पदार्थ द्रव्य है । इस प्रकार द्रव्य समय ( कालद्रव्य ) अनुत्पन्न - अविनष्ट है और पर्यायसमय उत्पन्नध्वंसी है। यह समय निरंश है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो आकाश के प्रदेश का निरंशत्व न बने । एक समय में परमाणु के लोक के अन्त तक जाने पर भी समय के अंश नहीं होते, क्योंकि ( परमाणु के ) विशिष्ट (विशेष प्रकार के ) अवगाह परिणाम विशिष्ट गतिपरिणाम होता है । इसे समझाते हैं—जैसे विशिष्ट अवगाहपरिणाम के कारण एक परमाणु के परिमाण के बराबर अनन्त परमाणुओं का स्कंध बनता है तथापि यह स्कंध परमाणु के अनन्त अंशों को सिद्ध नहीं करता, क्योंकि परमाणु निरंश है, उसी प्रकार जैसे एक काला से व्याप्त एक आकाश प्रदेश के अतिक्रमण के माप के बराबर एक 'समय' में परमाणु विशिष्टगति परिणाम के कारण लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक जाता है तब ( उस परमाणु के द्वारा उल्लंघित होने वाले ) असंख्य कालाणु 'समय' के असंख्य अंशों को सिद्ध नहीं करते, क्योंकि 'समय' निरंश है । भावार्थ - यहां प्रश्न होता है कि "जब पुद्गल परमाणु शीघ्र 'समय' में लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच जाता है तब वह आकाश प्रवेशों में श्रेणीबद्ध जितने कालाणु हैं उन सबको स्पर्श करता है कालाओं को स्पर्श करने से 'समय' के असंख्य अंश होने चाहियें" ? यह है । गति के द्वारा एक चौदह राजू लक इसलिये असंख्य इसका समाधान Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३४७ जैसे अनन्त परमाणुओं का कोई स्कंध आकाश के एक प्रदेश में समाकर परिमाण में एक परमाणु जितना ही होता है, सो वह परमाणुओं के विशेष प्रकार के अवगाह परिनाम के कारण ही है, (परमाणुओं में ऐसी ही कोई विशिष्ट प्रकार की अवगाह परिणाम की शक्ति है, जिसके कारण ऐसा होता है) इससे कहीं परमाणु के अनन्त अंश नहीं होते, इसी प्रकार कोई परमाणु एक समय में असंख्य कालाणुओं को उल्लंघन करके लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच जाता है, सो वह परमाणु के विशेष प्रकार के गतिपरिणाम के कारण ही है, (परमाणु में ऐसी ही कोई विशिष्ट प्रकार के गतिपरिणाम की शक्ति है, जिसके कारण ऐसा होता है) इससे कहीं 'समय' के असंख्य अंश नहीं होते ॥ १३६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वोक्तकालपदार्थस्य पर्यायस्वरूपं द्रव्यस्वरूपं च प्रतिपादयति विददो तस्य पूर्वसूत्रोदितपुद्गल परमाणोर्व्यतिपततो मन्दगत्या गच्छतः । कं कर्मतापत्रम् ? तं देतं तं पूर्वगथोदितं कालानुव्याप्तमाकाशप्रदेशम् तस्सम तेन कालाणुव्याप्त क प्रदेश पुद्गलपरमाणुमन्दगतिगमनेन समः समानः सदृशस्तत्समः समओ कालागुद्रव्यस्य सूक्ष्मपर्यायभूतः समयो व्यवहारकालो भवतीति पर्यायव्याख्यानं गतम् । तदो परी पुग्यो तस्मात्पूर्वोक्तसमय रूप कालपर्यायात्परो भावि काले पूर्वमतीतकाले च जो अत्यो यः पूर्वपर्यायेष्वन्वयरूपेण वृत्तपदार्थों द्रव्यं सो फालो स कालः कालपदार्थो भवतीति द्रव्यव्याख्यानम् । समओ उप्पण्णपद्धंसी स पूर्वोक्तसमयपर्यायो यद्यपि पूर्वापरसमय सन्तानापेक्षया संख्येया संख्येयानन्तसमयो भवति, तथापि वर्त्तमानसमयं प्रत्युत्पन्नप्रध्वंसी । यस्तु पूर्वोक्तद्रव्यकालः स त्रिकालस्थायित्वेन नित्य इति । एवं कालस्य पर्यायस्वरूपं द्रव्यस्वरूपं च ज्ञातव्यम् ॥ उत्थानिक- आगे पूर्व कहे हुए काल पदार्थ के पर्याय स्वरूप को और द्रव्य स्वरूप को बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तं देतं ) उस कालाणु से व्याप्त आकाश के प्रदेश पर ( विवददो ) मंद गति से जाने वाले पुद्गल परमाणु को ( तस्सम समओ) जो कुछ काल लगता है उसी के समान समय पर्याय है । (तदो परो पुब्वी जो अत्यो ) इस समय पर्याय के आगे और पहले जो पदार्थ है ( सो कालो ) यह काल द्रव्य है । ( समओ उप्पण्णपद्धंसी) समय पर्याय उत्पन्न होकर नाश होने वाली है। जब तक एक पुद्गल का परमाणु मंदगति से एक कालाणु व्याप्त आकाश के प्रदेश से दूसरे कालाणु व्याप्त आकाश के प्रदेश पर आता है तब तक उसमें जो काल लगता है उसी के समान कालाणु द्रव्य की सूक्ष्म समय नाम की पर्याय होती है-यही व्यवहारकाल है । कालद्रव्य की पर्याय का यह स्वरूप कहा गया। इस समय पर्याय के उत्पन्न होने के पहले जो अपनी पूर्व पूर्व समय पर्यायों में Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] । पश्यणसारो अन्वय रूप से बराबर चला आ रहा है व आगामी काल में होने वाली समय पर्यायों में अन्वय रूप से बराबर चला जायगा वह कालद्रव्य नामा पदार्थ है। यद्यपि यह समय पर्याय पूर्वकाल की और उत्तरकाल को समयों की संतान की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त समय रूप है तथापि वर्तमान काल का समय उत्पन्न होकर नाश होने वाला है, किन्तु जो पूर्व में कहा हुआ द्रव्यकाल है वह तीनों कालों में स्थायी होने से नित्य है इस तरह कालद्रव्य को पर्याय स्वरूप और व्यस्वरूप जानना योग्य है। तात्पर्यवृत्ति अथवानेन गाथाद्वयेन समयरूपव्यवहारकालव्याख्यानं क्रियते निश्चयकालव्याख्यानं तु 'उप्पादो पाद्धंसो' इत्यादि गाथात्रयेणाग्रे करोति । तद्यथा समओ परमार्थकालस्य पर्यायभूतसमयः । अवपदेसो अपगतप्रदेशो द्वितीयादिप्रदेशरहितो निरंश इत्यर्थः । कथं निरंश इति चेत् ? पदेसमेत्तस्स दवियजादस्स प्रदेशमात्रपुद्गलद्रव्यस्य सम्बन्धी यो सौ परमाणु: वदिवावादो यदि व्यतिपातात् मन्दगतिगमनात्सकाशात्स परमाणुस्तावदगमनरूपेण वर्तते। कं प्रति ? पदेसमागासदवियस्स विवक्षितकाकाशप्रदेश प्रति । इति प्रथमगाथाव्याख्यानम् । वविवददो तं देसं स परमाणुस्तमाकाशप्रदेशं यदा व्यतिपतितोऽतिक्रान्तो भवति तस्सम समओ तेन पुद्गलपरमाणुमन्दगतिगमनेन समः समान: समयो भवतीति निरंशत्वमिति बर्तमानसमयो व्याख्यातः । इदानीं पूर्वपरसमयी कथयति-तदो परो पुच्चो तस्मात्पूर्वोक्तवर्तमानसमयात्परो भावी कोपि समयो भविष्यति पूर्वमपि कोऽपि गतः अत्थो जो एवं यः समय त्रयरूपोऽर्थः सो कालो सोऽतीतानागतवर्तमानरूपेण त्रिविधव्यवहारकालो भण्यते । समओ उप्पण्णपद्धंसी तेषु त्रिषु मध्ये योसो वर्तमानः स उत्पन्न प्रध्वंसी अतीतानागतौ तु संख्येयासंख्येयानन्तसमयावित्यर्थः । एवमुक्तलक्षणे काले विद्यमानेऽपि परमात्मतत्त्वमलभमानोऽतीतानन्तकाले संसारसागरे भ्रमितोऽयं जीवो यतस्ततः कारणातदेव निजपरमात्मतत्त्वं सर्वप्रकारोपादेयरूपेण श्रद्धेयं, स्वसंवेदनज्ञानरूपेण ज्ञातव्यमाहारभयमथुनपरिग्रहसंज्ञास्वरूपप्रभृतिसमस्तरागादिविभावत्यागेन ध्येयमिति तात्पर्यम् ।।१३६॥ एवं कालव्याख्यानमुख्यत्वेन षष्ठस्थले गाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका-अथवा इन दो गाथाओं से समयरूप व्यवहार काल का व्याख्यान किया जाता है । निश्चय काल का व्याख्यान तो "उप्यादी पद्धंसो" इत्यादि तीन गाथाओं से आगे करेंगे। अन्वय सहित विशेषार्थ-सो इस तरह पर है कि द्वितीयादि प्रदेश रहित निरंश प्रवेशमात्र पुद्गल द्रव्यरूप परमाणु को मंदगति से किसी विवक्षित एक आकाश के प्रदेश पर जाते हुए जो वर्तन करती है वह निश्चय काल को समय पर्याय अंश रहित है। यह पहलो गाथा का व्याख्यान है। वह परमाणु उस आकाश के प्रदेश पर जब पतन करता है तब उस पुद्गल परमाणु के मन्द गति से गमन में जो काल लगा है उसी के समान समय है Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो । । ३४६ इसलिये एक समय अंश रहित है । अर्थात् समय सबसे छोटा काल है। इस तरह वर्तमान समय कहा गया । अब आगे पीछे के समयों को कहते हैं कि इस पूर्व में कहे हुए वर्तमान समय से आगे कोई समय होगा तथा पूर्व में कोई समय हो चुका है इस प्रकार अतीत, अनागत, वर्तमान रूप से तीन प्रकार व्यवहार काल कहा जाता है । इन तीन प्रकार समयों में जो कोई वर्तमान का समय है वह उत्पन्न होकर नाश होने वाला है अतीत और अनागत संख्यात, असंख्यात और अनन्त समय हैं। इस तरह स्वरूप के धारी काल के होते हुए भी यह जीव अपने परमात्म-तत्व को नहीं प्राप्त करता हुआ भूत की अपेक्षा अनन्त काल से इस संसार समुद्र में भ्रमता चला आया है इसलिये हो अब इसके लिये अपना ही परमात्म तत्व सर्व तरह से ग्रहण करने योग्य मानकर श्रद्धान करने योग्य है, व स्वसंवेदन ज्ञान से जानने योग्य है तथा आहार, भय, मैथन, परिग्रह संज्ञा को आदि लेकर सर्व रागादि भावों को त्याग कर ध्यान करने योग्य है, ऐसा तात्पर्य है ॥१३॥ इस तरह काल के व्याख्यान को मुख्यता से छठे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुई। अथाकाशस्य प्रदेशलक्षणं सूत्रयति-- 'आगासमणुणिविट्ठ आगासपदेससण्णया भणिदं । सम्वेसि च अणूणं सक्कदि तं देदुमवगासं ॥१४०॥ आकाशमणु निविष्टमाकाशप्रदेशसजया भणितम् । सर्वेषां चाणूनां शक्नोति तदातुमवकाशम् ।।१४०।। आकाशस्यकाणुच्याप्योंऽशः किलाकाशप्रदेशः, स खल्वेकोऽपि शेषपंचद्रव्यप्रदेशानां परमसौम्यपरिणतानन्तपरमाणु स्कन्धानां चावकाशवानसमर्थः । अस्ति चाविभागैकद्रव्यत्वेऽप्यंशकल्पनमाकाशस्य, सर्वेषामणूनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्तेः। यरि पुनराकाशस्यांशा न स्युरिति मतिस्तवाङ्गुलीयुगलं नभसि प्रसार्य निरूप्यता किमेक क्षेत्रं किमनेकम् ? एक चेत्किमभिन्नाशाविभागकन्तव्यत्वेन किं वा भिन्नांशाविभागकद्रव्यत्वेन ? अभिन्नांशाविभागैकद्रव्यत्वेन चेत् येनांशेनेकस्या अडगुलेः क्षेत्रं तेनांशेनेतरस्या ? इत्यन्यतरांशाभावः। एवं द्वयायशानामभाषादाकाशस्य परमाणोरिव प्रवेशमात्रत्वम् । भिन्नांशाविभागकद्रव्यत्वेन चेत् अविभागकद्रव्यस्यांशकल्पनमायातम् । अनेक चेत कि सविभागानेकद्रव्यत्वेन कि वाऽविभागकद्रव्यत्वेन ? सविभागानेकद्रव्यत्वेन चेत् एकद्रव्यस्याकाशस्यानन्तव्यत्वं, अविभागकद्रव्यत्वेन चेत् अविभागकद्रव्यस्यांशकल्पनमायातम् ॥१४॥ १. आयासमणुणिविट्ठ (ज० वृ०) । २. आयासपदेशसणणया (ज० बृ.) । ३. भणिय (ज० वृ०) । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] [ पवयणसारो भूमिका – अब, आकाश के प्रदेश का लक्षण सूत्र द्वारा कहते हैं - अन्वयार्थ – [ अणुनिविष्टं आकाशं ] एक परमाणु जितने आकाश में रहता है उतने आकाश की [ आकाश प्रदेशसंशया । 'आकाश प्रदेश' के नाम से [ भणितम् ] कहा गया है । [च] और [ तत् ] वह [ सर्वेषां अणूनां ] समस्त परमाणुओं को [ अवकाशं दातुं शक्नोति ] अवकाश देने को समर्थ है । टीका- आकाश का एक परमाणु से व्याप्त अंश आकाश प्रदेश है। वह एक ( आकाशप्रदेश ) भी शेष पांच द्रव्यों के प्रदेशों को तथा सूक्ष्मता रूप से परिणमित अनन्त परमाणुओं को और स्कंधों को अवकाश देने में समर्थ है। आकाश अविभाग ( अखंड ) एक द्रव्य होने पर भी, उसके ( प्रदेशरूप ) अंशकल्पना है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो सर्व परमाणुओं को अवकाश देना नहीं बन सकता । यदि 'आकाश के अंश नहीं होते' (अर्थात् अंशकल्पना नहीं की जातो), ऐसी (किसो की ) मान्यता हो तो आकाश में दो उंगलियां यदि एक है तो ( प्रश्न द्रव्य है, द्रव्य है, इसलिये वो इसलिये ? फैलाकर बताइये कि 'दो उंगलियों का एक क्षेत्र है या अनेक ?' होता है कि - ), ( १ ) आकाश अभिन्न अंशों वाला अविभाग एक अंगुलियों का एक क्षेत्र है या (२) भिन्न अंशों वाला अविभाग एक (१) यदि 'आकाश अभिन्न अंश वाला अविभाग एक द्रव्य है इसलिये दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है' ऐसा कहा जाय तो, जो अंश एक अंगुली का क्षेत्र है वही अंश दूसरी अंगुली का भी है, इसलिये दोनों में से एक अंश का अभाव हो गया इस प्रकार दो इत्यादि ( एक से अधिक ) अंशों का अभाव होने से आकाश परमाणु की भांति प्रदेशमात्र सिद्ध हुआ । (इसलिये यह तो घटित नहीं होता ), ( २ ) यदि यह कहा जाय कि 'आकाश भिन्न अंशों वाला अविभाग एक द्रव्य हैं' (इसलिये दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है) तो ( यह योग्य हो है, क्योंकि ) अविभाग एक द्रव्य में अंश-कल्पना फलित हुई । यदि यह कहा जाय कि ( बो अंगुलियों के) 'अनेक क्षेत्र हैं' ( अर्थात् एक से अधिक क्षेत्र हैं, एक नहीं) तो ( प्रश्न होता है कि - ), आकाश सविभाग ( खंडरूप ) अनेक द्रव्य हैं इसलिये दो अंगुलियों के अनेक क्षेत्र हैं या ( २ ) आकाश के अविभाग एकद्रव्य होने पर भी दो अंगुलियों के अनेक क्षेत्र हैं ? (१) यदि सविभाग अनेक द्रश्य होने से माना जाय तो आकाश जो कि एक द्रव्य है उसे अनन्त द्रव्यत्व आ जायगा, (इसलिये यह तो घटित नहीं होता ), ( २ ) यदि अविभाग एक द्रव्य होने से माना जाय तो ( यह योग्य हो है, क्योंकि) अविभाग एक द्रव्य में अंशकल्पना फलित हुई || १४० ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३५१ तात्पर्यवत्ति अथ पूर्वं यत्सुचितं प्रदेशस्वरूपं तदिदानी विवृणोति - आयासमणुणिविट्ठ आकाशं अणुनिविष्टं पुद्गलपरमाणुध्याप्तम् । आयासपदेससण्णया भणियं आकाशप्रदेशसंज्ञया भणितं कथितम् । सन्वेसि च अणूणं सर्वेषामणूनां चकारात्सूक्ष्मस्कन्धानां च सक्कदि तं देदुमवासं शक्नोति स आकाश प्रदेशो दातमवकाशम् । तस्याकाशप्रदेशस्य यदीत्थंभूतमबकाशदानसामर्थ्य न भवति तदानन्तानन्तो जीवराशिस्तस्मादप्यनन्तगुणपुद्गलराशिश्चासंख्येयप्रदेशलोके कथमवकाशं लभते ? तच्च विस्तरेण पूर्व भणितमेव । अथ मतं -अखण्डाकाशद्रव्यस्य प्रदेश विभागः कथं घटते ? परिहारमाह-चिदानन्दैकस्वभावनिजात्मतत्वपरमैकाग्रयलक्षणसमाधिसंजातनिविकारालादैकरूपसुखसुधारसास्वादतृप्तमुनियुगलस्यावस्थितक्षेत्र किमेकमनेकं वा ? यद्येक तहि द्वयोरप्येकत्वं प्राप्नोति न च तथा । भिन्नं चेत्तदा अखण्डस्याप्याकाशद्रव्यप्रदेश विभागो न विरुध्यत इत्यर्थः ॥१४०।। उत्थानिका~आगे जिसका पहले कथन किया है उस प्रदेश का स्वरूप कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(अणुणिविठं आयासं) अविभागी पुद्गलके परमाणु द्वारा व्याप्त जो आकाश है उसको (आयासपदेससण्णया) आकाश के प्रदेश की संज्ञा से (भणियं) कहा गया है । तथा (तं) वह प्रदेश (ससि च अणूणं) सर्व परमाणु तथा सूक्ष्म स्कंधों को (अयकासं दे सक्कदि) जगह देने को समर्थ है । एक परमाणु द्वारा व्याप्त आकाश के प्रदेश में यदि इतनी जगह देने की शक्ति नहीं होती कि वह अन्य परमाणुओं को व सूक्षम पदार्थों को जगह दे सकता है, तो यह अनन्तानन्त जीवराशि और उससे भी अनन्तगुणी पुद्गलराशि किस तरह असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में जगह पाती, इसको बिस्तार से पहले कह चुके हैं । शंका-अखंड आकाश द्रव्य के भीतर प्रदेशों का विभाग कसे सिद्ध हो सकता है ? समाधान-चिदानन्दमयो एक स्वभावरूप निज आत्मतत्त्व में परम एकाग्रता लक्षण समाधिसे उत्पन्न विकार-रहित आल्हावमयी एक रूप, सुख, अमृत रस के स्वाद में तुप्त दो मुनियों के जोड़े का ठहरने का क्षेत्र एक है वा अनेक है ? यदि एक ही स्थान है तब यो मुनियों का एकत्व हो जायगा, सो ऐसा नहीं है। और यदि उनका क्षेत्र भिन्न-भिन्न है तब अखंड आकाश के भी प्रदेशों का विभाग करने में कोई विरोध नहीं आता है ॥१४०।। अथ तिर्यमूर्ध्वप्रथयावावेदयति एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य । दव्वाणं च पदेसा संति हि समय त्ति कालस्स ॥१४॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] [ परयणसारो एको वा द्वौ बहवः संख्यातीतास्ततोजन्ताश्च । द्रव्याणां च प्रदेशा: सन्ति हि समया इति कालस्य ।।१४१।। प्रदेशप्रचयो हि तिर्यक्प्रचयः, समयविशिष्टवृत्तिप्रचयस्तदूर्ध्वप्रचयः । तत्राकाशस्यावस्थितानन्तप्रदेशत्वाधर्माधर्मयोरवस्थितासंख्येयप्रदेशत्याज्जीवस्यानवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वात् पुद्गलस्य द्रव्येणानेकप्रदेशत्वशक्तियुक्तकप्रदेशत्वात्पर्यायेण द्विबहुप्रदेशत्वाच्चास्ति तिर्यकप्रचयः। न पुनः कालस्य शक्त्या व्यक्त्या चैकप्रदेशत्वात् । ऊध्वंप्रचयस्तु, त्रिकोटिस्पशित्वेन सांशत्वादनव्ययत्तेः सर्वव्याणामनिवारित एव । अयं तु विशेषः समयविशिष्ट त्तिप्रचयः शेषद्रध्याणामूर्वप्रचयः समयप्रचयः एव कालस्योर्ध्वप्रचयः । शेषद्रव्याणां वृहि समयावर्थान्तर मूतत्वादस्ति समयविशिष्टत्वम् । कालवृत्तेस्तु स्वतः समयभूतत्वातन्नास्ति ॥१४१।। भूमिका-अब, (प्रदेश अपेक्षा) तिर्यक् प्रचय तथा (काल प्रवाह अपेक्षा) ऊर्वप्रचय बतलाते हैं। अन्वयार्थ— [द्रव्याणां च ] द्रव्यों के [हि] निश्चय से [एकः] एक, [at] दो, [बहवः ] बहुत (संख्यात) [वा] अथवा [संख्यातोताः] असंख्यात [ततः च] और फिर | अनन्ताः ] अनन्त [प्रदेशाः] प्रदेश [सन्ति] हैं। [कालस्य] काल के [समयाः इति] 'समय' हैं। ___टीका--प्रदेशों का समूह नियंक्प्रचय और समयविशिष्ट वृत्तियों का (पर्यायों का) समूह ऊध्यप्रचय है। वहाँ आकाश अवस्थित (स्थिर) अनन्त प्रदेश वाला है, धर्म तथा अधर्म अवस्थित असंख्य प्रदेश वाले हैं, जीव अनवस्थित असंख्य प्रदेशी है, और पुद्गल द्रव्यतः अनेक-प्रदेशित्व की शक्ति से युक्त एक प्रदेशवाला है तथा पर्याय की अपेक्षा वो अथवा बहुत (संख्यात, असंख्यात, अनन्त) प्रदेशवाला है, इसलिये उनके (आकाशादिक के) तिर्यकप्रचय है। परन्तु काल के तिर्यक प्रचय नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्ति (की अपेक्षा) से एक प्रवेशवाला है। ___ऊर्ध्वप्रचय तो सर्वद्रव्यों के अनिवार्य हो है, क्योंकि द्रव्य की वृत्ति (परिणति) तीन कोटियों को (भूत, वर्तमान और भविष्यत-ऐसे तीनों कालों को) स्पर्श करती है, इसलिये अंशों से युक्त है (एक समय को पर्याय कालिक परिणतिका एक अंश है)। परन्तु इतना अन्तर है कि समय विशिष्ट वृत्तियों का प्रचय (काल को छोड़कर) शेष द्रव्यों का ऊर्ध्वप्रचय है, और समयों का प्रचय काल द्रव्य का ऊर्ध्वप्रचय है, क्योंकि शेष द्रव्यों की Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] । ३५३ वृत्ति समय से अर्थान्तर भूत (अन्य) है, इसलिये वह (वृत्ति) समय से विशिष्ट (विशेषित) है, काल द्रव्य को वृत्ति तो स्वतः समयभूत है, इसलिये वह समयविशिष्ट नहीं है ॥१४१॥ ___ तात्पर्यवृत्ति अथ तिर्यकपचयोदर्वप्रचयौ निरूपयति एक्को का दुगे बहुगर संखातोदा तदो अगंता य एको वा द्वौ बहवः संख्यातीतास्ततोऽनन्ताश्च । वखाणं च परेसा संति हि कालद्रव्यं विहाय पञ्चद्रव्याणां सम्बन्धिन एते प्रदेशा यथासम्भवं सन्ति हि स्फुटम् । समयति कालरस कालस्य पुनः पूर्वोत्तसंध्योपेता. समयाः सन्तीति । तद्यथा-एकाकारपरमअमरसीभावपरिणतपरमानन्दकलक्षणसुखामृतभरितावस्थानां केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपानन्तगुणाधारअताना लोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयप्रदेशानां मुक्तात्मपदार्थ योऽसौ प्रचय: समूहः समुदायो राशिः स । कि भण्यले ? तिर्यकप्रचयाः तिर्यक्सामान्यमिति विस्तारसामान्यमिति अकमानेकान्त इति च सम्यते । स च प्रदेशप्रचयलक्षणरिचर्यकपचयो गथा मृतात्मनो भणितस्तथा कालं विहाय स्वकीयकीयप्रदेशसंख्यानुसारेण शेषद्रव्याणां स भवतीति तिर्यक्प्रचयो व्याख्यातः। प्रतिसमयवर्तिनां पू:पर्यायाणां मुक्ताफलमालावत्सन्तान ऊद्धर्वप्रचय इत्यूर्वसामान्यमित्यायतसामान्यमिति नमानेकान्त ति च भण्यते । स च सर्वव्याणां भवति । किन्तु पंचद्रव्याणां सम्बन्धी पूर्वापरपर्यायसन्तानरूपो सावूर्वताप्रचयस्तस्य स्वकीयस्वकीयद्रव्यमुपादानकारणम्। कालस्तु प्रतिसमयं सहकारिकारणं अगरी। यस्तु कालस्य समयसन्तानरूप ऊर्वताप्रचयस्तस्य स्वकीय स्वकीयद्रव्यम्पादानकारणम् । कालस्तु प्रतिसमयं सहकारिकारणं भवति । यस्तु कालस्य समय सन्तानरूप ऊर्ध्वता प्रचयस्तस्य काल एवोपादानकारणं सहकारिकारणं च । कस्मात् ? कालस्य भिन्नसमयाभावात्पर्याया एव समया भवन्तीत्यभिप्रायः ।।१४१|| एवं सप्तमस्थले स्वतन्त्रगाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका-आगे तिर्यक् प्रचय और ऊर्व प्रचय का निरूपण करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(दव्याणं पदेसा) काल द्रव्य के बिना पाँच द्रव्यों के प्रदेश (एक्को व दुगे च बहुगा संखातीदा तबो अणंता य संति) एक या दो या बहुत, या असंख्यात तथा अनन्त यथायोग्य होते हैं (कालस्स हि समयत्ति) परन्तु निश्चय से एक प्रवेशी काल द्रश्य के समय पूर्वोक्त संख्या वाले होते हैं। मुक्तात्मा पदार्थ में एकाकार व परम समता रस के भाव में परिणमनरूप परमानन्दमयी एक लक्षण सुखामृत से भरे हुए और केवलज्ञानादि प्रगटरूप अनन्त गुणों के आधारभूत, लोकाकाश प्रमाण शुद्ध असंख्यात प्रवेशों का जो प्रचय या समूह या समुदाय या राशि है उसको तिर्यक् प्रचय, तिर्यक विस्तार सामान्य या अक्रम अनेकान्त कहते हैं। यह प्रदेशों का समुदायरूप तिर्यक् प्रचय जैसे मुक्तात्मा द्रव्य में कहा गया है तसे काल को छोड़कर अन्य द्रव्यों में अपने-अपने प्रदेशों की संख्या के अनुसार तिर्यक्-प्रचय होता है ऐसा कथन समझना चाहिये । तथा समय-समय वर्तने वाली Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] [ पवयणसारो पूर्व और उत्तर पर्यायों की सन्तान को ऊर्ध्व प्रचय, ऊर्ध्व सामान्य, आयत सामान्य, या क्रम अनेकान्त कहते हैं, जैसे मोती की माला में मोतियों को कम से गिना जाता है इसी तरह द्रव्य को समय-समय में होने वाली पर्यायों को कम से गिना जाता है। इन पर्यायों के समूह को ऊर्ध्व सामान्य कहते हैं। यह सब द्रव्यों में होता है। किन्तु काल के सिवाय पाँच द्रक्ष्यों की पूर्व उत्तर पर्यायों का सन्तान रूप जो ऊध्र्य प्रचय है उसका उपादान कारण तो अपना-अपना द्रध्य है परन्तु कालद्रव्य उनके लिये प्रति समय में सहकारी कारण है । परन्तु जो कालद्रव्य का समय सन्तान रूप ऊर्व प्रचय है उसका काल हो उपादान कारण है और काल ही सहकारी कारण है। क्योंकि काल से भिन्न कोई और समय नहीं है । काल की जो पर्यायें हैं, वे ही समय हैं ऐसा अभिप्राय है ॥१४१॥ अथ कालपदार्थोर्वप्रचयनिरन्वयत्वमुपहन्ति उप्पादो पद्धसो विज्जदि जदि जस्स एगसमयम्हि । समयस्स सो वि समओ समावसमवदिदो हवदि ॥१४२॥ उत्पादः प्रध्वंसो विद्यते यदि यस्यकसमये । समयस्य सोऽपि समयः स्वभावसमवस्थितो भवति ॥१४२३ । समयो हि समयपदार्थस्य वृत्त्यंशः तस्मिन् कस्याप्यवश्यमुत्पादप्रध्वंसौ संभवतः, परमाणोयतिपातोत्पद्यमानत्वेन कारणपूर्वत्वात् । तौ यदि वृत्त्यंशस्यैव, कि योगपद्येन कि क्रमेण, योगपद्येन चेत् नास्ति योगपy सममेकस्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात् । क्रमेण चेत् नास्ति क्रमः, वृत्त्यंशस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात् । ततो वृत्तिमान कोऽव्यवश्यमनुसर्तव्यः, स च समयपदार्थ एव । तस्य खल्वेकस्मिन्नपि वृत्त्यंशे समुत्पावप्रध्वंसौ संभवतः । यो हि यस्य वृत्तिमतो यस्मिन् वृत्त्यंशे तवृत्त्यंशविशिष्टत्वेनोत्पावः । स एव तस्यैव वृत्तिमतस्तस्मिन्नेव वृत्त्यंशे पूर्ववृत्त्यशविशिष्टत्वेन प्रध्वंसः । यद्येयमुत्पादव्ययावेकस्मिन्नपि वृत्त्यंशे संभवतः समयपदार्थस्य कथं नाम निरन्धयत्वं, यतः पूर्वोत्तरवृत्त्यशविशिष्टत्वाभ्यां युगपदुपात्तप्रध्वंसोत्पावस्यापि स्वभावेनाप्रध्वस्तानुत्पन्नत्वाववस्थितत्वमेव न भवेत् । एवमेकस्मिन् वृत्त्यंशे समयपदार्थस्योत्पादव्ययध्रौव्यवत्त्वं सिद्धम् ।।१४२।। भूमिका-—अब, कालपदार्थ का ऊध्र्वप्रचय निरन्वय है, इसका खंडन करते हैं अन्वयार्थ—[यदि यस्य समयस्य ] यदि कालका [एक समये] एक समय में [उत्पादः प्रध्वंसः] उत्पाद और विनाश [विद्यते ] पाया जाता है, इसः अपि समयः] तो १. एकसमम्हि (ज० वृ०)। २. सहाबसमबलिदो (ज० वृ०) । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ३५५ वह काल भी [स्वभावसमवस्थितः] स्वभाव में अवस्थित (अविनाशी स्वभाव में स्थिर अर्थात् ध्रुव) [भवति ] होता है । टीका—समय काल पदार्थ का वृत्त्यंश (पर्याय) है, उस वृत्त्यंश में किसी के भी उत्पाद तथा विनाश अवश्य संभवित हैं, क्योंकि परमाणु के अतिक्रमण के द्वारा (समयरूपी वृत्त्यंश) उत्पन्न होता है, इसलिये वह कारणपूर्वक है। (परमाणु के द्वारा एक आकाश प्रदेश का मंदगति से उल्लंघन करना कारण है और समयरूपी वृत्त्वंश उस कारण का कार्य है, इसलिये उसमें किसी पदार्थ का उत्पाई तथा विनाश होना चाहिये ।) 'किसी पदार्थ के उत्पाद-विनाश होने की क्या आवश्यकता है ? उसके स्थान पर वृत्त्यंश को ही उत्पाद-विनाश होते हुये मान लें तो क्या हानि है ? इस तर्क का समाधान करते हैंयदि उत्पाद और विनाश वृत्त्यंश के ही माने जायें तो (प्रश्न होता है कि-) (१) वे युगपत् हैं या (२) क्रमशः? (१) यदि 'युगपत्' कहा जाय तो युगपतपना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते। (एक ही समय एक वृत्त्यंश के, प्रकाश और अंधकार की भांति, उत्पाद और विनाश-दो विरुद्ध धर्म नहीं होते हैं ।) (२) यदि 'क्रमशः' कहा जाय तो कम नहीं बनता, क्योंकि वृत्त्यंश के सूक्ष्म होने से उसमें विभाग का अभाव है । इसलिये (समयरूपी वृत्त्यंश के उत्पाव तथा विनाश होना अशक्य होने से) कोई वृत्तिमान् अवश्य ढूंढना चाहिये। वह (वृत्तिमान् ) काल पदार्थ हो है। उसके वास्तव में एक वृत्त्यंश में भी उत्पाद और विनाश संभव है, क्योंकि जिस वत्तिमान के जिस वृत्त्यंश में उस वृत्त्यंश की अपेक्षा से जो उत्पाद है, वही, उसी वृत्तिमान के उसी वृत्त्यंश में पूर्व वृत्त्यंश की अपेक्षा से विनाश है। (अर्थात्-कालपदार्थ के जिस वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से उत्पाद है, वही पूर्व पर्याय की अपेक्षा से विनाश है।) ___ यदि इस प्रकार उत्पाद और विनाश एक वृत्त्यंश में संभवित हैं तो काल पदार्थ निरन्वय कैसे हो सकता है, कि जिससे पूर्व और पश्चात् वृत्त्यंश की अपेक्षा से युगपत् बिनाश और उत्पाद को प्राप्त होता हुआ भी स्वभाव से अविनष्ट और अनुत्पन्न होने से यह (काल पदार्थ) अवस्थित न हो ? अर्थात् अवश्य अवस्थित होगा? काल पदार्थ के एक वृत्यंश में भी उत्पाद और विनाश युगपत् होते हैं, इसलिये वह निरन्वय अर्थात् खंडित नहीं है, इसलिये स्वभावतः अवश्य ध्रुव है । इस प्रकार एक वृत्त्यंश में काल पदार्थ उत्पाद व्यय धोव्य वाला है, यह सिद्ध हुआ ॥१४२॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] [ पवयणसारो तात्पर्य वृत्ति अथ समयसन्तानरूपस्योर्ध्वत्रच यस्यान्वयिरूपेणाधारभूतं कालद्रव्यं व्यवस्थापयति — उप्पादी पद्धसो विज्जदि जदि उत्पाद: प्रध्वंसो विद्यते यदि चेत् । कस्य । जस्स यस्य कालाणोः । क्व ? एकसमयहि एकसमये वर्तमानसमये समयस्स समयोत्पादकत्वात्समयः कालाणुस्तस्य सोवि समओ सोऽपि कालाणुः सहावसमवट्ठिदो हवदि स्वभावसमवस्थितो भवति । पूर्वोक्तमुत्पादप्रध्वंसद्वयं तदाधारभूतं कालाजुद्रव्यरूपं धौव्यमिति त्रयात्मकस्वभावसत्ता स्तित्वमिति यावत् । तत्र सम्यगवस्थितः स्वभाव: समवस्थितो भवति । तथाहि-- यथांगुलिद्रव्ये यस्मिन्नेव वर्तमानक्षणे वक्रपर्यायस्योत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे तस्यैबांगुलिद्रव्यस्य पूर्वर्जुपर्यायेण प्रध्वंसस्तदाधारभूतांगुलिद्रव्यत्वेन धौव्यमिति द्रव्यसिद्धिः । अथवा स्वस्वभावरूपसुखेनोत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे तस्यैवात्मद्रव्यस्य पूर्वानुभूताकुलत्वदुःखरूपेण प्रध्वंसस्तदुभयाधारभूतपरमात्मद्रव्यत्वेन धौव्यमिति द्रव्यसिद्धिः । अथवा मोक्षपर्यायरूपेणोत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे रत्नत्रयात्मकनिश्चयमोक्षमार्गपर्यायरूपेण प्रध्वंसस्तदुभयाधारपरमात्मद्रव्यत्वेन धौत्र्यमिति व्यसिद्धिः वर्तमानरूपपर्यायेणोत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे तस्यैव काला द्रव्यस्य पूर्वसमयरूपपर्यायेण प्रध्वंसस्तदुभयाधारभूतांगुलिद्रव्यस्थानीयेन कालाणुद्रव्यरूपेण धाव्यमिति कालद्रव्यसिद्धिरित्यर्थः ।। १४२ ।। उत्थानिका- आगे समय - संतानरूप ऊर्ध्वं प्रत्रय के अन्वयी रूप से आधारभूत काल द्रव्य को स्थापन करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जस्स समयस्स) समयरूप पर्याय को उत्पन्न करने वाले जिस कालाणु द्रव्य का ( एक समयम्हि ) एक वर्तमान समय में (जदि) जो (उप्पादो) उत्पाद तथा ( पद्धसो ) नाश (विज्जदि) होता है ( सो वि समओ) सो हो काल पदार्थ ( सहावसमवट्ठिदो हवदि ) अपने स्वभाव में भले प्रकार स्थिर रहता है । काला द्रव्य में पहली समय रूप पर्याय का नाश नयी समय रूप पर्याय का उत्पाद जिस वर्तमान समय में होता है, उसी समय इन दोनों उत्पाद और नाश का आधाररूप कालानुरूप द्रव्य ध्रौव्य रहता है । इस तरह उत्पाद व्यय धौव्यरूप त्रयात्मक स्वभावमयो सत्तारूप अस्तित्व इस काल द्रव्य का भले प्रकार सिद्ध है । भले प्रकार अवस्थित स्वभाव वाला समवस्थित है । जैसे एक हाथ की अंगुली को टेढा करते हुए जिस वर्तमान क्षण में ही वक्र अवस्था का उत्पाद हुआ है उसी हो क्षण में उसी हो अंगुली द्रव्य की पहली सीधीपने की पर्याय का नाश हुआ है परन्तु इन दोनों की आधारभूत अंगुली द्रव्य धौव्य है। इस तरह द्रव्य की सिद्धि होती है । अथवा जिस किसी आत्मद्रव्य में अपने स्वभावमयी सुख का जिस क्षण में उत्पाद है उसी ही क्षण में उसके पूर्व अनुभव होने वाले आकुलता रूप दुःख पर्याय का नाश है परन्तु इन दोनों के आधारभूत परमात्म-द्रव्य का धौव्य है । इस तरह द्रव्य की सिद्धि है । अथवा एक आत्मद्रव्य में जिस समय मोक्ष पर्याय का उत्पाद है उस ही Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो :] [ ३५७ समय रत्नत्रयमयी मोक्षमार्ग रूप पर्याय का नाश है परन्तु इन दोनों के आधारभूत परमात्म द्रव्य काव्य है । इस तरह द्रव्य की सिद्धि है । उसी प्रकार जिस काल द्रव्य की जिस क्षण में वर्तमान समयरूप पर्याय का उत्पाद है उसी काल द्रव्य की पूर्व समय की पर्याय का नाश है परन्तु इन दोनों के आधाररूप अंगुली द्रव्य के स्थान में कालाणु द्रव्य का धौव्य है, इस तरह फाल द्रव्य की सिद्धि है ॥ १४२ ॥ अथ सर्ववृत्यंशेषु समयपदार्थस्योत्पादव्यय धौव्यवत्त्वं साधयति'एगम्हि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा । समयस्स सव्वकालं एस हि कालासम्भावो ॥ १४३ ॥ एकस्मिन सन्ति समये संभवस्थितिनाशसंज्ञिता अर्थाः । समयस्य सर्वकाल एष हि कालाणुसद्भावः । । १४३ ।। अस्ति हि स्वपितृवंशेषु समयवास्थालय धौम्यत्वमेकस्मिन् वृत्त्यंशे तस्य दर्शनात् उपपत्तिमच्चैतत्, विशेषास्तित्वस्य सामान्यास्तित्वमन्तरेणानुपत्तेः । अयमेव च समयपदार्थस्य सिद्धयति सद्भावः । यदि विशेषसामान्यास्तित्वे सिद्धयतस्तदा तु अस्तित्वमन्तरेण न सिद्ध्यतः कथंचिवपि ॥ १४३॥ भूमिका – अब, (जैसे एक वृत्यंश में काल पदार्थ का उत्पाद व्यय सिद्ध किया है, उसी प्रकार ) सर्व वृत्त्यंशों में काल पदार्थ के उत्पाद-व्यय-श्रव्यत्य हैं, यह सिद्ध करते हैं : :―― अन्वयार्थ -- | एकस्मिन् समये ] एक समय में [ संभवस्थितिनाशसंज्ञिता: अर्थाः ] उत्पाद, धौव्य और व्यय नामक अर्थ [ समयस्य ] काल के [सर्वकालं ] सदा [ संति ] होते हैं । [ एषः हि ] यही [ कालाणुसद्भावः ] कालाणु का सद्भाव है, ( यही कालाजु के अस्तित्व की सिद्धि है | ) टीका — काल पदार्थ के सभी वृत्त्यंशों में उत्पाद, व्यय, धौव्य होते हैं, क्योंकि (१४२ वीं गाथा में जैसा सिद्ध हुआ है तदनुसार) एक वृत्यंश में वे ( उत्पादव्ययम्य) देखे जाते हैं । और यह योग्य ही है, क्योंकि विशेष अस्तित्व की सामान्य अस्तित्व के बिना, उत्पत्ति नहीं हो सकती । यही काल पवार्थ के सद्भाव की सिद्धि है । (क्योंकि) यदि विशेष और सामान्य अस्तित्व सिद्ध होते हैं, तो वे अस्तित्व के बिना किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होते ।। १४३ ।। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ 1 [ पवयणसारी तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वोक्तप्रकारेण यथा वर्तमानसमये कालद्रध्यस्योत्पादच्ययध्रौव्यत्वं रथापितम् तथा सर्वसमयेष्वस्तीति निश्चिनोति एगम्हि संति समये संभवठिविणाससण्णिदा अछा एकस्मिन्समये सन्ति विद्यन्ते। के ? सम्भवस्थितिनाशसंज्ञिता अर्थाः धर्माः स्वभावा इति यावत् । कस्य सम्बन्धिनः ? समयस्स समयरूपपर्यायस्योत्पादकत्वात् समयः कालाणुस्तस्य सम्वकालं यद्येकस्मिन् वर्तमानसमये सर्वदा तथैव एस हि कालाणुसम्भावो एषः प्रत्यक्षीभूतो हि स्फुटमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मककालाणुसद्भाव इति । तद्मथा-यथा पूर्वमेकसमयोत्पादप्रध्वंसाधारेणांगुलिद्रव्यादिदृष्टान्तेन वर्तमानसमये कालद्रव्यस्योत्पादव्ययध्रौव्यत्वं स्थापितं तथा सर्वसमयेषु ज्ञातव्यमिति । अत्र यद्यप्यतीतानन्तकाले दुर्लभाया: सर्वप्रकारोपादेयभूतायाः सिद्धगतेः काललब्धिरूपेण बहिरङ्गसहकारी भवति कालस्तथापि निश्चयनयेन निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानाज्ञानानुष्ठानसमस्तफरद्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूपा या तु निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोत्पादनकारणं न च कालस्तेन कारणेन स हेय इति भावार्थः ।।१४३॥ उत्थानिका-आगे यह निश्चय करते हैं कि जैसे पूर्व में कहे प्रमाण एक वर्तमान समय में काल द्रव्य का उत्पाद व्यय ध्रौव्य सिद्ध किया गया उसी प्रकार सर्व समयों में होता है अन्वय सहित विशेषार्थ—(एगम्हि समये) एक समय में (समयस्स) कालद्रव्य का (संभवठिविणाससपिणा अट्ठा) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव (संति) है (एस हि) निश्चय करके ऐसा ही (कालाणुसब्भावो) कालाणु द्रव्य का स्वभाव (सघकालं) सहाकाल रहता है। जैसे पहले अंगुली द्रव्य आदि के दृष्टांत से एक समय में ही उत्पाद और व्यय का आधार भूत होने से एक विवक्षित वर्तमान समय में ही काल द्रव्य के उत्पाद व्यय प्रोन्यपना स्थापित किया गया तैसा ही सर्व समयों में जानना योग्य है। यहां यह तात्पर्य निकालना चाहिये कि यद्यपि भूतकाल के अनन्त समयों में दुर्लभ और सब तरह से ग्रहण करने योग्य सिद्धगति का कालसन्धिरूप से बाहरी सहकारी कारण फाल है तथापि निश्चय नय से अपने ही शुद्ध आत्मा के तत्व का सम्यक् श्रद्धान, शान और चारित्र तया सर्व पर द्रव्य को इच्छा को निरोधमयी लक्षणरूप तपश्चरण इस तरह यह जो निश्चय चार प्रकार आराधना है यही उपादान कारण है, काल उपादान कारण नहीं है, इससे कालद्रव्य त्यागने योग्य है यह भावार्थ है ॥१४३॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३५६ अथ कालपदार्थस्यास्तित्वान्यथानुपपत्त्या प्रदेशमात्रत्वं साधयतिजस्स ण संति पदेसा' पदेसमेत्तं व तच्चदो णादं । सुण्णं जाण तमत्थं अत्यंतरभूव मत्थीदो ॥१४४॥ यस्य न सन्ति प्रदेशाः प्रदेशमा वा तत्त्वतो ज्ञातुम् । शून्यं जानीहि तमर्थमर्थान्तरभूतमस्तित्वात् ॥१४४।। अस्तित्वं हि तावदुत्पावव्ययनौव्यक्यात्मिका वृत्तिः। न खलु सा प्रवेशमन्तरेण सूश्यमाणा कालस्य संभवति, यतः प्रदेशाभावे वृत्तिमदभावः । स तु शून्य एव, अस्तित्वसंज्ञाया वृत्तेरर्थान्तरभूतत्वात् । न च वृत्तिरेव केवला कालो भवितुमर्हति वृत्तहि वृत्तिमन्समन्तरेणानुपपत्तेः, उपपत्तौ वा कथनुत्पादव्ययध्रौव्यक्यात्मकत्वम् । अनाद्यनन्तनिरन्तरानेकांशवशीकृतकात्मकत्वेन पूर्वपूर्वा शप्रध्यसादुत्तरोत्तरांशोत्पादादेकात्मनोव्यादिति चेत् । नेयम् । यस्मिन्नंशे प्रध्वंसो यस्मिश्चोत्पादस्तयोः सहप्रवृत्त्यभावात् कुतस्त्यमक्यम् । तथा प्रध्वस्तांशस्य सर्वथास्तमितत्वादुत्पद्यमानांशस्य वा संभवितात्मलाभत्वात्प्रध्वंसोत्पावैक्यतिधौव्यमेव कुतस्त्यम् । एवं सति नश्यति लक्षण्यं, उल्लसति क्षणभङ्गः, अन्तमुपैति नित्यं द्रव्यं, उदीयन्ते क्षणक्षयिणो भावाः । ततस्तस्वविप्लवभयात्कश्चिदवश्यमाश्रयभूतो वृत्तवृत्तिमाननुसतव्यः । स तु प्रदेश एवाप्रदेशस्यान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वासिद्धेः। एवं सप्रवेशत्वे हि कालस्य कुत एकद्रव्यनिबन्धनं लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वं नाभ्युपगम्येत । पर्यायसमयाप्रसिद्धः । प्रदेशमात्रं हि द्रव्यसमयमतिकामतः परमाणोः पर्यायसमयः प्रसिद्धयति । लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वे तु द्रव्यसमयस्य कुतस्त्या तत्सिद्धिः । लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशकद्रव्यत्वेऽपि तस्यक प्रदेशमतिकामतः परमाणोस्तत्तिद्धिरिति चेन्नैवं । एकदेशवृत्तः सर्ववृत्तित्वविरोधात् । सर्वस्यापि हि कालपदार्थस्य यः सूक्ष्मो वृत्त्यशः स समयो न तु तदेकदेशस्य । लियंकप्रचयस्योध्वंप्रचयत्वप्रसंगाच्च । तथाहि प्रथममेकेन प्रदेशेन वर्तते ततोऽन्येन ततोऽप्यन्तरेणेति तिर्यक्प्रचयोऽप्यूवंचयीभूय प्रदेशमात्रं द्रव्यमवस्थापयति । ततस्तिर्यक्प्रचयस्योर्ध्वप्रचयत्वमनिच्छता प्रथममेव प्रदेशमात्रं कालद्रव्यं व्यवस्थापयितव्यम् ॥१४४॥ भूमिका-अब, काल पदार्थ का अस्तित्व अन्यथा (अन्य प्रकार से) नहीं बन सकता, इसलिये उसका प्रदेशमात्रत्व सिद्ध करते हैं १. पएसा (ज० ००) 1. (२) पएसमेत्तं (ज० वृ०) । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] [ पवयणसारी अन्वयार्थ- [यस्य] जिस पदार्थ के [प्रदेशाः] बहुत प्रदेश [प्रदेशमा त्रं वा] अथवा एक प्रदेश भी [तत्त्वतः] परमार्थतः हिदुम् न संलि] बात नहीं होते, [ ] उस पदार्थ को [शून्यं जानीहि] शून्य जानो [अस्तित्वात् अर्थान्तरभूतत् ] क्योंकि वह अस्तित्व से अर्थान्तरभूत (अन्य) है । __टीका-प्रथम तो, अस्तित्व उत्पाद, व्यय, और प्रौव्य की ऐवयरूप प्रवृत्ति है । सूत्र में कही हुई वह (वृत्ति) प्रदेश के बिना ही काल के होनी सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रदेश के अभाव में वृत्तिमान का अभाव होता है। (और) वह तो शून्य ही है, क्योंकि अस्तित्व नामक वृत्ति से अर्थान्तरभूत (अन्य) है । और (यदि यहाँ यह तकं किया जाय 'मात्र समय पर्यायरू पयत्ति ही माननी चाहिये, वृत्तिमान् कालाणु पदार्थ की क्या आवश्यकता है ? तो उसका समाधान इस प्रकार है)—मात्र वृत्ति ही काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्तिमान के बिना वृत्ति नहीं हो सकती । यदि (यह कहा आय कि वृत्तिमान के बिना भी) वृत्ति हो सकती है तो, (प्रश्न होता है कि वृत्ति तो उत्पादच्ययधौन्य की एकतास्वरूप होनी चाहिये,) अकेली वृत्ति उत्पाद व्यय ध्रौव्य की एकतारूप कैसे हो सकती है ? यदि यह कहा जाय कि-'अनादि-अनन्त, अनन्तर (परस्पर अन्तर हुये बिना एक के बाद एक प्रवर्तमान) अनेक अंशों के कारण एकात्मकता (एक स्वरूपता) होती है इसलिये, पूर्व-पूर्व अंशों का उत्पाद होता है तथा एकात्मकतारूप प्रौव्य रहता है, इस प्रकार मात्र (अकेलो) वृत्ति भी उत्पाद-व्यय-धान्य की एकतास्वरूप हो सकती है ऐसा नहीं है। (क्योंकि उस अकेली वृत्ति में तो) जिस अंश में नाश है और जिस अंश में उत्पाद है वे दो अंश एक साय प्रवृत्त नहीं होते, इसलिये (उत्पाद और व्यय का) ऐक्य कहां से हो सकता है ? (अर्थात नहीं हो सकता)। तथा नष्ट अंश के सर्वथा अस्त होने से और उत्पन्न होने वाला अंश अपने स्वरूप को प्राप्त होने से (अर्थात उत्पन्न हआ है, इसलिये दोनों भिन्न-भिन्न हये, फिर) नाश और उत्पाद की एकता में प्रवर्तमान प्रौव्य कहां से हो सकता है (अर्थात् नहीं हो सकता)। ऐसा होने पर विलक्षणता (उत्पादन्ययात्रौव्यता) नष्ट हो जाती है, क्षणभंगुरता (बौद्धसम्मत क्षणविनाश) उल्लसित हो उठता है, नित्य द्रव्य अस्त हो जाता है, और क्षणविध्वंसी भाव उत्पन्न होते हैं। इसलिये तस्वविप्लव के (वस्तु-स्वरूप को व्यवस्था बिगड़ जाने के) भय से अवश्य ही वृत्ति का आश्रयभूत कोई वृत्तिमान ढढना स्वीकार करना योग्य है । यह तो प्रदेश ही है (अर्थात् वह वृत्तिमान सप्रदेश ही होता है), क्योंकि अप्रदेश के अन्धय तथा व्यतिरेक का अनुविधायित्व असिद्ध है। (जो अप्रदेश होता है । वह अन्यय Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३६१ तथा व्यतिरेकों का अनुसरण नहीं कर सकता, अर्थात् उसमें ध्रौव्य तथा उत्पाद-व्यथ नहीं हो सकते ।) प्रश्न- -जब कि इस प्रकार काल सप्रदेश है तो उसके एक द्रव्य के कारणभूत लोकाकाश के तुल्य ( बराबर ) असंख्यात प्रदेश क्यों न मानने चाहियें ? उत्तर- ऐसा हो तो पर्याय समय सिद्ध नहीं होता, इसलिये असंख्य प्रदेश मानना योग्य नहीं है । परमाणु के द्वारा प्रदेशमात्र कालद्रव्य का उल्लंघन करने पर ( अर्थात् - परमाणु के द्वारा एक प्रदेशमात्र फालाणु से निकट के दूसरे प्रदेशमात्र कालाणु तक मंदगति से गमन करने पर ) समय रूप पर्याय की सिद्धि होती है । यदि द्रव्यसमय आकाशतुल्य असंख्य प्रदेशी हो तो समथरूप पर्याय को सिद्धि कहां से होगी ? (नहीं होगी । ) 'यदि द्रव्यसमय अर्थात् कालपदार्थ लोकाकाश जितने असंख्य प्रदेश वाला एक द्रव्य हो तो भो परमाणु के द्वारा उसका एक प्रदेश उल्लंघित होने पर पर्यायसमय की सिद्धि हो जायगी; ऐसा कहा जाय तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ( उसमें दोष आते हैं ) - ( १ ) एक प्रदेश की वृत्ति को सम्पूर्ण द्रव्य की वृत्ति मानने में विरोध है । (उपरोक्त मान्यता से) सम्पूर्ण काल पदार्थ का ओ सूक्ष्म कृत्यंश है यह समय होगा परन्तु उसके एक देश का वृत्त्यंश 'समय' नहीं होगा । ( अथवा ) (२) तिर्यक्प्रचय को ऊर्ध्वप्रचयत्व का प्रसंग आता है । वह इस प्रकार है किप्रथम, कालद्रव्य एक प्रदेश से यर्ते, फिर प्रदेश से वर्ते और फिर अन्य प्रदेश से वर्ते ( ऐसा प्रसंग आता है) इस प्रकार तिर्यक्प्रचय ऊयंप्रचय बनकर द्रव्य को प्रदेशमात्र स्थापित करता है । ( अर्थात् तिर्यक्प्रचय ही ऊर्ध्वप्रचय है, ऐसा मानने का प्रसंग आता है, इसलिये द्रव्य प्रदेशमात्र ही सिद्ध होता है ।) इसलिये तिर्यक्प्रचय को ऊर्ध्वप्रचयत्व न मानने ( चाहने) वाले को प्रथम ही कालद्रव्य को प्रदेशमात्र निश्चय करना चाहिये || १४४ ॥ इस प्रकार ज्ञेयतत्वप्रज्ञापन में द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार समाप्त हुआ । तात्पर्यवृत्ति अथोत्पादव्ययौव्यात्म कास्तित्वावष्टम्भेन कालस्यैकप्रदेशत्वं साधयति सण संति यस्य पदार्थस्य न सन्ति न विद्यन्ते । के ? पएसा प्रदेशाः पएसमेतं तु प्रदेशमात्रमेकप्रदेशप्रमाणं पुनस्तद्वस्तु तच्चवो णाहुं तत्त्वतः पदार्थतो ज्ञातुं शक्यते । सुण्णं जाण तमत्थं यस्यैकोऽपि प्रदेशो नास्ति तमर्थं पदार्थ शून्यं जानीहि हे शिष्य ! कस्माच्छ्रन्यमिति चेत् ? अत्यंतरभूदं एकप्रदेशाभावे सत्यर्थान्तरभूतं भिन्नं भवति यतः कारणात्। कस्याः सकाशाद्भिन्नम् ? अत्थोदो उत्पादव्यय Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पवयणसारो ध्रौव्यात्मकसत्ताया इति । तथाहि—कासपदार्थस्य तावत्पूर्वसूत्रोदितप्रकारेणोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकमस्तित्वं विद्यते तच्चास्तित्वं प्रदेशं विना न घटते। यश्च प्रदेशवान् स कालपदार्थ इति। अथ मतं कालद्रव्याभावेप्युत्पादव्ययध्रौव्यत्वं घटते । नवं । अंगुलिद्रव्याभावे बर्तमानबक्रपर्यायोत्पादो भूत पर्यायस्य विनाशस्तदुभयाधारभूतं ध्रौव्यं । कस्य भविष्यति ? न कस्यापि । तथा कालद्रव्याभावे वर्तमानसमयरूपोत्पादो भूतसमयरूपो विनाशस्तदुभयाधारभूतं ध्रौव्यं । कस्य भविष्यति ? न कस्यापि । एवं सत्येतदायाति-अन्यस्य भङ्गोज्यस्योत्पादोऽन्यस्य ध्रौव्यमिति सर्व वस्तुस्वरूपं विप्लबते । तस्माद्वस्तुविप्लवभयादुत्पादव्ययध्रौव्याणां कोऽप्येक आधारभूतोऽस्तीत्यभ्युपगन्तव्यः । स चैकप्रदेशरूपः कालाणुपदार्थ एवेति । अत्रातीतानन्तकाले ये केचन सिद्धसुखभाजनं जाता, भाविकाले चात्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयवदित्यादिविशेषेण विशिष्टांसद्धसुखस्य भाजनं भविष्यन्ति ते सर्वेऽपि काललाब्धवशेनव, तथापि तत्र निजपरमात्मोपादेयरुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभूतं यनिश्चयसम्यक्त्वं तस्यैव मुख्यत्वं, न च कालस्य, तेन स हेय इति । तथा चोक्तम् __ "कि पलबिएणबहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले, सिज्झिहि जेवि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं" ॥१४४॥ एवं निश्चयकालव्याख्यानमुख्यत्वेनाप्टमस्थले गाथात्रयं गतम् । इति पूर्वोक्तप्रकारेण "दव्यं जीवमजीवं" इत्यायेकोनविंशतिगाथाभिः स्थलाष्टकेन विशेषज्ञेयाधिकारः समाप्तः । अतः परम शुद्धजीवस्य द्रव्यभाव प्राणैः सह भेदनिमित्तं "सपदेसे हि समग्गो' इत्यादि यथाक्रमेण गाथाष्टक पर्यन्तं सामान्य भेदभावना व्याख्यानं करोति । उत्थानिका-आगे उत्पाद व्यय ध्रौव्यमयी अस्तित्व में ठहरे हुए कालद्रव्य के एक प्रदेशपना स्थापित करते हैं __अन्वय सहित विशेषार्थ----(जस्स पएसा ण संति) जिस किसी पदार्थ के बहुप्रवेश नहीं हैं (व पदेसमेत्तं तस्वदो णाएं) अथवा जो वस्तु अपने स्वरूप से एक प्रदेश मात्र भी नहीं जानी जाती है (तमत्यं सुण्णं जाण) उस पदार्थ को शून्य जानो क्योंकि (अस्थोदो अत्यंतरभूदं) वह उत्पाद व्यय धोव्य रूप अस्तित्व. से अर्थान्तरभूत अर्थात भिन्त हो जायेगा क्योंकि उसमें एक प्रदेश भी नहीं है, जिससे उसकी सत्ता का बोध हो।। जंसा पूर्व सूत्रों में कहा है उस प्रकार काल पदार्थ में उत्पाद व्यय धौव्यरूप अस्तित्व विद्यमान है। यह अस्तित्व प्रदेश के बिना नहीं घट सकता है। जो प्रदेशवात् है, वही काल पदार्थ है। कोई कहे कि कालद्रव्य के अभाव में भी उत्पाद व्यय नौव्य घट जायेगा? इसका समाधान करते हैं कि ऐसा नहीं है। जैसे अंगुली द्रव्य के न होते हुए वर्तमान वक्र पर्याय का जन्म और भूतकाल की सीधी पर्याय का विनाश तथा दोनों के आधारभूतप्रौव्य किसका होगा? अर्थात किसी का भी न होगा । तैसे ही कालद्रव्य के अभाव में वर्तमान समय रूप उत्पाद व भूत समय रूप विनाश व दोनों का आधार रूप ध्रौव्य किसका Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो [ ३६३ होगा ? किसी का नहीं हो सकेगा। यदि सत्तारूप पदार्थ को न माने तो यह होगा कि विनाश किसी दूसरे का, उत्पाद किसी अन्य का व ध्रौव्य किसी और का होगा। ऐसा होते हुए सर्व वस्तु का स्वरूप बिगड़ जायेगा। इसलिये वस्तु के नाश के भय से यह मानना पड़ेगा कि उत्पाद व्यय प्रौव्य का कोई भी एक आधार है। वह इस प्रकरण में एक प्रदेश मात्र कालाणु पदार्थ ही है। यहां यह तात्पर्य समझना कि अनन्त भूतकाल में जिप्सने कोई सिद्ध सुख के पात्र हो चुके हैं व भविष्यकाल में अपने ही उपादान से सिद्ध व स्वयं अतिशयरूप इत्यादि विशेषणरूप अतींनिय सिद्ध सुख के पात्र होवेगे वे सब ही काल लब्धि के वश से ही हुए हैं व होंगे, तो भी अपना परमात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप तथा वीतरागचारित्र के अविनाभावी निश्चयसम्यग्दर्शन की ही मुख्यता है, न कि काल की। इसलिये काल हेय है। जैसा कि कहा है-- "बहुत क्या कहें जितने उत्तम पुरुष भूतकाल में सिद्ध हुए हैं व जो भव्य जीव भविष्य में सिद्ध होंगे सो सब सम्यग्दर्शन की महिमा जानो" ॥१४४॥ इस तरह निश्चय काल के व्याख्यान की मुख्यता से आठवें स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुई । इस तरह पूर्व में कहे प्रमाण "दथ्वं जीवमजीवं" इत्यादि उन्नीस गाथाओं से आठवें स्थल से विशेषज्ञेयाधिकार समाप्त हुआ। इसके आगे शुद्ध जीव का अपने द्रव्य और भाव प्राणों के साथ भेद के निमित्त "सपदेसेहि समग्गो" इत्यादि यथाक्रम से आठ गाथाओं तक सामान्य भेद भावना का व्याख्यान करते हैं। अथवं ज्ञेयतत्त्वमुक्त्वा ज्ञानज्ञेयविभागेनात्मानं निश्चिन्वन्नात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय व्यवहारजीवत्वहेतुमालोचयति सरदेसेहि समग्गो लोगो अट्ठहि णिछिदो णिच्चो । जो तं जाणदि जीवो 'पाणचदुक्काभिसंबद्धो ॥१४॥ सप्रदेशः समग्रो लोकोऽथ निष्ठितो नित्यः । यस्तं जानाति जीवः प्राणचतुष्काभिसंबद्धः ॥१४५।। एवमाकाशपदार्थादाकालपदार्थाच्च समस्तैरेव संभावितप्रदेशसद्भावः पदार्थः समग्न एव यः समाप्ति नीलो लोकस्तं खलु तदन्तःपातित्वेऽप्यचिन्त्यस्वपरपरिच्छेदशक्तिसंपदा जीब एव जानीते नवितरः । एवं शेषद्रव्याणि ज्ञेयमेव, जीवद्रव्यं तु ज्ञेयं ज्ञानं चेति ज्ञानज्ञेयविभागः । अथास्य जीवस्य सहज विजृम्भितानन्तज्ञानशक्तिहेतु के त्रिसमयावस्थायि १. पाणचउक्केण संबद्धो (ज० बु) । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] [ पवयणकारी स्वलक्षणे वस्तुस्वरूप भूततया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्थायामनाविवाहप्रवृत्तपुद्गल संश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीवत्व हेतु विभक्तव्योऽस्ति ।। १४५ भूमिका – अब इस प्रकार ज्ञेयत्व को कहकर, ज्ञान और ज्ञेय के विभाग द्वारा आत्मा को निश्चित करते हुये, आत्मा को अत्यन्त विभक्त ( भित्र) करने के लिये व्यवहार जीवत्थ के हेतु का विचार करते हैं '―― अन्वयार्थ -- [ सप्रदेश: अर्थैः ] सप्रदेश पदार्थों के द्वारा [निष्ठितः ] समाप्ति को प्राप्त' [समग्रः लोकः ] सम्पूर्ण लोक [ नित्य: ] नित्य है, [तं ] उसे [यः जानाति ] जो जानता है [ जीवः ] यह जीव है, [ प्राणचतुष्काभिसंबद्धः ] जो कि ( संसार दशा में ) चार प्राणों से संयुक्त है । टीका - इस प्रकार जिन्हें प्रदेश का सद्भाव फलित हुआ है ऐसा आकाश पदार्थ से लेकर काल पदार्थ तक के सभी पदार्थों से समाप्ति को प्राप्त जो समस्त लोक हैं, उसको वास्तव में, उसमें अन्तर्भूत होने पर भी, स्वपर को जानने को अचिन्त्यशक्तिरूप सम्पत्ति के द्वारा जीव ही जानता है, दूसरा कोई नहीं। इस प्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं और जीवद्रव्य तो ज्ञेय तथा ज्ञान है, - इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय का विभाग है। अब, सहजरूप से ( स्वभाव से ही ) प्रगट अनन्तज्ञानशक्ति जिसका हेतु है और तीनों काल में अवस्थायित्व जिसका लक्षण है ऐसे वस्तु का स्वरूपभूत होने से सर्वदा अविनाशी निश्चयजीवत्व होने पर भी, संसारावस्था में अनादिप्रवाहरूप से प्रवर्तमान मुद्गल संश्लेष के द्वारा स्वयं दूषित होने से इस जीव के चार प्राणों से संयुक्तता है, जो कि व्यवहारजीवत्व का हेतु है, और विभक्त करने योग्य है ।। १४५ ।। तात्पर्यवृत्ति अथ ज्ञानज्ञेयज्ञापनार्थं तथैवात्मनः प्राणचतुष्केन सह भेदभावनार्थ वा सूत्रमिदं प्रतिपादयतिलोगो लोको भवति । कथंभूतः ? गिट्ठवो निष्ठितः समाप्ति नीतो भृतो वा । केः कर्तृभूतैः ? अहं सहजशुद्धबुद्धकस्वभावो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तत्प्रभृतयो येऽर्थस्तैः । पुनरपि किविशिष्ट: ? सपदे से हि समग्गो स्वकीय प्रदेशः समग्रः परिपूर्णः । अथवा पदार्थः कथंभूतैः ? सप्रदेश: प्रदेशसहितैः । पुनरपि किविशिष्टो लोकः ? णिच्चो द्रव्यार्थिकनयेन नित्यः लोकाकाशापेक्षया वा । अथवा नित्यो न केनापि पुरुषविशेषेण कृतः जो तं जाणवि यः कर्ता तं ज्ञेयभूतलोकं जानाति जीवो स जीवपदार्थो भवति । एतावता किमुक्त' भवति योऽसौ विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावो जीवः स ज्ञानं ज्ञेयश्च भण्यते । पदार्थास्तु ज्ञेया एवेति ज्ञातृज्ञेयविभागः । पुनरपि किविशिष्टो जीवः ? पाणचक्केण संबद्धो यद्यपि १. छह द्रव्यों से ही सम्पूर्ण लोक समाप्त हो जाता है, अर्थात् उनके अतिरिक्त लोक में दूसरा कुछ नहीं है । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३६५ निश्चयेन स्वतः सिद्धपरमचैतन्यस्वभावेन निश्चयप्राणेन जीव ति तथापि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशादायुराद्यशुद्धप्राणचतुष्केनापि सम्बद्धः सन् जीवति । तच्च शुद्धनयेन जीवस्वरूपं न भवतीति भेदभावना ज्ञातव्येत्यभिप्रायः ।।१४५।। उत्थानिका-आगे ज्ञान और ज्ञेय को बताने के लिये तथा आत्मा का चार प्राणों के साथ भेद है इस भावना के लिये यह सूत्र कहते हैं ___ अन्वय सहित विशेपार्थ--(णिच्चो) द्रव्याथिक नय से नित्य अथवा किसी पुरुष विशेष से नहीं किया हुआ सदा से चला आया हुआ (लोगो) यह लोकाकाश (सपदेसेहि समग्गो) अपने ही असंख्यात प्रदेशों से पूर्ण है और (अठेहि गिठियो) सहज शुद्धबुद्ध एक स्वभावरूप परमात्म पदार्थ को आदि लेकर अन्य पदार्थों से भरा हुआ है अथवा अपनेअपने प्रदेशों को रखने वाले पदार्थों से भरा हुआ है (जो तं जाणदि) जो कोई इस ज्ञेय रूप लोक को जानता है (जीवो) सो जीव पदार्थ है तथा वह (पाणचउक्केणसंबद्धो) संसार अवस्था में व्यवहार से चार प्राणों का सम्बन्ध रखता है । निश्चय से यह जीव शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावधारी है इसलिये यह ज्ञान भी है और ज्ञेय भी है। शेष सब पदार्थ मात्र जेय हो हैं इस तरह ज्ञाता और ज्ञेय का विभाग है । तथा यद्यपि निश्चय से यह स्वयंसिद्ध परम चैतन्य स्वभावरूप निश्चय प्राण से जीता है तथापि व्यवहार से अनादि से कर्मबन्ध के वश से आयु आदि अशुद्ध चार प्राणों से भी सम्बन्ध रखता हुआ जीता है। यह चार प्राणों का सम्बन्ध शुद्ध निश्चय से जीव का स्वरूप नहीं है, ऐसी भेद भावना समझनी चाहिये यह अभिप्राय है ॥१४॥ अथ के प्राणा इत्यावेदयति इंदियवाणो य तधा' बलपाणो तह य आउपाणो य । आणप्पाणप्पाणो जीवाणं होति पाणा ते ॥१४६॥ इन्द्रियप्राणश्च तथा बलप्राणस्तथा चायुःप्राणश्च । आनपानप्राणो जीवानां भवन्ति प्राणास्ते ।।१४६।। स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रीपञ्चकमिन्द्रियप्राणाः, कायवाङ्मनस्त्रयं बलप्राणाः, भवधारणनिमितमायुःप्राणः । उपचनन्यञ्चनात्मको मरुदानपानप्राणः ।।१४६॥ भूमिका-अब, प्राण कौन से हैं, सो बतलाते हैं ..-- -- ... - .-.---... १. तहा (ज• वृ०)। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पबयणसारो ___ अन्वयार्थ- [इन्द्रिय प्राणः च] इन्द्रिय प्राण [तथा बलप्राणः] बलपाण, [नथा च आयुप्राणः] आयुप्राण [च] और | आनपानप्राणः] श्वासोच्छ्वास प्राण, [ते | यह (चार) [जीवानां] जीवों के [प्राणाः] प्राण [ भवन्ति ] हैं । ___टोका-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र,-यह पांच इन्द्रियप्राण हैं, काय, वचन, और मन-यह तीन बलप्राण हैं, मनुष्यादि भव धारण का निमित्त आयुप्राण है, नीचे और ऊपर जाना जिसका स्वरूप है, ऐसी बायु (श्वास) श्वासोच्छ्वास प्राण है ॥१४६॥ तात्पर्यवत्ति अथेन्द्रियादिप्राणचतुष्कस्वरूप प्रतिपादयति इन्दियपाणो य तहा अतीन्द्रियानन्तसुखस्वभावादात्मनो विलक्षण इन्द्रियप्राणः बलपाणो तह य मनोवानकायच्यापाररहितात्मपरमात्मद्रव्याद्विसदशो बलप्राणः, आउपाणो य अनाद्यनन्तस्वभावास्परमात्मपदार्थाद्विपरीतः साद्यन्त आयुःप्राणः, आणप्पाणप्पाणो उच्छ्वासनिःश्वासजनितखेदरहिताचनद्धात्मतत्त्वात्प्रतिपक्षभूत आनपानप्राणः । जीवाणं होति पाणा एवमायुरिन्द्रियबलोच्छ्वासरूपेणाभेदनयेन जीवानां सम्बन्धिनश्चत्वारः प्राणा भवन्ति । ते ते च शुद्धनयेन जीवाद्भिन्ना भावयितव्या इति ।। १४६।। उत्थानिका-आगे इन्द्रि आदि चार प्राणों का स्वरूप कहते हैं अन्वय सहीत विशेषार्थ-(इन्वियपाणो) इन्द्रिय प्राण (य तहा) तथा (बलपाणो) बल प्राण (तह य) तैसे ही (आउपाणो) आयुप्राण (य) और (आणप्पाणप्पाणो) श्वासोच्छवास प्राण (ते पाणा) ये प्राण (जीवाणं) जीवों के (होंति) होते हैं। विशेषार्थ--अतींद्रिय और अनन्त सुख के कारण न होने से इन्द्रियप्राण आत्मा के स्वभाव से विलक्षण हैं। मन, वचन, काय के व्यापार से रहित परमात्मद्रव्य से भिन्न बल प्राण है। अनादि और अनन्त स्वभावमयो परमात्मपदार्थ से विपरीत आदि और अंत सहित आधु प्राण है। श्वासोच्छ्वास के पैदा होने के खेद से रहित शुद्धात्मतत्व से विपरोत श्वासोच्छवास प्राण है। इस तरह आयु, इन्द्रिय, बल, श्वासोच्छ्वास के रूप से व्यवहारनय से जीवों के चार प्राण होते हैं। ये प्राण शुद्ध निश्चयनय से जीव से भिन्न हैं, ऐसी भावना करनी योग्य है ॥१४६॥ अथ ते एव प्राणा भेदनयेन दविधा भवन्तीत्यावेदयति,-.. पंचवि इन्दियपाणा मणवचिकाया य तिण्णि बलपाणा । आणप्पाणप्पाणो आउगपाण होति बसपाणा ||१४६॥१ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] पंचापि इन्द्रियप्राणाः मनोवचःकाया च त्रयो बलप्राणा; । आनपानप्राणा आयुःप्राणेन भवन्ति दश प्राणा: ॥१४६-१॥ पंचवि इन्दियपाणा इन्द्रियप्राणः पञ्चविधः, मण वनिकाया य तिण्णि बल पाणा विधा मनोवाक्काया बलप्राणः, आणप्पाणप्पाणो पुनपर्चक आनपानप्राणः, आउगपाणेण आयु:प्राणः । होंति सपाणा इति भेदेन दश प्राणास्तेऽपि । चिदानन्दकस्वभावात्परमात्मनो निश्चयेन भिन्ना ज्ञातव्या इत्यभिप्रायः ।।१४६-१॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि भेद नय से ये प्राण दस तरह के होते हैं-- अर्थ—स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इन्द्रियप्राण हैं । मन, वचन, काय ये तीन बलप्राण हैं। श्वासोच्छवास तथा आयुप्राण को लेकर दश प्राण होते हैं। ये बसों प्राण चिदानन्दमयी एक रूप परमात्मा से निश्चय से भिन्न हैं ऐसा जानना चाहिये, यह अभिप्राय है ॥१४६॥१॥ अथ प्राणानां निरुक्त्या जीवस्वहेतुत्वं पौद्गलिकत्वं च सूत्रयति पाहि 'चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो पुवं । सो जीवो 'पाणा पुण 'पोग्गलदव्वेहि णिवत्ता ॥१४७॥ प्राणश्चतुभिर्जीवति जीवियति यो हि जीवितः पूर्वम् । स जीवः प्राणाः पुनः पुद्गलद्रव्य निर्वृत्ताः ॥१४७१। प्राणसामान्येन जीवति जीविष्यति जीवित वांश्च पूर्वमिति जीवः । एवमनादिसंतानप्रवर्तमानतया त्रिसमयावस्थत्वात्प्राणसामान्य जीवस्य जीवत्वहेतुरस्त्येव तथापि तन्नजीवस्य स्वभावत्वमावाप्नोति पुद्गलद्रव्य निवृत्तत्वात् ॥१४७॥ भूमिका--अब, व्युत्पत्ति द्वारा प्राणों को जीवत्व का हेतु और पौद्गलिकत्व सूत्र द्वारा कहते हैं ___ अन्वयार्थ— [य: हि] जो [चतुभिः प्राणैः] चार प्राणों से [जीवति ] जीता है, [जीविष्यात] जीवेगा, [जीवितः पूर्व | और पहले जीता था, [सः जीवः] वह जीव है। [पुनः] और [प्राणाः] प्राण [पुद्गल द्रव्यः निवृत्ताः] पुद्गल द्रव्यों से निष्पन्न (रचित) हैं। टीका---(व्युत्पत्ति के अनुसार) जो प्राणसामान्य से जीता है, जीवेगा, और पहले जीता था, वह जीव है। इस प्रकार अनादि संतानरूप (प्रयाहरूप) प्रवृत्ति के कारण (संसार दशा में) त्रिकाल-स्थायी होने से प्राणसामान्य जीव के जीवत्व का हेतु है ही, तथापि वह उसका स्वभाव नहीं है, क्योंकि वह पुद्गल द्रव्य से रचित है ॥१४७।। १. चहिं (ज० वृ०) २. ते पाणा (जल वृ०) ३. पुग्गद दव्वेहि (ज० ००) । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] [ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथ प्राणशब्दव्युत्पत्त्या जीवस्य जीवत्वं प्राणानां पुद्गलस्वरूपत्वं च निरूपयति पाणेहि चहि जीविदि यद्यपि निश्चयेन सत्ताचैतन्यसुखबोधादिशुद्धभावप्राणीवति तथापि व्यवहारेण वर्तमानकाले द्रव्यभावरूपेश्चतुभिरशुद्धप्राणैर्जीवति जीवस्सदि जीविष्यति भाविकाले जो हि जोविदो यो हि स्फुटं जीवितः पुरवं पूर्वकाले सो जीवो स जीवो भवति ते पाणा ते पूर्वोक्ताः प्राणाः पुगलदध्येहि णिवत्ता उदयागतपुद्गलकर्मणा निर्वृत्ता निष्पन्ना इति । तत एव कारणात्पुद्गलद्रव्यविपरीतादनन्तज्ञानदर्शनसुखबीयांधनन्तगुणस्वभावात्परमात्मतत्त्वाद्भिन्ना भावयितव्या इति भावः ।।१४७१। उत्थानिका---आगे प्राण शब्द की व्युत्पत्ति करके जीव का जीवएना और प्राणों का पुद्गल स्वरूपपना कहते हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो हिं) जो कोई वास्तवमें (चउहि पाहि) चार प्राणों से (जीवदि) जीता है, (जीविस्सदि) जीवेगा च (पुध जीविदो) पहले जीता था (सो जीबो) वह जीव है (ते) वे (पाणा) प्राण (पुग्गलवव्येहि) पुद्गल द्रव्यों से (णिव्यत्ता) रचे हुए हैं । यद्यपि यह जीव निश्चयनय से सत्ता, चैतन्य, सुख, ज्ञान आदि शुद्ध भावप्राणों से जीता है, जोता था तथा जीता रहेगा तथापि व्यवहारनय से यह ससारी जीव इस अनादि संसार में जैसे वर्तमान में द्रव्य और भावरूप अशुद्ध प्राणों से जीता है, ऐसे ही पहले जीता था अथवा जब तक संसार में है जीता रहेगा, क्योंकि ये अशुद्ध प्राण उदय प्राप्त पुदगल कर्मों से रचे गए हैं इसलिये ये प्राण पुद्गल द्रव्य से विपरीत अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि अनन्तगुण स्वभावधारी परमात्म-तत्व से भिन्न हैं ऐसी भावना करनी योग्य है, यह भाव है ॥१४७॥ अथ प्राणानां पौद्गलिकत्वं साधयति जीवो पाणणिबद्धो बद्धो मोहादिएहि कम्महि । उवभुजं' कम्मफलं बज्झदि अण्णेहि कम्मेहिं ॥१४॥ जीवः प्राणनिबद्धो बद्धो मोहादिकः कर्मभिः । उप जानः कर्मफलं बध्यतेऽन्पैः कर्मभिः ।।१४।। यतो मोहादिभिः पौद्गलिककर्मभिर्बद्धत्वाज्जीवः प्राणनिबद्धो भवति । यतश्च प्राणनिबद्धत्वात्पौद्गलिककर्मफलमुपभुजानः पुनरप्यन्यैः पोद्गलिककर्मभिर्बध्यते । ततः पौद्गलिककर्मकार्यत्वात्पोद्गलिककर्मकारणत्वाच्च पोद्गलिका एव प्राणा निश्चीयन्ते ॥१४॥ भूमिका-अब, प्राणों को पौद्गलिकता सिद्ध करते हैं १. उब जदि (ज० वृ०)। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३६६ अन्वयार्थ—[मोहादिकैः कर्मभिः] मोहादिक कमों से [बद्धः] बंधा हुआ होने से [जीवः] जीव [प्राणनिबद्धः] प्राणों से संयुक्त होता हुआ [कर्मफलं उपभुजानः] कर्मफल को भोगता हुआ [अन्यः कर्मभिः ] अन्य (नवीन) कर्मों से [बध्यते] बन्धता है। टीका—(१) क्योंकि मोहादिक पोद्गलिक कर्मों से बंधा हुआ होने से जीव प्राणों से संयुक्त होता है और (क्योंकि) (२) प्राणों से संयुक्त होने के कारण पौदगलिक कर्मफल को भोगता हुआ पुनः भी अन्य पौद्गलिक कर्मों से बंधता है, इसलिये (१) पौद्गलिक कर्म के कार्य होने से और (२) पौद्गलिक कर्म के कारण होने से प्राण पौगलिक ही निश्चित होते हैं ॥१४॥ तात्पर्यवति अथ प्राणानां यत्पूर्वसूत्रोदितं पोद्गलिकत्वं तदेव दर्शयति जीवो पाणणिबद्धो जीवः कर्ता चतुभिःप्राणनिबद्धःसम्बद्धो भवति । कथंभूतः सन् ? बद्धो शुद्धात्मोपलम्भलक्षणमोक्षादिविलक्षणैर्बद्धः । कैद्ध: ? मोहादिरहि कम्मेहिं मोहनीयादिकर्मभिर्बद्धस्ततो ज्ञायते मोहादिकर्मभिर्बद्धः सन् प्राणनिबद्धो भवति, न च कर्मबन्धरहित इति । तत एव ज्ञायते प्राणाः पुद्गलकार्मोदयजनिता इति । तथाविधः सन् किंकरोति ? उवभुजदि कम्मफलं परमसमाधिसमुत्पन्ननित्यानन्देशाग सुम्बामृतभोजन मलमपातः सा कदकविसमानमपि कर्मफलमुपभुक्त । वादि अण्णेहि कम्मेहि तत्कर्मफलमुपभुजानः सन्नयं जोत्रः वार्मरहितात्मनो विसदृशैरन्यकर्मभिनवतरकर्मभिर्बध्यते । यतः कारणात्कर्मफलं भुजानो नवतरकर्माणि बध्नाति, ततो ज्ञायते प्राणा नवतरपुद्गलकर्मणां कारणभूता इति ।।१४।। उत्थानिका--आगे प्राण पौगलिक हैं, जैसा पहले कहा है उसी को दिखाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(मोहादिएहि कम्मेहि) मोहनीय आदि कर्मों से (बद्धो) बंधा हआ (जीवो) जीव (पाणणिबद्धो) चार प्राणों से सम्बन्ध करता है (कम्मफलं उवभंजदि) व कर्मों के फल को भोगता हुआ (अण्णेहि कम्मेहिं बज्झदि) अन्य नवीन कमो से बंध जाता है । शुद्धात्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष आदि शुद्ध भावों से विलक्षण मोहनीय आदि आठ कर्मों से बंधा हुआ यह जीव इन्द्रिय आदि प्राणों को पाता है । जिसके कर्मबन्ध नहीं होते उसके यह चार प्राण भी नहीं होते हैं, इसी से यह जाना जाता है कि ये प्राण पुदगल कर्म के उदय से उत्पन्न हुए हैं तथा जो इन बाह्य प्राणों को रखता है वही परम समाधि से उत्पन्न जो नित्यानन्दमयी एक सुखामृत का भोजन उसको न भोगता हुआ इन इन्द्रियादि प्राणों से कड़वे विष के समान ही कमों के फलरूप सुख दुःख को भोगता है और वही जीव कर्मफल भोगता हुआ कर्म-रहित आत्मा से विपरीत अन्य नवीन कर्मों से बंध जाता है, इसी से जाना जाता है कि ये प्राण नवीन पुद्गल कर्म के कारण भी हैं ॥१४॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] [ पवयणसारो अथ प्राणानां पौद्गलिककर्मकारणत्वमुन्मीलयतिपाणाबाधं जीवो मोहपदेसेहिं कुर्णादि जीवाणं । जदि सो हवदि हि बंधो णाणावरणादिकम्मे हि ॥ १४६ ॥ प्राणाबाधं जीवी मोहद्वेषाभ्यां करोति जीवयोः । यदि स भवति हि बन्धो ज्ञानावरणादिकर्मभिः ॥ १४६ ॥ प्राणहि तावज्जीवः कर्मफलमुपभुंक्ते, तदुपभुञ्जानो मोहप्रद्वेषाचाप्नोति ताभ्यां स्वजीवपरजीवयोः प्राणाबाधं विदधाति । तवा कदाचित्परस्य द्रव्यप्राणानाबाध्य कदाचिदनाबाध्य स्वस्य भावणानुपरतेन नाधमानो ज्ञानावरणादीनि कर्माणि बध्नाति । एवं प्राणाः पौद्गलिक कर्मकारणतामुपयान्ति ॥ १४६॥ भूमिका – अब, प्राणों के पौद्गलिक कर्म का कारणत्व प्रगट करते हैं अन्वयार्थ – [ यदि ] यदि [ स जीवः ] वह (प्राण-संयुक्त ) जीव [ मोहप्रद्वेषाभ्यां ] मोह और द्वेष के द्वारा [ जीवयो: ] ( स्व तथा पर ) जीवों के ( प्राणाबाधं करोति ] प्राणों को बाधा पहुंचाते हैं, [हि ] तो निश्चय से ( ज्ञानावरणादिकर्मभिः बंध : ] ज्ञानावरणादिक कर्मों के द्वारा बंध [ भवति ] होता है । टीका-- पहले तो प्राणों से जीव कर्मफल को भोगता है, उसे भोगता हुआ मोह तथा द्वेष को प्राप्त होता है और उनसे स्वजीव तथा परजीव के प्राणों को बाधा पहुंचाता है । वहाँ कदाचित् दूसरे के द्रश्य प्राणों को बाधा पहुँचाकर और बाधा न पहुंचाकर, उपरक्तता (रागादिक रूप विकरिता ) से ( अवश्य ही ) अपने भाव प्राणों को बाधा पहुँचाता हुआ, जीव ज्ञानावरणादि कर्मों को बांधता है। इस प्रकार प्राण पौद्गलिक कर्मों के कारणत्व को प्राप्त होते हैं ।। १४६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ प्राणा नवतरपुद्गलकर्मबन्धस्य कारणं भवन्तीति पूर्वोक्तमेवार्थं विशेषेण समर्थयतिपाणाबाधं आयुरादिप्राणानां बाधां पीडां कुणदि करोति । स कः ? जीवो जीवः । काभ्यां कृत्वा ? मोहपदेसेहिं सकलविमलकेवलज्ञानप्रदीपेन मोहान्धकारविनाशकात्परमात्मनो विपरीताभ्यां । मोहप्रद्वेषाभ्यां । केषां प्राणवाधां करोति ? जीवाणं एकेन्द्रियप्रमुखजीवानाम् । जवि यदि चेत् सो हवदि बंधो तदा स्वात्मोपलम्भप्राप्तिरूपान्मोक्षाद्विपरीतो मूलोत्तरप्रकृत्यादिभेदभिन्नः स परमागमप्रसिद्धो हि स्फुटं बन्धो भवति । कः कृत्वा ? णाणावरणादिकम्मे हि ज्ञानावरणादिकर्मभिरिति । ततो ज्ञायते प्राणा पुद्गलकर्मबन्धकारणं भवन्तीति । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७१ पवयणसारो ] अयमत्रार्थः - - यथा कोऽपि तप्तलोहपिण्डेन परं हन्तुकामः सन् पूर्वं तावदात्मानमेव हन्ति पश्चादयघाते नियमो नास्ति तथायमज्ञानी जीवोऽपि तप्तलोहपिण्डस्थानीयमोहादिपरिणामेन परिणतः सन् पूर्वं निर्विकारस्त्रसंवेदनज्ञानस्वरूपं स्वकीयशुद्धप्राणं हन्ति पश्चादुत्तरकाले परप्राणघाते नियमो नास्तीति ॥ १४६॥ उत्थानिका— आगे प्राण नवीन कर्म पुद्गल के बन्ध के कारण होते हैं, इसी ही पूर्वोक्त कथन को विशेषता से कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ -- (जदि) जब ( जीवो) यह जीव ( मोहपदेसेहि) मोह और द्वेष के कारण ( जीवाणं पाणायार्थ ) अपने और परजीवों के शानों को बाधा ( कुणदि) पहुँचाता है तब (हि) निश्चय से इसके ( सो बंधो) वह बन्ध ( णाणावरणादिकम्मे हि) ज्ञानावरणी आदि कर्मों से (हवदि) होता है। जब यह जीव सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञानरूपी दीपक से मोह के अंधकार को विनाश करने वाले परमात्मा से विपरीत मोहभाव और द्वेषभाव से परिणमन करके अपने भाव और द्रव्य प्राणों को घातता हुआ एकेन्द्रिय आदि जीवों के भाव और आयु आदि द्रव्य प्राणों को पोड़ा पहुंचाता है तब इसका ज्ञानावरणादि कर्मों के साथ बंध होता है जो बंध अपने आत्मा की प्राप्ति रूप मोक्ष से विपरीत है तथा मूल और उत्तर प्रकृतियों के भेद से अनेक रूप है । इससे जाना गया कि प्राण पुद्गल कर्मबंध के कारण होते हैं । यहां यह भाव है कि जैसे कोई पुरुष दूसरे को मारने की इच्छा से गर्म लोहे के पिंड को उठाता हुआ पहले अपने को ही कष्ट दे लेता है फिर अन्य का घात हो सके इसका कोई नियम नहीं है, तैसे यह अज्ञानी जीव भी तप्त लोहे के स्थान में मोहावि परिणामों से परिणमन करता हुआ पहले अपने ही निविकार स्वसंवेदन ज्ञानस्वरूप शुद्ध प्राण को घातता है उसके पीछे दूसरे के प्राणों का घात हो या न हो ऐसा कोई नियम नहीं है ॥ १४६ ॥ अथ पुद्गलप्राणसन्ततिप्रवृत्तिहेतुमन्तरङ्गमासूत्रयति - आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे । ण चयदि जाव ममत्तं' देहपधाणेसु विसयेसु ॥ १५० ॥ आत्मा कर्ममलीमसो धारयति प्राणान् पुनः पुनरन्यान् 1 न त्यजति यावन्ममत्वं देहप्रधानेसु विषमेषु ।। १५० ।। येयमात्मन: पौद्गलिकप्राणानां संतानेन प्रवृत्तिः तस्था अनादिपौद्गलकर्म मूलं शरीरादिममत्वरूपमुपरक्तत्वमन्तरङ्गो हेतुः ॥ १५० ॥ १. ममत्त (ज० वृ० ) | २. पहाणे ( ज० वृ० ) । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] [ पवयण सारी भूमिका—अब पौद्गलिक प्राणों की संतति (प्रवाह-परम्परा) की प्रवृत्ति का अन्तरंग हेतु सूत्र द्वारा कहते हैं __ अन्वयार्थ--[यावत्] जब तक [देहप्रधानेषु विषयेषु] देहप्रधान (देहादिक) विषयों में [ममत्वं] ममत्व को [न त्यजति] नहीं छोड़ता, [कर्मम नीमसः आत्मा] तब तक कर्म से मलीन आत्मा [पुनः पुनः] पुनः पुनः [अन्यान् प्राणान् ] अन्य-अन्य प्राणों को [धारयति धारण करता है ।।१५०|| टीका-जो यह आत्मा की पौद्गलिक प्राणों की संतानरूप प्रयत्ति है, उसका अन्तरंगहेतु शरीरादि का ममत्वरूप उपरक्तत्व है, जिसका मूल (निमित्त) अनादि पौलिक कर्म है ॥१५॥ तात्पर्यवृत्ति अथेन्द्रियादिप्राणोत्पत्तेरन्तरङ्गहेतुमुपदिशति आवाकम्ममलिमसो अयमात्मा स्वभावेन भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्ममलरहितत्वेनात्यन्तनिर्मलोऽपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशान्मलीमसो भवति । तथाभूतः सन् कि करोति? धरेवि पाणे पुणो पुणो अण्णणे धारयति प्राणान् पुनःपुनः अन्यानवतरान् । यावकिम् ? ण चयदि जाव ममति निस्नेहचिच्चमत्कारपरिणतेविपरीतां ममतां यावत्काल न त्यजति । केष विषयेषु ? देहपहाणेसु विसयेसु देहविषयरहितपरमचैतन्यप्रकाशपरिणतेः प्रतिपक्षभूतेषु देहप्रधानेषु पञ्चेन्द्रियविषयेविति । ततः स्थितमेतत् इन्द्रियादिप्राणोत्पत्तदेहादिममत्वमेबान्तरङ्गकारणमिति ॥१५०॥ उत्थानिका--आगे इन्द्रिय आदि प्राणों की उत्पत्ति का अंतरंग कारण उपदेश करते है ____ अन्वय सहित विशेषार्थ-(कम्ममलिमसो) कर्मों से मैला (आदा) आत्मा (पुणो पुणो) बार बार (अण्णे पाणे) अन्य अन्य नवीन प्राणों को (धरेदि) धारण करता रहता है। (जाव) जब तक (देहपहाणेसु विसयेसु) शरीर आदि विषयों में (मत्ति ण चयदि) ममता को नहीं छोड़ता है। जो आत्मा स्वभाव से भावकर्म, द्रव्य कर्म और नोकर्मरूपी मल से रहित होने के कारण अत्यन्त निर्मल है तो भी व्यवहारनय से अनादि कर्म बंध के वश से मैला हो रहा है। ऐसा होता हआ यह आत्मा उस समय तक बार-बार इन आयु आदि प्राणों को प्रत्येक शरीर में नवीन-नवीन धारता रहता है जिस समय तक यह शरीर व इन्द्रिय विषयों से रहित परम चैतन्यमयी प्रकाश की परिणति से विपरीत देह आदि पंचेद्रियों के विषयों में स्नेह रहित चैतन्य चमत्कार की परिणति से विपरीत ममता को नहीं Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३७३ स्यागता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि इन्द्रिय आदि प्राणों की उत्पत्ति का अंतरंग कारण देह आदि में ममत्व करना ही है ॥१५०॥ अथ पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तिहेतुमन्तरङ्ग ग्राहयति जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । कहिं मो ण रंजदि' किह तं पाणा अणुचरंति ॥१५१।। य इन्द्रियादिविजयी भूत्वोपयोगमात्मकं ध्यायति । कर्मभिः स न रज्यते कथं तं प्राणा अनुचरन्ति ।।१५।। पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तेरन्तरङ्गो हेतुहि पौद्गलिककर्ममूलस्योपरक्तत्वस्यामावः । स तु समस्तेन्द्रियादिपरद्रव्यानुवृत्तिविजयिनो भूत्वा समस्तोपाश्रयानुवृत्तिव्यावृत्तस्य स्फटिकमणेरिवात्यन्त विशुद्धमुपयोगमात्रमात्मानं सुनिश्चलं केवलमधियसतः स्यात् । इदमत्र तात्पर्य आत्मनोऽत्यातविमक्तसिद्धये व्यवहारजीवत्वहेतवः पुगलनाणा एवमुच्छेत्तव्याः ॥१५१॥ भूमिका–अब पौद्गलिक प्राणों की संतति को निवृत्ति का अन्तरंग हेतु समझाते हैं अन्वयार्थ-[यः] जो [इन्द्रियादिविजयीभूत्वा] इन्द्रियादि का विजयी होकर [उपयोगात्मक उपयोगमयी आरू को [यातिj ध्याता है, [सः] वह [कर्मभिः] कर्मों के द्वारा [न रज्यते] रंजित नहीं होता, [तं] उसे [प्राणाः] प्राण [कथं] कैसे [अनुचरंति] अनुसरण कर सकते हैं ? (अर्थात् उससे प्राणों का संबंध नहीं होता ।) टीका–वास्तव में पौद्गलिक प्राणों की संतति को निवृत्ति का अंतरङ्ग हेतु पौद्गलिक कर्म है मूल जिसका, ऐसी उपरक्तता का अभाव है। समस्त इन्द्रियादिक पर द्रव्यों के अनुसार परिणति का विजयी होकर, (अनेक वर्णों वाले) आश्रयानुसार होने वाली सारी परिणति से व्यावृत (पृथक् ) हुये स्फटिकमणि की भांति, अत्यन्त विशुद्ध उपयोगमात्र अकेले आत्मा में सुनिश्चलतया बसने वाले (जीय) के वह (अभाव) होता है। यहाँ यह तात्पर्य है कि--आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिये व्यवहार जीयत्व के हेतुभूत पौद्गलिक प्राण इस प्रकार उच्छेद करने योग्य हैं ॥१५१॥ तात्पर्यवृत्ति अथेन्द्रियादिप्राणानामभ्यन्तविरंनाशकारणमावेदयति ओ इंदियादिविजई भवीय यः कर्तातीन्द्रियात्मोत्थसुखामृतसन्तोषबलेलेन जितेन्द्रियत्न निकषायनिर्मलानुभूतिबलेन कषायजयेन पञ्चेन्द्रियादिविजयीभूत्वा उवओगमप्पगं मादि केवलज्ञान १. रज्जदि (त. वृ०)। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवय णसारो ३७४ ] दर्शनोपयोगं निजात्मानं ध्यायति कम्मेहि सो ण रज्जदि कर्मभिश्चिच्चमत्कारात्मनः प्रतिबन्धकैनिावरणादिकर्मभिः स न रज्यते न बध्यते । किह तं पाणा अणुधरंति कर्मबन्धाभावे सति तं पुरुषं प्राणाः करिः कथमनुचरन्ति कथमाश्रयन्ति ? न कथमपीति । ततो ज्ञायते कषायेन्द्रिय विजय एव पञ्चेन्द्रियादिप्राणानां विनाशकारणमिति॥१५१।। "एवं सपदेसेहि सम्मम्गो" इत्यादि गाथाष्टकेन सामान्यभेदभावनाधिकारः समाप्तः । उत्थानिका---आगे इन्द्रिय आदि प्राणों के अंतरंग नाश के कारण को प्रगट करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ--(जो) जो कोई (इंदियादिविजइ) इंद्रिय आदि का जीतने वाला (भवीय) होकर (उवओगं) उपयोगमयो (अप्पगं) आत्मा को (मादि) ध्याता है। (सो) सो जीव (कम्मेहि) कर्मों से (ण रज्जदि) लिप्त नहीं होता है अर्थात् नहीं बंधसा है (किह) तब किस तरह (पाणा) प्राण (तं) उस जीव को (अणुचरंति) आश्रय करेंगे? जो कोई भव्य जीव अतीन्द्रिय आत्मा से उत्पन्न सुखरूपी अमत में संतोष के बल से जितेन्द्रिय होकर तथा कषाय-रहित निर्मल आत्मानुभव के बल से कषाय को जीतने से पंचेन्द्रिय को जीतकर केवलज्ञान और केवलदर्शन उपयोगमयो अपनी ही आत्मा को ध्याता है यह चतन्य चमत्कारमयी आत्मा के गुणों के विघ्न करने वाले ज्ञानावरण आदि कर्मों से नहीं बंधता है। कर्मबन्ध के न होने पर ये इन्द्रियादि द्रव्यप्राण किस तरह उस जीव का माश्रय कर सकते हैं ? अर्थात् किसी भी तरह आश्रय नहीं करेंगे। इसी से जाना जाता है कि कषाय और इंद्रिय के विषयों का जीतना ही पंचेन्द्रिय आवि प्राणों के विनाश का कारण है ॥१५॥ इस तरह "एवं सपदेसेहिं सम्भगो" इत्यादि आठ गाथाओं से सामान्य भेद भावना का अधिकार समाप्त हुआ। तात्पर्यवृत्ति अथानन्तरमेकपञ्चाशद्गाथापर्यन्तं विशेषभेदभावनाधिकारः कथ्यते । तत्र विशेषान्तराधिकारचतुष्टयं भवति । तेषु चतुर्पु मध्ये शुभाशुपयोगत्रयमुख्यत्वेनैकादशगाथापर्यन्तं प्रथमविशेषान्तराधिकारः प्रारभ्यते । तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति । तस्मिन्नादी नरादिपर्यायैः सह शुद्धात्मस्वरूपस्य पृथवत्वपरिज्ञानार्थं "अस्थित्तणिच्छिदस्स हि" इत्यादि यथाक्रमेण गाथात्रयम् । तदनन्तरं तेषां संयोगकारणं "अप्पा उवओगप्पा" इत्यादि गाथाद्वयम् । तदनन्तरं शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयसूचनमुख्यत्वेन "जो जाणादि जिणिदे' इत्यादि गाथात्रयम् । तदनन्तरं कायवाग्मनसां शुद्धात्मना सह भेदकथनरूपेण "णाहं देहो" इत्यादि गाथात्रयम् । एवमेकादशगाथाभिः प्रथमविशेषान्तराधिकारे सयुदायपातनिका। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 [ ३७५ अथानंतर इक्यावन गाथाओं तक विशेष भेद की भावना का अधिकार कहा जाता है, यहां विशेष अन्तर अधिकार चार हैं। उन चारों के बीच में शुद्ध आदि तीन उपयोग की मुख्यता से ग्यारह गाथाओं तक पहला विशेष अन्तर अधिकार प्रारम्भ किया जाता है, उसमें चार स्थल हैं। पहले स्थल में मनुष्यादि पर्यायों के साथ शुद्धात्म स्वरूप का भिन्नपना बताने के लिये "अस्थित णिच्छिदस्सहि" इत्यादि यथाक्रम से तीन गाथाएं हैं। उसके पीछे उनके संयोग का कारण "अप्पा उवओगप्पा" इत्यादि दो गाथाएं हैं। फिर शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोग तीन की सूचना की मुख्यता से "जो जाणादि जिणिदे" इत्यादि गाथा तीन हैं । फिर मन वचन काय का शुद्धात्मा के साथ भेद है, ऐसा कहते इत्यादि तीन गाथाएं हैं । इस तरह ११ गाथाओं से पहले विशेष समुदायपातनिका है । अथ पुनरप्यात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वसिद्धये गति विशिष्ट व्यवहार जीवत्व हेतु पर्यायस्वरूपमुपवर्णयति हुये " णाहं देहो " अन्तर अधिकार में अत्थित्तणिच्छिवस्स हि अत्यस्सत्यंत रम्हि संभूदो । अत्थो पज्जाओ सो संठाणाविप्पभेदेहि ।।१५२।। अस्तित्व निश्चितस्य ह्यर्थस्यार्थान्तरे संभूतः । अर्थः पर्यायः स संस्थानादिप्रभेदः । १५२ ।। स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चित एवान्यस्मिन्नर्थे विशिष्टरूपतया संभाषितात्मलाभोऽर्थोऽनेकद्रव्यात्मकः पर्यायः । स खलु पुद्गलस्य पुद्गलान्तर इव जीवस्य पुद्गले संस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमानः संभाव्यत एव । उपपन्नश्चैवंविधः पर्यायः । अनेकद्रव्यसंयोगात्मत्वेन केवल जीवव्यतिरेकमात्रस्यैकद्रव्यपर्यायस्यास्खलितस्यान्तरयभासनात् ॥ १५२ ॥ भूमिका – अब, फिर भी, आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिये, व्यवहार जीवत्व की हेतुभूत गतिविशिष्ट (देव मनुष्यादि) पर्यायों का स्वरूप कहते हैंअन्वयार्थ – [ अस्तित्व निश्चितस्य अर्थस्य हि ] ( अपने सहज स्वभावरूप ) अस्तित्व से निश्चित अर्थ ( द्रव्य) का [ अर्थान्तरे संभूतः ] अन्य अर्थ में उत्पत्ति रूप [ अर्थः ] अर्थ ( भाव ) [ पर्याय: ] पर्याय हैं, [ स ] वह (पर्याय ) [ संस्थानादिप्रभेदः ] संस्थानादि भेदों सहित है । १. अत्थस्सत्यंतर म्मि (ज० वृ० ) । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] [ पक्ष्यणसारो टीका--स्वलक्षणभूत स्वरूप-अस्तित्व से निश्चित एक अर्थ (द्रव्य) का, स्व. लक्षणभूत स्वरूपअस्तित्व से ही निश्चित, अन्य अर्थ में विशिष्ट (भिन्न-भिन्न) रूप से उत्पन्न होता हुआ अर्थ (भाव) अनेक द्रव्यात्मक पर्याय है। वह वास्तव में, जैसे पुद्गल की अन्य पुद्गलात्मक पर्याय उत्पन्न होती हुई देखी जाती है, उसी प्रकार जीव की, पुद्गल में संस्थानादि से विशिष्टतया (संस्थान इत्यादि के भेद सहित) उत्पन्न होती हुई अनुभव में अवश्य आती है और ऐसी पर्याय योग्य घटित है, क्योंकि केवल जीव को व्यतिरेकमात्र अस्खलित एक अध्य पर्याय का अनेक द्रव्यों के संयोगात्मक भीतर अवमास (ज्ञान) होता है। भावार्थ-- यद्यपि प्रत्येक द्रव्य का स्वरूप-अस्तित्व सदा ही भिन्न-भिन्न रहता है तथापि, जैसे पुद्गल की अन्य युद्गल के सम्बन्ध से स्कन्धरूप पर्याय होती है उसी प्रकार जीव की पुद्गलों के सम्बन्ध से देवादिक पर्याय होती हैं । जीव की ऐसी अनेक द्रव्यात्मक देवादि पर्याय अयुक्त नहीं हैं। क्योंकि भीतर देखने पर, अनेक द्रव्यों का संयोग होने पर भी, जीव कहीं पुद्गलों के साथ एकरूप पर्याय नहीं करता, परन्तु वहां भी मात्र जीव की (पुद्गलपर्याय से (मिन्न) अस्खलित (अपने से च्युत न होने वाली) एक द्रव्यपर्याय ही सदा प्रवर्तमान रहती है ॥१५२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पुनरपि शुद्धात्मनो विशेषभेदभावनार्थं नरनारकादिपर्यायरूपं व्यवहारजीवत्वहेतुं दर्शयति अस्थित्तणिच्छिदस्स हि चिदानन्दैक लक्षणस्वरूपास्तित्वेन निश्चितस्य ज्ञानस्य हि स्फुट । कस्य ? अत्थस्स परमात्मपदार्थस्य अत्यंतरम्भि शुद्धात्मार्थादन्यस्मिन् ज्ञानावरणादिकर्मरूपे अर्थान्तरे संभूदो संजात उत्पन्नः अत्थो यो नरनारकादिरूपोऽर्थः । पज्जाओ सो निर्विकारशुद्धात्मानुभूतिलक्षणस्वभावव्यञ्जनपर्यायादन्यादृशः सन् विभावव्यञ्जनपर्यायो भवति । स इत्थंभूतपर्यायो जीवस्य । कैः कृत्वा जात: ? संठाणाविप्पभेदेहि संस्थानादिरहितपरमात्मद्रव्यविलक्षण: संस्थानसहननगरीरादिप्रभेदैरिति ॥१५२।। उत्थानिका-आगं और भी शुद्धात्मा की विशेष भेद भावना के लिये नर नारक आदि पर्याय का स्वरूप जो व्यवहार जीवपने का हेतु है दिखाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(अस्थित्तणिच्छिवस्स) अपने अस्तित्व द्वारा निश्चित (अत्यस्स) जीव नामा पदार्थ के (हि) निश्चय से (अत्यंतरम्मि संभूदो) पुदगल द्रव्य के संयोग से उत्पन्न हुआ (अर्थः) नर नारक आदि विभाव पदार्थ है सो वही (संठाणादिष्पभेदेहि) संस्थान आदि के भेदों से (पज्जायो) पर्याय है । चिदानन्दमयी एक लक्षणरूप स्वरूप Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३७७ अस्तित्व से निश्चित ज्ञानमयी परमात्मा पदार्थरूप शद्धात्मा से अन्य ज्ञानावरणादि कर्मों के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ जो नद नारन आनि का स्न-हा है भदछ: संभान व छः संहनन आदि से रहित परमात्मा द्रव्य से विलक्षण संस्थान व संहनन आदि के द्वारा भेदरूप विकार रहित शुद्धात्मानुभवलक्षणरूप स्वभाव व्यंजनपर्याय से भिन्न विभाव व्यंजनपर्याय है ।।१५२॥ अथ पर्यायव्यक्तीदर्शयति णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहि अण्णहा जादा । पज्जाया जीवाणं उदयादिहिं णामकम्मरस ॥१५३॥ नरनारकतिर्यकासुराः संस्थानादिभिरन्यथा जाताः। पर्याया जीवानामुदयादिभिर्नामकर्मणः ॥१५३।। नारकस्तियंङ्मनुष्यो देव इति फिल पर्याया जीवानाम् । ते खलु नामकर्मपुद्गल. विपाककारणत्येनानेकद्रव्यसंयोगात्मकत्वात् कुकूलाङ्गारादिपर्याया जातवेदसः क्षोदखिल्वसंस्थानादिभिरिव संस्थानादिभिरभ्यर्थव भूता भवन्ति ॥१५३॥ भूमिका-अब, पर्याय के भेद बतलाते हैं अन्वयार्थ-[नामकर्मणः उदयादिभिः] नामकर्म के उदयादिक के कारण (होने बाली) । जीवानाम्] जीवों की [नरनारकतिर्यक्सुराः] मनुष्य-मारक-तिर्यंच-देवरूप [पर्यायाः] पर्याय [संस्थानादिभिः] संस्थानादि के द्वारा [अन्यथा जाताः] अन्य-अन्य प्रकार की होती हैं। टीका-नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव-जीवों की पर्यायें हैं। नामकर्मरूप पुद्गल के विपाक के कारण अनेक द्रव्यों के संयोगात्मकपने से जैसे तुष की अग्नि और अंगार इत्यादि अग्नि की पर्याय चूरा और डली इत्यादि आकारों से अन्य अन्य प्रकार की होती हैं, उसी प्रकार (जीव को नारकादि पर्यायें) वास्तव में संस्थानावि के द्वारा अन्यान्य प्रकार की होती हैं ॥१५३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ तानेव पर्यायभेदान व्यक्तीकरोति गरणास्यसिरियसुरा नरनारकतिर्यग्देवरूपा अवस्थाविशेषाः । संठाणादीहिं अण्णहा जावा संस्थानादिभिरन्यथा जाताः, मनुष्यभवे यत्समचतुरस्रादिसंस्थानमौदारिकशरीरादिकं च तदपेक्षया भवान्तरेऽभ्यद्विसदृशं संस्थानादिकं भवति । तेन कारणेन ते नरनारवादिप या अन्यथा जाता भिन्ना भण्यन्ते । न च शुद्धबुद्धकस्वभावपरमात्मद्रव्यत्वेन । कस्मात् ? तृणकाष्ठपत्राकारादिभेदभिन्नस्याग्नेरिव Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ परयणसारो स्वरूपं तदेव। पज्जाया जीवाणं ते च नरनारकादयो जीवानां विभावव्यञ्जनपर्याया भण्यन्ते । क: कृत्वा ? उदयादिहिं णामकम्मस्स उदयादिभिर्नामकर्मणो निर्दोषपरमात्मशब्दवाच्यान्निामनिर्गोत्रादिलक्षणाच्छुद्धात्मद्रव्यादन्यादृशैमिकर्मजनिबन्धोदयोदीरणादिभिरिति । यत एव ते कर्मोदयजनितास्ततो ज्ञायते शुद्धात्मस्वरूप न सम्भवन्तीति ।।१५।। उत्थानिका-आग उन्हीं पर्याय के भेदों को प्रगट करते हुए बताते हैं...अन्वय सहित विशेषार्थ-(णामकम्मस्स उदयादिहिं ) नाम कर्म के उदय से (निश्चय से) (जीवाणं) संसारी जीवों की (णरणारयतिरियसुरा) नर, नारक, तिथंच और देव (पज्जाया) पर्याय (संठाणादीहिं) संस्थान आदि के द्वारा (अण्णहा) स्वभाव पर्याय से भिन्न अन्य-अन्य रूप (जादा) उत्पन्न होती हैं। निर्दोष परमात्मा शब्द से कहने योग्य, नाम मोत्रादि से रहित शुद्ध आत्मा द्रव्य से भिन्न नामकर्म के बन्ध, उदय, उदौरणा आदि के वश से जीवों को नर, नारक, तिर्यच तथा देव रूप अवस्थाएं अर्थात् विभाव ध्यञ्जन पर्यायें अपने भिन्न-भिन्न आकारों से भिन्न-भिन्न उपजती हैं। मनुष्य भव में जो समचतुरस्र संस्थान व औदारिकादि शरीर होता है उसकी अपेक्षा अन्य भव में उससे भिन्न हो संस्थान शरीर आदि होते हैं। इस तरह हर एक नए-नए भव में कर्मकृत भिन्नता होती है, परन्तु शुद्ध बुद्ध एक परमात्मा द्रव्य अपने स्वरूप को छोड़कर भिन्न नहीं हो जाता है। जैसे अग्नि तृण, काष्ठ, पत्र आदि के आकार से भिन्न-भिन्न आकार वाली हो जाती है तो भी अग्निपने के स्वभाव को अग्नि नहीं छोड़ देती है। क्योंकि ये नरनारकादि पर्याय को के उदय से होती हैं, इससे ये शुद्धात्मा का स्वभाव नहीं हैं ॥१५३॥ अथात्मनोऽन्यद्रव्यसंकीर्णत्वेऽप्यर्थनिश्चायकमस्तित्वं स्वपरविभागहेतुत्वेनोद्योतयति तं सम्भावणिबद्धं दवसहावं तिहा समक्खादं । जाणादि' जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णदवियम्हि ॥१५४॥ तं सद्भाबनिबद्धं द्रव्यस्वभाव त्रिधा समाख्यातम् । जानाति यः सविकल्पं न मुह्यति सोऽन्यद्रव्ये ॥१५४।। यत्खलु स्वलक्षणभूतं स्वरूपास्तित्वमर्थनिश्चायकमाख्यातं स खलु द्रव्यस्य स्वभाव एव, सद्भावनिबद्धत्वाद्रव्यस्वभावस्य । यथासौ द्रव्यस्वभावो द्रव्यगुणपर्यापत्वेन स्थित्युत्पादव्ययत्वेन च त्रितयी विकल्पभूमिकामधिरूढः परिज्ञापमानः परव्रव्ये मोहमपोह्य स्वपरविभागहेतुर्भवति ततः स्वरूपास्तित्वमेव स्वपरविभागसिद्धये प्रतिपदमवधार्यम् । तथाहियच्चेतनत्वान्वयलक्षणं द्रव्यं यश्चेतनाविशेषत्वलक्षणो गुणो पश्चेतनत्वय्मतिरेकलक्षणः १. जाणदि (ज० वृ.) । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३७६ पर्यायस्तत्त्रयात्मकं या पूर्वोत्तरव्यतिरेकस्पशिना चेतनत्येन स्थितिर्यायुत्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेन चेतनस्योत्पादव्ययों तत्त्रयात्मकं च स्वरूपास्तित्वं यस्य नु स्वभावोऽहं स खल्वयमन्यः । वाचेतनत्वान्यलक्षणं द्रव्यं योऽचेतना विशेषत्वलक्षणो गुणो योऽचेतनत्वव्यतिरे कलक्षणः पर्यावस्तत्रयात्मकं या पूर्वोत्तरव्यतिरेकस्पर्शनाचेतनत्वेन स्थितिर्यात्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेनाचेतनस्योत्पादव्ययौ तत्त्रयात्मकं च स्वरूपास्तित्वं यस्य तु स्वभावः पुद्गलस्य स खल्ब यमन्यः । नास्ति मे मोहोऽस्ति स्वपरविभागः । । १५४ ।। भूमिका – अब, आत्मा की अन्य द्रव्य के साथ संयुक्तता होने पर भी, अर्थ- निश्चायक ( स्वरूप ) अस्तित्व को स्व-पर विभाग के हेतु रूप से समझाते हैंअन्वयार्थ -- [ यः ] जो जीव [ तं] उस ( पूर्वोक्त ) [ सद्भावनिबद्ध] अस्तित्व निष्पन्न, [ विधा समाख्यातं ] तीन प्रकार से कथित, [सविकल्पं ] भेदों वाले [ द्रव्यस्वभावं ] द्रव्य स्वभाव को [ जानाति ] जानता है, [सः ] वह [ अन्य द्रव्ये ] अन्य द्रव्य में [ न मुह्यति ] मोह को प्राप्त नहीं होता || १५४ || टीका - जो, द्रव्य को निश्चित करने वाला, स्वलक्षण भूत स्वरूप अस्तित्व कहा गया है । वह वास्तव में द्रव्य का स्वभाव ही है, क्योंकि द्रव्य का स्वभाव अस्तित्व से निष्पन्न ( अस्तित्वका बना हुआ) हैं । द्रव्य गुण-पर्याय रूप से तथा ध्रौव्य-उत्पाद - व्ययरूप से त्रात्मक भेद-भूमिका में आरूढ द्रव्य स्वभाव ज्ञात होता हुआ, पर द्रध्य में मोहको दूर करके स्व-पर के विभाग का हेतु होता है, इसलिये स्वरूप अस्तित्व ही स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये पद-पद पर अवधारित करना (लक्ष्य में लेना ) चाहिये । वह इस प्रकार है (१) चेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा द्रव्य (२) चेतनाविशेषत्व जिसका लक्षण है ऐसा गुण, और चेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी पर्याय -- यह त्रयात्मक (ऐसा स्वरूप - अस्तित्व ), तथा ( १ ) पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले चेतनत्यरूप से जो धौव्य और ( २-३) चेतन के उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेक रूप से जो उत्पाद और व्यय, यह प्रयात्मक स्वरूप अस्तित्व जिसका स्वभाव है ऐसा मैं वास्तव में यह अन्य हूँ, ( अर्थात् मैं पुद्गल से ये भिन्न रहा ।) और ( १ ) अचेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा द्रव्य, (२) अचेतना विशेषत्य जिसका लक्षण है ऐसा गुण, और (३) अचेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी पर्याय -- यह त्रयात्मक ( ऐसा स्वरूप अस्तित्व) तथा ( १ ) पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले अचेतनत्व रूप से जो Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] [ पवयणसारो ध्रौव्य और ( २ - ३ ) अचेतन के उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूप से जो उत्पाद और व्यययह त्रयात्मक स्वरूप अस्तित्व जिस पुद्गल का स्वभाव है वह वास्तव में ( मुझसे ) अन्य है । ( इसलिये ) मुझे मोह नहीं है, स्व-पर का विभाग है ।। १५४ ।। तात्पर्यवृत्ति अथ स्वरूपास्तित्वलक्षणं परमात्मद्रव्यं योऽसौ जानाति स परद्रव्ये मोहं न करोतीति प्रकाशयति जाणदि जानाति जो यः कर्ता । कं ? तं पूर्वोक्त दव्वसहावं परमात्मद्रव्यस्वभावं । किं विशिष्टं ? सम्भावणिबद्धं स्वभावः स्वरूपसत्ता तत्र निबद्धमाधीनं तन्मयं सद्भावनिबद्धम् । पुनरपि कि विशिष्ट ? तिहा समजावं त्रिधा समाख्यातं कथितं । केवलज्ञानादयो गुणाः सिद्धत्वादिविशुद्धपर्यायास्तदुभयाधारभूतं परमात्मद्रव्यं द्रव्यत्वमित्युक्तलक्षणत्रयात्मकं तथैव शुद्धोत्पादव्ययीव्यत्रयात्मकं च यत्पूर्वोक्तं स्वरूपास्तित्वं तेन कृत्वा त्रिधा सम्यगाख्यातं कथितं प्रतिपादितम् । पुनरपि कथंभूतं आत्मस्वभावं ? सवियप्पं सविकल्प ज्ञानं निर्विकल्पं दर्शनं पूर्वोक्तद्रव्यगुणपर्यायरूपेण सभेदं । इत्थंभूतास्वभावं जनाति ण सुदृद्धिमो अण्णदवियम्हि न मुह्यति सोऽन्यद्रव्ये स तु भेदज्ञानी विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावमात्मतत्वं विहाय देहरागादिपरद्रव्ये मोहं न गच्छतीत्यर्थः || १५४ || एवं नरनारकादिपर्यायैः सह परमात्मनो विशेषभेदकथनरूपेण प्रथमस्थले गाथात्रयं गतम् । उत्थानिका— आगे यह प्रकाश करते हैं कि जो कोई अपने स्वरूप में अस्तित्व को रखने वाले परमात्मद्रव्य को जानता है वह परद्रव्य में मोह को नहीं करता है— अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जो ) जो ज्ञानी ( सन्भावविबद्ध) अपने स्वभाव में बन्मय ( तिहा समखादं ) व तीन प्रकार कहे हुए ( दध्यसहावं ) द्रव्य के स्वभाव को ( सवियपं) भेदसहित ( जाणदि) जानता है (सो) यह (अण्णदवियम्हि ) अन्य द्रव्य में (ण मुहृदि) मोहित नहीं होता है। जो कोई परमात्म-द्रव्य के स्वभाव को ऐसा जानता है कि अपने स्वरूप सत्ता में तन्मय रहता है तथा इसका स्वभाव तीन प्रकार कहा गया है यह अर्थात् केवलज्ञान आदि गुण हैं, सिद्धत्व आदि विशुद्ध पर्यायें हैं तथा इन दोनों का आधाररूप परमात्मद्रव्य है तैसे ही आत्मा शुद्ध उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप पूर्वक स्वरूप अस्तित्व के साथ तीन रूप कहा गया है तथा सविकल्पज्ञान निर्विकल्पज्ञानपूर्वोक्त वर्शन गुण पर्याय द्रथ्य से भेद-सहित हैं । इनमें साकार ज्ञान व निराकार दर्शन है। वह भेदज्ञानी विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव आत्मतत्व को जानता हुआ देह व रागादि परद्रव्यों में मोह नहीं करता है ।। १५४ ।। इस तरह नर नारक आदि पर्यायों के साथ परमात्मा का विशेष भेद कथन करते हुए पहले स्थल में तीन गाथाएं पूर्ण हुई । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३८१ अथात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय परद्रव्यसंयोगकारणस्वरूप मालोचयतिअप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं मणिदो । सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि ॥ १५५ ॥ आत्मा उपयोगात्मा उपयोगी ज्ञानदर्शनं भणितः । सोऽपि शुभेोऽशुभो वा उपयोग आत्मनो भवति । ११५५ ।। आत्मनो हि परद्रव्यसंयोगकारणमुपयोगविशेषः उपयोगी हि तावदानः स्वभावचैतन्यानुविधायिपरिणामत्वात् । स तु ज्ञानं दर्शनं च साकारनिराकारत्थेनो भयरूपत्वाचैतन्यस्य अथायमुपयोगो द्वेधा विशिष्यते शुद्धाशुद्धत्वेन । तत्र शुद्धो निरुपरागः, अशुद्धः सोपरागः । स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन विध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च ।। १५५ ।। भूमिका- -- अब आत्मा को अत्यन्त विभक्त करने के लिये परद्रव्य के संयोग के कारण का स्वरूप कहते हैं । अन्वयार्थ - [आत्मा उपयोगात्मा | आत्मा उपयोगमयी है, [ उपयोगः ] उपयोग [ज्ञानदर्शनं भणित: ] ज्ञान - दर्शनरूप कहा गया है, [ अपि ] और [ आत्मनः ] आत्मा का [सः उपयोगः ] वह उपयोग [ शुभ अशुभः वा] शुभ अथवा अशुभ [ भवति ] होता है । टीका -- वास्तव में आत्मा का परद्रक्ष्य के संयोग का कारण उपयोगविशेष है । प्रथम तो उपयोग वास्तव में आत्मा का स्वभाव है, क्योंकि वह चैतन्यानुविधायो, (उपयोग चैतन्य का अनुसरण करके होने वाला) परिणाम है । और वह ज्ञान तथा दर्शन है, क्योंकि चैतन्य के साकार (विशेष) और निराकार (सामान्य) उभयरूपपना है । अब यह उपयोग शुद्ध अशुद्धपने से दो प्रकार का विशेष है । उसमें से शुद्ध निरुपराग (निविकार ) है और अशुद्ध सोपराग ( सविकार ) है । बह अशुद्धोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्धि और संक्लेशरूप से दो प्रकार का है। अर्थात् विकार मन्दकषायरूप और तीव्रकषायरूप से दो प्रकार का है ।। १५५ ॥ तात्पर्य वृत्ति अथात्मनः पूर्वोक्तप्रकारेण नरनारकादिपर्यायैः सह भिन्नत्वपरिज्ञानं जातं तावदिदानीं तेषां संयोगकारणं कथ्यते— अप्पा आत्मा भवति । कथंभूतः ? उबओगप्पा चैतन्यानुविधायी योऽसावुपयोगस्तेन निर्वृत्तत्वादुपयगात्मा । जब ओगो णाणदंसणं भणिदो स चोपयोगः सविकल्प ज्ञानं निर्विकल्पं दर्शनमिति भणितः । सोवि सुहो सोऽपि ज्ञानदर्शनोपयोगधर्मानुरागरूपः शुभः असुही विषयानुरागरूपो द्वेपमोहरूपक्चाशुभः । वाशब्देन शुभाशुभानुरागरहितत्वेन शुद्धः । उवओगो अप्पणी हवदि इत्यंभूतस्त्रिलक्षण उपयोग आत्मनः सम्बन्धी भवतीत्यर्थः ।। १५५।। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ] [ पवयण सारो __उत्थानिका-पूर्व में कहे प्रमाण आत्मा का नर, नारक आदि पर्यायों के साथ भिन्नता का ज्ञान तो हुआ, अब उनके संयोग का कारण कहते हैं-- अन्वय सहित विशेषार्थ--(अप्पा) आत्मा (जवओगप्पा) उपयोग स्वरूप है, (उपओगो) उपयोग (णाणसणं) ज्ञानदर्शन (भणिवो) कहा गया है। (सो हि अपणो उबओगो) यही आत्मा का उपयोग (सुहो वा असुहो) शुभ या अशुभ (हवदि) होता है। चैतन्य का अनुसरण करने वाला जो कोई परिणाम है, उसको उपयोग कहते हैं उस उपयोगमयी यह आत्मा है । वह उपयोग विकल्प-सहित ज्ञान विकल्प-रहित वर्शन होता है, ऐसा कहा गया है। वही ज्ञानदर्शनोपयोग जब धर्मानुरागरूप होता है तब शुभ है और जब विषयानुरागरूप होता है व द्वेष मोहरूप होता है तब अशुभ है । गाथा में 'वा' शब्द से शुभ अशुभ अनुराग से रहित शुद्ध उपयोग भी होता है ऐसा तीन प्रकार आत्मा का उपयोग होता है ॥१५॥ अथात्र क उपयोगः परद्रव्यसंयोगकारणमित्यावेदयति-- उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि । असुहो वा तध' पावं तेसिमभावे ण चयमत्यि ॥१५६।। उपयोगो यदि हि शुभः पुण्यं जीवस्थ संचयं याति। अशुभो बा तथा पापं तयोरभावे न चयोऽस्ति ॥१५६।। उपयोगो हि जीवस्य परद्रयसंयोगकारणमशुद्धः। स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपोपरागवशात् शुभाशुभत्वेनोपात्तद्वविध्यः । पुण्य पापत्वेनोपात्तद्वैविध्यस्य परद्रव्यस्य संयोगकारणत्वेन निर्वर्तयति । यदा तु द्विविधस्याप्यस्याशुद्धस्याभावः क्रियते तदा खलपयोगः शुद्ध एवावतिष्ठते । स पुनरकारणमेव परद्रव्यसंयोगस्य ॥१५६।। भूमिका--अब, यह बतलाते हैं कि इसमें कौन सा उपयोग परद्रध्य के संयोग का कारण है-- अन्वयार्थ-[उपयोग:] उपयोग [यदि हि] यदि [शुभ:] शुभ हो तो [जीवस्य] जीव के [पुण्यं] पुण्य [संचयं याति ] संचय को प्राप्त होता है, [तथा वा अशुभः] और यदि अशुभ हो तो [पापं] पाप संचय होता है । [तयोः अभावे] उन (शुभाशुभ) दोनों के अभाव में [चयः नास्ति] संचय नहीं होता। टीका--जीव का परद्रव्य के संयोग का कारण अशुद्ध उपयोग है। यह, विशद्धि तथा संक्लेशरूप उपराग के कारण शुभ और अशुभ रूप से द्विविधता को प्राप्त होता १. तह (ज० वृ०)। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पबयणसारो ] [ ३८३ हुआ, पुण्य और पाप रूप से द्विविधता को प्राप्त जो परद्रव्य उसके संयोग बन्ध के कारणरूप काम करता है। (उपराग मन्दकषायरूप और तीवकषायरूप से दो प्रकार का है, इसलिये अशुद्ध उपयोग भी शुभ, अशुभ के भेद से दो प्रकार का है। उसमें से शुभोपयोग पुण्यरूप परद्रध्य के संयोग का (बंध का) कारण होता है और अशुभोपयोग पापरूप परद्रव्य के संयोग का कारण होता है। किन्तु जब दोनों प्रकार के अशुद्धोपयोग का अभाव किया जाता है, तब वास्तव में उपयोग शुद्ध हो रहता है और वह परद्रव्य के संयोग का अकारण ही है। (अर्थात् शुद्धोपयोग परद्रव्य के संयोग का कारण नहीं है।) ॥१५६॥ तात्पर्यवृत्ति अथोपयोगस्तावन्नरकादिपर्यायकारणभूतस्य कर्मरूपस्य परद्रव्यस्य संयोगकारणं भवति । ताबदिदानी कस्य कर्मणः कः उपयोगः कारणं भवतीति विचारयति उवओगो जदि हि सुहो उपयोगो यदि चेत् हि स्फुट शुभो भवति । पुण्णं जीवस्स संचयं जादि तदा काले द्रव्यपुण्यं कर्तृ जीवस्य संचयमुपचयं वृद्धि याति बध्यत इत्यर्थः । असुहो वा तह पावं अशुभोपयोगो वा तथा तेनैव प्रकारेण पुण्यवध्यपापं संत्रयं याति तेसिमभावे ण चयमत्थि तयोरभावे न चयोऽस्ति । निर्दोषिनिजपरमात्मभावनारूपेण शुद्धोपयोगबलेन यदा तयोर्द्वयोः शुभाशुभोपयोगयोरभावः क्रियते तदोभयः संचयः कर्मबन्धो नास्तीत्यर्थः ।। १५६।। । एवं शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयस्य सामान्यकथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका—आगे फिर कहते हैं कि जब यह अशुद्ध उपयोग ही नरनारकादि पर्यायों के कारण रूप पर द्रव्यमयी पुद्गलकर्म के बंध का कारण होता है, तब किस कर्म का कौन उपयोग कारण है अन्वय सहित विशेषार्थ-(हि) निश्चय से (जदि) यदि (उवओगो) उपयोग (सुहो) शुभ हो तो (जीवस्स) इस जीव के (पुण्णं) पुण्यकर्म का (संचयं जादि) संचय होता है (वा) अथवा (असुहो) अशुभ हो तब (पावं) पाप का संचय होता है। (तेसिमभावे) इन शुभ अशुभ उपयोगों के न होने पर (च्यं) संचय (ण अस्थि) नहीं होता है। जब शुभ उपयोग होता है तब इस जीव के द्रव्य पुण्यकर्म का संचय, उपचय व वृद्धि व बन्ध होता है और जब अशुभोपयोग होता है तो द्रव्य पाप का संचय होता है, इन दोनों के अभाव में पुष्य पाप का बंध नहीं होता है अर्थात् जब दोष-रहित निज परमात्मा की भावना रूप से शुद्धोपयोग के बल के द्वारा दोनों ही शुभ अशुभ उपयोगों का अभाव किया जाता है तब दोनों ही प्रकार के कर्मबंध नहीं होते हैं ॥१५६॥ भावार्थ--स्वामी अमितगति वृहद् सामायिकपाठ में कहते हैं-- पूर्व कर्म करोति दुःखमशुभं सौख्यं शुभं निर्मितं । विज्ञायेत्यशुभं निहतु-मनसो ये पोषयंते तपः॥ जायंते समसंयमैकनिधयस्ते दुर्लभा योगिनो। ये त्वतोभयकर्मनाशनपरास्तेषां किमत्रोच्यते ॥६॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] [ पवश्रणसारो अर्थ --- पूर्व में बांधा हुआ अशुभकर्म दुःख पैदा करता है जबकि शुभकर्म सुख पैदा करता है, ऐसा जानकर जो इस अशुभ को नाश करने के भाव से तप करते हैं और समता तथा संयम रूप हो जाते हैं ऐसे योगी भी दुर्लभ हैं। परन्तु जो पुण्य पाप दोनों ही प्रकार के कर्मों के नाश में लवलीन हैं उन योगियों की तो बात ही क्या कहनी । इस तरह शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोग का सामान्य कथन करते हुए दूसरे स्थल में दो गाथाएं समाप्त हुईं। अथ शुभोपयोगस्वरूपं प्ररूपयति- जो जाणादि जिणिदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे । जीवेसु साणुर्कशे उबओगो सो सुहो तस्स ॥ १५७॥ यो जानाति जिनेन्द्रान् पश्यति सिद्धांस्तथैवानागारान् । जीवेषु सानुकम्प उपयोगः स शुभस्तस्य ॥। १५७ ।। विशिष्टक्षयोपशम दशाविश्रान्त दर्शनचारित्रमोहनीयपुद्गलानुवृत्तिपरत्वेन परिग्रहीत शोमनोपरागत्वात् परमट्टारक महादेवाधिदेवपरमेश्वराहंत्सिद्धसाधुश्रद्धाने समस्त भूतग्रामानुकम्पाचरणे च प्रवृत्तः शुभ उपयोगः ॥ १५७ ॥ भूमिका -- अब शुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं :-- अन्वयार्थ – [ यः ] जो [ जिनेन्द्रान, सिद्धान् तथैव अनागारा ] अर्हन्तों, सिद्धों तथा अनगारों (आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधुओं) को [ जानाति, पश्यति ] जानता है और श्रद्धा करता है, [ जीवेषु सानुकम्पः ] और जीवों के प्रति अनुकम्पायुक्त है, [तस्य ] उसका [सः उपयोगः ] वह उपयोग [ शुभ:] शुभ है | टोका - - विशिष्ट क्षयोपशमदशा में रहने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय रूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से शुभ उपराग का ग्रहण करने से, जो ( उपयोग ) परमभट्टारक महादेवाधिदेव, परमेश्वर अहंत, सिद्ध और साधु की श्रद्धा करने में तथा समस्त जीव समूह की अनुकम्पा का आचरण करते में प्रवृत्त है, वह शुभोपयोग ।। १५७ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ विशेषेण शुभोपयोगस्वरूपं व्याख्याति--- जो जाणादि जिणिवे यः कर्ता जानाति । कानू ? अनन्तज्ञानादिचतुष्टय सहितान् क्षुधाद्यष्टाददोषरहितांश्च जिनेन्द्रान् पेच्छवि सिद्धे पश्यति । कान् ? ज्ञानावरणाद्यष्टकर्म र हितान्सम्यक्त्वाद्यष्टगुणान्तर्भूतानन्तगुणसहितांश्च सिद्धान् तहेव अणगारे तथैवानागारान् । अनागारशब्दवाच्या Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३८५ निश्चयव्यवहारपञ्चाचारादियथोक्तलक्षणानाचार्योपाध्यायसाधुन् । जीवेसु साणुकंपो सस्थावरजीवेषु सानुकम्पः सदयः उवओगो सो सुहो स इत्यंभूत उपयोगः शुभो भण्यते । स च कस्य भवति ? तस्स तस्य पूर्वोक्तलक्षणजीवस्येत्यभिप्रायः ।।१५७11 उत्थानिका—आगे विशेष करके शुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्य--(जो) जीव (जिणिदे) जिनेन्द्रों को (जाणादि) जानता है (सिद्धे) सिद्धों को (पेच्छदि) देखता है। (तहेव) तैसे ही (अणगारे) साधुओं का दर्शन करता है (य) और (जीवे साण कम्पा) जीवों पर दया भाव रखता है (तस्स) उस जीव का (सो उवओगो) बह उपयोग (सुहो) शुभ है । जो भव्यजीव अरहंतों को ऐसा जानता है कि वे अनन्तज्ञान आदि चतष्टय के धारी हैं तथा क्षधा आदि अठारह दोषों से रहित है तथा सिद्धों को ऐसा देखता है कि वे ज्ञानावरणादि आठ कर्म रहित हैं तथा सम्यक्त्व आदि आठ गुणों में अंतर्भूत अनन्तगुण सहित हैं तसे ही अनगार शब्द से कहने योग्य निश्चय व्यवहार पंच आचार आदि शास्त्रोक्त लक्षण के धारी आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओं को भक्ति करता है और बस स्थावर जीवों की क्या पालता है उस जीव के ऐसा व इसी जाति का उपयोग शुभ कहा जाता है ॥१५७॥ अथाशुभोपयोगस्वरूपं प्ररूपयति विसयकसाओगाढो दुस्सुविदुच्चित्तदुगोठ्ठिजुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो ॥१५॥ ___ विषयकषायावगाढो दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठियुतः ।। उग्र उन्मार्गपर उपयोगो यस्य सोऽशुभः ॥१५८11 विशिष्टोवयवशाविश्रान्तदर्शनचारित्रमोहनीयपुद्गलानुवृत्तिपरत्वेन परिग्रहीताशीमनोपरागत्वात्परमभट्टारकमहादेवाधिवेवपरमेश्वराह सिद्धसाधूभ्योऽन्यत्रोन्मार्गश्रद्धाने विषयकषायदुःश्रवणदुराशयदुष्टसेवनोग्रताचरणे च प्रवृत्तोऽशुभोपयोगः ॥१५८॥ भूमिका-अब अशभोपयोग का स्वरूप कहते हैं :-- अन्वयार्थ-[यस्य उपयोगः] जिसका उपयोग [विषयकषायावगाढः विषय कषाय में अवगाढ (मग्न) है, [दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठियुतः] कुश्रुति, कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है, [उग्न:] (कषायों की तीव्रता में अथवा पापों में उद्यत) है तथा [उन्मार्गपरः] उन्मार्ग में लगा हुआ है, [स: अशुभः] उसका वह उपयोग अशुभ है। टीका-विशिष्ट उदयदशा में रहने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से अशुभोपराग के ग्रहण करने से, जो (उपयोग) Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] [ पवयणसा परम भट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर अर्हत सिद्ध और साधु को छोड़कर अन्य- उन्मार्ग की श्रद्धा करने में तथा विषय, कषाय, कुश्रवण, कुविचार, कुसंगति और उग्रता का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह अशुभोपयोग है ॥ १५८ ॥ तात्पर्यवृत्ति अशुभयोगस्वरूपं निरूपयति | बिसयकसाओगाढो विषयकषायावगाढः दुस्सुदिदुखि बुट्ठ गोजुदो दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्ठगोष्ठियुतः जग्गो उग्र: उम्मग्गपरो उन्मार्गपरः उबओगो एवं विशेषणचतुष्टययुक्त उपयोगः परिणामः जस्स यस्य जीवस्य भवति सो असुहो स उपयोगस्त्वशुभोपयोगो भण्यते, अभेदेन पुरुषो वा । तथाहि - विषय - कष्णरहितशुद्धचैतन्यपरिणतेः प्रतिपक्षको विषयकषायावगाढ़ी विषय कषायपरिणतः । शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादिका श्रुतिः सुश्रुतिस्तद्विलक्षणा दुःश्रुतिः मिथ्याशास्त्रश्रुतिर्वा । निश्चिन्तात्मध्यानपरिणतं सुचित्तं तद्विनाशकं दुश्चित्तम्, स्वपरनिमित्तेष्टकामभोग चिन्तापरिणतं रागाद्यपध्यानं वा । परमचैतन्यपरिणतेविनाशिका दुष्टगोष्ठी तत्प्रतिपक्षभूत कुशीलपुरुषगोष्टी वा इत्यंभूतं दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठीभिर्युतो दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठियुक्तः परमोपशम भावपरिणतपरमचैतन्य स्वभावात्प्रतिकूलः उग्र: बीतरागसर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारमोक्षमार्गाद्विलक्षण उन्मार्गपरः । इत्थंभूत विशेषणचतुष्टयसहित उपयोगः परिणामः । तत्परिणतपुरुषो वेत्यशुभोपयोगो भण्यत इत्यर्थं ॥ १५८ ॥ उत्थानिका— आगे अशुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जस्स) जिस जीव का ( उवओगी) उपयोग ( विसयकसाओगा) विषयों की और कषायों की तीव्रता से भरा हुआ है ( दुस्सुदिदुच्चित दुट्ठगोहिजुदो ) खोटे शास्त्र पढ़ने सुनने, खोटा विचार करने व खोटी संगतिमपूर्ण वार्तालाप में लगा हुआ है, ( उग्गो) हिंसादि में उद्यमी दुष्ट रूप है, (उम्मम्गपरो ) तथा मिथ्यामागं में तत्पर है, ऐसे चार विशेषण सहित है ( सो असुहो) सो अशुभ है । जो विषय कषाय- रहित शुद्ध चैतन्य की परिणति से विरुद्ध विषय कषायों में परिणमन करने वाला है उसे विषय कायगढ़ कहते हैं । शुद्ध आत्मतत्व को उपदेश करने वाले शास्त्र को सुश्रुति कहते हैं उससे विलक्षण मिथ्याशास्त्र को दुःश्रुति कहते हैं । निश्चिन्त होकर आत्मध्यान में परिणमन करने वाले मन को सुचित्त कहते हैं। व्यर्थ या अपने और दूसरे के लिये इष्ट कामभोगों को चिता में लगे हुए रागादि अपध्यान को दुश्चित्त कहते हैं, परम चैतन्य परिणति को उत्पन्न करने वाली शुभ गोष्ठी है या संगति व उससे उल्टी कुशील या खोटें पुरुषों के साथ गोष्ठी करना दुष्ट गोष्टी है । इस तरह तीन रूप जो वर्तन करता है उसे दुःश्रुति, दुश्चित्त, दुष्टगोष्ठी से युक्त कहते हैं । परम उपशम भाव में परिणमन करने वाले परम चैतन्य स्वभाव से उल्टे भाव हिंसादि में लीन है उग्र कहते हैं, वीतराग सर्वज्ञ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३८७ कथित निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग से विलक्षण भाव को उन्मार्ग में लीन कहते हैं, इस तरह चार विशेषण सहित परिणाम को व ऐसे परिणामों में परिणत होने वाले जीव को अशभोपयोग कहते हैं ॥१५॥ अथ परद्रव्यसंयोगकारणविनाशमभ्यस्यति---- असुहोवओगरहिवो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि । होज्जं मज्जत्योऽहं गाणप्पगमप्पग झाए ॥१५॥ __ अशुभोपयोगरहितः शुभोपयुक्तो न अन्यद्रव्ये ।। भवन्मध्यस्थोऽहं ज्ञानात्मकमात्मकं ध्यायामि ॥१५॥ यो हि नामायं परद्रव्यसंयोगकारणत्येनोपन्यस्तोऽशुद्ध उपयोगः स खलु मन्दतीनोवयदशाविधान्तपरद्रव्यानुवृत्तितन्त्रत्वादेव प्रवर्तते न पुनरन्यस्मात् । ततोऽहमेष सर्वस्मिन्नेव परब्रव्ये मध्यस्थो भवामि । एवं भवंश्चाहं परद्रव्यानुवृत्तितन्त्रत्वाभावात् शुभेनाशुभेन वा शुद्धोपयोगेन निमुक्तो भूत्वा केवलस्थद्रव्यातुवृत्तिपरिग्रहात् प्रसिद्धशुद्धोपयोग उपयोगात्मनास्मन्येव नित्यं निश्चलमुपयुक्तस्तिष्ठामि । एष मे परतव्यसंयोगकारणविनाशाभ्यासः ॥१५६॥ भूमिका-अब, परद्रव्य के संयोग के कारण अशुद्धोपयोग के विनाश का अभ्यास बसलाते हैं :-- __ अन्वयार्थ-[अन्यद्रव्ये] अन्य द्रव्य में [मध्यस्थः| मध्यस्थ [भवन् ] होता हुआ [अहम् ] मैं [अशुभोपयोगरहितः] अशुभोपयोग रहित होता हुआ, (तथा) [शुभोपयुक्तः न] शुभोपयोग न होता हुआ [ज्ञानात्मकम्] ज्ञान आत्मा को [ध्यायामि ] ध्याता हूं। टीका—जो यह (१५६वीं गाथा में) परद्रव्य के संयोग के कारणरूप से कहा गया अशुद्धोपयोग है यह वास्तव में मन्द-तीन उदयवशा में रहने वाले परद्रव्यानुसार (द्रव्यकर्म अनुसार) परिणति के अधीन होने से ही प्रवर्तित होता है, किन्तु अन्य कारण से नहीं । इसलिये यह मैं समस्त परदन्य (सुख-दुःख अथवा रागद्वेष आदि औदयिकभाव) में मध्यस्थ होता हूँ। इस प्रकार मध्यस्थ होता हुआ, परद्रव्यानुसार परिणति के अधीन न होने से शुभ अथवा अशुभरूप अशुद्धोपयोग से मुक्त होकर, मात्र स्वद्रव्यानुसार परिणति को ग्रहण करने से जिसको शुद्धोपयोग सिद्ध हुआ है, ऐसा मैं उपयोगरूप-निजस्वरूप के द्वारा आत्मा में ही सवा निश्चलतया उपयुक्त रहता हूँ। यह मेरा परद्रव्य के संयोग के कारण विनाश का अभ्यास है ॥१५६॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ] तात्पर्यवृत्ति अथ शुभाशुभरहितशुद्धोपयोगं प्ररूपयति- [ पवयणसारो असुहोओगहिदो अशुभोपयोगरहितो भवामि । स कः ? अहं अहं कर्ता । पुनरपि कथंभूतः ? सुहोबत्तो ण शुभोगयोगयुक्तः परिणतो न भवामि । क्व विषयेऽसौ शुभोगयोगः अण्णदवियम्हि निजपरमात्मद्रव्यादन्यद्रव्ये । तर्हि कथंभूतो भवामि ? होज्यं मज्जत्थो जीवितमरण लाभालाभ सुखदुःखमशत्रु मित्रनिन्दाप्रशंसादिविषये मध्यस्थो भवामि । इत्थंभूतः सन् किं करोमि ? णाणपगमप्प झाए ज्ञानात्मकमात्मानं ध्यायामि । ज्ञानेन निर्वृत्तज्ञानात्मकं केवलज्ञानान्तर्भूतानन्तगुणात्मकं निजात्मानं शुद्धध्यानप्रतिपक्षभूतसमस्तमनोरथरूपचिन्ताजालत्यागेन ध्यायामीति शुद्धोपयोगलक्षणं ज्ञातव्यम् ॥ १५६॥ एवं शुभाशुभशुद्धोपयोगविवरणरूपेण तृतीयस्थले गाथात्रयं गतम् । उत्थानिका- आगे शुभ अशुभ उपयोग से रहित शुद्ध उपयोग को वर्णन करते हैंअन्वय सहित विशेषार्थ - - (अहं) में ( असुहोवओगरहिदो ) अशुभोपयोग से रहित होता हूँ, ( सुहोवजुत्तो ण) शुभोपयोग में भी परिणमन नहीं करता हूँ तथा ( अण्णदवियहि ) निज परमात्मा सिवाय अन्य द्रव्य में तथा जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, शत्रु, मित्र, निंदा, प्रशंसा आदि में (मज्झत्यो होज्जं ) मध्यस्थ होता हुआ ( णाणप्पगं ) ज्ञानस्वरूप ( अपर्ण) आत्मा को (झाए) ध्याता हूँ । अशुभोपयोग तथा शुभोपयोग में परिणमन न करके वीतरागी होकर ज्ञान से निर्मित ज्ञानस्वरूप तथा उस केवलज्ञान में अंतर्भूत अनंतगुणमयी अपनी आत्मा को शुद्ध ध्यान के विरोधी सर्व मनोरथरूप चिताजाल को त्यागकर ध्याता हूँ। यह शुद्धोपयोग का लक्षण जानना चाहिये ॥ १५६ ॥ इस प्रकार शुभ-अशुभ- शुद्धोपयोग का वर्णन करने वाली तीसरे स्थल में तीन गाया हुई । अथ शरीरादावपि परद्रव्ये माध्यस्थ्यं प्रकटयति णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसि । कत्ता ण 'ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीर्ण ॥ १६० ॥ नाहं देहो न मनो न चैत्र वाणी न कारणं तेषाम् । कर्ता न न कारयिता अनुमन्ता नेत्र कर्तृणाम् ।। १६० ।। शरीरं च वाचं व मनश्च परद्रव्यत्वेनाहं प्रपद्ये, ततो न तेषु कश्चिदपि मम पक्षपातोऽस्ति । सर्वत्राप्यहमत्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि । तथाहि न खल्वहं शरीरवाङ्मनसां स्वरूपाधारभूतमचेतनद्रव्यमस्मि तानि खलु मां स्वरूपाधारमन्तरेणाप्यात्मनः स्वरूपं धारयन्ति । ततोऽहं शरीरवाङ्मन:पक्षपातमपास्यात्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि । न च मे शरोरवाङ्मनः कारण १. ण – ( ज० ० ) । २. कारइदा (ज० ० ) । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ३८६ चेतनद्रव्यत्वमस्ति, तानि खलु मां कर्तारमन्तरेणापि क्रियमाणानि । ततोऽहं तत्कर्तृत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यन्तं मध्यस्थः। न च मे स्वतन्नशरीरवाङ्मनःकारकाचेतनद्रव्यप्रयोजकत्वमस्ति, तानि खलु मां कारकप्रयोजकमत्सरेणापि क्रियमाणानि । ततोऽहं तत्कारकप्रयोजकत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यन्तं मध्यस्थः । न च मे स्वतन्त्रशरीरवाइमनःकारकाचेतनद्रव्यानुज्ञातृत्वमस्ति, तानि खलु मां कारकानुज्ञातारमन्तरेणापि क्रियमाणानि ततोऽहं तत्कारकानुज्ञातृत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यन्तं मध्यस्थः ॥१६०॥ भूमिका-अब, शरीरादि परद्रव्य के प्रति भी मध्यस्थता प्रगट करते हैं अन्वयार्थ....[अहं न लेहः ] मैं न ढूं. म मन:] न मन हूं, [च] और न वाणी एव] न बाणी ही हूं, [तेषां कारणं न ] उनका (उपादान) कारण नहीं हूँ [कर्ता न] कर्ता नहीं हूँ, [कारयिता न कराने वाला नहीं हूं, [कर्तृणां अनुमन्ता न एव] (और) कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ। टीका-मैं शरीर, वाणी और मन को परद्रव्यरूप से समझता हूँ, इसलिये उनमें मेरा कुछ भी पक्षपात नहीं है । मैं उन सबके प्रति अत्यन्त मध्यस्थ हूँ। यथा :-वास्तव में शरीर-वाणी और मन के स्वरूप का आधार भूत अचेतन द्रव्य नहीं हूं, मेरे स्वरूपाधार (हये) विना भी, वे वास्तव में अपने स्वरूप को धारण करते हैं। इसलिये शरीर, वाणी और मन का पक्षपात छोड़कर मैं अत्यन्त मध्यस्थ हैं। मैं शरीर-वाणी तथा मन का (उपादान) कारण अचेतन द्रव्य नहीं हूँ। मेरे कारण (हुये) बिना भी, वे वास्तव में कारणवान् हैं। इसलिये उनके कारणत्व का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूं। मैं स्वतन्त्र ऐसे शरीर, वाणी तथा मन का (उपादान) कर्ता अचेतन द्रव्य नहीं हैं। मेरे कर्ता (हये) विना भी, वे वास्तव में किये जाते हैं । इसलिये उनके कर्तृत्व का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ। मैं स्वतन्त्र ऐसे शरीर, वाणी तथा मनका (उपादान) कारक (कर्ता) जो अचेतन द्रव्य है उसका प्रयोजक नहीं हूं। मेरे कारक प्रयोजक (हुये) बिना भी (अर्थात मेरे उनके कर्ता का प्रयोजक, उनके कराने वाला हुये बिना भी) वे वास्तव में किये जाते हैं। इसलिये उनके कर्ता के प्रयोजकत्व का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ। मैं स्वतन्त्र ऐसे शरीर, वाणी तथा मनका (उपादान) कारक जो अचेतन द्रव्य है, उसका अनुमोवक नहीं हूं। मेरे कारक-अनुमोदक (हुये) मिना भी (उनके कर्ता का अनुमोदक हुये बिना भी) थे वास्तन में किये जाते हैं। इसलिये उनके कर्ता के अनुमोदकत्व का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ ॥१६०॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] [ पवयणसारी तात्पर्यवृत्ति अथ देहमनोबचनविषयेऽत्यन्तमाध्यस्थ्यमुद्योतयति णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी नाहं देहो न मनो न चैव वाणी । मनोवचनकायव्यापाररहितात्परमात्मद्रव्याभिन्नं यन्मनोवचनकायत्रयं निश्चयनयेन तन्नाहं भवामि । ततः कारणात्तत्पक्षपातं मुक्त्वात्यन्तमध्यस्थोऽस्मि । ण कारणं तेसि न कारणं तेषाम् । निर्विकारपरमाल्हादैकलक्षणसुखामतपरिणतेर्यदपादानकारणातमात्मना तशिलक्षणो मनोवचनकायानामुपादानकारणभूतः पुद्गलपिण्डो न भवामि। ततः कारणात्पक्षपातं मुक्त्वात्यन्तमध्यस्थोऽस्मि । कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं कर्ता न हि कारयिता अनुमन्ता नैव कत, णाम् स्वशुद्धात्मभावनाविषये यत्कृतकारितानुमतस्वरूपं तद्विलक्षणं यन्मनोवचनकायविषये कृतकारितानुमतस्वरूपं तन्नाहं भवामि । ततः कारणापक्षपातं मुक्त्वात्यन्तमध्यस्थोऽस्मीति तात्पर्यम् ।।१६।। उत्थानिका-आगे शरीर, वचन और मन के सम्बन्ध में मध्यस्थ भाव को झलकाते हैं-- __ अन्वय सहित विशेषार्थ—(अहं वेहो ण) मैं शरीर नहीं हूँ (ण मणो) न मन हूं। ण चैव वाणी) और न वचन ही हैं (ण तेसि कारण) न इन मन वचन काय का उपादान कारण हूं (ण कर्ता) न मैं इनका करने वाला हूं (ण कारइदा) न कराने वाला हूँ (णेव कत्तीणं अणमंता) और न करने वालों को अनुमोदना करता हूँ। मन, वचन, काय के व्यापार से रहित, परमात्म द्रध्य से भिन्न जो मन, वचन, काय तीन हैं, मैं निश्चय से इन रूप नहीं हूं इसलिये इनका पक्ष छोड़कर मैं अत्यन्त मध्यस्थ होता है। विकार-रहित परम आनन्दमयो एक लक्षणरूप सुखामृत में परिणति होना उसका जो उपादानकारण आत्मद्रव्य उस रूप मैं हूँ। आत्म-द्रव्य से विलक्षण मन वचन काय का उपादान कारण पुद्गल पिड है, मैं नहीं हैं। इस कारण से उनके कारण का भी पक्ष छोड़कर मध्यस्थ होता है । मैं अपने ही शुद्धात्मा की भावना के सम्बन्ध में कर्ता, कराने वाला तथा अनुमोदना करने वाला नहीं हूँ। इसलिये इसका पक्ष भी छोड़कर मैं अत्यन्त मध्यस्थ होता हूँ ॥१६०॥ अथ शरीरवाङ्मनसा परद्रव्यत्वं निश्चिनोति देहो य मणो वाणी पोग्गलववप्पग' त्ति णिविट्ठा । पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुवव्वाणं ॥१६॥ देहश्च मनो वाणी पुद्गलद्रव्यात्मका इति निर्दिष्टाः ।। पुद्गलद्रव्यमपि पुन: पिण्डः परमाणुद्रव्याणाम् ॥१६१।। शरीरं च वाक् च मनश्च त्रीप्यपि परद्रव्यं पुद्गलद्रव्यात्मकत्वात् । पुद्गल ध्यत्वं तु तेषां पुद्गलद्रव्यस्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितत्वात् तथाविधपुद्गलद्रव्यं त्वनेकप १. पुम्गलदव्वरुपग त्ति (ज. ३०)। २. पुग्गलदव्वं (ज. व.)। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] रमाणद्रव्याणामेकपिण्डपर्यायेण परिणामः । अनेकपरमाणुद्रव्यस्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वानामनेकत्येऽपि कथंचिदेकत्येनावभासनात् ॥१६१।। भूमिका—अब शरीर, वाणी और मन का परद्रव्यत्व निश्चित करते हैं : अन्वयार्थ-[देहः च मनः वाणी] देह, मन और वाणी [पुद्गलद्रव्यात्मकाः] पुद्गल द्रव्यरूप हैं, [इति निर्दिष्टाः] ऐसा (वीतरागदेव ने कहा है [अपि पुनः] और पुद्गल द्रव्यं ] वह पुद्गल द्रव्य [परमाणुद्रव्याणां पिण्डः] परमाणु द्रव्यों का पिण्ड है । टीका-शरीर वाणी और मन तीनों ही परद्रव्य हैं, क्योंकि वे पुद्गल द्रव्यात्मक हैं। उनके पुद्गलद्रव्यत्व है, क्योंकि वे पुद्गल द्रव्य के स्वलक्षणभूत स्वरूपास्त्वि में निश्चित हैं। उस प्रकार का पुद्गलद्रव्य अनेक परमाणुओं का एक पिण्ड पर्यायरूप से परिणाम है, क्योंकि अनेक परमाणुद्रच्यों के स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्व अनेक होने पर भी कथंचित् स्निग्धत्व रूक्षत्वकृत बंध परिणाम की अपेक्षा से एकत्वरूप अवभासित होते हैं ॥१६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ कायवाङ्मनसां शुद्धात्मस्वरूपात्परद्रव्यत्वं व्यवस्थापयति देहो य मणो वाणी पुग्गलववप्पत्ति णिहिछा देहश्च मनो वाणी तिस्रोऽपि पुद्गलद्रव्यात्मका इति निर्दिष्टाः । कस्मात् ? व्यवहारेण जीवेन सहकत्वेऽपि निश्चयेन परमचैतन्यप्रकाशपरिणतेभिन्नत्वात् । पुद्गलद्रव्यं कि भण्यते ? पुग्गलदरवं हि पुणो पिडो परमाणुदवाणं पुद्गलद्रव्यं हि स्फुटं पुनः पिण्ड: समूहो भवति । केषां ? परमाणुद्रव्याणामित्यर्थः ।। १६१॥ उत्थानिका-आगे शरीर, वचन तथा मन को शुद्धात्मा के स्वरूप से भिन्न परद्रव्य रूप स्थापित करते हैं.. अन्वय सहित विशेषार्थ—(देहो य मणो वाणी) शरीर, मन और वचन (पुग्गलदनप्पत्ति) ये तीनों ही पुद्गल द्रव्यमयी (णिद्दिट्टा) कहे गए हैं। (पुणो) तथा (पुग्गलदव्वं पि) पुद्गलद्रव्य भी (परमाणुदवाणं पिण्डो) परमाणुरूप पुद्गल द्रव्यों का समूहरूप स्कन्ध है। जीव के साथ इन मन वचन काय की एकता व्यवहारतय से माने जाने पर भी निश्चयनय से ये तीनों ही परम चैतन्यरूप प्रकाश की परिणति से भिन्न हैं। वास्तव में ये परमाणु रूप पुद्गलों के बने हुए स्कन्धरूप वर्गणाओं से बनकर पुद्गलद्रव्यमयी ही है ॥१६॥ अथात्मनः परद्रव्यत्वाभावं परद्रव्यकर्तृत्वाभावं च साधयति--- पाहं पोग्गलमइओ' ण ते मया पोग्गला' कया पिंडं । तम्हा हि ण देहोऽहं कत्ता वा तस्स देहस्स ॥१६२॥ १. पुग्गलमइओ (ज" व्०)। २. पुग्गला (ज. बृ०) । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] [ पचयणसारो नाहं पुद्गलमयो न ते मया पुद्गलाः कृताः पिण्डम् । तस्माद्धि न देहोऽहं कर्ता वा तस्य देहस्य |११६२ || 1 यदेतत्प्रकरण निर्धारितं पुद्गलात्मकमन्तनतवाङ्मनोद्वैतं शरीरं नाम परद्रव्यं न तावदहमस्मि ममापुद्गलमयस्य पुद्गलात्मकशरीरत्वविरोधात् । न चापि तस्य कारणद्वारेण कर्तृ द्वारेण कर्तृ प्रयोजकद्वारेण कर्त्तनुमन्तृद्वारेण वा शरीरस्य कर्ताहमस्मि ममानेकपरमाणु द्रव्यैकपिण्डपर्यायपरिणामस्यापतु र नेकपरमाणु द्रव्यैकपिण्डपर्याय परिणामात्मकशरीरकर्तृत्वस्य सर्वथा विरोधात् ॥ १६२ ॥ भूमिका – अब आत्मा के परद्रव्यत्व का अभाव और परद्रव्य के कर्तृत्व का अभाव सिद्ध करते हैं- अन्वयार्थ – [ अहं पुद्गलभयः न ] मैं पुद्गलमय नही हू, और [ते पुद्गलाः ] वे पुद्गल [ मया ] मेरे द्वारा [ पिण्डं न कृताः ] पिण्डरूप नहीं किये गये हैं, [तस्मात् हि ] इसलिये [ अहं न देहः ] मैं देह नहीं हूं, [वा ] तथा [तस्य देहस्य कर्ता ] उस देह का कर्त्ता नहीं हूँ | · टोका - प्रथम तो जो यह प्रकरण से निर्धारित पुद्गलात्मक शरीर नामक परद्रव्य है, जिसके बाकी और मन का साश होता है, वह मैं नहीं हूँ क्योंकि मुझ अपुद्गलात्मक का पुद्गलात्मक शरीररूप होने में विरोध है। उस (शरीर) के कारण द्वारा कर्ता द्वारा, कर्ता के प्रयोजक द्वारा या कर्ता के अनुमोदक द्वारा शरीर का कर्ता भी मैं नहीं हूँ, क्योंकि मैं अनेक परमाणु द्रव्यों के एकपिण्ड पर्यायरूप परिणाम का अकर्ता हूँ, (इसलिये ) मेरे अनेक परमाणु द्रव्यों के एकपिण्ड पर्यायरूप परिणामात्मक शरीर के कर्तापने का सर्वथा विरोध है । तात्पर्यवृत्ति अथात्मनः शरीररूपपरद्रव्याभावं तत्कर्तृ त्वाभावं च निरूपयति- हं पुग्गलम नाहं पुद्गलमयः ण ते मया पुग्गला कया पिडा न च ते पुद्गला मया कृताः पिण्डाः तम्हा हि ण देहोऽहं तस्माद्देहो न भवाम्यहं हि स्फुटं कत्ता वा तस्स देहस्स कर्ता वा न भवामि तस्य देहस्येति । अयमत्रीर्थः देहोऽहं न भवामि । कस्मात् ? अशरीरसहज शुद्धचैतन्यपरिणतत्वेन मम देहत्वविरोधात् । कर्ता वा न भवामि तस्य देहस्य । तदपि कस्मात् ? निःक्रियपरमचिज्ज्योतिः - परिणतत्वेन मम देहकर्तृत्वविरोधादिति ॥ १६२॥ एवं कायवाङ्मनसां शुद्धात्मना सह भेदकथनरूपेणचतुर्थस्थले गाथात्रयं गतम् । इति पूर्वोक्तप्रकारेण अत्थित्तणिच्छिदस्त हि" इत्याद्येकादशगाथाभिः स्थलचतुष्टयेन प्रथमो 'विशेषान्तराधिकारः ' समाप्तः । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो ] [ ३६३ अथ केवलपुद्गलमुख्यत्वेन नवगाथापर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तत्र स्थलद्वयं भवति । परमाणूनां परस्परवन्धकथनार्थं "अपदेसो परमाण" इत्यादि प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयम् । तदनन्तरं स्कंधानां बन्धमुख्यत्वेन "दुपदेसादी खंधा" इत्यादिद्वितीयस्थले गाथापञ्चकम् । एवं द्वितीयविशेषान्तराधिकारे समुदायपातनिका। उत्थानिका-आगे फिर दिखाते हैं कि इस आत्मा के जैसे शरीर रूप पर द्रव्य का अभाव है वैसे उसके कर्तापने का भी अभाव है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(णाहं पुग्गलमइओ) मैं पुद्गलमयी नहीं है (ते पुग्गला पिडं मया ण कया) तथा वे पुद्गल के पिंड जिन से मन वचन काय बनते हैं, मेरे से बनाए हुए नहीं हैं (तम्हा) इसलिये (हि) निश्चय से (अहं देहो ण) मैं शरीररूप नहीं हैं (वा तस्स देहस्स कत्ता) और न उस देह का बनाने वाला है। मैं शरीर नहीं है क्योंकि मैं वास्तव में शरीर रहित सहज ही शुद्ध चैतन्य की परिणति का रखने वाला हूँ इससे मेरा और शरीर का विरोध है। और न मैं इस शरीर का कर्ता है क्योंकि मैं क्रियारहित परम चैतन्य ज्योतिरूप परिणति का ही का हूं, मेरा कर्तापना वेह के कर्तापन से विरोधरूप है ।।१६२॥ . इस तरह मन वचन काय का शुद्धात्मा के साथ भेद है, ऐसा कथन करते हुए चौथे स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुई। इस तरह पूर्व में कहे प्रमाण "अत्थित्तणिच्छिवस्स हिं" इत्यादि ग्यारह गाथाओं से चौथे स्थल में प्रथम विशेष अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ । अब केवल पुद्गल की मुख्यत्ता से नव (६) गाथा तक व्याख्यान करते हैं। इसमें दो स्थल हैं। परमाणुओं में परस्पर बंध होता है इस बात के कहने के लिये "अपदेसो परमाण' इत्यादि पहले स्थल में गाथाएं चार हैं। फिर स्कंधों के बंध को मुख्यता से दुपदेसादी खंधा” इत्यादि दूसरे स्थल में गाथा पांच हैं। इस तरह दूसरे विशेष अन्तर अधिकार में समुदायपातनिका है। अथ कथं परमाणुद्रव्याणां पिण्डपर्यायपरिणतिरिति संदेहमपनुवति अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो य सयमसद्दो जो। णियो वा लुक्खो वा दुपदेसावित्तमणुभववि' ॥१६॥ अप्रदेशः परमाणुः प्रदेशमात्रश्च स्वयम शब्दो यः । स्निग्धो वा रूक्षो वा द्विप्रदेशादित्वमनुभवति ।।१६३।। परमाणुहि धादिप्रदेशानामभावावप्रदेशः, एकप्रदेशसभावात्प्रदेशमात्रः, स्वयमनेकपरमाणुद्रव्यात्मकशब्दपर्यायव्यक्त्यसंभवावशवश्च । यत्तश्चतुःस्पर्शपञ्चरसतिगन्धपञ्चवर्णा १. दुपदेसादित्तमणुषदि (ज• वृ०)। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] [ पवयणसारो नामविरोधेन सद्भावात् स्निग्धो वा रूक्षो वा स्यात् । तत एव तस्य पिण्डपर्यायपरिणतिरूपाद्विप्रवेशादित्वानुभूतिः । अथैवं स्निग्धरूक्षत्वं पिण्डत्वसाधनम् ॥ १६३॥ भूमिका – अब इस संदेह को दूर करते हैं कि "परमाणुद्रथ्यों को पिण्ड पर्यायरूप परिणति कैसे होती है ? — अन्वयार्थ – [ परमाणुः ] परमाणु [ यः अप्रदेश: ] जो कि अदेशी ( बहु प्रदेशी नहीं ) है [ प्रदेशमात्रः ] प्रदेशमात्र है [] जर [वन्दः ] स्वयं अशब्द है, [स्मिग्धः वा रूक्षः वा ] वह स्निग्ध अथवा रूक्ष होता हुआ [ द्विप्रदेशादित्वम् अनुभवति ] द्विप्रदेशादित्व का अनुभव करता है (अर्थात् द्वणुक आदि स्कंधों रूप परिणत होता है ) । टीका - वास्तव में परमाणु द्वयादि ( दो-तीन आदि) प्रदेशों के अभाव के कारण प्रदेशी है, एक प्रदेश के सद्भाव के कारण प्रदेशमात्र है और स्वयं अनेक परमाणुद्रव्या(म शब्दपर्यायरूप प्रगट होने को संभय न होने से, अशब्द है । क्योंकि ( वह परमाणु ) अविरोधपूर्वक चार स्पर्श, पांच रस, दो गंध और पांच वर्णों के सद्भाव के कारण स्निग्ध अथवा रूक्ष होता है, इसीलिये हो उसके पिण्ड पर्याय परिणतिरूप द्विप्रदेशादित्य की अनुभूति होती है। इस प्रकार स्निग्धरूक्षत्व पिण्डत्व का कारण है ॥ १६३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ यद्यात्मा पुद्गलानां पिण्डं न करोति तहि कथं पिण्डपर्यायपरिणतिरिति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति अपदेसो अप्रदेशः । स क: ? परमाणू पुद्गलपरमाणुः ? पुनरपि कथंभूतः । पदेसमेतो य द्वितीयादिप्रदेशाभावात् प्रदेशमात्रश्च । पुनश्च कि रूपः ? सयमसद्दो य स्वयं व्यक्तिरूपेणाशब्दः । एवं विशेषणत्रयविशिष्टः सन् षिद्धो वा रुखो वा स्निग्धो वा रूक्षों वा यतः कारणात्संभवति ततः कारणात् । दुपदेसावित्तमणुह्वविद्विप्रदेशादिरूपं बन्धमनुभवतीति । तथा यथायमात्मा शुद्धबुद्वैकस्वभावेन बन्धरहितोऽपि पश्चादशुद्धनयेत स्निग्धस्थानीयरागभावेन रूक्षस्थानीयद्वेषभावेन यदा परिणमति तदा परमागमकथितप्रकारेण बन्धमनुभवति । तथा परमाणुरपि स्वभावेन बन्धरहितोऽपि यदा बन्धकारणभूत स्निग्धरूक्षगुणेन परिणतो भवति तदा पुद्गलान्तरेण सह विभावपर्यायरूपं बन्धमनुभवतीत्यर्थः ।। १६३ ॥ उत्थानिका - यदि आत्मा पुदुगलों को पिंडरूप नहीं करता है तो किस तरह पिंड की पर्याय होती है इस प्रश्न का उत्तर देते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( परमाणू ) पुद्गल का अविभागी अखंड परमाणु ( जो अपदेसो) जो बहुत प्रदेशों से रहित है ( पदेसमेत्तो य ) एक प्रदेशमात्र है और ( सयमसद्दो) स्वयं व्यक्तरूप से शब्द पर्याय से रहित है (मिद्धो वा लुक्खो वा ) स्निग्ध होता है या रूक्ष Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 [ ३६५ होता है, इस कारण से ( दुपदेसादित्तं) दो प्रदेशों के व अनेक प्रदेशों के मिलने से बंध अवस्था को (अदि ) अनुभव करता है । जैसे यह आत्मा शुद्ध बुद्ध एक स्वभावरूप से बंधरहित है तो भी अनादिकाल से अशुद्ध निश्चयनय से स्निग्ध के स्थान में रागभाव से और रूक्ष के स्थान में द्वेषभाव से जब-जब परिणमन करता है तब-तब परमागम में कहे प्रमाण बन्ध को प्राप्त करता है, तसे ही परमाणु भी स्वभाव से बन्ध रहित होने पर भी जब-जब बन्ध के कारणभूत स्निग्ध रूदा गुप से परिणत होता है तब-तब दूसरे पुद्गल परमाणु से विभाव पर्यायरूप बन्ध को प्राप्त हो जाता है ॥ १६३ ॥ अथ कीदृशं तत्स्निग्धरूक्षत्वं परमाणोरित्यावेदयतिएगुत्तरमेगावी अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खतं । परिणामादो भणिदं जाव अनंतत्तमणुभवदि ॥१६४॥ एकोत्तरमेकाद्यणोः स्निग्धत्वं वा रूक्षत्वम् । परिणामाद्भणितं यावदनन्तत्वमनुभवति ॥ १६४ ॥ परमाणोहिं तावदस्ति परिणामः तस्य वस्तुस्वभावत्वेनानतिक्रमात् । ततस्तु परिणामावुपात्तकादाचित्कवैचित्र्यं, चित्रगुणयोगित्वात्परमाणोरेकाद्यकोत्तरानन्तायसानावि भागपरिच्छेदव्यापिस्निग्धत्वं वा रूक्षत्वं वा भवति ॥ १६४ ॥ ― भूमिका – अब, यह बतलाते हैं कि परमाणु के वह स्निग्ध रूक्षत्व किस प्रकार का होता है अन्वयार्थ - [ अणोः ] परमाणु के [ परिणामात् ] परिणमन के कारण [ एकादि ] एक (अविभागी प्रतिच्छेद) से लेकर [ एकोत्तरं ] एक-एक बढ़ते हुये [ यावत् ] जब तक [ अनन्तत्वम् अनुभवति ] अनन्तत्व को (अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदत्व को ) प्राप्त हो, तब तक [स्निग्धत्वं वा रूक्षत्वं ] स्निग्धत्व अथवा रुक्षत्व होता है, ऐसा [ भणितम् ] ( जिनेन्द्रदेव ने कहा है । टीका - प्रथम तो परमाणु के परिणमन होता है, क्योंकि वस्तु का स्वभाव होने से, उसका (परिणमन का ) उल्लंघन नहीं किया जा सकता । उस परिणमन के कारण जो क्षणिक विविधता धारण करता है ऐसा, एक से लेकर एक-एक बढ़ते हुए अनन्त अविभागीप्रतिच्छेदों तक व्याप्त होने वाला स्निग्धत्व अथवा रूक्षत्व परमाणु के होता है, क्योंकि परमाणु अनेक प्रकार के गुणों वाला है ॥१६४॥। १. अणुदि ( ज० वृ० ) । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] [ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथ कीदृशं तरिस्नग्धरूक्षत्वमिति पृष्ट प्रत्युत्तरं ददाति एगुत्तरमेगादी एकोत्तरमेकादि । कि? णित्तणं च लुक्खत्तं स्निग्धत्वं रूक्षत्वं च कर्मतापन्न भणिदं भणितं कथितम् । कि पर्यन्तम् ? जाव अणंतत्तमणुहदि अनन्तत्वमनन्तपर्यन्तं यावदनुभवति प्राप्नोति । कस्मात्सकाशात् परिणामादो परिणतिविशेषात्परिणामित्वादित्यर्थः । कस्य सम्बन्धि ? अणुस्स अणो: पुद्गलपरमाणोः । तथाहि-यथा जीवे जलाजागोमहिपोक्षीरे स्नेहद्विवत्स्नेहस्थानीय रागित्वं रूक्षस्थानीयं द्वेषत्वं बन्धकारणभूतं जघन्यविशुद्धसंक्लेशस्थानीयमादि कृत्वा परमागमकथितक्रमेणोत्कृष्टबिशुद्धसंक्लेशपर्यन्तं वर्द्धते। तथा पुद्गलपरमाणुद्रव्येऽपि स्निग्धत्वं क्षत्व च बन्धकारणभूतं पूर्वक्तिजलादितारतम्यशक्तिदष्टान्तेनैकगुणसंज्ञाजघन्यशक्तिमादि कृत्वा गुणसंज्ञेनाविभागपरिच्छेदद्वितीयनामाभिधेयेन शक्तिविशेषेण वर्द्धते । कि पर्यन्तं । यादवदनन्तसंख्यानम् । कस्मात् ? पुद्गलद्रव्यस्य परिणामित्वात् परिणामस्य वस्तुस्वभाबादेव निषेधितुमशक्यत्वादिति ।। १६४॥ उत्थानिका—आगे वे स्निग्ध रूक्ष गुण किस तरह हैं ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(अणुस्स) परमाण का (गिद्धतणं च लुक्खत्त) चिकनापना या रूखापना (गादी) एक अंश को आदि लेकर (एगुत्तरम्) एक-एक बढ़ता हुआ (परिणामादो) परिणमन शक्ति के विशेष से (जाव अणंतत्त) अनंतपने तक (अणुहवि) अनुभव करता है । ऐसा (भणिद) कहा गया है जैसे जल, बकरी का दूध, गाय का बूध, भैंस का दूध एक दूसरे से अधिक-अधिक चिकनाई को रखता है, इसी तरह यह संसारी जीव चिकनाई के स्थान में रागपने को, रूखेपने के स्थान में द्वेषपने को बन्ध के कारणभूत जघन्य विशुद्ध या संक्लेश भाव को आदि लेकर परमागम में कहे प्रमाण उकृष्ट विशुद्ध या संक्लेश भाव पर्यंत क्रम से बढ़ता हुआ रखता है। इसी तरह पुद्गल परमाणु द्रव्य भी पूर्व में कहे हुए जल दूध आदि की बढ़ती हुई शक्ति के दृष्टान्त से एक गुण नाम को जघन्य शक्ति को आदि लेकर क्रम से गुण नाम से प्रसिद्ध अविभाग परिणामों का होना वस्तु का स्वभाव है सो कोई मेटने को समर्थ नहीं है। भावार्थ-यद्यपि प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव परिणमनशील है, तयापि उस परिणमन में कालद्रव्य सहकारी कारण है ।।१६३॥ अथात्र कोशास्निग्धरूक्षत्वात्पिण्डत्वमित्यावेददिणिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा वा' विसमा वा । समदो दुराधिगा जदि बज्झति हि आदिपरिहीणा ॥१६॥ १. व (ज० ब०)। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] स्निग्धा वा रूक्षा वा अणुपरिणामाः सभा वा । समतोद्वधिका यदि बध्यन्ते हि आदिपरिहीनाः ॥ १६५ ॥ [ ३६७ समतो यधिकगुणादि स्निग्धरूक्षत्वादबन्ध इत्युत्सर्ग, स्निग्धरूक्षद्वचधिकगुणत्वस्य हि परिणामकत्वेन बन्धसाधनत्वात् । न खल्वेकगुणात् स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्ध इत्यपवादः । एकगुण स्निग्धरूक्षत्वस्य हि परिणम्यपरिणामकत्वाभावेन बन्धस्यासाधनत्वात् ॥ १६५॥ भूमिका – अब यह बतलाते हैं कि कैसे स्निग्धत्व- रूक्षत्व से पिण्डता होती है - अन्वयार्थ – [ अणु परिणामाः] परमाणु- परिणाम | स्निग्धाः वा रूक्षाः वाः ] स्निग्ध हों या रूक्ष हों [ समाः वा विषमाः वा ] सम ( अंश वाले, २, ४, ६ आदि हों, या विषम ( अंश वाले, ३, ५, ७ आदि) हों [ आदि परिहीना: ] जघन्य अर्थात् एक अंश वाले को छोड़कर, [ यदि समतः द्व्यधिकाः ] यदि समान से दो अधिक अंश वाले हों तो [ बध्यन्ते [हि] बंधते ही हैं । टीका - समान से दो गुण (अंश) अधिक स्निग्धत्व या रूक्षत्व हो तो बंध होता है, यह उत्सर्ग ( सामान्य नियम) है, क्योंकि स्निग्धत्व या रूक्षत्व की द्विगुणाधिकता के निश्चय से परिणामकपना होने से (परिणमन कराने वाला होने से ), बंध का कारणपन है । यदि एक गुण स्निग्धत्व या रूक्षत्व हो तो बंध नहीं होता, यह अपवाद है, क्योंकि एक गुण स्निग्धत्व या रूक्षत्व के परिणम्य परिणामकता का ( परिणम्य-जो परिणमित होता है, परिणामक जो परिणमन कराता है, दोनों का) अभाव होने से, बंध के कारणत्व का अभाव है ।।१६५ ॥ तात्पर्यवृत्ति अera कीदृशा स्निग्धरुक्षत्वगुणात् पिण्डो भवतीति प्रश्ने समाधानं ददाति - बति हि बध्यन्ते हि स्फुटं । के ? कर्मतापत्राः अणुपरिणामा अणुपरिणामाः अणुपरिणामशब्देनात्र परिणामपरिणता अणवी गृह्यन्ते । कथंभूताः ? णिद्धा वा लुक्खा वा स्निग्धपरिणामपरिणता वा परिणामपरिणता वा पुनरपि किं विशिष्टाः ? समा व विसमा वा द्विशक्तिचतुः शक्तिषट्क्टयादिपरिणतानां सम इति संज्ञा । त्रिशक्तिपञ्चशक्तिसप्तशक्त्यादिपरिणतानां विषम इति संज्ञा 1 पुनश्च कि रूपाः । समदो बुराधिगा जवि समतः समसंख्यानात्सकाशाद् द्वाभ्यां गुणाभ्यामधिका यदि चेत् । कथं द्विगुणाधिकत्वमिति चेत् ? एको द्विगुणस्तिष्ठति द्वितीयोऽपि द्विगुण इति द्वौ समसंख्यानौ तिष्ठतस्तावत् एकस्य विवक्षितद्विगुणस्य द्विगुणाधिकत्वे कृते सति सः चतुर्गुणो भवति शक्तिचतुष्टयपरितो भवति । तस्य चतुर्गुणस्य पूर्वोक्तद्विगुणेन सह बन्धो भवतीति । तथैव द्वौ त्रिशक्तियुक्तौ तिष्ठत्तस्तावत्, तत्राप्येकस्य त्रिगुणशब्दाभिधेयस्य त्रिशक्तियुक्तस्य परमाणोः शक्तिद्वयमेलापके कृते सति पञ्चगुणत्वं भवति । तेन पञ्चगुणेन सह पूर्वोक्तत्रिगुणस्य बन्धो भवति । एवं द्वयोर्द्वयोः स्निग्धयोर्द्वयोर्द्वयो रूक्षयोर्द्वयोर्द्वयोः स्निग्धरूक्षयोर्वा समयो विषमयोश्च द्विगुणाधिकत्वे सति बन्धो भवतीत्यर्थः, किन्तु विशेषो Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो ऽस्ति । आदिपरिहीणा आदिशब्देन जलस्थानीयं जघन्यस्निग्धत्वं वालुकास्थानीयं जघन्यरूक्षत्वं भण्यते ताभ्यां विहीना, आदि परिहीना बध्यन्ते । किञ्च-परमचैतन्यपरिणतिलक्षणपरमात्मतत्त्वभाबनारूपधर्म्यध्यानशुक्लध्यानबलेन यथा जघन्यस्निग्धशक्तिस्थानीये क्षीणरागत्वे सति जघन्यरूक्षशक्तिस्थानीये क्षीणद्वेषत्वे च सति जलबालुकयोरिव जीवस्य बन्धो न भवति, तथा पुद्गलपरमाणोरापे जघन्यस्निग्धरूक्षशक्तिप्रस्तावे बन्धो न भवतीत्यभिप्रायः ॥१६५।। उत्थानिका-अब यहां प्रश्न करते हैं कि किस प्रकार के चिकने रूखे गुण से पुद्गल का पिंड बनता है ? इसी का समाधान करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(अणुपरिणामा) परमाणु के पर्याय भेद (णिद्धा वा लुक्खा वा) स्निग्ध हों या रूक्ष हों (समा बा) दो, चार, छः आदि को गणना से समान हों (विसमा वा) अथवा तीन, पाँच, सात नव आदि की गणना से विषम हों (जदि) जो (हि) निश्चय से (आदिपरिहोणा) जघन्य अंश से रहित हों (समदो) तथा गिनती की समानता से (दुराधिगा) को अधिक अंश में हो तो (बझंति) परस्पर बंध जाते हैं। पुद्गल के परमाणु रूक्ष हों या स्निग्ध गुण में परिणत हों तथा सम हों या विषम हों, दो गुणांश अधिक होने पर परस्पर बंध जाते हैं। दो गुण अधिकपने का भाव यह है कि मानलो एक, दो अंशवाला है इतने ही में परिणमन करते हुए एक किसी दो अंश वाले परमाणु में दो अंश अधिक हो गए तब यह परमाणु चार अंश रूप शक्ति में परिणमन करने वाला हो जाता है । इस चार गुण वाले परमाणु का पूर्व में कहे हुए किसी दो अंशधारी परमाणु के साथ बंध हो जायगा तैसे ही दो परमाणु तीन-तीन अंश शक्तिधारी हैं उनमें से एक तीन अंश शक्ति रखने वाले परमाणु में मान लो परिणमन होने से वो शक्ति के अंश अधिक होने से वह परमाणु पाँच अंश वाला हो गया। इस पंच अंश वाले का पहले कहे हुए किसी तीन अंश वाले परमाणु से बंध हो जावेगा। इस तरह वो अंशधारी चिकने परमाणु का दूसरे दो अधिक अंश वाले चिकने परमाणु के साथ या दो अंश वाले रूखे का दो अधिक अंश वाले रूखे के साथ, या दो अंश वाले चिकने का दो अंश अधिक वाले रूखे परमाणु के साथ बंध हो जायेगा । इसी तरह सम का या विषम का अंध दो बंश की अधिकता होने पर ही होगा। जो परमाणु जघन्य चिकनाई को जैसे जल में मान ली जावे या जघन्य रूखेपने को जैसे बाल कण में मान लिया जावे, रखता होगा उनका बंध उस दशा में किसी भी परमाणु से नहीं होगा। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ ३६६ यहाँ यह भाव है कि जैसे परमचेतन्यभाव में परिणति को रखने वाले परमात्मा के स्वरूप की भावनामयी धर्मध्यान या शुक्लध्यान के बल से अब जघन्य चिकनाई की शक्ति के समान सब राग क्षय हो जाता है या जघन्य रूखेपने की शक्ति के समान सब द्वेष क्षय हो जाता है तब जैसे जल का और बालू का बंध नहीं होता वैसे जीव का कर्मों से बंध नहीं होता । तथा वैसे हो जघन्यः स्निग्ध या रूक्ष शक्तिधारी परमाण का भी किसी से बंध नहीं होगा, यह अभिप्राय है ।११६५ ॥ अथ परमाणूनां पिण्डत्वस्य यथोदित हेतुत्वमवधारयति - द्वित्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्वेण बंधमणुभवदि । लक्खेण वा तिगुणिदो अणुब्रज्झदि पंचगुणजुत्तो ॥ १६६॥ स्निग्धन द्विगुणश्चतुर्गुणस्निग्धेन बन्धमनुभवति । रूक्षेण वा त्रिगुणतोऽणुर्बध्यते पञ्चगुणयुक्तः ॥ १६६॥ यथोदितहेतुकमेव परमाणूनां पिण्डत्वमवधायं द्विचतुर्गुणयोस्त्रिपञ्चगुणयोश्च द्वयोः स्निग्धयोः द्वयो रूक्षयोर्द्वयोः स्निग्धरूक्षयोया परमाण्याबन्धस्य प्रसिद्धेः । उक्तं च 'जिज्ञा निद्रेण अजति लुक्खा - लुक्खा य पोग्गला । णिद्धलुक्खा य बज्झति रूवारूवी य पोग्गला' "णिद्धस्स णिद्वेण दुराहिएण लुक्खस्स लुषखेण दुराहिएन । णिद्धस्स लुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा । " ॥ १६६ ॥ भूमिका- -- अब यह निश्चित करते हैं कि परमाणुओं के पिण्डत्व में यथोक्त (उपरोक्त ) हेतु है अन्ययार्थ --- [ स्निग्धत्वेन द्विगुणः ] स्निग्धरूप से दो अंशवाला परमाणु [ चतुर्गुणस्निग्धेन | चार अंश वाले स्निग्ध परमाणु के साथ [बंध अनुभवति ] बंध को अनुभव करता ( प्राप्त होता ) है | [वा ] अथवा [रूक्षेण त्रिगुणितः अणुः ] रूक्ष रूप से तीन अंश वाला परमाणु [ पंचगुणयुक्तः ] पांच अंश वाले के साथ युक्त होता हुआ [ वध्यते ] बंधता है । टीका- यथोक्त हेतु से हो परमाणुओं के पिंडत्व होता है - यह निश्चित करना चाहिये, क्योंकि दो और चार गुण वाले तथा तीन और पांच गुण वाले वो स्निग्ध परमाणुओं के अथवा दो रूक्ष परमाणुओं के अथवा दो स्निग्ध-क्ष परमाणुओं के ( एक स्निग्ध और एक रूक्ष परमाणु के ) बंध की प्रसिद्धि है । कहा भी है कि Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० । [ पवयणसारो "णिद्धा णिद्धेण बसंति लुक्खा लुक्खा य पोग्गला। णिलुक्खा य बाति रूवारूबी य पोग्गला ॥" "णिद्धस्स णि ण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण। णिद्धस्स लुक्खेण हवेदि बंधो महष्णवज्जे विसमे समे वा ॥" अर्थ---पुद्गल 'रूपी' और 'अरूपी' होते हैं। उनमें से स्निग्ध पुदगल स्निग्ध के साथ बंधते हैं, रूक्ष पुद्गल रूक्ष के साथ बंधते हैं। स्निग्ध और रूक्ष भी बंधते हैं । जघन्य के अतिरिक्त सम अंश वाला हो या विषम अंश वाला हो, स्निग्ध का दो अधिक अंश वाले स्निग्ध परमाणु के साथ, रूक्ष का दो अधिक अंश वाले रूक्ष परमाणु के साथ और स्निग्ध का रूक्ष परमाणु के साथ बंध होता है ॥१६६।। तात्पर्यवृत्ति अथ तमेवार्थं विशेषेण समर्थयति: गुणशब्दवाच्यशक्तिद्वययुक्तस्य स्निग्धपरमाणोश्चतुर्गण: स्निग्धेन रूक्षेण वा समशन्दसंज्ञेन तथैव त्रिशक्तियुक्तरूक्षस्य पञ्चगुणरूक्षेण स्निग्धेन वा विषमसंज्ञेन द्विगुणाधिकत्वेन सति बन्धो भवतीति ज्ञातव्यम । अयं तु विशेष:--परमानन्दैकलक्षणस्वसंवेदनशानबलेन हीयमानरागद्वेषत्वे सति पूर्वोक्तजलवालकादष्टान्तेन यथा जीवानां बन्धो न भवति तथा जघन्यस्निग्धरूक्षत्वगुणे सति परमाणूनां चेति । तथा चोक्तम् "णिद्धस्स णिद्वेण दुराधिगेण लुक्खस्स लुक्खेण दुराधिगेण । णिद्धस्स लुखेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा" ॥१६॥ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण स्निग्धरूक्षपरिणतपरमाणुस्वरूपकथनेन प्रथमगाथा । स्निग्धरूक्षगुणविवरणेन द्वितीया । स्निग्धरूक्षगुणाभ्यां व्यधिकत्वे सति बन्धकथनेन तृतीया । तस्य॑व दृढीकरणेन चतुर्थी चेति परमाणूनां परस्परबन्दव्याख्यानमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । उत्थानिका--आगे इसी ही पूर्व कहे हुए भाव को विशेष समर्थन करते हैं-- अन्वय सहित विशेषार्थ—(णिद्धत्तणेण) चिकनेपने की अपेक्षा (दुगुणो) दो अंशधारी परमाणु (चबुगुणणिद्धेण वा लुक्खेण) चार अंशधारी चिकने या रूखे परमाणु के साथ (बंघं अणुभवदि) बन्ध को प्राप्त हो जाता है। (तिगुणिदो अणु) तीन अंशधारी या रूखा परमाणु (पंचगुणजुत्तो) पांच अंशधारी चिकने या रूखे परमाणु के साथ (बज्मदि) बन्ध जाता है। १. किसी एक परमाणु की अपेक्षा से विसदृशजाति का समान अंशों वाला दुसरा परमाणु 'रूपी कहलाता है, और शेष सब परमाणु उसकी अपेक्षा से 'अरूपी कहलाते हैं। जैसे-पांच अंग स्निग्धतावाले परमाणु को पांच अंश रूक्षनावाला दूमरा परमाणु 'रूपी' है और शेष सब परमाणु उसके लिए 'अरूपी' हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि-विसदशजानि के समान अंश वाले परमाणु परस्पर रूपी' हैं और सदृशजाति के अथवा विसदृश जाति के असमान अंश वाले परमाणु परस्पर 'अरूपी' हैं। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४०१ गाथा में गुण शब्द से शक्ति के अंशों को अर्थात् अविभाग प्रतिच्छेदों को ग्रहण करना चाहिये । जैसे पहले कहे हुए जलबिंदु तथा बालू के दृष्टांत से जिन जीवों का रागद्वेष परमानन्दमयी स्वसंवेदन ज्ञानगुण के बल से नष्ट हो गया है उनका कर्म के साथ बन्ध नहीं होता। इसी तरह जिन परमाणुओं में जघन्य चिकनाई या रूखापन है, उनका भी किसी से बंध नहीं होता। बन्ध दो अंश की अधिकता से दो अंश या तीन अंश आदि धारी परमाणुओं का परस्पर होगा जैसा इस गाथा में कहा है "णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण लुक्खस्स लुबखेण दुराहिएण। णिशस्स लुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णबज्जे विसमे समे था। (धवल पु० १४ पृ० ३३ गा० ३६) भाव यह है कि स्निग्ध पुद्गल का दो गुण अधिक स्निग्ध पुद्गल के साथ और रूक्ष पुद्गल का दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध होता है तथा स्निग्ध पुद्गल का रूक्ष पुद्गल के साथ जघन्य गुण के अतिरिक्त विषम अथवा सम गुण के रहने पर बन्ध होता है ॥१६६॥ भावार्थ--पुद्गल परमाणुओं के बन्ध के विषय में दो परम्परायें उपलब्ध होती हैं । धवल परम्परा के अनुसार निम्न व्यवस्था फलित होती है-- क्रमाङ्क गुणांश सदृशबंध विसदृशबंध - - जघन्य जघन्य जघन्य+अजधन्य अजघन्य+सम-अजघन्य अजघन्य+एकाधिक-अजघन्य अजघन्य + द्वयधिक-अजघन्य अजवन्य+अयादिक अधिक-अजघन्य held श्री सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में "णिद्धस्स णि ण' उपर्युक्त षट्खंडागम को गाथा उद्धृत की गई है किन्तु इस गाथा के उत्तरार्द्ध के अर्थ में धवलाकार से मतभेद है। श्री सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार निम्न व्यवस्था फलित होती है Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ] [ पवयणसारो क्रमाङ्क गुणांश सदृशबंध विसदृशबंध जघन्य+जघन्य अजघन्य + अजघन्य अजघन्य+सम+अजघन्य अजघन्य + एकाधिक-अजघन्य अजघन्य । द्वयधिक-अजघन्य अजघन्य + त्यादि अधिक-अजघन्य नहीं ___ इस तरह पूर्व में कहे प्रमाण स्निग्ध रूक्ष अवस्था में परिणत परमाणु का स्वरूप कहते हुए पहली गाया, धि सभामा बन गदते हुए गुलरी, स्निग्ध या रूक्ष गुण में दो अंश अधिक से बन्ध होगा ऐसा कहते हुए तीसरी तथा उसके हो दृढ़ करने के लिये चौथी इस तरह परमाणुओं के परस्पर बंध के व्याख्या की मुख्यता से पहले स्थल में चार गाथाएं पूर्ण हुई। अथात्मनः पुद्गलपिण्डकर्तृत्वाभावमवधारयति दुपदेसादो खंधा सुहमा वा बादरा ससंठाणा । पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायते ॥१६७॥ द्विप्रदेशादयः स्वान्धाः सूक्ष्मा वा बादराः ससंस्थानाः। पृथिवीजलतेजोवायवः स्वकपरिणामैर्जायन्ते ।।१६७।। एवममो समुपजायमाना द्विप्रदेशावयः स्कन्धा विशिष्टावगाहनशक्तिवशादुपात्तसौक्षम्य. स्थौल्यविशेषा विशिष्टाकारधारणशक्तिवशाद्गृहीतविचित्रसंस्थानाः सन्तो यथास्वं स्पर्शादिचतुष्कस्याविर्भावतिरोभावस्वाक्तिवशमासाच पृथिव्यप्तेजोवायवः स्वपरिणामरेव जापन्ते । अतोऽयधार्यते घणुकाधनन्तानन्तपुद्गलानां न पिण्डकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥१६७॥ ___ भूमिका-अब, आत्मा के, पुद्गलों के पिण्ड के कर्तृत्व का अभाव निश्चित करते हैं अन्वयार्य-[द्विप्रदेशादयः स्कंधाः] द्विप्रदेशादिक (दो से लेकर अनन्तप्रदेश वाले) स्कंध [स्वकपरिणामः] अपने परिणामों से [सूक्ष्माः वा बादराः] सूक्ष्म अथवा बादर, Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो ] [ससंस्थानाः] संस्थानों (आकारों) सहित और [पृथिवीजलतेजोवायवः] पृथ्वी, जल, तेज, और वायुरूप [जायन्ते] होते हैं । टीका--इस (पूर्वोक्त) प्रकार से यह उत्पन्न होने वाले विप्रदेशादिक स्कंध, विशिष्ट अवगाहन की शक्ति के वश सूक्ष्मता और स्थूलतारूप भेव वाले होते हैं, विशिष्ट आकार धारण करने की शक्ति के वश होकर विचित्र संस्थान घाले होते हैं और अपनी योग्यतानुसार स्पर्शादिचतुष्क के आविर्भाव और तिरोभाष को स्वशक्ति के वश होकर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप अपने परिणामों से ही होते हैं। इससे निश्चित होता है कि हि-अणुकादि अनन्तानन्त पुद्गलों का पिण्डका आत्मा नहीं है ॥१६७।। तात्पर्यत्ति अथात्मा द्वयणुकादिपुद्गलस्कन्धानां कर्ता न भवतीत्युपदिशति जायते उत्पद्यन्ते । के कर्तारः ? दुपदेसादी खंधा द्विप्रदेशाद्यनन्ताणुपर्यन्ताः स्कन्धा जायन्ते । पुढविजलतेउयाऊ पृथ्वीजलतेजोवायवः । कथंभूताः सन्तः ? सुहुमा या बादरा सूक्ष्मा बादराः वा। पुनरपि किविशिष्टाः सन्त: ? ससंठाणा यथासम्भवं वृत्तचतुरस्त्रादिस्वकीयस्वकीयसंस्थानाकारयुक्ताः । कैः कृत्वा जायन्ते ? सगपरिणामेहि स्वकीयस्वकीयस्निग्धरूक्षपरिणामैरिति । __ अथ विस्तर:-जीवा हि तावद्वस्तुतष्टोत्कीर्णज्ञायकरूपेण शुद्धबुद्धकस्वभावा एव पश्चाद्वयबहारेणानादिकर्मबन्धोपाधिवशेन शुद्धात्मस्वभावमलभमानाः सन्तः पृथिव्यप्तेजोवातकायिकेषु समुत्पद्यन्ते. तथापि स्वकीयाभ्यन्तरसुख दुखादिरूपपरिणतेरेवाशुद्धोपादानकारणं भवन्ति । न च पृथिव्यादिकायाकारपरिणतेः । कस्मादिति चेत् ? तत्र स्कन्धानामेवोपादानकारणत्वादिति । ततो ज्ञायते पुद्गलपिण्डानां जीवः कर्ता न भवतीति ।। १६७।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा दो परमाणु आदि धारी परमाणुओं के स्कंधों को आदि लेकर अनेक प्रकार के स्कंधों का कर्ता नहीं है __अन्वय सहित विशेषार्थ-(दुपदेसाबी खंधा) दो परमाणु के स्कंध से आदि लेकर अनन्त परमाणु के स्कंध तक तथा (सुहमा वा बादरा) सूक्ष्म या बादर (ससंठाणा) यथासंभव गोल, चौखूटे आदि अपने अपने आकार को लिये हुए (पुढविजलतेउदाऊ) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु (सगपरिणामेहिं) अपने ही चिकने रूखे परिणामों की विचित्रता से परस्पर मिलते हए (जायते) पैदा होते रहते हैं। जीव यद्यपि निश्चय से टांकी से उकेरी मूर्ति के समान नायक मात्र एक स्वरूप की अपेक्षा से शुद्धबुद्धमयी एक स्वभाव के धारी हैं तथापि व्यवहारनय से अनावि कर्मबंध की उपाधि के वश से अपने शुद्ध आत्मस्वभाव को न पाते हुए पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायुकायिक होकर पेवा होते हैं। यधपि वे इन पृथ्वी आदि कायों में आकर जन्मते हैं Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ । [ पबयणसारो तथापि वे जीव अपनी ही भीतरी सुख दुःख आदि रूप परिणति के हो अशुद्ध उपादान कारण हैं, पृथ्वी आदि कायों में परिणमन किये हुए पुद्गलों के नहीं। कारण यह है कि उनका उपादानकारण पुद्गल के स्कंध स्वयं ही हैं। इसलिये यह जाना जाता है कि पुद्गल के पिंडों का कर्ता जीव नहीं है ॥१६७॥ अथात्मनः पुद्गलपिण्डानेतृत्वाभावमवधारयति ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलकायेहि सव्वदो लोगो। सुहुमेहिं बादरहिं य अप्पाओग्हिं जोग्गेहिं ॥१६८॥ ___ अवगाढगावनिचित: पुद्गलकार्यः सर्वतो लोकः । सूक्ष्मै दरैश्चाप्रायोग्यर्योग्यैः ॥१६८|| यतो हि सूक्ष्मत्वपरिणतैर्वादरपरिणतश्चानतिसूक्ष्मत्वस्थूलत्वात् कर्मत्यपरिणमनशक्तियोगिभिरतिसूक्ष्मस्थूलतया। तदयोगिभिश्चावगाहविशिष्टत्वेन परस्परमवाधमानः स्वयमेव सर्वत एव पुद्गलकार्यगढिं निचितो लोकः। ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानामानेता पुरुषोऽस्ति ॥१६॥ भूमिका-अब यह निश्चित करते हैं कि आत्मा पुद्गल पिण्डों का लाने वाला नहीं है अन्वयार्थ-[लोकः] यह लोक [सर्वतः] सर्वत्र [सूक्ष्मः वादरः] सूक्ष्म तथा बादर [च] और [अप्रायोग्यः योग्यैः] कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य [पुद्गलकायैः] पुद्गल स्कंधों के द्वारा [अवगा ढगाढनिचितः] (विशिष्ट प्रकार से) अवगाहित होकर अत्यन्त गाढ भरा हुआ हैं। टीका—चंकि, सूक्ष्मरूप परिणत तथा बादररूप परिणत-अतिसूक्ष्म अथवा अतिस्थूल न होने से-कर्मरूप परिणत होने की शक्ति वाले, तथा अतिसूक्ष्म अथवा अतिस्थूल होने से कर्मरूप परिणत होने की शक्ति से रहित ऐसे पुदगल स्कंधों के द्वारा, अवगाह की विशिष्टता के कारण परस्पर बाधक हुये बिना स्वयमेव सर्वत्र हो लोक गाढ़ भरा हुआ है, इसलिये निश्चित होता है कि प्रदाल पिण्डों का लाने वाला आत्मा नहीं है ॥१६॥ तात्पर्यवृत्ति अथात्मा बन्धकाले बन्धयोग्यपुद्गलान् वर्भािगान्नं वानयतीत्यावेदयवतिः ओगाढगाणिचिदो अवगाह्याबगाह्यनरन्तर्येण निचितो भृतः । स कः ? लोगो लोकः । कथंभूतः ? सम्बदो सर्वत: सर्वप्रदेशेषु कैः कर्तु भूतैः ? पुग्गलकार्यहि पुद्गल कायैः । किविशिष्ट: ? सुहुमेहिं बादरेहि य इन्द्रियाग्रहणयोग्त्रैः सूक्ष्मैस्तद्ग्रहणयोग्य दरैश्च । पुनश्च कथंभूतैः ? अप्पाओग्गेहि Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४०५ अतिसूक्ष्मस्थूलचन कवर्गणीता रहितः । गुना किविशिष्टै: ? जोग्गेहिं अतिसूक्ष्मस्थूलत्वाभावाकर्मवर्गणायोग्यरिति । अयमत्रार्थ:- निश्चयेन शुद्धस्वरूपरपि व्यवहारेण कर्मोदयाधीनता पृथिव्यादिपञ्चसूक्ष्मस्थावरत्वं प्राप्तीवर्यथा लोको निरन्तरं भूतस्तिष्ठति तथा पुद्गलरपि । ततो ज्ञायते यत्रैव शरीरावगाडक्षेत्रे जीवस्तिष्ठति बन्धयोग्यपुद्गला अपि तत्रव तिष्ठन्ति न च बहिर्भागाज्जीव आयनतीति ॥१६८।। उत्थानिका--आगे यह आत्मा बन्ध काल में बन्ध-योग्य पुद्गलों को कहीं बाहर से नहीं लाता है, ऐसा प्रगट करते हैं--- अन्वय सहित विशेषार्थ—(लोगो) यह लोक (सव्वदो) अपने सर्व प्रदेशों में (मुहमेहि) सूक्ष्म अर्थात् इन्द्रियों से ग्रहण के अयोग्य (बादरेहि) बादर अर्थात् इन्द्रियों के ग्रहण योग्य (य) और (अप्पा उग्गेहि) कर्मवगंणारूप होने के अयोग्य (जोग्गेहि) तथा कर्मवर्गणा के योग्य (पुग्गलकायेहिं) पुद्गल स्कन्धों से (भोरगाढगाणिचिओ) खूब अच्छी तरह बहुत गाढ़ा भरा हुआ है। यह लोक अपने सर्व प्रदेशों में पुद्गलस्कन्धों से गाढ़ा भरा हुआ है । वे स्कन्ध कोई इन्द्रियगोचर हैं, कोई इन्द्रियगोचर नहीं है, उनमें से जो अत्यन्त सूक्ष्म या स्थूल हैं ये कर्मवर्गणारूप नहीं हैं किन्तु जो अतिसूक्ष्म व स्थूल नहीं हैं वे कर्मवर्गणा के योग्य हैं। यद्यपि इन्द्रियों से ग्रहण न होने के कारण ये भी सूक्ष्म हैं। यहाँ यह भाव है कि जैसे यह लोक निश्चयनय से शुद्ध-स्वरूप के धारी किन्तु व्यवहारनय से कर्मों के अधीन होने से, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, बनस्पति के पांच भेदरूप सूक्ष्मस्थावर शरीरों को प्राप्त जीवों से निरन्तर सर्व जगह भरा हुआ है तैसे यह युद्गलों से भी भरा है इससे जाना जाता है कि जितने शरीर को रोककर एक जीव ठहरता है उसी ही क्षेत्र में कर्मयोग्य पुद्गल भी तिष्ठ रहे हैं-जीव उनको कहीं बाहर से नहीं लाता है ॥१६॥ अथात्मनः पुद्गलपिण्डानां कर्मस्वकर्तृत्वाभावमवधारयति कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा । गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥१६॥ कर्मत्वप्रायोग्याः स्कन्धा जीवस्य परिणति प्राप्य । गच्छन्ति कर्मभावं न हि ते जीबेन परिणमिताः ॥१६॥ यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढजीवपरिणाममात्रं बहिरङ्गसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मवपरिणमनशक्तियोगिनः पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति । ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥१६६॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ । पक्यणसारो भूमिका-अब, यह निश्चित करते हैं कि आत्मा पुद्गलपिण्डों को कर्मरूप नहीं करता-- अन्वयार्थ-- [कर्मत्वप्रायोग्याः स्कंधाः] कर्मत्व के योग्य स्कंध [जीवस्य परिणतिप्राप्य] जीव की परिणति को प्राप्त करके (जीव के विभाव भावों के निमित्त से) [कर्मभावं गच्छन्ति] कर्मभाव को प्राप्त होते हैं, [न हि ते जीवेन परिणमिताः] वे जीव के द्वारा परिणमाये नहीं जाते हैं। टीका-कि तुल्य (समान) क्षेत्रावगाह वाले तथा कर्मरूप परिणमित होने की शक्ति वाले पुद्गलस्कंध, बहिरंगसाधनभूत जीव के परिणाममात्र का आश्रय लेकर, जीय परिणमाने वाला नहीं होने पर भी स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं, इसलिये निश्चित होता है कि प्रदगलपिण्डों को कर्मरूप करने वाला आत्मा नहीं है ॥१६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ कर्मस्कन्धानां जीव उपादानकर्ता न भवतीति प्रज्ञापयति कम्मसणपाओग्गा खंधा कर्मत्वप्रायोग्या: स्कन्धाः कर्तारः जीवस्स परिणई पप्पा जीवस्य परिणति प्राप्य निर्दोषिपरमात्मभावनोत्पन्नसहजानन्दकलक्षणसुखामृतपरिणतेः प्रतिपक्षभूतां जीवसम्बन्धिनी मिथ्यात्वरागादिपरिणति प्राप्य गच्छति कम्ममायं गच्छन्ति परिणमन्ति । कं ? कर्मभावं ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मपर्यायं ण हि ते जीवेण परिणमिवा न हि नैव ते कर्मस्कन्धा जीवेनोपादानकर्तृभूतेन परिणमिताः परिणति नीता इत्यर्थः । अनेन व्याख्याने तदुक्तं भवति कर्मस्कन्धानां निश्चयेन जीवः कर्त्ता न भवतीति ॥१६६।। उत्थानिका-आगे फिर भी कहते हैं कि यह जीव कर्म स्कंधों का उपादानकर्ता नहीं होता है । __अन्वय सहित विशेषार्थ-(कम्मत्तण पाओग्गा) कर्मरूप होने को योग्य (खंधा) पुद्गल के स्कंध (जीवस्स परिणई) जीव की परिणति को (पप्पा) पाकर (कम्मभाचं) फर्मपने को (गच्छति) प्राप्त हो जाते हैं (दु) परन्तु (जीवेण) जीव के द्वारा (ते ण परिणमिदा) वे कर्म नहीं परिणमाए गए हैं। निर्दोष परमात्मा की भावना से उत्पन्न स्वाभाविक आनन्दमयी एक लक्षणस्वरूप सुखामृत की परिणति से विरोधी मिथ्यादर्शन, राग द्वेष आदि भावों की परिणति को जब यह जीव प्राप्त होता है तब इसके भावों का निमित्त पाकर वे कर्म योग्य पुद्गल स्कंध आप ही जीव के उपावानकारण के बिना ज्ञानावरणादि आठ या सात द्रव्य कर्मरूप हो जाते हैं। उन कर्म स्कंधों को जीव अपने उपादानपने से Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४०७ नहीं परिणमाता है। इस कथन से यह दिखलाया गया है कि यह जीव कर्म स्कंधों का कर्ता नहीं है ॥१६६॥ अथात्मनः कर्मस्वपरिणतपुद्गलद्रव्यात्मकशरीरकर्तृत्वाभावमवधारयति ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया' पुणो वि जीवस्स । संजायते देहा देहतरसंकमं पप्पा ॥१७॥ ते ते कर्मत्वगताः पुद्गलकायाः पुनरपि जीवस्य । संजायन्ते देहा देहान्तरसंक्रमं प्राप्य ॥१७॥ ये ये नामामी यस्य जीवस्य परिणाम निमित्तमात्रीकृत्य पुद्गलकायाः स्वयमेव कर्मत्वेन परिणमन्ति, अथ ते से तस्य जीवस्यानाक्सिंतानप्रवृत्तिशरीरान्तरसंक्रान्सिमाश्रित्य स्वयमेव च शरीराणि जायन्ते । अतोऽवधार्यते न कर्मत्वपरिणतपुद्गलद्रव्यात्मकशरीरकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥१७०॥ _भूमिका—अब, आत्मा के कर्मरूप-परिणत-पुदगलबध्यात्मक-शरीर के कर्तृत्व का अमाव निश्चित करते हैं (अर्थात् यह निश्चित करते हैं कि कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यस्वरूप शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है) __अन्वयार्थ--[कर्मत्वगताः] कर्मरूप परिणत [ते ते] वे वे [पुद्गलकायाः] पुद्गल पिंड [देहान्तरसंक्रमं प्राप्य ] देहान्तररूप परिवर्तन को प्राप्त करके [पुनः अपि] पुनः पुनः [जीवस्य] जीव के [देहः] शरीर सिंजायन्ते ] होते हैं। टीका—जिस जीव के परिणाम को निमित्तमात्र करके जो-जो यह पुद्गल पिण्ड स्वयमेव कर्मरूप परिणत होते हैं, वे जीव के अनादिसंततिरूप प्रयतमान देहान्तर (भवांतर) रूप परिवर्तन का भाश्रय लेकर ( वे वे पुद्गलपिण्ड) स्वयमेव शरीररूप, शरीर के होने में निमित्तरूप बनते हैं । इससे निश्चित होता है कि कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है। भावार्थ--जीव के परिणाम को निमित्तमात्र करके जो पुद्गल स्वयमेव कर्मरूप परिणत होते हैं वे पुद्गल ही अन्य भव में शरीर के बनने में निमित्तभूत होते हैं और नोकर्मयुद्गल स्वयमेव शरीररूप परिणमित होते हैं इसलिये शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है ॥१७॥ तात्पर्यवसि अथ शरीराकारपरिणतपुद्गलपिण्डानां जीवः कर्ता न भवतीत्युपदिशतिते ते कम्मत्तगदा ते ते पूर्वसूत्रोदिताः कर्मत्वं गता द्रव्यकर्मपर्यायपरिणताः पुग्गलकाया पुद्गल१. पुग्गलकाया (ज)। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ] [ पवयणसारो स्कन्धाः पुणो वि जीवस्स पुनरपि भवान्तरेऽपि जीवस्य संजायते वेहा संजायन्ते सम्यग्जायन्ते देहाः शरीराणीति । किं कृत्वा ? बेहतरसंकर्म पप्पा देहान्तरसंक्रमं भवान्तरं प्राप्य लब्ध्वेति । अनेन किमुक्तं भवति-औदारिकादिशरीरनामकर्मरहितपरमात्मानमलभमानेन जीवेन यान्युपाजितान्योदारिकादिशरीरनामकर्माणि तानि भवान्तरे प्राप्ते सत्युदयमागच्छन्ति तदुदयेन नोकर्मपुद्गला औदारिकादिशरीराकारेण स्वयमेव परिणमन्ति। ततः कारणादौदारिकादिकायानां जीवः कर्ता न भवतीति ।।१७०॥ उत्थानिका—आगे कहते हैं कि शरीर के आकार परिणत होने वाले पुद्गल के पिंडों का भी जीव उपादान कर्ता नहीं है-- अन्वय सहित विशेषार्थ-(ते ते) वे वे पूर्व बाँधे हुए (कम्मत्तगदा) द्रध्यकर्म पर्याय में परिणमन किये हुए (पुग्गलकाया) पुद्गल कर्मवर्गणास्फंध (पुणो वि) फिर भी जीव)ीय के वहशरसंकमा सय भव को (पप्पा) प्राप्त होने पर (देहा) शरीर (संजायंते) उत्पन्न होते हैं । औदारिक आदि शरीर नामा नामकर्म से रहित परमात्मस्त्रभाव को न प्राप्त किये हुए जीव ने जो औदारिक शरीर आदि नामकर्म बांधे हैं उस जीव के अन्य भव में जाने पर वे ही कर्म उदय आते हैं। उनके उदय के निमित्त से नोकर्म वर्गणाएं औदारिक आदि शरीर के आकार स्वयमेव परिणमन करती हैं इससे यह सिद्ध है कि औदारिक आदि शरीरों का भी जीव कर्ता नहीं है ॥१७॥ अथात्मनः शरीरत्वाभावमवधारयति ओरालियो य देहो वेउविओ' य तेजइओ। आहारय कम्मइओ पुग्गलवम्वप्पगा सव्वे ॥१७१॥ औदारिकश्च देहो देहो वैक्रियिकश्च तंजसिकः । आहारकः कार्मणः पुद्गलद्रव्यात्मकाः सर्वे ।। १७१।। यतो ह्यौदारिकर्वक्रियिकाहारकतंजसकार्मणानि शरीराणि सर्वाण्यपि पुद्गलद्रव्यास्मकानि । ततोऽवधार्यते न शरीरं पुरुषोऽस्ति ।।१७१।। भूमिका-अब आत्मा के शरीरत्व का अभाव निश्चित करते हैं अन्वयार्थ-[औदारिकः च देहः] औदारिक शरीर, और [वै क्रियिकः देहः ] दैनियिकशरीर तिजसिकः] तैजसशरीर, [आहारकः] आहारकशरीर [च] और [कार्मणः] कार्मणशरीर [सर्वे] सब [पुद्गलद्रव्यात्मकाः] पुद्गलद्रव्यात्मक हैं । टीका-औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, लैजस और फार्मण-सभी शरीर पुदगलद्रव्यात्मक हैं । इससे निश्चित होता है कि आत्मा शरीर नहीं है ॥ १७१॥ १. वेउदिवयो (ज० वृ०)। २, फम्मइयो (ज. वृ०) । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४०६ तात्पर्यवृत्ति अथ शरीराणि जीवस्वरूपं न भवन्तीति निश्चिनोति ओरालियो य देहो औदारिकश्च देहः देहो वेउटिवयो य देहो बैब्रिायिकश्च तेजइओ तेजसिक: आहारय कम्मइयो आहारकः कार्मणश्च पुग्गलदव्यपगा सटवे एते पञ्च देहाः पुद्गलद्रव्यात्मकाः सर्वेपि मम स्वरूपं न भवन्ति । कस्मादिति चेत् ? ममाशरीरचैतन्यचमत्कारपरिणतत्वेन सर्वदेवाचेतनशरीरत्दविरोधादिति ॥१७॥ एवं पुद्गलस्कन्धानां बन्धव्याख्यानमुख्यतया द्वितीयस्थले गाथापञ्चकं गतम् इति । "अपदेसो परमाणु" इत्यादि गमावला परमापद कन्धभेनधिमपन्दगलानां पिण्डनिष्पत्तिध्याख्यानमुख्यतया 'द्वितीयविशेषान्तराधिकार:' समाप्तः ।। अर्थकोनविंशतिगाथापर्यन्तं जीवस्य पुद्गलेन सह बन्धमुख्यतया व्याख्यानं करोति, तत्र षट्स्थलानि भवन्ति । तेष्वादी "अरसमहवं" इत्यादि शुद्धजीवव्याख्यानगार्थका "मुत्तो रूवादि" इत्यादिपूर्वपक्षपरिहारमुख्यतया गाथायमिति प्रथमस्थले गाथात्रयम् । तदनन्तरं 'भावबन्धमुख्यत्वेन "उवओगमओं" इत्यादि गाथाद्वयम् । अथ परस्परं द्वयोः पुद्गलयोः बन्धो जीवस्य रागादिपरिणामेन सह बन्धो जीवपुद्गलयोर्बन्धश्चेति त्रिविधबन्धमुख्यत्वेन "फासेहि पुग्गलाणं" इत्यादि सूत्रद्वयम् । ततः पर निश्चयेन द्रव्यबन्धकारणत्वाद्रागादिपरिणाम एव बन्ध इति कथनमुख्यतया "रत्तो बंधदि" इत्यादि गाथात्रयम् 1 अथ भेदभावनामुख्यत्वेन "भणिदा पुढयो" इत्यादि सूत्रद्वयम् । तदनन्तरं जीवो रागादिपरिणामानामेव कर्त्ता न च द्रव्यकर्मणामिति कथनमुख्यत्वेन "कुटवं सहावमादा" इत्यादि पष्ठस्थले गाथासप्तकम् । यत्र मुख्यत्वमिति वदति तत्र यथासम्भवमन्योऽप्यर्थों लभ्यत इति सर्वत्र ज्ञातव्यः 1 एवमेकोनविंशतिगाथाभिस्तृतीयविशेषान्तराधिकारे समुदायपातनिका । उत्थानिका---आगे कहते हैं कि पांचों ही शरीर जीव स्वरूप नहीं हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(ओरालिओ देहो) औवारिक शरीर (य) और (देउविओ) क्रियिक देह (य तेजइओ) और तेजसशरीर (आहारय, कम्मइयो) आहारकशरीर और कार्मणशरीर ये (सम्वे) सब पौधों शरीर (पुग्गलदव्वप्पणा) पुद्गल द्रव्यमयी हैं। ये शरीर पुद्गल द्रव्य के बने हुए हैं इसलिये मेरे आत्मस्वरूप से भिन्न हैं, क्योंकि मैं शरीररहित चैतन्य चमत्कार की परिणति में परिणमन करने वाला है, मेरा सदा ही भचेतन शरीरपने से विरोध है ॥१७१ ॥ इस तरह पुद्गल स्कंधों के बन्ध के व्याख्यान को मुख्यता से दूसरे स्थल में पांच गाथाएं पूर्ण हुई । इस तरह "अपदेसो परमाणू" इत्यादि ६ गाथाओं से परमाणू और स्कंध भेद को रखने वाले पुद्गलों के पिंड बनने के व्याख्यान की मुख्यता से दूसरा विशेष अन्तरअधिकार पूर्ण हुआ। आगे उन्नीस गाथा पर्यंत 'जीव का युद्गल के साथ बंध है,' इस मुख्यता से व्याख्यान करते हैं । इसमें छः स्थल हैं। इनमें से आदि के स्थल में "अरसमरूबं" इत्यादि Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ] [ पबयणसारो शुद्ध जीव के व्याख्यान की गाथा एक है, “मुत्तो रूवादि' इत्यादि पूर्वपक्ष व उसके परिहार की मुख्यता से दो गाथाएं हैं, ऐसे पहले स्थल में तीन गाथाएं हैं। फिर भावबंध की मुख्यता से "उवओगमओ' इत्यादि दो गाथाएं हैं। आगे परस्पर दोनों पुदगलों का बन्ध होता है, जीव का रागादि परिणाम के साथ बन्ध है और जीव पुद्गलों का बन्ध है ऐसे तीन प्रकार बंध की मुख्यता से "फासहि पुरंगलाणं" इत्यादि सूत्र दो हैं । फिर निश्चय से द्रव्यबन्ध का कारण होने से रागादि परिणाम ही बंध है ऐसा कहते हुए "रत्तो बन्धदि" इत्यादि तीन गाथाणं है । आगे भेदभावना की मुख्यता से "मणिदा पुढवी'' इत्यादि दो सूत्र है। फिर यह जीव रागादि भावों का ही कर्ता है, द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं है ऐसा कहते हुए "कुव्वं सहावमादा" ऐसे छठे स्थल में गाथाए सात है। जहां मुख्यपना शब्द कहा है वहां यथासंभव और भी अर्थ मिलता है ऐसा भाव सर्व ठिकाने जानना योग्य है । इस तरह उन्नीस गाथाओं से तीसरे विशेष अंतर अधिकार में समुदायपातनिका है। ___ अथ किं तहि जीवस्य शरीरादिसर्वपरद्रव्यविभागसाधनमसाधारणं स्वलक्षणमि त्यावेदयति अरसमरूवमगंधं अन्वत्तं चेदणागुणमसई । जाण अलिंगग्गहणं जोवाणद्दिसंठाणं ॥१७२।। _अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् । जानीह्यलिङ्गनणं जीवम निर्दिष्टसंस्थानम् ।। १७२।। आत्मनो हि रसरूपगन्धगुणाभावस्वभावत्वात्स्पर्शगुणव्यत्त्यमावस्वभावत्वात् शब्दपर्यायामावस्वभावत्वात्तथा तन्मूलालिङ्गग्राह्यत्वात्सर्वसंस्थानाभावस्वभात्वाच्च पुद्गलद्रव्य विभागसाधनमरसत्वमरूपत्वमगन्धत्वमध्यक्तत्वमशब्दत्वमलिग्राह्यत्वमसंस्थानत्वं चास्ति । सकलपुद्गलापुद्गलाजीवद्रव्य विभागसाधनं तु चेतनागुणत्यमस्ति । तदेव च तस्य स्वजीवद्रध्यमात्राश्रितत्वेन स्वलक्षणतां बभ्राणं शेषद्रव्यान्तरविभागं साधयति अलिङ्गग्राह्य इति वक्तव्ये यदलिङ्गग्रहणमित्युक्तं तदबहुतराथंप्रतिपत्तये तथाहि न लिगरिन्द्रियाहकतामापन्नस्य ग्रहणं यस्येत्यतीन्द्रियज्ञानमयत्वस्य प्रतिपत्तिः। न लिगरिन्द्रियग्राह्यतामापन्नस्य ग्रहणं यस्येतीन्द्रियप्रत्यक्षाविषयत्वस्य । न लिंगादिन्द्रियगम्याळूमादग्नेरिय ग्रहण यस्पेतीन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वकानुमानाविषयत्वस्य । न लिंगादेव परः ग्रहणं यस्येत्यनुमेयमात्रत्वाभावस्य । न लिंगादेव परेषां ग्रहणं यस्येत्यनुमातृमात्रत्वाभावस्य । न लिंगात्स्वभावेन ग्रहणं यस्येति प्रत्यक्षातत्वस्य । न लिंगेनोपयोगाख्यलक्षणेन ग्रहणं ज्ञेयार्थालम्बनं यस्येति बहिरालम्बनशानाभावस्य । न लिंगस्योपयोगाख्यलक्षणस्य ग्रहणं स्वयमाहरण यस्येत्य Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ ४११. नाहार्यज्ञानत्वस्य । न लिंगस्योपयोगाख्यलक्षणस्य ग्रहणं परेण हरणं यस्येत्याहार्यज्ञानत्वस्य । न लिंगे उपयोगाख्यलक्षणे ग्रहणं सूर्य इवोपरागो यस्येति शुद्धोपयोगस्वभावस्य । न लिंगानुपयोगाख्यलक्षणाद्ग्रहणं पौगलिककर्मादानं यस्येति द्रव्यकर्मासम्पृक्तत्वस्य न लिंगेभ्य इन्द्रियेभ्यो ग्रहणं विषयाणामुपभोगो यस्येति विषयोपभोक्तृत्वाभावस्य । न लिंगात्मनो वेन्द्रियादिलक्षणाद्ग्रहणं जीवस्य धारणं यस्येति शुक्रार्तवानुविधायित्वाभावस्य । न लिंगस्य मेहनाकारस्य ग्रहणं यस्येति लौकिकसाधनमात्रत्वा भावस्य । न लिंगेना मेहनाकारेण न लिंगानां ग्रहणं लोकव्याप्तिर्यस्येति कुहुकप्रसिद्धसाधनाकारलोकव्याप्तित्वाभावस्य स्त्रीपुन्नपुंसक वेदानां ग्रहणं यस्येति स्त्रीपुन्नपुंसकद्रव्यभावाभावस्य । न लिंगानां धर्मध्वजानां ग्रहणं यस्येति बहिरङ्गयतिलिंगाभावस्य । न लिंग गुणो ग्रहणमर्थावबोधो यस्येति गुणविशेषानाली ढशुद्धद्रव्यत्वस्य । न लिंगं पर्यायो ग्रहणमर्थावबोधविशेषो यस्येति पर्यायविशेषानालीढशुद्धद्रव्यत्वस्य । न लिंगं प्रत्यभिज्ञानहेतुर्ग्रहणमर्थावबोधसामान्यं यस्येति द्रव्याना लीशुद्ध पर्यायत्वस्य ॥ १७२ ॥ भूमिका- अब फिर जीव का, शरीरादि सर्वपरद्रव्यों से विभाग का साधनभूत, असाधारण स्वलक्षण क्या है, सो कहते हैं अन्वयार्थं ---- [जीवम् ] जीव को [ अरसम् ] रसरहित, [अरूपम् ] रूप रहित, [अगं - धम् [ गन्धरहित, [अव्यक्तम् ] अव्यक्त, [ चेतनागुणम् ] चेतनागुणयुक्त, [अशब्दम् ] शब्द रहित, [ अलिगग्रहणम् ] लिंग द्वारा ग्रहण न होने योग्य और [ अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] जिसका कोई संस्थान नहीं कहा गया है, ऐसा [ जानीहि ] जानो । टीका- आत्मा (१) रसगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से, (२) रूपगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से, (३) गंधगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से, (४) स्पर्शगुणरूप व्यक्तता के अभावरूप स्वभाव वाला होने से, (५) शब्दपर्याय के अभावरूप स्वभाव वाला होने से तथा ( ६ ) इन सबके कारण ( अर्थात् रस-रूप-गंध इत्यादि के अभाव रूप स्वभाव के कारण ) लिंग के द्वारा अग्राह्य होने से, और (७) सर्व संस्थानों के अभावरूप स्वभाववाला होने से, आत्मा के पुद्गलद्रव्य से विभाग के साधनभूत (१) अरसत्य, (२) अरूपत्थ, (३) अगंधत्व, ( ४ ) अव्यक्तता, ( ५ ) अशब्दत्व, (६) अलगग्राह्यत्व, और ( ७ ) असंस्थानत्य हैं । पुद्गल तथा अपुद्गलरूप समस्त अजीव द्रव्यों से विभाग का साधन तो चेतनागुणमयत्व है । वही, मात्र स्वजीवद्रव्याश्रित होने से स्वलक्षणत्व को धारण करता हुआ, आत्मा का शेष द्रव्यों से विभाग ( भेद ) सिद्ध करता है । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ 1 [ पवयणसारो जहां 'अलिगग्राह्य' कहना है वहां जो 'अलिनग्रहण' कहा है, वह बहुत से अर्थों को प्रतिपत्ति ( प्राप्ति, प्रतिपादन ) करने के लिये है । वह इस प्रकार है- ( १ ) ग्राहक (ज्ञायक ) जिसका लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा (ज्ञान) नहीं होता वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार आत्मा अतीन्द्रियज्ञानमय है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है । ( २ ) ग्राह्य (ज्ञेय), जिसका लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता वह अग्रण है, इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय नहीं है, इस अर्थ को प्राप्ति होती है । (३) जैसे- धुयें से अग्नि का ग्रहण (ज्ञान) होता है, उसी प्रकार लिंग द्वारा, अर्थात् इन्द्रियगम्य (इन्द्रियों से जानने योग्य) चिह्न द्वारा जिसका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है । इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रिय प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । (४) दूसरों के द्वारा — मात्र लिंग से ही जिसका ग्रहण नहीं होता वह ग्रहण है इस प्रकार 'आत्मा अनुमेय मात्र ( केवल अनुमान से ही ज्ञात होने योग्य) नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । ( ५ ) जिसके लिंग से ही परका ग्रहण नहीं होता यह अलिगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा अनुमाता मात्र ( केवल अनुमान करने वाला ही नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । ( ६ ) जिसका लिंग के द्वारा नहीं किन्तु स्वभाव के द्वारा ग्रहण होता है वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । ( ७ ) जिसका लिंग द्वारा अर्थात् उपयोग नामक लक्षण द्वारा ग्रहण नहीं है अर्थात् ज्ञेय पदार्थों का आलम्बन नहीं है वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा के बाह्य पदार्थों का आलम्बन वाला ज्ञान नहीं हैं' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । ( ८ ) जो लिंग को अर्थात् उपयोग नामक लक्षण को ग्रहण नहीं करता, अर्थात् स्वयं (कहीं बाहर से) नहीं लाता, सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा जो कहीं से नहीं लाया जाता ऐसे ज्ञान वाला है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । ( ६ ) लिंग का अर्थात् उपयोग नामक लक्षण का ग्रहण अर्थात् पर से हरण नहीं हो सकता, सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा का ज्ञान हरण नहीं किया था [सकता' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । (१०) जिस लिंग में अर्थात् उपयोग नामक लक्षण में ग्रहण अर्थात् सूर्य की भांति उपराग ( मलिनता, विकार) नहीं है वह अग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा शुद्धोपयोग स्वभावी है, ऐसे अर्थ को प्राप्ति होती है । (११) लिंग द्वारा अर्थात् उपयोग नामक लक्षण द्वारा अर्थात् पौद्गलिक फर्मका ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा द्रव्यकर्म से असंयुक्त (असंबद्ध) है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । (१२) जिसे लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४१३ अर्थात् विषयों का उपभोग नहीं है सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा विषयों का उपभोक्ता नहीं है। ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। (१३) लिंग द्वारा अर्थात् मन अथवा इन्द्रियादि लक्षण के द्वारा ग्रहण अर्थात जीवत्व को धारण कर रखना जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है, इसप्रकार 'आत्मा शुक्र और रज के अनुसार होने वाला नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। (१४) लिंग का अर्थात मेहनाकार (पुरुषादिकी इन्द्रिय का आकार) का ग्रहण जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार आत्मा लौकिक साधन मात्र नहीं है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। (१५) लिंग के द्वारा अर्थात् अमेहनाकार के द्वारा जिसका ग्रहण अर्थात् लोक में व्यापकत्व नहीं है सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा पाखण्डियों के प्रसिद्ध साधन हर भागार नाना- लोभाप्तिमारा नहीं है। ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। (१६) जिसके लिंगों का, अर्थात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों का ग्रहण नहीं है वह अलिंगग्रहण है, इसप्रकार 'आत्मा द्रध्य से तथा भाव से स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक नहीं है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है। (१७) लिंगों का अर्थात् धर्मचिह्नों का ग्रहण जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा के बहिरंग यतिलिंगों का अभाव है। इस अर्थ की प्राप्ति होती है। (१८) लिंग अर्थात् गुणरूप ग्रहण अर्थात अर्थाधबोध (पदार्थज्ञान) जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आस्मा गुणविशेष से आलिंगित न होने वाला शुद्ध द्रव्य है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। (१६) लिंग अर्थात् पर्यायरूप ग्रहण, अर्थात अर्थायबोध विशेष जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा पर्याय-विशेष से अलिंगित न होने वाला शुद्ध द्रव्य हैं ऐसे अर्थ को प्राप्ति होती है । (२०) लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञान का कारणरूप ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा द्रव्य से नहीं अलि गित ऐसी शुद्ध पर्याय हैं ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ॥१७२।। तात्पर्यवृत्ति अथ कि तहि जीवस्य शरीरादिपरद्रव्येभ्यो भिन्नमन्यद्रव्यासाधारणं स्वस्वरूपमिति ? प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति-- अरसमरूषमगंध रसरूपगन्धरहितत्वात्तथा चाव्याहार्यमाणास्पर्शरूपगन्धत्वाच्च अव्यत्तं अव्यक्तत्वात् असई अशब्दत्वात् अलिंगरगहणं अलिङ्गहणत्वात् अणिद्दिसंठाणं अनिर्दिष्टसंस्थानत्वाच्च जाण जीयं जानीहि जीवम् । अरसमरूपमगन्धमस्पर्शमध्यक्तमशब्दमलिङ्गग्रहणमनिर्दिष्टसंस्थानलक्षणं च हे शिष्य ! जीवं जीवद्रव्यं जानीहि । पुनरपि कथंभूतं ? चेवणागुणं समस्तपुद्गलादिभ्योऽचेतनेभ्यो भिन्नः समस्तान्यद्रव्यासाधारणः स्वकीयानन्तजीवजातिसाधारणश्त्र चेतना गुणो यस्य तं चंतनागुणं Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] [ पवयणसारो चालिङ्गमाद्यमिति वक्तव्ये यदलिङ्गग्रहणमित्युक्तं तत्किमर्थमिति चेत् ? बहुतरार्थप्रतिपत्त्यर्थम् । तथाहि लिङ्गमिन्द्रियं तेनार्थानां ग्रहणं परिच्छेदनं न करोति तेनालिनग्रहणो भवति । तदपि कस्मात्स्वयमेवातीन्द्रियाखण्डज्ञानसहितत्वात् । तेनैव लिङ्गशब्दवाच्येन चक्षुरादीन्द्रियेणान्यजीवानां यस्य ग्रहणं परिच्छेदनं कर्तुं नायाति तेनालिङ्गग्रहण उच्यते । तदपि कस्मात् ? निविकारातीन्द्रियस्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानगम्यत्वात् । लिङ्ग धूमादि तेन धूमलिङ्गोद्भवानुमानेनाग्निवदनुमेयभूतपरपदार्थानां ग्रहणं न करोति तनालिङ्गाग्रा इति । तदाप कस्मात् ? स्वमेवालिङ्गोद्भवातीन्द्रियज्ञानसहितत्वात् । तेनैव लिङ्गोद्भवानुमानेनाग्निग्रह्णवत् परपुरुषाणां यस्यात्मनो ग्रहणं परिज्ञानं कर्तुं नायाति तेनालिङ्गग्रहण इति । तदपि कस्मात् ! अलिङ्गोद्भवातीन्द्रियज्ञानगम्यत्वात् । अथवा लिङ्ग चिह्न लाञ्छनं शिखाजटाधारणादि तेनार्थानां ग्रह्ण परिच्छेदनं न करोति, तेनालिङ्गग्रहण इति । तदपि कस्मात् ? स्वाभाविकाचिह्नोद्भवातीन्द्रियज्ञानसहितत्वात् । तेनैव चिह्नोद्भवज्ञानेन परपुरुषाणां यस्यात्मनो ग्रहणं परिज्ञानं कर्तृ नायाति तेनालिङ्गग्रहण इति। तदपि कस्माग्निरुपरागस्वसंवेदनज्ञानगम्यत्वादिति । एवमलिङ्गग्रहणशब्दस्य व्याख्याननमेण शुद्धजीवस्वरूप ज्ञातव्यमित्यभिप्रायः ॥१७२।। __उत्थानिका-ऐसा प्रश्न होने पर कि इस जीव का शरीरादि पर द्रव्यों से भिन्न, अन्य द्रव्यों से असाधारण अपना स्वरूप क्या है ? आचार्य उत्तर देते हैं-- अन्वय सहित विशेषार्थ—(जीव) इस जीव को (अरस) पांच रस से रहित (अरुवम्) पांच वर्ण से रहित (अपंध) दो गंध से रहित तथा इन्हों के साथ आठ प्रकार स्पर्श से रहित, (अश्वत्तं) अव्यक्त (असई) शब्द रहित, (अलिंगगहणं) किसी चिन्ह से न पकड़ने योग्य (अणिद्दिसंठाणं) नियमित आकार रहित (चेवणागुणं) सर्व पुद्गलादि अचेतन द्रव्यों से भिन्न और समस्त अन्य द्रव्यों से विशेष तथा अपने ही अनन्त जीव जाति में साधारण ऐसे चैतन्य गुण को रखने वाला (जाण) जानो। अलिंगग्रहण जो विशेषण दिया है उसके बहुत से अर्थ होते हैं वे यहां समझाए जाते हैं। (१) लिंग इन्द्रियों को कहते हैं। उनके द्वारा यह मात्मा पदार्थों को निश्चय से नहीं जानता है क्योंकि आत्मा स्वभाव से अपने अतीन्द्रिय अखण्डज्ञान सहित है इसलिये अलिंगग्रहण है। (२) लिंग शब्द से चक्षु आदि इन्द्रिय लेना, इन चक्षु आदि से अन्य जीव भी इस आत्मा का ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि यह आत्मा विकार रहित अतीन्द्रिय स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा ही अनुभव में आता है इसलिये भी अलिंगग्रहण है । (३) धूम आदि को चिन्ह कहते हैं जैसे धुएं के चिन्ह रूप अनुमान से अग्नि का ज्ञान करते हैं ऐसे यह आत्मा जानने योग्य पर पदार्थों को नहीं जानता क्योंकि स्वयं ही चिन्ह या अनुमान रहित प्रत्यक्ष अतीन्द्रियज्ञान को रखने वाला है उसे ही जानता है, इसलिये भी लिंगग्रहण है। (४) कोई भी अन्य पुरुष जैसे धूम के चिन्ह से अग्नि का ग्रहण Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४१५ कर लेते हैं से अनुमान रूप चिह्न से आत्मा का ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि यह चिह्न रहित स्वाभाविक अतीन्द्रियज्ञान के द्वारा जानने योग्य है इसलिये भी अलिंग ग्रहण है । (५) अथवा लिंग नाम शिखा, जटा धारण आदि भेष का है इससे भी आत्मा पदार्थों का ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि स्वाभाविक, विना किसी चिह्न के उत्पन्न अतीन्द्रियज्ञान को यह आत्मा रखने वाला है इसलिये भी अलिंग ग्रहण है । ६ ) अथवा किसी भी शेष के ज्ञान से पर पुरुष भी इस आत्मा का ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि यह आत्मा अपने हो वीतराग स्वसंवेदनज्ञान से ही जाना जाता है इसलिये भी अलिंगग्रहण है। इस तरह अलिगग्रहण शब्द की व्याख्या से शुद्ध जीव का स्वरूप जानने योग्य है, यह अभिप्राय है ॥ १७२ ॥ ( अथ कथममूर्तस्यात्मनः स्निग्धरूक्षत्वाभावाद्बन्धो भवतीति पूर्वपक्षयतिमुसो ख्वादिगुणो बज्झदि फासेहि अण्णमणेहि । तब्बिवरीदो अप्पर बज्झवि किधर पोग्गलं कम्मं ॥ १७३ ॥ मूर्ती रूपादिगुणी बध्यते सार्थैरन्योन्यैः । तद्विपरीत आत्मा बध्नाति कथं पौद्गलं कर्म || १७३ || मूर्तयोहि तावत्पुद्गलयो रूपाविगुणयुक्तत्वेन यथोक्तिस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषादन्योन्यबन्धोऽवधार्यते एव । आत्मकर्मपुद्गलयोस्तु स कथमवधार्यते । मूर्तस्य कर्मबुद्गलस्य रूपादिगुणयुक्तत्वेन यथोदित स्निग्धक्षत्व स्पर्शविशेषासंभवेऽप्यमूर्तस्यात्मनो रूपादिगुणपुरषाभावेन यथोदित स्निग्धरूक्षत्व स्पर्श विशेषासं भावनया चैकाङ्गविकलत्वात् ॥ १७३॥ भूमिका – अब, अमूर्त आत्मा के, स्निग्धरूक्षत्व का अभाव होने से बंध कैसे हो सकता है ? ऐसा पूर्वपक्ष उपस्थित करते हैं— अन्वयार्थ -- [ रूपादिगुणः ] रूपादिगुणयुक्त [मूर्तः ] मूर्त (पुद्गल ) [ अन्योन्यैः स्पर्णैः ] परस्पर (स्निग्ध- रूक्षरूप) स्पर्शो से [ बध्यते ] बंधता है, (परन्तु ) [ तद्विपरीतः आत्मा ] उससे विपरीत ( स्निग्ध- रूक्ष रहित, अमूर्त) आत्मा [ पौद्गलिकं कर्म ] पौद्गलिककर्म को [ कथं ] कैसे [ बध्नाति ] बांध सकती है । टीका-मूर्त दो पुद्गलों का, रूपादि गुण युक्त होने से यथोक्त स्निग्धरूक्षत्व रूप स्पर्श विशेष ( बंधयोग्य स्पर्श) के कारण, पारस्परिक बंध अवश्य ही निश्चय होता है किन्तु आत्मा और कर्म पुद्गल का बंध कैसे समझा जा सकता है ? क्योंकि मूर्त कर्म पुद्गल के, रूपादि गुण युक्त होने से, यथोक्त स्निग्ध- रूक्षत्व रूप स्पर्श विशेष सम्भव होने पर मी, १. किह ( ज ० ० ) । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ । ! पवयणसारो अमूतं आत्मा के रूपादि गुण युक्तता नहीं होने से, यथोक्त स्निग्ध रुक्षत्व रूप स्पर्श विशेष असम्भव होने से, एक अंग विकल है। (अर्थात् बंध योग्य दो अंगों में से एक अंग अयोग्य है-स्पर्श गुण रहित होने से बंध को योग्यता वाला नहीं है।) ॥१७३॥ __ तात्पर्यवृत्ति अथामूर्तशुद्धात्मनो व्याख्याने कृते सत्यमूर्तजीवस्य मूर्तपुद्गलकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति पूर्वपक्षं करोति मुत्तो रूवादिगुणो मूर्तों रूपरसगन्धस्पर्शत्वात् पुद्गलद्रव्यगुणः बज्झदि अन्योन्यसंश्लेषेण बध्यते बन्धमनुभवति, तत्र दोषो नास्ति । कैः कृत्वा ? फासेहि अण्णमण्णेहि स्निग्धरूक्षगुणलक्षणस्पर्शसंयोगैः । किविशिष्ट: ? अन्योन्यैः परस्परनिमित्तः । तं विवरीदो अप्पा बज्झवि किह पोग्गलं कम्मं तद्विपरीतात्मा बध्नाति कथं पौद्गलं कर्मेति । अयं परमात्मा निर्विकारपरमचैतन्यचमत्कारपरिणतत्वेन बन्धकारणभूतस्निग्धरूक्षगुणस्थानीयरागद्वेषादिविभावपरिणामरहितत्वादमुर्तत्वाच्च पौद्गलंकर्म कथं बध्नाति न कथमपीति पूर्वपक्षः ।।१७३॥ । उत्थानिका-आगे जब आत्मा अमूर्तिक शुद्ध स्वरूप है तब इस अमूर्तिक जीव का मूर्तिक पुद्गल कर्मों के साथ किस तरह बंध हो सकता है ऐसा पूर्वपक्ष करते हैं-- अन्बय सहित विशेषार्थ-(रूवाविगुणो) स्पर्श रस गंध वर्ण गुणधारी (मुत्तो) मूर्तिक पुद्गल द्रव्य (फासेहिं) स्निग्ध, रूक्ष स्पर्श गुणों के निमित्त से (अण्णम् अहं) एक दूसरे से परस्पर (बज्मदि) बंध जाते हैं । (तस्विरीदो) इससे विरुद्ध अमूर्तिक (अप्पा) आत्मा (किह) किस तरह (पोग्गलंकम्म) पौगलिक फर्मवर्गणा को (अंधवि) बांधता है। निश्चयनय से यह आत्मा परमात्मा स्वरूप है, निर्विकार चैतन्य चमत्कारी परिणति में वर्तने वाला है, बंध के कारण स्निग्ध रूक्ष के स्थानापन्न रागद्वेषावि विभाव परिणामों से रहित है और अमूतिक है सो किस तरह पुद्गल मूर्तिक कर्मों को बांध सकता है ? किसी भी तरह नहीं बांध सकता है, ऐसा पूर्वपक्ष शंकाकार ने किया है ॥१७३॥ अथवममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धान्तयति रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि स्वमादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ।।१७४॥ ___ रूपादिक रहितः पश्यति जानाति रूपादीनि । द्रव्याणि गुणांश्च यथा तथा बन्धस्तेन जानीहि ।।१७४।। येन प्रकारेण रूपादिरहितो रूपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण रूपादिरहितो रूपिभिः कर्मयुद्गलैः किल बध्यते । अन्यथा कथममूतों मूर्त Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४१७ पश्यति जानाति चेत्यत्रापि पर्यनुयोगस्यानिवार्यत्वात् । न चैतवत्यन्तदुर्घटत्वाहार्दान्तिकोकृतं, किंतु दृष्टान्तद्वारेणाबालगोपालप्रकटितम् । तथाहि-यथा बालकस्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मृबलीयद बलीव वा पश्यतो दानतश्च न बलीवर्वेन सहास्ति सम्बन्धः, विषयभावावस्थितबलीवर्दनिमित्तोपयोगाधिरूढबलीवकारदर्शनज्ञानसम्बन्धो बलीवर्दसम्बंधव्यवहारसाधकस्स्वस्तयेव, तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वाल कर्मपुद्गलः सहास्ति सम्बन्धः, एकावगाहमावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषाविभावसम्बन्ध: फर्मपुद्गलबन्धव्यवहारसाधारल्येव । १४ भूमिका-अब, यह सिद्धान्त निश्चित करते हैं कि आत्मा के अमूर्त होने पर भी इस प्रकार बंध होता है अन्वयार्य-[यथा] जैसे [रूपादिकैः रहितः] रूपादिरहित (जीव) [रूपादीनि द्रव्याणि गुणान् च] रूपादि गुण वाले द्रव्यों को (तथा उनके) रूपादि गुणों को [पश्यति जानाति] देखता है और जानता है, [तथा उसी प्रकार (जीव का) [तेन] उसके साथ (मूर्तिक पुद्गल के साथ) [बंध: जानीहि] बंध जानो। टीका-जिस प्रकार रूपाविरहित (जीव) रूपी व्रज्यों को तथा उनके गुणों को देखता है तथा जानता है, उसी प्रकार रूपादि रहित (जीव) रूपी फर्मपुद्गलों के साथ बंधता है, क्योंकि, यदि ऐसा न हो तो, यहां भी (देखने-जानने के संबंध में भी) यह प्रश्न अनिवार्य है कि अमूर्त मूर्त को कैसे देखता-जानता है ? ऐसा भी नहीं है कि यह (अरूपी का रूपी के साथ बंध होने की बात अत्यन्त दुर्घट है इसलिये उसे दान्तिरूप बनाया है, परन्तु आबालगोपाल सभी को प्रगट (ज्ञात) हो जाय इसलिये दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। यथा-जिस प्रकार, पृथक् रहने वाले मिट्टी के बैल को देखने-जानने वाले बालक का अथवा (सच्चे) बल को देखने-जानने वाले गोपाल का बल के साथ संबंध नहीं है, तथापि विषयरूप से रहने वाला बल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगारूढ वृषमाकार दर्शन-ज्ञान के साथ संबंध जो कि बल के साथ के संबंधरूप व्यवहार का साधक है, अवश्य ही है। उसी प्रकार, आत्मा का, अरूपित्व के कारण स्पर्शशून्य होने से, कर्मपुद्गलों के साथ संबंध नहीं है, तथापि एकावगाहरूप से रहने वाले कर्म पुद्गल जिनके निमित्त हैं ऐसे उपयोगारूढ़ रागद्वेषादिभावों के संबंध, (जो कि) कर्मपदगलों के साथ के बंधरूप व्यवहार का साधक है, अवश्य ही है ॥१७४॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] [ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अर्थवममूर्तस्याप्यात्मनो नयविभागेन बन्धो भवतीति प्रत्युत्तरं ददाति रूवादिएहि रहिदो अमूर्तपरमचिज्ज्योतिःपरिणतत्वेन तावदयमात्मा रूपादिरहितः। तथाविध: सन् किं करोति ? पेच्छदि आणादि मुक्तावस्थायां युगपत्परिच्छित्तिरूपसामान्यविशेषग्राहककेबलदर्शनज्ञानोपयोगेन यद्यपि तादात्म्यसम्बन्धो नास्ति तथापि ग्राह्यग्राहकलक्षणसम्बन्धेन पश्यति जानाति । कानि कर्मतापन्नानि ? रूवमादीणि दन्याणि रूपरसगन्धस्पर्शसहितानि भूर्तद्रव्याणि । न केवलं द्रव्याणि गुणे य जधा तद्गुणांश्च यथा । अथवा यः कश्चित्संसारी जीवो विशेषभेदज्ञानरहितः सन् काष्ठपाषाणाद्यचेतनजिनप्रतिमां दृष्ट्वा मदीयाराध्योऽयमिति मन्यते । यद्यपि तत्र सत्ताबलोकदर्शनेन सह प्रतिमायास्तादात्म्यसम्बन्धो नास्ति तथापि परिच्छेद्यपरिच्छेदकलक्षणसम्बन्धोऽस्ति । यथा वा समवसरणे प्रत्यक्षजिनेश्वरं दृष्ट्वा विशेषभेदज्ञानी मन्यते मदीयाराध्योऽयमिति । तत्रापि यद्यप्यवलोकनज्ञानस्य जिनेश्वरेण सह तादात्म्यसम्बन्धो. नास्ति तथाप्याराध्याराधकसम्बन्धोऽस्ति । तह बंधो तेण जाणीहि तथा बन्धं तेनैव दृष्टान्तेन जानीहि । ___ अयमत्रार्थः- यद्यप्ययमात्मा निश्चयेनामुर्तस्तथाप्यनादिकर्मबन्धवशाव्यबहारेण मुर्तः सन् द्रव्यबन्धनिमित्तभूतं रागादिविकल्परूपं भावबन्धोपयोगं करोति । तस्मिन्सति मूर्तद्रव्यकर्मणा सह यद्यपि तादात्म्यसम्बन्धो नास्ति तथापि पूर्वोक्त दृष्टान्तेन संश्लेषसम्बंधोऽस्तीति नास्ति दोषः ॥१७४।। ___एवं शुद्धबुद्धकस्वभावजीवकथनमुख्यत्वेन प्रथमगाथा। मूर्तिरहितजीवस्य भूतकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति पूर्वपक्षरूपेण द्वितीया तत्परिहाररूपेण तृतीया चेति गाथात्रयेण प्रथमस्थलं गतम् । उत्थानिका--आगे आचार्य समाधान करते हैं कि किसी अपेक्षा व नय के द्वारा अमूर्तिक आत्मा का पुद्गल से बंध हो जाता है __ अन्वय सहित विशेषार्थ- (जधा) जैसे (रुवादिएहि रहिंदो) रूपादि से रहित आत्मा (रूवमाबोणि दव्याणि गुणे य) रूपादि गुणधारी द्रव्यों को और उनके गुणों को (पेच्छदि जाणादि) देखता जानता है (तह) तसे (तेण) उस पुद्गल के साथ (बंधो) बंध (जाणीहि) जानो । जैसे अमूर्तिक व परम चैतन्य ज्योति में परिणमन रखने के कारण यह परमात्मा वर्ण आवि से रहित है, ऐसा होता हुआ भी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श सहित मूर्तिक द्रव्यों को और उनके गणों को मुक्तावस्था में एक समय में वर्तने वाले सामान्य और विशेष को ग्रहण करने वाले केबलवर्शन और केवलज्ञान उपयोग के द्वारा ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध से देखता जानता है यद्यपि उन ज्ञेयों के साथ इसका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है अर्थात् वे मूर्तिक द्रव्य और गुण भिन्न हैं और यह ज्ञाता द्रष्टा उनसे भिन्न है। अयवा जैसे कोई भी संसारी जीव विशेष भेवज्ञान को न पाता हुआ काष्ठ व पाषाण आदि को अचेतन जिन-प्रतिमा को देखकर यह मेरे द्वारा पूजने योग्य है, ऐसा मानता है । यपि यहाँ सत्ता को देखने मात्र दर्शन के साथ उस प्रतिमा का तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ४१६ दृश्य-दर्शक सम्बन्ध है अथवा समवशरण में प्रत्यक्ष जिनेश्वर को देखकर यह मानता है कि यह मेरे द्वारा आराधने योग्य हैं, यहां भी यद्यपि देखने व जानने का जिनेश्वर के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि आराध्य-आराधक सम्बन्ध है। तैसे ही मूर्तिक द्रव्य के साथ बंध होना समझो। यहां यह भाव है कि यद्यपि यह आत्मा निश्चयनय से अमतिक है तथापि अनादि कर्म बन्ध के वश से व्यवहार से मतिक होता हआ द्रव्यबंध के निमित्तकारण रागावि विकल्प भावबंध के रूप उपयोग को करता है। ऐसी अवस्था होने पर यद्यपि मूर्तिक द्रव्यकर्म के साथ आत्मा का तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि पूर्व में कहे हुए दृष्टान्त से संश्लेष सम्बन्ध है इसमें कोई दोष नहीं है ॥१७४॥ भावार्थ-श्री तस्वार्थसार में अमृतचन्द्रस्वामी ने इसी प्रश्न को उठाकर कि अमूर्तिक का बन्ध मर्तिक के साथ कैसे होता है ? इस तरह समाधान किया हैन च बन्धाप्रसिद्धिः स्यान्मूतः कर्मभिरात्मनः । अमूर्त रित्यनेकान्तात्तस्य मूत्तित्त्वसिद्धितः ॥१६॥ अनादिनित्यसम्बन्धात्सह कर्मभिरात्मनः। अमूर्तस्यापि सत्यक्ये मूर्तत्त्वमवसीयते ॥१७॥ बन्धं प्रति भवत्येकमन्योन्यानुप्रवेशः । युगपद्वावितः स्वर्ण रौप्यवज्जीवकर्मणोः ॥१८॥ तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिभवदर्शनात् । न ह्यमूर्तस्य नभसो मदिरा मवकारिणी ॥१६॥ अमतिक आत्मा के साथ मूर्तिककर्मों का बंध अमेकान्त से असिद्ध नहीं है क्योंकि किसी अपेक्षा से आत्मा के मूर्तिपना सिद्ध है। इस अमूर्तिक आत्मा का भी द्रव्यकों के साय प्रवाह रूप से अनादिकाल से धारावाही सदा का सम्बन्ध चला आ रहा है, इसी से उस मतिक द्रव्य कर्मों के साथ एकता होते हुए आत्मा मूर्तिक भी है। बन्ध होने पर जिसके साथ बन्ध होता है उसके साथ एक दूसरे में प्रवेश हो जाने पर परस्पर एकता हो जाती है, जैसे सुवर्ण और चांदी को एक साथ गलाने से दोनों एक रूप हो जाते हैं उसी तरह जीव और कर्मों का बन्ध होने से परस्पर एक रूप बन्ध हो जाता है। तथा यह कर्मबद्ध संसारी आत्मा मतिमान है क्योंकि मदिरा आदि से इसका ज्ञान बिगड़ जाता है। यदि अमूर्तिक होता तो जैसे अमूर्तिक आकाश में मदिरा रहते हुए आकाश को मवधान नहीं कर सकती वैसे आत्मा के कभी ज्ञान में विकार नहीं होता। संसारी आत्मा मतिक है इसी से उसके कर्मबन्ध होता है जैसे आत्मा निश्चय से अमूतिक है वैसे उसके निश्चय से बन्ध भी नहीं है। जैसे आत्मा व्यवहार से मतिक है वैसे उसके व्यवहार से बन्ध भी होता है। इस तरह अनेकान्त से समझ लेने में कोई प्रकार की शंका नहीं रहती है। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० । ।. पवयणसारो सर्वथा शुद्ध अमूर्तिक यदि आत्मा होता तो इसके बन्ध मूतिक से कभी प्रारम्भ नहीं हो सकता था । अनादि संसार में कर्म-सहित ही आत्मा जैसा अब प्रगट है वैसा अनादि से ही चला आ रहा है इससे कर्मबन्ध की व्यवस्था सिद्ध होती है ॥१७४।। इस तरह शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप जीध के कथन को मुख्यता से एक गाथा, फिर अमूर्तिक जीव का मूर्तिक कर्म के साथ कैसे बन्ध होता है इस पूर्व पक्ष रूप से दूसरी, फिर उसका समाधान करते हुए तीसरी, इस तरह तीन गाथाओं से प्रथम स्थल समाप्त हुआ। अथ भावबन्धस्वरूपं ज्ञापयति उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि । पप्पा विविध विसये जो हि पुणो तेहिं सो बंधो ॥१७॥ उपयोगमयो जीवो मुह्मति रज्यति वा प्रद्वेष्टि । प्राप्य विविधान् विषयान् यो हि पुनस्तैः स बन्धः ॥१७५।। :: अयमात्मा सर्व एवं तावत्सविकल्पनिर्विकल्पपरिच्छेदात्मकत्वादुपयोगमयः । तत्र यो हि नाम नानाकारान परिच्छेद्यानानासाद्य मोहं वा राग या द्वेषं वा समुपैति स नाम तः परप्रत्ययरपि मोहरागद्वेषरुपरक्तात्मस्वभावत्वान्नीलपीतरत्तोपाश्रयप्रत्ययनीलपीतरक्तत्वरुपरक्तस्वभावः स्फटिकमणिरिव स्वयमेक एव तद्धावद्वितीयत्वाद्बन्धो भवति ।।१७।। भूमिका--अब भावबन्ध का स्वरूप बतलाते हैं-- अन्वयार्थ- [यः हि पुनः] जो [उपयोगमयः जीवः] उपयोगमय जीव [विबिधान विषयान् ] विविध विषयों को [प्राप्य ] प्राप्त करके [मुह्यति ] मोह करता है, [रज्यति] राग करता है, [वा] अथवा [प्रद्वेष्टि ] द्वेष करता है, सः वह जीव [तै:] उनके द्वारा (मोह-राग-द्वेष के द्वारा) [बन्धः] बंध रूप है । टीका-प्रथम तो यह आत्मा सर्व ही उपयोगमय है, क्योंकि वह सविकल्प और निर्विकल्प प्रतिभास स्वरूप है (अर्थात् शान-दर्शन स्वरूप है।) उसमें जो आत्मा विविधाकार प्रतिभासित होने वाले पदार्थों को प्राप्त करके मोह, राग अथवा द्वेष करता है वह काला, पीला और लाल आश्रय जिनका निमित्त है ऐसे कालेपन, पीलेपन और ललाई के द्वारा उपरक्त स्वभाव वाले स्फटिकमणि की भांति, पर जिनका निमित्त है ऐसे मोह, राग और डोष के द्वारा उपरक्त (विकारी) आत्म स्वभाव वाला होने से, स्वयं अकेला ही बन्धरूप है, क्योंकि मोह-राग द्वषादि माव उसका द्वितीय है। बन्ध तो दो के बीच १. संबंधो (ज० ५०)। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्यवृत्ति अथ रागद्वेषमोलक्षणं भावबन्धस्वरूप माख्याति - [ पत्रयणसारो ] होता है, अकेला आत्मा बन्ध स्वरूप कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि-एक तो आत्मा और दूसरा मोह रागद्वेषादिभाव होने से, मोहरागद्वेषादि भाव के द्वारा मलिन स्वभाव वाला आत्मा स्वयं ही भावबन्ध है ।।१७३॥ ४२१ उवओगमओ जीवो उपयोगमयो जीवः, अयं जीवो निश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनोप्रयोगमयस्तावत्तथाभूतोऽप्यनादिबन्धवमात्सोपाधिस्फटिकवत् परोपाधिभावेन परिणतः सन् । किं करोति ? मुज्झदि रज्जेदि या पस्सेदि मुह्यति रज्यति वा प्रद्वेष्टि द्वेषं करोति । किं कृत्वा ? पूर्व पप्पा प्राप्य । कान् ? विविधे विसये निर्विषय परमात्मस्वरूप भावनाविपक्षभूतान्विविधपञ्चेन्द्रियविषयान् । जो हि पुणो यः पुनरित्थंभूतोऽस्ति जीवो हि स्फुटं तेहि संबंधो तैः सम्बद्धो भवति तैः पूर्वोक्तरागद्वेषमोहैः कर्तृभूतैर्मोहरागदेषरहित - जीवस्य शुद्धपरिणामलक्षणं परमधर्ममलभमानः सन् स जीवो बद्धो भवतीति । अत्र योसी रागद्वेषमोहपरिणामः स एव भावबन्ध इत्यर्थः || १७५ ॥ उत्थानका राग द्वेष मोह लक्षण के धारी भावबन्ध का स्वरूप कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( उवओगमओ जीवो) उपयोगमयी जीव (विविधे विसये ) नाना प्रकार इन्द्रियों के पदार्थों को ( पप्पा ) पाकर (मुज्झदि) मोह कर लेता है ( रज्जेदि ) राग कर लेता है (वा) अथवा ( पवस्सेदि) द्वेष कर लेता है । (पुणो ) तथा (हि) निश्चय से (जो) वही जीव ( तेहि संबंधो) उन भावों से बन्धा है, यही भावबंध है । यह जीव निश्चयनय से विशुद्ध ज्ञान दर्शन उपयोग का धारी है तो भी अनादिकाल से कर्मबंध की उपाधि के दश से जैसे स्फटिकमणि उपाधि के निमित्त से अन्य भावरूप परिणमती है इसी तरह कर्मकृत औपाधिक भावों से परिणमता हुआ इन्द्रियों के विषयों से रहित परमात्म स्वरूप की भावना से विपरीत नाना प्रकार पंचेन्द्रियों के विषयरूप पदार्थों को पाकर उनमें राग द्वेष मोह कर लेता है । ऐसा होता हुआ यह जीव राग द्वेष मोह रहित अपने शुद्ध वीतरागमयी परमधर्म को न अनुभवता हुआ इन रागद्वेष मोह भावों के निमित्त से बद्ध होता है । यहां पर जो इस जीव के यह राग द्वेष मोह रूप परिणाम हैं सो ही भावबन्ध है || १७५ ॥ अथ भावबन्धयुक्ति द्रव्यबन्धस्वरूपं प्रज्ञापयति भावेण जेण जीवो पेच्छदि जागादि आगदं विसये । अयमात्मा १. उबएसो (ज० वृ० ) । रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म त्ति उवदेसी ' ॥ १७६ ॥ भावेन येन जीवः पश्यति जानात्यागतं विषये । रज्यति तेनैव पुनर्बध्यते कर्मेत्युपदेशः ॥ १७६ ॥ साकारनिराकारपरिच्छेदात्मकत्वात्परिच्छेद्यतामापद्यमानमर्थजातं येनंव Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] [ पवयणसारो मोहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेन पश्यति जानाति च तेनयोज्यत एव । बोज्यनुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भावबन्धः। अथ पुनस्तेनैव पौद्गलिक कर्म बध्यत एव, इत्येष मावबन्धप्रत्ययो द्रव्यबन्धः ॥१७६॥ भूमिका-अब, मावबंध को युक्ति और द्रव्यबंध का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ-[जीवः] जीव [येन भावेन] जिस (राग, द्वेष, मोह) भाव से [विषये आगतं] विषयागत पदार्थ को [पश्यति जानाति] देखता है और जानता है, [तेन एव] उसी से [रज्यति] उपरक्त होता है, [पुनः] और (उसी से-उपरक्त भाव से) [कर्म बध्यते] कर्म बंधता है, [इति] ऐसा [उपदेशः] उपदेश है ।। ___टीका-यह आत्मा साकार और निराकार प्रतिमासस्वरूप (ज्ञान और दर्शनस्वरूप) होने से प्रतिभास्य (प्रतिभासित होने योग्य) पदार्थ समूह को जिस मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भाव से देखता है और जानता है, उसी से उपरक्त होता है। जो यह उपराग (धिकार) है वह वास्तव में स्निग्धरूक्षत्वस्थानीय भावबंध है और उसी से अवश्य पौगलिक कर्म बंधता है। इस प्रकार यह द्रव्यबंध का निमित्त भावबंध है ।।१७६।। __ तात्पर्यवृत्ति अथ भावबन्धयुक्ति द्रव्यबन्धस्वरूपं च प्रतिपादयति भावेण जेण भावेन परिणामेन येन जीवो जीवः कर्ता पेच्छदि जाणादि निर्विकल्पदर्शनपरिणामेन पश्यति सविकल्पज्ञानपरिणामेन जानाति । किं कर्मतापन्नम् ? आगदं विसये आगतं प्राप्त किमपीप्टानिष्टं वस्तु पञ्चेन्द्रियविषये रज्जवि तेणेव पुणो रज्यते तेनैव पुनः आदिमध्यान्तजितं रागादिदोषरहितं चिज्ज्योतिःस्वरूपं निजात्मद्रव्यमरोचमानस्तथवाजानन्सन् समस्तरागादिविकल्पपरिहारेण भावयंश्च तेनैव पूर्वोक्तज्ञानदर्शनोपयोगेन रज्यते रागं करोति इति भावबन्धयुक्तिः । बज्मदि कम्म त्ति उबएसो तेन भावबन्धेन नवतरद्रव्यकर्म बध्नातीति द्रव्यबन्धस्वरूपं चेत्युपदेशः॥ एवं भावबन्धकथनमुख्यतया गाथाद्वयेन द्वितीयस्थलं गतम् । उत्यानिका—आग भावबंध के कारण होने वाला द्रज्यबन्ध और उसका स्वरूप बताते हैं__अन्वय सहित विशेषार्थ--(जोधो) जीव (जेण भावेण) जिस रागद्वेष मोहभाव से (विसये आगदं) इन्द्रियों के विषय में आए हुए इष्ट अनिष्ट पदार्थों को (पेच्छदि) देखता है (जाणादि) जानता है (तेणेव रज्जवि) उस ही भाव से रंग जाला है (पुणो) तब (कम्म) द्रव्यकर्म (बज्झवि) बन्ध जाता है (इति उचएसो) ऐसा श्री जिनेन्द्र का उपदेश है। यह जीव पांचों इन्द्रियों के जानने में जो इष्ट व अनिष्ट पदार्थ आते हैं उनको जिस परिणाम से निर्विकल्परूप से देखता है व सविकल्परूप से जानता है उसी हो दर्शनज्ञानमयो उपयोग Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ४२३ से राग करता है क्योंकि वह आदि मध्य अन्त रहित व रागद्वेषादि रहित चैतन्य ज्योतिस्वरूप निज आत्म-द्रव्य को न श्रद्धान करता हुआ, न जानता हुआ और समस्त रागावि विकल्पों को छोड़कर नहीं अनुभव करता हुआ वर्तन कर रहा है इससे ही रागी द्वषी मोही होकर राग द्वेष मोहनार लेता है। सही शासबन्ध है। इसी भावबन्ध के कारण नवीन द्रव्यकर्मों को बांधता है, ऐसा उपरेश है ॥१७६॥ इस तरह भावबंध के कथन की मुख्यता से दो गाथाओं में दूसरा स्थल पूर्ण हुआ। अथ पुद्गलजीवतदुभयबन्धस्वरूपं ज्ञापयति फासेहिं पोग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमावीहि । अण्णोण्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो ॥१७७।। स्पर्शः पुद्गलानां बन्धो जीवस्य रागादिभिः । अन्योन्यमवगाहः पुदगलजीवात्मको भणितः ।।१७७॥ यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्यस्पर्शविशेषैरेकत्वपरिणामः स केवलपुद्गलबन्धः । यस्तु मावस्यौपाधिकमोहरागद्वेषपर्यायरेकत्वपरिणामः स केवलजीवबन्धः । यः पुनः जीव. कर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तदुभयवन्धः ॥१७७॥ भूमिका-अब पुद्गलबन्ध, जीवबन्ध और उन दोनों के बंध का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ-[स्पर्शः] स्पर्शों के साथ [पुद्गलानां बंधः] पुद्गलों का बंध, [रागादिभिः जीवस्य] रागादि के साथ जीव का बंध, और [अन्योन्यम् अवगाहः] अन्योन्य अवगाह | पुद्गलजीवात्मक: भणितः] पुद्गलजीवात्मक बंध कहा गया है । टोका-प्रथम तो यहां, कर्मों का जो स्निग्यता रूक्षतारूप स्पर्शविशेषों के साथ एकत्यपरिणाम है सो केवल पुद्गलबन्ध है, और जीयका औपाधिक मोह-राग-द्वेष रूप पर्यायों के साथ जो एकत्व परिणाम है सो केवल जीवबन्ध है, और जीव तथा कर्मपुद्गल के, परस्पर परिणाम के निमित्तमात्र से, जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभयबंध है। [अर्थात् जीव और कर्मपुद्गल एक दूसरे के परिणाम में निमित्तमात्र हो, ऐसा जो (विशिष्ट प्रकार का) उनका एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है, सो यह पुद्गलजीवात्मक बंध है ॥१७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वनवतरपुड्गलद्रव्यकर्मणोः परस्परबन्धो जीवस्य तु रागादिभाबेन सह बन्धो जीवस्यैव नवतरद्रव्यकर्मणा सह चेति त्रिविधबन्धस्वरूप प्रज्ञापयति १. पुग्गलाणं (ज० वृ.)। २. पुग्गलजीवप्पगो (अ० वृ०) । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] [ पक्षयणसारो फासे हि पुग्गलाणं बंधी स्पर्शः पुद्गलानां बन्धः पूर्वभवत र मुद्गलद्रव्यकर्मणोर्जीवगतरागादिभावनिमित्तेन स्वकीयस्निग्धरूक्षोपादानकारणेन च परस्परस्पर्शसंयोगेन योसौ बन्धः स पुद् गलबन्धः । ओवरस रागमादीहिं जीवस्य रागादिभिनिश्परागपरम चैतन्यरूप निजात्मतत्वभावनाच्युतस्य जीवस्य यद्रागादिभिः सह परिणमनं स जीवबन्ध इति । अण्णोष्णस्वगाहो पुग्गलजीवप्पो भणिदो अन्योन्यस्यावगाहः पुद्गलजीवात्मको भणितः । निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानरहितत्वेन स्निग्धरूक्षस्थानीयरागद्वेषपरिणतजीवस्य बन्धयोग्य स्निग्धरूक्षपरिणामपरिणतपुद्गलस्य च योऽसौ परस्परावगाहलक्षणः स इत्थंभूतबन्धो जीवपुद्गलबन्ध इति त्रिविधबन्धलक्षणं ज्ञातव्यम् ॥ १७७॥ उत्थानिका --- आगे बंध तीन प्रकार है । एक तो पूर्व वद्ध कर्म मुगलों का नवीन पुद्गल कर्मों के साथ बंध होता है। दूसरा जीव का रागादि भाव के साथ बंध होता है । तीसरा उसी जीव का ही नवीन द्रव्य कर्मों से बन्ध होता है, इस तरह तीन प्रकार बन्ध के स्वरूप को कहते हैं— अन्वय सहित विशेषार्थ - ( पुग्गलाणं ) पुद्गलों का ( बन्धो ) बन्ध (फासेहि) स्निग्ध रूक्ष स्पर्श से, (जीवस्स) जीव का बन्ध ( रागमादीहिं) रागादि परिणामों से तथा ( पुग्गल - जीवध्यगो) पुद्गल और जीव का बन्ध (अण्णोष्णं अवगाहो ) परस्पर अवगाहरूप ( भणिदो ) कहा गया है । जीव के रागादि भावों के निमित्त से नवीन पौद्गलिक द्रव्यकर्मों का पूर्व में जीव के साथ बंधे हुए पौद्गलिक द्रव्यकमों के साथ अपने यथायोग्य चिकने रूखे गुण रूप उपादानकारण से जो बंध होता है उसको पुद्गल बंध कहते हैं। वीतराग परम चैतन्यरूप निज आत्मतत्व की भावना से शून्य जीव का जो रागादि भावों में परिणमन करना सो जोवबन्ध है । निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान रहित होने के कारण, स्निग्ध रूक्ष को जगह रागद्वेष में परिणमन होते हुए जीव का बंध योग्य स्निग्ध रूक्ष परिणामों में परिणमन होने वाले पुद्गल के साथ जो परस्पर अवगाहरूप बन्ध है वह जीव पुद्गल बन्ध है । इस तरह तीन प्रकार बन्ध का लक्षण जानने योग्य है ॥ १७७॥ अय द्रव्यबन्धस्य भायबन्धहेतुकत्वमुज्जीवयति - सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पोग्गला' काया । पविसंति जहाजोग्गं चिट्ठेति हि जंति बज्नंति ॥ १७८ ॥ सप्रदेश: स आत्मा तेषु प्रदेशेषु पुद्गलाः कायाः 1 प्रविशन्ति यथायोग्यं तिष्ठन्ति च यान्ति बध्यन्ते ॥ १७८ ॥ अयमात्मा लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वात्सप्रदेशः । अथ तेषु तस्य प्रदेशेषु कायवामनोवगंणालम्बनः परिस्पन्दो यथा भवति तथा कर्मपुद्गलकायाः स्वयमेव परिस्पन्द १. पुग्गला (ज० वृ० । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पययणसारो । [ ४२५ वन्तः प्रविशन्त्यपि तिष्ठन्त्यपि गच्छन्त्यपि च । अस्ति चेज्जीवस्य मोहरागढषरूपो भावो बध्यतेऽपि च । ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य भावबन्धो हेतुः ॥१७॥ भूमिका-भव, यह बतलाते हैं कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध है-- अन्वयार्थ- सः आत्मा] वह आत्मा [सप्रदेशः] सप्रदेशी है, [तेषु प्रदेशेषु] उन प्रदेशों में [पुद्गलाः कायाः] पुद्गल समूह [प्रविशन्ति ] प्रवेश करते हैं, [यथायोग्य तिष्ठन्ति] यथा योग्य रहते हैं. [यान्ति ] निकलते हैं [च] और [बध्यन्ते] बंधते हैं । टीका-यह आत्मा लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेशी होने से सप्रदेशी है। उसके इन प्रदेशों में कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणा का आलम्बन वाला परिस्पन्द (कम्पन) जैसा होता है वैसे परिस्पन्द बाले कर्मपुद्गल के समूह स्वयमेव प्रवेश भी करते हैं, (रहते हैं) और निकलते भी हैं, यदि जीव के मोह-राग-द्वेषरूप भाव हों तो बंधते भी हैं। इसलिये निश्चित होता है कि द्रव्यबन्ध का हेतु भावबन्ध है ॥१७८।। तात्पर्यवृत्ति अथ बन्धो “जीवस्स रागमादीहि" पूर्वसूत्रे यदुक्तं तदेव रागत्वं द्रव्यबन्धस्य कारणमिनि विशेषेण समर्थयति सपदेसो सो अप्पा स प्रसिद्धात्मा लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वात्तावत्सप्रदेश: तेसु पदेसेसु पुग्गला काया तेषु प्रदेशेषु कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलकायाः कर्त्तार: पविसंति प्रविशन्ति । कथम् ? जहाजोग मनोवचनकायवर्गणालम्बनवीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितात्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणयोगानुसारेण यथायोग्यम् । न केवलं प्रविशन्ति चिठति हि प्रवेणानन्तरं स्वकीयस्थितिकालपर्यन्तं तिष्ठन्ति हि स्फुटम् । न केवलं तिष्ठन्ति जंति स्वकीयोदयकाल प्राप्य फलं दत्वा गच्छन्ति । बज्नंति केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपमोक्षप्रतिपक्षभूतबन्धस्य कारणं रागादिकं लब्ध्वा पुनरपि द्रव्यबन्धरूपेण वध्यन्ते च । अत एतदायातं रागादिपरिणाम एव द्रव्यबन्धकारणमिति । अथवा द्वितीयव्याख्यानम्-प्रविशन्ति प्रदेशबन्धास्तिष्ठन्ति स्थितिबन्धाः फलं दत्त्वा गच्छन्त्यनुभागबन्धा बध्यन्ते प्रकृतिबन्धा इति ।।१७८॥ एवं त्रिविधबन्धमुख्यतया सूत्रद्वयेन तृतीयस्थलं गतम् । उत्थानिका-आगे पूर्व सूत्र में "जीवस्स रागमादोहि" इस वचन से जो रागपने को भावबंध कहा था वही द्रव्यबंध का कारण है, ऐसा विशेष करके समर्थन करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ--(सपदेसो) लोकाकाश के समान असंख्यात प्रदेशो होने से प्रदेशवान (सो) वह (अप्पा) आत्मा है (तेसु पदेसे सु) उन प्रदेशों में (पुग्गला काया) कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल पिंड (जहाजोग्ग) योगों के अनुसार (पविसंति) प्रवेश करते हैं, (तिळंति) ठहरते हैं, (य जंति) तथा उक्य होकर जाते हैं (बझंति) तथा फिर भी बंधते हैं। मन, वचन, कायवगंणा के आलम्बन से और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से जो आत्मा Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ। ४२६ ] [ पवयणसारा के प्रदेशों में सकम्पपना होता है उसको योग कहते हैं। उस योग के अनुसार कर्मवर्गणा योग्य पुग़लकाय आस्रवरूप होकर अपनी स्थिति पर्यत ठहरते हैं तथा अपने उपयकाल को पाकर फल देकर उड़ जाते हैं तथा केवल ज्ञानादि अनन्त चतुष्टय की प्रगटतारूप मोक्ष से प्रतिकूल बन्ध के कारण रागादिकों का निमित्त पाकर फिर भी द्रध्यबन्ध रूप से बंध जाते हैं। इससे यह बताया गया कि रामादि परिणाम ही द्रव्यबंध का कारण हैं अथवा इस गाथा से दूसरा अर्थ यह कर सकते हैं कि 'प्रविशन्ति' शब्द से प्रदेशबंध, प्रतिष्ठन्ति' से स्थितिबंध, यान्ति से फल देकर जाते हुए अनुभागबंध और 'बध्यन्ते' से प्रकृतिबन्ध ऐसे चार प्रकार बंध को समझना । इस तरह तीन तरह बंध के कथन की मुख्यता से दो सूत्रों से तीसरा स्थल पूर्ण अथ द्रव्यबन्ध हेतुत्वेन रागपरिणाममात्रस्य भावबन्धस्य निश्चयबन्धत्वं साधयति रत्तो बंधदि कम्मं 'मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिवप्पा । एगो बंध समालो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥१७६॥ रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते कर्मभिः रागरहितात्मा। एष बन्धसमासो जीवानां जानीहि निश्चयतः ॥१७६।। यतो रागपरिणत एवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा बध्यते न वैराग्यपरिणतः, अभिनवेन द्रन्यकर्मणा रागपरिणतो न मुध्यते वैराग्यपरिणत एव, बध्यत एवं संस्पृशतवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च न मुच्यते रागपरिणतः, मुच्यत एवं संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च वैराग्यपरिणतो न बध्यते । ततोऽवधार्यते न्यबन्धस्य साधकतमत्वाद्रागपरिणाम एवं निश्चयेन बन्धः ॥१७६।। भूमिका-अब, यह सिद्ध करते हैं कि-राग परिणाममात्र जो भावबन्ध है, द्रष्यबन्ध का हेतु होने से वही निश्चय से बंध है अन्वयार्थ-[रक्तः] रागी आत्मा [कर्म बध्नाति] कर्म बांधता है, [रागरहितात्मा] राग रहित आत्मा [कर्मभि: मुच्यते] कर्मों से मुक्त होता है-[एषः] यह [जीवानां] जीवों के [बंध समासः] बंध का संक्षेप (कथन) [निश्चयतः] निश्चय से [जानीहि ] जानो। टीका-रागपरिणत जीव ही नवीन द्रव्यकर्म से बंधता है, वैराग्यपरिणत नहीं । रागपरिणत जीव नवीन द्रव्यकर्म से मुक्त नहीं होता, वैराग्यपरिणत ही मुक्त होता है । १. मुचंदि (ज० वृ०)। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२७ पवयणसारो ] रामपरिणत जीव संस्पर्श करने (संबंध में आने वाले नवोन द्रव्यकर्म से बंधता ही है और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्म से मुक्त नहीं होता । वंशव्यपरिणत जीव संस्पर्श करने (संबंध में आने वाले नवीन द्रव्यकर्म से बंधता नहीं है और चिरसंचित पुराने द्रव्यकर्म से मुक्त हो होता है। इससे निश्चित होता है कि द्रव्यबंध का साधकतम ( उत्कृष्ट हेतु ) होने से रागपरिणाम ही निश्चय से बंध है ।। १७६ ॥ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्यबन्धकारणत्वान्निश्चयेन रागादिविकल्परूपो भाववन्ध एव बन्ध इति प्रज्ञापयति रतो बंधदि कम्मं रक्तो बध्नाति कर्म । रक्त एवं कर्म बध्नाति न च वैराग्यपरिणतः मुचवि कम्महिं रामरहिंदप्पा मुच्यते कर्मभ्यां रागरहितात्मा मुच्यत एव शुभाशुभकर्मभ्यां रागरहितात्मा न च बध्यते एसो बंधसमासो एष प्रत्यक्षीभूतो बन्धसंक्षेपः । जीवाणं जीवानां सम्बन्धी जाण णिच्छयवो जानीहि त्वं हे शिष्य ! निश्चयतो निश्चयनयाभिप्रायेणेति । एवं रागपरिणाम एवं बन्धकारणं ज्ञात्वा सनस्तरागादिविकलजाललग विशुदर्शनस्वभाव निजात्मतत्वे निरन्तरं भावना कर्त व्येति ॥ १७६ ॥ ) उत्थानिका- आगे फिर भी प्रगट करते हैं कि निश्चय से रागादि विकल्प ही द्रव्यबन्ध का कारण रूप होने से भावबंध ही बंध हैअन्वय सहित विशेषार्थ --- ( रत्तो रागी जीव हो (कम्मं बंधदि ) कर्मों को बांधता है न कि वैराग्यवान तथा ( रागरहिदप्पा ) रागरहित अर्थात् वैराग्य सहित आत्मा (कम्मे मुचंदि) कर्मों से छूटता ही है, वह रागरहित अर्थात् वैरागी शुभ अशुभ कर्मों से बंधता नहीं है (जीवाणं एसो बंधसमासो) यह जीव संबंधी प्रगट बंध तत्त्व का संक्षेप है (च्छियदो जाण ) हे शिष्य ! निश्चयनय के अभिप्राय से ऐसा जान। इस तरह राग परिणाम को ही बंध का कारण जान करके सर्व रागादि विकल्प जालों का त्याग करके विशुद्धज्ञान दर्शन स्वभावधारी निज आत्मतत्व में निरन्तर भावना करनी योग्य है ॥ १७६ ॥ अथ परिणामस्य द्रव्यबन्धसाधकतम रागविशिष्टत्वं सविशेषं प्रकटयति-परिणामादो बंधो परिणामो रागबोसमोहज़दो । असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ॥ १८० ॥ परिणामाबन्धः परिणामो रागद्वेषमोहयुतः । अशुभौ मोहप्रद्वेषी शुभो बाशुभो भवति रागः ।। १८० ।। द्रव्यबन्धोऽस्ति तावद्विशिष्टपरिणामात् । विशिष्टत्वं तु परिणामस्य रामदेवमोहमयत्वेन । तच्च शुभाशुभत्वेन द्वैतानुवति । तत्र मोहद्वेषयत्वेनाशुभत्वं, रागमयत्वेन तु शुभत्वं चाशुभत्वं च । विशुद्धिसंक्लेशाङ्गत्वेन रागस्य द्वैविध्यात् भवति ॥ १८०॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] [ पवयणसारो भूमिका—अब परिणाम का द्रव्यबंध के साधकतम राग से विशिष्टत्व सविशेष प्रगट करते हैं अर्थात् यह भेद तहत प्रकट करतो है कि परिणाम हव्यबंध के उत्कृष्ट हेतु भूत राग से विशेषता वाला होता है। अन्वयार्थ-[परिणामात् बंध:] परिणाम से बंध है, [परिणामः रागद्वेषमोहयुतः] वह परिणाम राग द्वेष-मोहयुक्त है। [मोहप्रद्वेषौ अशुभौ] (उनमें से) मोह और द्वेष अशुभ हैं, [रागः] राग [शुभः वा अशुभः] शुभ अथवा अशुभ [भवति] होता है । टीका---प्रथम तो द्रव्यबध विशिष्ट परिणाम से होता है । परिणाम की विशिष्टता राग द्वेष-मोह-मयता के कारण है । वह शुभत्व और अशुभत्व के कारण द्वैत का अनुसरण करता है । (अर्थात वो प्रकार का है), उसमें से मोह-वैषमयता से अशुभत्य होता है, और रागमयता से शुभत्व तथा अशुभत्व होता है, क्योंकि राग विशुद्धि तथा संक्लेशयुक्त होने से । दो प्रकार का होता है। तात्पर्यवृत्ति अथ जीवपरिणामस्य द्रव्यबन्धसाधकं रागाद्युपाधिजनितभेदं दर्शयति परिणामादो बंधो परिणामात्सकाशाद्बन्धो भवति । स च परिणामः किविशिष्टः ? परिणामो रागदोसमोहजुदो वीतरागपरमात्मनो विलक्षणत्वेन परिणामो रागद्वेषमोहोपाधित्रयेण संयुक्तः असुहो मोहपदोसो अशुभौ मोहप्रद्वेषौ परोयाधिजनितपरिणामत्रयमध्ये मोहलद्वेषद्वयमशुभम् । सुहो व असुहो हवदि रागो शुभोशुभो वा भवति रागः । पञ्चपरमेष्ठ्यादिभक्तिरूपः शुभराग उच्यते, विषयकषायरूपश्चाशुभ इति । अयं परिणामः सर्वोऽपि सोपाधित्वान् बन्धहेतुरिति ज्ञात्वा बन्धे शुभाशुभसमस्तरागद्वेषविनाशार्थ समस्तरागाद्युपाधिरहिते सहजानन्दकलक्षणसुखामृतस्वभावे निजात्मद्रव्ये 'भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ॥१८॥ उत्थानिका-आगे द्रव्यबंध का साधक जो जीव का रागादि रूप औपाधिक परिणाम है उसके भेद को दिखाते हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ—(परिणामादो) परिणामों से (बंधो) बंध होता है। (परिणामो) परिणाम (रागदोसमोहजुदो) रागद्वेष मोह युक्त होता है (मोहपदोसो) मोह और वेष (असुहो) अशुभ हैं । (रागो) राग (सुहो) शुभ (व असुहो) व अशुभ रूप (हवदि) होता है । वीतराग परमात्मा के परिणाम से विलक्षण परिणाम रागद्वेष मोह को उपाधि से तीन प्रकार का होता है । इनमें से मोह और द्वेष दोनों तो अशुभ ही हैं । राग शुभ तथा अशुभ के भेद से दो प्रकार का होता है। पंचपरमेष्ठी आदि की भक्ति में राग शभ (प्रशस्त) राग कहा जाता है। जबकि विषय कषायों में राग अशुभ (अप्रशस्त) राग होता है । यह Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारी ] [ ४२६ तीन ही प्रकार का परिणाम सर्व प्रकार से हो उपाधि सहित है इसलिये बंध का कारण है। ऐसा जानकर प्रशस्त तथा अप्रशस्त समस्त राग द्वेष के नाश करने के लिये सर्व रामावि की उपाधि से रहित सहजानन्दमयी एक लक्षणधारी सुखामृतस्वभावमयी निज आत्मद्रव्य में ही भावना करनी योग्य है, यह तात्पर्य है ॥१८०॥ भावार्थ-पंचपरमेष्ठी की भक्ति अर्थात पंचपरमेल्ली के जो रत्नरय रूप गुण व वीतरागता में जो रुचि, प्रतीति तथा गुणानुवाद है वह संवर व निर्जरा के कारण हैं तथा इससे सम्यग्दर्शन निर्मल होता है। भक्ति के समय कर्मोदय से जो मंद कषाय रूप राग होता है वह शुभ राग यद्यपि अल्प बंध का कारण है तथापि परम्परा से मोक्ष का कारण है। भक्ति शुभ राग नहीं है, किन्तु मोक्ष सुख का कारण है । स्वयं श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने इसी प्रवचनसार में गाथा ७६ के पश्चात् गाथा ७६/१ में कहा हैतं देवदेवदेवं जविवरवसहं गुरु तिलोयस्स । पणमति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ॥७६/१॥ अर्थात-जो भगवान को प्रणाम करते हैं अथवा आराधना करते हैं वे मनुष्य अक्षय सुख (मोक्ष) को पाते हैं। भावपाहड़ में भी श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा है-- जिणवर चरणंबुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण । ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्येण ॥१५३॥ अर्थात्-जे पुरुष परम भक्ति अनुराग करि जिनवर के चरण कमलति कं नम हैं ते श्रेष्ठ भाव रूप शस्त्र करि जन्म (संसार) रूपी बेलि ताका मूल जो रागद्वेष मोह आदि कर्म को हणे (नाश करे) हैं। श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने मूलाचार में भी कहा है __"भत्तीए जिणवराणं खोयदि जं पुटवसंचियं कम्मं ।" अर्थ-जिनवर की भक्ति से पूर्व संचित कर्म का नाश होता । ___"चैत्यगुरुप्रवचनपूजादिलक्षणा सम्यक्त्वधिनी क्रिया [स० सि०] अर्थ-चत्य (जिन-बिम्ब), गुरु और शास्त्र की पूजा आदि क्रिया सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली (निर्मल करने वाली) है । इस प्रकार जिनेन्द्र-भक्ति शुभ राग या मात्र बंध की कारण नहीं है अपितु मोक्ष की भी कारण है ॥१८०॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ] [ पवयणसारो ___ अथ विशिष्टपरिणामविशेषमविशिष्टपरिणामं च कारणे कार्यमुपवयं कार्यत्वेन निविंशति सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पाव त्ति भणिद मण्णेसु' । परिणामो पारणगयो दुखकारण समये ।।८१॥ शुभपरिणामः पुण्यमशुभः पापमिति भणितमन्येषु । परिणामोऽनन्यगतो दुःखक्षयकारणं समये ॥१८॥ द्विविधस्तावत्परिणामः परद्रव्यप्रवृत्तः स्वद्रव्यप्रवृत्तश्च । तत्र पर द्रव्यप्रवृत्तः परोपरक्तत्वाद्विशिष्टपरिणामः, स्वद्रव्यप्रवृत्तस्तु परानुपरफ्त्तत्वादविशिष्ट परिणामः । तत्रोक्तौ तो विशिष्टपरिणामस्य विशेषी, शुभपरिणामोऽशुभपरिणामश्च । तत्र पुण्यपुद्गलबन्धकारणत्वात् शुभपरिणामः पुण्यं, पापपुद्गलबन्धकारणत्वावशुभपरिणामः पापम् । अविशिष्टपरिणामस्य तु शुद्धत्वेनैकत्वान्नास्ति विशेषः । स काले संसारदुःखहेतुकर्मपुद्गलक्षयकारणत्वात्संसारदु:खहेतुकर्मपुद्गलक्षयात्मको मोक्ष एव ॥१८॥ भूमिका-अब विशिष्ट परिणाम के भेद को तथा अविशिष्ट परिणाम को, कारण में कार्य का उपचार करके कार्य रूप से बतलाते हैं अन्वयार्थ- [अन्येषु] पर के प्रति [शुभ परिणामः] शुभ परिणाम [पुण्यम् ] पुण्य है, और [अशुभः] अशुभ परिणाम [पापम्] पाप है, [इति भणितम्] ऐसा कहा है, [अनन्यगतः परिणामः] जो दूसरों के प्रति प्रवर्तमान नहीं है ऐसा परिणाम [समये] समय पर [दुःखक्षयकारणम्] दुःख क्षय का कारण है। टीका-प्रथम तो परिणाम दो प्रकार का है-परद्रव्यप्रवृत्त और स्वद्रव्यप्रवृत्त । इनमें से परद्रव्यप्रवृत्त परिणाम परके उपरक्त (परके निमित्त से विकारी) होने से विशिष्ट परिणाम है, और स्वद्रव्यप्रवृत्त परिणाम परके द्वारा उपरक्त न होने से अविशिष्ट परिणाम है; उसमें विशिष्ट परिणाम के पूर्वोक्त दो भेद हैं-शुभ परिणाम और अशुभ परिणाम । उनमें पुण्यरूप पुद्गल के बंध का कारण होने से शुभ-परिणाम पुण्य है, और पापरूप पुद्गल के बंध का कारण होने से अशुभ परिणाम पाप है। अविशिष्ट परिणाम तो शुद्ध होने से एक है, इसलिये उसके भेद नहीं हैं। वह (अविशिष्ट परिणाम) यथाकाल संसार दुःख के हेतुभूत कर्मपुद्गल के क्षय का कारण होने से संसार दुःख के हेतुभूत कर्मपुगल का क्षयस्वरूप मोक्ष ही है ॥१८॥ १. भणियं (ज० ३०)। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारी ] [ ४३१ तात्पर्यवत्ति अथ द्रव्यरूपपुण्यपापबन्धकारणत्वाच्छुभाशुभपरिणामयोः पुण्यपापसंज्ञां शुभाशुभरहितशुद्धोपयोगपरिणामस्य मोक्षकारणत्वं च कथयति ___ सुहपरिणामो पुण्ण द्रव्यपुण्यबपधकारणत्वाच्छुभपरिणामः पुण्यं भव्यते असुहो पावत्ति भणियं द्रव्यपापबन्धकारणत्वादशुभपरिणामः पापं भण्यते । केषु विषयेषु योऽसौ शुभाशुभपरिणाम: ? अण्णेसु निजशुद्धात्मनः सकाशादन्येषु शु'भाशुभबहिर्द्रव्येषु परिणामो णण्णगदो परिणामो नान्यगतोऽनन्यगत: स्वस्वरूपस्थ इत्यर्थः । स इत्थंभूतः शुद्धोपयोगलक्षणः परिणाम: दुक्खक्खयकारणं दुःखक्षयकारणं दुःखक्षयाभिधानमोक्षस्य कारणं भणितः । क्व भणितः ? समये परमागमे लब्धिकाले वा। लिंच । मिथ्यादष्टिसासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभपरिणामो भवतीति पूर्व भणितमस्ति, अविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतसंज्ञगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभपरिणामएच भणित:, अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुणस्थानेषु तारतम्येन शुद्धोपयोगोऽपि भणितः। नयविवक्षायां मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तगुणस्थानेषु पुनरशुद्धनिश्चयनयो भवत्येव । तत्राशुद्धनिश्चयमध्ये शुद्धोपयोग: कथं लभ्यत इति शिष्येण पूर्वपक्षे कृते सति प्रत्युत्तरं ददाति--वस्त्वेकदेशपरीक्षा तावन्नयलक्षणं शुभाशुभशुद्धद्रव्यालम्बनमुपयोगलक्षणं । चेति तेन कारणेनाशुद्धनिश्चयमध्येऽपि शुद्धात्मावलम्बनत्वात् शुद्धध्येयत्वात् शुद्धसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगपरिणामो लभ्यत इति नयलक्षणमुपयोगलक्षणं च यथासम्भवं सर्वत्र ज्ञातव्यम् । अत्र' योसौ रागादिविकल्पोपाधिरहितसमाधिलक्षणशुद्धोपयोगो मुक्तिकारण भणित: स शुद्धात्मद्रव्यलक्षणाद्ध्येयभूताच्छुद्धपारिणामिकभावादभेदप्रधानद्रव्याथिकनयेनाभिन्नोऽपि भेदप्रधानपर्यायाथिकनयेन भिन्नः कस्मादिति चेत् ? अयमेकदेश निरावरणत्वेन क्षायोपशमिकखण्डज्ञानव्यक्तिरूप: स च पारिणामिकः सकलावरणरहितत्वेनाखण्डज्ञानव्यक्तिरूपः । अयं तु सादिसान्तत्वेन विनश्वरः, स च अनाद्यनन्तत्वेनाविनश्वरः। यदि पुनरेकान्तेनाभेदो भवति तहि घटोत्पत्तौ मृत्पिण्डविनाशवद् ध्यानपर्यायविनाशे मोक्षे जाते सति ध्येयरूपपारिणामिकस्यापि विनायो भवतीत्यर्थः । तत एव जायते शुद्धपारिणामिकभावो ध्येयरूपो भवति ध्यानभावनारूपो न भवति । कस्मात् ? ध्यानस्य विनश्वरत्वा दिति ।।१८१॥ एवं द्रव्यबन्धकारणत्वात् मिथ्यात्वरागादिविकल्परूपो भावबन्ध एव निश्चयेन बन्ध इति कथनमुख्यतया गाथात्रयेण चतुर्थस्थलं गतम् ।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि द्रव्य रूप पुण्य पाप बन्ध का कारण होने से शुभ अशुभ परिणामों को पुण्य पाप की संज्ञा है तथा शुभ अशुभ से रहित शुद्धोपयोगमय परिणाम मोक्ष का कारण है___अन्वय सहित विशेषार्थ-(अण्णेसु) अपने आत्मा से अन्य द्रव्यों में (सुहपरिणामो) शुभ रागरूप भाव (पुण्णं) द्रव्य पुण्य बन्ध का कारण होने से भाव पुण्य है (असुहो) व अशुभ रागरूप भाव (पावत्ति भणियं) द्रव्य पाप बन्ध का कारण होने से भाव पाप कहा है तथा (अणण्णगदो परिणामो) अन्य द्रव्य में नहीं रमता हुआ स्वस्वरूपस्थ शुद्धभाव Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] [ पत्रयणसारो (दुक्खक्खयकारणं) संसार के दुःखों के क्षय का कारण भाव है ऐसा (समये) परमागम में कहा है। अपने शुद्धात्मा से भिन्न सर्व शुभ व अशुभ द्रव्य हैं। इन द्रव्यों के सम्बन्ध में रहता हुआ जो शुभमाय है वह पुण्य है और जो अशुभभाव है वह पाप है तथा शुद्धोपयोगरूप भाव मोक्ष का कारण होने से शुद्धभाव है ऐसा परमागम में कहा है अथवा ये भाव यथासंभव लब्धिकाल में होते हैं। विस्तार यह है कि मिथ्यावृणिः, सा और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में अर्थात् तारतम्य से कमती-कमती अशुभ परिणाम होता है ऐसा पहले कहा जा चुका है । अविरत सम्यक्त्व, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से शुम परिणाम कहा गया है तथा अप्रमत्त गुणस्थान से क्षीणकषाय नामक बारहवे गुणस्थान तक तारतम्य से शुद्धोपयोग ही कहा गया है। नय की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से क्षीणकषाय तक के गुणस्थानों में अशुद्ध निश्चयनय ही होता है। इस अशुद्ध निश्चय नय के विषय में शुद्धोपयोग कैसे प्राप्त होता है ऐसा पूर्वपक्ष शिष्य ने किया। उसका उसर देते हैं-वस्तु के एक देश की परीक्षा यह नय का लक्षण है। शुभ, अशुभ व शुद्ध द्रव्य के आलम्बनरूप भाव को शुभ, अशुभ व शुद्ध उपयोग कहते हैं। यह उपयोग का लक्षण है। इस कारण से अशुद्ध निश्चयनय के मध्य में भी शुद्धात्मा का आलम्बन होने से व शुद्ध ध्येय होने से वह शुद्ध का साधक होने से उपचार से शुद्धोपयोग परिणाम प्राप्त होता है। इस तरह नय का लक्षण और उपयोग का लक्षण यथासंभव सर्व जगह जानने योग्य है। यहां जो कोई रागावि विकल्प की उपाधि से रहित समाधि लक्षणमयी शद्धोपयोग को मुक्ति का कारण कहा गया है सो शुद्धात्मा द्रव्य लक्षण जो ध्येयरूप शुद्ध पारिणामिक भाव है उससे अभेद प्रधान द्रव्याथिकनय से अभिन्न होने पर भी भेवप्रधान पर्यायार्थिक नय से भिन्न है । इसका कारण यह है कि यह जो समाधिलक्षण शुद्धोपयोग है वह एकदेश आवरण रहित होने से क्षायोपमिक खंडज्ञान का व्यक्तिरूप है तथा वह शुद्धात्मारूप शुद्ध पारिणामिकभाव सर्व आवरण से रहित होने के कारण से अखंड ज्ञान का व्यक्तिरूप है। यह समाधिरूप भाव आदि व अन्त सहित होने से नाशवान है, वह शुद्ध पारिणामिकभाव अनादि व अनंत होने से अविनाशी है । यदि एकांत से अभेद हो तो जैसे घट की उत्पत्ति में मिट्टी के पिंड के नाश की तरह ध्यान पर्याय के नाश होने पर व मोक्ष अवस्था के उत्पन्न होने पर ध्येयरूप पारिणामिक का भी विनाश हो जायगा, सो ऐसा है नहीं । मिट्टी के पिंड से जैसे घट अवस्था की अपेक्षा भेद है मिट्टी की अपेक्षा अभेद है बसे ध्यान पर्याय Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 [ ४३३ ध्येय भाव का अवस्था को अपेक्षा भेव है जब कि आत्म-द्रव्य की अपेक्षा अभेद है । इसी से जाना जाता है कि शुद्ध पारिणामिकभाव ध्येयरूप है, ध्यान-भावनारूप नहीं है क्योंकि ध्यान नाशवंत है ।। १५१ ।। भावार्थ- शुभ राग यद्यपि पुण्य बन्ध का कारण है तथापि वह शुभ राग व पुष्प मोक्ष का कारण है । विधुततमसो रागस्तपः श्रुतनिबन्धनः । सन्ध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदयाय सः ॥१२२॥ [आत्मानुशासन ] अर्थ - जिसने अज्ञान अन्धकार दूर कर दिया है ऐसे जीव के तप शास्त्रादिकसम्बन्धी रागभाव है तो कल्याण के उदय के लिये ही है। जैसे सूर्य की प्रभातकाल सम्बन्धी रक्तता रात्रि सम्बन्धी अन्धकार का नाश कर प्रकाश के लिये कारण है । "लोहो सया पेज्जं तिरयणसाहण विसयलोहादो सग्गापवगाणमुत्पत्ति दंसणादो ।" ० ३६९] अर्थ - लोभ कथंचित् पेज्ज (राग) है, क्योंकि रत्नत्रय के साधन विषयक लोभ से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति देखी जाती है ॥ १५१ ॥ इस तरह द्रव्यबंध का कारण होने से मिथ्यात्व रागादि विकल्परूप भावबन्ध ही निश्चय से बन्ध है ऐसे कथन को मुख्यता से तीन गाथाओं के द्वारा चौथा स्थल समाप्त हुआ अथ जीवस्य स्वपरद्रव्यप्रवृत्तिनिवृत्तिसिद्धये स्वपरविभागं दर्शयतिभणिदा पुढविष्पमुहा जीवणिकायाध थावरा य तसा । अण्णा ते जीवादी जोवो वि य तेहिंदो अण्णो ।। १८२ ॥ भणिताः पृथिवीप्रमुखा जीवनिकाया अथ स्थावराश्च त्रसाः । अन्ये ते जीवाज्जीवोऽपि च तेभ्योऽन्यः ॥१८२॥ य एते पृथिवीप्रभृतयः षड्जीवनिकायास्त्र सस्थावरभेदेनाभ्युपगम्यन्ते ते खल्दचेतनत्वादन्ये जीवात्, जीवोऽपि च चेतनत्वावन्यस्तेभ्यः । अत्र षड्जीवनिकायात्मनः परद्रव्यमेक एवात्मा स्वद्रव्यम् ॥ १८२ ॥ भूमिका – अब, जीव की स्वथ्य में प्रवृत्ति और परद्रव्य से निवृत्ति की सिद्धि के लिये स्वपर का विभाग बतलाते हैं अन्वयार्थ ---- [ अथ ] अब जो [ पृथिवीप्रमुखाः ] पृथ्वी आदि प्रमुख [ जीवनिकायाः ] जीवनिकाय (स्थावराः च त्रसाः ] स्थावर और त्रस [ भणिताः ] कहे गये हैं, [ते] वे Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ ] [ पवयणसारो जीवात जीव को अन्य हैं, [1] और [जीव: अपि] जीव भी [तेभ्यः अन्यः] उनसे अन्य है। टीका--जो यह पृथ्वी इत्यावि षट् जीवनिकाय सस्थावर के भेदपूर्वक माने जाते हैं, वे वास्तव में अचेतनत्व के कारण जीव से अन्य हैं, और जीव भी चेतनत्व के कारण उनसे अन्य है । यहाँ (यह कहा है कि आत्मा के षट् जीवनिकाय परद्रव्य हैं, एक आत्मा ही स्वद्रव्य है.॥१२॥ तात्पयत्ति अथ जीवस्य स्वद्रव्यप्रवृत्तिपरद्रव्यनिवृत्तिनिमित्तं षड्जीबनिकायः सह भेदविज्ञानं दर्शयति, भणिवा पुढविप्पमुहा भणिताः परमागमे कथिताः पृथिवीप्रमुखाः । ते के ? जीवणिकाया जीवसमूहाः अध अथ । कथंभूताः ? थावरा य तसा स्थावराश्च वसाः । ते च किविशिष्टाः ? अण्णा ते अन्ये भिन्नास्ते । कस्मात् ? जीवादो शुद्धबुद्धकजीवस्वभावात्। जीवोवि य तेहिंदो अपणो जीवोऽपि च तेभ्योऽन्य इति । तथाहि टोत्कीर्णज्ञायकैनास्वभावपरमात्मतत्त्वभाबनारहितेन जीवेन यदुपाजितं प्रसास्थावरनामकर्म तदुदयजनितत्वादचेतनत्वाच्च बसस्थावरजीवनिकायाः शुद्धचैतन्यस्वभावजीवाद्भिन्ना:। जीवोऽपि च तेभ्यो विलक्षणत्वाद्भिन्न इति । अव भेदविज्ञाने जाते सति मोक्षार्थी जीवः स्बद्रव्ये प्रवृत्ति परद्रव्ये निवृत्ति च करोतीति भावार्थः ॥१८॥ उत्थानिका-आगे इस जीव की अपने आत्मद्रव्य में प्रवृत्ति और पर द्रव्यों से निवृत्ति के कारण छ; प्रकार जीवकायों से भेदविज्ञान दिखलाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुढविप्पमुहा) पृथ्वी को आदि लेकर (जीवणिकाया) जीवों के समूह (अध थावरा य तसा) अर्थात् पृथ्वोकायिक आदि पांच स्थावर और द्वीन्द्रियादि त्रस (मणिदा) जो परमागम में कहे गए हैं (ते जीवादो अण्णा) ये सब शुद्धबुद्ध एक जीव के स्वभाव से भिन्न हैं (जीवो वि य तेहिंदो अण्णो) तथा यह जीव भी उनसे भिन्न है। टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावरूप परमात्मतत्त्व की भावना को न पाकर इस जीव ने जो अस या स्थावर नाम कम बांधा है उसके उदय से उत्पन्न होने के कारण अचेतन होने से ये उस स्थावर जीयों के समूह शुद्ध चैतन्य स्वभावधारी जीव से मिन्न हैं । जीव भी उनसे विलक्षण होने से उनसे भिन्न है। यहां यह प्रयोजन है कि इस तरह के भेदविज्ञान हो जाने पर मोक्षार्थी जीव अपने निज आत्मद्रव्य में प्रवृत्ति करता है और परद्रव्य से अपने को हटाता है ।।१२।। अथ जीवस्य स्वपरद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन स्वपरविभागज्ञानाशाने अवधारयति जो णवि जागदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज्ज । कीरवि अज्सवसाणं अहं ममेदं ति मोहादो ॥१८३॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४३५ यो नैव जानात्येवं परमात्मानं स्वभावमासाद्य । कुरुतेऽध्यवसानमहं ममेदमिति मोहात् ।।१८६।। यो हि नाम नवं प्रतिनियतवेतनाचेतनत्वस्वभावेन जीवपुद्गलयोः स्वपरविभागं पश्यति स एवाहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन परद्रव्यमध्यवस्यति मोहान्नान्यः । अतो जीवस्य परब्रव्यप्रवृत्तिनिमिसं स्वपरपरिच्छेदाभावमात्रमेव सामर्थ्यात्स्यद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तं तदभावः ॥१८३॥ भूमिका--अब, यह निश्चित करते हैं कि-जीव को स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्वपर के विभाग का ज्ञान है, और परद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्व-पर के विभाग का अज्ञान है अन्वयार्थ-[यः] जो [एवं] इस प्रकार [स्वभावम् आसाद्य] स्वभाव को प्राप्त करके (जीव-पुद्गल के स्वभाव को निश्चित करके) [परम् आत्मानं] परको और स्वको [न एव जानाति जानता ही नही, [मोहात्] वह मोह से [अहम् ] यह मैं हूं, [इदं मम] यह मेरा है' [इति] इस प्रकार [अध्यवसान] अध्यवसान [कुरुते करता है । टीका—जो आत्मा इस प्रकार (अपने-अपने) निश्चित चेतनत्व और अचेतनत्वरूप स्वभाव के द्वारा जीव और पुद्गल के स्वपर के विभाग को नहीं देखता, वहीं आत्मा 'यह मैं हूँ, यह मेरा है, इस प्रकार मोह से परद्रव्य में अपनेपन का मध्यवसान करता है। दूसरा नहीं। इससे (यह निश्चित हुआ कि) जीव को परद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्वपर के ज्ञान का अमावमात्र ही है, और (कहे बिना भी) सामर्थ्य से (यह निश्चित हुआ कि) स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त उसका अभाव (स्वपर के ज्ञान के अमाव का अमाव-स्वपर के ज्ञान का सद्भाव है) ॥१८३॥ तात्पर्यवृत्ति अथैतदेव भेदविज्ञान प्रकारान्तरेण दृढयति, जो णवि जाणवि एवं यः कर्ता नैव जानात्येवंपूर्वोक्तप्रकारेण । क ? परं षड्जीवनिकायादिपरद्रव्यम् अप्पाणं निर्दोषिपरमात्मद्रव्यरूपं निजात्मानम्। किंकृत्वा ? सहायमासेज्ज शुद्धोपयोगलक्षणनिजशुद्धस्वभावमाश्रित्य कीरदि अज्झवसाणं स पुरुषः करोत्यध्यवसानं परिणामं । केन रूपेण ? अहं ममेदत्ति ममकाराहकारादिरहितपरमात्मभावनाच्युतो भूत्वा परद्रव्यं रागादिकमहर्मिति देहादिक भमेतिरूपेण । कास्मात् ? मोहादो मोहाधीनत्वादिति । तत: स्थितमेतत्स्वपरभेदविज्ञानबलेन स्वसंवेदनज्ञानी जीवः स्वद्रव्ये रति परद्रव्ये निवृति करोतीति ॥१८३।। एवं भेदभावनाकथनमुख्यतया सूत्रद्वयेन पञ्चमस्थलं गतम् । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ॥ [ पवयणसारो उत्थानिका-आगे इसी ही भेदविज्ञान को अन्य तरह से दृढ़ करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई (सहा) निज स्वभाव को (आसेज्ज) आश्रय करके (पर अप्पाणं एव) पर को और आत्मा को इस तरह भिन्न-भिन्न (णवि जाणवि) नहीं जानता है वही (मोहावो) मोह के निमित्त से (अहं ममेदंत्ति) 'मैं इस पर रूप हूँ या यह पर मेरा है ऐसा (अज्मवसाणं कीरवि) अध्यवसान करता है। जो कोई शुद्धोपयोग लक्षण निज स्वभाव को आश्रय करके पूर्व में कहे प्रमाण छः काय के जीव समूहादि परद्रयों को और निर्दोष परमात्मद्रव्य स्वरूप निज आत्मा को भिन्न-भिन्न नहीं जानता है वह ममकार व अहंकार आदि से रहित परमात्मा की भावना से रहित मोह के अधीन होकर यह परिणाम किया करता है कि मैं रागावि परद्रयरूप हूँ या यह शरीरादि मेरा है। इससे यह सिद्ध हुआ कि इस तरह के स्वपर के भेदविज्ञान के बल से स्वसंवेदन जानी जीच अपने आत्म-द्रव्य में प्रीति करता है और परद्रव्य से निवृत्ति करता है ॥१८३।। - . इस तरह भेद भावना के कथन की मुख्यता करके यो सूत्रों में पांचमा स्थल पूर्ण हुआ। अथात्मनः कि कति निरूपयति कुव्वं सभावमादा हदि हि कता सगस्स भावस्स । "पोग्गलदव्वमयाणं ण दुकत्ता सव्वभावाणं ॥१८४॥ कुर्वन् स्वभावमात्मा भवति हि कर्ता स्त्रकस्य भावस्य । पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्ता सर्वभावानाम् ।। १८४।। आत्मा हि तावत्स्वं भावं करोति तस्य स्वधर्मवादात्मनस्तथामवनशक्तिसंभवेनावश्यमेव कार्यत्वात् । स तं च स्वतन्त्रः कुर्वाणस्तस्य कविश्यं स्यात्, क्रियमाणश्चात्मना स्वो मावस्तेनाप्यत्वात्तस्य कर्मावश्यं स्यात् । एवमात्मनः स्थपरिणामः कर्म न त्वात्मा पुद्गलस्य भावान् करोति तेषां परधर्मत्वादात्मनस्तथाभवनशक्यसंभवेनाकार्यत्वात् स तानकुर्वाणो न तेषां कर्ता स्यात् अक्रियमाणाश्चात्मना ते न तस्य कर्म स्युः । एवमात्मनः पुद्गलपरिणामो न कर्म ॥१४॥ भूमिका-अब, यह निरूपण करते हैं कि आत्मा का कर्म क्या है अन्वयार्थ-[स्वभावं कुर्वन् ] अपने भाव को करता हुआ [आत्मा] आत्मा [हि] वास्तव में [स्वकस्य भावस्य] अपने भाव का [कर्ता भवति ] कर्ता है, [तु] परन्तु [पुद्गलद्रव्यमयानां सर्व-भावानां] पुद्गल द्रव्यमय सर्व भावों का [कर्ता न] कर्ता नहीं है। १. सहावमादा (ज० ७०)। . पुग्गलदश्वमयाणं (ज० ७०) । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४३७ टीका - प्रथम तो आत्मा वास्तव में स्व ( अपने ) भाव को करता है क्योंकि वह (भाव) उस आत्मा का स्व धर्म है। आत्मा के उस रूप होने की ( परिणमित होने को ) शक्ति होने से वह (भाव) अवश्यमेव आत्मा का कार्य है (इस प्रकार ) वह (आत्मा) उसे ( स्वत्व को ) स्तन्त्रता करता हुआ उनका कर्ता अवश्य है, और स्वभाव आत्मा के द्वारा किया जाता हुआ आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से अवश्य ही आत्मा का कर्म है । इस प्रकार स्व परिणाम आत्मा का कर्म है । परन्तु आत्मा पुद्गल के भावों को नहीं करता, क्योंकि वे पर के धर्म हैं। आत्मा के उस रूप (परिणत ) होने की शक्ति न होने से, उन्हें न करता हुआ उनका कर्ता उसके कर्म नहीं हैं। इस प्रकार आत्मा के कार्य नहीं हैं। ( इस प्रकार ) वह ( आत्मा ) नहीं होता, और वे आत्मा के द्वारा न किये जाते हुये पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म नहीं है ।। १८४ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथात्मनो निश्चयेन रागादिस्वपरिणाम एव कर्म न च द्रव्यकर्मेति प्ररूपयति कुवं सहावं कुर्वन्स्वभावम्, अत्र स्वभावशब्देन यद्यपि शुद्ध निश्चयेन शुद्धबुद्धकस्वभावो भण्यते तथापि कर्मबन्धप्रस्तावे रागादिपरिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भव्यते । तं स्वभावं कुर्वन् । स कः ? आदा आत्मा हवि हि कत्ता कर्त्ता भवति हि स्फुटम् । कस्य ? सगस्स भावस्स स्वकीयचिद्रूपस्वभावस्य रागादिपरिणामस्य तदेव तस्य रागादिपरिणामरूपं निश्चयेन भावकर्म भव्यते । कस्मात् ? तप्तायः पिण्डवत्तेनात्मना प्राप्यत्वादुच्याप्यत्वादिति । घुग्गलदव्यमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावानं चिद्रूपात्मनो विलक्षणानां पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्त्ता सर्वभावानां ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मपर्यायाणामिति । ततो ज्ञायते जीवस्य रागादिस्वपरिणाम एव कर्म तस्यैव स कर्त्तेति ।।१८४ ।। उत्थानिका— आगे कहते हैं कि आत्मा अपने ही परिणामों का कर्ता है, द्रव्यकमों का कर्ता नहीं है— अशुद्धनिश्चय से रागादि भावों का व शुद्धनिश्चय से शुद्ध वीतराग भाव का कर्ता है अन्वय सहित विशेषार्थ - ( आदा) आत्मा ( सहायं कुथ्यं ) अपने भाव को करता हुआ ( सगस भावस्स) अपने भाव का (हि) ही (कत्ता हर्यादि) कर्त्ता होता है। ( दुग्गलदध्वमयाणं सव्वभावाणं ) पुद्गल द्रव्य से बनी हुई सर्व अवस्थाओं का ( ण दु कत्ता ) तो कर्त्ता नहीं है । स्वभाव शब्द से यद्यपि शुद्ध निश्चयनय से शुद्धबुद्ध एक स्वभाव ही कहा जाता है तथापि यहां स्वभाव शब्द से कर्मबन्ध के प्रस्ताव में अशुद्ध निश्चयनय से रामादि परिणाम को भी स्वभाव कहते हैं। यह आत्मा इस तरह अपने भाव स्वभाव रूप रागादि परिणाम का ही प्रगटपने कर्ता है से उसका भावकर्म कहा जाता है। जैसे गर्म लोहे में को करता हुआ अपने ही चिद्रूप और वह रामावि परिणाम निश्चय उष्णता व्याप्त है वैसे आत्मा उन Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ । [ पवयणसारो रागादि भावों में व्याप्त हो जाता है। तथा चैतन्य रूप से विलक्षण पुद्गल द्रव्यमयी सर्व भावों का-ज्ञानावरणीय आदि कर्म की पर्यायों का तो यह आत्मा कभी भी कर्ता होता नहीं । इससे जाना जाता है कि रागादि अपना परिणाम ही कर्म है जिसका ही यह जीव कर्ता है ॥१८४॥ भावार्थ-श्री नेमिचन्द्रसिद्धांतचक्रवर्ती ने भी द्रव्यसंग्रह में जीव का फर्तापना इस तरह बताया हैपुग्गलकम्मादोणं कत्ता ववहारवो दु णिच्चयदा । चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुखभावाण ॥ यह आत्मा व्यवहार नय से जानावरणीय आदि पौगलिक कर्मों का कर्ता है परन्तु अशुद्ध निश्चय से रागादि भावों का कर्ता है और शुद्ध निश्चयनय से यह शुद्ध चेतन भावों का कर्ता है ॥१४॥ अथ कथमात्मनः पुद्गल परिणामो न कर्म स्यादिति संदेहमपनुवति गेण्हदि व ण मुचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि'कम्माणि । जीवो 'पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु ॥१८॥ गृह्णाति नैक न मुञ्चति करोति न हि पुद्गलानि कर्माणि । जीव: पुद्गलमध्ये वर्तमानोऽपि सर्वकालेषु ।।१८५।। न खल्वात्मनः पुगलपरिणामः कर्म परद्रव्योपादनहानशून्यत्वात यो हि यस्य परिणमयिता दृष्टः स न तदुपादानहानशून्यो दृष्टः, यथाग्निरयःपिण्डस्य । आत्मा तु तुल्यक्षेत्रवतित्वेऽपि परद्रव्योपादानहानशून्य एव । ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमयिता स्पात् ॥१८॥ भूमिका--अब, इस सन्देह को दूर करते हैं कि पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म क्यों नहीं है ? : अन्वयार्थ-~-[जीवः] जीव [सर्वकालेषु] सर्व कालों में (सदा) [पुद्गलमध्ये वर्तमान: अपि] पुद्गल के मध्य में रहता हुआ भी [पुद्गलानि कर्माणि] पौद्गलिक कर्मों को [हि] वास्तव में [गृह्णाति न एव] न तो ग्रहण करता है, [न मुचति ] न छोड़ता है और [न करोति] न करता है। टीका-वास्तव में पुद्गल परिणाम आत्मा का फर्म नहीं है, क्योंकि वह परद्रव्य के ग्रहण त्याग से रहित है। जो जिसका परिणमन कराने वाला देखा जाता है वह उसके ग्रहण त्याग से रहित नहीं देखा जाता, जैसे—अग्नि लोहे के गोले के ग्रहण त्याग से रहित १. पुग्गलाणि (ज० )। २. पुग्गलमझे (ज० वृ०) । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो ] [ ४३६ होती है। आत्मा तो तुल्य क्षेत्र में वर्तता हुआ भी (परद्रव्य के साथ एक क्षेत्रावगाही होने पर भी) परद्रव्य के ग्रहण त्याग से रहित ही है इसलिये वह पुद्गलों को कर्मभावरूप परिणमित कराने वाला नहीं है ॥१८५।। तात्पर्यवृत्ति अथात्मनः कथं द्रब्यकर्मरूपपरिणामः कर्म न स्यादिति प्रश्नसमाधानं ददाति गेहादि णेब ण मुचदि करेदि ण हि पुग्गलाणि कम्माणि जीवो यथा निर्विकल्पसमाधिरतः परममुनिः परभावं न गृह्णाति न मुञ्चति न च करोत्युपादानरूपेण लोहपिण्डो वाग्नि तथायमात्मा न च गृह्णाति न च मुञ्चति न च करोत्युपादानरूपेण पुद्गलकर्माणीति । किं कुर्वन्नपि ? पुग्गलमजो वदृष्णवि सव्वक्रालेसु क्षीरनीरन्यायेन पुद्गलमध्ये वर्तमानोऽपि सर्वकालेषु । अनेन किमुक्तं भवति-यथा सिद्धो भगवान पुद्गलमध्ये वर्तमानोऽपि परद्रव्यग्रहणमोचन करणरहितस्तथा शुद्धनिश्चयेन शक्तिरूपेण संसारी जीवोऽपीति भावार्थः ।। १८५।।। उत्थानिका-आगे इस प्रश्न के होने पर कि आत्मा के किस तरह द्रव्यकर्म का परिणमन रूपी फर्म नही होता है, आचार्य समाधान करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(जीवो) यह जीव (पुग्गलमझे) पुद्गलों के मध्य में (सवकालेसु) सर्व कालों में (पट्टण्णवि) रहता हुआ भी (पुरगलाणि कम्माणि) पुद्गलमयी कर्मों को (णेव गेण्हदि) न तो ग्रहण करता है (ण मुंबवि) न छोड़ता है (ण हि करेदि) और न करता है । यह जीव सर्व कालों में दूध पानी की तरह पुदगल के बीच वर्तमान है तो भी जसे निर्विकल्पसमाधि में रत परममुनि परभाव को न ग्रहण करते, न छोड़ते, न करते अथवा जैसे लोहे का गोला उपादान रूप से अग्नि को ग्रहण करता, छोड़ता व करता नहीं है तैसे यह आत्मा उपादान रूप से पुद्गलमयो कर्मों को न तो ग्रहण करता है, न छोड़ता है न करता है। इससे यह कहा गया कि जैसे सिद्ध भगवान पुद्गल के मध्य में रहते हुए भी परद्रव्य के ग्रहण, त्यजन व करने के व्यापार से रहित हैं तैसे ही शुद्ध निश्चयनय से स्वभाव को अपेक्षा संसारी जीव भी ग्रहण त्यागादि नहीं करते हैं ॥१८॥ अथात्मनः कुतस्तहि पुद्गलकर्मभिरुपावानं हानं चेति निरूपयति--- स इदाणि कत्ता सं सगपरिणामस्स दव्वजादस्स । आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलोहिं ॥१८६॥ स इदानी कर्ता सन् स्वकपरिणामस्य द्रव्यजातस्य । आदीयते कदाचिद्विमुच्यते कर्मधूलिभिः ।।१८६।। सोऽयमात्मा परद्रव्योपादानहानशून्योऽपि सांप्रतं संसारावस्थायां निमित्तमात्रोक तपरद्रव्यपरिणामस्य स्वपरिणाममात्रस्य द्रव्यत्वभूतत्वात्केवलस्य कलयन् कर्तत्वं तदेव Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] [ पवयणसारो तस्य स्वपरिणाम निमित्तमात्रीकृत्योपात्तकर्मपरिणामाभिः पुद्गलधूलिभिविशिष्टावगाहरूपेणोपादीयते कदाचिन्मुच्यते च ॥१८६॥ भूमिका-तब फिर (यदि आत्मा पुद्गलों को कर्मरूप परिणमित नहीं करता) तो आत्मा किस प्रकार पुद्गलकर्मों के द्वारा ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है ? इसका निरुपण करते हैं: अन्वयार्थ- [सः] वह (आत्मा) [इदानीं] अभी (संसारावस्था में) [द्रव्यजातस्य] द्रव्य से (आत्मद्रव्य से) उत्सन्न होने वाले स्विकपरिणामस्य] (अशुद्ध) स्वपरिणाम का [कर्ता सन् ] कर्ता होता हुआ [कर्मधूलिभिः] कर्मरज से [आदीयते] ग्रहण किया जाता है, और [कदाचित् विमुच्यते] कदाचित् छोड़ा जाता है । टीका-वह यह आत्मा परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित होता हुआ भी, अभी संसारावस्था में, परद्रव्य परिणाम को निमित्तमात्र करते हुए, द्रष्यत्वमूत (द्रव्य रूप, द्रव्य से उत्पन्न) होने से केवल अपने परिणाममात्र के कर्तृत्व का अनुभव करता हुआ, उसके इसी स्थपरिणाम को निमित्तमात्र करके कर्मपरिणाम को प्राप्त होती हुई पुद्गलरज के द्वारा विशिष्ट अवगाह रूप से ग्रहण किया जाता है और कदाचित् छोड़ा जाता है ॥१८६।। तात्पर्यवृत्ति । अथ यद्ययमात्मा पुद्गलकर्म न करोति न च मुञ्चति तहि बन्धः कथं तहि मोक्षोऽपि कथमितिप्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति-- स इवाणि कत्ता सं स इदानी कर्ता स स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा इदानी कोऽर्थः एवं पूर्वोक्तनयविभागेन कर्ता सन् । कस्य ? सगपरिणामस्स निविकारनित्यानन्दैकलक्षणपरमसुखामृतव्यक्तिरूपकार्य समयसारसाधकनिश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसारबिलक्षणस्य मिथ्यात्वरागादिविभावरूपस्य स्वकीयपरिणामस्य । पुनरपि किं विशिष्टस्य ? वव्वजादस्स स्वकीयात्मद्रव्योपादानकारणजातस्य । आदीयदे कदाई कम्मधूलीहि आदीयते बध्यते । काभिः ? कर्मधूलिभिः कर्तृ भूताभिः कदाचित्पूर्वोक्तविभावपरिणामकाले । न केवलमादीयते विमुचवे विशेषेण मुच्यते त्यज्यते ताभिः कर्मधूलिभिः कदाचित्पूर्वोक्तकारणसमयसारपरिणतिकाले । एतावता किमुक्तं भवति-अशुद्धपरिणामेन बध्यते शुद्धपरिणामेन मुच्यते इति ।।१८६॥ उत्थानिका--आगे शिष्य ने प्रश्न किया कि जब यह आत्मा पोद्गतिककर्म को नहीं करता है, न छोड़ता है तब इसके बन्ध कैसे होता है तथा मोक्ष भी कैसे होता है ? इसके समाधान में आचार्य उत्तर देते हैं __अन्वय सहित विशेषार्थ-(इवाणि) अब इस संसार अवस्था में अशुद्धनय से (स) वह आत्मा (दव्यजावस्स सगपरिणामस्स) अपने ही आत्मद्रव्य से उत्पन्न अपने ही Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्ष्यणसारो 1 [ ४४१ परिणाम का (कत्ता सं) कर्ता होता हुआ (कदाई) कभी तो (कम्मधूलोहि) कर्मरूपी धूल से (आदीयदे) बंध जाता है व कभी (विमुच्चदे) छूट जाता है । वह पूर्वोक्त संसारी आत्मा अब वर्तमान में इस तरह पूर्वोक्त नय विभाग से अर्थात् अशुद्धनय से निर्विकार मित्यानन्दमयी एक लक्षणरूप परमसुखामृत की प्रगटतामयी कार्य समयसार को साधने वाले निश्चयरत्नत्रयमय कारण समयसार से विलक्षण मिथ्यात्व व रागादि विभावरूप अपने ही आत्मद्रव्यरूप उपादानकारण से उत्पन्न अपते परिणाम का कर्ता होता हुआ पूर्वोक्त विभाव परिणाम के समय में कर्मरूपी धूल से बंध जाता है। और जब कभी पूर्वोक्त कारण समयसार की परिणति में परिणमन करता है तब उन्हीं कर्म को रों से विशेष करके छूटता है। इससे यह कहा गया कि यह जीव अशुद्ध परिणामों से बंधता है तथा शुद्ध परिणामों से मुक्त होता है ॥१६॥ अथ किंकृतं पुद्गलकर्मणां वैचित्र्यमिति निरुपयति परिणमवि जदा अप्पा सुहम्हि असुहाम्ह रागदोसजुदो। तं पविसवि कम्मरयं णाणावरणाविभावेहि।।१८७॥ · परिणमति यदात्मा शुभेऽशुभे रागद्वेषयुतः।। ते प्रविशति कर्मरजो ज्ञानावरणादिभावः ॥१८७॥ अस्ति खल्यात्मनः शुभाशुभपरिणामकाले स्वयमेत्र समुपात्तवैचित्र्यकर्मपुद्गलपरिणामः नवधनाम्बुनो भूमिसंयोगपरिणामकाले समुपात्तवैचित्र्यान्यपुद्गलपरिणामवत् । तथाहि-यदा मवधनाम्बुभूमिसंयोगेन परिणमति तदान्ये पुद्गलाः स्वयमेव समुपातवैचिश्यः शादलशिलीन्ध्रशक्रगोपादिभावैः परिणमन्ते, तथा यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृतः शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशन्तः कर्मपुवगला: स्वयमेव समुपातवैचित्र्यमा॑नावरणाविभावैः परिणमन्ते। अतः स्वमावकृत कर्मणां वंचिन्यं न पुनरास्मकृतम् ॥१८॥ भूमिका- अब पुद्गल कर्मों की विचित्रता (भानावरण, दर्शनावरणाविरूप अनेकप्रका ता) है, इसका निरुपण करते हैं अन्वयार्थ— [यदा] जब [रागद्वेषयुतः] रागद्वेषयुक्त [आत्मा] आत्मा [शुभे अशुभे] शुभ और अशुभ भावों में [परिणमति] परिणमित होता है, तब [कर्मरजः] कर्मरज [ज्ञानावरणादिभावः] ज्ञानावरणादिरूप से [२] उसमें [प्रविशति] प्रवेश करती है । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] [ पवयणसारो टीका-जैसे नवमेघजल के भूमिसंयोगरूप परिणाम के समय अन्य पुद्गलपरिणाम स्वयमेव वैचित्र्य को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार आत्मा के शुभाशुभ परिणाम के समय कर्मयुद्गलपरिणाम वास्तव में स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं। यह इस प्रकार है कि--जैसे, जब नया मेघजल भूमिसंयोगरूप परिणमित होता है तब अन्य पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त हरियाली कुकुरमुत्ता (छत्ता), और इन्द्रगोप (चातुर्मास में उत्पन्न लाल कोड़ा) आदि रूप परिणमित होता है, इसी प्रकार जब यह आत्मा राग द्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभभावरूप परिणमित होता है तब अन्य योगदारों से प्रविष्ट होते हुये, कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं। इससे (यह निश्चित हुआ कि) कर्मों की विचित्रता (विविधता) का होना पुद्गल. स्वभावकृत है, किन्तु आत्मकृत नहीं ॥१७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ यथा द्रव्यकर्माणि निश्चयेन स्वयमेवोत्पद्यन्ते तथा ज्ञानाबरणादिविचित्रभेदरूपेणापि स्वयमेव परिणमन्तीति कथयति परिणमदि जदा अप्पा परिणमति यदात्मा समस्तणुभाशुभपरद्रव्यविषये परमोपेक्षालक्षणं शुद्धोपयोगपरिणाम मुक्त्वा यदायमात्मा परिणमांत 1 यत्र । सुम्हि असुहाम्ह शुभंऽशुभे या परिणामे । कथंभूतः सन् ? रागवोसजुदो रागद्वेयुक्तः परिणत इत्यर्थः । तं पविसबि कम्मरयं तदाकाले तत्प्रसिद्ध कर्मरजः प्रविशति । कः कृत्वा ? गाणावरणाविभावेहि भूमेमधजलसंयोगे सति यथाऽन्ये पुद्गलाः स्वयमेव हरितपल्लवादिभावैः परिणमन्ति तथा स्वयमेव नानाभेदपरिणतैमू लोत्तरप्रकृतिरूपज्ञानावरणादिभाव: पर्यायैरिति । ततो ज्ञायते यथा ज्ञानावरणादिकर्मणामुत्पत्तिः स्वयंकृता तथा मूलोत्तरप्रकृतिरूपवैचित्र्यमपि, न च जीवकृतमिति ॥१८७।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जैसे द्रथ्यकर्म निश्चयनय से स्वयं ही उत्पन्न होते हैं वैसे वे स्वयं ही ज्ञानावरणादि विचित्र रूप से परिणमन करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(जदा) जब (रागदोसजुदो) रागद्वेष सहित (अप्पा) आत्मा (सुहम्मि असुहम्मि) शुभ या अशुभ भाव में (परिणमदि) परिणमन करता है तब (कम्मरयं) कमरूपी रज स्वयं (णाणावरणादिभावेहि) ज्ञानावरणादि को पर्यायों से (पविसदि) जीव में प्रवेश कर जाती है । जब यह रागद्वेष में परिणमता हुआ आत्मा सर्व शुभ तथा अशु म द्रव्य में परम उपेक्षा के लक्षण रूप शुद्धोपयोग परिणाम को छोड़कर शुभ परिणाम में या अशुभ परिणाम में परिणमन करता है उसी समय में, जैसे भूमि के पुद्गल मेघ जल के संयोग को पाकर आप ही हरी घास आदि अवस्था में परिणमन करते हैं, इसी तरह Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४४३ कर्म पुगल कर्मरूपी रज नानाभेद को धरने वाले ज्ञानावरणादि मूल तथा उत्तर प्रकृतियों की पर्यायों में स्वयं परिणमन करती है। इससे जाना जाता है कि ( उपाशन की अपेक्षा ) ज्ञानावरणादि कर्मों की उत्पत्ति उन्हीं के द्वारा होती है तथा उनमें मूल व उत्तर प्रकृतियों की विचित्रता भी उन्हीं कृत है, जीवकृत नहीं है ॥ १८७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वोक्तज्ञानावरणादिप्रकृतीनां जघन्योत्कृष्टानुभागस्वरूपं प्रतिपादयतिसुपयडीणं विसोही लिब्यो असुहाणसंकिलेस म्मि । विवरीदो वु जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं ॥ १८७ - १॥ अनुभाविति क्रियाध्याहारः । कथंभूतो भवति ? तिब्बो तीव्र: प्रकृष्टः परमामृतसमानः । कास सम्बन्धी | सुहपयडीणं सद्वेद्यादिशुभप्रकृतीनाम् । कया कारणभूतया ? विसोही तीव्रधर्मानुरागरूपविशुद्धया असुहाण संकिलेसम्म असवेद्याद्यशुभप्रकृतीनां तु मिथ्यात्वादिरूपतीव्र संक्लेशे सति तीव्रो हालाहल विषसदृशो भवति । विवरीदो दु जष्णो विपरीतस्तु जघन्य गुडनम्वरूपो भवति । जधन्यविशुद्धया जघन्यसंक्लेशेन च मध्यमविशुद्धचा मध्यमसंक्लेशेन तु शुभाशुभप्रकृतीनां खण्डशर्करारूप: काजीरविषरूपश्येति । एवंविधो जघन्य मध्यमोत्कृष्टरूपोऽनुभागः कास सम्बन्धी भवति ? सम्बपयडीणं मुलोत्तरप्रकृति रहितनिजपरमानन्दैकस्वभावलक्षण सर्वप्रकारोपादेयभूतपरमात्मद्रव्याद्भिन्नानां हेयभूतानां सर्व मुलोत्तरकर्म प्रकृतीनामिति कर्म शक्तिस्वरूपं ज्ञातव्यम् ।। १८७ - १॥ उत्पानिका — आगे पूर्व में कही हुई ज्ञानावरणादि प्रकृतियों का जघन्य उत्कृष्ट अनुभाग का स्वरूप बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( सुहपयडीणं ) शुभ प्रकृतियों का ( अनुभागो) अनुभाग ( विसोही) विशुद्धभाव से ( असुहाण) अशुभप्रकृतियों का ( संकिलेसम्म ) संक्लेशभाव से (तिव्यो ) तीव्र होता है, (विवरीदो दु) परन्तु इसके विपरीत होने पर ( सव्यपयडी) सर्व प्रकृतियों का ( जहष्णो ) जघन्य होता है । फल देने की शक्ति विशेष को अनुभाग कहते हैं। तीव्र धर्मानुरागरूप विशुद्धभाव से सातावेदनीय आदि शुभकर्म प्रकृतियों का अनुभाग परम अमृत के समान उत्कृष्ट पड़ता है तथा मिथ्यात्व आदि रूप संक्लेशभाव से असाताarrate आदि अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग हालाहल विष के समान तीव्र पड़ता है । तथा जघन्य विशुद्धि से व मध्यम विशुद्धि से शुभप्रकृतियों का अनुभाग जघन्य या मध्यम पड़ता है अर्थात् गुड़, खांड, शर्करारूप पड़ता है। वैसे ही जघन्य या मध्यम संक्लेश से अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग नीम, कांजीर विषरूप जघन्य या मध्यम पड़ता है। इस तरह मूल Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] [ पवयणसारो उत्तर प्रकृतियों से रहित निज परमानन्दमयी एक स्वभावरूप तथा सर्व प्रकार उपादेयभूत परमात्मा द्रव्य से मिल और त्यागने योग्य सर्व मूल और उत्तर प्रकृतियों से जघन्य मध्यम उत्कृष्ट अनुभाग को अर्थात् कर्म को शक्ति के विशेष को जानना चाहिये ॥१८७॥१॥ अर्थक एव आत्मा बन्ध इति विभावयति सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहि । कम्मरजेहि सिलिटठो बंधो त्ति परविदो समये ॥१८८।। सप्रदेशः स आत्मा कषायितो मोहरागद्वेषैः। कर्म रजोभिः श्लिष्टो बन्ध इति प्ररूपितः समये ॥१५८।। यथात्र सप्रदेशत्वे सति लोध्रादिभिः कषायितत्वात् मनीष्ठरङ्गादिभिरुपश्लिब्टमेक रक्तं दृष्टं वासः, तथात्मापि सप्रदेशत्वे सति काले मोहरागद्वेषैः कषायितत्वात कर्मरजोभिरुपश्लिष्ट एको बन्धो द्रष्टव्यः शुद्धतव्यविषयत्वान्निश्चयस्य ॥१८॥ भूमिका-अब, यह समझाते हैं कि अकेला आत्मा हो बन्ध है अन्वयार्थ--[सप्रदेशः] प्रदेशयुक्त [सः आत्मा] वह आत्मा] [समये] यथाकाल मोहरागद्वेषः] मोह-राग-द्वेष के द्वारा [कषायितः] कपायित होने से [कर्मरजोभिः श्लिष्टः] कर्मरज से लिप्त था बद्ध होता हुआ | बंधः इति प्ररूपितः] 'बध' कहा गया है । टीका-जैसे जगत् में सप्रवेशत्व होते हुये वस्त्र लोध-फिटकरी आदि से कषायित (कसैला) होने से मंजीठादि के रंग से संबद्ध होता हुआ अकेला ही रंगा हुआ देखा जाता है, इसी प्रकार सम्प्रदेशत्व होते हुये आत्मा भी यथाकाल मोह राग द्वेष के द्वारा कपायित (मलिन-रंगा हुआ) होने से कर्मरज के द्वारा श्लिष्ट होता हुआ अकेला ही बन्ध है, ऐसा देखना (मानना) चाहिये, क्योंकि निश्चय का विषय शुद्ध द्रव्य है ॥१८॥ तात्पर्यवृत्ति अथाभेदनयेन बन्धकारणभूतरागादिपरिणतात्मव बन्धो भण्यते इत्यावेदयति, सपदेसो लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वात्सप्रदेशस्तावद्भवति सो अप्पा स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा । पुनरपि कि विशिष्ट: ? कसायिदो कपायित: परिणतो रजितः । कैः ? मोहरागदोसेहि निम्मोहस्वशुद्धात्मतत्त्वभावनाप्रतिबन्धिभिर्मोहरागद्वषः । पुनश्च किंरूपः? कम्मरएहि सिलिट्ठो कर्म रजोभिः श्लिष्ट: कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलरजाभिः संश्लिष्टो बद्धः । बंधोत्ति परुविदो अभेदेनात्मैव बन्ध इति प्ररूपितः । क्व ? समये परमागमे । अवेदं भणितं भवति—यथा वस्त्रं लोधादिद्रव्यः कषायित रञ्जितं सन्मजीष्ठादिरङ्गद्रव्येण रञ्जितं सदभेदेन रक्तमित्युच्यते तथा वस्त्रस्थानीय आत्मा १. कम्मरएहि (ज० वृ०)। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४४५ लोधादिद्रव्य स्थानीय मोहरागढ षैः कषायितो रञ्जितः परिणतो मजीष्ठस्थानीयकर्मपुद्गलः संश्लिष्टः सम्बद्धः सन् भेदेऽप्यभेदोपचारलक्षणेनासद्भूतव्यवहारेण बन्ध इत्यभिधीयते । कस्मात् ? अशुद्धद्रव्यनिरूपणार्थविषयत्वादसद्भूतव्यवहारनयस्येति ॥ १८८॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं कि अभेदनय से बंध के कारणभूत रागादिभावों में परिणमन करने वाला आत्मा ही बंध के नाम से कहा जाता है । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( सपदेसो सो अप्पा ) प्रदेशवान वह आत्मा ( मोह रागदोसेहिं कसायिदो) मोह राग द्वेषों से कषायला होता हुआ ( कम्मर एहि ) कर्मरूपी धूल से (सिलिट्ठी) लिपटा हुआ (बंधोत्ति) बंधरूप है, ऐसा ( समये परूदिदो ) आगम में कहा है । लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशों को अखंड रूप से रखने वाला यह आत्मा मोह भाव रहित अपने शुद्ध आत्मतत्व की भावना को रोकने वाले मोह राग द्वेष भावों से रंगा हुआ और कर्मवर्मणा योग्य पुद्गल रूपी धूल से बंधा हुआ, अमेदनय से आगम में बंधरूप कहा गया है। यहाँ यह अभिप्राय है कि जैसे वस्त्र लोध, फिटकरी आदि द्रव्यों से कषायला होकर मंजीठ आदि रंग से रंगा हुआ अभेदनय से लाल वस्त्र कहलाता है वंसे वस्त्र के स्थान में यह आत्मा लोधादि द्रव्य के स्थान में मोह राग द्वेषों से परिणमन करके मंजीठ के स्थान में कर्मपुद्गलों से बंधा हुआ वास्तव में कर्म से भिन्न है तो मी अभेदोपचार लक्षण असद्भूत व्यवहार से बंधरूप कहा जाता है, क्योंकि असद्भूत व्यवहारतय का विषय अशुद्ध द्रव्य है । अथ निश्चयव्यवहाराविरोधं दर्शयति- एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिद्दिट्ठो । अरहंतेहि जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ॥ १६६ ॥ एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयेन निर्दिष्ट: । अद्धिती व्यवहारोज्न्यथा रामपरिणाम एवात्मनः कर्म, स एव पुण्यपापद्वैतम् । रागपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपादाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरुपणात्मको निश्वयतयः वस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मनः कर्म स एव पुण्यपापद्वैतं पुद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपादाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यनिरपणात्मको व्यवहारनयः । उभावप्येतौ स्तः, शुद्धाशुद्धत्वेनोभयथा द्रव्यस्य प्रतीयमानत्वात् । किन्त्वत्र निश्चयनयः साधकतमत्वादुपात्तः, साध्यस्य हि शुद्धत्वेन द्रव्यस्य शुद्धत्व द्योतकत्वान्निश्चयनय एव साधकतमो न पुनरशुद्धत्वद्योतको व्यवहारनयः ॥ १६६ ॥ भणितः || १८६ ।। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] [ पवयणसा भूमिका- अब निश्चय और व्यवहार का अवरोध बतलाते हैं- अन्वयार्थ – [ एषः ] यह (पूर्वोक्त प्रकार से ) [ जीवानां ] जीवों के [बंधसमासः ] बंध का संक्षेप कथन [निश्चयेन ] निश्चय से [ अर्हद्भिः ] अर्हन्त भगवान ने [ यतीनां ] यतियों को [ निर्दिष्टः | कहा है, [ अन्यथा ] अन्य प्रकार से ( जो कथन है, वह ) [ व्यवहारः ] व्यवहार है, ( ऐसा जिनेन्द्र ने ) [ भणितः ] कहा है । ! टीका- राजपरिणाम ही आत्मा का कर्म हैं, वही पुण्य-पाप रूप द्वैत है, आत्मा रागपरिणाम का ही कर्ता है, उसी का ग्रहण करने वाला है और उसी का त्याग करने वाला है - यह शुद्ध द्रव्य के निरुपण स्वरूप निश्चयनय है। पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पाप रूप द्वैत है, आत्मा पुद्गल परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला और छोड़ने वाला है, जो ( यह कथन है) वह अशुद्ध द्रव्य के निरुपण स्वरूप व्यवहारनध है। यह दोनों हो ( नय) हैं, क्योंकि शुद्धतया और अशुद्धतया दोनों प्रकार से द्रव्य की प्रतोति की जाती है किन्तु यहाँ निश्चयनय साधकतम ( उत्कृष्टसार्थक ) होने से ग्रहण किया गया है, (क्योंकि) साध्य के शुद्ध होने से द्रव्य के शुद्धत्व का द्योतक (प्रकाशक) होने से निश्चयनय ही साधकतम है, किन्तु अशुद्धत्व का द्योतक व्ययहारनय (साधकतम) नहीं है ॥ १६६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ निश्चय व्यवहारयोरविरोधं दर्शयति एसो बंधसमासो एष बन्धसमासः एष बहुधा पूर्वोक्तप्रकारो रागादिपरिणतिरूपो बन्धसंक्षेपः केषां सम्बन्धी ? जीवाणं जीवानाम् ? णिच्छयेण मिद्दिट्ठो निश्चयेन निद्दिष्टः कथितः ? कैः कर्तृभूतं ? अरहंतेहि अर्हद्भि निर्दोषपरमात्मभिः ? केषाम् ? जद णं जितेन्द्रियत्वेन शुद्धात्मस्वरूपे मनपराणां गणधर देवादियतीनाम् । बवहारो द्रव्यकर्म रूपव्यवहारबन्धः अण्णा भणिदो निश्चयनयापेक्षयान्यथा व्यवहारनयेनेति भणितः । किन्त्र रागादीनेवात्मा करोति तानेव भुंक्ते चेति निश्चयनयलक्षणमिदम् । अयं तु निश्चयनयो द्रव्यकर्मबन्धप्रतिपादकास भूतव्यबहारन यापेक्षया शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको -विवक्षित निश्चय नयस्तथैवाशुद्धनिश्चयश्च भण्यते । द्रव्यकर्माण्यात्मा करोति भुंक्ते चेत्यशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मका सद्भूतव्यवहारनयो भव्यते । इदं नयद्वयं तावदस्ति । कित्वत्र निश्चयनय उपादेयः न चासद्द्भुतव्यवहारः । 1 ननु रागादीनात्मा करोति भुंक्ते चेत्येवं लक्षणो निश्वयनयो व्याख्यातः स कथमुपादेयो भवति ? परिहारमाह - रागादीनेवात्मा करोति न च द्रव्यकर्मरागादय एव बन्धकारणमिति यदा जानाति जीवस्तदा रागद्वेषादिविकल्पजालत्यागेन रागादिविनाशार्थं निजशुद्धात्मानं भावयति । ततश्च रागादिविनाशो भवति । रागादिविनाशे वात्मा शुद्धो भवति । ततः परंपरया शुद्धात्मसाधकत्वादयमशुद्धयोऽप्युपचारेण शुद्धनयो भण्यते निश्चयनयो न भण्यते तथैवोपादेयो भण्यते इत्यभिप्रायः ।। १८६ ॥ 1 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्यणसारो ] [ ४४७ एवात्मा स्वपरिणामानामेव कर्ता न च द्रव्यकर्मणामिति कथनमुख्यतया गाथासप्तकेन षष्ठस्थलं गतम् । इति 'अरसमरूवं' इत्यादिगाथासूत्रेण पूर्व शुद्धात्मव्याख्याने कृते सति शिष्येण यदूक्तममूर्तस्यात्मनो मुर्तकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति तत्परिहारार्थ नयविभागेन बन्धसमर्थनमुख्यतयकोनविंशतिगाथाभिः स्थलषट्केन तृतीयविशेषान्तराधिकार: समाप्तः । अत: परं द्वादश गाथापर्यन्तं चतुभिः स्थल: शुद्धात्मानुभूतिलक्षणविशेषभेदभावनारूपचूलिकाव्याख्यान करोति । तत्र शुद्धात्मनो भावना प्रधानत्वेन 'चयदि जो दु समत्ति' इत्यादिपाठक्रमेण प्रथमस्थले गाथा-चतुष्टयम् । तदनन्तरं शुद्धात्मोपलम्भभावनाफलेन दर्शनमोहनन्थिविनाशस्तथव चारित्रमोहग्रन्थिविनाश: क्रमेण तदुभयविनाशो भवतीति कथन मुख्यत्वेन 'जो एवं जाणित्ता' इत्यादि द्वितीयस्थले गाथात्रयम् । ततः परं केवलिध्यानोपचारकथनरूपेण 'णिहदघणघाइफम्मो' इत्यादि तृतीमा गाथाहगन्नादनात वा.नादिकालोपहारप्रधानत्वेन 'एवं जिणा बिणिदा' इत्यादि चतुर्थस्थले गाथाद्वयम् । ततः परं 'दसणसंसुद्धाणं' इत्यादि नमस्कारगाथा चेति द्वादशगाथाभिश्चतुर्थस्थले विशेषान्तराधिकारे समुदायपातनिका । उत्पानिका-आगे निश्चय और व्यवहार का अविरोध दिखाते हैं अन्बय सहित विशेषार्थ-(अरहंतेहि) अरहंतों के द्वारा (जवीण) यतियों को (जीवाणं) जीवों का (एसो बन्धसमासो) यह पूर्वोक्त प्रकार रागादि परिणतिरूप बन्ध का संक्षेप (पिच्छयेण णिहिट्ठो) निश्चयनय से कहा गया है । (यवहारो) व्यवहारनय से (अण्णहा) इससे अन्य जीव पुद्गल का बन्ध (भणिदो) कहा गया है । निर्दोष परमात्मा अरहंत हैं, उन्होंने जितेन्द्रिय तथा आत्मस्वरूप में यत्न करने वाले गणधरदेव आदि यतियों को निश्मयनय से जीवों के रागादि परिणाम को ही संक्षेप में बन्ध कहा है। व्यवहारनय से द्रव्य कर्म के बंध को बंध कहा है जो निश्चयनय की अपेक्षा अन्यथा है । यहाँ पर निश्चयनय का यही मत है कि यह मास्मा रागाविभाधों का हो कता और उन्हीं का भोक्ता है। द्रव्यकर्म-बंध को कहने वाले असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा निश्चयनय के वो भेद हैं। जो शुद्ध द्रव्य का निरूपण करे वह शुद्ध निश्चयनय है तथा जो अशुद्ध द्रव्य का निरूपण करे वह अशुद्ध निश्चयनय है। आत्मा द्रव्यकों को करता है तथा भोगता है यह अशुद्ध द्रव्य को कहने व ला असद्भूत व्यवहारनय कहा जाता है। इस तरह दोनों नयों से बंध का स्वरूप है। यहां निश्चयनय उपादेय है और असद्भुत व्यवहार हेय है। प्रश्न--आपने निश्चयनय से कहा है कि यह आत्मा रागादि भावों का कर्ता व भोक्ता है सो यह किस तरह उपादेय हो सकता है ? समाधान-जीव इस बात को जानेगा कि रागादि भावों को ही आत्मा करता है द्रव्यको को नहीं करता है तथा ये रागादिभाव ही बंध के कारण हैं, तब यह रागादि Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८] [ पवयणसारो अपने शुद्ध आत्मा की भावना रागादि के विनाश होने पर विकल्पजाल को त्याग कर रागादि के विनाश के लिये करेगा । इस भावना से ही रागादि भावों का नाश होगा, आत्मा शुद्ध होगा । इसलिये परम्परा से शुद्धात्मा का साधक होने से इस अशुद्धनय को भी उपचार से शुद्धनय कहते हैं, यह वास्तव में निश्चयनय नहीं कहा गया है तैसे हो उपचार से इस अशुद्धनय को उपादेय कहा है, यह अभिप्राय है ।। १८६ ॥ इस तरह आत्मा अपने परिणामों का ही कर्ता है, द्रव्य कर्मों का कर्ता नहीं है इस कथन की मुख्यता से सात गाथाओं में छठा स्थल पूर्ण हुआ । इस तरह "अरसमरूव" इत्यादि तीन गाथाओं से पूर्व में शुद्धात्मा का व्याख्यान करके शिष्य के प्रश्न के होने पर कि 'अमूर्त आत्मा का मूर्तिक कर्म के साथ किस तरह बंध हो सकता है।' इसके समाधान को करते हुए नय बिभाग से बंध समर्थन की मुख्यता से उन्नीस गाथाओं के द्वारा छः स्थलों से तीसरा विशेष अन्तर अधिकार समाप्त हुआ । इसके आगे बारह गाथा तक चार स्थलों से शुद्धात्मानुभूति लक्षण विशेष भेद भावना रूप चूलिका का व्याख्यान करते हैं । वहां शुद्धात्मा की भावना की प्रधानता करके "ण चयदि जो दु ममत्त" इत्यादि पाठक्रम से पहले स्थल में गाथाएं चार हैं। फिर शुद्धात्मा की प्राप्ति की भावना के फल से दर्शनमोह की गांठ नष्ट हो जाती है तैसे ही चारित्रमोह की गांठ नष्ट होती है व क्रम से दोनों का नाश होता है, ऐसे कथन को मुख्यता से "जो एवं जाणित्ता" इत्यादि दूसरे स्थल में गाथाएं तीन हैं फिर केवली के ध्यान का उपचार है ऐसा कहते हुए "दिघणघाइकम्मो" इत्यादि तीसरे स्थल में गाथाएं दो हैं । फिर दर्शनाधिकार के संकोच की प्रधानता से "एवं जिणा जिणिदा" इत्यादि चौथे स्थल में गाथा दो हैं । पश्चात् "दसणसंसुद्धाणं" इत्यादि नमस्कार गाथा है। इस तरह बारह गाथाओं से चार स्थलों में विशेष अन्तराधिकार में समुदायपातनिका है । अथाशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एवेत्यावेदयति- ण चर्यादि जो दु ममत्त अहं ममेदं ति देहदविणेसु । सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं ॥ १६० ॥ न त्यजति यस्तु ममतामहं ममेदमिति देद्रविणेषु । स श्रामण्यं त्यक्त्वा प्रतिपन्नो भवत्युन्मार्गम् ॥ १६० ॥ यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयनिरपेक्षोऽशुद्धद्रव्य निरूपणात्मकव्यवहारनयोपजनित मोहः सन् अहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन देहद्रविणावों परद्रव्ये ममत्वं Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४६ पवमणसारो ] न जहाति स खलु शुद्धात्मपरिणतिरूपं श्रामण्याथ्यं मार्ग दूरादपहायाशुद्धात्मपरिणतिरूपमुन्मार्गमेव प्रतिपद्यते । अतोऽवधार्यते अशुद्धनयावशुद्धात्मलाभ एव ॥ १६०॥ भूमिका – अब, यह कहते हैं कि अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होती है अन्वयार्थ – [ यः तु ] जो [ देहद्रविणेषु ] देहधनादिक में [ अहं मम इदम् ] 'मैं यह हूं. और यह मेरा है' [इति ममतां] ऐसी ममता को [ न त्यजति ] नहीं छोड़ता, [सः] वह [ श्रामण्यं त्यक्त्वा ] श्रमणता को छोड़कर [ उन्मार्ग प्रतिपन्न भवति ] उन्मार्ग को प्राप्त होता है । टीका--जो आत्मा, शुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनय से निरपेक्ष अशुद्धद्रश्य के निरूपण स्वरूप व्यवहारनय से उत्पन्न हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, 'मैं यह हूँ और यह मेरा है' इस प्रकार आत्मीयता से देह धनादिक परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता, वह आत्मा वास्तव में शुद्धात्मपरिणतिरूप श्रामण्य नामक मार्ग को दूर से छोड़कर अशुद्धात्म-परिणतिरूप उन्मार्ग को ही प्राप्त होता है। इससे निश्चित होता है कि अशुद्धनय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है ॥ १६० ॥ तात्पर्यवृत्ति अथाशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव भवतीत्युपदिशति - व्यवहार ण चर्यादि जो दु मर्मात न त्यजति यस्तु ममतां ममकाराहंकारादिसमस्त विभावरहितसकलविमलकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्त्ररूपनिजात्म पदार्थनिश्चलानुभूतिलक्षणनिश्चयनयरहितत्वेन मोहितहृदयः सन् ममतां ममत्वभावं न त्यजति यः । केन रूपेण ? अहं ममेदंत्ति अहं ममेदमिति । केषु विषयेषु ? देहदविणेसु देद्रव्येषु देहे देहोऽहमिति परद्रव्येषु ममेदमिति सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं स श्रामण्यं त्यक्त्वा प्रतिपन्नो भवत्युन्मार्गं स पुरुषो जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखशत्रुमित्रनिन्दाप्रशंसादिपरम माध्यस्थ्यलक्षणं श्रामण्यं यतित्वं चारित्रं दूरादपहाय तत्प्रतिपक्षभूतमुन्मार्ग मिथ्यामार्ग प्रतिपन्नो भवति । उन्मार्गाच्च संसारं परिभ्रमति । ततः स्थितं अशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव ।। १६० ।। उत्थानिका- आगे अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा का लाभ ही होता है, ऐसा उपदेश करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ- (जो दु) जो कोई ( देहबविणेसु) शरीर तथा धनादि में ( अहं ममेदंति) 'मैं उन रूप हूँ' व वे मेरे हैं ऐसे (ममत्त ) ममत्व को (ण चर्यादि) नहीं छोड़ता है । (सो) वह (सामण्णं) मुनिपना ( चत्ता) छोड़कर (उम्मग्गं पडिषण्णो होइ ) उन्मार्ग को प्राप्त हो जाता है। जो कोई ममकार अहंकार आदि सर्व विभावों से रहित सर्व प्रकार Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] [ पवयणसारो निर्मल केवलज्ञानादि अनन्तगुणस्वरूप निज आत्मपदार्थ को निश्चल अनुभूतिल्प निश्चयनय के विषय से रहित होता हुआ व्यवहार के विषय में मोहितचित्त होकर शरीर तथा परद्रच्यों में "मैं शरीररूप है तथा वह धन आदि परद्रव्य मेरा है" ऐसे ममत्वभाव को नहीं छोड़ता है वह पुरुष जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, निन्दा-प्रशंसा भावि में परम समताभावरूप यतिपने के चारित्र को दूर से ही छोड़कर उस चारित्र से उल्टे मिथ्यामार्ग में लग जाता है। मिथ्याचारित्र से संसार में भ्रमण करता है। इससे सिद्ध हुआ कि अशुद्धनय के विषय में मोहित होने से अशुद्धात्मा का लाभ होता है ॥१६॥ अथ शुद्धनयात् शुद्धात्मलाभ एवेत्यवधारयति णाहं होमि परेसि ण मे परे संति णाणमहमेक्को। ___ इदि जो शायवि झाणे सो अप्पाणं हववि झादा ॥१६॥ नाहं भवामि परेषां न मे परे सन्ति ज्ञानमहमकः । इति यो ध्यायति ध्याने स आत्मा भवति ध्याता ।।१६१॥ यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्ध व्यनिरूपणात्मकक्ष्यबहारमयाविरोधमध्यस्थः शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकमिश्चयनयापहस्तितमोहः सन् नाहं परेषामस्मि न परे मे सन्तीति स्वपरयोः परस्परस्वस्वामिसम्बन्धमुत्य शुद्धज्ञानमेवैकमहमित्यनात्मानमुत्सृज्वात्मानमेवात्मत्वेनोपादाय परद्रव्यव्यावृत्तत्वादात्मन्येवकस्मिन्नने चिन्तां निरुणद्धि स खल्काग्रचिन्तानिरोधकस्तस्मिन्नेकाप्रचिन्तानिरोधसमये शुद्धात्मा स्यात् । अतोऽवधार्यते शुद्धनयादेव शुद्धात्मलाभः ॥१६॥ भूमिका--अब, यह निश्चित करते हैं कि शुद्धनय से शुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है ___ अन्वयार्य-अहं परेषां न भवामि] 'मैं परका नहीं हैं, परे मे न सन्ति] पर मेरे नहीं हैं, [ज्ञानम् अहम् एकः] मैं एक ज्ञान स्वरूप हूँ,' इति यः ध्यायति] इस प्रकार जो ध्यान करता है, [सः आत्मा] वह आत्मा [ध्याने ] (ध्यान के काल में) [ध्याता भवति] ध्याता होता है। टीका—जो आत्मा, मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान अशुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय से अविरोधरूप मध्यस्थ होता हुआ तथा शुद्धतव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनय के द्वारा जिसने मोह को दूर किया है, ऐसा होता हुआ, 'मैं परका नहीं हैं, पर मेरे नहीं है इस प्रकार स्व-पर के परस्पर स्वस्वामिसंबंध को छोड़कर, 'शुद्धज्ञान ही एक मैं हूँ' इस Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणसारो ] [ ४५१ प्रकार अनात्म को छोड़कर, आत्मा को ही आत्म रूप से ग्रहण करके, परद्रव्य से भिन्नत्व के कारण आत्मारूप ही एक अग्र में (ध्येय में ) चिन्ता को रोकता है, वह एकाग्रचिन्तानिरोधक (एक विषय में विचार को रोकने वाला आत्मा ) उस एकाग्रचिन्तानिरोध के काल में वास्तव में शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित होता है कि शुद्धमय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है ॥ १६२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ शुद्धनमाच्छुद्धात्मलाभो भवतीति निश्चिनोति णाहं होमि पसि ण मे परे संति नाहं भवामि परेषाम् । न मे परे सन्तीति समस्तचेतनाचेतनपरद्रव्येषु स्वस्वामिसम्बन्धं मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च स्वात्मानुभूतिलक्षणनिश्वयनयबलेन पूर्वमपहाय निराकृत्य । पश्चात् किवा महको ज्ञानमहमेकः सकलविमलकेवलज्ञानमेवाहं भावकर्मद्रव्यकर्मनो कर्म रहितत्वेनैकश्च । इदि जो सामवि इत्यनेन प्रकारेण योऽसौ ध्यायति चिन्तयति भावयति । क्त्र ? झाणे निजशुद्धात्मध्याने स्थितः सो अप्पाणं हवदि मादा स आत्मानं भवति ध्याता | सचिदानन्दैकस्वभावपरमात्मानं ध्याता भवतीति । ततश्च परमात्मध्यानात्तादृशमेव परमात्मानं लभते । तदपि कस्मात् ? उपादानकारणसदृशं कार्यमिति वचनात् । ततो ज्ञायते शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभ इति ॥ १६२ ॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं कि शुद्ध नय से शुखात्मा का लाभ होता है अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अहं परेपि न होमि ) मैं दूसरों का नहीं हूँ ( परे मे सन्ति) दूसरे पदार्थ मेरे नहीं हैं ( अहं एक्की जाणं ) मैं अकेला ज्ञानमयी हूं ( इदि ) ऐसा (जो झाणे शार्यादि) जो ध्यान में ध्याता है ( सो अप्पाणं शादा यदि ) वह आत्मा को ध्याने वाला होता है । सर्व ही चेतन अचेतन परद्रव्यों में अपने स्वामीपने के सम्बन्ध को मन वचन काय व कृत कारित अनुमोदना से अपने स्वात्मानुभव लक्षण निश्चयनय के बल के द्वारा पहले ही दूर करके मैं सर्व प्रकार निर्मल केवल ज्ञानमयी हूं तथा सब भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से रहित एक है इस तरह जो कोई निज शुद्ध आत्मा के ध्यान में तिष्ठकर चितवन करता है यह चिदानंदमयी एक स्वभावरूप परमात्मा का ध्याने वाला होता है । इस तरह के परमात्म ध्यान से वह ज्ञानो वैसी ही परमात्मा अवस्था को पाता है, क्योंकि यह नियम है कि जैसा उपादानकारण होता है वैसा कार्य होता है । इसलिये यह मात जानी जाती है कि शुद्ध निश्चयrय के विषय का ध्यान करने से शुद्ध आत्मा का लाभ होता है ।।१६१॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ । पवयणसारो अथ ध्रुवत्वात् शुद्ध आत्मैवोपलम्भनीय इत्युपविशति एवं णाणयाणं दसणभूदं 'अदिदियमहत्थं । .. धुवमचलमणालंबं मण्णेऽहं अप्पगं सुद्धं ॥१६२॥ . एवं ज्ञानात्मानं दर्शनभूतमतीन्द्रियमहार्थम् । ध्रुवमचलमनालम्ब मन्येऽभात्मकं शुद्धम् ॥१६२11 मात्मनो हि शुद्ध आत्मैव सदहेतुकत्वेनानाधनन्तत्वात् स्वतःसिद्धत्वाच्च ध्रुवो न । किंचनाप्यन्यत् । शुद्धत्वं चात्मनः परद्रव्यविमागेन स्वधर्माविभागेन चकत्वात् । तच्च ज्ञानात्मकत्वाद्दर्शन मूतत्वावतीन्द्रियमहार्थत्वादचलत्वादनालम्बत्वाच्च । तत्र ज्ञानमेवात्मनि बिनतः स्वयं दर्शनमूतस्य चातन्मयंपरगन्यविभागेन स्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् । तथा प्रतिनियतस्पर्शरसगन्धवर्णगुणशब्दपर्यायग्राहील्यनेकानीन्द्रियाण्यतिक्रम्य सईस्पर्शरसगन्धवर्णगुणशब्दपर्यायग्राहकस्यैकस्य सप्तो महतोऽर्थस्येन्द्रियात्मकपरद्रयविभागेन स्पर्शादिग्रहणास्मकस्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्यम् । तथा क्षणक्षयप्रवृत्तपरिच्छेद्य पर्यायग्रहणमोक्षणाभावेनाचलस्य परिच्छेद्यपर्यायात्मकपरतव्य विभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकस्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् । तथा नित्यप्रवत्तपरिच्छेद्यद्रव्यालम्बनाभावेनानालम्बस्य परिच्छेद्यपर द्रव्यविभागेन सत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकस्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् । एवं शुद्ध आत्मा चिन्मात्रशुद्धनयस्य तावन्मात्रनिरुपणात्मकत्वात् अयमेक एव च ध्रुवस्वादपलब्धव्यः किमन्यैरध्वनीनाङ्गसंगच्छमानानेकमार्गपारपच्छायास्थानीय रघुवः ॥१६२॥ भूमिका-अब यह उपदेश देते हैं कि ध्रुवत्व के कारण शुद्धात्मा ही उपलब्ध करने योग्य है ___अन्वयार्थ- [अहम् ] मैं [आत्मकं] आत्मा को [एवं] इस प्रकार [ज्ञानात्मानं] ज्ञानात्मक, [दर्शन-भूतम्] दर्शनभूत, [अतीन्द्रियमहार्थं] अतीन्द्रिय महा पदार्थ, [ध्रुवम्] ध्रुव, [अचलम्] अचल, [अनालम्ब] निरालम्ब और [शुद्धम् ] शुद्ध [मन्ये] मानता हूं। ____टीका-शुद्धात्मा सत् और अहेतुक (अकारण) होने से अनादि-अनन्त और स्वतः सिद्ध है, इसलिये आत्मा के शुद्धात्मा ही ध्रुव है, (उसके) बूसरा कुछ भी ध्रुव नहीं है। आत्मा के शुद्धत्व, पर-द्रव्य से भिन्नता और स्वधर्म से अभिन्नता के द्वारा एकत्व होने के कारण से है । वह एकत्व आत्मा के (१) जानात्मकत्व के कारण, (२) दर्शनभूतत्व के १. अइंदियं (ज० वृ०)। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पययणसारो ] [ ४५३ कारण, (३) अतीन्द्रिय महापदार्थत्व के कारण, (४) अचलता के कारण, और ( ५ ) निरालम्बत्व के कारण है । इनमें से ( १-२ ) जो ज्ञान को हो अपने में धारण करे रखता है और जो स्वयं दर्शनभूत है ऐसे आत्मा के अतन्मय ( ज्ञान दर्शन रहित ) परद्रव्य से भिन्नत्व और स्वधर्म से अभिन्नत्व होने से, एकत्व है, ( ३ ) प्रतिनिश्चित स्पर्श-रस- गन्ध-वर्णरूप गुण तथा शब्दरूप पर्याय को ग्रहण करने वाली अनेक इन्द्रियों का अतिक्रम ( उल्लंघन ) करके समस्त स्पर्श-रस-गंध वर्णरूप गुणों और शब्द रूप पर्याय को ग्रहण करने वाले एक सत् महापवार्थं के ( आत्मा के ), इन्द्रियात्मक परद्रव्य से भिन्नत्व और स्पर्शादिक के ग्रहण स्वरूप ( ज्ञानस्वरूप ) स्वधर्म से अभिन्नत्व होने के कारण, एकत्व है, (४) क्षण-विनाश रूप से प्रवर्तमान ज्ञेय पर्यायों को ( प्रतिक्षण नष्ट होने वाली ज्ञातथ्य पर्यायों को ) ग्रहण करने और छोड़ने का अभाव होने से जो अचल है ऐसे आत्मा के ज्ञेयपर्याय स्वरूप परद्रव्य से भिन्नत्व और तन्निमित्तक (ज्ञेयों के निमित्त से होने वाले) ज्ञान स्वरूप स्वधर्म से अभिन्नत्व होने के कारण, एक है, (५) और नित्यरूप से प्रवर्तमान ( शाश्वत ) ज्ञेयद्रव्यों के आलम्बन का अभाव होने से जो निरालम्ब है ऐसे आत्मा के ज्ञेय रूप परद्रव्यों से भिन्नत्व और तन्निमित्तक ज्ञान स्वरूप स्वधर्म से अभिन्नत्व होने के कारण, एकत्व है । इस प्रकार आत्मा शुद्ध है, क्योंकि चिन्मात्र शुद्धनय उतना ही मात्र निरूपण स्वरूप है ( अर्थात् चैतन्यमात्र को ग्रहण करने वाली शुद्धमय आत्मा को मात्र शुद्ध हो निरूपित करती है 1 ) और यही (एक शुद्धात्मा ही ) ध्रुवत्व के कारण उपलब्ध करने योग्य है। किसी पथिक के शरीर के अंगों के साथ संसर्ग में आने वाली मार्ग के वृक्षों की अनेक छाया के समान अन्य अध्यय ( पदार्थों) से क्या प्रयोजन है ? ( अर्थात् कुछ नहीं ) || १६२ || तात्पर्यवृत्ति अथ ध्रुवत्वाच्छुद्धात्मानमेव भावयेऽहमिति विचारयति — "भण्णे" इत्यादिपदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते मण्णे - मन्ये ध्यायामि सर्वप्रकारोपादेयत्वेन भावये । स कः ? अहं कर्त्ता । कं कर्मतापन ? अप्पणं सहजपरमाह्लादकलक्षणनिजात्मानम् । किं विशिष्टम् ? सुखं रागादिसमस्त विभावरहितम् । पुनरपि किं विशिष्टम् ? धुवं टोत्कीर्णज्ञायकेकस्वभावत्वेन ध्रुवमविनश्वरम् । पुनरपि कथंभूतम् ? एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं एवं बहुविधपूर्वोक्तप्रकारेणाखण्डेकज्ञानदर्शनात्मकम् । पुनश्च किं रूपम् ? अइंदियं अतीन्द्रियं मूर्त्तविनश्वरानेकेन्द्रियरहितस्वेनामूर्त्ताविनश्व रेकातीन्द्रियस्वभावम् । पुनश्च कीदृशम् ? महत्यं मोक्षलक्षणमहापुरुषार्थसाधकत्वामहार्थम् । पुनरपि किस्वभावम् ? अचलं अतिचपलचञ्चल मनोवाक्कायव्यापाररहितत्वेन स्वस्वरूपे Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] [ पवयणसारो निश्चलं स्थिरम् । पुनरपि किंविशिष्टम् ? अणालंवं स्वाधीनस्वद्रव्यत्वेन सालम्बनं भरितावस्थमपि समस्तपराधीनपरद्रव्यालम्बनरहितत्वेन निरालम्बनमित्यर्थः ।।१६२।। उत्थानिका—आगे कहते हैं कि शुद्ध आत्मा ध्रुव है इसलिये मैं शुद्ध आत्मा की भावना करता हूं ऐसा शानी विचारता है । अन्यार दहित विशेषार्थ- (ग) हाट तरन (मापाणं) ज्ञान स्वरूप (दंसगभूवं) दर्शन स्वरूप (अइंदियम्) इन्द्रियों के अगोचर अतीन्द्रिय स्वरूप (धुवम्) अविनाशी (अचलं) अपने स्वरूप में निश्चल (अणालंब) परालम्बन रहित (सुद्ध) शुद्ध (महत्य) महान पदार्थ ऐसे (अप्पगं) अपने आत्मा को (अहं मण्णे) मैं अनुभव करता हूँ। ध्यानी विचारता है कि मैं अपने आत्मा को सर्व तरह उपादेय समझकर इस तरह अनुभव करता हूं कि यह सहज परमानन्दमयो एक लक्षण को रखने वाला आत्मा रागादि सर्व विभावों से रहित शुद्ध है, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वमाद रूप रहने से अविनाशी है, अखण्ड एक ज्ञान दर्शन स्वरूप है। मूर्तिक, विनाशीक, अनेक इन्द्रियों से रहित होने के कारण अमूतं, अविनाशी एक ही अतीन्द्रिय स्वभाव है । मोक्ष रूप महापुरुषार्थ का साधक होने से महान पदार्थ है, अतिचंचल मन बचन काय के व्यापारों से रहित होने से अपने स्वरूप में निश्चल है तथा स्वाधीनपने से स्वालम्बन रूप भरा हुआ होने पर भी सर्व पराधीन परद्रव्य के आलम्बन से रहित होने के कारण निरालम्ब है ॥१६२॥ अथाध्रुवत्वादात्मनोऽन्यन्नोपलभनीयमित्युपदिशति वेहा वा दविणा वा सुहदुक्खा बाध सत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा ॥१६॥ देहा वा द्रविणानि वा सुखदुःख्ने बाथ शत्रुमित्रजनाः ।। जीवस्य न सन्ति ध्रुवा ध्रुव उपयोगात्मक आत्मा ।।१६३॥ आत्मनो हि परद्रव्याविभागेन परद्रव्योपरज्यमानस्वधर्मविभागेन वाशुद्धत्वनिवन्धनं न किंचनाप्यन्यदसद्धेतुमत्वेनावन्तवत्त्वात्परतः सिद्धत्वाच्च ध्रुवमस्ति । ध्रुव उपयोगात्मा शुद्ध आत्मैव । अतोऽव वं शरीरादिकमुपलभ्यमानमपि नोलभे शुद्धात्मानमुपलमे ध्रुवम् ॥१६॥ भूमिका-अब, यह उपदेश देते हैं कि अन यत्व के कारण आत्मा के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य नहीं है अन्वयार्थ-[देहाः वा] शरीर, [द्रविणानि वा] धन, [सुखदुःखे] सुख दुःख Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो । [ ४५५ (इष्ट-अनिष्ट सामग्री) [वा अथ] अथवा [शत्रुमित्रजनाः] शत्रुमित्रजन (यह कुछ) [जीवस्य] जीव के [ध्र वाः न सन्ति] ध्रुव नहीं हैं, [ध वः] ध्रुव तो [उपयोगात्मकः आत्मा] उषयोगात्मक आत्मा है। ___टीका-जो परद्रव्य से अभिन्न होने के कारण और परद्रव्य के द्वारा उपरक्त' होने वाले स्वधर्म से भिन्न होने के कारण आत्मा को अशुद्धि का कारण है ऐसा-आत्मा से अन्य (भिन्न)-कोई भी प्रव नहीं है, क्योंकि वह असत्' और हेतुमान् होने से आदि अन्त बाला और परतः सिद्ध है ध्र व तो उपयोगात्मक शुद्ध आत्मा ही है। ऐसा होने से मैं उपलभ्यमान अध्र व शरीरादि को प्राप्त नहीं करता, और ध्रुव शुद्धात्मा को प्राप्त करता हूँ।१६३॥ तात्पर्यवृत्ति अथात्मनः पृथग्भूतं देहादिकमध्रुवत्वान्न भावनीयमित्याख्याति ण संति धुवा वा अविनश्वरा नित्या न सन्ति । कस्य ? जीवस्स जीवस्य । के ते ? देहा वा दक्षिणा वा देहा वा द्रव्याणि वा सर्वप्रकारशुचीभूताद्देहरहितात्परमात्मनो विलक्षणा औदारिकादिपञ्चदेहास्तथैव च पञ्चेन्द्रियभोगोपभोगसाधकानि परद्रव्याणि च । न केवलं देहादयो ध्रुबा न भवन्ति सुहदुक्खा धा निर्विकारपरमानन्दैकलक्षणस्वात्मोत्थसुखामृतविलक्षणानि सांसारिकसुखदुःखानि वा। अध अहो भव्याःसत्तुमित्तजणा शत्रुमित्रादिभावरहितादात्मनो भिन्नाः शत्रुमित्रादिजनाश्च । यद्येतत्सर्वमध्रुवं तहि कि ध्रुवमिति चेत् ? धुवो ध्रुवः शाश्वतः । स कः ? अप्पा निजात्मा। किविशिष्टः ? उवओगप्पगो त्रैलोक्योदरबिवरवर्तित्रिकालविषयसमस्तद्रव्यगुणपर्याययुगपत्परिच्छित्तिसमर्थकेवलज्ञानदर्शनोपयोगात्मक इति । एवमध्रुवत्वं ज्ञात्वा ध्रुवस्वभावे स्वात्मनि भावना कर्त्तव्येति तात्पर्यम् ।।१३।। एवमशुद्धनयादशुद्धात्मलाभो भवतीति कथनेन प्रथमगाथा। शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभो भवतीति कथनेन द्वितीया । ध्रुवत्वादात्मव भावनीय इति प्रतिपादनेन तृतीया । आत्मनोऽन्यद्धबं न भावनीयमिति कथनेन चतुर्थी चेति शुद्धात्मव्याख्यानमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ये शरीरादि आत्मा से भिन्न विनाशीक हैं इसलिये इनकी चिन्ता न करनी चाहिये । __अन्वय सहित विशेषार्थ-(जीवस्स) जीव के (देहा) शरीर (था दविणा) या द्रव्य (वा सुहबुक्खा) या सांसारिक सुखदुःख (वाऽध सत्तुमित्तजणा) तथा शत्रु मित्र आदि मनुष्य (धुवा ण संसि) ध्रुव नहीं हैं। (उवओगप्पगो अप्पा) केवल उपयोगमयी आत्मा (धुवो) १. उपरक्त-मलिन, विकारी [परद्रव्य के निमित्त से आत्मा का स्वधर्म उपरक्त होता है ।] २-असत्अस्तित्वरहित (अनित्य) [धन देहादिक पुद्गल पर्यायें हैं, इसलिये असत् हैं, इसीलिये आदि-अन्त वाली हैं।] ३-हेतुमान्-सहेतुक; जिसकी उत्पत्ति में कोई भी निमित्त हो ऐसा। देह धनादि की उत्पत्ति में कोई भी निमित्त होता है, इसलिये वे परतः सिद्ध हैं। स्वतः सिद्ध नहीं।] Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ । [ पवयणसारो ध्रुव है । सर्व प्रकार से पवित्र शरीर रहित परमात्मा से विलक्षण औदारिक आदि पांच प्रकार के शरीर तथा पंचेन्द्रियों के भोग के उपयोग साधक धन आदिक परदथ्य इस जीव के लिये ध्रुव नहीं है किन्तु ये अनित्य हैं, छूट जाने वाले हैं । केवल शरीरादि ही अनित्य नहीं है किन्तु विकाररहित परमानन्दमयी एक लक्षणधारी अपने ही आत्मा से उत्पन्न सुखामृत से विलक्षण सांसारिक सुख तथा दुःख तथा शत्र मित्र आदि जनसमुदाय ये सब भी अनित्य हैं । जब ये सब अधूथ हैं तब ध्रव क्या है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि तीन लोक के उदर में विद्यमान भूत भविष्य वर्तमान तीन काल के सर्व द्रव्य गुण पर्यायों को एक साथ जानने में समर्थ केवलज्ञान तथा केवलदर्शनमयो अपना आत्मा ही शाश्वत अविनाशी है। ऐसे अपने से मिन्न सर्व सम्बन्ध को अध्रुव जान करके ध्रुध-स्वभावधारी अपने ही आत्मा में निरन्सर भावना करनी योग्य है, यह तात्पर्य है ॥१३॥ इस तरह अशुद्ध नय के आलम्बन से अशुद्ध आत्मा का लाभ होता है ऐसा कहते हुए पहली गाथा, शुद्ध नय से शुद्ध आत्मा का लाभ होता है ऐसा कहते हुए दूसरी, ध्रुव होने से आत्मा ही भावने योग्य है ऐसा कहते हुए तीसरी, तथा आत्मा से अन्य सब अध्रुव हैं उनकी भावना न करनी चाहिये ऐसा कहते हुए चौथी, इस तरह शुद्धात्मा के व्याख्यान की मुख्यता करके पहले स्थल में चार गाथाएं पूर्ण हुई । अर्थवं शुद्धात्मोपलम्भात्कि स्यादिति निरूपयति जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गाँठं ।।१६४॥ य एवं ज्ञात्वा ध्यायति परमात्मानं विशुद्धात्मा । साकारोऽनाकार: क्षपयति स मोह्दुर्रन्थिम् ॥१६४॥ अमुना यथोदितेन शुद्धात्मानं ध्रुवमधिगच्छत्तस्तस्मिन्नेव प्रवृत्तेः शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनन्तशक्तिचिन्मात्रस्य परमस्यात्मन एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात्, ततः साकारोफ्युक्तस्यानाकारोपयुक्तस्य वाविशेषेणकानचेतनप्रसिद्धरासंसारबद्ध ढतरमोहदुग्रंन्थेरुद्ग्रथनं स्यात् । अतः शुद्धात्मोपलम्भस्य मोहनन्थिमेवः फलम् ॥१६॥ भूमिका-इस प्रकार शुद्धात्मा की उपलब्धि से क्या होता है, यह अब निरूपण करते हैं अन्वयार्थ-[यः] जो एवं [ज्ञात्वा] ऐसा जानकर [विशुद्धात्मा] विशुद्धात्मा Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४५७ होता हुआ [परमात्मानं] परम आत्मा को [ध्यायति] ध्याता है, [सः] वह [साकारः अनाकारः] साकार हो या अनाकार, [मोहदुथि ] मोह दुर्ग्रन्थि का [क्षपयति] क्षय करता है । टोका-इस यथोक्त विधि के द्वारा शुद्धात्मा को ध्रुव जानने वाले के, उसी में प्रवृत्त होने के कारण से, शुद्धात्मत्व होता है इसलिये अनन्तशक्ति वाले चिन्मात्र परम आत्मा का एकाग्रसंचेतनलक्षण ध्यान होता है और इसलिये (उस ध्यान के कारण) साकार (सविकल्प) उपयोग वाले को या अनाकार (निर्विकल्प) उपयोग वाले को-दोनों को अविशेष रूप से एकाग्रसंचेतन को प्रसिद्धि होने से-अनादि संसार से बंधी हुई अतिढ़ मोहदुर्गथि छूट जाती है। . इससे (यह कहा गया है कि) मोहग्रंथि भेद (दर्शन मोहरूपी गांठ का टूटना) शुद्धात्मा की उपलब्धि का फल है ॥१४॥ तात्पर्यवृत्ति अथैव पूर्वोक्तप्रकारेण शुद्धात्मोपलम्भे सति किं फलं भवतीति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह शादि ध्यायति जो यः कर्ता। कम् ? अप्पगं निजात्मानम् । कथंभूतम् ? परं परमानन्तज्ञानादिगणाधारत्वात्परमुत्कृष्टम् । किं कृत्वा पूर्वम् ? एवं जाणित्ता एवं पूर्वोक्तप्रकारेण स्वात्मोपलम्भलक्षणस्वसंवेदनज्ञानेन ज्ञात्वा । कथंभूतः सन् ध्यायति ? विसुद्धप्पा ख्यातिपूजालाभादिसमस्तमनोरथजालरहितत्वेन विशुद्धात्मा सन् । पुनरपि कथंभूतः ? सागारोऽणागारो सागारोऽनागार: । अथवा साकारानाकारः । सहाकारेण विकल्पेन वर्तते साकारो ज्ञानोपयोगः, अनाकारो निविकल्पो दर्शनोपयोगस्ताभ्यां युक्त: साकारानाकारः । अथवा साकार: सविकल्पो गृहस्थः अनाकासे निर्विकल्पस्तपोधनः अथवा सहाकारेण लिङ्गन चिह्नन वर्तते साकारो यतिः अनाकारश्चिन्हरहितो गृहस्थः । खवेदि सो मोहदुर्गठि य एवं गुणविशिष्ट: क्षपयति स मोहदुर्घन्थिम् । मोह एव दुर्गन्थिः शुद्धात्मरुचिप्रतिबन्धको दर्शनमोहस्तम् । ततः स्थितमेतत्-आत्मोपलम्भस्य मोहनन्थिविनाश एव फलम् ।। १६४॥ उत्थानिका-आगे इस तरह शुद्धात्मा का लाभ होने पर क्या फल होता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो सागारोऽणागारो) जो कोई श्रावक या मुनि (एवं जाणित्ता) ऐसा जानकर (परं अप्पगं) परम आत्मा को (विसुद्धप्पा) विशुद्धभाव रखता हुआ (मादि) ध्याता है (सो) वह (मोहदुग्गठि) मोह की गांठ को (खवेवि) नाश कर देता है। जो कोई गृहस्थ या मुनि अथवा साकार से ज्ञानोपयोगरूप, अनाकार से दर्शनोपयोग रूप होकर अथवा साकार से चिन्ह सहित मुनि या अनाकार से चिन्ह रहित गृहस्थ होकर इस तरह पूर्व में कहे प्रमाण अपने आत्मा का लाभरूप स्वसंवेदनजान से जान करके परम अनन्त ज्ञानादि गुणों के आधार रूप होने से उत्कृष्ट रूप अपने हो आत्मा Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] पवषणसारो को अपनी प्रसिद्धि, पूजा, लाभादि सर्व मनोरथ जाल से रहित विशुद्ध आत्मा होता हुआ ध्याता है सो ऐसा गुणी जीव शुद्धात्मा की रुचि को रोकने वालो दर्शनमोह की खोटी गांठ को क्षय कर डालता है। इससे सिद्ध हुआ कि जिनको निज आत्मा का लाभ होता है उन्हीं की मोह की गाँठ नाश हो जाती है। यही फल है ।।१६४ ॥ अथ मोग्रन्थिभेदात्किस्यादिति निरूपयति जो हिदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे । होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अवखयं लहवि ॥ १६५ ॥ यो निहतमोग्रन्थि रागद्वेषी क्षपयित्वा श्रामण्ये | भवेत् समसुखदुःखः स सौख्यमक्षयं लभते ॥ १६५॥ मोहग्रन्यिक्षपणाद्धि तन्मूलरागद्वेषक्षपणं ततः समसुखदुःखस्य परममाध्यस्थ लक्षणे श्रामण्ये भवनं ततोऽना कुलत्थल क्षणाक्ष पसौख्यलाभः | अतो मोहग्रन्थिभेदादक्षय सौख्यं फलम् ।। १६५।। भूमिका – अब, यह कहते हैं कि मोहग्रन्थि के टूटने से क्या होता है— अन्वयार्थ – [ यः ] जो [निहतमोग्रंथि ] मोहग्रंथि को नष्ट करके, [ रागद्वेष क्षपयित्वा ] रागद्वेष का क्षय करके, [ समसुख-दुःख ] सुख-दुख में समान होता हुआ [ श्रामण्ये भवेत् ] श्रमणता ( मुनित्र ) में परिणमित होता है, [सः ] वह [ अक्षयं सौख्यं ] अक्षय सौख्य को [ लभते ] प्राप्त करता है । टीका — मोहग्रन्थि का क्षय करने से, मोहग्रन्थि जिसका मूल है ऐसे राग द्वेष का, क्षय होता है, उससे, जिसे सुख-दुःख समान हैं ऐसे जीव का परम मध्यस्थता जिसका लक्षण है ऐसी श्रमणता में परिणमन होता है, और उससे अनाकुलता जिसका लक्षण है ऐसे अक्षय सुख की प्राप्ति होती है । इससे ( यह कहा है कि मोहरूपी ग्रन्थि के छेदने से अक्षय सौख्यरूप फल होता है ॥ १६५॥ तात्पर्यवृत्ति अथ दर्शन मोहग्रन्थिभेदादिक भवतीति प्रश्ने समाधानं ददाति जो विमोहगंठी यः पूर्वसूत्रोक्तप्रकारेण निहतदर्शन मोहग्रन्थिर्भूत्वा रागपदोसे खवीय निजशुद्धात्मनिश्चलानुभूतिलक्षणवीत रागचारित्रप्रतिबन्धको चारित्रमोहसंज्ञौ रागद्वेषौ क्षपयित्वा । क्व ? सामण्णे स्वस्वभावलक्षणे श्रामण्ये | पुनरपि किं कृत्वा ? होज्जं भूत्वा किंविशिष्टः ? समसुहदुक्खो निजशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्न रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमसुखामृतानुभवेन सांसारिक सुखदुःखोत्पन्नहर्ष Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ४५६ विषादरहितत्वात्समसुखदुःखः । सो सोक्खं अक्खयं लहदि स एवं गुणविशिष्टो भेदज्ञानी सौख्यमक्षयं लभते। ततो ज्ञायते दर्शनमोहक्षयाच्चारित्रमोहसंज्ञरागद्वेषविनाशतश्च सुखदुःखमाध्यस्थ्यलक्षणश्रामण्येऽवस्थानं तेनाक्षयसुखलाभो भवतीति ॥१६५।। उत्थानिका-आग दर्शनमोह की गांठ टूटने से क्या होता है ? इस प्रश्न का समाधान करते हैं ___अन्वय सहित विशेपार्थ-(जो) जो कोई (णिहदमोहगंठी) दर्शनमोह की गाँठ को क्षय करके (सामण्णे) मुनि अवस्था में रहकर (रागपदोसे) रागद्वेषों को (खवीय) नाश करके (समसुहदुषखो होज) सुखदुःख में समताभाव रखने वाला हो जाता है (सो) वह ज्ञानी जीव (अक्खयं सोक्खं ) अधिनाशी आनन्द को (लहदि) प्राप्त करता है। जो कोई पूर्व सूत्र में कहे प्रकार से दर्शनमोह को गांठ को क्षय करके निश्चय से अपने स्वभाव में ठहरकर अपने शुद्ध आत्मा के निश्चय अनुभव स्वरूप सामारि को रोकने वाले चारित्रमोहरूप रागद्वेषों को नाश करके अपने शुद्ध आत्मा के स्वानुभव से उत्पन्न रागादि विकल्पों से रहित जो परमसुख उसके अनुभव से तृप्त होकर सांसारिक सुख व दुःख से उत्पन्न हर्ष विषाद से रहित होने के कारण से सुख-दुःखों में समताभाव रखता है, वह ऐसा गुणवान भेदज्ञानी जीव अक्षय सुख का लाभ करता है। इससे जाना जाता है कि दर्शनमोह के नाश से फिर चारित्रमोहरूप रागद्वेषों को विनाश करके सुख-दुःख में माध्यस्थ लक्षणधारी मुनिपद में जो ठहरना है उसी से ही अक्षयसुख का लाभ होता है ॥१६॥ अर्थकाग्रयसंचेतनलक्षणं ध्यानमशुद्धत्वमात्मनो नावहतीति निश्चिनोति-- जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरु भित्ता। समवविदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा ॥१६६॥ ___ यः क्षपितमोहकलषो विषयविरक्तो मनो निरुध्य ।। समवस्थितः स्वभावे स आत्मानं भवति ध्याता ।।१६६॥ आत्मनो हि परिक्षपितमोहकलुषस्य तन्मूलपरद्रव्यप्रवृत्त्यमावाद्विषविरक्तत्वं स्यात्, ततोऽधिकरणभूतद्रव्यान्तराभावावधिमध्यप्रवतंकपोतपतत्रिण एव अनन्यशरणस्य मनसो निरोधः स्यात् । ततस्तन्मूलचञ्चलत्वविलयादनन्तसहजचैतन्यात्मनि स्थमावे समवस्थान स्यात् । तत्तु स्वरूपप्रवृत्तानाकुलैकाग्रसंचेतनत्वात् ध्यानमित्युपगीयते । अतः स्वभावावस्थानरूपत्वेन ध्यानमात्मनोऽनन्यत्वात् नाशुद्धत्वायेति ॥१६६।। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० । [ पवयणसारो भूमिका-अब, एकाग्र (एक-विषयक) संचेतन जिसका लक्षण है, ऐसा ध्यान आत्मा में अशुद्धता नहीं लाता, यह निश्चित करते हैं ____ अन्वयार्थ-[यः] जो [क्षपितमोहकल्पः ] मोह मल का क्षय करके [विषयविरक्तः] विषय से विरक्त होकर, [मनः निरुध्य] मन का निरोध करके, [स्वभाव समवस्थितः] स्वभाव में समवस्थित (निश्चल) है, [सः] वह [आत्मानं] आत्मा को [ध्याता भवति ] ध्याने वाला होता है। टीका–जिसने मोह मल का क्षय किया है ऐसे आत्मा के, मोह मैल जिसका मूल है ऐसी परद्रव्य प्रवृत्ति का अभाव होने से, विषयविरक्तता होती है उससे, समुद्र के मध्यगत जहाज के पक्षी की भांति, अधिकरण भूत द्रव्यान्तरों का अभाव होने से जिसे अन्य कोई शरण नहीं रही है ऐसे मन का निरोध होता है, इसलिये मन जिसका मूल है, ऐसी चंचलता के विलय होने के कारण अनन्त सहज चतन्यात्मक स्वभाव में समवस्थान (दृढतया रहना) होता है। यह स्वभाव-समवस्थान तो, स्वरूप में प्रवर्तमान, अनाकुल, एकाप्रसंचेतन होने से, ध्यान कहा जाता है । इससे (यह निश्चित हुआ कि-) ध्यान स्वभाव-समवस्थान रूप होने के कारण आत्मा से अनन्य होने से अशुद्धता का कारण नहीं होता ॥१६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ निजशुद्धात्मैकाग्यलक्षणध्यानमात्मनोऽत्यन्तत्रिशुद्धि करोतोत्यावेदयति, जो खविदमोहकलुसो यः क्षपितमोहकलुषः मोहो दर्शनमोहः कलुषश्चारित्रमोहः पूर्वसूत्रद्वयकथितक्रमेण शपितमोहकलुषो येन स भवति क्षपितमोहकलुषः । पुनरपि किंविशिष्ट: ? विसयविरत्तो मोहवालुषरहितस्वात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखमुधारसास्वादबलेन कलुषमोहोदयजनितविषयसुखाकांक्षारहितत्वाद्विषयविरक्तः । पुनरपि कथंभूत: ? समवद्विदो सम्यगवस्थितः । क्व ? सहावे निजपरमात्मद्रव्ये स्वभावे। किंकृत्वा पूर्व ? मणो णिरु भित्ता विषयकषायोत्पन्नविकल्पजाल रूपं मनो निरुध्य निश्चलं कृत्वा सो अप्पाणं हदि झादा स एवं गुणयुक्तः पुरुषः स्वात्मानं भवति ध्याता । तेनैव शुद्धात्मध्यानेनात्यन्तिकी मुक्तिलक्षणां शुद्धि लभत इति 1 ततः स्थितं शुद्धात्मध्यानाज्जोवो विशुद्धो भवतीति । किच ध्यानेन किलात्मा शुद्धो जातः । तत्र विषये चतुर्विधव्याख्याने क्रियते । तथाहि ध्यान ध्यानसन्तानस्तथैवध्यानचिन्ता ध्यानान्वयसूचनमिति । तत्रैकाग्रयचिन्तानिरोधो ध्यानम् तच्च शुद्धाशुद्धरूपेण द्विधा । अथ ध्यानसन्तानः कथ्यते यत्रान्तर्मुहूर्तपर्यन्तं ध्यानं तदनन्तरमन्तर्मुहूर्तपर्यन्तं तत्त्वचिन्ता पुनरम्यन्तर्मुहूर्तपर्यन्तं ध्यानम् पुनरपि तवचिन्तेति प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानवदन्तर्मुहूर्ते गते सति परावर्तनमस्ति स ध्यानसन्तानो भण्यते। स च धर्म्यध्यानसम्बन्धी। शुक्लध्यानं पुनरुपममश्रेणिक्षपक श्रेण्यारोहणे भवति । तत्र चापकालत्वात्परावर्तनरूपध्यानसन्तानो न घटते। इदानीं ध्यानचिन्ता कथ्यते यत्र ध्यानसन्तानवद्धयानपरावर्ती नास्ति ध्यानसम्बधिनी चिन्तास्ति तत्र यद्यपि क्वापि काले ध्यानं Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४६१ करोति तथापि सा ध्यानचिन्ता भण्यते । अथ ध्यानान्वयसूचनं कथ्यते-यत्र ध्यानसामग्रीभूता द्वादशानुप्रेक्षा अन्यद्वा ध्यानसम्बन्धि संवेगवैराग्यवचनं व्याख्यानं वा तत् ध्यानान्ययसूचनमिति । अन्यथा वा चतुर्विधं ध्यानव्याख्यानं ध्याता ध्यानं फलं ध्येयमिति । अथवार्तरौद्रधHशुक्लबिभेदेन चतुर्विध ध्यानव्याख्यानं तदन्यत्र कथितमास्ते ।।१६।। एवमात्मपरिज्ञानाद्दर्शनमोहक्षपणं भवतीति कथनरूपेण प्रथमगाथा दर्शनमोहक्षयाच्चारित्रमोहक्षपणं भवतीति कथनेन द्वितीया तदुभयक्षयेण मोक्षो भवतीति प्रतिपादनेन तृतीया चेत्यात्मोपलम्भफलकथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथात्रयं गतम् । उत्थानिका--आगे कहते हैं कि निज शुद्धात्मा में एकाग्रता रूप ध्यान ही आत्मा की अत्यन्त विशुद्धि कर देता है । . अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई (खविधमोहकलुसो) मोह की कालिमा को क्षय करके (बिसयविरत्तो) इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होता हुआ (मणोणिरुभित्ता) मन को सब तरह से रोककर (सहावे समवठिदो) अपने आत्मस्वभाव में भले प्रकार स्थिर हो जाता है (सो) वही महात्मा (अप्पाणं झादा हववि) आत्मा को ध्याने वाला होता है। जो कोई पूर्व के दो सूत्रों में कहे प्रमाण दर्शनमोह और चरित्रमोह को क्षय करता हुआ, मोह और रागद्वेष की कलुषता से रहित निजात्मानुभव से उत्पन्न सुखामृतरस के स्वाद बल से कलुषता और मोह के उदय से उत्पन्न विषय सुखों की इच्छा से रहित होता हुआ तथा विषयकषायों से उत्पन्न विकल्प जालों में वर्तने वाले मन को रोककर निज परमात्म स्वभाव में भले प्रकार स्थित होता है वही गुणी पुरुष अपने आत्मा का ध्याता होता है। इसी ही शुद्धात्मध्यान से अत्यन्त शुद्धि अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करता है इससे. सिद्ध हुआ कि शुद्धात्मध्यान से जीय विशुद्ध होता है, क्योंकि ध्यान से वास्तव में आत्मा शुद्ध होता है। ध्यान के सम्बन्ध में चार प्रकार का व्याख्यान करते हैं । वह चार प्रकार ध्यान है। ध्यान, ध्यानसंतान, ध्यानचिता तथा ध्यानान्वयसूचना । इनमें से एक किसी विशेष भाव में चित्त को रोकने को ध्यान कहते हैं। यह ध्यान शुद्ध और अशुद्ध के भेव से दो प्रकार है । अब ध्यान-संतान को कहते हैं-जहाँ अंतर्मुहूर्त पर्यंत ध्यान होता है फिर अन्तर्मुहूर्त पर्यत तत्त्वचिंता होती है फिर भी अंतर्मुहुर्त पयंत ध्यान होता है पीछे फिर तत्वचिंता होती है इस तरह प्रमत्त अप्रमत्त गुण स्थान की तरह अंतर्मुहूर्त २ बीतते हुए पलटन हो जाये उसको ध्यानसंतान कहते हैं। यह धर्मध्यान सम्बन्धी जानना चाहिये। शुक्ल यान उपशम तथा क्षपकत्रेणी के चढ़ने पर होता है वहाँ बहुत ही अल्पकाल है Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] [ पवयणसारो इससे (बुद्धिपूर्वक) पलटने रूप ध्यान-संतान नहीं सिद्ध होती है। अब ध्यानचिता को कहते हैं-जहां ध्यान की संतान की तरह ध्यान को पलटन नहीं है किन्तु ध्यान सम्बन्धी चिन्ता है। इस चिन्ता के बीच में ही किसी भी काल में ध्यान करने लगता है तो भी उसको ध्यानचिन्ता कहते हैं। अब ध्यानान्वयसूचना को कहते हैं कि जहाँ ध्यान की सामग्री रूप बारह भावना का चिन्तयन है यार सम्बन्धी संवेग वैराग्य वचनों का व्याख्यान है वह ध्यानान्वयसूचना है। ध्यान का चार प्रकार कथन ध्याता, ध्यान, ध्येय तथा फलरूप है, अथवा आर्त, रौद्र, धर्म, शुक्ल रूप है जिनका कथन अन्य ग्रन्थों में वर्णन किया गया है ॥१६६॥ - इस तरह आत्म-ध्यान से दर्शनमोह का क्षय होता है, ऐसा कहते हुए पहली गाथा, दर्शनमोह के क्षय से चारित्रमोह का क्षय होता है, ऐसा कहते हुए दूसरी, इन दोनों के क्षय से मोक्ष होता है ऐसा कहते हुए तीसरी, इस तरह आत्मा का लाभ होना फल होता है, ऐसा कहते हुए दूसरे स्थल में तीन गाथाएं पूर्ण हुई। अयोपलब्धशुद्धात्मा सकलज्ञानी कि ध्यायतीति प्रश्नमासूत्रयति णिहदघणघाविकम्मो' पच्चक्खं सवभावतच्चण्हू । यंतगदो समणो झादि कमठे असंवेहो ॥१६॥ निहतधनघातिकर्मा प्रत्यक्षं सर्वभावतत्त्वज्ञः। ज्ञेयान्तगत: श्रमणो ध्यायति कमर्थमसंदेहः ॥१६७।। लोको हि मोहसवावे ज्ञानशक्तिप्रतिबन्धकसद्भावे च सतृष्णस्वावप्रत्यक्षार्थत्वाइनवच्छिन्नविषयत्वाभ्यां नाभिलषितं जिज्ञासितं संदिग्धं चार्थ ध्यायन् दृष्टः, भगवान् सर्वशस्तु निहतघनघातिकर्मतया मोहामावे ज्ञानशक्तिप्रतिबन्धकाभावे च निरस्ततष्णात्वात्प्रत्यक्षसर्वभाषतत्त्वज्ञेयान्तगतत्वाभ्यां च नाभिलषति न जिज्ञासति न संदिह्यति च कुतोऽभिलषितो जिशासितः संदिग्धश्चार्थः । एवं सति किं ध्यायति ॥१६७॥ भूमिका--अव, सूत्र द्वारा यह प्रश्न करते हैं कि जिन्होंने शुद्धात्मा को प्राप्त किया है, ऐसे सकलज्ञानी (सर्वज्ञ) क्या ध्याते हैं अन्वयार्थ- [निहतघनघातिकर्मा] जिन्होंने धनघातिकर्म का नाश किया है, [प्रत्यक्ष सर्वभावतत्वज्ञः] जो सर्व पदार्थों के स्वरूप को प्रत्यक्ष जानते हैं, और [जेयान्तगतः] जो ज्ञेयों के पार को प्राप्त हैं, [असंदेहः] जो सन्देहरहित हैं, ऐसे [श्रमणः] महामुनि (केवली) [कम् अर्थ] किस पदार्थ को [ध्यायति ] ध्याते हैं ? १. णिहृदधणयाइकम्मो (ज० वृ०)। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो 1 [ ४६३ टोका-(१) मोह का सद्भाव होने से तथा (२) ज्ञानशक्ति के प्रतिबंधक का (ज्ञानावरणीयकर्म का) सद्भाव होने से, (१) लौकिक जीव (छमस्थ) तृष्णा- सहित है तया (२) उसे पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं हैं और (३) यह विषय को अवच्छेदपूर्वक (स्पष्टता से) नहीं जानता, इसलिये वह (लोक) अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ का ध्यान करता हुआ दिखाई देता है परन्तु घनघातिकम के नाश हो जाने के कारण (१) मोह का अभाव हो जाने पर तथा (२) ज्ञानशक्ति के प्रतिबंधक का अभाव हो जाने पर, (१) जिनकी तृष्णा नष्ट हो गई है तथा (२) (जिनको) समस्त पदार्थों का स्वरूप प्रत्यक्ष है तथा (जिन्होंने) ज्ञेयों का पार पा लिया है, इसलिये भगवान सर्वतदेव अभिलाषा नहीं करते, जिज्ञासा नहीं करते, और संदेह नहीं करते, तब फिर (उनके) अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ कहां से हो सकता है ? जबकि ऐसा है तब फिर वे क्या ध्याते हैं? ॥१६॥ तात्पर्यवृत्ति अथोपलब्धशुखात्मसत्त्वसकलज्ञानी किमतीति प्रानगाभेपद्वारेण पूर्वपक्षं बा करोति, णिहवघणघाइकम्मो पूर्वसूत्रोदितनिश्चल निजपरमात्मतत्त्वपरिणतिरूपशुद्धध्यानेन निहतघनघातिकर्मा । परचक्खं सबभावतच्या प्रत्यक्षं यथा भवति तथा सर्वभावतत्त्वज्ञः सर्वपदार्थपरिज्ञातस्वरूप: यंतगदो ज्ञेयान्तगतः ज्ञेयभूतपदार्थानां परिच्छित्तिरूपेण पारंगतः। एवं विशेषणत्रयविशिष्ट: समणो जीवितमरणादिसम भावपरिणतात्मस्वरूपः श्रमणो महाश्रमणः सर्वशः झादि कमळं ध्यायति कमर्थमिति प्रश्न: ? अथवा कमर्थं ध्यायति ? न कमपीत्याक्षेप: । कथंभूतः सन् ? असंदेहो असन्देहः संशयादिरहित इति । अयमत्रार्थः यथा कोऽपि देवदत्तो विषयसुखनिमित्तं विद्याराधनाध्यानं करोति यदा विद्या सिद्धा भवति तत्फलभूतं विषयसुखं च सिद्धं भवति तदाराधनाध्यानं न करोति, तथायं भगवानपि केवलज्ञानविद्यानिमित्तं तत्फलभूतानन्तसुखनिमित्तं च पूर्व छास्थावस्थायां शुद्धात्मभावनारूपं ध्यान कृतवान् इदानीं तयानेन केवलज्ञान विद्या सिद्धा तत्फलभूतमनन्तसुखं च सिद्धम् किमर्थ ? ध्यानं करोतीति प्रश्नः आक्षेपो वा, द्वितीयं च कारणं परोक्षेऽर्थे ध्यानं भवति भगवतः सर्वप्रत्यक्षं कथं ध्यानमिति पूर्वपक्षद्वारेण गाथा गता ।।१६७|| उस्थानिका-आगे शिष्य पूर्वपक्ष करके यह आक्षेप करता है कि शुद्धात्मतत्त्व को प्राप्त करके सकलज्ञानी परमात्मा किस वस्तु को ध्याते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ-(णिहदघणघाइकम्मो) सर्व घातियाकर्मों को नाश करने वाले (पच्चरखं) प्रत्यक्ष रूप से (सध्धमावतसचण्ह) सब पदार्थों के जानने वाले (णेयंतगदो) सब ज्ञेय पदार्थों के पार पहुंचने वाले (असंदेहो) तथा संशयरहित (समणो) Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] [ पवयणसारो . केवलज्ञानी महामुनि ( कम्मट्ठे ) किस पदार्थ को (शादि ) ध्याते हैं। पूर्व सूत्र में कहे प्रमाण निश्चल अपने परमात्म-तत्त्व में परिणमनरूप शुद्ध ध्यान के बल से घातिया कर्मों के क्षयकर्ता, प्रत्यक्षज्ञानी, सब ज्ञेयों को जानने को अपेक्षा उनके पार होने वाले ऐसे तीन विशेषण सहित जीवन मरण आदि में समताभाव रखने वाले महाश्रमण श्री सर्वज्ञ भगवान जो संशयादि से रहित हैं वह किस पदार्थ को ध्याते हैं ? यह प्रश्न है अथथा किसी पदार्थ को भी नहीं ध्याते हैं यह आक्षेप हैं। यहां यह अर्थ है कि जैसे कोई भी देवदत्त विषयों के सुख के निमित्त किसी विद्या की आराधना रूप ध्यान को करता है जब वह सिद्ध हो जाती है तब उस विद्या के फलरूप विषय सुख को सिद्ध कर लेता है फिर उस विद्या की आराधना रूप ध्यान को नहीं करता है । तैसे ही भगवान् भी केवलज्ञानं रूपो विद्या के निमित्त तथा उसके फलरूप अनन्त सुख के निमित्त पहले छद्मस्य अर्थात् अल्पज्ञ की अवस्था में शुद्ध आत्मा की भावना रूप ध्यान को करते थे अब उस ध्यान से केवलज्ञानरूपी विद्या सिद्ध हो गई तथा उसका फलरूप अनन्त सुख धोति हो गया तंत्र किस लिये ध्यान करते हैं, ऐसा प्रश्न है या आक्षेप है ? दूसरा कारण यह है कि पदार्थ परोक्ष होने पर उसका ध्यान किया जाता है, भगवान् के सर्व प्रत्यक्ष है, तब उनके ध्यान किस तरह हो सकता है, ऐसा पूर्वपक्ष करते हुए गाथा पूर्ण हुई ॥१६७॥ अर्थतनुपलब्धशुद्धात्मा सकलज्ञानी ध्यायतीत्युत्तरमासूत्रयति - सव्वाबाधविजुत्तो समंतसव्वक्ख सोक्खणाणड्ढो । भूदो अक्खातीदो शादि अणक्खो परं सोक्ख ॥। १६८ ।। सर्वाबाधवियुक्तः समन्तसर्वाक्षसौख्यज्ञानाढ्यः । भूतोऽक्षातीतो ध्यायत्यनक्षः परं सौख्यम् ॥१६८॥ अयमात्मा यदेव सहज सौख्यज्ञान बाधायतनानामसायं दिवकास कल पुरुष सौश्यज्ञानायतनानां चाक्षाणामभावात्स्वयमनक्षत्वेन वर्तते तदैव परेषामक्षातीतो भवन् निराबाधसहअसौख्यज्ञानत्वात् सर्वाबाधवियुक्तः सार्वदिक्कसकल पुरुषसौख्य ज्ञान पूर्णत्वात्समन्त सर्वाक्षसौख्यज्ञानादयश्च भवति । एवंभूतश्च सर्वाभिलावजिज्ञासा संदेहासं भवेऽप्य पूर्व मनाकुलत्वलक्षणं परमसौख्यं ध्यायति । अनाकुलत्व संगतैकाग्र संचेतनमात्रेणावतिष्ठत इति यावत् । ईदृशमवस्थानं च सहजज्ञानानन्दस्वभावस्य सिद्धत्वस्य सिद्धिरेव ॥१६८॥ 1 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ४६५ भूमिका-अब, सूत्र द्वारा (उपरोक्त गाथा के प्रश्न का) उत्तर देते हैं कि-जिसने शुद्धात्मा को उपलब्ध किया है वह सकलज्ञानी इस (परमसौख्य) को ध्याता है। ____ अन्वयार्थ- [अनक्षः] अनिन्द्रिय (दूसरे को इन्द्रिय-ज्ञानगम्य न होने वाले) और [अक्षातीतः भूतः] इन्द्रियों से रहित हुए (तथा) [सर्वाबाधवियुक्तः] सर्व बाधा रहित और [समंतसर्वाक्षसौख्यज्ञानाढ्यः] सम्पूर्ण आत्मा में समंत (सर्व प्रकार के, परिपूर्ण) सौख्य तथा ज्ञान से समृद्ध (केवली भगवान्) [परं सौख्यं] परम सौख्य को [ध्यायति ] ध्याते हैं । टीका-जब यह आत्मा, जो सहजसुख और ज्ञान की बाधा का आयतन (स्थान) है (एसी) तथा जो असकल आत्मा में असर्व प्रकार के सुख और ज्ञान का भायतन है, ऐसी इन्द्रियों के अभाव के कारण स्वयं अतीन्द्रिय रूप से वर्तता है, उसी समय वह दूसरों को 'इन्द्रियातीत' (इन्द्रिय अगोचर) वर्तता हुआ (१) निराबाध सहज सुख और ज्ञान दाला होने से 'सर्वबाधा' रहित होता है, तथा (२) सकल आत्मा में सर्व प्रकार के (परिपूर्ण) सुख और ज्ञान से परिपूर्ण होने से 'समस्त आत्मा में समंत सौल्य और ज्ञान प्ते समद्ध' होता है । इस प्रकार का वह आत्मा सर्व अभिलाषा, जिज्ञासा और सन्देह का असम्भव होने पर भी, अपूर्व और अनाकुलत्व लक्षण वाले परमसौख्य को ध्याता है, अर्थात् अनाकुलत्व संगत एक 'अन' के संचेतन मात्ररूप से अवस्थित रहता है, (अर्थात् अनाकुलता के साथ रहने वाले एक आत्मा रूपी विषय के अनुभवन रूप ही मात्र स्थित रहता है) और ऐसा अवस्थान सहज ज्ञानानन्द स्वभावरूप सिद्धत्व की सिद्धि ही है। (अर्थात् इस प्रकार स्थित रहना, सहजज्ञान और आनन्द जिसका स्वभाव है ऐसे सिद्धत्व की प्राप्ति ही है ।) ॥१६॥ तात्पर्यवृत्ति अथात्र पूर्वपक्षे परिहारं ददाति झादि ध्यायति एकाकारसमरसीभावेन परिणमत्यनुभवति । स कः कर्ता ? भगवान् । कि घ्यायति ? सोक्खं सौख्यम् । किविशिष्टम् ? परं उत्कृष्टं सर्वात्मप्रदेशालादकपरमानन्तसुखम् । कस्मिन्प्रस्तावे? यस्मिन्नेव क्षणे भूदो भूतः संजातः । किविशिष्ट: ? अक्खातीदो अक्षातीतः इन्द्रियरहित: न केवलं स्वयमतीन्द्रियो जातः परेषां च अणक्खो अनक्षः इन्द्रियविषयो न भवतीत्यर्थः । पुनरपि किविशिष्ट: ? सवाबाधविजुत्तो "प्राकृत लक्षणवलेन बाधाशब्दस्य ह्रस्वत्वं" सर्वाबाधवियुक्तः । आसमन्ताद् बाधाः पीडा बाबाधा: सर्वाश्च ता आबाधाश्च सर्वाबाधास्ताभिषियुक्तो रहितः सर्वावाधवियुक्तः । पुनश्च किरूपः ? समंतसव्वाखसोक्खणाणड्ढो समन्तत: सामस्त्येन स्पर्शनादिसर्वाक्षसौख्यज्ञानाढयः । समन्ततः सर्वात्मप्रदेश, स्पर्शनादिसर्वेन्द्रियाणां सम्बन्धित्वेन ये ज्ञानसौख्ये द्वे ताभ्यामाढय: परिपूर्ण इत्यर्थः । तद्यथा-अयं भगवानेकदेशोद्भवसांसारिकाज्ञानसुखकारणभूतानि Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पवयणसारो सर्वात्मप्रदेशोद्भवस्वाभाविकातीन्द्रियज्ञानसुखविनाशकानि च यानीन्द्रियाणि निश्चयरलत्रयात्मककारणसमयसारबलेनातिकामति विनाशयति यदा तस्मिन्नेव क्षणे समस्तबाधारहितः सन्नतीन्द्रियमनन्तमात्मोत्थसुखं ध्यायत्यनुभवति परिणमति। ततो ज्ञायते केवलिनामन्यचिन्तानि रोधलक्षणं ध्यानं नास्ति कित्विदमेव परमसुखानुभवनं वा ध्यानकार्यभूतां कर्मनिर्जरां दृष्ट्वा ध्यानशब्देनोपचर्यते । यत्पुनः सयोगिकेवलिनस्तृतीय शुक्लध्यानमयोगिकेलिनश्चतुर्थशुक्लध्यानं भवतीत्युक्त तदुपचारेण ज्ञातव्यमिति सूत्राभिप्रायः ॥१६॥ एवं केवली कि ध्यायतीति प्रश्नमुख्यत्वेन प्रथमगाथा। परमसुखं ध्यायत्यनुभवतीति परिहारमुख्यत्वेन द्वितीया चेति ध्यानविषयपूर्वपक्षपरिहारद्वारेण तृतीयस्थले गाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका-आगे इस पूर्वपक्ष का समाधान करते हैं-- अन्वय सहित विशेषार्थ—(सध्यावाविजुत्तो) सर्व प्रकार की बाधा से रहित व (समंतसव्यक्खसोक्खणाणड्ढो) सब रह से सर्व सामोद तुप और ज्ञान से पूर्ण (अक्खातोदो) तथा अतीन्द्रिय (भूदो) होकर (अणक्खो) दूसरों के भी इन्द्रियों के जो विषय नहीं हैं, ऐसे केवली भगवान् (परं सोक्खं) परमानन्द को (शादि) च्याते हैं। जिस समय से केवली भगवान् इन्द्रियज्ञान से रहित अतीन्द्रिय हुए, व सर्व प्रकार की पीड़ा से रहित हुए तथा सर्व आत्मा के प्रदेशों में आत्मीक शुद्ध ज्ञान तथा शुद्धसुख से परिपूर्ण हुए उसी समय से वे भगवान् जिनकी आत्मा दूसरों के इन्द्रियों का विषय नहीं हैं किसी परम उत्कृष्ट सम्पूर्णआत्मा के प्रदेशों में आह्लाद देने वाले अनन्त सुखरूप एकाकार समता रस के भाव से परिणमन करते रहते हैं अर्थात् निरन्तर अनन्तसुख का स्वाद लेते रहते हैं। जिस समय यह भगवान् एक देश होने वाले सांसारिक ज्ञान और सुख को कारण तथा सब आत्मा के प्रदेशों में पैदा होने वाले स्वाभाविक अतीन्द्रियज्ञान और सुख को नाश करने वाली इन्द्रियों का निश्चयरत्नत्रयमयी कारण समयसार के बल से उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् उन इन्द्रियों के द्वारा प्रवृत्ति को नामा कर देते हैं उसी ही क्षण से वे सर्व बाधा से रहित हो जाते हैं, तथा अतीन्द्रिय और अनंत आत्मा से उत्पन्न आनन्द का अनुभव करते रहते हैं अर्थात् आत्म सुख को ध्याते हैं व आत्मसुख में परिणमन करते हैं। इससे जाना जाता है कि केवलियों को दूसरा कोई चिन्तानिरोध लक्षण ध्यान नहीं है, किन्तु इसी परम सुख का अनुभव है अथवा उनके ध्यान के फलरूप कर्म की निर्जरा को देखकर ध्यान है ऐसा उपचार किया जाता है तथा जो आगम में कहा है कि सयोगकेवली के तीसरा शुक्लायान व अयोगकेवली के चौथा शुक्लध्यान होता है वह उपचार से जानना चाहिये, ऐसा सूत्र का अभिप्राय है ॥१६॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो । [ ४६७ इस तरह केवली भगवान क्या ध्यात व क्यों ध्यात हैं। इस प्रश्न को मुखपता से पहली गाथा, तथा वे भगवान परमसुख को ध्याते या अनुभवते हैं इस तरह उस प्रश्न का समाधान करते हुए दूसरी: इस तरह ध्यान-सम्बन्धी पूर्व पक्ष के परिहार रूप से तीसरे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुई। अथायमेव शुद्धात्मोपलम्भलक्षणो मोक्षस्य मार्ग इत्ययवारयति-- एवं जिणा जिणिदा सिद्धा मग्गं समुट्ठिदा समणा । जादा णमोत्थु तेसि तस्स य णिव्वाणमग्गस्स ॥१६६।। एवं जिना जिनेन्द्राः सिद्धा मार्ग समुत्थिता श्रमणाः । जाता नमोऽस्तु तेभ्यस्तस्मै च निर्वाणमार्गाय ॥१६॥ यतः सर्व एव सामान्यचरमशरीरास्तीर्थकराः अचरमशरीरा मुमुक्षवश्चामुनव यथोदितेन शुद्धात्मतत्वप्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मार्गमधिगम्य सिद्धा बभूवः, न पुनरन्यथापि । ततोऽवधार्यते केवलमयमेक एच मोक्षस्य मार्गों न द्वितीय इति । अलंच प्रपञ्चेन । तेषां शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तानां सिद्धानां तस्य शुद्धात्मतत्वप्रवृत्ति रूपस्य मोक्षमार्गस्य च प्रत्यस्तमितभाव्यभावकविभागत्वेन नोआगमभावनमस्कारोऽस्तु । अवधारितो मोक्षमार्गः कृत्यमनुष्ठीयते ॥१६॥ भूमिका-अब यह निश्चय करते हैं कि-'यही (पूर्वोक्त हो) शुद्ध आत्मा की उपलब्धि जिसका लक्षण है, ऐसा मोक्ष का मार्ग है'--- ___ अन्वयार्थ----[जिनाः जिनेन्द्राः श्रमणाः] जिन, जिनेन्द्र और श्रमण (अर्थात् सामान्यकेवली, तीर्थकर और मुनि) [एवं] इस (पूर्वोक्त ही) प्रकार [मार्ग समुत्थिताः] मार्ग पर आरूढ़ होते हुए [सिद्धाः जाताः] सिद्ध हुए हैं। [तेभ्यः] उन सबको [च] और [तस्मै निर्वाणमार्गा] उसनिर्वाण मार्ग को [नमोऽस्तु] नमस्कार होवे। टीका-क्योंकि, सभी सामान्य चरमशरीरी, तीर्थकर और अवरमशरीरी मुमुक्ष इसी यथोक्त शुद्धात्मतत्वप्रवृत्तिलक्षण विधि से प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त करके सिद्ध हुये, किसी दूसरी विधि से नहीं, इसलिये निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्ष का मार्ग है, दूसरा नहीं। अधिक विस्तार से पूरा पढ़े। उस शुद्धात्मतत्व में प्रवर्ते हुये सिद्धों को तथा उस शुद्धात्मतत्व प्रत्ति रूप मोक्षमार्ग को, जिसमें से मान्य-भावक का (ध्येयध्याता का) विभाग अस्त हो गया है, ऐसा नोआगम भाव नमस्कार हो (इस प्रकार) मोक्षमार्ग निश्चित किया है, (और उसमें) प्रवृत्ति करते हैं ॥१६॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] [ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथायमेव निजशुद्धात्मोपलब्धिलक्षण मोक्षमार्गे नान्य इति विशेषेण समर्थयति - जादा जाता उत्पन्नः । कथंभूताः ? सिद्धा सिद्धाः सिद्धपरमेष्ठिनो मुक्तात्मान इत्यर्थः । के कर्त्तारः ? जिशा जिना : अनागारकेवलिनः । जिणिदा जिना: न केवलं जिना जिनेन्द्राश्च तीर्थकर परमदेवाः । कथंभूताः सन्तः एते सिद्धा जाताः ? मग्गं समुट्ठिदा निजपरमात्मतत्वानुभूतिलक्षणमार्ग मोक्षमार्ग समुत्थिा आश्रिताः । केन ? एवं पूर्वं बहुधा व्याख्यातक्रमेण । न केवलं जिना जिनेन्द्रा अनेन मार्गेण सिद्धा जाता: समणा सुखदुःखादिसमता भावनापरिणतात्मतत्त्वलक्षणा शेषा अचरमदेहश्रमणास्त्र । अत्र रमदेहानां कथं सिद्धत्वमिति चेत् ? "तवसिद्धे णयसिद्धे संजमसिद्धे चरितसिद्धे य । गाणमि दंसणम्मि य सिद्धे सिरसा णमस्सामि ॥" इति गाथाकथितक्रमेणैकदेशेन णमोत्यु तेसि नमोऽस्तु तेभ्यः । अनन्तज्ञानादिसिद्धगुणस्मरणरूपो भावनमस्कारोऽस्तु तस्स य णिव्वाणभागस्स तस्मै निविकारस्वाण निश्वक लयात्मक निर्वामाय च । ततोऽवधार्यते अयमेव मोक्षमार्गे नान्य इति ॥ १६६ ॥ उत्थानिका— आगे विशेष करके समर्थन करते हैं कि यह अपने शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण ही मोक्षमार्ग है, अन्य कोई मार्ग नहीं है । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( एवं ) इस तरह पूर्व कहे प्रमाण (भग्गं समुट्ठिया) मोक्षमार्ग को प्राप्त होकर (समणा ) मुनि, ( जिणा ) सामान्यकेवली जिन, ( जिंगिदा ) तथा तीर्थंकरफेथली जिन, ( सिद्धा) सिद्ध परमात्मा ( जादा ) हुए (तसि) उन सबको (य) और तस्स णिवाणमग्गस्स) उस मोक्षमार्ग को (णमोत्थु ) नमस्कार हो । इस तरह बहुत प्रकार से पहले कहे हुए निज परमात्मतत्व के अनुभवमयी मोक्षमार्ग को आश्रय करने वाले जीव सुख दुःख आदि में समताभाव से परिणमन करने वाले तथा आत्मतत्व में लोन अनेक मुनि हुए जो तद्भव मोक्षगामी न थे तथा सामान्यकेवली जिन हुए व तीर्थंकर परमदेव हुए, ये सब सिद्ध परमात्मा हुए हैं। उन सबको तथा उस विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण निश्चयरत्नत्रयमयी मोक्ष के मार्ग का हमारा अनन्तज्ञानादि सिद्ध गुणों का स्मरणरूप भाव नमस्कार हो । यहाँ अचरमशरीरी मुनियों को सिद्ध मानकर इसलिये नमस्कार किया है कि उन्होंने भी रत्नत्रय को सिद्धि को है । जैसा कहा है "लव सिद्धे णयसिद्धे संजमसिद्धे चरितसिद्धे य । णाणस्मि दंसणम्मि य सिद्धे सिरसा णर्मस्सामि " पाई है, संयम सिद्धि पाई है है कि यहो अर्थात् जिन्होंने तप में सिद्धि पाई है, नयों के स्वरूपज्ञान में सिद्धि में सिद्धि की है, चारित्र में सिद्धि पाई है तथा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में उन सबको में सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ। इससे निश्चय किया जाता मोक्ष का मार्ग है, अन्य कोई नहीं है ॥ १६६ ॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] । ४६६ अथोपसंपचे साम्यमिति पूर्वप्रतिज्ञां निर्वहन् मोक्षमार्गभूतां स्वयमपि शुद्धात्मप्रवृत्तिमासूत्रयति तम्हा तह जाणित्ता अप्पाणं जाणगं समावेण' । परिवज्जामि मत्ति उठ्ठिदो जिम्ममत्तम्मि ॥२०॥ तस्मात्तथा ज्ञात्वात्मानं ज्ञायक स्वभावेन । परिवर्जयामि ममतामुपस्थिती निर्ममत्वे ।।२००५ अहमेष मोक्षाधिकारी ज्ञायकस्वभावात्मतत्त्वपरिज्ञामपुरस्सरममत्व निर्ममत्वहानोपादा नविधानेन कृत्यान्तरस्याभावात्सर्वारम्भेण शुद्धात्मनि प्रवर्ते । तथाहि-अहं हि तावत् ज्ञस्यक एव स्वभावेन, केवलज्ञायकस्य च सतो मम विश्वेनापि सहजज्ञेयज्ञायकलक्षण एवं सम्बन्धः न पुनरन्ये, स्वस्वामिलक्षणावयः सम्बन्धाः। ततो मम न क्वचनापि ममत्वं सर्वत्र निर्ममत्वमेव । अकस्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेय- भावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्ण लिखितनिखातको निहता जिजतसापतिमाणिनिम्मिलता क्रमप्रवृत्तानन्तभूतभवद्भाविधिचित्रपर्यायप्रारभारमगाधस्वभावं गम्भीर समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षणे एवं प्रत्यक्षयन्तं ज्ञेयज्ञायकलक्षणसंबन्धस्यानिवार्यत्वेनाशक्यविवेचनत्वादुपात्तवैश्वरूप्यमपि सहजानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेनैक्यरूप्यमनुज्झन्तमासंसारमनयैव स्थित्या स्थितं मोहेनान्यथाध्यवस्यमानं शुद्धात्मानमेष मोहमुत्खाय यथास्थितमेवातिनिःप्रकम्पः संप्रतिपचे । स्वयमेव भवतु चास्यैव दर्शनविशुद्धिमूलया सम्यग्ज्ञानोपयुक्ततयात्यन्तमव्याबाधस्तत्वात्साधोरपि साक्षारिसद्धभूतस्य स्वात्मनस्तथाभूतानां परमात्मनां च नित्यमेव तदेकपरायणत्वलक्षणो मावनमस्कारः ॥२००। * शालिनी छन्द * जनं मानं ज्ञेयतत्त्वप्रणेत स्फोतं शब्दब्रह्म सम्यग्विगाह्म ।। संशुद्धात्मतम्यमात्रकवृत्या नित्यं युक्तः स्वीयसेऽस्माभिरेयम् ॥१०॥ ज्ञेयीकुर्वनम्जसासीमविश्वं ज्ञानीकुर्वन् शेयमान.न्तभेदम् । आत्मीकुर्वन् ज्ञानमात्मान्यभासि स्फूर्जत्यात्मा ब्रह्म संपच सद्यः ॥११॥ वसन्ततिलका छन्द वच्यानुसारि चरणं चरणानुसारि व्यं मिथो द्वयमिदं ननु सख्यपेक्षम् । तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतु मोक्षमार्ग तव्यं प्रतीत्य यदि या वरणं प्रतीत्य ॥१२॥ इति तस्वदीपिकायां प्रवशनसारवृत्तौ श्रीमदमतचन्द्रसूरिविरचितायां ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनो नाम द्वितीयः श्रुतस्कन्धः समाप्सः ॥२॥ १-सहावेण (जा य०) । २. णिम्ममत्तम्हि (ज० वृ०)। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] [ पवयणसारो भूमिका—अब, साम्य को प्राप्त करता हूँ ऐसी (पांचवीं गाथा में की गई) पूर्व प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए (आचार्यदेव) स्वयं भी मोक्षमार्गभूत शुद्वात्म प्रवृत्ति करते हैं अन्वयार्थ—[तस्मात् ] इस कारण (अर्थात् शुद्धात्मा में प्रवृत्ति के द्वारा ही मोक्ष होता है, इस कारण) से [तथा] उसी प्रकार [आत्मानं] आत्मा को [स्वभावेन ज्ञायकं] स्वभाव से ज्ञायक [ज्ञात्वा] जानकर [निर्ममत्वे उपस्थितः] मैं निर्ममत्व में स्थित रहता हुआ [ममता परिवर्जयामि] ममता का परित्याग करता हूं। टीका-मैं यह मोक्षाधिकारी, जायफस्वभावी आत्मतत्व के परिज्ञानपूर्वक ममत्व को त्यागरूप और निर्ममत्व को ग्रहणरूपी विधि के द्वारा सर्व आरम्भ (उद्यम) से शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता है, क्योंकि अन्य कृत्य का अभाव है । (अर्थात् दूसरा कुछ भी करने योग्य नहीं है)। वह इस प्रकार है (अर्थात मैं इस प्रकार शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता हूँ)-प्रथम तो मैं स्वभाव से ज्ञायक ही हूं, केवल ज्ञायक हाने से भरा विश्व (समस्त पदार्थो) के साथ भी सहज ज्ञेयज्ञायक लक्षण सम्बन्ध ही है, किन्तु अन्य स्वस्वामिलक्षणादि सम्बन्ध नहीं है। इसलिये मेरा किसी के प्रति ममत्व नहीं हैं, सर्वत्र निर्ममत्व ही है। अब, (१) एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, क्रमशः प्रवर्तमान, अनन्त भूत, वर्तमान, भावी विचित्र पर्याय समूह वाले, अगाध स्वभाव और गम्भीर समस्त द्रव्यमान को-मानों वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों कोलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बिस हो गये हों,-एक क्षण में ही जो (शुद्धात्मा) प्रत्यक्ष करता है, (२) ज्ञेय ज्ञायक लक्षणरूप संबन्ध की अनिवार्यता के कारण ज्ञेय-जायक को भिन्न करना अशक्य होने से, विश्वरूपता को प्राप्त होता हुआ भी जो (शुद्धात्मा) सहज अनन्तशक्ति वाले ज्ञायक स्वभाव के द्वारा एकरूपता को नहीं छोड़ता, (३) जो अनादि संसार में इसी स्थिति में (ज्ञायकभावरूप हो) रहा हैं, और (४) जो मोह के द्वारा दूसरे रूप में जाना माना जाता हैं, उस शुद्धात्मा को यह मैं, मोह को उखाड़ फेककर, अतिनिष्कम्प रहता हुआ, यथास्थित (जैसा का तैसा) ही प्राप्त करता हूँ। इस प्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञान में उपयुक्तता के कारण अत्यन्त अभ्याबाध (निविघ्न) लीनता होने से, साधु होने पर भी साक्षात् सिद्धभूत निज आत्मा को तथा सिद्धभूत परमात्माओं का, उसी में परायणता जिसका एफ लक्षण है ऐसा भाव नमस्कार सदा ही स्वयमेव हो ॥२००॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४७१ अब श्लोक द्वारा जिनेन्द्रोक्त शब्दब्रह्म के सम्यक् अभ्यास का फल कहा जाता है अर्थ-इस प्रकार ज्ञेयतत्व को समझाने वाले जन ज्ञान में---विशाल शब्दब्रह्म में सम्यक्तया अवगाहन करके (डुबकी लगाकर, गहराई में उतरकर निमग्न होकर) हम मात्र शुद्ध आत्मद्रव्यरूप एक वृत्ति से (परिणति से) सदा युक्त रहते हैं ॥१०॥ अब श्लोक के द्वारा मुक्तात्मा के ज्ञान को महिमा गाकर ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापनाधिकार को पूर्णाहुति की जा रही है ___अर्थ-आत्मा ब्रह्म को (परमात्मत्व को, सिद्धत्व को) शीघ्र प्राप्त करके, असीम (अमन्त) विश्व को शीघ्रता से (एक समय में) ज्ञेयरूप करता हुआ, भेदों को प्राप्त ज्ञेयों को ज्ञानरूप करता हुआ (अनेक प्रकार के ज्ञेयों को जानता हुआ) और स्वपर प्रकाशक ज्ञान को आत्मारूप करता हुआ, प्रगट-दैदीप्यमान होता है ॥११॥ __अब श्लोफबारा, द्रब्ध और सरग का लम्बा लाकर, ज्ञेयतत्व प्रज्ञापन नामक द्वितीयाधिकार की और चरणानुयोग सूचक चूलिका नामक तृतीयाधिकार की संधि बतलाई जाती है अर्थ-चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुमार होता है। इस प्रकार वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं, इसलिये या तो द्रव्य का आश्रय लेकर अथवा चरण का आश्रय लेकर मुमुक्षु (ज्ञानीमुनि) मोक्षमार्ग में आरोहण करो। इस प्रकार (श्री भगवत कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद् अमृनचन्द्राचार्यदेव विरचित तत्त्वदीपिका नामक टीका का यह 'ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन नामक द्वितीयस्कंध (का भाषानुवार) समाप्त हुआ। तात्पर्यवृत्ति अथ 'उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती' इत्यादि पूर्वप्रतिज्ञा निर्वाह्यन् स्वयमपि मोक्षमार्गपरिणति स्वीकरोतीति प्रतिपादयति, तम्हा यस्मात्पूर्वोक्तशुद्धात्मोपलम्भलक्षणमोक्षमार्गेण जिना जिनेन्द्राः श्रमणापच सिद्धा जातास्तस्मादपि तह तथैव तेनैव प्रकारेण जाणित्ता ज्ञात्वा 1 कम् ? अप्पाणं निजपरमात्मानम् । कि विशिष्टं ? जाणगं ज्ञायकं केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वभाव । केन कृत्वा ? ज्ञात्वा । सहावेण समस्तरागादिविभावरहित शुद्धबुद्धक स्वभावेन । पश्चात् किं करोमि ? परिषज्जामि परि समन्ताद्वर्जयामि । कां ? मत्ति समस्तचेतनाचेतनमिश्रपरद्रव्यसम्बन्धिनी ममताम् । कथंभूतः सन् ? उद्विदो उपस्थितः परिणत: । क्व? णिम्ममत्तम्हि समस्तपरद्रव्यममकाराहंकाररहितत्वेन निर्ममत्वलक्षणे परमसाम्याभिधाने वीतरागचारित्र तत्परिणतनिजशुद्धात्मस्वभावे वा । तथाहि अहं तावत्केवलज्ञानदर्शनस्वभावत्वेन ज्ञायकैकट टोत्कीर्णस्वभावः । तथाभूतस्य सतो मम नु केवलं स्वस्वाम्यादयः परद्रव्यसम्बन्धा न सन्ति । निश्चयेन ज्ञेयज्ञा Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] [ पवयणसारो यकसम्बन्धो नास्ति। ततः कारणात्समस्तपरद्रव्यममत्वरहितो भूत्वा परमशाम्य लक्षणे निजशुन्द्वात्मनि तिष्ठामीति । किंच 'उपसंपयामि सम्म' इत्यादि स्वकीयप्रतिजा निर्वाड यन्स्वयमपि मोक्षमार्गपरिणति स्वीकरोत्येवं यदुक्त गाथापातनिका प्रारम्भे तेन किमुक्त भवति-ये तां प्रतिज्ञा गृहीत्वा सिद्धिगतास्तैरेव सा प्रतिज्ञा वस्तुवृत्त्या समाप्ति नीता। कुन्दकुन्दाचार्यदेवैः पुनर्ज्ञानदर्शनाधिकारद्वयरूपग्नन्थसमाप्तिरूपेण समाप्ति नीता । शिवकुमारमहाराजेन तु तद्ग्रन्थ श्रवणेन च । कस्मादिति चेत् ? ये मोक्षं गतास्तेषां सा प्रतिज्ञा परिपूर्णा जाता । न चैतेषां, कस्मात् ? चरमदेहत्वाभावादिति ।।२०।। एवं ज्ञानदर्शनाधिकारसमाप्तिरूपेण चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका--आगे प्रथम ज्ञानाधिकार की पांचवीं गाथा में आचार्य ने कहा था कि "उवसंपयामि सम्म जुत्तो णिवाणसंपत्ती" मैं साम्यभाव को धारण करता हूं जिससे निर्वाण की प्राप्ति होती है, उसी अपनी पूर्व प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए स्वयं ही मोक्षमार्ग की परिणति को स्वीकार करते हुए कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(तम्हा) इसलिये (तह) तिसही प्रकार (सहावेण) अपने स्वभाव से (जाणगं) ज्ञायक मात्र (अप्पाणं) आत्मा को (जाणित्ता) जानकर (हिम्मत्तम्हि) ममतारहित भाव में (उठ्ठिदो) ठहरा हुआ (ममत्ति) ममता भाव को (परिवज्जामि) मैं दूर करता हूँ। षयोंकि पहले कहे हुए प्रमाण शुद्धात्मा के लाभ रूप मोक्षमार्ग के द्वारा जिन, जिनेन्द्र तथा महामुनि सिद्ध हुए हैं इसलिये मैं भी उसी ही प्रकार से सर्व रागादि विभाव से रहित शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव के द्वारा उस केवलज्ञानादि अनंतगुण स्वभाव के धारी अपने ही परमात्मा को जान करके सर्व पर द्रव्य सम्बन्धी ममकार अहंकार से रहित होकर निर्ममता लक्षण परम साम्यमान नाम के वीतरागचारित्र में अथवा उस चारित्र में परिणमन करने वाले अपने शुद्ध आत्म स्वभाव में ठहरा हुआ सर्व चेतन अचेतन व मिश्र रूप परद्रव्य सम्बन्धी ममता को सब तरह से छोड़ता हूँ। भाव यह है कि मैं केवलज्ञान तथा केवलदर्शन स्वभाव रूप से ज्ञायक एक टंकोत्कीर्ण स्वभाव हूँ ऐसा होता हुआ मेरा परद्रव्यों के साथ अपने स्वामीपने आदि का कोई सम्बन्ध नहीं है मात्र ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है, सो भी व्यवहारनय से है निश्चय से यह ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध भी नहीं है। इस कारण से मैं सर्व परब्रव्यों के ममत्व से रहित होकर परम समता लक्षण अपने शुद्धात्मा में ठहरता है। श्री कुन्दकुन्द महाराज ने "उवसंपयामि सम्म" मैं समताभाव को आश्रय करता हूँ इत्यादि अपनी को हुई प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हये स्वयं ही मोक्षमार्ग की परिणति को स्वीकार किया है ऐसा जो गाथा की पातनिका के प्रारम्भ में कहा गया है उससे यह भाव प्रगट होता है कि जिन महात्माओं ने उस प्रतिज्ञा को लेकर सिद्धि पाई है उन्हीं के द्वारा Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४७३ वास्तव में यह प्रतिज्ञा पूरी की गई है। श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने तो मात्र ज्ञान दर्शन ऐसे बो अधिकारों को ग्रंथ में समाप्त करते हुए उस प्रतिज्ञा को पूरा किया है । शिवकुमार महाराज ने सो मात्र ग्रन्थ के श्रवण से ही साम्यभाव का आलम्बन किया है। क्योंकि वास्तव में जो मोक्ष को प्राप्त हुए हैं उन्हीं की यह प्रतिज्ञा पूर्ण हुई है न कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य महाराज की और न शिवकुमार राजा की क्यों दोनों के घरमदेह का अभाव है || २००|| तात्पर्य वृत्ति एवं जिशुद्धात्मभावनारूपमोक्षमार्गेण ये सिद्धि गता ये च तदाराधकास्तेषां दर्शनाधिकारापेrयावसानमङ्गलार्थं ग्रन्थापेक्षया मध्यमङ्गलार्थं च तत्पदाभिलाषी भूत्वा नमस्कारं करोति प्राकृतग्नथा दंसणसंसुद्धाणं सम्मण्णाणोदओगजुत्ताणं । अवाबाधरवाणं णमो णमो सिद्धसाहूणं ||२०० - १। णमो णमो नमो नमः पुनः पुनर्नमस्करोमीति भक्तिप्रकर्षं दर्शयति । केभ्यः ? सिद्धसाहूणं सिद्धसाधुभ्यः । सिद्धशब्दवाच्यस्वात्मोपलब्धिलक्षणार्हत्सिद्धेभ्यः साधुशब्दवाच्यमोक्षसाधकाचार्योपाध्यायसाधुभ्यः । पुनरपि कथंभूतेभ्यः ? दंसणसंसुद्धाणं मुढत्रयादिपञ्चविंशतिमलरहितसम्यम्दर्शनसंशुद्धेभ्यः । पुनरपि कथंभूतेभ्यः ? सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताणं संशयादिरहितं सम्यग्ज्ञानं तस्योपयोगः सम्यग्ज्ञानोपयोगः, योगो निर्विकल्पसमाधिर्वीतराग चारित्रमित्यर्थः ताभ्यां युक्ताः सम्यग्ज्ञानोपयोगयुक्तास्तेभ्यः । पुनश्च किरूपेभ्यः अब्बाबाधरवाणं सम्यग्ज्ञानादिभावनोत्पन्नाव्याबाधानन्तसुख रतेभ्य प्रच ।।२००-१।। इति नमस्कारगाथासहितस्थलचतुष्टयेन चतुर्थविशेषान्तराधिकारः समाप्तः । एवं 'अस्थित्तणिच्छिदस्स हि' इत्याद्येकादमगाथापर्यन्त शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रय मुख्यत्वेन प्रथमो विशेषान्तराधिकारस्तदनन्तरं 'अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तोय' इत्यादिगाथानवकपर्यन्तं पुद्गलानां परस्परबन्धमुख्यत्वेन तृतीयो विशेषान्तराधिकारस्ततः परं 'अरसमब' इत्यादि एकोनविंशतिगाथापर्यन्तं जीवस्य पुद्गलकर्मणा सह बन्ध मुख्यत्वेन तृतीय विशेषान्तराधिकारस्ततश्च 'ण चयदि जो दु ममत्ति इत्यादि द्वादशगाथापर्यन्त विशेषभेदभावनाचूलिकाव्याख्यानरूपपचतुर्थ: चारित्रविशेषान्तराधिकार इत्येकाधिक पञ्चाशद्गाथाभिर्विशान्तराधिकारचतुष्टयेन विशेषभेदभावनाभिधानाश्चतुर्थोन्तराधिकारः समाप्तः । इति श्री जयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यंवृतौ 'तम्हा तस्सणभाई इत्यादि पञ्चत्रिंशद्गाथापर्यन्तं ततश्च व्याख्यानं तदनन्तरं 'दवं जीव' इत्याद्ये कोन विप्रतिगाथापर्यन्तं जीवपुद्गलधर्मादिभेदेन विशेषज्ञेयव्याख्यानं ततश्च 'सपदेसेहि समग्गो' इत्यादि गाथाष्टकपर्यन्तं सामान्य भेदभावना ततः परं 'अत्थिर्त्ताणच्छिदस्य हि इत्याद्येकाधिकपञ्चाशद्गाथापर्यन्तं विशेषभेदभावना चेत्यन्तराधिकारचतुष्टयेन त्रयोदशाधिकशतगाथाभिः सम्यग्दर्शनाधिकार नामा ज्ञेया-धिकारापरसंज्ञो द्वितीयो महाधिकारः समाप्तः ॥२॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] [ पक्ष्यणसारो उत्थानिका-इस तरह निज शुद्धात्मा की भावनारूप मोक्षमार्ग के द्वारा जिन्होंने सिद्धि पाई है और जो उस मोक्षमार्ग के आराधना वाले हैं उन सबको इस दर्शन अधिकार की समाप्ति में मंगल के लिये अथवा ग्रंथ की अपेक्षा मध्य में मंगल के लिये उस ही पद की इच्छा करते हुए आचार्य नमस्कार करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(सणसंसुद्धाणं) सम्यग्दर्शन से शुद्ध (सम्मण्णाणोवजोगजताणं) व सम्यग्ज्ञानमयो उपयोग से युक्त तथा (अथ्वाबाधरदाणं) अव्याबाध सुख में लीन (सिद्धसाहणं) सिद्धों को और साधुओं को (णमो णमो) बार बार नमस्कार हो। जो तीन मूढ़ता आदि पच्चीस बोषों से रहित शुद्ध सम्यग्वष्टो हैं, व संशयादि दोषों से रहित सम्यग्ज्ञानमयो उपयोगधारी हैं अथवा सम्यग्ज्ञान और निर्विकल्पसमाधि में वर्तने वाले वीतरागचारित्र सहित हैं तथा सम्यग्ज्ञान आदि की भावना से उत्पन्न अव्याबाध तथा अनन्तसुख में लीन हैं ऐसे जो सिद्ध हैं अर्थात अपने आत्मा को प्राप्ति करने वाले अहंत और सिद्ध हैं तथा जो साधु हैं अर्थात् मोक्ष के साधक आचार्य, उपाध्याय तथा साधु हैं उन सबको मेरा बार बार नमस्कार हो ऐसा कहकर श्रीकुन्दकुन्द आचार्य ने अपनी उत्कृष्ट भक्ति दिखाई है ॥२०॥१॥ इस तरह नमस्कार गाथा सहित चार स्थलों में चौथा विशेष अन्तर अधिकार समाप्त हुआ। इस "अस्थित्त णिच्छिदस्स हि" इत्यादि ग्यारह गाथा तक शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोग इन तीन उपयोग की मुख्यता से पहला विशेष अन्तर अधिकार है फिर 'अपदेसो परमाणु पदेसमत्तीय' इत्यादि नौ गाथाओं तक पुद्गलों के परस्पर बंध की मुख्यता से दूसरा विशेष अन्तर अधिकार है । फिर "अरसमरूव" इत्यादि उन्नीस गाथा तक जीव का पुद्गलकर्मों के साथ बंध कथन की मुख्यता से तीसरा विशेष अन्तर अधिकार है फिर "ण चयदि जो दुममति' इत्यादि बारह गाथाओं तक विशेष भेदभावना की चूलिका रूप व्याख्यान है ऐसा चौथा चारित्र विशेष का अन्तर अधिकार है, इस तरह इक्यावन गाथाओं से चार विशेष अन्तर अधिकारों से विशेष भेदभावना नामक चौथा अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ 1 इस तरह श्री जयसेनाचार्य कृत तात्सर्यवत्ति में "तम्हा दंसण माई" इत्यादि पैतीस गाथाओं तक सामान्य ज्ञेय का व्याख्यान है फिर "दव्वं जीव" इत्यादि उत्नीस गाथाओं तक जीव पुद्गलधर्मादि भेद से विशेष ज्ञेय का व्याख्यान है फिर "सपदेसेहि समग्गो"इत्यादि Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४७५ आठ गाथाओं तक सामान्य भेदभावना है पश्चात् “अस्थित्तणिच्छिदस्सहि" इत्यादि इक्यावन गाथाओं तक विशेष भेदभावना है, इस तरह चार अन्तर अधिकारों में एक सौ तेरह गाथाओं से सम्यग्दर्शन नाम का अधिकार अथवा ज्ञेयाधिकार नाम का दूसरा महाअधिकार समाप्त हुआ ! इस तरह ज्ञानदर्शन अधिकार की समाप्ति करते हुए चौथे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुईं। इस प्रकार प्रवचनसार का दूसरा खण्ड ज्ञेयाधिकार श्रीमदामृत चन्द्राचार्यकृत तत्त्व प्रदोपिका तथा जयसेनाचार्य कृत तात्पर्य वृत्ति तथा इन्हीं की भाषा टीकाओं सहित समाप्त हुवा । 卐 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चरणानुयोगसूचक चूलिका * अथ परेषां चरणानुयोगसूचिका चूलिका । तत्र * इन्द्रवज्रा छन्द * द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिः स्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धौ। बुद्ध्वेति कर्माविरताः परेऽपि च्याविरुद्धं चरणं चरंतु ॥१३॥ इति चरणाचरणे परान् प्रोजयति-- "एस सुरासुरमणुसिंदवंदिवंधोदघाइकम्ममलं । पणमामि वढमाणं तित्यं धम्मस्स कत्तारं। सेसे पुण तित्थयरे ससव्यसिद्ध विसुद्धसम्भावे । समणे य णाणदंसणयरित्तसक्वीरियायारे॥ ते ते सम्वे समगं समगं फ्तेगमेव पत्तेगं । वदामि य बट्टते अरहते माणुसे खेते ॥" एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे । पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ॥२०१॥ एवं प्रणम्य सिद्धान् जिनवरवृषभान् पुनः पुनः श्रमणान् । प्रतिपद्यतां धामण्यं यदीच्छति दुःखपरिमोक्षम् ॥२०॥ यथा ममात्मना दुःखमोक्षार्थिना, 'किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं । अजमावयवग्गाणं साहणं चेदि सम्बेसि ॥ तेसि विसुद्धदसणणाणपहाणासमं समासेज्ज । उवसंपयामि सम्म जत्तो णिस्याणसंपत्ती ॥' इति अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधूनां प्रणतिवन्दनात्मकनमस्कारपुरःसरं विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान साम्यनाम श्रामण्यमवान्तरग्रन्थसन्दर्भोभयसंभावितसौस्थित्यं स्वयं प्रतिपन्न परेषामात्मापि यदि दुःखमोक्षार्थी तथा तत्प्रतिपद्यतां ययानुभूतस्य तत्प्रतिपत्तिवर्त्मनः प्रणेतारो वयमिमे तिष्ठाम इति ॥२०॥ अब दूसरों को चरणानुयोग को सूचक चूलिका है। [उसमें, प्रथम श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव श्लोक के द्वारा अब इस आगामी गाथा की उत्थानिका करते हैं] अर्थ-द्रव्य की सिद्धि में चरण की सिद्धि है, और चरण की सिद्धि में द्रध्य की Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवरणसारो ] [ ४७७ सिद्धि है, यह जानकर कमों से (पापों से) अविरत तथा अन्य भी, द्रव्य से अविरुद्ध चरण का आचरण करो अर्थात् चारित्र का पालन करो। इस प्रकार (श्रीमद् भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव इस आगामी गाथा के द्वारा) दूसरों को परण (चारित्र) के आचरण करने में योजित करते (जोड़ते) हैं। [अब गाथा के प्रारम्भ करने से पूर्व उसकी संधि के लिये श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव ने पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करने के लिये जानतत्व-प्रज्ञापन अधिकार की प्रथम तीन गाथायें लिखी हैं। भूमिका-अब, इस अधिकार की गाथा प्रारम्भ करते हैं-- अन्वयार्थ-[यदि दुःखपरिमोक्षम् इच्छति] यदि दु:खों से मुक्त होने की इच्छा है तो, [एवं] पूर्वोक्त प्रकार से (ज्ञानतत्व-प्रज्ञापन की प्रथम तीन गाथाओं के अनुसार) [पुनः पुनः] बारम्बार शिदन] सिहों को, जिवनभान महन्तों को तथा [श्रमणान् ] मुनियों को [प्रणम्य] नमस्कार करके [श्रामण्यं प्रतिपद्यताम्] यतिधर्म को अंगीकार करो। टीका-जैसे दुःखों से मुक्त होने के लिये मेरी आत्मा ने अर्हन्तों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों तथा साधओं को वनात्मक नमस्कार करके विशुद्ध वर्शन ज्ञान प्रधान साम्यनामक जिस यति--मार्ग को, जिसको इस ग्रन्थ में कथित दो अधिकारों की रचना द्वारा कथन किया गया है, स्वयं अंगीकार किया है उसी प्रकार दूसरों का आत्मा भी, यदि दुःखों से मुक्त होने का इच्छुक है तो, उसे अंगीकार करो। उस यतिधर्म को अंगीकार करने का जो यथानुभूत मार्ग है उसकी प्रेरणा करने के लिये हम खड़े हुये हैं ॥२०१॥ तात्पर्यवृत्ति कार्य प्रत्यत्रैव ग्रन्थः समाप्त इति ज्ञातव्यम् । कस्मादिति चेत् ? 'उवसंपयामि सम्म' इति प्रतिशासमाप्तेः । अतः परं यथाक्रमेण सप्ताधिकनवतिगाथापर्यन्तं चूलिकारूपेण चारित्राधिकारव्याख्यानं प्रारभ्यते । ताबदुत्सर्गरूपेण चारित्रस्य संक्षेपव्याख्यानम् । तदनन्तरमपवादरूपेण तस्यैव चारित्रस्य विस्तरन्याख्यानम् । ततश्च श्रामण्यापरनाममोक्षमार्गव्याख्यानम् । तदनन्तरं शुभोपयोगव्याख्यानमित्यन्तराधिकारचतुष्टयं भवति । तत्रापि प्रथमान्तराधिकारे पञ्चस्थलानि ‘एवं पणमिय सिद्धे' इत्यादि गाथासप्तकेन दीक्षाभिमुखपुरुषस्य दीक्षाविधानकथनमुख्यतया प्रथमस्थलम् । अतः परं वदसमिदिदिय' इत्यादिमूलगुणकथनरूपेण द्वितीये स्थले गाथाद्वयम् । तदनन्तरं गुरुव्यवस्थाजापनार्थं लिंगग्गहणे इत्यादि एका गाथा । तथैव प्रायश्चितकथन मुख्यतया 'पयदम्हि' इत्यादि गाथायमिति समुदायेन तृतीय स्थले गाथात्रयम् । अथाचारादिशास्त्रकाथितक्रमण तपोधनस्य संक्षेपसमाचारकथनार्थं अधिवासे ब' इत्यादि चतुर्थ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ [ पवयणसारो स्थले गाथात्रयम् । तदनन्तरं भावहिंसाद्रदयहिंसापरिहारार्थ 'अपयत्ना वा रिया' इत्यादि पञ्चमस्थले सुत्रषटकमित्येक्रविशतिगाथाभिः स्थलपञ्चकेन प्रथमान्तराधिकारे समुदायपातनिका । तद्यथा-अथासनभव्यजीवांश्चारित्रे प्रेरयति;-पडियाजदु प्रतिपद्यतां स्वीकरोतु किम् ? सामण्णं श्रामण्यं चारित्रम् । यदि किम् ? इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं यदि चेन् दुःखपरिमोक्षमिच्छति । स कः कर्ता ? परेषामात्मा । कथं प्रतिपद्यताम् ? एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एस सुरासुरमणुसिव इत्यादि गाथापञ्चकेनपञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं कृत्वा ममात्मना दु:खमोक्षाथिनान्य पूर्वोक्तभव्यर्वा यथा तच्चारित्रं प्रतिपन्नं तथा प्रतिपद्यताम् । कि कृत्वा पूर्व ? पणमिय प्रणम्य । कान् ? सिद्धे अजनापादुकादिसिद्धिविलक्षणस्वात्मोपलब्धिसिद्धिसमेतसिद्धान् । जिणवरवसहे सासादनादिक्षीणकषायान्ता एवदेशजिना उच्यन्ते शेषाश्चानागारकेवलिनो जिनवरा मण्यन्ते । तीर्थकर परमदेवाश्च जिनवरवृषभा इति तान् जिनवरवृषभान् । न केवल तान् प्रणम्य पुणो पूणो समणे चिच्चमत्कारमात्रनिजात्मसम्यकथाद्वानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयाचरणप्रतिपादनसाधकल्त्रोद्यतान् श्रमणशब्दवाच्यानाचार्योपाध्यायसाधूश्च पुनः पुनः प्रणम्येति । किंच पूर्व ग्रम्थप्रारम्भकाले शाम्यमाश्रयामीति शिवकुमारमहाराजनामा प्रतिज्ञां करोतीति भणितम् । इदानीं तु महात्मना चारित्रं प्रतिपन्न मिति पूर्वापरविरोधः । परिहारमाड्-ग्रन्थप्रारम्भात्पूर्वमेव दीक्षा गृहोता तिष्ठति परं किन्तु ग्रन्थकरणब्याजेन क्वाप्यात्मानं भावनापरिणतं दर्शयति । क्वापि शिवकुमारमहाराज क्वाप्यन्यं भव्यजीव वा । तेन कारणनात्र ग्रन्थे पुरुषनियमो नास्ति कालनियमो नास्तीत्यभिप्राय: ।।२००-।। अब चारित्रतत्वदीपिका का ध्याख्या न किया जाता है। उत्थानिका-इस ग्रन्थ का जो कार्य था उसकी अपेक्षा विचार किया जाय तो ग्रंथ को समाप्ति दो खंडों में हो चुकी है, क्योंकि “उपसंपयामि सम्म" मैं साम्यभाव में प्राप्त होता है इस प्रतिज्ञा की समाप्ति हो चुकी है । तो भी यहां क्रम से ससाना गाथाओं तक चलिका रूप से चारित्र के अधिकार का व्याख्यान प्रारम्भ करते हैं। इसमें पहले उत्सर्ग रूप से चारित्र का संक्षेप कथन है उसके पीछे अपवाद रूप से उसी ही चारित्र का विस्तार से व्याख्यान है। इसके पीछे श्रमणपना अर्थात मोक्षमार्ग का व्याख्यान है, फिर शुभोपयोग का व्याख्यान है इस तरह चार अन्तर अधिकार हैं। इनमें से भी पहले अन्तर अधिकार में पांच स्थल हैं। “एवं पणमिय सिद्धे" इत्यादि सात गाथाओं तक दीक्षा के सम्मुख पुरुष का दीक्षा लेने के विधान को कहने की मुख्यता से प्रथम स्थल है । फिर "वद-समिर्दिदिय" इत्यादि मूलगुण को कहते हुए दूसरे स्थल में गाथाएं दो हैं। फिर गुरु की व्यवस्था बताने के लिये "लिंगग्गहणे' इत्यादि एक गाथा है। तैसे ही प्रायश्चित के कथन की मुख्यता से “पयदम्हि'' इत्यादि गाथाएं दो हैं इस तरह समुदाय से तीसरे स्थल में गाथाएं तीन हैं। आगे आधार आदि शास्त्र के कहे हुए कम से साधु का संक्षेप समाचार कहने के लिये "अधिवासे च वि" इत्यादि चौथे स्थल में गाथाएं तीन हैं। उसके पीछे भावहिंसा, द्रव्यहिंसा के त्याग के Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पकयणसारो ] [ ४७६ लिये 'अपयत्तादो चरिया' इत्यादि पांचवें स्थल में सूत्र छः हैं। इस तरह इक्कीस गाथाओं में पांच स्थलों से पहले अन्तर अधिकार में समुदाय - पातनिका है । उत्पानिका – आगे आचार्य निकट भव्य जीवों को चारित्र में प्रेरित करते हैं । अन्य सहित विशेषार्थ - यह आत्मा (जदि ) यदि ( दुक्खपरिमोक्ख ) दुःखों से कारा ( इच्छदि) चाहता है तो ( एवं ) प्रथम पांच गाथा में कहे अनुसार (सिद्धे ) सिद्धों को ( जिणवरबसहे) जिनेन्द्रों को, ( समणे ) और साधुओं को (पुणो पुणो ) बारम्बार . (पणमिय) नमस्कार करके ( सामण्णं ) मुनिपने को ( पडियज्ज) स्वीकार करे। यदि कोई - आत्मा संसार के दुःखों से मुक्ति चाहता है तो उसको उचित है कि दुःख से मुक्ति के मुझने पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके चारित्र को धारण किया है अथवा दूसरे पूर्व में कहे हुए भव्यों ने चारित्र स्वीकार किया है, इसी तरह वह भी पहले अंजन पादुका अादि लौकिक सिद्धियों से विलक्षण अपने आत्मा की प्राप्तिरूप सिद्धि के धारी सिद्धों को जिनेन्द्रों में श्रेष्ठ ऐसे तीर्थकर परमदेवों को तथा चैतन्य चमत्कार मात्र अपने आत्मा के 1- सम्यक श्रद्धान; ज्ञान तथा चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रय के आचरण करने वाले, उपदेश वेने वाले तथा साधन में उद्यमी ऐसे श्रमण शब्द से कहने योग्य आचार्य, उपाध्याय तथा ओं को बार-बार नमस्कार करके साधु के चारित्र को स्वीकार करे । सासादन गुणबान से लेकर streaथ्य नाम के बारहवें गुणस्थान तक एकदेश जिन कहे जाते तथा वो गुणस्थान वाले केवलीमुनि जिनवर कहे जाते हैं, उनमें मुख्य जो हैं उनको जिनबस या तीर्थंकरपरमदेव कहते हैं । : यहाँ कोई शंका करता है कि पहले इस प्रवचनसार ग्रन्थ के प्रारम्भ में यह कहा क्या है कि शिवकुमार नाम के महाराजा यह प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं शांत भावको या समता मावको आश्रय करता हूँ अब यहाँ कहा है कि महात्मा ने चारित्र स्वीकार किया था। इस कथन में पूर्वापर विरोध आता है। इसका समाधान यह है कि आचार्य ग्रन्थ प्रारम्भ से ही पूर्व दीक्षित हैं किन्तु ग्रन्थ करने के बहाने से किसी भी आत्मा को अर्थात् शिवकुमार महाराज को व कहीं अन्य भव्य जीव को उस भावनामय परिणमन होते हुए प्राचार्य दिखाते हैं। इस कारण से इस ग्रन्थ में किसी पुरुष का नियम नहीं है और न काल या नियम है ऐसा अभिप्राय है ॥ २०१ ॥ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ] [ पवयणसारो अथ श्रमणो भवितुमिच्छन् पूर्व कि किं करोतीत्युपविशति आपिच्छ बंधुवरगं विमोचिदो गुरुकलतपुत्तेहिं । आसिज्ज णाणसणचरित्ततववीरियायारं ॥२०१॥ आपृच्छ्य बन्धुवर्ग विमोचितो गुरुकलत्रपुत्रः । आसाद्य ज्ञानदर्शन चारित्रतपोवीर्याचारम् ।।२०९॥ यो हि नाम श्रमणो भवितुमिच्छति स पूर्वमेव बन्धुवर्गमापृच्छते, पुरकलपुत्रेभ्य आत्मानं विमोचयति, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमासीदति । तथाहि-एवं बन्धुवर्गमापृच्छते, अहो इदं जनशरीरबन्धुवर्गवतिन आत्मानः, अस्य जनस्य आत्मा म किंचनापि युष्माकं भवतीति निश्चयेन यूयं जानीतः तत आपृष्टा यूयं, अयमात्मा अघोद्भिन्नशानज्योति आत्मानमेवात्मनोऽनादिबन्धुमुपसर्पति । अहो इदंजनशरीरजनकरयात्मन्, अहो इजनशरीरजनन्या आत्मन्, अस्या जनस्थात्मा न युवाभ्यां जनितो भवतीति निश्चयेन युवां जानीतं तत इममात्मानं युवां विमुञ्चतं, अयमात्मा अशानियोशि: आत्मान. मेवात्मनोऽनादिजनकमुपसर्पति । अहो इवंजनशरीररमण्या आत्मन, अस्य जनस्वात्मानं न त्वं रमयसीति निश्चयेन त्वं जानीहि, तत इममात्मानं विमुञ्च, अयमात्मा अयोद्भिन्नज्ञानज्योतिः स्वानुभूतिमेवात्मनोऽनाविरमणीमुपसर्पति । अहो इवंजनशरीरपुत्रस्यात्मन् अस्य जनस्यात्मनो न त्वं जन्यो भवसीति निश्चयेन त्वं जानीहि तत इममारमानं विमुञ्च अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः आत्मानमेवात्मनोऽनादिजन्यमुपसर्पति । एवं गुरुकलत्रपुत्रेभ्य आत्मानं विमोचयति । तथा अहो कालविनयोपधानबहुमामानिहवार्थव्यञ्जनतवुभयसंपन्नत्वलक्षणज्ञानाचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तायदासीवामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । अहो निःशङ्कितत्वनिःकाक्षित्वनिविचिकित्सत्वनिर्मददृष्टित्वोपपतहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनालक्षणवर्शनाचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत् स्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे। अहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारणपञ्चमहावतोपेतकायवाङ्मनोगुप्तोर्याभाषणादाननिक्षेपणप्रतिष्ठापनसमितिलक्षणचारित्राचार, न शुद्ध स्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वा ताववासीदामि यावत्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे। अहो अनशनावमौवर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविधिक्तशय्यासनकायक्लेशप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायध्यानव्युत्सर्गलक्षणतपआचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । अहो समस्ते Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचयणसारो ] [ ४५ १ निश्चयेन तराचारप्रवर्तक स्वशक्त्यनिग्रहनलक्षणदीर्याचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । एवं ज्ञानदनचारित्रतपोवीर्याचारमासोदति च ॥ २०२ ॥ भूमिका – अब, श्रमण होने का इच्छुक पहले क्या-क्या करता है, उसका उपदेश करते हैं अन्वयार्थ - श्रामण्यार्थी [ बन्धुवर्गम् आपृच्छच ] बंधुवर्ग से पूछकर [ गुरुकलत्रपुत्रः विमोचितः ] बड़ों से तथा स्त्री और पुत्र से मुक्त होता हुआ [ज्ञानदर्शन चारित्रतपोवीर्याचारम् आसाद्य ] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपआचार और वीर्याचार को अंगीकार करके विरक्त होता है । टीका - जो मुनि होना चाहता है पहले ही बंधुवर्ग से (सगे-सम्बन्धियों से ) पूछता है, गुरुजनों (बड़ों) से तथा स्त्री और पुत्रों से अपने को छुड़ाता है, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपआचार तथा वीर्याचार को अंगीकार करता है । वह इस प्रकार है बंधुवर्ग से इस प्रकार कहता है-अहो ! गुरुष के शरीर के बंधुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओ ! इस पुरुष का मेरा आत्मा किचित्मात्र भी तुम्हारा नहीं है - इस प्रकार तुम निश्चय से जानो । इसलिये मैं तुमसे शिवा लेता हूँ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह मेरा आत्मा आज अपने आत्मारूपी अपने अनादिबंधु के पास जा रहा है । अहो ! इस पुरुष के शरीर के जनक (पिता) के आत्मा ! अहो इस पुरुष के शरीर की जननी माता के आत्मा ! इस पुरुष का मेरा आत्मा तुम्हारे द्वारा जनित ( उत्पन्न ) नहीं है, ऐसा तुम निश्चय से जानो । इसलिये तुम इस आत्मा को छोड़ो। जिसे ज्ञान ज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह मेरा आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादिजनक के पास जा रहा है । अहो ! इस पुरुष के शरीर की रमणी (स्त्री) के आत्मा ! तु इस पुरुष के मेरे आत्मा को रमण नहीं कराता, ऐसा तु निश्चय से जान। इसलिये तू इस आत्मा को छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह मेरा आत्मा आज अपनी स्वानुभूति रूपी अनादिरमणी के पास जा रहा है। अहो ! इस पुरुष के मेरे शरीर के पुत्र के आत्मा ! तू इस पुरुष के मेरे आत्मा का जन्य ( उत्पन्न किया गया पुत्र) नहीं है, ऐसा तू निश्चय से जान । इसलिये तु इस आत्मा को छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह मेरा आत्मा आज आत्मारूपी अपने Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ ] [ पवयणसारो अनादि जन्य के पास जा रहा है । इस प्रकार बड़ों से, स्त्री से और पुत्र से अपने को छुड़ाता है। उसी प्रकार-अहो, काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिन्हन, अर्थ, व्यंजन, और तदुभयसंपन्न ज्ञानाचार ! मैं यह जानता हूँ कि तू निश्चय से शुद्धात्मा का नहीं है, तथापि मैं तुझे तभी तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध करलू । अहो निःशंकितत्व, निःकांक्षित्व, निविचिकित्सत्व, निर्मूढदृष्टित्व, उपवहण, स्थितिकरण, वात्सल्य, और प्रभावनास्वरूप वर्शनाचार ! मैं यह जानता हूं कि निश्चय से तू शुद्धात्मा का नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता है जब तक कि तेरे प्रसाव से शुद्धात्मा को उपलब्ध करलूं अहो ! मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत, पंचमहावत सहित काय, वचन, मनगुप्ति और ईर्याभाषा एषण-आवाननिक्षेपण-प्रतिष्ठापन समितिस्वरूप प्रारित्राचार ! में बह जानता हूँ कि सूशियस दो शुशाला का नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूं। अहो ! अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित, विनय, यावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्गस्वरूप तपआचार ! मैं यह जानता हूँ कि निश्चय से तू शुद्धात्मा का नहीं है तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक तेरे प्रसाद से शद्धात्मा को उपलब्ध कर लं । अहो ! समस्त इतर आचारों में प्रवृत्ति कराने वाली स्वशक्ति को नहीं छिपाने स्वरूप वीर्याचार ! मैं यह जानता हूँ कि तू निश्चय से शुद्धात्मा का नहीं हैं, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्मा को उपलब्ध कर लूं। इस प्रकार ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपआचार तथा वीर्याचार को अंगीकोर करता है ॥२०२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ श्रमणो भवितुमिच्छन्पूर्व क्षमितव्यं करोति;- 'उठ्ठिदो होदि सो समणो' इत्यने पष्ठगाथायां यद्व्याख्यानं तिष्ठति तन्मनसि धृत्वा पूर्व किं कृत्वा श्रमणो भविष्यतीति व्याख्याति; आपिच्छ आपृच्छ्य पृष्ट्वा । कम् ? बंधुवरगं बन्धुवर्ग गोत्रम् । ततः कथंभूतो भवति ? विमोचिदो विमोचितस्त्यक्तो भवति । कैः कर्तृभूतैः ? गुरुकलतपुत्तेहिं पितृमातृकलत्रपुत्रः । पुनरपि किं कृत्वा श्रमणो भविष्यति ? आसिज्ज आसाद्य आश्रित्य । कम् ? णाणसणचरित्ततववीरियायार ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमिति । अथ विस्तर:- अहो बन्धुवर्गपितमातृकलत्रपुत्राः ! अयं मदीयात्मा साम्प्रतमुद्भिन्नपरमविवेकज्योतिस्सन् स्वकीयचिदानन्दैकस्वभावं परमात्मानमेव निश्चयनयेनानादिबन्धुवर्ग पितरं मातरं कलत्रं पुत्रं चाश्रयति तेन कारणेन मां मुञ्चत यूयमिति क्षमितव्यं करोति । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पबयणसारो । [ ४८३ ततश्च कि करोति ? परमचैतन्यमापनिजात्मतत्त्वसर्वप्रकारोपादेयरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिसमस्तपरद्रव्येनछानिवृत्तिलक्षणतपश्चरणस्वशक्त्यनवगृहनवीर्याचाररूपं निश्चयपञ्चाचारमाचारादिचरणग्रंथकथिततत्साधकान्यवहारपञ्चाचार चाश्रयतात्यर्थः । अत्र यद्गोत्रादिभिः सह क्षमितव्यव्याख्यानं कृतं तदत्रातिप्रसङ्गनिषेधार्थम् । तत्र नियमो नास्ति । कथमिति चेत् ? पूर्वकाले प्रचुरेण भरतसगररामपाण्डवादयो राजान एवं जिनदीक्षां गृह्णन्ति, तत्परिवारमध्ये यदा कोऽपि मिथ्यादृष्टिर्भवति तदा धर्मस्योपसर्ग करोतीति । यदि पुनः कोऽपि मन्यते गोत्रसम्मतं कृत्वा पश्चात्तपश्चरणं करोमि तस्य प्रचुरेण तपश्चरणमेव नास्ति कथमपि तपश्चरणे गृहीतेऽपि यदि गोत्रादिममत्वं करोति तदा तपोधन एव न भवति । तथाचोक्तं--जो सकलणयररज्जं पुवं वइऊण कुणइ य मर्मात्त । सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण हिस्सारो" ।।२०२।। उत्थानिका-आगे जो श्रमण होने की इच्छा करता है उसको पहले क्षमाभाव करना चाहिये । “उवढिदो होदि सो समणो" इस छठी गाथा में जो व्याख्यान है, उसी को मन में धारण करके पहले क्या क्या काम करके साधु होवेगा उसी का व्याख्यान करते हैं ___ अन्वय सहित विशेपार्थ- (बन्धुवग्ग) बन्धुओं के समूह को (आपिच्छ) पूछकर (गुरुकलत्तपुत्तेहि) माता पिता स्त्री पुत्रों से (विमोचिदो) छूटता हुआ (णाणदसणचरित्ततववोरियायारं) जान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य ऐसे पांच आधारों को (आसिज्ज) आश्रय करके मुनि होता है। वह साधु होने का इच्छुक इस तरह बंधुवर्गों को समझाकर क्षमाभाव करता व फराता है कि अहो बन्धु जनो ! मेरे पिता माता स्त्री पुत्रो! मेरी आत्मा में परम मेव ज्ञानरूपी ज्योति उत्पन्न हो गई है इससे यह मेरा आत्मा अपने ही चिदानन्दमयी एक स्वभावरूप परमात्मा को ही निश्चयनय से अनादिकाल के बन्धुवर्ग, पिता, माता, स्त्री, पुत्ररूप मानकर उन्हीं का आश्रय करता है इसलिये आप सब मुझे छोड़ दो-मेरा मोह त्याग दो व मेरे दोषों पर क्षमा करो, इस तरह क्षमाभाव कराता है। उसके पीछे निश्चय पंचाचार को और उसके साधक आचारादि ग्रंथों में कहे हुए व्यवहार पंचाचार को भाश्रय करता है। परम चैतन्यमात्र निज आत्मतत्व ही सब तरह से ग्रहण करने योग्य है ऐसी रुचि सो निश्चयसम्यग्दर्शन है ऐसा ही ज्ञान सो निश्चय से सम्यग्ज्ञान है, उसी निज स्वभाव में निश्चलता से अनुभव करना सो निश्चयसम्यक्चारित्र है, सर्व परद्रयों को इच्छा से रहित होना सो निश्चयतपश्चरण है तथा अपनी आत्मशक्ति को न छिपाना तो निश्चयवीर्याचार है। इस तरह निश्चयपंचाचार का स्वरूप जानना चाहिये। यहां जो यह व्याख्यान किया गया कि अपने बन्धु आदि के साथ क्षमा करावे सो यह कथन अतिप्रसङ्ग अर्थात् अमर्यादा के निषेध के लिये है। दीक्षा लेते हुए इस बात का Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ । [ पवयणसारो नियम नहीं है कि क्षमा कराए बिना दीक्षा न लेवे । क्यों नियम नहीं है ? उसके लिये कहते हैं कि पहले काल में भरत, सगर, राम, पांडवादि बहुत से राजाओं ने जिनवीक्षा धारण की थी। उनके परिवार के मध्य में जब कोई भी मिथ्यावृष्टि होता था तब धर्म में उपसर्ग भी करता था तथा यदि कोई ऐसा माने कि बन्धुजनों को सम्मति करके पीछे तप करूगा तो उसके मत में अधिकतर तपश्चरण ही न हो सकेगा, क्योंकि जब किसी तरह से तप ग्रहण करते हए यदि अपने सम्बन्धी आदि से ममताभाव करे तब कोई तपस्वी ही नहीं हो सकता । जैसा कहा है जो पहले सर्व नगर व राज्य छोड़ करके फिर समता करे वह मात्र भेषधारी है, संयम को अपेक्षा से रहित है अर्थात् संयमी नहीं है ॥२०२॥ अथातः कीदृशो भवतीत्युपविशति समणं गणि गुणड्ढं कुलस्ववयोविसिट्ठमिट्ठदरं । समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ में चेदि अणुगहिदो ॥२०३।। श्रमण गणिनं गुणाढ्य कुलरूपवयोविशिष्टमिष्टतरम् । श्रमणैस्तमपि प्रणतः प्रतीच्छ मां चेत्यनुगृहीतः ।।२०३॥ ततो हि श्रामण्यार्थी प्रणतोऽनुगृहीतश्च भवति । तथाहि-आचरिताचारितसमस्तविरतिप्रवृत्तिसमानात्मरूपश्रामण्यत्वात् श्रमणं, एवंविधश्रामण्याचरणाचारणप्रवीणत्वात् गुणाढ्य, सकललौकिकजननिःशसेवनौयत्वात् कुलक्रमागतक्रौर्याविदोषजितत्वाञ्च कुलविशिष्ट, अन्तरङ्गशुद्धरूपानुमापकबहिरङ्गशुद्धरूपत्वात् रूपविशिष्ट, शंशववार्धक्यकृतबुद्धिविक्लवत्वाभावाद्यौवनोद्रेकविक्रियाविविक्तबुद्धित्वाच्च पयोविशिष्टं, निःशेषितयथोक्तश्रामण्याचरणाचारणविषयपौरुषेयवोषत्वेन मुमाभिरभ्युपगततरत्वात् श्रमर्णरिष्टतरं च गणिनं शुद्धात्मतत्योपलम्भसाधकमाचार्य शुद्धात्मतत्वोपलम्भसिद्धधा मामनुगृहाणेत्युपसर्पन प्रणतो भवति । एवमियं ते शुद्धात्मतत्वोपलम्भसिद्धिरिति तेन प्राथितार्थेन संयुज्यमानोऽनुगृहीतो भवति ॥२०३॥ भूमिका-इसके बाद वह मुनि होने का इच्छुक व्या करता है, इसका उपदेश करते हैं __ अन्वयार्थ-[श्रमण] जो श्रमण है, [गुणाढ्य ] गुणाढ्य है, [कुलरूपवयो विशिष्टं] कुल, रूप तथा वय से विशिष्ट है, और [श्रमणः इष्टतरं] श्रमणों को अति इष्ट है [तम् अपि गणिनं] ऐसे गणी को [ माम् प्रतीच्छ इति] 'मुझे स्वीकार करो' ऐसा कहकर [प्रणतः] प्रणाम करता है [च] और [अनुगृहीतः] आचार्य द्वारा ग्रहण किया जाता है । १. समणेहिं (ज० वृ०)। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४८५ टीका-पश्चात् मुनि दीक्षा लेने वाला प्रणाम करता है और आचार्य द्वारा ग्रहण किया आता है । वह इस प्रकार है कि आचरण करने में और आचरण करने में आने वाली समस्त विरति की प्रवृत्ति के समान आत्मरूप ऐसे यतिधर्म का कारण जो "श्रमण' है, ऐसे यतिधर्म आचरण करने में और आचरण कराने में प्रवीण होने से जो 'गुणाढच' है, सर्वलौकिकजनों के द्वारा नि:शंकतया सेवा करने योग्य होने से और कुलक्रमागत क्रूरतावि दोषों से रहित होने से जो 'कुलविशिष्ट' है, अंतरंग-शुद्धरूप का अनुमान कराने वाला ऐसा बहिरंग-शुद्धरूप होने से जो 'रूपविशिष्ट' है, बालकत्व और वृद्धत्व से होने वाली बुद्धिविषलवता का अभाव होने से तथा यौवनोब्रेक के विकार रहित बुद्धि होने से जो 'वय विशिष्ट' है, पूर्ण यथोक्त यतिधर्म के चारित्र को आचरण करने सम्बन्धी पौरुषेय बोषों को (जिन दोषों का पुरुष के द्वारा लगना सम्भव है) के कारण नष्ट (प्रायश्चित्तादि के लिये) जिनका बहुआश्रय लेते हैं इसलिये जो 'श्रमणों को अति इष्ट' है; ऐसे गणी के निकट-शुद्धात्मतत्व की उपलब्धि के साधक आचार्य के निकट-'शुद्धात्म तत्व की उपलब्धि सिद्धि के लिये मुझे ग्रहण करों' ऐसा कहकर (श्रामण्यार्थी) नमस्कार करता है। इसप्रकार यह तुझे शुद्धात्मतत्व की उपलब्धि रूप सिद्धि' हो ऐसा (कहकर) यह गणी उस मुनिदीक्षा लेने वाले को प्रार्थित अर्थ से संयुक्त करते हैं, अनुगृहीत करते हैं अर्थात् यतिधर्म को दीक्षा देते हैं ॥२०॥ तात्पर्यवृत्ति अथ जिनदीक्षार्थी भन्यो जैनाचार्यमाश्रयति ; समणं निन्दाप्रशंसादिसमचित्तत्वेन पूर्वसूत्रोदितनिश्चयव्यवहारपञ्चाचारस्य चरणाचारणप्रवीणत्वात् श्रमणम् । गुण चतुरणीतिलक्षगुणाष्टादशसहस्रशीलसहकारिकारणोत्तमनिजशुद्धात्मानुभूतिगुणेनाढ्य भूतम् परिपूर्णत्वाद्गुणाढ्यम् । कुलस्ववयोविसिळं लोकदुगुच्छारहितत्वेन जिनदीक्षायोग्यं कुल भण्यते । अन्तरङ्गशुद्धात्मानुभूतिरूपकं निग्रंथनिर्विकारं रूपमुच्यते । शुद्धात्मसंवित्तिविनाशकारिवृद्धवालयौवनोद्रेकजनितबुद्धिय कल्यरहितं धयश्चेति तैः कुलरूपवयोभिविशिष्टत्वात्कुलरूपवयोविशिष्टम् । इट्ठदरं इष्टतरं सम्मतम् कः ? समहि निजपरमात्मतत्त्वभावनासहितसमचित्तश्रमणरन्याचार्यः गणि एवंविधगुणविशिष्टं, परमात्मभावनासाधकदीक्षादायकमाचार्यम् । तं पि पणदो न केबलतमाचार्यमाश्रितो भबति प्रणतोऽपि भवति । केन रूपेण ? पजिच्छ म हे भगवन् अनन्तज्ञानादिनिजगुणसम्पत्तिकारणभूताया अनादिकालेऽत्यन्तदुर्लभाया भावसहितजिनदीक्षायाः प्रदानेन प्रसादेन मां प्रतीच्छ स्वीकुरु चेदि अणुगहिदो न केवलं प्रणतो भवति, तेनाचार्येणानुगृहीतः स्वीकृतश्च भवति । हे भव्य ! निस्सारसंसारे दुर्लभबोधि प्राप्य निजशुद्धात्मभावनारूपया निश्चयचतुर्विधाराधनया मनुष्यजन्म सफलं कुवित्यनेन प्रकारेणानुगृहीतो भवतीत्यर्थः ॥२०॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ] पवयणसारा उत्थानिका—आगे जिनदीक्षा को लेने वाला भव्य जीव जैनाचार्य की शरण ग्रहण करता है, ऐसा कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-समणं) समताभाव में लीन, (गुणड्द) गुणों से परिपूर्ण, (कुलस्ववयोविसिट्ठम्) कुल, रूप तथा अवस्था से उत्कृष्ट, (समणेहिं इठ्ठतरं) महामुनियों से अत्यन्त मान्य (तं गणि) ऐसे उस आचार्य के पास प्राप्त होकर (पणदो) उनको नमस्कार करता हुआ (च अपि) और (मं पडिच्छ) 'मेरे को अंगीकार कीजिये' (इदि) ऐसी प्रार्थना करता हुआ (अणुगहिदो) आचार्य द्वारा अंगीकार किया जाता है । जिनदोक्षा का अर्थो जिस आचार्य के पास जाकर दीक्षा की प्रार्थना करता है उसका स्वरूप बताते हैं । वह निन्दा व प्रशंसादि में समताभाव को रखकर पूर्व सूत्र में कहे गये निश्चय और व्यवहार पञ्च-प्रकार आचार के पालने में प्रवीण होते हैं, चौरासी लाख गुण और अठारह हजार शील के सहकारी कारणरूप जो अपने शुद्धात्मा का अनुभवरूप उत्तमगुण उससे परिपूर्ण होते हैं। लोगों को घृणा से रहित जिनदीक्षा के योग्य कुल वाले होते हैं। अन्तरंग शुद्धात्मा का अनुभव रूप निग्रंथ निर्विकार रूप वाले होते हैं। शुद्धात्मानुभव को विनाश करने वाले युद्धपने, बालपने व यौवनपने के उद्धतपने से पैदा होने वाली बुद्धि की चंचलता से रहित होने से वय वाले होते हैं। इन कुल, रूप तथा यय से श्रेष्ठ तथा अपने परमात्मा तत्व की भावना सहित समचित्तधारी अन्य आचार्यों के द्वारा सम्मत होने हैं। ऐसे गुणों से परिपूर्ण परमभाव के साधक दीक्षा के दाता आचार्य का आश्रय करके उनको नमस्कार करता हुआ यह प्रार्थना करता है-- हे भगवन् ! अनन्तज्ञान आदि अरहत के गुणों को सम्पदा को पैदा करने वाली व जिसका लाभ अनादिकाल में भी अत्यन्त दुर्लभ रहा है ऐसी भाव सहित जिनदीक्षा का प्रसाद देकर मेरे को अवश्य स्वीकार कीजिये । तब वह उन आचार्य के द्वारा इस तरह स्वीकार किया जाता है "हे भव्य ! इस असार संसार में दुर्लभ रत्नत्रय के लाभ को प्राप्त करके अपने शुद्धात्मा की भावना रूप निश्चय चार प्रकार आराधना के द्वारा तू अपना जन्म सफल कर ।।२०३।। अथातोऽपि कोदृशो भवतीत्युपदिशति णाहं होमि परेसिं ण मे परे गस्थि मज्झमिह किंचि । इदि णिच्छिदो जिविंदो जादो जधजावरूवधरो ॥२०४॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४८५ नाहं भवामि परेषां न मे परे नास्ति ममेह किंचित् । इति निश्चिता जितेन्द्रियः जातः प्रथाजातरूपधरः ।।२०४॥ ततोऽपि श्रामण्यार्थी यथाजातरूपधरो भवति । तथाहि--अहं तावन्न किचिदपि परेषा भवामि परेऽपि न किंचिदपि मम भवन्ति, सर्वद्रयाणां परैः सह तत्त्वतः समस्तसंबन्धशून्यत्वात् । तदिह षडद्रव्यात्मके लोके न मम किचिवष्यात्मनोऽन्यदस्तीति निश्चितमतिः परद्रव्यस्वस्वामिसंबन्धनिबंधनानामिन्द्रियनोइन्द्रियाणां जयेन जितेन्द्रियश्च सन् धृतयथानिष्पन्नात्मद्रव्यशुद्धरूपत्वेन यथाजातरूपधरो भवति ॥२०४॥ भूमिका और फिर वह क्या करता है, सो उपदेश करते हैं अन्वयार्य-[अहं] मैं [परेषां] दूसरों का [न भवामि] नहीं है [परे मे न] पर मेरे नहीं हैं, [इह] इस लोक में [मम] मेरा [किंचित् ] कुछ भी [न अस्ति नहीं है,- [इति निश्चित:] ऐसा निश्चय करके और [जितेन्द्रियः] जितेन्द्रिय होता हुआ [ यथाजातरूपधरः] यथाजातरूपधारी [जात:] होता है। टीका-तत्पश्चात् श्रामण्यार्थी यथाजातरूपधारी होता है इस प्रकार कि-'प्रथम तो मैं किंचित्मात्र भी परका नहीं हूँ, पर भी किचित्मात्र मेरे नहीं हैं, क्योंकि समस्त द्रव्य निश्चयनय से परके साथ समस्त संबंध रहित हैं, इसलिये इस षड्दध्यात्मक लोक में आत्मा से अन्य कुछ भी मेरा नहीं है,--इस प्रकार निश्चित मतियाला, परद्रव्यों के साथ स्व-स्वामि सम्बन्ध जिनका आधार है, ऐसी इन्द्रियों और नोइन्द्रिय के जय से जितेन्द्रिय होता हुआ आत्मद्रव्य के (यतिधर्म के) यथानिष्पन्न शुद्धरूप धारण करने से ययाजातरूपधारी होता है ॥२०४॥ तात्पर्यवृत्ति अथ गुरुणा स्वीकृत: सन कीदृशो भवतीत्युपदिशति; णाहं होमि परेसिं नाहं भवामि परेषाम् । निज़शुद्धात्मनः सकाशात्परेषां भिन्नद्रव्याणां सम्बन्धी न भवाम्यहम् । ण मे परे न मे सम्बन्धीनि परद्रव्याणि णस्थि मज्झमिह किचि नास्ति ममेह किञ्चित् । इह जगति निजशुद्धात्मनो भिन्न किंचिदपि परद्रव्यं मम नास्ति इदि णिन्छिदो इति निश्चितमतिर्जातः जिदिवो जादो इन्द्रियमनोजनितविकल्पजालरहितानन्तज्ञानादिगुणस्वरूपनिजपरमा. स्मद्रव्याद्विपरीतेन्द्रियनोइन्द्रियाणां जयेन जितेन्द्रियश्च संजातः सन् जधजादरूबधरो यथाजातरूपधरः व्यवहारेण नग्नत्वं यथाजातरूपं निश्चयेन तु स्वात्मरूपं तदित्यंभूतं यथाजातरूपं धरतीति यथाजातरूपधरः निर्ग्रन्थो जात इत्यर्थः ।।२०४।। उत्थानिका-आगे गुरू द्वारा स्वीकार किये जाने पर वह जिस प्रकार के स्वरूप का धारी होता है उसका उपदेश करते हैं Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ] [ पवयणसारो अन्वय सहित विशेषार्थ-(अहं) मैं (परेसि) दूसरों का (ण होमि) नहीं हूं (ण मे परे) न दूसरे द्रव्य मेरे हैं। इस तरह (इह) इस लोक में (किचि) कोई भी पदार्थ (मज्झम्) मेरा (पत्थि) नहीं है। (इदि णिच्छिदो) ऐसा निश्चय करता हुआ (जिदिदो) जितेन्द्रिय (जधजादरूवधरो) और जैसा मुनि का स्वरूप होना चाहिये वैसा निर्ग्रन्थ रूप धारी (जादो) हो जाता है। दीक्षा लेने वाला साधु अपने मन वचन काय से सर्व परिग्रह से ममता त्याग देता है। इसीलिये वह मन में ऐसा निश्चय कर लेता है कि मेरे अपने शुद्ध आत्मा के सिवाय और जितने परद्रव्य हैं उनसे मेरा सम्बन्ध नहीं है और न परद्रव्य मेरे सम्बन्धी हैं। इस जगत में मेरे मिवाण मेरा कोई भी पर द्रव्य नहीं है। तथा वह अपनी पांच इंद्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले विकल्पजालों से रहित व अनन्तज्ञान आदि गुण स्वरूप अपने परमात्म-द्रश्य से विपरीत इन्द्रियों और नोइंद्रिय को जीत लेने से जितेन्द्रिय हो जाता है और यथाजात रूपधारी हो जाता है । अर्थात व्यवहारनय से नग्नपना यथाजात रूप है और निश्चय से अपने आत्मा का जो यथार्थ स्वरूप है वह यथाजात रूप है । साधु इन दोनों को धारण करके निर्ग्रन्थ हो जाता है ।।२०४॥ अर्थतस्य यथाजातरूपधरत्वस्यासंसारानभ्यस्तत्वेनात्यन्तमप्रसिद्धस्याभिनवाभ्यास कौशलोपलभ्यमानायाः सिद्धेर्गमकं बहिरङ्गान्तरङ्गद्धतमुपदिशति--- जधजादरूवजादं उत्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं । रहिदं हिंसादोदो अप्पडिकम्म हवदि लिगं ॥२०॥ मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवओगजोगसुद्धीहि । लिगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेव्हं ॥२०६॥ [जुगलं] यथाजातरूपजातमुत्पाटितकेशश्मधुकं शुद्धम् ।। रहितं हिंसादितोऽप्रतिकर्म भवति लिङ्गम् ।।२०५।। मुर्छारम्भवियुक्त युक्तमुपयोगयोगशुद्धिभ्याम् । लिङ्गन परापेक्षमपुनर्भवकारणं जैनम् ॥२०६।। युगलम्] आत्मनो हि तायदात्मना यथोदितक्रमेण यथाजातरूपधरस्य जातस्यायथाजातरूपधरत्वप्रत्यायाना मोहरागद्वेषावि भावानां भवत्येवाभाषः तदमावात्तु तद्भावभाधिनो निर्वसनभूषणधारणस्य मूर्धजव्यञ्जनपालनस्य सकिंचनत्वस्य सावधयोगयुक्तत्वस्य शरीरसंस्कारकरणत्यस्य चाभावाद्यथाजातरूपत्वमुत्पाटितके शश्मश्रुत्वं शुद्धत्वं हिंसादिरहितत्वमप्रतिकर्मत्वं च भवत्येव, १. तप्पाडियकेसमंसुगं (ज० वृ.) । २. मुच्छारम्भविमुक्कं (ज० वृ०) । ३. इवजोगजोगसुद्धोहिं (ज० वृ०) । ४. जोण्हं (ज० बृ०)। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४८६ तदेतद्बहिरंगलिंगम् । तथात्मनो यथाजातरूपधरत्थापसारितायथा जातरूपधरत्वप्रत्ययमोह रागद्वेषादिभावानामभावादेव तद्भावभाविनो ममत्यकर्मप्रक्रमपरिणामस्य शुभाशुभोपरक्तोपयोगतत्पूर्वकतथाविधयोगाशुद्धियुक्तत्वस्य परद्रव्यासापेक्षत्वस्यचाभावान्मूर्छारम्भवियुक्तत्वमुपयो गयोगशुद्धियुक्तत्वमपरापेक्षत्वं च भवत्येव तदेतदन्तरंग लिंगम् ॥ २०५ - २०६ ॥ भूमिका – अब, अनादि संसार से अनभ्यस्त होने से जो अत्यन्त अप्रसिद्ध है ऐसे इस यथाजातरूपधरत्व के बहिरंग और अंतरंग दो लिंगों का जो कि अभिनव अभ्यास में कुशलता से उपलब्धि की सिद्धि के सूचक हैं, उनका उपदेश करते हैं अन्वक्षार्थ --~ [ यथाजातरूपजातम् ] जन्म समय के रूप जैसा रूप वाला, [उत्पाटितकेशश्मश्रुकं ] सिर और दाढ़ी मूंछ के बालों का लोच किया हुआ [ शुद्धं ] शुद्ध (परिग्रहरहित ) [ हिंसादितः रहितम् ] हिंसादि से रहित और [ अप्रतिकर्म] प्रतिकर्म ( शारीरिक श्रृंगार ) से रहित [ लिंगं भवति ] लिंग ( यतिधर्म का बहिरंग चिन्ह ) होता है । [मुर्च्छारम्भवियुक्तम् ] मूर्च्छा (ममत्व ) और आरम्भ रहित [ उपयोगयोगशुद्धिभ्यां युक्तं ] उपयोग और योग की शुद्धि से युक्त तथा [न परापेक्ष ] पर की अपेक्षा से रहित ऐसा [जैनं ] जिनेन्द्रदेव कथित [लिंगम् ] ( श्रामण्यका अंतरंग ) लिंग है [ अपुनर्भवकारणम् ] जो कि मोक्ष का कारण है । टोका -- प्रथम तो अपनी इच्छा से, यथोक्त ( गाथा २०३-२०४) क्रम से यथाजातरूपधारी' होने से आत्मा के अयथाजातरूप के कारणभूत मोहरागद्वेषादिभावों का अभाव होता ही है, और उनके अभाव के कारण, जो कि उनके सद्भाव में होते हैं ऐसे (१) वस्त्राभूषण का धारण, (२) सिर और डाढ़ी मूछों के बालों का रक्षण (३) सकिंचनत्व * परिग्रह ( ४ ) सावद्ययोग से मुक्तता तथा ( ५ ) शारीरिक संस्कार का करना, इन ( पाँचों) का अभाव होता है, जिससे ( उस आत्मा के ) (१) जन्म समय के रूप जैसा रूप, (२) सिर और डाढ़ी मूछ के बालों का लोंच, (३) शुद्धत्व (परिग्रह रहितता ) ( ४ ) हिसाबरहितता, तथा (५) अप्रतिकर्मत्व ( शारीरिक शृंगार-संस्कार का अभाव ) होता ही है । इसलिये यह बहिरंग लिंग है। और फिर, आत्मा के यथाजातरूपधरत्व से दूर किया गया जो अयथाजातरूपधरत्व, उसके कारणभूत मोहरागद्वेषादि भावों का अभाव होने से ही, ओ १. यथाजातरूपधर ( आत्मा का ) - सहजरूप धारण करने वाला। २. अयथाजातरूपधर - ( आत्मा का ) असहजरूप धारण करने वाला । ३. सकिचन - जिसके पास कुछ भी (परिग्रह) हो ऐसा । ४. कर्मप्रक्रम -- काम को अपने ऊपर लेना, काम में युक्त होना, काम को व्यवस्था । तत्पूर्वक - उपरक्त (मलिन) उपयोगपूर्वक । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] [ पवयणसारो उनके सद्भाव में होते हैं ऐसे जो ( १ ) ममत्व और कार्य व्यवस्था (कर्मप्रक्रम) के परिणाम, ( २ ) शुभाशुभ उपरक्त उपयोग और तत्पूर्वक तथाविध योग की अशुद्धि से युक्तता तथा (३) परद्रथ्य से सापेक्षत्य, इन तीनों का अभाव होता है, इसलिये उस मुनि के (१) मूर्छा और आरम्भ से रहितता, (२) उपयोग और योग की शुद्धि से युक्तता, (३) तथा पर को अपेक्षा से रहितता होती है। इसलिये यह अंतरंग लिंग है ।।२०५- २०६ ।। तात्पर्यवृत्ति अथ तस्य पूर्वसूत्रोदितयथाजातरूपधरस्य निर्ग्रन्थस्यानादिकालदुर्लभायाः स्वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धेमकं चिन्हं बाह्याभ्यन्तरलिङ्गद्वयमादिशति जधजादरूवजादं पूर्वसूत्रोक्तलक्षणयथाजातरूपेण निर्ग्रन्थत्वेन जातमुत्पन्नं यथाजातरूपजातम् उपासिमंसुगं केशश्मसंस्कारोत्पन्नरागादिदोपवर्जनार्थं मुत्पाटितकेशश्मश्रुकंम् । सुद्धं निरवद्यचैतन्यचमत्कारविसदृशेन सार्बसावद्ययोगेन रहितत्वाच्छुद्धम् । रहिदं हिंसादीदो शुद्धचैतन्यरूपनिश्चयप्राणहिंसाकारणभूताया रागादिपरिणतिलक्षणनिश्चर्याहसाया अभावात् हिंसादिरहितम् अप्पडिकम्मं हवदि परमोपेक्षासंयमबलेन देहप्रतिकार रहितत्वादप्रतिकर्म भवति । किं ? लिगं एवं पञ्चविशेषणविभिष्टं लिङ्ग द्रव्यलिङ्ग ज्ञातव्यमिति प्रथमगाथा गता । मुच्छारंभ विमुक्कं परद्रव्यकांक्षारहितनिर्मोहपरमात्मज्योतिर्विलक्षणा बाह्यद्रव्ये ममत्वबुद्धिर्भूर्च्छा भण्यते मनोवाक्कायव्यापाररहितचिच्चमत्कार प्रतिपक्षभूत आरम्भो व्यापारस्ताभ्यां मूर्च्छारम्भाभ्यां विमुक्त मूर्च्छारम्भविमुक्तम् जुतंउवजोग जोगसुद्धीहिं निर्विकारस्वसंवेदनलक्षण उपयोगः निर्विकल्पसमाधिर्योगः तयोरुपयोगयोगयोः शुद्धिया युक्तः ण परावेक्खं निर्मलानुभूतिपरिणते परस्थ परद्रव्यस्यापेक्षया रहितम् न परोपक्षम् अणभवकारणं पुनर्भवविनाशक शुद्धात्म परिणामात्रपरीतापुनर्भवस्त्र मोक्षस्य कारणमपुनर्भवकारणम् । जोहं जिनस्य सम्बन्धीदं जिनेन प्रोक्त बा जैनम् । एवं पंचविशेषणविशिष्टं भवति । कि? लिंग भावलिङ्गमिति । इति द्रव्यलिङ्गभावलिङ्गस्वरूपं ज्ञातव्यम् ।।२०५ - २०६॥ उत्थानिका— आगे यह उपदेश करते हैं कि पूर्व सूत्र में कहे प्रमाण यथाजातरूपधारी निग्रंथ को अनादि काल में भी दुर्लभ, ऐसी निज आत्मा की प्राप्ति होती हैं। इसी स्वात्मोपलब्धिलक्षण को बताने वाले चिन्ह उनके बाहरी और भीतरी दोनों लिंग होते हैंअन्वय सहित विशेषार्थ - ( लिंग ) मुनि का द्रव्य या बाहरी चिन्ह (जधजादरूवजावं) जैसा परिग्रह रहित नग्नस्वरूप होता है वैसा होता है (उप्पाडिय के समं सुगं ) जिसमें सिर और डाढ़ी के बालों का लोच किया जाता है ( सुद्धं ) जो निर्मल परिग्रह से रहित और (हिंसादोदो रहिदं) हिंसादि पापों से रहित तथा (अध्यक्रिम्मं ) शृंगार रहित (हवदि) होता है । तथा (मुच्छारम्भविमुक्के) ममता आरम्भ करने के भाव से रहित तथा ( उबजोगजोगसुद्धीहिजुत्तं ) उपयोग और ध्यान की शुद्धि सहित (परावेक्खं ग ) परद्रध्य की अपेक्षा रहित Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ..] [ ४६१ (अणभवकारणं) मोक्ष का कारण ऐसा (लिंग) मुनि का भाव लिंग (जोण्ह) जिनेन्द्र ने कहा है । जैन साधु का लिग या शरीर का चिन्ह पांच विशेषण सहित जानना चाहिये (१) पूर्व गाथा में कहे प्रमाण निग्रन्थ परिग्रह रहित नग्न होता है (२) मस्तक के और डाढो मूछों के शृंगार सम्बन्धी रागादि दोषों के हटाने के लिये सिर व डाढ़ी मूछों के केशों को उपाड़ने से होता है (३) पाप रहित अर्थात चैतन्य चमत्कार के विरोधी सर्व पाप योगों से रहित शुद्ध होता है (४) शुद्ध चैतन्यमयी निश्चय प्राण की हिंसा के कारणभूत रागादि परिणतिरूप निश्चय हिंसा के अभाव से हिंसादि रहित होता है (५) परम उपेक्षा संयम के बल से देह के संस्कार रहित होने से श्रृंगार रहित होता है । इसी तरह जैन साधु के भालिग के भी पांच विशेषण हैं। (१) परद्रव्य की इच्छा व मोह से रहित परमात्मा को ज्ञान ज्योति से विरुद्ध बाहरी द्रव्यों में ममता बुद्धि को मूर्छा कहते हैं तथा मन वचन काय के व्यापार से रहित चैतन्य चमत्कार के प्रतिपक्षी व्यापार को आरम्भ कहते हैं । मूर्छा और आरम्भ इन दोनों से रहित होता है (२) विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण-धारी उपयोग और निर्विकल्प समाधिमयी योग इन दोनों की शुद्धि सहित होता है (३) निर्मल आत्मानुभव की परिणति होने से परद्रव्य की सहायता रहित होता है (४) बार-बार जन्म धारण को नाश करने वाले शुद्ध आत्मा के परिणामों के अनुकूल पुनर्भवरहित मोक्ष का कारण होता है (५) जिन भगवान सम्बन्धी अथवा जैसा जिनेन्द्र ने कहा है वैसा होता है। इस तरह जैन साधु के द्रव्य और भाव लिंग का स्वरूप जानना चाहिये ॥२०५-२०६॥ अर्थतदुभयलिंगमायायैतदेतत्कृत्वा च श्रमणो भवतीति भवतिक्रियायां बन्धुवर्गप्रच्छनक्रियाविशेषसकलक्रियाणां चककत कत्वमुद्योतयन्नियता श्रामण्यप्रतिपत्तिर्भवतीत्युपविशति "आदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता। सोच्चा सवदं किरयं उवट्ठिदो होदि सो समणो ॥२०७॥ आदाय तदपि लिंग गुरुणा परमेण तं नमस्कृत्य । श्रुत्वा सव्रतां क्रियामुपस्थितो भवति स श्रमणः ॥२०७।। ___ ततोऽपि श्रमणो भवितुमिच्छन् लिंगद्धतमादत्ते गुरु नमस्यति व्रक्रिये शृणोति अथोपतिष्ठते; उपस्थितश्च पर्याप्तश्रामण्यसामग्रीकः श्रमणो मवति । तथाहि-तत इदं यथाजातरूपधरत्वस्य पमकं बहिरङ्गमन्तरंगमपि लिंग प्रथममेव गुरुणा परमेणाह.भट्टारकेण तदात्वे च दीक्षाचार्येण तदादानविधानप्रतिपादकत्वेन व्यवहारतो दीयमानत्वात्तमादान Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ । [ पवयणसारो क्रियया संभाव्य तन्मयो भवति । ततो भाव्यभावकभावप्रवृत्तेतरेतरसंवलनप्रत्यस्तमितस्वपरविभागत्वेन दत्तसर्वस्वमूलोत्तरपरमगुरुनमस्क्रियया संभाव्य भावस्तववन्दनामयो भवति ततः सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणकमहावतश्रवणात्मना श्रुतज्ञानेन समये भवन्तमात्मानं जानन् सामायिकमधिरोहति । ततः प्रतिक्रमणालाचनप्रत्याख्यानलक्षणक्रियाश्रवणात्मना श्रुतज्ञानेन कालिककर्मभ्यो विविध्यमानमात्मानं जानन्नतीतप्रत्युपन्नानुपस्थितकायबाङमनःकर्म विविक्तत्वमधिरोहति । ततः समस्तावद्यकर्मायतनं कायमुत्सृज्य यथाजातरूपं स्वरूपमेकमेकाग्रेणालम्ब्य व्यवतिष्ठमान उपस्थितो भवति, उपस्थितस्तु सर्वत्र समदृष्टित्वात्साक्षाच्छ मणो भवति ।।२०७।। ___ भूमिका-अब (श्रामण्यार्थी) इन दोनों लिंगों को ग्रहण करके, और इतना-इतना करके श्रमण होता है, इस प्रकार योग्य क्रिया में बन्धुवर्ग से विदा लेने रूप क्रिया से लेकर शेष सभी क्रियाओं का एक कर्ता दिखलाते हुए, इतना करने से श्रामण्य की प्राप्ति होती है, यह उपदेश करते हैं अन्वयार्थ-[परमेण गुरुणा] परम गुरु के द्वारा प्रदत्त [तदपि लिंगम्] उन दोनों लिगों को [आदाय] ग्रहण करके, [तं नमस्कृत्य] उन्हें नमस्कार करके, [सवतां क्रियां श्रुत्वा] व्रत सहित क्रिया को सुनकर [उपस्थितः] उपस्थित (प्रतिक्रमण आदि द्वारा उपस्थित होता हुआ) [सः] वह [श्रमणः भवति] श्रमण होता है। --~ ___टीका तत्पश्चात् श्रमण होने का इच्छुक दोनों लिंगों को ग्रहण करता है, गुरु को नमस्कार करता है, वत तथा क्रिया को सुनता है और उपस्थित होता है तथा उपस्थित होता हुआ यतिधर्म को पर्याप्त सामग्री पर्याप्त परिपूर्ण (होने) से श्रमण होता है। वह इस प्रकार से कि प्रथम ही परमगुरु अरहंत भट्टारक और तत्कालीन दीक्षाचार्य के द्वारा लिंग के ग्रहण की विधि के प्रतिपादक-पने से व्यवहार अपेक्षा दिये जाने से दिये हुए इस यथाजातरूपधरत्व के सूचक बहिरङ्ग तथा अन्तरङ्गलिग को (यह श्रमणार्थी) ग्रहण करने के द्वारा आवर करके उस लिंग से तन्मय होता है। तत्पश्चात् जिन्होंने सर्वस्व दिया (मुनिदीक्षा सम्बन्धी सब कुछ दिया है) ऐसे मूलगुरु (अरहंत) और उत्तरगुरु (दीक्षाचार्य) को भाथ्यभावक भाव से प्रवर्तित इतरेतर (परस्पर मिलने के कारण) जिसमें स्व-परका भेद अस्त हो गया है, ऐसी नमस्कार क्रिया के द्वारा संभावित (सम्मानित) करके भाव स्तुतिमय तथा भाव बदनामय होता है। [श्री अरहंत देव ने मुनिदीक्षा की विधि का प्रतिपादन Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४६३ किया है उसी के अनुसार दीक्षाचार्य श्रमणार्थी को मुनिदीक्षा की विधि बतलाकर दीक्षा देते हैं और श्रमणार्थी मुनि अंतरंग व बहिरंग लिंग को ग्रहण करके मुनि हो जाता है । अरहंत भगवान व आचार्य की भावना भावता हुआ इतना तन्मय हो जाता है कि भाथ्यभावक (जिसको भावना की जाय वह भाव्य और भावना करने वाला भावक) भाव में भेद नहीं रहता । यही भाव-नमस्कार भाव-स्तुति और माव-वन्दना है।] पश्चात् सर्वसावायोग के प्रत्याख्यानस्वरूप एक महावत को सुनने रूप श्रुतज्ञान के द्वारा समय में परिणमित होते हुये आत्मा को जानता हुआ सामायिक में आरूढ होता है । पश्चात् प्रतिक्रमण-आलोचना-प्रत्याख्यानस्वरूप क्रिया को सुनने रूप श्रुतज्ञान के द्वारा कालिक कर्मों से भिन्न किये जाने वाले आत्मा को जानता हआ, अतीत अनागत वर्तमान मन-वचन-फाय सम्बन्धी कर्मों से विविक्तता (भिन्नता) में आरूढ़ होता है । पश्चात् समस्त सावध कर्मों के आयतनभूत काय का उत्सर्ग (उपेक्षा) करके यथाजात रूप वाले एक स्वरूप को, एकाग्रता से अवलम्बित करके रहता हुआ उपस्थित होता है और उपस्थित होता हुआ सर्वत्र समवृष्टित्व के कारण साक्षात् श्रमण होता है ॥२०७॥ तात्पर्यवृत्ति ___ अथैतल्लिङ्गद्वैतमादाय पूर्व भाविनैगमनयेन यदुक्त पंचाचारस्वरूपं तदिदानी स्वीकृत्य तदाधारेणोपस्थितः स्वस्थो भूत्वा श्रमणो भवतीत्याख्याति; आदाय तं पि लिङ्ग आदाय गृहीत्वा तत्पूर्वोक्तं लिङ्गद्वयमपि । कथंभूतं ? दत्तमिति क्रियाध्याहारः । केन दत्तम् ? गुरुणा परमेण दिव्यध्वनिकाले परमागमोपदेशरूपेणाईट्टारकेण । दीक्षाकाले तु दीक्षागुरुणा, लिङ्गग्रहणानन्तरं तं णमंसित्ता ते गुरु नमस्कृत्य सोच्चा तदनन्तरं श्रुत्वा । काम् ? किरियं क्रियां बृहत्प्रतिक्रमणाम् । कि विशिष्टाम् ? सवदं सव्रतां व्रतारोपणसहिताम् । उठ्दिो ततश्चोपस्थितः स्वस्थः सन् होवि सो समणो स पूर्वोक्तस्तपोधन इदानीं श्रमणो भवतीति । इतो विस्तरः- पूर्वोक्तलिङ्गद्वयनणानन्तरं पूर्वसूत्रोक्तपंचाचारमाश्रयति ततश्चानन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपेण भावनमस्कारेण तथैव तद्गुणप्रतिपादकवचनरूपेण द्रव्यनमस्कारेण च गुरु नमस्करोति । ततः परं समस्त शुभाशुभपरिणामनिवृत्तिरूपं स्वरूपे निश्चलावस्थानं परमसामायिकब्रतमारोहति स्वीकरोति । मनोवचनकार्यः कृतकारितानुमतश्च जगत्त्रये कालत्रयेऽपि समस्तशुभाशुभकर्मभ्यो भिन्ना निजशुद्धात्मपरिणतिलक्षणा या तु क्रिया सा निश्चयेन बृहत्प्रतिक्रमणा भण्यते व्रतारोपणानन्तरं तां च शृणोति । ततो निर्विकल्पं समाधिवलेन कायमुत्सृज्जोपस्थितो भवति, ततश्चैवं परिपूर्णश्रमणसामग्रयां सत्यां परिपूर्णश्रमणो भवतीत्यर्थः ।।२०७।। एवं दीक्षाभिमुखपुरुषस्य दीक्षाविधानकथनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथासप्तकं गतम् । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ । [ पवयणसारो उत्थानिका-आगे यह कहते हैं कि मोक्षार्थी इन दोनो द्रव्य और भावलिंगों को ग्रहणकर तथा पहले भाविनगमनय से जो पंच आचार का स्वरूप कहा गया है उसको इस समय स्वीकार करके उस चारित्र के आधार से अपने स्वभाव में तिष्ठता है, वही श्रमण होता है अन्वय सहित विशेषार्थ-(परमेण गुरुणा) उत्कृष्ट गुरु से (तं पि लिग) उस उभयलिंग को ही (आदाय) ग्रहण करके फिर (तं णमंसित्ता) उस गुरु को नमस्कार करके तथा (सवदं किरिय) व्रत सहित क्रियाओं को (सोच्चा) सुन करके (उद्विदा) मुनिमार्ग में तिष्ठता हुआ (सो) वह मुमुक्षु (समणो) मुनि (हदि) हो जाता है । दिव्यध्वनि होने के काल की अपेक्षा परमागम का उपदेश करने रूप से अरहंत भट्रारक परमगुरु हैं, दीक्षा लेने के काल में दीक्षादाता साधु परमगुरु हैं । ऐसे परमगुरु द्वारा दी हुई द्रव्य और भावलिंग रूप मुनि की दीक्षा को ग्रहण करके पश्चात् उसी गुरु को नमन करके उसके पीछे व्रतों के ग्रहण सहित बृहत् प्रतिक्रमण क्रिया का वर्णन सुनकर भले प्रकार स्वस्थ होता हुआ वह पूर्व में कहा हुआ तपोधन श्रमण हो जाता है। विस्तार यह है कि पूर्व में कहे हुए द्रव्य और भावलिंग को धारण करने के पीछे पूर्व सूत्रों में कहे हुए सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्यरूप पांच आचारों का आश्रय करता है। फिर अनन्तज्ञानादि गुणों के स्मरण रूप भाव नमस्कार से तैसे ही उन गुणों को कहने वाले वचन रूप द्रव्य नमस्कार से गुरु महाराज को नमस्कार करता है। उसके पीछे सर्व शुभ व अशुभ परिणामों से निवृत्ति रूप अपने स्वरूप में निश्चलता से तिष्ठनेरूप परमसामायिक व्रत को स्वीकार करता है। मन, वचन, काय, कृत, कारित अनुमोदना से तीन जगत् तीन काल में भी सर्व शुभ अशुभ कर्मों से भिन्न जो निज शुद्ध आत्मा की परिणति रूप लक्षण को रखने वाली क्रिया उसको निश्चय से बहत् प्रतिक्रमण किया कहते हैं । यतों को धारण करने के पीछे इस क्रिया को सुनता है, फि : विकल्प रहित होकर काय का मोह त्यागकर समाधि के बल से कायोत्सर्ग में तिष्ठता है। इस तरह पूर्ण मुनि की सामग्री प्राप्त होने पर वह पूर्ण श्रमण या साधु हो जाता है, यह अर्थ है ॥२०७॥ इस तरह दीक्षा के सम्मुख पुरुष की दीक्षा लेने के विधान के कथन की मुख्यता से पहले स्थल में सात गाथायें पूर्ण हुई। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ ४६५ अथाविच्छिन्न सामायिकाधिरूढोऽपि श्रमणः कदाचिच्छेदोपस्थापनमर्हतीत्युपदिशतिवदसमिविदियरोधो लोचावस्सयमचेल मण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयण मेगभत्तं च ॥ २०६ ॥ | एवे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहि पण्णत्ता । तेसु पमतो समणो छेदोवट्ठा वगो होदि ॥ २०६॥ [ जुग्मं ] . व्रतसमितीन्द्रियरोधो लोचावश्यकमचेलमस्नानम् । क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थितिभोजनमे कभक्तं च || २०८ || एते खलु मूलगुणाः पणानां । तेषु प्रमत्तः श्रमणः छेदोपस्थापको भवति ॥ २०६ ॥ [ युग्मम् ] सर्वसाद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणैक महाव्रत व्यक्तिवशेन हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहविरस्यात्मकं पञ्चतयं व्रतं तत्परिकरश्च पञ्चतयी समितिः पञ्चतय इन्द्रियरोधो लोचः बसयमावश्यकमचेलक्यमस्नानं क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थिति भोजनमेकभक्तश्वं एते निविकल्पसामायिक संयम विकल्पत्वात् श्रमणानां मूलगुणा एव । तेषु यदा निर्विकल्पसामायिकसंयमाधिरुत्वेनानभ्यस्त विकल्पत्वात्प्रमाद्यति तवा केवलकल्याणमात्रार्थिनः कुण्डलबलयांगुलीयादिपरिग्रहः किल श्रेयान् न पुनः सर्वथा कल्याणलाभ एवेति संप्रधार्यं विकपेनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थापको भवति ॥ २०६- २०६|| भूमिका – अविच्छिन्न सामायिक में आरूढ होने पर भी श्रमण कदाचित् छेदोपस्थापना के योग्य है, सो कहते हैं अन्वयार्थ --- [ व्रत समितीन्द्रियरोधः ] व्रत, समिति, इन्द्रियरोध [ लोचावश्यकम् ] लोच, आवश्यक, [अचेलम् ] अचेलत्व [अस्नानं ] अस्नान, [ क्षितिशयनम् ] भूमिशयन; [ अदंतधावनं ] अदंतधावन, [स्थितिभोजनम् ] खड़े खड़े भोजन, [च] और [ एकभक्तं ] एक बार आहार [एते ] यह [ खलु] वास्तव में [ श्रमणानां मूलगुणाः ] श्रमणों के मूलगुण पूजिनवरी: प्रज्ञप्ताः ] जिनवरों ने कहे हैं, [तेषु ] उनमें [ प्रमत्तः ] प्रमत्त होता हुआ [ श्रमणः ] श्रमण [ छेदोपस्थापकः भवति ] छेदोपस्थापक होता है । टीका - सर्व सावद्ययोग के प्रत्याख्यानस्वरूप एक महाव्रत है उसके विशेष अथवा भेद हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह की विरतिस्वरूप पांच महाव्रत तथा उसी का परिकरभूत पाँच प्रकार की समिति, पांच प्रकार का इन्द्रियरोध, लोच, छह प्रकार के १. ठिदिभोयणमेप्रभत्तं ( ज० वृ० ) । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] [ पवयणसारो आवश्यक, अचेलकत्त्व (नग्नता), अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन (वांतुन न करना), खड़े खड़े भोजन, और एकबार आहार लेना, इस प्रकार यह (अट्ठाईस) एक अभेद सामायिक संयम के विकल्प (भेद) होने से श्रमणों के मूलगुण ही हैं । जय श्रमण एक सामायिक संयम में आरूढता के कारण जिसमें भेवरूप आचरण सेवन नहीं है, ऐसी दशा से च्युत होता है, तब 'केवल सुवर्ण मात्र के अर्थी को कुण्डल, कंकण, अंगूठी आदि को ग्रहण करना (भी) श्रेय है, किन्तु ऐसा नहीं है कि (कुण्डल इत्यादि का ग्रहण कभी न करके) सर्वथा स्वर्ण को ही प्राप्ति परम हो श्रेष है ऐसा विचार करके यह मूलगुणों में भेवरूप से अपने को स्थापित करता हुआ अर्थात् मूलगुणों में भेद रूप से आचरण करता हुआ छेदोपस्थापक होता है ॥२०८-२०६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ निर्विकल्पसामायिकसंयमे यदा च्युतो भवति तदा सविकल्पं छेदोपस्थापनचारित्रमारोहतीति प्रतिपादयति वसमिदिवियरोधो अतानि च समितयश्चेन्द्रियरोधश्च व्रतसमितीन्द्रियरोधः । लोचावस्सयं लोचंश्चावश्यकानि च लोनावश्यकम् । "समाहारस्यकवचन" अचेलमण्हाणं खिदिसयणमदंतवणं ठिदिक्षायणमेयभत्तं च अचेलकास्नानक्षितिशयनादन्तधावनस्थितिभोजनकभक्तानि। एवे खलु मूलगुणा समणाणं जिनवरेहिं पण्णत्ता एते खलु स्फुटं अष्टाविंशतिमूलगुणाः श्रमणानां जिनवरैः प्रज्ञप्ताः तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि लेषु मूलगुणेषु यदा प्रमत्तः च्युतो भवति । सः कः ? श्रमणस्तपोधनस्तदाकाले छेदोपस्थापको भवति । छेदे व्रतखण्डने सति पुनरप्युपस्थापकश्छेदोपस्थापक इति । तथाहि-निश्चयेन मूलमात्मा तस्य केवलज्ञानाद्यनन्तगुणा मुलगुणास्ते च निर्विकल्प-समाधिरूपेण परमसामायिकाभिधानेन निश्चयैकद्रतेन मोक्षबीजभूतेन मोक्षे जाते सति सवें प्रकटा भवन्ति । तेन कारणेन तदेव सामायिक मूलगुणव्यक्तिकारणत्वात् निश्चयमूलगुणो भवति । यदा पुनर्निर्विकल्पसमाधी समर्थो न भवत्ययं जीवस्तदा यथा कोऽपि सुवर्णार्थी पुरुष: सुवर्णमलभमानस्तत्पर्यायानपि कुण्डलादीन् ग्रह्णाति न च सर्वथा त्यागं करोति, तथायं जीवोऽपि निश्चयमूलगुणाभिधानपरमसमाध्यभावे छेदोपस्थापनं चारित्रं गृह्णाति । छेदे सत्युपस्थापन छेदोपस्थापनम् । अथवा छेदेन बतभेदेनोपस्थापनं छेदोपस्थापनम् । तच्च संक्षेपेण पंचमहाव्रतरूपं भवति । तेषां वतानां च रक्षणार्थ पंचसमित्यादिभेदेन पुनरष्टाविंशतिमूलगुणभेदा भवन्ति । तेषां च मुलगुणानां रक्षणार्थ द्वाविंशतिपरोषहजयद्वादश विधतपश्चरणभेदेन चतुस्त्रिशदुत्तरगुणा भवन्ति तेषां च रक्षणार्थं देवमनुष्यतिर्यगचेतनकृतचतुर्विधोपसर्गजयद्वादशानुप्रेक्षाभावनादयश्चेत्यभिप्रायः ।।२०८-२०६।। एवं मूलोत्तरगुणकथनरूपेण द्वितीयस्थले सूत्रद्वयं गतम् । उत्थानिका—आगे कहते हैं कि जब अभेदरूप सामायिकसंयम में ठहरने को असमर्थ होकर साधु उससे गिरता है तब भेदरूप छेदोपस्थापनाचारित्र में जाता है Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४६७ अन्वय सहित विशेषार्थ - ( वदसमिदि वियरोधो ) पाँच महाव्रत, पाँच इन्द्रियों का निरोध (लोचावस्सयं) केशलोंच, छः आवश्यक कर्म ( अचेल मण्हाणं ) नग्नपना, स्नान न करना, (खिदिसयणमदंतवणं ) पृथ्वी पर सोना, दन्तवन ( दांतुन ) न करना (ठिदिभोयणमेयभत्तं घ) खड़े हो भोजन करना, और एक बार भोजन करना (एदे ) ये (समणाणं मूलगुणा ) साधुओं अट्ठाईस मूलगुण ( खलु ) वास्तव में ( जिणवरेहि पण्णत्ता) जिनेन्द्रों ने कहे हैं ( तेसु पमत्तो) इन मूलगुणों में प्रमाद करने वाला ( श्रमणा ) साधु ( छेदोवट्ठावगो) छेदोपस्थापक ( होदि ) होता है। निश्चयनय से मूल नाम आत्मा का है उस आत्मा का है उस आत्मा के केवलज्ञानादि अनंतगुण मूलगुण हैं। ये सब मूलगुण उस समय प्रकट होते हैं जब भेद-रहित समाधिरूप परमसामायिक निश्चय एक व्रत के द्वारा (जो मोक्ष का बीज है) मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसी कारण से वही सामायिक आत्मा के केवलज्ञानादि मूलगुणों को प्रगट करने के कारण होने से निश्चय मूलगुण है । जब यह जीव अभेवरूप समाधि में (सामायिकचारित्र में ठहरने को समर्थ नहीं होता है तब भेदरूप चारित्र को ग्रहण करता है, चारित्र का सर्वथा त्याग नहीं करता, जैसे कोई भी सुवर्ण का चाहने वाला पुरुष स्वर्ण को न पाता हुआ उसकी कुण्डल आदि अवस्था विशेषों को ही ग्रहण कर लेता है, सर्वथा स्वर्ण का त्याग नहीं करता है । तसे यह जीव भी निश्चय मूलगुण नामकी परमसमाधि अर्थात् अभेद सामायिकचारित्र का लाभ न होने पर छेदोपस्थापना नाम अर्थात् भेदरूप चारित्र को ग्रहण करता है । छेद होने पर फिर स्थापन करना छेदोपस्थापना है । अथवा छेब से अर्थात् तों के मेद से चारित्र को स्थापन करना सो छेदोपस्थापना है । वह छेदोपस्थापना संक्षेप में पांच महाव्रत रूप है। उन्हीं व्रतों की रक्षा के लिये पांच समिति आदि के भेद से उसके अट्ठाईस मूलगुण भेद होते हैं। उन ही मूलगुणों की रक्षा के लिये २२ परिषहों का जीतना व १२ प्रकार तपश्चरण करना ऐसे चौंतीस उत्तरगुण होते हैं । इन उत्तर गुणों के लिये देव, मनुष्य, तिर्यञ्च व अचेतन कृत चार प्रकार के उपसर्ग का जीतना व बारह भावनाओं का भावन करना आदि कार्य किये जाते हैं ॥२०८ - २०६ ॥ इस तरह मूल और उत्तरगुणों को कहते हुए दूसरे स्थल में दो सूत्र पूर्ण हुए। अथस्य प्रव्रज्यादायक इव छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्तीत्याचार्यविकल्पप्रज्ञापनद्वारे गोपविशति Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो 1 लिंग ग्रहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जादायगो होदि । छेदेसुवट्ठवगा सेसा णिज्जावगा समणा ॥ २१०॥ लिङ्गग्रहणे तेषां गुरुरिति प्रव्रज्यादायको भवति । छेदयोरुपस्थापकाः शेषा नियपिकाः श्रमणाः ।। २१० ॥ यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्प सामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन यः किलाचार्यः प्रव्रज्या दायकः सः गुरुः यः पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोपस्थापनसंयमप्रतिपादकत्वेन छंद प्रत्युपस्थापक स निर्धापकः, योऽपि छिन्नसंयमप्रतिविधानसंधानप्रतिपादकत्वेन छेवे सत्युपस्थापकः सोऽ निर्यापक एव, ततश्छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्ति ॥ २९० ॥ भूमिका – अब इनके ( श्रमण के ) प्रव्रज्यादायक की भांति छेदोपस्थापक प ( दूसरा ) भी होता है यह, आचार्य के भेदों के प्रज्ञापन द्वारा उपदेश करते हैंअन्वयार्थ - [ लिगग्रहणे | लिंगग्रहण के समय [ प्रवज्यादायकः भवति | जो प्रव्रज्य (दीक्षा) दायक हैं वह [त गुरुः इव] उनके गुरु हैं और [छेदयोः उपस्थापकाः ] जं छेदद्वय में उपस्थापक हैं (अर्थात् १ - जो भेदों में स्थापित करते हैं तथा २ - जो संयम में छेद होने पर पुनः स्थापित करते हैं ) [ शेषाः श्रमणाः ] वे श्रमण [ निर्यापकाः ] निर्यापक हैं टीका - लिंग ग्रहण के समय जो आचार्य अभेद - सामायिकसंयम के प्रतिपादन ४६८ ] द्वारा प्रवज्यादायक हैं वे गुरु हैं, और तत्पश्चात् तत्काल हो जो (आचार्य) भेदरूप छेदो पस्थापना संयम के प्रतिपादक होने से छेद के प्रति उपस्थापक ( भेद में स्थापित करने वाले) हैं वे निर्यापक हैं, उसी प्रकार जो आचार्य संयम के छेद होने पर पुनः निर्दोष संयम को प्राप्त करने की विधि के प्रतिपादक होने से छेद होने पर उपस्थापक (संग्रम मे छेद होने पर उसमें पुनः स्थापित करने वाले ) हैं, वे भी निर्यापक ही हैं। इसलिये छेदो पस्थापक अन्य आचार्य भी होते हैं ॥ २१० ॥ तात्पर्यवृत्ति अथास्य तपोधनस्य ज्यादायक इवान्योऽपि निर्यापकसंज्ञो गुरुरस्ति इति गुरुव्यवस्थां निरूपयति--- गिग सिलिङ्गग्रहणे तेषां तपोधनानां गुरुन्ति होदि गुरुर्भवतीति । स कः ? परवडजदायगो निर्विकल्पसमाधिरूप परमसामायिकप्रतिपादको योऽसौ प्रवज्यादायक: स एव दीक्षागुरुः छेदेसु अट्ठा देश संकल रुपयोद्विधां छेदयोश्च वर्तका: ये सेसा विज्जावगा समणा ते शेवाः श्रमणा निर्यापिका भवन्ति शिक्षागुरवश्च भवन्तीति । अयमत्रार्थः - निर्विकल्पक समाधिरूपसामायिकस्यैकदेशेन १. छेदेषु अवगा (ज० ० ) । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ४६६ च्युतिरेकादेश छंदः, सर्वथा च्युतिः सकलदेश छेद इति देशसकलभेदेन द्विधा छेदः । तयोश्छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेगवैराग्यजनकपरमागमवचनैः संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापका: शिक्षागुरवः श्रुतगुरवश्चेति भण्यन्ते । दीक्षादायकस्तु दीक्षागुरुरित्यभिप्रायः ॥२१०।। उस्थानिका-अब यह दिखलाते हैं कि इस तप ग्रहण करने वाले साधु के लिये जैसे दीक्षादायक आचार्य या साधु होते हैं वैसे अन्य निर्यापक नाम के गुरु भी होते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ---(लिंगग्गहणं) मुनि भेष के ग्रहण करते समय (तेसि गुरू:) उन साधुओं का जो गुरु होता है (इति) वह (पच्वज्जदायगो) दीक्षागुरु (होदि) होता है। (छेदेसुअवट्टवगा) एकदेश या सर्वदेश तभंग होने पर जो फिर व्रत में स्थापित कराने वाले होते हैं (सेसा) ये सब शेष (णिज्जावगा समणा) निर्यापक श्रमण या शिक्षागुरु होते हैं । अभेद-समाधि-परमसामायिकरूप दीक्षा के जो दाता हैं उनको दीक्षा-गुरु कहते हैं तथा छेद दो प्रकार का है, जहाँ अभेद समाधिरूप सामायिक का एकदेश भङ्ग होता है उसको एक-देश छेद व जहाँ सबंथा भङ्ग होता है उसको सर्वदेश छेद कहते हैं । इन वोनों प्रकार छेदों के होने पर जो साधु प्रायश्चित्त देकर संवेग वैराग्य को पंदा करने वाले परमागम के वचनों से उन छेदों का निवारण करते हैं वे निर्यापक या शिक्षागुरु या श्रुतगुरु कहे जाते हैं । दीक्षा देने वाले को दीक्षागुरु कहते हैं, यह अभिप्राय है ॥२१०॥ अथ छिन्नसंयमप्रतिसंधानविधानमुपदिशति पयदम्हि समारद्ध छेदो समणस्स कायचेम्हि । जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुब्विया किरिया ॥२११॥ छेदुवजुत्तो' समणो समणं क्वहारिणं जिणमदम्हि । आसेज्जालोचित्ता उवदिळं तेण कादव ॥११२॥ [जुगल] प्रयतायां समारब्धायां छेदः श्रमणस्य कायचेष्टायाम् । जायते यदि तस्य पुनरालोचनपूर्विका क्रिया ।।२११।। छेदोपयुक्तः श्रमणः श्रमणं व्यवहारिणं जिनमते । आसाद्यालोच्योपदिष्टं तेन कर्तव्यम् ॥२१२।। [युगलम् द्विविधः किल संयमस्य छेदः, बहिरङ्गोऽन्तरङ्गश्च । तत्रकायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरङ्ग, उपयोगाधिकृतः पुनरन्तरंगः । तत्र यदि सम्यगुपयुक्तस्य श्रमणस्य प्रपत्नसमारब्धायाः कायचेष्टायाः कथंचिद्बहिरङ्गच्छेदो जायते तस तस्य सर्वथान्सरंगच्छेदजित १. छेदपउत्तो (ज० वृ०) । २. कायध्वं (ज० वृ०)। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] [ पवयणसारो स्वादालोचनपूयिकया क्रिययव प्रतीकारः । यदा तु स एवोपयोगाधिकृतच्छेदत्वेन साक्षाच्छेद एयोपयुक्तो भवति तदा जिनोवितव्यवहारविधिविवग्धश्रमणाश्रयालोचनपूर्वकतदुपदिष्टानुष्ठानेन प्रतिसंधानम् ॥२११-२१२॥ भूमिका-संयम के छेद हो जाने पर पुनः निर्दोषसंयम को प्राप्त करने की विधि का उपदेश करते हैं-- अन्वयार्थ-[श्रमणस्य] श्रमण के [प्रयतायां] सावधानी पूर्वक [समारब्धायां] की जाने वाली [कायचेष्टायाँ] कायनेष्टा के द्वारा [यदि छेदः जायते] यदि छेद होता है तो [तस्य पुनः] उसे तो [आलोचनापूर्विका क्रिया] आलोचनापूर्वक क्रिया करना चाहिये। ]श्रमणः छेदोपयुक्त:] (किन्तु) यदि श्रमण छेद में उपयुक्त हुआ हो अर्थात् संयम का बुद्धि-पूर्वक छेद हुआ हो तो उसे [जिनमते] जैनमत में [व्यवहारिणं] व्यवहार कुशल [श्रमणं आसाद्य] श्रमण के पास जाकर [आलोच्य ] आलोचना करके (अपने दोष का निवेदन करके), [तेन उपदिष्टं] उनके उपदेश अनुसार [कर्तव्यम्] करना चाहिये अर्थात् प्रायश्चित ग्रहण करना चाहिये । टीका-संयम का छेद दो प्रकार का है, बहिरंग और अन्तरंग। उसमें मात्रकायचेष्टा संबंधी बहिरंग छेद है और उपयोग-सम्बन्धी अन्तरंग छेद है। उसमें भली-मांति उपयुक्त श्रमण के प्रयत्नकृत कायचेष्टा में कथंचित् संयम का बहिरंग छेद होता है, तो वह सर्वथा अन्तरंग छैव से रहित है इसलिए आलोचनापूर्वक क्रिया से ही उसका प्रतीकार होता है। किन्तु यदि यही श्रमण उपयोग सम्बन्धी छेव होने से साक्षात् छेद में ही उपयुक्त होता है तो जिनोक्त व्यवहारविधि में कुशल श्रमण के आश्रय से, आलोचनापूर्वक, उनसे उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा संयम का प्रतिसंधान होता है अर्थात संयम को पुनः प्राप्त करता है। २११-२१२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वसूत्रोक्तछेदद्वयस्य प्रायश्चित्तविधानं कथयति-- पयवम्हि समारखे छेदो समणस्स कायचेम्हि जायदि जदि प्रयतायां समारब्धायां छिदः धमणस्य कायचेष्टायां जायते यदि चेत् । अथ विस्तरः-छेदो जायते यदि चेत् । स्वस्थभावच्युतिलक्षणः छेदो भवति । कस्याम् ? कायचेष्टायाम् । कथंभूतायो ? प्रयतायां स्वस्थभावलक्षण प्रयत्नपरायां समारब्धायां अशनशयनयानस्थानादिप्रारब्धायाम् । तस्स पुणो आलोयणपुब्विया किरिया तस्य पुनरालोचनपूर्विका क्रिया । तदा काले तस्य तपोधनस्य स्वस्थभावस्य बहिरङ्गसहकारिकारण Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५०१ भूता प्रतिक्रमणलक्षणालोचनपूविका पुनः क्रियैव प्रायश्चित्तं प्रतिकारो भवति न चाधिकम् । कस्मादिति चेत् ? अभ्यन्तरे स्वस्थभावचलनाभावादिति प्रथमगाथा गताः छेदपउत्तो समणो छेदे प्रयुक्त: श्रमणो निविकारस्वसंवित्तिभावनाच्यतिलक्षणच्छेदेन यदि चेत् प्रयुक्तः सहितः श्रमणो भवति समणं ववहारिणं जिणमदम्हि श्रमणं व्यवहारिणं जिनमते तदा जिनमते व्यवहारज्ञं प्रायश्चित्तकुशलं श्रमणं आसेज्य आसाद्य प्राप्य न केवलमासाद्य आलोचित्ता निःप्रपञ्चभावेनालोच्य दोषनिवेदनं कृत्वा उवदिळं तेण कायच्वं उपदिष्टं तेन कर्तव्यम् । तेन प्रायश्चित्तपरिज्ञानसहिताचार्येण निर्विकारस्वसंवेदनभावनानुकूल यदुपदिष्टं प्रायश्चित्तं तत्कर्तव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् ।।२११-२१२।। __ एवं गुरुव्यवस्थाकथनरूपेण प्रथमगाथा तथैव प्रायश्चित्तकथनार्थ गाथाद्वयमिति समुदायेन तृतीयस्थले गाथात्रयं गतम् । उत्थानिका--आगे पूर्व सूत्र में कहे हुए दो प्रकार छेद के लिये प्रायश्चित्त का विधान क्या है सो कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(पयवम्हि समारद्धे) चारित्र का प्रयत्न प्रारम्भ किये जाने पर (जदि) यदि (समणस्स) साधु को (कायचेम्हि ) कायकी चेष्टा में (छेदो) संयम का छेद या भंग (जाय दि) हो जाने (पुणो तम्स) तो फिर उस साध की (आलोयणपुग्विया किरिया) आलोचनपूर्वक क्रिया ही प्रायश्चित्त है। यदि साधु (छेदुपउत्तो समणो) भंग या छेद से उपयुक्त है तो यह साधु (जिणमदम्हि) जिनमत में (वनहारिणं) प्रायश्चित व्यवहार के ज्ञाता (समण) आचार्य को (आसेज्ज) प्राप्त होकर (आलोचना करने पर (तेण उदिट्ठ) उस आचार्य के द्वारा जो शिक्षा मिले उसे (कायन्व) करना चाहिये । यदि साधु के आत्मा में स्थितिरूप सामायिक के प्रयत्न को करते हुए भोजन, शयन, चलने, खडे होने, बैठने आदि शरीर को कियाओं में कोई दोष हो जाये, उस समय उस साधु के साम्यभाष के बाहरी सहकारी कारणरूप प्रतिक्रमण है लक्षण जिसका ऐसी आलोचना पूर्वक क्रिया ही प्रायश्चित अर्थात् दोष की शुद्धि का उपाय है, अधिक नहीं क्योंकि वह साधु भीतर में स्वस्थ आत्मीकभाव से चलायमान नहीं हुआ है। पहली माथा का भाव यह है। तथा यदि साधु निर्विकार स्वसंवेदन की भावना से भयुत हो जावे अर्थात उसके सर्वथा स्वस्थभाव न रहे । ऐसे भङ्ग के होने पर वह साधु उस आचार्य या निर्यापक के पास जावे जो जिनमत में वर्णित व्यवहार क्रियाओं के ज्ञाता प्रायश्चित्तादि शास्त्रों में कुशल हों और उनके सामने कपट-रहित होकर अपना दोष निवेदन करे। तब वह प्रायश्चित्त का ज्ञाता आचार्य उस साधु के भीतर जिस तरह निविकार स्वसंवेवन की भावना पुनः हो जावे उसके अनुकूल प्रायश्चित या दण्ड बतावेगा । जो कुछ उपदेश मिले उसके अनुकूल साधु को करना योग्य है ॥२११-२१२॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] [ पवयणसारो इस तरह गुरु की अवस्था को कहते हुए प्रथम गाथा तथा प्रायश्चित को कहते हुए दो गाथाएं इस तरह समुदाय से तीसरे स्थल में तीन गाथाएं पूर्ण हुई । अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् परद्रव्यप्रतिबन्धाः प्रतिषेध्या इत्युपविशति - अधिवासे व विवासे छेदविहूणो' भवीय सामण्णे । समणो विहरदु णिच्चं परिहरमाणो निबंधाणि ॥ २१३ ॥ अधिवासे वा विवासे छेदविहीनो भूत्वा श्रामण्ये 1 श्रमणो विहतु नित्यं परिहरमाणो निबन्धान् ॥ २१३॥ सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपरञ्जकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामयस्य छेदायतनानि तदभावादेवाछिन्नश्रामण्यम् । अतः आत्मन्येवात्मनो नित्याधिकृत्य बासे वा गुरुत्वेन गुरूनधिकृत्य वासे वा गुरुभ्यो विशिष्ट वासे वा नित्यमेव प्रतिषेधयन् परद्रव्यप्रतिबन्धान् श्रामण्ये छेदविहीनो भूत्वा श्रमणो वर्तताम् ॥२९३॥ भूमिका – अब, श्रामण्य छेद के आयतन होने के कारण परद्रव्य से संबंध निषेध करने योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं----- [ अन्वयार्थ – [ अधिवासे] अधिवास में (गुरुओं के सहवास में) वसते हुये [वा ] या [विवासे] विवास में ( गुरुओं से भिन्न स्थान में) बसते हुये, [ नित्यं ] सदा पर द्रव्य के सम्बन्धों को [ परिहरमाणः ] परिहरण करता हुआ | श्रामण्ये ] [छेदविहीनः भूत्वा ] छेदविहीन होकर [श्रमणः विहरतु] भ्रमण विहार करो । निबंधान् ] यतिधर्म में टीका - वास्तव में सभी परद्रव्य का संबंध उपयोग को विकारी करने वाला होने से निर्विकारी उपयोगरूप यति-धर्म छेद का आयतन है, उसके अभाव से हो अछिन्न श्रामण्य होता है । इसलिये आत्मा में ही आत्मा को सदा स्थापित करके ( आत्मा में ) वसते हुये अथवा गुरुरूप से गुरुओं को स्थापित करके ( गुरुओं के सहवास में ) निवास करते हुये या गुरुओं से विशिष्ट भिन्नवास में वसते हुये, सदा ही परद्रव्य संबंधों को निषेधता (परिहरण करता हुआ यतिधर्म छेदविहीन होकर श्रमण वर्तन करे || २१३ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ निर्विकारश्रामण्यछेदजनकान्परद्रव्यानुबन्धानिषेधयति ; 1 विहरतु विहरतु विहारं करोतु । सः कः ? समणो शत्रु मित्रादिसमचित्तश्रमणः णिच्चं नित्यं सर्वकालं । किं कुर्वन्सन् ? परिहरमाणो परिहरन्सन् । कान् ? निबंधाणि चेतनाचेतनमिश्रपरद्रव्येध्वनुबन्धान् । क्व विहरतु ? अधिवासे व अधिकृत गुरुकुलवासे निश्वयेन स्वकीयशुद्धात्मवासे वा विवासे १. छेदविहीणी ( ज० वृ० ) । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारी । गुरुविरहितवासे वा। किं कृत्वा ? सामण्णे निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणनिश्चयचारित्रे छेदविहीणो भवीय छेदबिहीणो भूत्वा रागादिरहितनिजशुद्धात्मानुभूतिलक्षण निश्चयचारित्रच्युतिरूपछेदरहितो भूत्वा । तथाहि-गुरूपार्वे यावन्ति शास्त्राणि ताबन्ति पठित्वा तदनन्तरं गुरु पृष्टवा च समशीलतपोधन: सह भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भव्यानामानन्दं जनयन् तपः श्रुतसत्वकत्वसन्तोषभावनापञ्चकं भावयन् तीर्थकरपरमदेवगणधरदेवादिमहापुरुषाणां चरितानि स्वयं भावयन् परेषां प्रकाशयश्च विहरतीति भावः ।।२१३।। उत्थानिका-आगे निर्विकार मुनिपने के भङ्ग के उत्पन्न करने वाले निमित्त कारणरूप परद्रव्य के सम्बन्धों का निषेध करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(समणो) शत्रु मित्र में समान भावधारी साधु (णिबंधाणि परिहरमाणी) चेतन अचेतन मिश्र पदार्थों में अपने रागद्वेष रूप संबंधों को छोड़ता हुआ (सामण्णे छेदविहीणो भवीय) अपने शुद्धात्मानुभव रूपी मुनिपद में छेद रहित होकर अर्थात निज शुद्धात्मा का अनुभवनरूप निश्चयचारित्र में भङ्गन करते हुए (अधिवासे) व्यवहार से अपने अधिकृत आचार्य के संघ में तथा निश्चय से अपने ही शुद्धात्मारूपी घर में (व विवासे) अथवा गुरु-रहित स्थान में (णिच्चं विहरतु) नित्य विहार करे। साधु अपने गुरु के पास जितने शास्त्रों को पढ़ना हो उत्तने शास्त्रों को पढ़कर पश्चात् गुरु की आज्ञा लेकर अपने समान शील और तप के धारी साधुनों के साथ निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय को भावना से भन्य जीवों को आनन्द पैदा करता हुआ तथा तप, शास्त्र, वीर्य, एकत्व और संतोष इन पांच प्रकार की भावनाओं को भाता हुआ तीर्थकरपरमदेव, गणधरदेव आदि महान पुरुषों के चारित्र को स्वयं विचारता हुआ और दूसरों को प्रकाश करता हुआ विहार करता है, यह भाव है ॥२१३॥ अथ श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनत्वात् स्वद्रव्य एवं प्रतिबन्धो विधेय इत्युपदिशति चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्मि । पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो ॥२१४॥ चरति निबद्धो नित्यं श्रमणो ज्ञाने दर्शनमुखे । प्रयतो मूलगुणेषु च यः स परिपूर्णधामण्यः ॥२१४।। एक एव हि स्वद्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगमार्जकत्वेन भाजितोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनं, तत्सद्भावादेव परिपूर्ण श्रामण्यम् । अतो नित्यमेव ज्ञाने दर्शनादौ च प्रतिबद्धन मूलगुणप्रयततया चरितव्यं ज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मद्रव्यप्रतिबद्धशुद्धास्तित्वमात्रेण वर्तितव्यमिति तात्पर्यम् ॥२१४॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ] [ पवयणसारो भूमिका—अब, श्रामण्य की परिपूर्णता का आयतन होने से स्यद्रव्य में ही संबंध करना योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं अन्वयार्थ-[यः श्रमणः जो श्रमण [नित्यं] सदा [ज्ञाने दर्शनमुखे] ज्ञान में और दर्शनादि में [निबद्धः] प्रतिबद्ध [च] तथा [मूलगुणेषु प्रयतः] मूलगुणों में प्रयत्नशील [चरति] विचरण करता है, [सः] वह [परिपूर्णश्रामण्यः] परिपूर्ण श्रामण्यवान है । टीका-एक स्वद्रव्य से संबंध हो, उपयोग का मार्जन करने वाला है, अतः माजित उपयोगरूप श्रामण्य की परिपूर्णता का आयतन है, उसके सद्भाव से ही यतिधर्म परिपूर्ण होता है। इसलिये सदा ज्ञान में और दर्शनादिक से संबंध रखकर मूलगुणों में प्रयत्नशीलता से विचरना, ज्ञानदर्शन स्वभाव में शुद्धात्मद्रव्य प्रतिबद्ध-शुद्ध अस्तित्वमात्ररूप से अर्थात् रागामि रहित उपयोग वर्तना, यह तात्पर्य है ॥२१४॥ तात्पर्यवृत्ति अथ श्रामण्यपरिपूर्णकारणत्वात्स्वशुद्धात्मद्रव्ये निरन्तरमवस्थानं कर्तव्यमित्याख्याति चरदि चरति वर्तते । कथंभूतः ? णिबद्धो अधीनः पिच्चं नित्यं सर्वकालं । स कः कर्ता ? समणो लाभालाभादिसमचित्तश्रमणः । क्व निबद्धः ? णाणम्मि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतपरमागमज्ञाने तत्फलभूतस्वसंवेदनज्ञाने बा दंसणमुहम्मि दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्फलभूतनिजशुद्धोत्मोपादेयरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वं वा तत्प्रमुखेष्वनन्तसुखादिगुणेषु पयवो मूलगुणेसु य प्रणतः प्रयत्लपरश्च । केषु ? मूलगुणेषु निश्चयमूलगुणाधारपरमात्मद्ध्ये वा जो सो पडिपुष्णसामण्णो य एवं गुणविशिष्टश्रमणः सः परिपूर्णधामण्यो भवतीति । अयमत्रार्थ:-निजशुद्धात्मभावनारतानामेव परिपूर्णधामण्यं भवतीति ॥२१४|| उत्थानिका—आगे कहते हैं कि मुनिपद की पूर्णता के हेतु से साधु को अपने शुद्ध आत्मद्रव्य में सदा लीन होना योग्य है । __ अन्वय सहित विशेषार्थ---(जो समणो) जो मुनि (दसणमुहम्मि णाणम्मि) सम्यादर्शन को मुख्य लेकर सम्परज्ञान में (णिच्चं णिबद्धो) नित्य उनके अधीन होता हुआ (य मूलगुणेसु पयदो) और मूलगुणों में प्रयत्न करता हुआ (चरदि) आचरण करता है (सो पडिपुग्णसामण्णो) वह पूर्ण यति हो जाता है। जो लाभ अलाभ आदि में समान चित्त को रखने वाला श्रमण तत्त्वार्थ श्रद्धान और उसके फलस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन में जहां एक निज शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है ऐसी रुचि होती है तथा वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए परमागम के ज्ञान में और उसके फलरूप स्वसंवेदन ज्ञान में तथा अट्ठाईस मूलगुणों में Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५०५ अथवा निश्चय मूलगुण के आधार रूप परमात्म द्रव्य में उद्यत होता हुआ सर्वकाल आचरण करता है वह पूर्ण मुनि होता है। यहाँ यह भाव है कि जो निज शुद्धात्मा की भावना में रत होते हैं उन्हीं के पूर्ण मुनिपना हो सकता है ।।२१४॥ अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् यतिजनासन्नः सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्धोऽपि प्रतिषेध्य इत्युपदिशति भत्ते वा खवणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा। उवधिम्हि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि ॥२१५।। भक्ते वा क्षपणे वा आवसथे वा पुनविहारे बा । अनादीपा निगेति श्रमणे विकथायाम् ।।२१५।। श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरत्तिहेतुमात्रत्वेनादीयमाने भक्त तथाविधशरीरत्यविरोधेन शद्धात्मन्यनीरंगनिस्तरङ्गविश्रान्तिसूत्रणानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे नौरंगनिस्तरंगान्तरंगद्रव्यप्रसिद्धयर्थमध्यास्यमाने गिरीन्द्रकन्दरप्रभताधावसथे यथोक्तशरीरवृत्तिहेतुमार्गणार्थमारभ्यमाणे विहारकर्मणि श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिध्यमाने केवलदेहमात्रे उपधौ अन्योन्यबोध्यबोधकभाषमात्रेण कथंचित्परिचिते श्रमणे शब्दपुद्गलोल्लाससवलनकश्मलितचिद्धित्तिभागायां शुद्धात्मध्यविरुद्धायां कथायां चतेष्वपि तद्विकल्पा चित्रितचित्तभित्तितया प्रतिषेध्यः प्रतिबन्धः ॥२१॥ भूमिका-अब, मुनिजन को निकट का सूक्ष्म परद्रव्य संबंध मी, श्रामण्य के छेद का आयतन होने से निषेध्य है, ऐसा उपदेश करते हैं ___ अन्वयार्थ-[भक्ते वा] मुनि आहार में, [क्षपणे वा उपवास में [आवसथे वा] निवास स्थान में [पुनः विहारे वा] और विहार में, [उपधौ] परिग्रह में, [श्रमणे] अन्य मूनि में |वा] अथवा [विकथायाम् ] विकथा में [निबद्धं] जड़ना, लगना, संलग्न होना [न इच्छति] नहीं चाहता। टीका--(१) श्रामण्य पर्याय के सहकारी कारणभूत शरीर की स्थिति के हेतुमात्र से ग्रहण किये जाने वाले आहार में (२) अर्थात् शरीर के टिकने के साथ विरोध न आये इस प्रकार, शुद्धात्मद्रव्य में विकाररहित और तरंगरहित स्थिरता की रचना की जाय, तदनुसार प्रवर्तमान अनशन में (३) नीरंग और निस्तरंग अन्तरंग द्रव्य को प्राप्ति के लिये सेव्यमान गिरीन्द्रकन्दरादिक आवास में अर्थात् पर्वत की गुफा इत्यादि निवास स्थान में (४) यथोक्त शरीर स्थिति की कारणभूत शिक्षा के लिये विहारकार्य में (५) श्रामण्यपर्याय Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ ] [ पवयणसारो का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं है ऐसे केवल देहमात्र परिग्रह में, (६) मात्र अन्योन्य बोध्य-बोधक रूप से जिनका कथंचित् परिचय पाया जाता है ऐसे अन्य मुनि में, और (७) शब्द रूप पुद्गलपर्याय के साथ वाच्य-वाचक संबंध से जिसमें चैतन्य रूपी भित्ति का भाग मलिन होता है, ऐसी शुद्धात्मद्रव्य से विरुद्ध कथा में इन सब में लोन होना निषेव्य-त्यागने योग्य है अर्थात् उनके विकल्पों से भी चित्त भूमिको चित्रित होने देना योग्य नहीं है ॥२१५॥ तात्पर्यवृत्ति अथ श्रामण्यछेदकारणत्वात्प्रासुकाहारादिष्वपि ममत्वं निषेधयति ; णेच्छवि नेच्छति । कम् ? बिचं निबद्धमाबद्धम् । क्व ? भते वा शुद्धात्मभावनासहकारिभूतदेहस्थितिहेतुत्वेन गृह्यमाणं भक्ते वा प्रासुकाहारे खवणे वा इन्द्रियदर्पविनाशकारणभूत्तवेन निर्विकल्पसमाधिहेतुभूते क्षपणे वानशने आवसधे वा परमात्मतत्त्वोपलब्धिसहकारिभुते गिरिगुहाद्यावसथे वा पुगो विहारे वा शुद्धात्मभावनासहकारिभूताहारनीहारार्थव्यवहारार्थव्यवहारे वा । पुनर्देशान्तर विहारे वा उधिम्हि शुद्धोपयोगभावनासहकारि भूतसरी र परिग्रहे ज्ञानोपयोगकरणादौ वा समम्हि परमात्मपदार्थविचारसहतारिकारणभूते श्रमणे समशीलसंघातकतपोधने वा विकहि परमसमाधिविघातशृङ्गारवीररागादिकथायां चेति । अयमत्रार्थ:-आगमविरुद्धाहारविहारादिषु तावत्पूर्वमेव निषिद्धः । योग्याहारविहारादिष्वपि ममत्वं न कर्तव्यमिति ॥२१५॥ एवं संक्षेपेणाचाराधनादिकथिततपोधनविहारव्याख्यानमुख्यत्वेन चतुर्थस्थले गाथात्रयं गतम् । उस्थानिका-आगे कहते हैं कि प्रासुक आहार आदि में भी जो ममत्व है वह मुनिपद के भंग का कारण है इसलिये आहारादि में भी ममत्व न करना चाहिये अन्वय सहित विशेषार्थ- साधु (भत्ते) भोजन में (वा) अथवा (खवणे) उपवास करने में (याआवसधे) अथवा वस्तिका में (वा विहारे) विहार करने में, (चा उवधम्हि) अथवा शरीर मात्र परिग्रह में (वा समणम्हि) अथवा मुनियों में (पुणो विकम्हि) या विकथाओं में (णिबद्धं) ममतारूप सम्बन्ध को (जेच्छदि) नहीं चाहता है । साधु महाराज शुद्धात्मा की भावना के सहकारी शरीर की स्थिति के हेतु से प्रासुक आहार लेते हैं सो भक्त हैं, इन्द्रियों के अभिमान को विनाश करने के प्रयोजन से तथा निर्विकल्पसमाधि में प्राप्त होने के लिये उपवास करते हैं सो क्षपण है, परमात्मतत्व की प्राप्ति के लिये सहकारी कारण पर्वत को गुफा आदि वसने का स्थान सो आवसथ है, शुद्धात्मा की भावना के सहकारी कारण आहार नोहार आदिक व्यवहार के लिये व देशान्तर के लिये विहार करना सो विहार है, शुद्धात्मा की भावना के सहकारी कारण रूप शरीर को धारण करना व ज्ञान का उपकरण शास्त्र, शौचोपकरण कमंडलु, दया का उपकरण पिच्छिका इनमें ममताभाव सो उपधि है, परमा Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५०७ हम पदार्थ के विचार में सहकारी कारण समता और शील के समूह तपोधन सो श्रमण हैं, राधिके श्रृंगार न रागद्वेषादि कथा करना सो विकथा है । इन भक्त, क्षपण आवसथ, बिहार, उपधि, श्रमण तथा विकथाओं में साधु महाराज अपना ममताभाव नहीं रखते हैं। भाव यह है कि आगम से विरुद्ध आहार विहार आदि में वर्तने का तो पहले ही निषेध है अतः अब साधु की अवस्था में योग्य आहार विहार आदि में भी साधु को ममता न करनी चाहिये ॥ २१५ ॥ के इस तरह संक्षेप से आचरण की आराधना आदि को कहते हुए साधु महाराज बिहार के व्याख्यान की मुख्यता से चौथे स्थल में तीन गाथाएँ पूर्ण हुई । अय को नाम छेद इत्युपदिशति - अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु । समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतय त्ति' मदा ॥ २१६ ॥ अप्रयता वा चर्यां शयनासनस्थान चंक्रमणादिषु । श्रमणस्य सर्वकाले हिंसा सा संततेति मता ॥ २१६ ॥ अशुद्धोपयोगी हि छेदः शुद्धोपयोगरूस्य श्रामण्यस्य छेदनात्, तस्य हिसनात् स एव च हिंसा । अतः श्रमणस्य शुद्धोपयोगाविनाभाविनी शयनासनस्थानचंक्रमणादिष्वप्रयता या चर्या स खलु तस्य सर्वकालमेव संतानवाहिनी छेदानर्थान्तरभूता हिंसंव ॥ २१६ ॥ भूमिका -- अब छेद क्या है, उसका उपदेश करते हैं ਰਵੇ अन्वयार्थ - [ श्रमणस्य ] श्रमण के [ शयनासनस्थान चंक्रमणादिषु ] शयन, बैठना, रहना, गमन इत्यादि में [ अप्रयता वा चर्या | जो अयत्नाचार चर्या है [ सा ] वह [ सर्वकाले ] सदा [ सतता हिंसा इति मता ] सतत हिंसा मानी गई हैं । टीका -- अशुद्धोपयोग से ही छ ेद है, क्योंकि ( उससे ) शुद्धोपयोग रूप श्रामण्यका छ ेदन होता है, और वही (अशुद्धोपयोग हो ) हिंसा है, क्योंकि ( उससे ) शुद्धोपयोगरूप श्रम का हिंसन ( हनन ) होता है । इसलिये श्रमण के, जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होती ऐसी शयन आसन स्थान गमन- इत्यादि में अयत्नाचार चर्या (आचरण) वास्तव में उसके लिये सर्वकाल में (सदा ) ही धारावाही हिंसा ही है - जो कि छ ेद से कोई भिन्न वस्तु नहीं है || २१६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ शुद्धोपयोगभावनाप्रतिबन्धकछेदं कथयति - मदा मता सम्मता | का? हिंसा शुद्धोपयोगलक्षणश्रामण्यछेदकारणभूता हिंसा । कथंभूता ? १. संतत्तिय त्ति (ज० वृ० ) । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पवयणसारो संतत्तियत्ति सन्तता निरन्तरेति । का हिंसा मता? चरिया चर्या चेष्टा यदि चेत् । कथंभूता । अपयता वा अप्रयत्ना वा निःकषायस्वसंवित्तिरूपप्रयत्नरहिता संक्लेशसहितेत्यर्थः । केषु विषयेषु ? सयणासणठाणचंकमादीसु शयनासनस्थानचंक्रमणस्वाध्यायतपश्चरणादिषु । कस्य ? समणस्स श्रमणस्य तपोधनस्य । क्व ? सम्वकाले सर्वकाले । अयमत्रार्थः बाह्यब्यापाररूपाः शत्रवस्तावत्पूर्वमेव त्यक्त्वा तपोधनः अशनशयनादिब्यापारैः पुनस्त्यक्तो नायाति । ततः कारणादन्तरङ्गक्रोधादिशत्रुनिग्रहार्थं तत्रापि संक्लेशो न कर्तव्य इति ॥२१६।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि छेद या भंग शुद्धात्मा की भावना का विरोध करने वाला है। अन्वय सहित विशेषार्थ-...(वा) ः (सामरस) लाधु को (सयणासणठाणचंकमादीसु) शयन, आसन, खडा होना, चलना, स्वाध्याय, तपश्चरण आदि कार्यों में (अपयत्ता चरिया) प्रयत्न रहित चेष्टा अर्थात् कषायरहित-स्वसंवेदन-ज्ञान से छूटकर जीव दया की रक्षा से रहित संक्लेश-भाव-सहित जो व्यवहार का वर्तना है (सा) यह (सम्वकालं) सर्वकाल में (संतत्तिय हिंसा) निरन्तर होने वाली हिंसा अर्थात शुद्धोपयोग लक्षणमयो मुनिपद को छद करने वाली हिंसा (मदा) मानी गई है। यहाँ यह अर्थ है कि बाहरी व्यापार रूप शत्रुओं को तो पहले हो मुनियों ने त्याग दिया था परन्तु बैठना, चलना, सोना, आदि व्यापार का त्याग हो नहीं सकता। इसलिये इनके निमित्त से अन्तरङ्ग में क्रोध आदि शत्रुओं की उत्पत्ति न हो-साधु को उन कार्यों में सावधानी रखनी चाहिये । ॥२१६॥ अथान्तरंगबहिरंगत्वेन छदस्य वैविध्यमुपदिशतिमरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिवा हिंसा । पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिक्स्स ॥२१७॥ म्रियतां वा जीवतु वा जीवोऽयताचारस्य निश्चिता हिंसा। प्रयतस्य नास्ति बन्धो हिंसामात्रेण समितस्य ॥२१७।। अशुद्धोपयोगोऽन्तरङ्गच्छेदः, परप्राणव्यपरोपो बहिरङ्ग। तत्र परप्राणव्यपरोपसद्भावे तदसद्धावे वा तवबिनाभाविनाप्रयत्ताचारेण प्रसिद्धयवशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चितहिंसाभावप्रसिद्धस्तथा तहिनाभाविना प्रयताचारेण प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगासद्धावपरस्य परप्राणध्यपरोपसद्धायेऽपि बन्धाप्रसिद्धया सुनिश्चितहिंसाऽभावप्रसिद्धेश्चान्तरङ्ग एवं छेदो बलीयान् पुनर्वहिरङ्गः । एवमप्यन्तरङ्गच्छेदायसनमात्रत्वाद्बहिरङ्गन्छेदोऽभ्युपगम्येतैय । भूमिका-अब, छेद के अन्तरंग और बहिरंग, ऐसे दो प्रकार बतलाते हैं Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५०६ अन्वयार्थं --- [ जीवः ] जीत्र [म्रियतां वा जीवतु वा ] मरे या जिये, [ अयताचारस्य ] अयत्नाचार वाले के [हिंसा ] हिंसा [ निश्चिता ] निश्चित है, [ प्रयतस्य समितस्य ] यत्नाचारी के समितिवान् के [हिंसामात्रेण ] हिंसामात्र से [ बन्धः ] बंध [ नास्ति ] नहीं है । टीका - अशुद्धोपयोग अंतरंग छेद है, परप्राणों का विच्छेद बहिरंग छेद है । इनमें से अंतरंगछेद ही विशेष बलवान है, बहिरंगछेद नहीं, क्योंकि परप्राणों के विच्छेद का सद्भाव हो या असद्भाव, जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अयत्नाचार आचरण से प्रसिद्ध होने वाला अशुद्धोपयोग का सद्भाव जिसके पाया जाता है उसके हिंसा के सद्भाव की प्रसिद्धि सुनिश्चित है और इस प्रकार जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है ऐसे यत्नाचार से प्रसिद्ध होने वाला अशुद्धोपयोग का असद्भाव जिसके पाया जाता है, उसके परप्राणों के विच्छेद के सदभाव में भी बंध की अप्रसिद्धि है, अतः हिंसा के अभाव की प्रसिद्धि सुनिश्चित है। अंतरंग छेद ही विशेष बलवान है, बहिरंगछेब नहीं, ऐसा होने पर भी बहिरंग छेद अंतरंग छेद का आयतनमात्र है इसलिये उस बहिरंग छेद को स्वीकार तो करना ही चाहिये अर्थात् उसे मानना ही चाहिये ॥ २१७ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथान्तरङ्गबहिरङ्गहिंसारूपेण द्विविधछेदमाख्याति - मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिछिदा हिंसा म्रियतां वा जीवतु वा जीवः प्रयत्नरहितस्य निश्चिता हिंसा भवति बहिरङ्गान्यजीवस्य मरणेऽमरणे वा निर्विकारस्वसंवित्तिलक्षणप्रयत्नरहितस्य निश्चयशुद्धचैतन्यप्राणव्यपरोपणरूपा निश्चयहिंसा भवति । पयदस्स णत्थि बंधो बाह्याभ्यन्तरप्रयत्नपरस्य नास्ति बन्धः । केन ? हिंसामेरोण द्रव्यहिंसामात्रेण । कथंभूतस्य पुरुषस्य ? समिदस्त समितस्य शुद्धात्मस्वरूपे सम्यगितो गतः परिणतः समितस्तस्य समितस्य । व्यवहारेणेर्यादि पंचसमितियुक्तस्य च । अयमत्रार्थः -- स्वस्थभावनारूपनिश्चयप्राणस्य विनाशकारणभूता रागादिपरिणतिनिश्चयहसा हिंसा भव्यते रागाद्युत्पत्तेर्बहिरंगनिमित्तभूतः परजीवघातो व्यवहार हिंसेति द्विधा हिंसा ज्ञातव्या । किन्तु विशेष: बहिरंगहिंसा भवतु मा भवतु स्वस्थभावनारूप निश्चयप्राणघाते सति निश्चयहिंसा नियमेन भवतीति । ततः कारणात्सव मुख्येति ॥ २१७ ॥ उत्थानिका- आगे हिंसा के दो भेद हैं अन्तरङ्ग हिंसा और बहिरङ्गहिंसा । इसलिये छेद या भङ्ग भी दो प्रकार के हैं ऐसा व्याख्यान करते हैं--- अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जीवो मरदु व जिददु) जीव मरो या जीता रहो रहित है उसके ( णिच्छिा हिंसा ) निश्चय जो प्रयत्नधान है उसके ( हिंसामेतेन) द्रव्य प्राणों की हिंसामात्र से (बन्धो णत्थि ) बन्ध नहीं होता है। बाह्य में दूसरे जीव का मरण ( अयदाचारस्स) जो यत्न पूर्वक आचरण से हिंसा है (समिस) समितियों में ( पयदस्स) Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ] | पवयणसारो हो या मरण न हो जब कोई निविकार स्वसंवेदन रूप प्रयत्न से रहित है तब उसके निश्चय शुद्धचैतन्य प्राण का घात होने से निश्चर्याहिसा होती है। जो कोई भले प्रकार अपने शुद्धात्मस्वभाव में लीन है, अर्थात् निश्चयसमिति को पाल रहा है तथा व्यवहार में ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, प्रतिष्ठापना इन पांच समितियों में सावधान है, अंतरंग बहिरंग प्रयत्नवान है, प्रमादी नहीं है उसके बध नहीं होता है। यहाँ यह है कि अपने आत्मस्वभावरूप निश्चयप्राण का विनाश करने वाली रामावि परिणति निश्चयहिंसा कही जाती है। रागादिक उत्पन्न करने के लिये बाहरी निमित्तरूप जो परजीव का घात है सो व्यवहार हिंसा है, ऐसे दो प्रकार हिंसा जाननी चाहिये । किन्तु विशेष यह हैं कि बाहरी हिंसा हो, वा न हो जब आत्मस्वभावरूप निश्चयप्राण का घात होगा तब निश्चर्याहंसा ही मुख्य है ।। २१७ ॥ अथ तमेवार्थं दृष्टान्तदान्ताभ्यां दृढ़यति उच्चालियहि पाए इरियासमिदस्त निगग्मत्थाए । आबाधेज्ज कुलिंग मरिज्मं तं जोगमासेज्ज ।।२१७-१॥ ण हि तस्स तणिमित्ते बंधो सुमो य देसिदो समये । मुच्छापरिग्गहोच्चिय अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो ॥ २१७ ।। जुम्मं ॥ उच्चा लियम्हि पाए उत्क्षिप्ते चालिते सति पादे । कस्य ? इरियासमिदस्स ईर्यासमितितपोधनस्य । ta ? णिग्गमत्याए विवक्षितस्थानान्निर्गमस्थाने आबाधज्ज आवाध्येन पीडय ेल । स कः ? कुलिंगं सूक्ष्मजन्तुः न केवलमात्राध्येत मरिज्जं म्रियतां वा किं कृत्वा । तं जोगमा सेज्जतं पूर्वोक्तं पादयोगं पादसंघट्टनमाश्रित्य प्राप्येति । ण हि तस्य तणिमित्तो बंधो सुमो य देसिदो समये न हि तस्य तन्निमित्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये तस्य तपोधनस्य तन्निमित्तं सूक्ष्मजन्तुघातनिमित्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि स्तोकोऽपि नैव दृष्टः समये परमागमे । दृष्टान्तमाह- मुच्छा परिग्गहोच्चिय मूर्च्छापरिग्रहाचैव अज्झप्पपमरणवो बिठो अध्यात्मं प्रमाणतो दृष्टमिति । अयमत्रार्थः-- "मुर्च्छा परिग्रहः" इति सूत्रे यथाध्यात्मानुसारेण मूर्च्छारूपरागादिपरिणामानुसारेण परिग्रहो भवति न च बहिरंगपरिग्रहानुसारेण तथात्र सूक्ष्मजन्तुषापि यावतांशेन स्वस्थ भावचलनरूपा रागादिपरिणतिलक्षणभावहिसा तावतशित बन्धो भवति, न च पादसंघट्टनमात्रेण तस्य तपोधनस्य रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा नास्ति । ततः कारणादबन्धोऽपि नास्तीति ॥२१७ १-२॥ उत्थानिका- आगे इसी हो अर्थ को दृष्टांत दान्ति से दृढ़ करते हैं । अन्त्रय सहित विशेषार्थ - ( इरियासमिदस्स ) ईर्ष्या समिति से चलने वाले मुनि के मित्थाए ( किसी ) स्थान से जाते हुए ( उच्चा लियहि पाए ) अपने पग को उठाते हुए ( तं जोगमा सेज्ज) उस पग के संघट्टन के निमित्त से ( कुलिंगं ) कोई छोटा जंतु ( आबाधेज्ज) बाधा को पावे ( मरिज्ज) वा मर जाये ( तस्स ) उस साधु के ( तणिमित्तो सुमो य बंधो ) इस क्रिया के निमित्त से जरा सी भी कर्मबन्ध ( समये) आगम में ( जहि देसिदो ) नहीं कहा Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५११ गया है। जैसे (मुच्छापरिगहोच्चिय) मूळ को परिग्रह कहते हैं सो (अज्झप्पपमाणदो दिट्ठी) अंतरंगभाव के अनुसार मूळ देखी गई है। मुर्छारूप रागादि परिणामों के अनुसार परिग्रह होता है बाहरी परिग्रह के अनुसार परिग्रह नहीं होता है तैसे यहां सूक्ष्म जन्तु के घात होने पर जितने अंश में अपने स्वभाव से चलनरूप रागादि परिणति रूप भावहिंसा है उतने ही अंशमें बन्ध होगा, केवल पा के संघटन से मरते हुए जीव के उस तपोधन के रागादि परिणतिरूप भावहिंसा नहीं होती है, इसलिये बंध भी नहीं होता है ।।२१७-२॥ अथ सर्वथान्तरङ्गच्छेवः प्रतिषेध्य इत्युपदिशति-- . अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो ॥२१॥ अयताचारः श्रमणः षट्स्वपि कायेषु वधकर इति मतः । ___ चरित यतं यदि नित्यं कमलमित्र जले निरूपलेपः ॥२१८॥ यतस्तदविनाभाविना अप्रत्यताचारत्वेन प्रसिद्धचदशुद्धोपयोगसद्भावः षट्कायप्राणव्यपरोपप्रत्ययबन्धप्रसिद्धया हिंसक एव स्यात् । यतश्च तद्विनाभाविना प्रयताचारत्वेन प्रसिद्धचदशुद्धोपयोगासद्धावः परप्रत्ययबन्धलेशस्याप्यभायाज्जलदुर्ललित कमलमिव निरुपलेपत्वप्रसिद्धरहिंसक एव स्यात् । ततस्तैस्तैः सर्वैःप्रकाररशुद्धोपयोगरूपोऽन्तरङ्गच्छदः प्रतिषेध्यो पर्यस्तदायतनमात्रभूतः परप्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छे दो दूरादेव प्रतिषिद्धः स्यात् ।।२१।। भूमिका-अब, सर्वथा अन्तरंग छेद निषेध्य-त्याज्य है, ऐसा उपदेश करते हैं-- अन्वयार्थ -[अयताचार: श्रमणः] अयत्नाचार वाला श्रमण [पट्स अपि कायेषु | छहों काय [वधकरः] वध करने वाला [इति मतः] माना गया है, [यदि] यदि [नित्य] सदा [यतं चरति] यत्नरूप से आचरण करे तो [जले कमलम् इव] जल में कमल की तरह [निरुपलेपः] निलेप कहा गया है। टीका–ो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अपनाचार के द्वारा प्रसिद्ध (ज्ञात) होने वाले अशुद्धोपयोग का सद्भाव हिंसा ही है, क्योंकि छहकाय के प्राणों के व्यवच्छ व के आश्रय से होने वाले बंध को प्रसिद्धि है। और जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है ऐसे यत्नाचार से प्रसिद्ध होने वाला अशुद्धोपयोग का असद्भाव अहिंसा ही है, क्योंकि परके आश्रम से होने वाले लेशमात्र भी बंध का अभाव होने से निलेपत्य की प्रसिद्धि है जैसे जल में झूलता हुआ कमल । इसलिये उन सर्व प्रकार से अशुद्धोपयोग रूप अन्तरंग छ व निषेध्य है-त्यागने योग्य है, और उसका आयतनमाप्रभूत परप्राणव्यपरोपरूप बहिरंग छद अत्यन्त निषिद्ध है ।।२१।।। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२] [ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथ निश्चयहिंसारूपोन्त रंगछेदः सर्वथा प्रतिषेध्य इत्युपदिशति अयदाचारो निर्मलात्मानुभूतिभावना लक्षणप्रयत्नरहितत्वेन अयताचारः प्रयत्नरहितः । स कः ? समणो श्रमणस्तपोधनः छत्सु वि कायेसु वधकरोति मदो षट्स्वपि कायेषु वधकरो हिंसाकर इति मतः सम्मतः कथितः । चरदि आचरति वर्त्तते । कथं यथा भवति ? जदं यतं यत्नपरं अदि यदि चेत् णिच्वं नित्यं सर्वकालं तदा कमलं व जले णिरुवलेवो कमलमिव जले निरुपलेप इति । एतावता किमुक्त भवति - शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणशुद्धोपयोगपति षः कुले बहिरंगद्रव्यहिंसामात्रमस्ति तथापि निश्चयहिंसा नास्ति । ततः कारणाच्छुद्धपरमात्मभावनाबलेन निश्चयहिंसंव सर्वतात्पर्येण परिहर्तव्येति ॥२१८॥ उत्थानिका- आगे आचार्य निश्चयहिंसारूप जो अन्तरंगछेद है उसका सर्वथा निषेध करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अयदाचारो समणो ) निर्मल आत्मा के अनुभव करने की भावना रूप चेष्टा के बिना साधु (छवि कायेसु) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा स इन छहों ही कायों की ( वधकरोत्ति मदी) हिंसा करने वाला माना गया है। (जदि) यदि ( चिं) सदा (जदं) यत्न पूर्वक (चरवि) आचरण करता है तो (जले कमल व णिरुवलेयो ) जल में कमल के समान कर्म-बन्ध के लेप से रहित होता है । यदि गाथा में ( बंधगोति) पाठ लेवें तो यह अर्थ होगा कि अयत्न-शोल कर्मबन्ध करने वाला है । यहाँ यह भाव बताया गया है कि जो साधु शुद्धात्मा के अनुभव रूप शुद्धोपयोग में परिणमन कर रहा है वह पृथ्वी आदि छह कायरूप जन्तुओं से भरे हुए इस लोक में विचरता हुआ भी यद्यपि बाहर में कुछ द्रव्यहिंसा है तो भी उसके निश्चर्याहंसा नहीं है। इस कारण सब तरह से प्रयत्न करके शुद्ध परमात्मा की भावना के बल से निश्चयहंसा ही छोड़ने योग्य है ॥२१८॥ अर्थकान्तिकान्तरं गछ दत्यादुपधिस्तद्वत्प्रतिषेध्य इत्युपदिशति- हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध'कायचेट्ठम्हि । बंधो धुवमुबधोदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ॥ २१६ ॥ भवति वा न भवति बन्धो मृते जीवेऽथ कायचेष्टायाम् । बन्धो ध्रुवमुपधेरिति श्रमणास्त्यक्तवन्तः सर्वम् ॥१२१६॥ यथा हि कायव्यापारपूर्वकस्य परप्राणव्यपरोपस्य । शुद्धोपयोगसद्भावासद्भावाध्यामनेकान्तिकत्वेन छत्वमनैकान्तिकमिष्टं, न खलु तथोपधेः, तस्य सर्वथा तवविनाभा १. अथ (ज० बृ० ) । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] वित्वप्रसिद्धचदैकान्तिकाशुद्धोपयोगसद्धावस्यकान्तिकबन्धत्वेन छ वत्वमैकान्तिकमेव । अत एव भगवन्तोऽर्हन्तः परमाः श्रमणाः स्वयमेव प्रागेव सर्वमेवोपधिं प्रतिषिद्धवन्तः। अत एव चापरैरप्यन्तरङ्गच्छ दवत्तवनान्तरीयकत्वात्प्रागेव सर्व एवोपधिः प्रतिषेध्यः ॥२१६॥ वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्तमेतावतंव यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि । व्यामोहजालमतिदुस्तरमेव नूनं निश्चेतनस्य वचसा मति विस्तरेऽपि ॥१४॥ [वसन्ततिलका] भूमिका-परिग्रह ऐकान्तिक अन्तरंग-छेद होने से यह परिग्रह अन्तरंगछेद के समान त्याज्य है, यह उपदेश करते है __ अन्वयार्थ-[कायचष्टायाम्] कायचेष्टापूर्वक [जीवे मृते] जीव के मरने पर |बन्धः ] बंध [भवति] होता है, [चा] अथवा [न भवति ] नहीं भी होता, किन्तु [उपध:] उपधिसे-परिग्रह से [ध्र वम् बंधः] निश्चय ही बंध होता है, [इति] इसलिये [श्रमणाः] श्रमणों [अर्हन्तदेवों] ने [सर्व] सर्वपरिग्रह [त्यक्तवन्तः] छोड़ा है। टीका-जैसे कायव्यापारपूर्वक परप्राणव्यपरोप को अशुद्धोपयोग के सदभाव और असद्भाव के द्वारा अनेकांतिक बंध का अनियम होने से छेद का अनियम माना गया है, वैसा परिग्रह के द्वारा बंध का ऑनयम नहीं है। परिग्रह सर्वथा अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता, ऐसा जो परिग्रह का सर्वथा अशुनोपयोग के साथ अविनाभाविपना है उससे प्रसिद्ध होने वाले निश्चित अशुद्धोपयोग के सद्भाव के कारण परिग्रह से तो बंध निश्चित है, इसलिये उस परिग्रह को छेद का नियम ही है, इसीलिये भगवन्त अहंन्तों ने, परम श्रमणों ने स्वयं ही पहले ही सभी परिग्रह को छोड़ा है, और इसीलिये दूसरों के द्वारा भी, अन्तरल छेद की भांति प्रथम ही सभी परिग्रह छोड़ने का उपदेश दिया, सो योग्य है, क्योंकि वह परिग्रह अन्तरङ्गछेद के बिना नहीं होता ॥२१॥ [अब, 'कहने योग्य सब कहा गया है' इत्यादि कथन श्लोक द्वारा किया जाता है। [अर्थ-] जो कहने योग्य था वह सम्पूर्णतया कह दिया गया है, इतने मात्र से हो यदि यहां कोई चेत जाय तो समझ ले (अन्यथा) वाणी का अतिविस्तार किया जाय तो मी निश्चेतन अर्थात् नासमझ को व्यामोह का जाल बास्तव में अति दुस्तर है। तात्पर्यवृत्ति अथ बहिरङ्गजीवघाते बन्धो भवति न भवति वा परिग्रहे सति नियमेव भवतीति प्रतिपादयति हदि व ण हवदि बंधो भवति वा न भवति बन्धः कस्मिन्सति मदम्हि जीवे मृते सत्यन्यजीवे । अथ अहो । कस्या सत्याम् ? कायचेम्हि कायचेष्टायाम् । तहि कथं बन्धो भवति । बंधो धुक्मुवधीदो बन्धो भवति ध्रुवं निश्चितं । कस्माद् ? उपथेः परिग्रहात्सकाशादिति हेतोः समणा इंडिया सवं श्रमणा Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ] | पवयणसारो महाश्रमणाः सर्वज्ञाः पूर्वं दीक्षाकाले शुद्धबुद्धकस्वभावं निजात्मानमेव परिग्रहं कृत्वा शेषं समस्तं वाह्याभ्य न्तरपरिग्रहं छर्दितवन्तस्त्यक्तवन्तः । एवं ज्ञात्वा शेषतपोधनैरपि निजपरमात्मपरिग्रहं स्वीकारं कृत्वा शेषः सर्वोऽपि परिग्रहो मनो वचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च त्यजनीय इति । अत्रेदमुक्त भवति शुद्धचैतन्यरूपनिश्चयप्राणे रागादिपरिणामरूपनिश्चयहिंसया पार्तिते सति नियमेन बन्धो भवति । परजीवघाते पुनर्भवति न भवति नियमो नास्ति, परद्रव्ये ममत्वरूपमुर्च्छापरिग्रहेण तु नियमेन भवत्येवेति ॥२१६|| एवं भावहिंसा व्याख्यानमुख्यत्वेन पञ्चमस्थले गाथाषट्कं गतम् । इति पूर्वोक्तक्रमेण एवं पण मिय सिद्धे' इत्याद्येकविंशतिगाथाभिः स्थलः तं चकेनोत्सर्ग चारित्रव्याख्याननामा “प्रथमोऽन्तराधिकारः" रामातः! उत्थानिका- आगे आचार्य कहते हैं कि बाहरी जीव का घात होने पर बन्ध होता है तथा नहीं भी होता है, किन्तु परिग्रह के होते हुए तो नियम से बन्ध होता है । अन्वय सहित विशेषार्थ -- (कायचेट्ठम्हि ) शरीर से हलन चलन आदि क्रिया के होते हुए ( जीवे मदम्ह ) किसी जंतु के मर जाने पर (हि) निश्चय से ( बंधो हवदि) कर्मबंध होता है ( वा ण हववि) अथवा नहीं होता है (अथ ) परन्तु ( उवधीदो ) परिग्रह के निमित्त से (बंधो धुवं ) बंध निश्चय से होता ही है ( इवि ) इसीलिये ( समणा ) साधुओं ने ( स ) सर्व परिग्रह को (छड़िया) छोड़ दिया । साधुओं ने व महाश्रमण सर्वज्ञों ने पहले दीक्षाकाल में शुद्ध बुद्ध एक स्वभावमयी अपने आत्मा को हो परिग्रह मानकर शेष सर्व बाह्य अभ्यंतर परिग्रह को छोड़ दिया ऐसा जानकर के अन्य साधुओं को भी अपने परमात्मस्वभाव को ही अपना परिग्रह स्वीकार करके शेष सर्व हो परिग्रह को मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से त्याग देना चाहिये। यहां यह कहा गया है कि शुद्ध चैतन्यरूप निश्चयप्राण का घात जब राग द्वेष आदि परिणामरूप निश्चयहसा से किया जाता है तब नियम से बन्ध होता है। पर जीव के घात हो जाने पर बंध हो वा न भी हो, किन्तु परद्रव्य में ममतारूप मूर्छा परिग्रह से तो नियम से बंध होता हो है ॥ २१६ ॥ इस तरह भाव हिंसा के व्याख्यान की मुख्यता से पांचवें स्थल में छः गाथाएं पूर्ण हुई । इस तरह पहले कहे हुए क्रम से "एवं पणमिय सिद्धे" इत्यादि २१ इक्कीस गाथाओं से ५ स्थलों के द्वारा उत्सर्ग चारित्र का व्याख्याननामक प्रथम अन्तराधिकार पूर्ण हुआ । अथान्तरङ्गच्छेदप्रतिषेध एवायमुपधिप्रतिषेध इत्युपविशति - ण हि रिवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी' । अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिवो ॥ २२० ॥ १-आसवविसोही (ज० ब० ) । २ - विहियो (ज० वृ० ) | Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा पश्यणसारो ! ण हि निरपेक्षत्यागो न भवति भिक्षोराशयविशुद्धिः । अविशुद्धस्य च चित्ते कथं नु कर्मक्षयो विहितः ॥ २२०॥ [ ५१५ न खलु बहिरङ्गसंगसद्भावे तुषसद्भावे तण्डुलगताशुद्धत्वस्येवाशुद्धोपयोगरूपस्यान्तवस्य प्रतिषेधस्तद्भाये व न शुद्धोपयोगमूलस्य कंबल्यस्योपलम्भः अतोऽशुद्धोपयोगरूपस्थान्तरं गच्छ दस्य प्रतिषेधं प्रयोजनमपेक्ष्योपधवधीयमानः प्रतिषेधोऽन्तरंगच्छेदप्रतिषेध एव स्मात् ॥ २२० ॥ भूमिका – अब इस परिग्रह का निषेध अंतरंग व का ही निषेध है, यह उपदेश फरते हैं अन्वयार्थ – [ निरपेक्षः त्यागः न हि ] यदि निरपेक्ष ( सर्व अपेक्षाओं से रहित ) त्याग न हो तो [भिक्षोः ] भिक्षुके [आशयविशुद्धिः ] भाव की विशुद्धि [ न भवति ] नही होती, [च] और [चित्ते अविशुद्धस्य ] जो भाव में अविशुद्ध हैं उसके [ कर्मक्षयः ] कर्मक्षय [ कथं कैसे [ लिहित ] होता है टीका - जैसे छिलके के सद्भाव में चावलों में पाई जाने वाली ललाईरूप अशुद्धता का त्याग ( नाश - अभाव) नहीं होता, उसी प्रकार बहिरंग संग के सद्भाव में अशुद्धोपयोगरूप अंतरंगछेद का त्याग नहीं होता और उस अंतरंग व के सद्भाव में शुद्धोपयोगमूलक कंवल्य (मोक्ष) की उपलब्धि नहीं होती। इसलिये अशुद्धोपयोगरूप अंतरंगछेद का निषेध हैं। प्रयोजन की अपेक्षा रखने वाली जो उपधि उसका निषेध वास्तव में अंतरंगछव का ही निषेध है ।। २२० ॥ तात्पर्यवृत्ति अतः परं चारित्रस्य देशकालापेक्षयापहृतसंयम रूपेणापवादव्याख्यानार्थ पाठक्रमेण त्रिंशद् गाथाभिद्वितीयन्तराधिकारः प्रारभ्यते । तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति तस्मिन्प्रथमस्थले निर्ग्रन्थमोक्षमार्ग स्थापनामुख्यत्वेन 'ण हि णिरवेक्खो चागो' इत्यादि गाथापंचकम् । अत्र टीकायां गाथात्रयं नास्ति । तदनन्तरं सर्वसावद्यप्रत्याख्यानलक्षणसामायिक संयमासमर्थानां यतीनां संयमशौचज्ञानोपकरणानिमित्तमपवादव्याख्यानमुख्यत्वेन 'छेदो जेण ण विज्जदि' इत्यादि सुत्रत्रयम् । तदनन्तरं स्त्रीनिर्वाणनिराकरणप्रधानत्वेन 'पेच्छदि ण हि इह लोग' इत्याद्येकादश गाथा भवन्ति । ताश्चामृतचंद्रटीकायां न सन्ति । ततः परं सर्वोपेक्षा संयमसमर्थस्य तपोधनस्य देशकालापेक्षा किंचित्संयम साधकशरीरस्य निरवद्याहारादिसहकारिकारणं ग्राह्यमिति पुनरप्यपवादविशेषव्याख्यानमुख्यत्वेन ' उवयरणं जिणमग्गं" इत्याद्येकाशगाथा भवन्ति । अत्र टीकायां गाथाचतुष्टयं नास्ति । एवं मूलसूत्राभिप्रायेण त्रिंशद्गाथाभिः टीकापेक्षया पुनर्द्वादशगाथाभिः द्वितीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका । तथाहि- अथ भावशुद्धिपूर्वकवहिरङ्गपरिग्रहपरित्यागे कृते सति अभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागः कृत एव Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो भवतीति निर्दिशति-ण हि हिरवेक्खो चागो न हि निरपेक्षस्त्यागः यदि चेत् परिग्रहत्यागः सर्वथा निरपेक्षो न भवति किन्तु किमपि बस्त्रपात्रादिकं ग्राह्यमिति भवता भण्यते तर्हि हे शिष्य ! ण हयदि भिक्खुस्स आसयविसोही न भवति भिक्षोराशयविशुद्धिः तदा सापेक्षपरिणामे सति भिक्षोस्तपोधनस्य चित्तशुद्धिन भवति । अविसुद्धस्स हि चित्ते शुद्धात्मभावनारूपशुद्धिरहितस्य तपोधनस्य चित्ते मनसि हि स्फुटं कहं गु कम्मक्खओ विहियो कथं तु कर्मक्षयो विहितः उचितो न कथमपि । अनेनंतदुक्तं भवति–यथा बहिरङ्गतुषसद्भावे सति तण्डुलस्याभ्यन्तरशुद्धि कत्तुं नायाति तथा विद्यमानेऽविद्यमाने वा बहिरङ्गपरिग्रहेऽभिलाषे सति निर्मलशुद्धात्मानुभूतिरूपां चित्तशुद्धि कत्तुं नायाति। यदि पुनविशिष्टवैराग्यपूर्वकपरिग्रहत्यागो भवति तदा चित्तशुद्धिर्भवत्येव ख्यातिपूजालाभनिमित्तत्यागे तु न भवति ॥२२०|| उत्थानिका--अब आगे चारित्र का देशकाल की अपेक्षा से अपहत संयमरूप अपवादपना समझाने के लिये पाठ के क्रम से तीस गाथाओं से दूसरा अन्तराधिकार प्रारम्भ करते हैं। इसमें चार स्थल हैं। पहले स्थल में निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग की स्थापना की मुख्यता से "ण हि हिरवेक्खो चागो" इत्यादि गाथाएं पांच हैं । इनमें से तीन गाथाएं श्री अमृतचन्द्रकृत टीका में नहीं हैं । फिर सर्व पाप के त्यागरूप सामायिक नाम के संयम के पालने में असमर्थ यतियों के लिये संयम, शौच व ज्ञान का उपकरण होता है। उसके निमित्त अपवाद व्याख्यान की मुख्यता से "छेदो जेण ण विज्जदि" इत्यादि सूत्र तोन हैं। फिर स्त्री को तद्भव मोक्ष होती है इसके निराकरण की प्रधानता से 'पेच्छदि णहि इह लोग' इत्यादि ग्यारह गाथाए हैं । ये गाथाए श्री अमृतचन्द्राचार्य की टीका में नहीं हैं । इसके पीछे सर्व उपेक्षा संयम के लिये जो साधु असमर्थ है उसके लिये देश व काल की अपेक्षा से इस संयम के साधक शरीर के लिये कुछ दोष-रहित आहार आदि सहकारी कारण ग्रहण करने योग्य हैं। इससे फिर भी अपवाद के विशेष व्याख्यान की मुख्यता से "उवयरणं जिणमन्ग" इत्यादि ग्यारह गाथाएं हैं, इनमें से भी उस टीका में ४ गाथाएं नहीं हैं। इस तरह मूलसूत्रों के अभिप्राय से तीस गाथाओं से तथा अमृतचन्द्रकृत टीका की अपेक्षा से बारह गाथाओं से दूसरे अन्तर अधिकार में समुदायपातनिका है। गाथा की उत्थानिका अब कहते हैं कि जो भावों की शुद्धिपूर्वक बाहरी परिग्रह का त्याग किया जाये तो अभ्यंतर परिग्रह का ही त्याग किया गया । अन्वय सहित विशेषार्थ—(गिरदेवखो) अपेक्षा रहित (चागो) त्याग (ण हि) यदि न होवे तो (भिक्खुस्स) साधु के (आसयविसोही ण हवदि) आशय या चित्त की विशुद्धि नहीं होवे । (य) तथा (अविसुद्धस्स चित्ते) अशुद्ध मन के होने पर (कहं ) किस तरह (कम्म १-श्वेताम्बरेण । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो ] [ ५१७ क्लओ) कर्मों का भय (मिहिपी) जमित हो अनि हो । यदि साधु सर्वथा ममता या इच्छा त्यागकर सर्व परिग्रह त्याग न करे किन्तु यह इच्छा रक्खे कि कुछ भी वस्त्र या पात्र आदि रख लेने चाहिये, तो अपेक्षा सहित परिणामों के होने पर उस साधु के चित्त की शुद्धि नहीं हो सकती है । तब जिस साधु का चित्त शुद्धात्मा की भावना रूप शुद्धि से रहित होगा उस साधु के कर्मों का क्षय होना किस तरह उचित होगा अर्थात् उसके कर्मों का नाश नहीं हो सकता है। . इस कथन से यह भाव प्रगट किया गया है कि जैसे बाहर का तुष रहते हुए चावल के भीतर की शुद्धि नहीं की जा सकती। इसी तरह विद्यमान परिग्रह में या अविद्यमान परिग्रह में जो अभिलाषा है उसके होते हुए निर्मल शुद्धात्मा के अनुभव को करने वाली चित्त की शुद्धि नहीं की जा सकती है । जब विशेष वैराग्य के होने पर सब परिग्रह का स्याग होगा तब भावों को शुद्धि अवश्य होगी ही, परन्तु यवि प्रसिद्धि पूजा या लाभ के निमित्त त्याग किया जायेगा तो चित्त की शुद्धि नहीं होगी ॥२२०॥ अथ तमेव परिग्रहत्यागं दृढ़यति गेहदि व चेलखंड भायणमस्थित्तिमणिदमिह सुत्ते। जदि सो चत्तालंबो हवदि कहं वा अणारंभो ॥२२०-१॥ वत्थक्खंडं दुद्दियभायणमष्णं च गेलधि णिय । विज्जदि पाणारंभो विक्खेवो तस्स चितम्मि ॥२२०-२॥ गेलइ विधुणइ घोबइ सोसेइ अदं तु आदवे खित्ता। पत्तं व चेलखंडं विभेदि परदो य पालयदि ॥२२०-३॥ गेहदि व चेलखंडं गृह्णाति बा चेलखण्डं वस्त्रखण्ड भायणं भिक्षाभाजनं वा अत्यित्ति भणिवं अस्तीति भणितमारते ? क्व । इह सुरो इह विवक्षितागमसूत्रे जदि यदि चेत् ? सो चसालंबो हवदि कह निरालम्बनपरमात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन् स पुरुषो बहिर्द्रव्यालम्बनरहितः कथं भवति, न कथमपि वा अणारंमो निःनियनिरारम्भनिजात्मतत्त्वभावनारहितत्वेन निराम्भो वा कथं भवति किन्तु सारम्भ एव, इति प्रथमगाथा । बत्थक्खंड दुदियभायणं वस्त्रखण्डं दुग्धिकाभाजनं अण्णं च मेण्हदि अन्यच्च गृह्णाति कम्बलमृदुश्शयनादिकं यदि चेत् । तदा कि भवति ? णियदं विज्जदि पाणारंभी निजशुद्धचैतन्यलक्षणप्राणविनाशरूपो परजीवप्राणविनाशरूपो वा नियतं निश्चितं प्राणारम्भः प्राणवधो विद्यते न केवलं प्राणारम्भः विक्खेवो तस्स चित्तम्मि अविक्षिप्तचित्तपरमयोगरहितस्य परिग्रहपुरुषस्य विक्षेपस्तस्य विद्यते चित्ते मनसीति । इति द्वितीयगाथा। गेण्हइ स्वशुद्धात्मग्रह्णशून्यः सन् गृह्णाति किमपि बर्दिव्यं विधुणइ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ ] [ पक्ष्यणसारो कर्मधूलि विहाय बहिरङ्गधूलि विधुनोति विनाशयति । धोवइ निर्मलपरमात्मतत्त्वमलजनकरागादिमलं विहाय बहिरङ्गमलं धौति प्रक्षालयांत सांसद जदंतुआय वित्तमायाकल्पध्यानासोतसारनदीशोषणमकुर्वन् शोषयति शुष्कं करोति यदं तु यत्नपरं तु यथा भवति । किं कृत्बा? आतपे निक्षिप्य। किं तत् ? पत्तं च चेलखंडं पात्रं बस्त्रखण्डं बा विभेदि निर्भयशुद्धात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन् विभेति भयं करोति । कस्मात्सकाशात् ? परदो य परतश्चौरादेः पालयदि परमात्मभावनां न पालयन्न रक्षयन्परद्रव्यं किमपि पालयतीति तृतीया गाथा ॥२२०-१-२-३।। उत्थानिका-आगे इस ही परिग्रह के त्याग को दृढ़ करते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ-(जदि) यदि (इह सत्ते) किसी विशेष सूत्र में (चेलखंड गेण्हदि) साधु वस्त्र के खंड को स्वीकार करता है (व भायणं अथिति भणिदम्) या उसके भिक्षा का पात्र होता है ऐसा कहा गया है तो (सो) वह पुरुष निरालम्ब परमात्मा के तत्व की भावना से शून्य होता हुआ (कह) किस तरह (चत्तालबो) बाहरी द्रव्य के आलम्बन रहित (हदि) हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता (वा अणारम्भो) अथवा किस तरह क्रिया रहित व आरम्भ रहित निज आत्मतत्व की भावना से रहित होकर आरम्भ से शून्य हो सकता है ? अर्थात् आरम्भ रहित न होकर आरम्भ सहित ही होता है। यदि वह (यस्थक्खण्ड) वस्त्र के टुकड़े को, (दुद्दियभायणं) दूध के लिये पात्र को (अण्णं च गेहदि) तथा अन्य किसो कम्बल या मुलायम शय्या आदि को ग्रहण करता है तो उसके (णियदं) निश्चय से (पाणारम्भो विज्जदि) अपने शुद्धचैतन्य लक्षण प्राणों का विनाश रूप अथवा प्राणियों का वध रूप प्राणारम्भ होता है तथा (तस्स चित्तम्मि विषखेबो) उस क्षोभ रहित चित्तरूप परम योग से रहित परिग्रहवान पुरुष के चित्त में विक्षेप होता है या आकुलता होती है। वह यति (पत्तं च चेलखंड) माजन को या वस्त्र खण्ड को (गेण्हइ) अपने शुद्धात्मा के ग्रहण से शून्य होकर ग्रहण करता है, (विधुणइ) कर्म धूल को झाड़ना छोड़कर उसको बाहरी धूल को झाड़ता है, (धोवइ) निज परमात्मतत्व में मल उत्पन्न करने वाले रागादि मल को छोड़कर उनके बाहरी मल को धोता है (जदं तु आदवे खित्ता सोसेइ) और निर्विकल्प ध्यानरूपी धप से संसार नदी को नहीं सुखाता हुआ यत्नवान होकर उसे धूप में डालकर सुखाता है (परदो य विभेदि) और निर्भय शुद्ध आत्मतत्व की भावना से शून्य होकर दूसरे चौर आदिकों से भय करता है (पालयवि) तथा परमात्मभावना को रक्षा छोड़कर उनकी रक्षा करता है ।।२२०-१, २२०-२, २२०-३॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५१६ अर्थकान्तिकान्तरङ्गच्छेवत्वमुपोविस्तरेणोपदिशति'किध तम्हि पत्थि मुच्छा आरम्भो वा असंजमो तस्स । "ता परनलग्नि पदो समप्पाणं पसाधयदि ॥२२१।। __ कथं तस्मिन्नास्ति मुर्छा आरम्भो वा असंयमस्तस्य । तथा परद्रव्ये रत: कथमात्मानं प्रसाधयति ।।२२१।। उपधिसद्भावे हि मम त्वपरिणामलक्षणाया मच्छीयास्तद्विषयकर्मप्रक्रमपरिणामलक्षणस्यारम्भस्य शुद्धात्मरूपहिसनपरिणामलक्षणस्यासंयमस्य वावश्यंभावित्वात्तथोपधिद्वितोयस्य परद्रव्यरतत्वेन शुद्धात्मध्यप्रसाधकत्वाभावाच्च ऐकान्तिकान्तरंगच्छेदत्वमुपोरवधायंत एव । इदमत्र तात्पर्यमेवंविधत्वमुपधेरवधार्य स सर्वथा सन्यस्तव्यः ॥२२१॥ भूमिका—'परिग्रह नियम से अन्तरंग छेद है' यह विस्तार से उपदेश करते हैं अन्वयार्थ-[तस्मिन् ] उस परिग्रह सद्भाव में [तस्य ] उस भिक्षु के [ मूर्छा] मूळ, [आरम्भः] आरम्भ] [वा] या [असंयमः ] असंयम [नास्ति न हो [कथं] यह कैसे हो सकता है ? (कदापि नही हो सकता), [तथा] तथा [परद्रव्ये रतः] जो पर द्रव्य में रत हो वह [आत्मानं] आत्मा को [कथं] कैसे [प्रसाधयति] साध सकता है ? (नहीं साध सकता) टीका-उपधि के सद्भाव में (१) ममत्वपरिणाम जिसका लक्षण है ऐसी मूर्छ, (२) परिग्रह सम्बन्धी कार्य व्यवस्था के परिणाम रूप लक्षण वाला आरम्भ, अथवा (३) शुद्धात्मस्वरूप को हिसारूप परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा असंयम ये अवश्य होता ही है तथा उपधि जिसका द्वितीय है (अर्थात् परिग्रह आत्मा से अन्य है, वह परिग्रह जिसने किया है) उसके परद्रव्य में लीनता होने के कारण शुद्धात्मद्रव्य की साधकता का अभाव होता है, इससे उपधि के नियम से अन्तरङ्गछेद का निश्चय होता ही है। यहां यह तात्पर्य है कि-'उपधि अन्तरंग छेद ही हैं यह निश्चित करके उस परिग्रह को सर्वथा छोड़ना चाहिए ॥२२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ सपरिग्रहस्य नियमेन चित्तशुद्धिर्नश्यतीति विस्तरेणाख्याति-- किह तम्हि णस्थि मुच्छा परद्रव्यममत्वरहितचिच्चमत्कारपरिणतेविसदृशामुळ कथं नास्ति अपि त्वस्त्येव । क्व ? तस्मिन् परिग्रहाकांक्षितपुरुषे आरंभो वा मनोवचनकायक्रियारहितपरमचैतन्य १. किह (ज० वृ०) । २. तह (ज० ५०) । ३. पसाहदि (ज० वृ०) । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ] [ पवयणसारो प्रतिबन्धक आरम्भो वा कथं नास्ति किन्त्वस्त्येव असंजमो तस्स शुद्धात्मानुभूति विलक्षण संयमो वा कथं नास्ति किन्त्वस्त्येव तस्य सपरिग्रहस्य वह परवव्वम्मि रदो तथैव निजात्मद्रव्यात्परद्रव्ये रतः कमपणं पसादि स तु सपरिग्रहपुरुषः कथमात्मानं प्रसाधयति ? न कथमपीति ॥ २२९॥ एवं श्वेताम्ब रमतानुसारिशिष्यसम्बोधनार्थं निर्ग्रन्थमोक्षमार्गस्थापनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथापंचकं गतम् । उत्थानिका- आगे आचार्य कहते हैं कि जो परिग्रहवान् है उसके नियम से चित्त की शुद्धि नष्ट हो जाती है अन्वय सहित विशेषार्थ - - ( तम्हि ) उस परिग्रह सहित साधु में (हि) किस तरह ( मुच्छा) परद्रव्य की ममता से रहित चैतन्य के चमत्कार की परिणति से भिन्न मूर्छा ( वा आरंभो ) अथवा मन वचन काय की क्रिया रहित परम चैतन्य के भाव में विघ्नकारक आरम्भ ( णत्थि ) नहीं है किन्तु है हो ( तस्स असंजमो ) और उस परिग्रहवान् के शुद्धात्मा के अनुभव से विलक्षण असंयम भी किस तरह नहीं है किन्तु अवश्य है ( तध ) तथा (परदव्वम्मि रक्षा ) अपने आत्मद्रव्य से भिन्न परद्रव्य में लीन होता हुआ (कधमप्पाणं पसायदि) किस तरह अपने आत्मा की साधना परिग्रहवान् पुरुष कर सकता है अर्थात् किसी भी तरह नहीं कर सकता है ।। २२१ ॥ इस तरह श्वेताम्बर मत के अनुसार मानने वाले शिष्य के सम्बोधन के लिये निर्ग्रथ मोक्षमार्ग के स्थापन की मुख्यता से पहले स्थल में पांच गाथायें पूर्ण हुई । अय कस्यचित् चित्कदाचित्कथंचित्कश्चिदुपधिरप्रतिषिद्धोऽप्यस्तीत्यपवादमुपविशतिछेदो जेण ण विज्जदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स । समणो तेहि वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ॥२२२॥ छेदो येन न विद्यते ग्रहण विसर्गेषु सेवमानस्य । श्रमणस्तेनेह वर्ततां कालं क्षेत्रं विज्ञाय ॥। २२२|| आत्मद्रव्यस्य द्वितीयपुद्गलद्रव्याभावात्सर्वं एवोपधिः प्रतिषिद्ध इत्युत्सर्गः । अयं तु विशिष्ट कालक्षेत्र वशात्कश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवादः । यदा हि श्रमणः सर्वोपधिप्रतिषेधमास्थाय परममुपेक्षासंयमं प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्ट कालक्षेत्र वशावसन्नशक्ति प्रतिपत्तुं क्षमते तदाकृष्य संयमं प्रतिपद्यमानस्तदृहिरङ्गसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते । स तु तथा स्थीयमानो न खलूपधित्वाच्छेदः प्रत्युत छ ेदप्रतिषेध एव । यः किलाशुद्धोपयोगाविनाभावी स छ ेवः अयं तु श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणणशरीरवृत्तहेतुभूताहारनिरादिग्रहणविसर्जनविषयच्छदप्रतिषेधार्थमुपादीयमानः सर्वथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छ ेद एव प्रतिषेध एव स्यात् ॥ २२२ ॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवमणसारो । [ ५२१ भूमिका-अब, 'किसी के कहीं किसी प्रकार कोई परिग्रह अनिषिद्ध भी है,' ऐसा अपवाद' कहते हैं। अन्वयार्थ-[येन ग्रहणविसर्गेष ] जिस उपकरण के ग्रहण विसर्जन से [सेवमानस्य] सेवन करने वाले के [छेदः] छेद | न विद्यते] नही होता [इह] इस लोक में [श्रमण:] शमग [का क्षेत्र निलाम कल ऐन को जानकर, [तेन वर्तताम्] उस उपकरण का सेवन करे। टीका-आत्मद्रव्य के द्वितीय पुद्गल द्रव्य का अभाव होने से समस्त हो उपधि निषिद्ध है-ऐसा उत्सर्ग है, और विशिष्ट काल क्षेत्र के वश कोई उपधि अनिषिद्ध है-ऐसा अपवाद है। जब श्रमण सर्व उपधि के निषेध का आश्रय लेकर परमोपेक्षा संयम को प्राप्त करने का इच्छुक होने पर भी विशिष्ट काल क्षेत्र के वश होन-शक्तिवाला होने से उसे प्राप्त करने में असमर्थ होता है, तब उसमें होनता करके अनुत्कृष्ट संयम प्राप्त करता हुआ उस संयम को बहिरंग साधन मात्र उपधि का आश्रय लेता है। इस प्रकार जिस उपधि का आश्रय लिया जाता है ऐसी वह उपधि उपधिपन के कारण भी वास्तव में छेदरूप नहीं है, प्रत्युत छद को निषेधरूप ही है। जो उपधि अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होती, यह छेद है। किन्तु यह उपधि तो श्रामण्यपर्याय को सहकारी कारणभूत शरीर को स्थिति के हेतुभूत आहार नोहारादि के ग्रहण-विसर्जन सम्बन्धी छेद के निषेधार्थ ग्रहण को जाने से सर्वथा शुद्धोपयोग सहित है, इसलिये छ द के निषेधरूप ही है ।।२२२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ कालापेक्षया परमोपेक्षासंयमशक्त्यभावे सत्याहारसंयमशौचज्ञानोपकरणादिकं किमपि ग्राह्यमित्यपवादमुपदिशति छेदो जेण ण विज्जदि छेदो येन न विद्यते । येनोपकरणेन शुद्धोपयोगलक्षणसंयमस्य छेदो विनाशो न विद्यते। कयोः ? गहणविसग्गेसु ग्रहणविसर्गयोः यस्योपकरणस्यान्यवस्तुनो वा ग्रहण स्वीकारे विसर्जने। किं कुर्वतः तपोधनस्य ? सेवमाणस्स तदुपकरणं सेवमानस्य समणो तेणिह बट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता श्रमणस्तेनोपकरणेनेह लोके वर्त्ततां । किं कृत्वा ? काल क्षेत्रं च विज्ञायेति । अयमत्र भावार्थ:-कालं पञ्चमकालं शीतोष्णादिकालं वा क्षेत्र भरतक्षेत्र मानुषजाङ्गलादिक्षेत्र वा विज्ञाय येनोपकरणेन स्त्रसंवित्तिलक्षणभावसंयमस्य बहिरङ्गद्रव्यसंयमस्य वा छेदो न भवति तेन वर्तत इति ।।२२२॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि काल की अपेक्षा से साधु की शक्ति परम उपेक्षा संयम के पालने की न हो तो वह आहार करता है, संयम के उपकरण पीछी व शौच के Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ॥ [ पवयणसारो उपकरण कमण्डलु व ज्ञान के उपकरण शास्त्रादि को ग्रहण करता है, ऐसे आवाद मार्ग का उपदेश देते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जेण गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स) जिस उपकरण के ग्रहण करने व रखने में उस उपकरण के सेवने वाले साधु के (बो ण विज्जदि) शुद्धोपयोगमयी संयम का घात न होवे (तेणिह समणो कालं खेत्तं वियाणिता घट्टदु) उसी प्रकरण के साथ इस लोक में साधु क्षेत्र और काल को जानकर वर्तन करे । यहाँ यह भाव है कि काल की अपेक्षा पञ्चमकाल या शीत उष्ण आदि ऋत. क्षेत्र की अपेक्षा भरतक्षेत्र, मनुष्यक्षेत्र या नगर जंगल आदि इन दोनों को जानकर जिस उपकरण से स्वसंवेदन लक्षण भावसंयम का अथवा बाहरी द्रव्य संयम का घात न होवे, उस तरह से बर्तना चाहिये ॥२२२॥ अथाप्रतिषिद्धोपधिस्वरूपमुपदिशति अप्पडि कुठं उधि अपत्थणिज्जं असंजवजहि । मुच्छादिजणणरहिदं' गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ॥२२३॥ __ अप्रतिष्दमुपधिमप्रार्थनीयमसंयतजनः । मूर्छादिजननरहितं गृह्णातु श्रमणो यद्यप्यल्पम् ।।२२३।। यः किलोपधिः सर्वथा बन्धासाधकत्वादप्रतिकुष्टः संयमादन्यत्रानुचितत्वावसंयतजनाप्रार्थनीयो रागादिपरिणाममन्तरेण धार्यमाणत्वान्मूच्छ दिजननरहितश्च भवति स खल्वप्रतिषिद्धः । अतो अथोवितस्वरूपएवोपधिरुपादेयो न पुनरल्पोऽपि यथोदितविपर्यस्तस्वरूपः । भूमिका-अब, अनिषिद्ध उपधि का स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ-[यद्यपि अल्पम्] भले ही अल्प हो तथापि [अप्रतिकृष्टम् ] जो निषेधने योग्य न हो, [असंयतजनैः अप्रार्थनीय] असंयतजनों से अप्रार्थनीय हो, और [मु.दिजननरहितं] जो मूर्छा आदि को उत्पन्न न करे [उपधि] ऐसी उपधि को [श्रमणः] श्रमण [गृहातु] ग्रहण करो। टीका--जो उपधि सर्वथा बंध की असाधक होने से अनिषिद्ध है, संयत के अतिरिक्त अन्यत्र अनुचित होने से असंयतजनों के द्वारा अप्रार्थनीय (अवाञ्छनीय) है और रागादिपरिणाम के विना धारण की जाने से मूर्छादि के उत्पादन से रहित है, वह वास्तव में अनिषिद्ध है । इससे यथोक्त स्थरूप वाली उपधि ही उपादेय है, किन्तु यथोक्त स्वरूप से विपरीत स्वरूप वाली अल्प मी उपधि-उपादेय नहीं है ॥२२३॥ १. मुच्छादिजणपरहियं (ज० ७०) । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 [ ५२३ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वसूत्रोदितोपकरणस्वरूपं दर्शयति - अप्पडिकुठं उवधि निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिद्धमुपधिमुपकरणरूपोपधि अपत्थणिज्जं असंजदजहि अप्रार्थनीय निर्विकारात्मोपलब्धिलक्षणमावसंघमराहतस्यासंयतजनस्यानभिलषणीयम् । मुच्छादिजणणरहियं परमात्मद्रव्यविलक्षणबहिर्द्रव्यममत्वरूपमुर्छा रक्षणार्जनसंस्कारादिदोषजननरहितम् । गेहदु समणो जवि वि अप्पं गृलातु श्रमणो यमप्यरूपं पूर्वोक्तमुपकरणोपधि यद्यप्यल्पं तथापि पूर्वोक्तोचित लक्षणमेव ग्राह्य न च तद्विपरीतमधिकं वेत्यभिप्रायः ॥२२३॥ उत्थानिका-आगे पूर्व गाथा में जिन उपकरणों को साधु अपवाद मार्ग में काम में ले सकता है उनका स्वरूप दिखलाते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ—(समणो) साधु (उधि) परिग्रह को (अप्पडिकुटुं) जो निषेधने योग्य न हो, (असंजदजहि अपत्यणिज्ज) असंयमी लोगों के द्वारा चाहने योग्य न हो (मुच्छादिजणणरहिय) मूर्छा आदि भावों को न उत्पन्न करे (अदि वि अप्प) यद्यपि अल्प हो (गेन्दु) तो भी ग्रहण करें। साधु महाराज ऐसे उपकरणरूपी परिग्रह को ही ग्रहण करें जो निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग में सहकारी कारण होने से निषिद्ध न हो, जिसको वे असंयमी जन जो निधिकार आत्मानुभवरूप भावसंयम से रहित हैं, कभी मांगें नहीं, न उसको इच्छा करें तथा जिसके रखने से परमात्म-द्रध्य से विलक्षण माहरी द्रव्यों में ममतारूप मूळ न पैदा हो जावे, न उसके उत्पन्न करने का दोष हो, न उसके संस्कार से दोष उत्पन्न हो । ऐसे परिग्रह को यदि रक्खें तो भी बहुत थोड़ा रखें । इन लक्षणों से विपरीत परिग्रह न लेवें। अथोत्सर्ग एत्र वस्तुधर्मो न पुनरपवाद इत्युपदिशति-- किं किचण त्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध' देहे वि । संग ति जिणवरिंका णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा ॥२२४॥ कि किचनमिति तर्क: अपुनर्भवकामिनोज्थ देहेऽपि । संग इति जिनवरेन्द्रा निःप्रतिकर्मत्वमुद्दिष्टवन्तः ।।२२४॥ अत्र श्रामण्यपर्यायसहकारिफारणत्वेनाप्रतिषिध्यमानेऽत्यन्तमुपात्तदेहेऽपि परद्रव्यत्वापरिग्रहोऽयं न नामानुग्रहाहः किंतुपेक्ष्य एवेत्यप्रतिकर्मत्वमुपदिष्टवन्तो भगवन्तोऽर्हद्दपाः । अथ तत्र शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसंभावनरसिकस्य पुंसः शेषोऽन्योऽनुपात्तः परिग्रहो बराफः कि नाम स्यादिति व्यक्त एव हि तेषामाकूतः । अतोऽवधार्यते उत्सर्ग एव वस्तुधमों न पुनरपथावः । इसमत्र तात्पर्य वस्तुधर्मत्वात्परमनन्थ्यमेवालम्ब्यम् ॥२२४॥ भूमिका-अम, 'उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं ऐसा उपदेश करते हैं१. अथ (ज. वृ०)। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ] [ पवयणसारो अन्वयार्थ-[अथ] जबकि [जिनवरेन्द्राः] जिनवरेन्द्रों ने [अपुनर्भवकामिनः] मोक्षाभिलापो के, [संगः इति] देह परिग्रह है' यह कहकर [देहे अपि] देह में भी [निःप्रतिकर्मत्वम्] अप्रतिकर्मत्व (संस्काररहितत्व) का [उदिदष्टधन्तः] उपदेश दिया है, तब [कि किंचनम् इति तर्क:] अन्य परिग्रह का विधान तो कैसे हो सकता है ? टीका-यहां श्रामण्यपर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं किया गया ऐसे अत्यन्त मिले हुए शरीर में भी, 'यह शरीर परद्रव्य होने से परिग्रह है, वास्तव में यह अनुग्रह योग्य नहीं, किन्तु उपेक्षा योग्य ही है', ऐसा कहकर, भगवस्त अहसदेवों ने निमरत का उशि शिया है. नर वहां शुद्धात्मतत्वोपलब्धि की संभावना के रसिक पुरुषों के शेष बेचारा अनुपात्त (शरीर से पृथक् ) परिग्रह कैसे ग्राह्य हो सकता है ? ऐसा उनका (अहंल देवों का) आशय व्यक्त हो है। इससे निश्चित होता है कि-उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं। तात्पर्य यह कि वस्तुधर्म होने से परम निग्रंथत्व ही अवलम्बन योग्य है ॥२२४॥ तात्पर्यवृत्ति अथ सर्वसङ्गपरित्याग एव श्रेष्ठः शेषमशक्यानुष्ठानमिति प्ररूपयति कि किंधण ति तक्कं कि किंचनमिति तर्क: किं किंचन परिग्रह इति तर्को विचारः क्रियते तावत् । कस्य ? अपुणभवकामिणो अपुनर्भबकामिन: अनन्तज्ञानादिचतुष्टयात्ममोक्षाभिलाषिण: अथ अहो देहोवि देहोऽपि संगोत्ति सङ्गः परिग्रह इति हेतोः जिणरिंदा जिनवरेन्द्राः कर्तारः णिप्पडिकम्मतमुहिछा निःप्रतिकर्मत्वमुपदिष्टवन्तः । शुद्धोपयोगलक्षणपरमोपेक्षासंयमवलेन देहेऽपि निःप्रतिकारित्वं कथितवन्त इति। तता ज्ञायते मोक्षसुखाभिलाषिणां निश्चयेन देहादिसर्वसङ्गपरित्याग एवोचितोऽन्यस्तूपचार एवेति ।।२२४।। एवमपवादव्याख्यानरूपेण द्वितीयस्थले गाथात्रयं गतम् । उत्थानिका--आगे फिर आचार्य यही कहते हैं कि सर्व परिग्रह का त्याग ही श्रेष्ठ है। जो कुछ उपकरण रखना है वह अशक्यानुष्ठान है- अपवाद है __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(अथ) अहो (अपुणभवकामिणो) पुनः भवरहित ऐसे मोक्ष के इच्छुक साध के (देहोधि) शरीरमात्र भी (संगोत्ति) परिग्रह है ऐसा जानकर (जिणचरिंदा) जिनवरेंद्रों ने (णिप्पडिकम्मतं) ममता रहित भाव को ही उत्तम (उद्दिट्ठा) कहा है (किं किचनत्ति तक्क) ऐसी दशा में साधु के क्या परिग्रह है यह मात्र एक तर्क ही है अर्थात् अन्य उपकरणादि परिग्रहका विचार भी नहीं हो सकता । अनन्तज्ञानादि चतुष्टय रूप जो मोक्ष है उसकी प्राप्ति के अभिलाषी साध के शरीर मात्र भी जब परिग्रह है तब Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५२५ और परिग्रह का विचार क्या किया जा सकता है। शुद्धोपयोग लक्षणमयी परम उपेक्षा संयम के बल से वेह में भी कुछ प्रतिकर्म अर्थात ममत्व नहीं करना चाहिये तब ही वीतराग संयम होगा, ऐसा जिनेन्द्रों का उपदेश है। इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि मोक्ष सुख के चाहने वालों को निश्चय से शरीर आदि सब परिग्रह का त्याग ही उचित है अन्य कुछ भी कहना सो उपचार है ।।२२४॥ इस तरह अपवाद व्याख्यान के रूप में दूसरे स्थल में तीन गाथाएं पूर्ण हुई। तात्पर्यवृत्ति अथैकादशगाथापर्यन्तं स्त्रीनिर्वाणनिराकरणमुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति । तद्यथा-श्वेताम्बरमतानुसारी शिष्यः पूर्वपाई करोनि.-. पेच्छवि ण हि इह लोग परं च समणिददेसिदो धम्मो। धम्मम्हि तम्हि कम्हा वियप्पियं लिंगमित्थीणं ।।२२४-१॥ पेच्छदि ण हि इह लोगं निरुपरागनिजचंतन्यनित्योपलब्धिभावनाबिनाशक ख्यातिपूजालाभरूपं प्रेक्षते न च हि स्फुट इह लोकं । न च केवलमिह लोकं परं च स्वात्मप्राप्तिरूपं मोक्ष विहाय स्वर्गभोगप्राप्तिरूपं परं च परलोकं च नेच्छति । स कः ? समर्माणददेसिदो धम्मो श्रमणेन्द्रदेशितो धर्मः जिनेन्द्रोपदिष्ट इत्यर्थः । धम्मम्हि तम्हि कम्हा धर्मे तस्मिन् कस्मात् वियप्पियं विकल्पितं निर्ग्रन्थलिङ्गाद्वस्त्रप्रावरणेन पृथककृतं । किं ? लिंगं सावरणचिन्हें । कासां सम्बन्धि ? इत्थीणं स्त्रीणामिति पूर्वपक्षगाथा ।।१॥ उत्थानिका-आगे ग्यारह गाथाओं तक स्त्री को उसी भव से मोक्ष हो सकता है इसका निराकरण करते हुए व्याख्यान करते हैं । प्रथम ही श्वेताम्बर मत के अनुसार बुद्धि रखने वाला शिष्य पूर्वपक्ष करता है ___ अन्वय सहित विशेषार्थ----(समिणिददेसियो धम्मो) श्रमणों के इन्द्र जिनेन्द्रों से उपदेश किया हुआ धर्म (इह लोगं परं च) इस लोकको तथा परलोकको (ण हि पेच्छदि) नहीं चाहता है । (तम्हि धम्मम्हि) उस धर्म में (कम्हा) किसलिये (इत्थोणं लिंग) स्त्रियों का वस्त्र-सहित लिंग (विप्पियं) भिन्न कहा है ? यह शंका रूप गाथा है। जैनधर्म वीतराग निज चैतन्यभाव की नित्य प्राप्ति की भावना के विनाशक अपनी पूजा व लाभ रूप इस लौकिक विषय को नहीं चाहता है और न अपने आत्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष को छोड़कर स्वर्गों के भोगों की प्राप्ति की कामना करता है । यहां यह शंका की गई है कि ऐसे धर्म में स्त्रियों का वस्त्र सहित लिंग किसलिये निर्गन्य लिग से भिन्न कहा गया है ? ॥२२४-१॥ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ 1 | पवयणसारो अथ परिहारमाह पिच्छयदो इत्थीणं सिद्धीण हितेण जम्मणा विट्ठा । तम्हा तप्पडिहवं वियप्पियं लिंगमित्थीणं ॥२२४-२॥ गिच्छयदो इत्थीण सिद्धी ण हि तेण जम्मणा दिठ्ठा निश्चयतः स्त्रीणां नरकादिगतिविलक्षणानन्तसुखादिगुणस्वभावा तेनैव जन्मना सिद्धिर्न दृष्टा न कथिता । तम्हा तप्पडिख्यं तस्मात्कारणाप्रतियोग्यं सावरणरूपं वियप्पियं लिंगमिस्थोणं निर्ग्रन्थलिङ्गात्पृथक्त्वेन विकल्पितं कथितं लिङ्ग प्रावरणसहितं चिन्हं । कासां? स्त्रीणामिति ।।२२४-२॥ उत्थानिका-इसी प्रश्न का आगे समाधान करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ—(णिच्छयदो) वास्तव में (तेण जम्मणा) उसी जन्म से (इत्थोणं सिद्धी) स्त्रियों को मोक्ष (ण हि बिट्ठा) नहीं देखा गया है (तम्हा) इसलिये (इत्योणं लिंग) स्त्रियों का भेष (तप्पडिरूव) आवरण सहित (विप्पियं) पृथक् कहा गया है । नरक आदि गतियों से विलक्षण अनंतसुख आदि गुणों के धारी सिद्ध को अवस्था की प्राप्ति निश्चय से स्त्रियों को उसी जन्म में नहीं कही गई है। इस कारण से उसके योग्य वस्त्र सहित भेष मुनि के निग्रंथ भेष से अलग कहा गया है ।।२२४-२॥ अथ स्त्रीणां मोक्षप्रतिबन्धकं प्रमादबाहुल्यं दर्शयति पइडोपमादमइया एदासि वित्ति भासिया पमदा। तम्हा ताओ पमदा पमादबहुलोत्ति णिद्दिच्छा ॥२२४-३॥ पइडोपमादमइया प्रकृत्या स्वभावेन प्रमादेन निवृत्ता प्रमादमयी । का कर्जी भवति ? एवासि वित्ति एतासां स्त्रीणां वृत्तिः परिणति: भासिया पमवा तत एब नाममालायां प्रमदाः प्रमदासंज्ञा भणिता भासिता: स्त्रियः । तम्हा ताओ पमदा तत एव प्रभदा संज्ञास्ता: स्त्रियः तस्मात्तत एव पमादबहुलोत्ति णिद्दिठा नि:प्रमादपरमात्मतत्त्वभावनाविनाशकप्रमादबहुला इति निर्दिष्टाः ॥३॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि स्त्रियों के मोक्षमार्ग को रोकने वाले प्रमाद को बहुत प्रबलता है अन्वब सहित विशेषार्थ---(पाइडी) स्वभाव से (एतासि वित्ति) इन स्त्रियों की परिणति (पमाद्मइया) प्रमावमयी है (पमदा भासिया) इसलिये उनको प्रमदा कहा गया है (तम्हा) अतः (ताओ पमदा) वे स्त्रियाँ (पमादबहुलोत्ति णिविट्ठा) प्रमाद से भरी हुई हैं ऐसा कहा गया है। क्योंकि स्वभाव से उनका वर्तन प्रमादमयी होता है इसलिये नाममाला में उनको प्रमदा संज्ञा कही गई है। प्रमवा होने से ही उनमें प्रभाव रहित परमात्मतत्त्व को भावना के नाश करने वाले प्रमाद की बहुलता कही गई है ॥२२४-३।। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५२७ अथ तासां मोहादिबाहुल्यं दर्शयति ___ संति धुवं पमबाणं मोहपदोसा भयं दुगुच्छा य । चित्ते चित्ता माया तम्हा तासि पणिज्वाणं ।।२२४-४।। संति धुवं पमदाणं सन्ति विद्यन्ते ध्रुवं निश्चितं प्रमदानां स्त्रीणां । के ते? मोहपदोसा भयं बुगुच्छा य मोहादिरहितानन्तसुखादिगुणस्वरूपमोक्षकारणप्रतिबन्धकाः मोह द्वेपभयदुगुच्छापरिणामाः चित्ते चित्ता माया कौटिल्यादिरहितपरमबोधादिपरिणतेः प्रतिपक्षभूता चित्ते मनसि चित्रा विचित्रा माया तम्हा तासि | णिवाणं तत एव तासामन्यावाधसुखाद्यनन्तगुणाधारभूतं निर्णि नास्तीत्यभिप्रायः ॥४॥ उत्थानिका--आगे कहते हैं कि स्त्रियों के मोह आदि भावों की अधिकता है अन्वय सहित विशेषार्थ-(पमदाणं चित्ते) स्त्रियों के चित्त में (धुवं) निश्चय से (मोहपदोसा भयं दुर्गच्छा य) मोह, द्वेष, भय, ग्लानि तथा (चित्ता माया) चित्त में माया (संति) होती है (तम्हा) इसलिये (तासि ण णिवाणं) उनके निर्वाण नहीं होता है। निश्चय से स्त्रियों के मन में मोहावि रहित च अनन्तसुख भादि गुण स्वरूप मोक्ष के कारण को रोकने वाले मोह, द्वेष, भय, ग्लानि के परिणाम पाए जाते हैं तथा उनमें कुटिलता आदि से रहित उत्कृष्ट ज्ञान की परिणति की विरोधी नाना प्रकार की माया होती है। इसीलिये ही उनको बाधारहित अनन्तसुख आदि अनन्तगुणों का आधारभूत मोक्ष नहीं हो सकता है, यह अभिप्राय है ॥२२४-४॥ अर्थतदेव दृढयति ण विणा वट्टवि णारी एक वा तेसु जीवलोयम्हि । ण हि संउड च गतं तम्हा तासि च संवरणं ॥२२४-५॥ न विणा वट्टदि णारी न विना वर्तते नारी एककं वा तेसु जीवलोयम्हि तेषु निर्दोषिपरमात्मध्यानविघातकेषु पूर्वोक्तदोषेषु मध्ये जीबलोके त्वेकमपि दोषं विहाय ण हि संजई च गत्तं न हि स्फुटं संवृतं गात्रं च शरीरं तम्हा तासि च संवरणं तत एव च तासां संवरणं वस्त्रावरणं क्रियत इति ॥५॥ उत्थानिका और भी उसी को दृढ़ करते हैं--- अन्वय सहित विशेषार्थ-(जीवलोयम्हि) इस जीव लोक में (तेसु एक्कं विणा घा) इन दोषों में से एक भी दोष के बिना (णारी ण बट्टदि) स्त्री नहीं पाई जाती हैं (ण हि संउडं च गत्तं) न उनका शरीर ही संकोचरूप या दृढ़तारूप होता है (तम्हा) इसलिये (तासि च संवरणं) उनको वस्त्र का आवरण उचित है इस जीव लोक में ऐसी कोई भी स्त्री नहीं है जिसके ऊपर कहे हुए निर्दोष परमात्म ध्यान के घात करने वाले दोषों के Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८] [ पवयणसारो मध्य में एक भी बोष न पाया जाता हो तथा निश्चय से उनका शरीर भी संवृतरूप नहीं है इसलिये उनका शरीर वस्त्र से आच्छादन किया जाता है ॥२२४ -५॥ अथ पुनरपि निर्वाणप्रतिबन्धक दोषान्दर्शयति चित्तस्साको तासि सिथिल्लं अत्तवं च पक्खणं । विज्जदि सहसा तासु अ उप्पावो सुहममणुआ ।।२२४-६ ।। विज्जदि विद्यते तासु तासु च स्त्रीषु किं ? चित्तस्साबो चित्तस्रवः निःकामात्मतत्त्वसंवित्तिविनाशकचित्तस्य कामोद्रेकेण स्रवो रागसार्द्रभाव: तासि तासां स्त्रीणां सिथिल्लं शिथिलस्य भावः शैथिल्यं तद्भवमुक्तियोग्य परिणामविषये चित्तदाढर्याभावः सत्त्वहीनपरिणाम इत्यर्थः । अत्तवं च पक्खलणं ऋतौ भवमार्त्तवं प्रस्खलनं रक्तस्रवणं सहसा झटिति मासे मासे दिनत्रयपर्यन्तं चित्तशुद्धिविनाशको रक्तस्रवो भवतीत्यर्थः उप्पादो सुहममणुआणं उत्पाद उत्पत्तिः सूक्ष्मलन्ध्यपर्याप्तमनुष्याणामिति ॥ ६॥ उत्थानिका और भी स्त्रियों में ऐसे दोष दिखलाते हैं जो उनके निर्वाण होने में बाधक हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तासि ) उन स्त्रियों के (चित्तस्सायो ) चित्त में काम का उद्रेक ( सिथिल्लं) शिथिलपना (सहसा अत्तवं च पक्खवणं) तथा एकाएक ऋतु धर्म में रक्त का बहना (विज्जवि ) मौजूद है ( तासु अ सुहममणअणं उप्पादो) तथा उनके शरीर में सूक्ष्म मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। उन स्त्रियों के चित्त में कामवासना रहित आत्मतत्य के अनुभव को विनाश करने वाले काम को तीव्रता से राग से गीले परिणाम होते हैं तथा उसो भव से मुक्ति के योग्य परिणामों में चित्त की दृढ़ता नहीं होती है । बीर्य-हीन शिथिलपना होता है। इसके सिवाय उनके एकाएक प्रत्येक मास में तीन-तीन दिन पर्यंत ऐसा रक्त बहता है जो उनके मन की शुद्धि का नाश करने वाला है तथा उनके शरीर में सूक्ष्म asure मनुष्यों की उत्पत्ति हुआ करती है ॥२२४-६ ॥ -- अयोत्पत्तिस्थानानि कथयति- लिगं हि य इत्योगं थणंतरे णाहिकखपदेसेसु । भणिदो सुहमुप्पादो तासि कह संजमो होदि ॥। २२४-७६ लिंगं हि य इत्यीणं थणंतरे णाहिकखपदेसेसु स्त्रीणां लिङ्ग योनिप्रदेशे स्तनान्तरे नाभिप्रदेशे कक्षप्रदेशे च भणिदो सुहृमुप्पादो एतेषु स्थानेषु सूक्ष्ममनुष्यादिजीवोत्पादो भणितः । एते पूर्वोक्तदोषाः पुरुषाणां किं न भवन्तीति चेत् ? एवं न वक्तव्यं स्त्रीषु बाहुल्येन भवन्ति । नचास्तित्वमात्रेण समानत्वं । एकस्य विषकणिकास्ति द्वितीयस्य च विषं सर्वतोऽस्ति किं समानत्वं भवति ? किन्तु पुरुषाणां प्रथमसंहननवलेन दोषविनाशको मुक्तियोग्य विशेषसंयमोऽस्ति । तासि कह संजमो होदि ततः कारणात्तासां कथं संयमो भवतीति ॥ ७ ॥ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५२६ उत्थानिका—आगे कहते हैं कि उनके शरीर में किस तरह लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य पैदा होते हैं ____ अन्वय सहित विशेषार्थ—(इत्थीणं) स्त्रियों के (लिगं हि य यणंतरे णाहिकखपरेसेसु) योनि स्थान में, स्तनों के भीतर, नाभि में व बगलों के स्थानों में (सुहुमुष्पादो) सूक्ष्म मनुष्यों की उत्पत्ति (भणिवो) कही गई है (तासि संजमो कह होदि) इसलिये उनके संयम किस तरह हो सकता है ? यहाँ कोई यह शंका करे कि क्या ये पूर्व में कहे हुए दोष पुरुषों में नहीं होते ? उसका उत्तर यह है कि ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि बिलकुल नहीं होते किन्तु स्त्रियों के भीतर थे दोष अधिकता से होते हैं ? दोषों के अस्तित्व मात्र से ही स्त्री और पुरुष में समानता नहीं है । पुरुष यदि दोष रूपी विष की एक कणिका मात्र है तब स्त्री के दोषरूपी विष सर्वथा मौजूद है। इसके सिवाय पुरुषों के पहला वनवृषभनाराचसंहनन भी होता है जिसके बल से सर्प दोषों का नाश करने वाला मुक्ति के योग्य विशेष संयम हो सकता है ॥२२४-७॥ अथ स्त्रीणां तद्भवमुक्तियोग्यां सकलकर्मनिर्जरा निषेधयति जदि दसणेण सुद्धा सुत्तजनयणेण चाबि संजुत्ता। घोरं चरदि व चरियं इत्यिस्स ण णिज्जरा मणिदा ॥२२४-८।। जदि वंसणेण सुद्धा यद्यपि दर्शनेन सम्यक्त्वेन शुद्धाः सुत्तज्झयणेण चावि संजुत्ता एकादशाङ्गसू बाध्ययनेनापि संयुक्ता घोरं घरदिय चरियं घोरं पक्षोपवासमासोपवासादि चरति वा चारित्रं इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिवा तथापि स्त्रीजनस्य तद्भवकर्मक्षययोग्या सकलनिर्जरा न भणितेति भावः। किंच यथा प्रथमसंहनन नाभावात्स्त्री सप्तमनरकं न गच्छति तथा निर्वाणमपि । “पंवेदं वेवंता पुरिसा जे खवयसेडिमारूता । सेसोदयेणवि तहा माणुवजुत्ता य ते दु सिमंति" इति गाथाकथितार्थाभिप्रायेण भावस्त्रीणां कथं निर्वाणमिति चेत् ? तासां भावस्त्रीणां प्रथमसंहननमस्ति द्रव्यस्त्रीवेदाभावात्तद्भवमोक्षपरिणामप्रतिबन्धकतीव्रकामोद्रेकोऽपि नास्ति। द्रव्यस्त्रीणां प्रथमसंहननं नास्तीति कस्मिनागमे कथितमास्त इति चेत् ? तत्रोदाहरणगाथा--"अंतिमतिगसंघडणं णियमेण य कम्मभूमिमहिलाणं । आदिमतिगसंघडणं णस्थि त्ति जिणेहि णिद्दिळं ॥१॥" अथ मतं—यदि मोक्षो नास्ति तर्हि भवदीयमते किमर्थमजिकानों महावतारोपणम् ? परिहारमाह-तदुपचारेण कुलव्यवस्थानिमित्तम । नचोपचारः साक्षाद्भवितुमर्हति अग्निवत् क्रूरोऽयं देवदत्त इत्यादिवत् । तथाचोक्तम्-मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते। किन्तु यदि तद्भवे मोक्षो भवति स्त्रीणां तर्हि शतवर्षदीक्षिताया अजिंकाया अद्यदिने दीक्षितः साधुः कथं बन्यो भवति ? संव प्रथमतः किं न वन्द्या भवति साधोः ? किन्तु भवन्ते मल्लितीर्थंकरः स्त्रीति कथ्यते तदप्ययुक्तम् । तीर्थकरा हि सम्यग्दर्शनविशुद्धादिषोडशभावना: पूर्वभवे भावयित्वा पश्चाद्भवन्ति । सम्यग्दृष्टे स्त्रीवेदकर्मणो बन्ध एव नास्ति कथं स्त्री भविष्यतीति । किं च यदि मल्लितीर्थंकरो बान्यः कोऽपि वा Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो स्त्री भूत्वा निर्वाणं गतः तहि स्त्रीरूपप्रतिमाराधना कि न क्रियते भवद्भिः ? यदि पूर्वोक्तदोषाः सन्ति स्त्रीणां तहि सीतारुक्मिणीकुन्तीद्रौपदीसुभद्राप्रभूतयो जिनदीक्षां गृहीत्वा विशिष्टतपश्चरणेन कथं षोडशस्बर्गे गता इति चेत् ? परिहारमाह-तत्र दोषो नास्ति तस्मात्स्वर्गादागत्य पुरुषवेदेन मोक्षं यास्यन्त्यग्रे । तद्भवमोक्षो नास्ति भवान्तरे भवतु को दोष इति । इदमत्र तात्पर्य-स्वयं दस्तुस्वरूपमेव ज्ञातव्यं परं प्रति विवादो न कर्त्तव्यः । कस्मात् ? विवादे रागद्वेषोत्पत्तिर्भवति ततश्च शुद्धात्मभावना नश्यतीति || उत्थानिका--आगे और भी निषेध करते हैं कि स्त्रियों के उसी भव से मुक्ति में जाने योग्य सर्व कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(जदि दंसणेण सुद्धा) यद्यपि कोई स्त्री सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हो (सुत्तज्यणेण चावि संजुत्ता) तथा शास्त्र के ज्ञान से भी संयुक्त हो (घोरं चरियं चरदि) और घोर चारित्रको भी आचरण करे (इत्यिस्स णिज्जरा ण भणिया) तो भी स्त्री के सर्व कर्म यी निर्जश नहीं कही गई है । यदि कोई स्त्री शुद्ध सम्यक्त्व की धारी हो व ग्यारह अंग सूत्रों का अध्ययन करने वाली हो, पक्ष का या मास का उपवास आदि घोर चारित्र को आचरण करने वाली हो, तथापि उसकी ऐसी निर्जरा नहीं हो सकती, जिससे स्त्री उसी भध में सर्व कर्म को क्षयकर मोक्ष प्राप्त कर सके। इस कहने का प्रयोजन यह है कि जैसे प्रथम संहनन वनवृषभनाराच के न होने के कारण सातवें नरक नहीं जा सकती तैसे ही वह निर्वाण को भी नहीं प्राप्त कर सकती है। शंका-जैसे पुरुष वेद के उदय वाले पुरुष क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हो जाते हैं वैसे ही स्त्री व नपुसक वेद के उदय वाले पुरुष भी ध्यान में लीन हो क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर सिद्ध हो जाते हैं-इस गाथा में भाव स्त्रियों को निर्वाण होना क्यों कहा है ? ___ समाधान-भाव स्त्रियों के प्रथम संहनन होता है, द्रव्य-स्त्री वेद नहीं होने से उनके उसी भव में मोक्ष के भावों को रोकने वाला तीव्र काम का वेग भी नहीं होता है। द्रव्य स्त्रियों को प्रथम संहनन नहीं होता है क्योंकि आगम में ऐसा ही कहा है___कर्म भूमि की स्त्रियों के अन्त के तीन संहनन नियम से होते हैं तथा आदि के तीन नहीं होते हैं ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है। ____ शंका-यदि स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता है तो आपके मत में किसलिये आथिकाओं को महाव्रतों का आरोपण किया गया है ? ____समाधान—यह उपचार कथन कुल की व्यवस्था के निमित्त कहा है। जो उपचार कथन है वह साक्षात् नहीं होता। जैसे यह कहना कि यह देवदत्त अग्नि के समान क्रूर Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारो] [ ५३१ त्यादि । इस दृष्टान्त में अग्नि का मात्र दृष्टान्त है, देवदत्त साक्षात् अग्नि नहीं। इसी स्त्रियों के महाव्रत जैसा आचरण है, महाव्रत नहीं, क्योंकि मुख्य का अभाव होने पर प्रयोजन तथा निमित्त के वश उपचार प्रवर्तता है, ऐसा आर्ष वाक्य है । र को स्त्री कहा है सो ठीक नहीं है। निशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं को यदि स्त्रियों को तद्भव मोक्ष हो सकता हो तो सौ वर्ष को दीक्षित आर्यिका आज हो मा लेने वाले साधु को क्यों वंदना करती है ? चाहिये तो यह था कि पहले यह नया ति साधु हो उसको बन्दना करता, सो ऐसा नहीं है । तथा आपके मत में मल्लि तीर्थंकर वे ही होते हैं जो पूर्व भव में दर्शनभा करके तीर्थंकर नामकर्म बांधते हैं । जीव के स्त्रीवेद कर्म का बन्ध ही नहीं होता है फिर सम्यग्दृष्टि किस तरह पर्याय में पैदा होगा। तथा यदि ऐसा माना जायेगा कि मल्लि तीर्थंकर व अन्य कोई स्त्री होकर फिर निर्वाण को गए तो स्त्री रूप की प्रतिमा की आराधना क्यों नहीं आप लोग करते हैं। शंका- यदि स्त्रियों में पूर्व लिखित दोष होते हैं तो सीता, रुक्मिणी, कुन्ती, द्रौपदी, महा आदि जिनदीक्षा लेकर विशेष तपश्चरण करके किस तरह सोलहवें स्वर्ग में समाधान -- उनके स्वर्ग जाने में कोई दोष नहीं है । वे उस स्वर्ग से आकर पुरुष हर मोक्ष जावेंगी, स्त्रियों को तद्भव मोक्ष नहीं है किन्तु अन्य भाव में उस आत्मा को हो, इसमें कोई दोष नहीं है । यहां यह तात्पर्य है कि स्वयं वस्तु स्वरूप को हो समझना चाहिये केवल विवाद करना उचित नहीं है, क्योंकि विवाद में राग द्वेष की उत्पत्ति होती है जिस कारण से शुद्ध एल्मा की भावना नष्ट हो जाती है ।।२२४-८॥ अथोपसंहाररूपेण स्थितपक्षं दर्शयति ; तम्हा सं पडिरूवं लिंगं तासि जिणेहि णिद्दिट्ठ । कुलरुववओजसा समणीओ तस्समाचारा ॥ २२४-६॥ सम्हा यस्मात्तद्भवे मोक्षो नास्ति तस्मात्कारणात् तं पडिरूवं लिंगं तासि जिर्णोहि णिद्दिट्ठ तिरूपं वस्त्रप्रावरणसहितं लिङ्ग चिन्हं लाञ्छनं तासां स्त्रीणां जिनवरैः सर्वज्ञेनिर्दिष्ट कथितम् । भत्ता समणीओ लोकदुगुच्छारहितत्वेन जिनदीक्षायोग्यं कुलं भण्यते । अन्तरङ्गतिविकारबहिरङ्गनिर्विकारं रूपं भण्यते । शरीरभङ्गरहितं वा अतिबालवृद्धबुद्धिवैकल्यरहितं मष्यते । तैः कुलरूपवयोभिर्युक्ताः कुलरूपवयोयुक्ता भवन्ति ? काः श्रमण्याजिकाः । पुनरपि Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ ] । पवयणसारो किविशिष्टाः ? तस्समाचारा तासां स्त्रीणां योग्यस्तद्योग्य आचारशास्त्रविहिःतसमाचार आचार आचरणं यासां तास्तत्समाचारा इति ।।२२४-६।। उत्थानिका-आगे इस विषय को संकोचते हुए स्त्रियों की व्रतों में क्या स्थिति है उसे समझाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(तम्हा) इसलिये (सासि लिंग) उन स्त्रियों का चिन्ह या भेष (तं पशिलवं) वस्त्र सहित (जिहि णिद्दि) जिनेंद्रों ने कहा है । (कुलरूववओजुत्ता) कुल, रूप, वय सहित (तस्समाचारा) जो उनके योग्य आचरण हैं उनको पालने वाली (समणीओ) अजिकाएं होती हैं । क्योंकि स्त्रियों को उसी भव से मोक्ष नहीं होता है, इसलिये सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान ने उन आयिकाओं का लक्षण या चिह्न वस्त्र आच्छादन सहित कहा है। उनका कुल लौकिक में घणा के योग्य नहीं, ऐसा जिनदीक्षा योग्य कुल हो। उनका स्वरूप ऐसा हो कि जो बाहर में भी विकार से रहित हो तथा अन्तरंग में भी उनका चित्त निविकार व शुद्ध हो तथा उनकी वय या अवस्था ऐसी हो कि शरीर में जीर्णपना या भंग न हुआ हो, न अति बाल हों, न युद्ध हों, न बुद्धि-रहित मूर्ख हों, आचार शास्त्र में उनके योग्य जो आचरण कहा गया है उसको पालने वाली हों, ऐसी आयिकाएं होनी चाहिये ॥२२४-६॥ अथेदानी पुरुषाणां दीक्षाग्रहणे वर्णव्यवस्थां कथयति वण्णेसु सीसु एक्को कल्लाणंगो तबोसहो वयसा । सुमुहो कुच्छारहिवो लिगग्गहणे हदि जोग्गो ॥२२४-१०॥ वणेसु तीसु एक्को वर्णेषु त्रिस्वेक: ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यवर्णेष्वेक: कल्लाणंगो कल्याणाङ्ग आरोग्यः तवोसहो वयसा तपःसहः तपःक्षमः । केन ? अतिवृद्धबालत्वरहितवयसा सुमुहो निर्विकाराभ्यन्तरपरमचैतन्यपरिणतिविशुद्धिज्ञापकं गमकं बहिरङ्गनिर्विकारं मुखं यस्य मुखाक्यवभङ्गरहितं वा स भवति सुमुखः कुच्छारहिदो लोकमध्ये दुराचाराद्यपवादरहितः लिंगाहणे हवदि जोग्गो एवं गुणविशिष्टपुरुषो जिनदीक्षाग्रहणे योग्यो भवति । यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि ।।२२४-१०।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो पुरुष दीक्षा लेते हैं उनकी वर्ण व्यवस्था क्या होती है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(तीस वणेसु एक्को) तीन वर्षों में से एक वर्ण वाला (कल्लाणंगो) आरोग्य शरीर धारी, (तवोसहो) तपस्या को सहन करने वाला, (वयसा सुमुहो) बावस्था से सुन्दर मुख वाला तथा (कुच्छारहिवो) अपवाद रहित (लिंगरगहणे जोगो हवदि) पुरुष साधु भेष के लेने योग्य होता है। जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीन वर्गों Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५३३ में से कोई एक वर्ण धारी हो, जिसका शरीर नीरोग हो, जो तप करने को समर्थ हो, अतिवृद्ध व अतिबाल न होकर योग्य वय सहित हो, जिसका मुख का भाग भंग दोष रहित निर्विकार हो तथा वह इस बात का बसलाने वाला हो कि इस साधु के भीतर निर्विकार परमचैतन्य परिणति शुद्ध है तथा जिसका लोक में दुराचारावि के कारण से कोई अपवाद न हो ऐसा गुणधारो पुरुष ही जिनदीक्षा ग्रहण के योग्य होता है तथा सत् शूद्र आदि भी यथायोग्य व्रतों को दीक्षा ले सकते हैं ॥२२४-१०॥ अथ निश्चयनयाभिप्रायः कथयति जो रयणतयणासो सो भंगो जिणवरेहि णिदिवट्ठो । सेसं भंगेण पुणो ण होदि सल्लेहणाअरिहो ॥१२४-११ जो रयणत्तयणासो सो मंगो जिणवरेहि णिहिट्ठो यो रत्नत्रयनाश: स भङ्गो जिनवरनिर्दिष्ट:। विशुद्धशानदर्शनस्वभावानजपरमात्मतत्वसम्बश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपो योऽसौ निश्चयरत्नत्रयस्वभावस्तस्य विनाशः स एव निश्चयेन नाशो भङ्गो जिनवरनिर्दिष्ट: सेसं भंगेण पुणो शेषभंगेन पुनः शेषखण्डमुण्डबातवृषणादिभंगेन ण होदि सल्लेहणाअरिहो न भवति सल्लेखनाहः लोकदुगुञ्छाभयेन निर्ग्रन्थरूपयोम्यो न भवति । कौपीनग्रहणेन तु भावनायोग्यो भवतीत्यभिप्रायः ॥११॥ __ एवं स्त्रीनिर्वाणनिराकरणव्याख्यानमुख्यत्वेनैकादशगाथाभिस्तृतीयं स्थलं गतम् । उत्थानिका-आगे निश्चय भय का अभिप्राय कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(जो रयणत्तयणासो) जो रत्नत्रय का नाश है (सो भंगो जिणवरेहि णिद्दिद्यो) उसको जिनेन्द्रों ने व्रतभंग कहा है (पुणो सेस भंगेण) तथा शरीर के भंग होने पर पुरुष (सल्लेहणा अरिहो ण होदि) साधु के समाधिमरण के योग्य नहीं होता है । विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव निज परमात्मतत्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व चारित्ररूप जो आत्मा का निश्चल स्वभाव है उसका नाश सोही निश्चय से भंग है, ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है । तथा शरीर के भंग होने पर अर्थात् मस्तक भंग, अण्डकोष या लिंग भंग (वृषण भंग) वात-पीड़ित आदि शरीर की अवस्था होने पर कोई समाधिमरण के योग्य नहीं होता है अर्थात् लौकिक में निरावर के भय से निग्रंथ मेष के योग्य नहीं होता है। यदि कौपीन मात्र भी ग्रहण करे तो साधु पद की भावना करने के योग्य होता है। भावार्थ-स्त्रियों के तीन अन्त के ही संहनन होते हैं जिससे यह मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकती । १६ स्वर्ग से ऊपर तथा छठे नरक के नीचे स्त्री का गमन नहीं हो सकता है, न यह सातवें नरक जा सकती, न वेयक आदि में जा सकती है । श्वेताम्बर लोग स्त्रियों के मोक्ष की कल्पना करते हैं सो बात उन्हीं के शास्त्रों से विरोध रूप भासती है। कुछ श्वेताम्बरी शास्त्रों की बातें Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ ] [ पत्रयणसारो श्वेताम्बर सप्ततिका नामा छठा कर्म ग्रन्थ गाथा ४७ की टीका में निम्न गाथा आयी है, जिसमें कि स्त्री को चौदहवां पूर्व पढ़ने का निषेध है, सूत्र में कहा हैतुच्छागारवबहुला चलविआ दुम्बला अधोइए । इय अवसे सज्जपणा भू अऊडा अनोच्छीणं ॥१॥ अर्थ — भूतवाद अर्थात् वृष्टिवाद नाम का बारहवां अंग स्त्री को नहीं पढ़ना चाहिये क्योंकि स्त्री जाति स्वभाव से तुच्छ ( हल्की ) होतो है, गर्व अधिक करती है, विद्या झेल नहीं सकसी, इन्द्रियों की चंचलता स्त्रियों में विशेष होती है, स्त्री को बुद्धि दुर्बल होती है । श्वेताम्बर प्रवचनसारोवार - प्रकरण रत्नाकर भाग तीसरा (सं० १६६४ भोम सेन माणक जी बम्बई ) पृष्ठ ५४४-४५ में है कि स्त्रियों को नीचे लिखी बातें नहीं हो सकती हैं अरहंत चक्कि केसव बल संभिनेय चारणे पुब्बा । गणहर पुलाय आहारगं च न हु भवियमहिलाणं ॥ ५४० ॥ अर्थ - अरहंत, चक्री, नारायण, बलदेव, संभिन्नश्रोता, विद्याचारणादि, पूर्व का ज्ञान, गणधर, पुलाकपना, आहारक शरीर मे वश लब्धियां भव्य स्त्री के नहीं होती हैं । श्येताम्बर प्रवचनसारोद्वार प्रकरण रत्नाकर चौथे भाग का षडशीति नामक चतुर्थ कर्म ग्रन्थ पृष्ठ ३६८ चौथे गुणस्थान में स्त्रीवेद के उदय होते हुए औवारिक मिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण ये तोन योग प्रायः नहीं होते हैं । अर्थात् सम्यग्दृष्टि स्त्री पर्याय में नहीं उपजता है । इस प्रकार स्त्री निर्वाण निराकरण के व्याख्यान की मुख्यता से ग्यारह गाथाओं के द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ । अथ केऽपवाद विशेष इत्युपदिशति उवयरणं जिणमग्गे लिंग जहजादरूवमिदि भणिदं । गुरुवयणं पिय विणओ सुत्तज्झयणं च णिद्दिट्ठ ॥ २२५ ॥ उपकरणं जिनमार्गे लिङ्ग यथाजातरूपमिति भणितम् । गुरुवचनमपि च विनयः सूत्राध्ययनं च निर्दिष्टम् ॥ २२५॥ यो हि नामाप्रतिषिद्धोऽस्मिन्नुपधिरपवादः स खलु निखिलोऽपि श्रामण्यपर्याय सहकारिकारणत्वेनोपकारकारकत्वादुपकरणभूत एव न पुनरन्यः । तस्य तु विशेषाः सर्वाहार्यंव Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५३५ जितसहजरूपापेक्षितयथाजातरूपत्वेन बहिरंगलिंगभूताः कायपुद्गलाः श्रूयमाणतत्कालबोधकगुरुगीर्यमाणात्मतत्त्वद्योतकसिद्धोपदेशपचनपुद्गलास्तथाधीयमाननित्यबोधकानादिनिधन • शुद्धात्मतत्त्वद्योतनसमर्थश्रुतज्ञानसाधनीभूतशब्दात्मकसूत्रपुद्गलाश्च शुद्धात्मतत्त्वव्यञ्जकवर्शनादिपर्यायतत्परिणतपुरुषविनीतताभिप्रायप्रवतंकचित्तपुद्गलाश्च भवन्ति । इदमत्र तात्पर्य, कायवद्वचनमनसी अपि न वस्तुधर्मः ॥२२॥ भूमिका- अब, अपवाद के भेद कौन से हैं ? सो कहते हैं अन्धयार्थ- [यथाजातरूपं लिंगं] यथाजातरूप (जन्मजात-नग्न) लिंग [जिनमार्गे] जिनमार्ग में [उपकरणं इति भणितम् | उपकरण कहा गया है, [गुरुवचनं] गुरु के वचन; [सूत्राध्ययनं ज] सूत्रों का अध्ययन [च] और [विनयः अपि] विनय भी [निर्दिष्टम् ] उपकरण कहे गये हैं। ___टीका-इसमें जो अनिषिद्ध उपधिरूप अपवाद है, वह सभी वास्तव में ऐसा ही है कि जो श्रामण्य पर्याय के सहकारी कारण के रूप में उपकार करने वाला होने से उपकरणभूत है, दूसरा नहीं। उसके विशेष (भेव) इस प्रकार हैं--(१) सर्व औपाधिक भावों से रहित स्वाभाविक यथाजातरूपत्व के कारण जो बहिरंग लिंगभूत हैं, ऐसी पुद्गलकाय (२) जिनका श्रवण किया जाता है ऐसे तत्कालबोधक, गुरुद्वारा कहे जाने पर आत्मतत्व-योतक, अमोघ उपदेश रूप पौगलिकवचन तथा (३) जिनका अध्ययन किया जाता है ऐसे, नित्यबोधक, अनादिनिधन शुद्ध आत्मतत्व को प्रकाशित करने में समर्थ श्रुतज्ञान के साधनभूत शब्दात्मक सूत्रपौद्गलिक और (४) शुद्ध आत्मतत्व को व्यक्त करने वाली जो दर्शनादिक पर्याय और उन रूप से परिणत पुरुष के प्रति विनय का अभिप्राय प्रवर्तित करने वाला पौद्गलिकमन, ये पौद्गलिक काय वचन मन उपकरण हैं। यहां यह तात्पर्य है कि काय की भांति वचन और मन भी वस्तु धर्म नहीं है किन्तु उपकारक होने से उपकरण है ॥२२॥ ___तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वोक्तस्योपकरणरूपापवादव्याख्यानस्य विशेषविवरणं करोति इदि भणिदं कथितम् । किम् ? उवयरणं उपकरणं । क्व ? जिणमगे जिनोक्तमोक्षमार्गे । किमुपकरणम् ? लिंग शरीराकारपुद्गल पिण्डरूपं द्रव्यलिङ्गम् । कि विशिष्टम् ? जहजादरूवं यथाजातरूपं यथाजातशब्देनात्र व्यवहारेण सङ्गपरित्यागयुक्तं नग्न रूपं निश्चयेनाभ्यन्तरेण शुद्धबुद्धकस्वभाव परमात्मस्वरूपं गुरुवयणं पि य गुरुवचनमपि निर्विकारपरमचिज्योतिःस्वरूपपरमात्मतत्त्वप्रतिबोधकं सारभूतं सिद्धोपदेशरूपं गुरूपदेशवचनं । न केवलं गुरूपदेशवचनं सुस्तक्षयणं च आदिमध्यान्तजितजातिजरामरणरहितनिजात्मद्रव्यप्रकाशसूत्राध्ययनं च परमागमवाचनमित्यर्थः । णिद्दिठं उपकरणरूपेण निर्दिष्टं Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ ] । पवयणसारो कथितम् । विणओ स्वकीयनिश्चयरत्नत्रयशुद्धिनिश्चयविनयः तदाधारपुरुषेषु भक्तिपरिणामो व्यवहारविनयः । उभयोऽपि विनयपरिणाम उपकरणं भवतीति निर्दिष्टः । अनेन किमुक्तं भवति-निश्चयेन चतुविधमेवोपकरणम् । अन्यदुपकरणं व्यवहार इति ॥२२५!! उत्थानिका—आगे पूर्व में कहे हुए उपकरणरूप अपवाद व्याख्यान का विशेष वर्णन करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ--(जिणमग्गे) जिनधर्म में, मोक्षमार्ग में (उययरणं) उपकरण (जहजादरूवं लिग इदि मणि) यथाजातरूप नग्न भेष कहा है (गुरुवयण पि य) तथा गुरु से धर्मोपदेश सुनना (विणओ) गुरुओं आदि की विनय करना (सुत्तज्मयणं च पण्णत्त) तथा शास्त्रों का पढ़ना भी उपकरण कहा गया है। जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए मोक्षमार्ग में उपकरण इस भांति कहे गए हैं (१) व्यवहारनय से सर्व परिग्रह से रहित शरीर के आकार पुद्गल पिंडरूप द्रव्यलिंग तथा निश्चय से भीतर मन के शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप परमात्मा का स्वरूप (२) विकार रहित परमचैतन्यज्योति स्वरूप परमात्मतत्व के बताने वाले सार भूत और सिद्ध अवस्था के उपदेशक गुरु के वचन (३) आदि मध्य अन्त से रहित छ जन्म जरा मरण से रहित निज आत्मद्रव्य के प्रकाश करने वाले सूत्रों का पढ़ना-परमागम का वचना (४) अपने ही निश्चय रत्नत्रय की शुद्धि से निश्चयविनय और उसके आधार रूप पुरुषों में भक्ति का परिणाम सो व्यवहारविनय बोनों ही प्रकार के विनय परिणाम ऐसे चार उपकरण कहे गए हैं, यही वास्तव में उपकारी हैं। अन्य कोई कमंडलादि व्यवहार में उपकरण हैं ।।२२५॥ अयप्रतिषिद्धशरीरमात्रोपधिपालन विधानमुपविशति इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्हि लोयम्हि । जुत्ताहारविहारो रहिवकसाओ हवे समणो ॥२२६।। इहलोकनिरापेक्षः अप्रतिबद्धः परस्मिन् लोके । युक्ताहारविहारो रहितकषायो भवेन् श्रमणः ।।२२६।। ___ अनादिनिधनकरूपशुद्धात्मतत्यपरिणतत्वादखिलकर्मपुद्गल विपाकात्यन्तविविक्त - स्वभावत्वेन रहितकषायत्वातदात्यमनुष्यत्वेऽपि समस्तमनुष्यव्यवहारबहिर्भूतत्वेनेहलोकनिरपेक्षत्वत्तथाषिष्यदमादिभावानुभूतितृष्णाशून्यत्वेन परलोकाप्रतिबद्धत्वाच्च परिच्छेद्यार्थीपलम्भप्रसिद्धयर्थप्रदीपपूरणोत्सर्पणस्थानीयाभ्यां शुद्धात्मतत्वोपलम्भप्रसिद्ध्यर्थतच्छरीरसंभोजनसंचलनाभ्यां युक्ताहारविहारो हि स्यात श्रमणः । इदमत्र तात्पर्यम्-यतो Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५३७ हि रहितकषायः ततो न तच्छरीरानुरागेण दिव्यशरीरानुरागेण वाहारविहारयोरयुक्त्या प्रवर्तेत । शुद्धात्मतत्वोपलम्मसाधकश्रामण्यपर्यायपालनायक केवलं युक्ताहारविहारः स्यात् । २२६॥ भूमिका-अब, अनिषिद्ध शरीर मात्र उपधि के पालन की विधि का उपदेश करते अन्वयार्ष-] श्रमणः] मुनि [रहितकषायः ] कषाय रहित होता हुआ [इहलोक निरपेक्षः] इस लोक में विषयाभिलाषा रहित होता हुआ और [परस्मिन् लोके] परलोक में [अप्रतिबद्धः] देवादि पर्याय की इच्छा नहीं करता हुआ [युक्ताहारविहारः भवेत् ] योग्य आहार विहार में प्रवृत्ति करता है। टीका-अनाविनिधन एकरूप शुद्ध आत्मतत्व में परिणत होने से श्रमण समस्त कर्म-पुद्गल के विपाक से अत्यन्त विविक्त (भिन्न) स्वभाव के द्वारा कषायरहित होने से, वर्तमान काल में मनुष्यत्व के होते हुये भी स्वयं समस्त मनुष्य व्यवहार से उदासीन होने के कारण इस लोक के प्रति निरपेक्ष (निस्पृह) है, तथा भविष्य में होने वाले देवादि के भोगों की तृष्णा से रहित होने के कारण परलोक के प्रति अप्रतिबद्ध (वांछा से रहित) है, इसलिये, जैसे घटपटादि पदार्थों को देखने के लिये ही दीपक में तेल डाला जाता है और बत्ती आदि ठीक करते हैं; उसी प्रकार श्रमण शुद्धात्मा को प्राप्त करने के लिये ही उस शरीर को खिलाता और चलाता है, इसलिये युक्ताहार विहारी होता है। यहां तात्पर्य यह है कि-श्रमण कषाय रहित है, इसलिये वह वर्तमान मनुष्य शरीर के अनुराग से या दिव्यशरीर के अर्थात् भावी देवशरीर के अनुराग से आहार विहार में अयुक्त रूप से प्रवृत्ति नहीं करता किन्तु शुद्धात्मतत्व की प्राप्ति के साधनभूत श्रामण्यपर्याय के पालन के लिये ही मात्र योग्य आहार विहार में प्रवृत्ति करता है । तात्पर्यवृत्ति अथ युक्ताहारविहारलक्षणतपोधनस्य स्वरूपमाख्याति; -- इहलोगणिरावेक्खो इलोकनिरापेक्षः टोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावनिजात्मसंवित्तिविनाशकख्यातिपूजालाभरूपेहलोककांक्षारहितः अपडिबद्धो परम्हि लोयमिह अप्रतिवद्धः परस्मिन् लोके तपश्चरणे कृने दिव्यदेबस्त्रीपरिबारादिभोगा भवन्तीति, एवंविधपरलोके प्रतिबद्धो न भवति जुत्ताहारविहारो हवे युक्ताहारविहारो भवेत् । स कः ? समणो श्रमणः । पुनरपि कथंभूतः ? रहिवकसाओ नि:कषायस्वरूपसंवित्त्यवष्टंभवलेन रहितकषायश्चेति । अयमत्र भावार्थ:-योऽसौ इहलोकपरलोकनिरपेक्षत्वेन निःकषायत्वेन च प्रदीपस्थानीयशरीरे तैलस्थानीय प्रासमात्रं दत्वा घटपटादिप्रकाश्यपदार्थस्थानीय निजपरमात्मपदार्थमेव निरीक्षते स एव युक्ताहारविहारा भवति न पुनरन्यः शरीरपोषणनिरत इति ॥२२६।।। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ ] पवयणसारो उत्थागिता-काने का आहार विहार को करते हुए तपोधन का स्वरूप कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(इहलोगणिरावेक्खो) जो इस लोक की इच्छा से रहित है, (परम्हि लोपम्हि अप्पडिबद्धो) परलोक सम्बन्धी अभिलाषा से रहित है, (रहिदकसाओ) व क्रोधादि कषायों से रहित है ऐसा (समणो) साधु (जुत्ताहारविहारो) योग्य आहार विहार करने वाला होता है। जो साधु टांकी से उकेरे के समान अमिट ज्ञाता दृष्टा एक स्वभाव रूप निज आत्मा के अनुभव के नाश करने वाली इस लोक में प्रसिद्धि, पूजा व लाम रूप अभिलाषाओं से शून्य है, परलोक में तपश्चरण करने से देवपद व उसके साथ स्त्री, देव परिवार व भोग प्राप्त होते हैं ऐसी इच्छा से रहित है, तथा कषाय रहित आत्मस्वरूप के अनुभव की स्थिरता के बल से कषाय रहित वीतरागी है वही योग्य आहार व विहार को करता है। यहाँ यह भाव है कि जो साधु इस लोक व परलोक की इच्छा छोड़कर व क्रोध लोभादि के वश न होकर इस शरीर को प्रदीप समान जानता है तथा इस शरीर रूपो-दीपक के लिये आवश्यक तैल रूप ग्रास मात्र को देता है, जिससे शरीररूपी दीपक बुझ न जावे । तथा जैसे दीपक से घट पट आदि पदार्थों को देखते हैं वैसे इस शरीररूपी दीपक की सहायता से वह साधु अपने परमात्म-पदार्थ को ही देखता या अनुभव करता है वही साधु योग्य आहार विहार करने वाला होता है । परन्तु जो शरीर को पुष्ट करने के निमित्त भोजन करता है वह युक्ताहार-विहारी नहीं है ॥२२६।। अथ पञ्चदशप्रमादैस्तपोधनः प्रमत्तो भवतीति प्रतिपादयति ; कोहादिरहि चउविहि विकहाहि तहिवियाणमस्थेहि । समणो हवदि पमत्तो उवजुत्तो णिहाहि ॥२२६-१॥ हववि क्रोधादिपंचदशप्रमादरहितचिच्चमत्कारमात्रात्मतत्त्वभावनाच्युतः सन् भवति। स कः कर्ता समणो सुखदुःखादिसमचित्तः श्रमणः । किविशिष्टो भवति ? पमत्तो प्रमत्तः प्रमादी । कैः कृत्वा ? कोहादिएहि चविहि चतुभिरपि क्रोधादिभिः विकहाहि स्त्रीभक्तचौरराजकथाभिः तहिदियाणमत्थेहि तथैव पञ्चेन्द्रियाणामथुः स्पर्शादिविषयः । पुनरपि किरूप: ? उबजुत्तो उपयुक्तः परिणतः । काभ्याम् ? हणिवाहि स्नेहनिद्राभ्यामिति ॥२२६-१॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि पन्द्रह प्रमाद हैं इनसे साधु प्रमादी होता है । अन्वय सहित विशेषार्थ—(चउविहि कोहादिएहि विकहाहि) चार प्रकार क्रोध आदि कषाय से व चार प्रकार विकथा-स्त्रो, भोजन, चोर, राजा कथा से (तहिदियाणमत्थेहि) तथा पांच इंद्रियों के विषयों से (हणिवाहि उवजुत्तो) स्नेह व निद्रा से उपयुक्त होकर (समणो) साधु (पमत्तो हवदि) प्रमावी होता है। सुख-दुःख आदि में समान चित्त रखने Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयणसारो ] [ ५३६ वाला साधु उपर्युक्त क्रोधादि पंद्रह प्रमाद से रहित चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मतत्व की भावना से गिरा हुआ पन्द्रह प्रकार के प्रमादों के कारण प्रमादी हो जाता है ।।२२६-१॥ अथ युक्ताहारविहार साक्षादनाहारविहार एवेत्युपदिशति- जस्स असणमप्पा तं पि, तवो तप्पडिच्छगा समणा । अण्णं भिक्खमणे सण मध ते समणा अणाहारा ॥ २२७॥ यस्यानेषण आत्मा तदपि तपः तत्प्रत्येषकाः श्रमणाः । अन्य क्षमनेषणमथ ते श्रमणा अनाहाराः || २२७॥ स्वयमनशनस्वभावत्वादेषणादोषशून्य लक्ष्यत्याच्च युक्ताहारः साक्षादनाहार एव स्यात् । तथाहि यस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाह रणशून्यमात्मानमवबुद्धयमानस्य सकलाशनतृष्णा शून्यत्वात्स्वयमनशन एव स्वभावः तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽन्तरङ्गस्य बलोयस्त्वात् । इति कृत्वा ये तं स्वयमनशनस्वभावं भावयन्ति श्रमणाः, तत्प्रतिषिद्धये चैषणा दोषशून्यमन्यभैक्षं चरन्ति ते बिलाहरन्तोऽप्यनाहरन्त इव युक्ताहारत्वेन स्वभावपरभावप्रत्यबन्धाभावात्साक्षादनाहारा एव भवन्ति । एवं स्वयमविहारस्वभावत्वात्समितिशुद्धविहारत्वाच्च युक्तविहार: साक्षादविहार एव स्यात् इत्यनुक्तमपि गम्येतेति ॥ २२७॥ भूमिका – अब, युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी ही है, ऐसा उपदेश करते हैं अन्वयार्थ – [ यस्य आत्मा अनेषणः ] जिसका आत्मा भोजन की इच्छा से रहित है [ तत् अपि तपः ] वही तप है ( और ) [ तत्प्रत्येकाः ] उसे प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करने वाले [श्रमणाः ] श्रमणों के [ अन्यत् भैक्षम् ] ( अन्य स्वरूप से रहित ) भिक्षा [ अनेषणम् ] एषणा दोष से रहित होती है, [ अथ ] इसलिये [ते श्रमणाः ] वे श्रमण [ अनाहाराः ] अनाहारी हैं । टीका–स्वयं अनशन स्वभाव वाला होने से और एषणादोष शून्य भिक्षा वाला होने से, युक्ताहारी मुनि साक्षात् अनाहारी ही है । यथा-सदा ही समस्त पुद्गलाहार से शून्य आत्मा को जानने वाले के समस्त अशन कृष्णा रहित होने से जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही अनशन नामक अंतरंग तप है, क्योंकि वह बलवान है। यह समझकर जो श्रमण आत्मा को स्वयं अनशन स्वभाव भाते हैं और उसकी सिद्धि के लिये एषणादोष शून्य ( स्वरूप से पृथक् ) अन्न आदि की भिक्षा आचरते हैं, वे आहार करते हुए भो अनाहारी हैं क्योंकि युक्ताहारित्व के कारण उनके स्वभाव तथा परभाव के निमित्त से बन्ध नहीं होता, इसलिये साक्षात् अनाहारी ही हैं । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ] [ पवयणसारो इसी प्रकार स्वयं अविहार स्वभाव वाला होने से और ईर्या समिति से शुद्ध विहार वाला होने से युक्तविहारी मुनि साक्षात् अविहारी ही है । इस प्रकार गाथा में नहीं कहने पर भी समझना चाहिये ॥२२७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ युक्ताहारविहारतपोधनस्वरूपमुपदिशति जस्स यस्य मुनेः सम्बन्धी अप्पा आत्मा । किविशिष्टः ? अणेसणं स्वकीयशुद्धात्मतत्त्वभावनोपत्रसुखामृताहारेण तृप्तत्वान्न विद्यते एषणमाहाराकांक्षा यस्य स भवत्यनेषणः । संपि तवो तस्य तदेव निश्चयेन निराहारात्मभावनारूपमुपवासलक्षणं तपः तं पडिन्छगा समणा तत्प्रत्येषकाः श्रमणाः तन्निश्चयोपवासलक्षणं तपः प्रतीच्छन्ति तत्प्रत्येषकाः श्रमणाः । पुनरपि कि येषां? अण्णं निजपरमात्मतत्त्वादन्यदिन्नं हेयं । किं ? अणेसणं अन्नस्याहारस्यषणं वाञ्छानेषणम् । कथंभूतं ? भिक्खं भिक्षायां भवं भक्ष्यं अह अथ अहो ते समणा अणाहारा ते अनशनादिगुणविशिष्टाः श्रमणा आहारग्रहणेऽप्यनाहारा भवन्ति । तथैव च नि:क्रियपरमात्मानं ये भावयन्ति पञ्चसमितिसहिता विहरन्ति च ते विहारेऽप्य बिहारा विहारा भवन्ती- त्यर्थः ।।२२७॥ उत्थानिका~आगे योग्य आहार विहारी साधु का स्वरूप कहते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ-(जस्स) जिस साधु का (अप्पा) आत्मा (असणं) भोजन की इच्छा से रहित है (तपि तवो) सो ही तप है (तं पडिच्छगा) उस तप को चाहने वाले (समणा) मुनि (अणेसणं अण्णं भिवखं) एषणा दोष रहित निषि अन्न की भिक्षा को लेते है (अध ते समणा अणाहारा) तो भी वे साधु आहार लेने वाले नहीं हैं। जिस मुनि की आत्मा में अपने ही शुद्ध आत्मीक तत्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपो अमृत के भोजन से तृप्ति हो रही है वह मुनि लौकिक भोजन की इच्छा नहीं करता है। यही उस साधु का निश्चय से आहार रहित आत्मा को भावना रूप उपवास नाम का तप है। इसी निश्चय उपवास रूपी तप की इच्छा करने वाले साधु अपने परमात्मतत्व से भिन्न त्यागने योग्य अन्न की निर्दोष भिक्षा को लेते हैं तो भी वे अनशन आदि गुणों से भूषित साधुगण आहार को ग्रहण करते हुए भी अनाहारी होते हैं। तैसे ही जो साधु क्रिया रहित परमात्मा की भावना करते हैं वे पांच समितियों को पालते हुए विहार करते हैं तो भी वे बिहार नहीं करते हैं अर्थात् अविहारी हैं ॥२२७॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५४१ अथ कुतो युक्ताहारत्वं सिद्धयतीत्युपदिशति केवल देहो लामो देहे ण प्रमत्ति' रहिदपरिकम्मो । आज तो ते तवसा अणिगूहिय अप्पणो सत्ति ॥२२८।। केवलदेहः श्रमणो देहे न ममेति रहितपरिकर्मा । आयुक्तवांस्तं तपसा अनिगृह्यात्मनः शक्तिम् ॥२२८!। यतो हि श्रमणः श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्धेन केवलदेहमात्रस्योपधेः प्रसह्याप्रतिवेधकत्वात्केवलदेहत्वे सत्यपि देहे कि किचण' इत्यादिप्राक्तनसूत्रद्योतितपरमेश्वराभिप्रायपरिग्रहेण न नाम ममायं ततो नानुग्रहाहः किंतूपेक्ष्य एवेति परित्यक्तसमस्तसंस्कारत्वाद्रहितपरिकर्मा स्यात् । ततस्तन्ममत्वपूर्वकानुचिताहारग्रहणाभावाद्युक्ताहारत्वं सिद्धयेत् । पतश्च समस्तामप्यात्मशक्ति प्रकटयन्ननन्तरसूत्रोक्तेिनानशनस्वभावलक्षणेन तपसा तं देह सर्वारम्भेणाभियुक्तवात् स्यात् । तत आहार ग्रहणपरिणामात्मकयोगध्वंसाभावाद्युक्तस्यैवाहारेण च युक्ताहारत्वं सिद्धयेत् ॥२२॥ भूमिका-अब, (श्रमण) के युक्ताहारित्व कैसे सिद्ध होता है, सो उपदेश करते हैं अन्वयार्थ-[केबलदेहः श्रमणः] केवलदेहो-जिसके देहमात्र परिग्रह विद्यमान है, ऐसे श्रमण [देहे ] शरीर को भी [न मम इति] 'मेरा नहीं हैं। यह समझकर [रहित. परिकर्मा] शरीर संस्कार नहीं करते हये, [आत्मनः] अपने आत्मा की [शक्ति] शक्ति को [अनिगृह्य] नही छिपाते हुए [तपसा] तप में [तं] उस शरीर को [आयुक्तवान् ] लगा देते हैं। टीका-श्रामण्यपर्याय के सहकारी कारण के रूप में केवल वेहमात्र उपधि को श्रमण जबरदस्ती निषेध नहीं करता इसलिये वह केवल देहवान् है, ऐसा देहवान होने पर भी, "कि किंचण' इत्यादि पूर्वसूत्र (गाथा २२४) द्वारा प्रकाशित किये गये परमेश्वर के अभिप्राय को ग्रहण करके 'यह (शरीर) वास्तव में मेरा नहीं है इसलिये यह अनुग्रह योग्य नहीं है किन्तु वह उपेक्षा योग्य ही है, इस प्रकार समस्त शारीरिक संस्कार को छोड़ने से परिकर्म रहित है। इसलिये उसके देह के ममत्वपूर्वक अनुचित आहारग्रहण का अभाव होने से युक्ताहारित्व सिद्ध होता है। और प्रकारान्तर से उसने समस्त ही आत्मशक्ति को प्रगट करके, अन्तिम (गाथा २२७) सूत्र द्वारा कथित अनशनस्वभावलक्षण तप में उस शरीर को १. ममत्तरहियपरिकम्मो (ज० व०) Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पवयणसारो उद्यम से लगाया है इसलिये मुनिपने के नाशक आहारग्रहण के परिणाम का अभाव होने से उसका आहार योगी का आहार है, इसलिये उसके युक्ताहारित्व सिद्ध होता है ॥२२८॥ ___ तात्पर्यवृत्ति अथ तदेवानाहारकत्वं प्रकारान्तरेण प्राह; केवलदेहो केवलदेहोऽन्यपरिग्रहरहितो भवति । स कः कर्ता ? समणो निन्दाप्रशंसादिसमचित्तः श्रमणः । तहि कि देहे ममत्वं भविष्यति ? नवं देहेवि ममत्तरहियपरिकम्मो देहेऽपि ममत्वरहितपरिकर्मा। "मति परिवजामि णिम्ममति जवविदो । आलंबणं च मे आदा अबसेसाई बोसरे ॥" इति श्लोककथितक्रमेण देहेऽपि ममत्वरहित: आजुत्तोतं तवसा आयुक्तवान् आयोजितवांस्तं देहं तपसा । किं कृत्वा ? अणिगृहिय अनिगृह्य प्रच्छादनमकृत्वा । काम् ? अप्पणो सत्ति आत्मनः शक्तिमिति । अनेन किमुक्तं भवति-यः कोऽपि देहाच्छेषपरिग्रहं त्यक्त्या देहेऽपि ममत्वरहितस्तथैव तं देह तपसा योजयति स नियमेन युक्ताहारविहारो भवतीति ।।२२८।। ___ उत्थानिका--आगे इसी अनाहारकपने को दूसरी रीति से कहते हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(समणो) साधु (केवलवेहो) केवल-मात्र शरीरधारी हैं(देहे वि ममेत्ति रहिवपरिकम्मो) देह में भी ममता रहित क्रिया करने वाले हैं। इससे उन्होंने (अप्पणो सत्ति) अपनी शक्ति को (अणिगृहिय) न छिपाकर (तवसा) तप से (तं) उस शरीर को (आउत्तो) योजित किया है अर्थात तप में अपने तन को लगा दिया है। निन्दा, प्रशंसा आदि में समान चित्त के धारी साधु अन्य परिग्रह को त्यागकर केवल-मात्र शरीर के धारी हैं तो भी क्या वे देह में ममता करेंगे, कभी नहीं । वे देह में भी ममता रहित होकर देह की क्रिया करते हैं । साधुओं की यह भावना रहती है, जैसा इस गाथा में है-"मैं ममता को त्यागता हूँ निर्ममत्व भाव में ठहरता हूँ, मेरे को अपना आत्मा हो आलम्बन है और सर्व को मैं त्यागता हूँ।" शरीर से ममता न रखते हुए थे साधु अपने आत्मवीर्य को न छिपाकर इस नाशवंत शरीर को तप साधन में लगा देते हैं । यहाँ यह कहा गया है कि जो कोई देह के सिवाय सर्व वस्त्रादि परिग्रह का त्याग कर शरीर में भी ममत्व नहीं रखता है तथा देह को तप में लगाता है वही नियम से युक्ताहार विहार करने वाला है ।।२२८॥ अथ युक्ताहारस्वरूपं विस्तरेणोपदिशति एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥२२६॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो ]. [ ५४३ एकः खलु स भक्त: अप्रतिपूर्णोदरो यथालब्धः । भैक्षाचरणेन दिवा न रसापेक्षो न मामांसः ।।२३। एककाल एवाहारो युक्ताहारः, तायतंव श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरस्य धारणत्वात् । अनेकालस्तु शरीरानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिंसायतनी क्रियमाणो न युक्तः । शरीरानुरागसेवकत्वेन न च युक्तस्य । अप्रतिपूर्णादर एवाहारो युक्ताहारः तस्यवाप्रतिहतयोगत्वात् प्रतिपूर्णोदरस्तु प्रतिहतयोगत्वेन कथंचित् हिसायसनीभवन् न युक्तः । प्रतिहतयोगत्वेन न च युक्तस्य । यथालब्ध एवाहारो युक्ताहारः तस्यय विशेषप्रियत्वलक्षणानुरागशून्यत्वात् । अयथालब्धस्तु विशेषत्रियत्वलक्षणानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिसायतनीक्रियमाणो न युक्तः। विशेषप्रियत्वलक्षणानुरागसेवकत्वेन न च युक्तस्य । भिक्षाचरणेनवाहारो युक्ताहारः तस्यैवारम्भशून्यत्वात् । अभक्षाचरणेन त्वारम्भसंभवात्प्रसिहिसायतनत्वेन न युक्तः । एवंविधाहारसेवनध्यक्तान्तरशुद्धित्वान्न च युक्तस्य । दिवस एवाहारो युक्ताहारः तदेव सम्यगवलोकनात् । अदिवसे तु सम्यगवलोकनाभावावनिवार्यहिंसायतनत्वेन न युक्तः । एवंविधाहारसेवनध्यक्तान्सरशुद्धित्वान्न च युक्तस्य । अरसापेक्ष एवाहारो युक्ताहारस्तस्यैवान्तःशुद्धिसुन्दरत्वात् । रसापेक्षस्तु अन्तरशुद्धया प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणो न युक्तः। अन्तरशुद्धिसेवकत्वेन न च युक्तस्य । अमधुमास एवाहारो युक्ताहारः तस्यैवाहिसायतनत्वात् । समधुमांसस्तु हिसायतनवान्न युक्तः । एवंविधाहारसेवनव्यक्तान्तरशुद्धित्वान्न च युक्तस्य । मधुमांसमत्र हिंसायतनोपलक्षणं तेन समस्तहिसायतनशून्य एवाहारो युक्ताहारः ॥२२६॥ भूमिका-अब, युक्ताहार का स्वरूप विस्तार से उपदेश करते हैं अन्वयार्थ-[एक;] चौबीस घंटे में एक बार [अप्रतिपूर्णोदरः] ऊनोदर [यथालब्धः] यथालब्ध (जैसा प्राप्त हो वैसा), [भक्षाचरणेन] भिक्षाचरण से, [दिवा] दिन में [न रसापेक्षः] रस की अपेक्षा से रहित, और [न मधुमासः] मधु मांस रहित [सः] वह आहार [खलु] वास्तव में [भक्तः] युक्त आहार होता है । टीका--एक बार आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि उतने से ही मुनि पर्याय का सहकारी कारणभूत शरीर टिका रहता है। शरीर में अनुराग के कारण अनेकबार आहार का सेवन किया जाता है और उससे अत्यन्त हिंसा होती है इसलिये युक्त (योग्य) नहीं है, और शरीर को पोषण करने के लिये आहार भी अयोग्य है । अपूर्णोदर' आहार ही युक्ता १. अपूर्णोदर-पूरा पेट न भरकर, ऊनोदर । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ ] [ पक्यणसारा हार है, क्योंकि वह मुनित्व का नाश नहीं करता । पूर्णोधर आहार मुनिपने का नाश करने से कथंचित् हिसायतन होता हुआ योग्य नहीं है, पूर्णोदर आहार करने वाला मुनिपने का नाश करता है, इसलिये यह आहार योगी का आहार नहीं है । यथालन्ध आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही (आहार) विशेष रुचिरूप अनुराग से शून्य है । अयथालब्ध' आहार विशेष रुचिरूप अनुराग से सेवन किया जाता है, इसलिये आत्यंतिक हिसायतन होने से योग्य नहीं है, और अयथालब्ध आहार का सेवन करने वाला विशेष रुचिरूप अनुराग के द्वारा सेवन करने वाला होने से, उसका वह आहार योगी का आहार नहीं है। मिक्षाचरण से आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही आरम्भशून्य है । अभिक्षाचरण से (भिक्षाधरण रहित) आहार में मारम्भ सम्भव होने से हिसायतनत्व प्रसिद्ध है, अतः वह आहार युक्त नहीं है, और ऐसे आहार के सेवन में अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त (प्रगट) होने से वह आहार युक्त नहीं है। दिन का आहार हो युक्ताहार है, क्योंकि यहां भली-भांति देखा जा सकता है। अदिवस (रात्रि में) आहार भली-भांति नहीं देखा जा सकता इसलिये उसके हिसायतनत्व अनिवार्य होने से वह आहार योग्य नहीं है, और ऐसे आहार के सेवन में अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त होने से वह आहारयुक्त नहीं है। रस की अपेक्षा से रहित आहार ही युक्ताहार है क्योंकि वही अन्तरंगशुद्धि से सुन्दर है। रस की अपेक्षा वाला आहार अन्तरंग अशुद्धि के द्वारा आत्यंतिक हिसायतन होता हआ युक्त (योग्य) नहीं है, और उसका सेवन करने वाला अन्तरंग अशुद्धिपूर्वक सेवन करता है इसलिये वह आहार योगी का नहीं है । मधु मांस सहित आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि उसके ही हिंसायतनत्व का अभाव मधु-मांस सहित आहार हिसायतन होने से योग्य नहीं है, और ऐसे आहार के सेवन में अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त होने से वह आहार योगी का नहीं है। यहां मधु-मांस हिसायतन का उपलक्षण है इसलिये समस्त हिंसायतन शून्य आहार ही युक्ताहार है ॥२२६॥ १. अयथालन्ध—जैसा मिल जाय वैसा नहीं, किन्तु अपनी पसंदगी का स्वेच्छालब्ध । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ५४५ तात्पर्यवृत्ति अथ युक्ताहारत्वं विस्तरेणाख्याति : एक्कं खलु तं भत्तं एककाल एव खलु हि स्फुटं स भक्त आहारो युक्ताहार: कस्मादेक भक्तेनैव निर्विकल्पसमाधिसहकारिकारणभूतगरीरस्थितिसम्भवात् । स च काथंभूतः ? अप्परिपुण्णोदरं यथाशक्त्या न्यूनोदरः जहालद्धं यथालब्धो न च स्वेच्छालब्धः चरणं भिक्खेण भिक्षाचरणेनैव लब्धो न च स्वपाकेन दिवा दिवंव न च रात्रौ । ण रसावेक्खं रसापेक्षो न भवति किन्तु सरसविरसादी समचित्तः ण मधुर्मसं अमधुमासः अमधुमांस इत्युपलक्षणेन आचारशास्त्रकथितपिण्डशुद्धिक्रमेण समस्तायोग्याहाररहित इति। एतावता किमुक्तं भवति ? एवंविशिष्टविशेषणयुक्त एवाहारस्तपोधनानां युक्ताहारः । कस्मादिति चेत् ? चिदानन्दकलक्षणनिश्चयप्राणरक्षणभूता रागादिविकल्पोपाधिरहिता या तु निश्चयनयेनाहिंसा तत्साधकरूपा बहिरङ्गपरजीवप्राणव्यपरोपण निवृत्तिरूपा द्रव्याहिंसा च सा द्विविधापि तत्र युक्ताहारे सम्भवति । यस्तु तद्विपरीतः स युक्ताहारो न भवति । कस्मादिति चेत् ? तद्विलक्षणभूताया द्रव्यरूपाया हिंसाया सद्भावादिति ॥२२६।। उत्थानिका-आगे योग्य आहार का स्वरूप और भी विस्तार से कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(खलु) वास्तव में (तं मत्तं एक्क) उस भोजन को एक ही बार (अप्पडिपुण्णोवर) पूर्ण पेट न भरकर ऊनोदर (जहालद्धं) जैसा मिल गया वैसा (भिक्खण चरण) भिक्षा के द्वारा लेना सो योग्य आहार होता है (रसावक्खं ण) उसमें से रसों की इच्छा नहीं होना चाहिये (मधुमंसं ण) तथा मधु व मांस से रहित होना चाहिये । साधु महाराज दिन में एक बार ही भोजन लेते हैं वहीं उनका योग्य आहार है, इससे ही विकल्प-रहित समाधि में सहकारी कारणरूप शरीर की स्थिति रहनी सम्भव है। एक बार भी वे शक्ति अनुसार भूख से कम लेते हैं, जैसा मिल गया वैसा लेते हैं उसके लिये चाह नहीं करते। भिक्षाद्वारा ही लेते हैं, अपने आप नहीं बनाते । दिन में लेते हैं, रात्रि में कभी नहीं लेते। भोजन सरस है या रस-रहित है, ऐसा विकल्प न करके समभाव रखते हैं । मधु-मांस रहित व उपलक्षण से आचार शास्त्र में कही हुई पिण्डशुद्धि के क्रम से समस्त अयोग्य आहार को वर्जन करते हुए लेते हैं । ___ इससे यह बात कही गई है कि इन गुणों सहित जो आहार है वही तपस्वियों फा योग्य आहार है, क्योंकि योग्य आहार लेने से ही दो प्रकार की हिंसा का त्याग हो सकता है। चिदानन्द एक लक्षणरूप निश्चयप्राण की रक्षाभूत, रागादि विकल्पों की उपाधि न होने देना सो निश्चय अहिंसा है तथा इसको साधनरूप बाहर में परजीवों के प्राणों को कष्ट देने से निवृत्तिरूप रहना सो द्रव्य अहिंसा है, दोनों ही अहिंसा को प्रति Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ ] [ पवयणसारो पालना योग्य आहार में होती है और जो इसके विरुद्ध आहार हो तो वह योग्य आहार न होगा, क्योंकि उसमें द्रव्य-अहिंसा से विलक्षण द्रव्यहिंसा का सद्भाव हो जायेगा ॥२२६।। अथ विशेषेण मांसदूषणं कथयति;-- पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु। संत्तत्तियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं ॥२२६-१॥ जो पक्कमपक्कं या पेसी मंसस्स खादि फासदिया। सो किल णिहणवि पिडं जीयाणमणेगकोडीण ॥२२६-२॥ [जुम्भ] भणित इत्यध्याहारः । स कः ? उववादो व्यवहारनयेनोत्तादः । किविशिष्ट: ? संतत्तियं सान्ततिको निरन्तरः । केषां सम्बन्धी ? णिगोदाणे निश्चयेन शुद्धबुद्धकस्वभावानामनादिनिधनत्वेनोत्पादव्ययरहितानामपि निगोदजीबानाम् । पुनरपि कथंभूतानाम् ? तज्जादीणं तद्वर्णतद्गन्धतद्रसतत्स्पर्शत्वेन तज्जातीनां मांसजातीनाम् । कास्वधिकरणभूतासु ? मंसपेसीसु मांसपेशीषु मांसखण्डेषु । कथंभूतासु ? पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु पनवामु चामासु च विपच्यमानास्विति प्रथमगाथा । जो पक्कमपक्कं वा यः कर्ता पक्वामपक्वां वा पेसों पेशी खण्डम् । कस्य ? मंसस्स मांसस्य खादि निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नसुख सुधाहारमलभमानः सन् खादति भक्षति फासदि वा स्पर्शति वा सो किल णिहदि पिडं स कर्ता किल लोकोक्त्या परमागमोक्त्या वा निहन्ति पिण्डम् । केषाम् ? जीवाणं जीवानाम् । कतिसंख्योपेतानाम् ? अणेगकोडीणं अनेककोटीनामिति । अश्रेदमुक्तं भवति शेषकन्दमुलाद्याहाराः केचनानन्तकाया अप्यग्निपक्वाः सन्तः प्रासुका भवन्ति मांसं पुनरनन्तकायं भवति तथैव चाग्निपक्वमपक्वं पच्यमानं वा प्रासुकं न भवति । तेन कारणेनाभोज्यमभक्षणीयमिति ॥२२६-१, २२६-२।। उत्थानिका—प्रकरण पाकर आचार्य मांस के दूषण बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ--(पक्केसु अ) पके हुए व (आमेसु अ) कच्चे तथा (विपच्चमाणासु) पकते हुए (मंसपेसीसु) मांस के खण्डों में (तज्जादीणं) उस मांस की जाति वाले (णिगोदाणं) निगोद अर्थात् लध्यपर्याप्तक जीवों का (संतत्तियमुववादो) निरन्तर जन्म होता है (ओ) जो कोई (परकं व अपवक मंसस्स पेसी) पक्की, या कच्ची मांस की डली को (खादि) खाता है (वा फासदि) अथवा स्पर्श करता है (सो) वह (मणेगकोडीण) अनेक करोड़ (जीवाणं) जीवों के (पिड) समूह को (किल) निश्चय से (णिहणवि) नाश करता है । मांसपेशी में जो कच्ची, पक्की व पकती हुई हो हर समय उस मांस को रंगत, गंध, रस, स्पर्श के धारी अनेक निगोद जीव-जो निश्चय से अपने शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव के धारी हैं-अनादि व अनंत काल में भी अपने स्वभाव से न उपजते न विनशते हैं, ऐसे जन्तु व्यवहारनय से उत्पन्न होते रहते हैं । जो कोई ऐसे कच्चे या पक्के मांस खण्ड को अपने शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत को न भोगता हुआ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] खा लेता है अथवा स्पर्श भी करता है वह निश्चय से लोगों के कथन से व परमागम में कहे प्रमाण करोडों जीवों के समूह को नाश करता है ॥२२६-१, २२६-२॥ अथ पाणिगताहारः प्रासुकोप्यन्यस्मै न दातव्य इत्युपदिशति - अपष्टिकुळे पिडं पाणिगयं व देयमण्णस्स । बत्ता भोत्तुमजोरगं भुत्तो वा होदि पडिकुट्ठी ॥२२६-१॥ अप्पडिकुठं पिंडं पाणिगयं णेव देयमण्णस्स अप्रतिकृष्ट आगमाविरुद्ध आहारः पाणिगतो हस्तगतो नैव देयो न दातव्योऽन्यस्मै वत्ता भोत्तुमजोरगं दत्त्वा पश्चाद्धोक्तुमयोग्यं भुत्तो वा होदि पडिकुट्ठो कथंचित् भुक्तो वा भोजनं कृतवान् तहि प्रतिकृष्टो भवति प्रायश्चित्तयोग्यो भवतीति । अयमत्र ----हस्सरशाहीर साबन न ददाति तस्य निर्मोहात्मतत्त्वभाबनारूपं निर्मोहत्वं ज्ञायत इति ।।२२६-३॥ उत्थानिका--आगे इस बात को कहते हैं कि हाथ पर आया हुआ आहार जो प्रासुक हो उसे दूसरों को न देना चाहिये । ____ अन्वय सहित विशेषार्थ-(अप्पडिकुठं पिङ) आगम से जो आहार विरुद्ध न हो (पाणिगयं) सो हाथ पर आ जाये उसे (अण्णस्स गैव देय) दूसरे को नहीं देना चाहिये । (दत्ता भोत्तुमजोगं) दे करके फिर भोजन करने के योग्य नहीं होता है (भुत्तो वा पडिकुट्ठो होदि) यदि कदाचित् उसको भोग ले तो प्रायश्चित्त के योग्य होता है । यहाँ यह भाव हैकि जो हाथ में आया हुआ शुद्ध आहार दूसरे को नहीं देता है किन्तु खा लेता है उसके मोह-रहित आत्मतत्व की भावनारूप मोहरहितपना जाना जाता है ॥२२६-३॥ अथोत्सर्गापवादमैत्रीसोस्थित्यमाचरणस्योपदिशति-- बालो वा वुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । चरियं चरदु' सजोग्गं मूलच्छेदो जधा ण हवदि ॥२३०॥ बालो वा वृद्धो वा श्रमाभिहतो वा पुनर्लानो वा । चर्या चरतु स्वयोग्यां मुलच्छेदो यथा न भवति ।।२३०॥ बालवृद्धश्रान्तालानेनापि संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमेवाचरणमाचरणीयमित्युत्सर्गः । बालवृद्धश्रान्तग्लानेन शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूतसंयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा बालबद्धधान्तालानस्थ स्वस्य योग्यं मद्धेवाचरणमाचरणीयमित्यपवादः । बालवृद्धश्रान्त १. 'अप्पडिकुट्टाहार' इत्यपि पाठः । २. चरदि (ज० वृ०)। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ] [ पवयणसारो ग्लानेन सयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिककंशमाचरणमाचरता शरीरस्थ शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूतसंयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात् तथा बालवृद्धश्रान्तग्लानस्य स्वस्य योग्यं मनुष्याचरणमाचरणीयमित्यापवावसापेक्ष उत्सर्गः। बालबद्धधान्तग्लानेन शरीरस्य शुद्धात्मतत्वसाधनभूतसंयमसामनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा बालवृद्धश्रान्तग्लानस्य स्वस्य योग्यं महाचरणमाचरता संयमस्य शुद्धात्मतत्वसाधनत्वेन मलमूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमप्याचरणमाचरगीयमित्युत्सर्गसापेक्षोऽपवादः । अतः सर्वथोत्सर्गापवादमैच्या सौस्थित्यमाचरणस्य विधयम् ॥२३०॥ भूमिका--अब उत्सर्ग और अपवाद को मंत्री द्वारा आचरण की सुस्थितता का उपदेश करते हैं अन्वयार्थ- [बाल; वा] बाल [वृद्धः वा] वृद्ध [श्रमाभिहतः वा] श्रांत' [पुनः ग्लानः वा) या ग्लान' श्रमण [मूलच्छेद :] मूल का छेद [यथा न भवति] जैसे न हो उस प्रकार से [स्वयोग्यां] अपने योग्य [चर्या चरतु] आचरण करे । टीका-बाल, वृद्ध, श्रमित (थका हुआ) या ग्लान रोगी मुनि को भी संयम का जो कि शुद्धात्मतत्व का साधन होने से मूलभूत है, छेद जैसे न हो उस प्रकार संपत अपने योग्य अति कर्कश (कठोर) आचरण ही आचरना, इस प्रकार उत्सर्ग है । बाल, वृद्ध, अमित या ग्लान मुनि को शरीर का जो कि शुद्धात्मतत्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका--छेद जैसे न हो उस प्रकार से बालवृद्धश्रांतग्लान के द्वारा अपने योग्य मद्ध आचरण ही आचरना, इस प्रकार अपवाद है । बाल-वृद्धांतग्लान के, संयम का जो कि शुद्धात्मतत्व का साधन होने से मूलभूत है, छेद जैसे न हो उस प्रकार का संयत ऐसा अपने योग्य अति कठोर आचरण आचरते हुये, शरीर का जो शुद्धात्मतत्व के साधनभूत संयम का साधन होने से भी मलभूत है, छेद जैसे न हो उस प्रकार बालवृद्ध-श्रान्त-ग्लान को अपने योग्य मदु आधरण भी आघरना चाहिए। इस प्रकार अपवादसापेक्ष उत्सर्ग है । बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान को शरीर का, जो कि शुद्धात्मतत्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है, छेद जैसे न हो उस प्रकार से बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लान ऐसे अपने योग्य मृदु आचरण आचरते हुये, संयम का, जो कि शुद्धात्मतत्व का साधन होने से मूलभूत है, १. श्रान्त-अमित, थका हुआ। २. ग्लान- व्याधिग्रस्त, रोगी, दुर्वत । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ५४६ छेद जैसे न हो, उस प्रकार से संयत को ऐसा अपने योग्य अतिकर्कश आचरण भी आचरना इस प्रकार उत्सर्ग सापेक्ष अपवार है। इससे यह कहा है कि सर्वथा उत्सर्ग और अपवाद की मैत्री द्वारा आचरण की सुस्थितता करनी चाहिये ।।२३०॥ तात्पर्यवृत्ति अथ निश्चयव्यवहारसंज्ञयोरुत्सर्गापवादयोः कथंचित्परस्परसापेक्षभावं स्थापयन् चारित्रस्य रक्षा दर्शयति; चरदि चरत्याचरति । किं? चरियं चारित्रमनुष्ठानम् । कथंभूतं ? सजोग्गं स्वयोग्यमवस्थायोग्यम् । कथं यथाभवति ? मूलच्छेदो जधा ण हववि मूलच्छेदो यथा न भवति । स कः कर्ता चरति ? कालो था वुड्डो वा समभिहवो वा पुणो गिलाणो वा बालो वा वृद्धो वा श्रमाभिहतः पीडितः श्रमाभिहतो वा ग्लानो व्याधिस्थो वेति । तद्यथा-उत्सर्गापवादलक्षणं कथ्यते तावत्स शुद्धात्मनः सकाशादन्यद्बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरूपं सर्व त्याज्यमित्युत्सर्गो निश्चयनयः सर्वपरित्यागः परमोपेक्षासंयमो वीतरागचारित्र शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः तत्रासमर्थः पुरुषः शुद्धात्मभावनासहकारिभूतं किमपि प्रासुकाहारज्ञानोपकरणादिकं गृहातीत्यपवादो व्यवहारनय एकदेशपरित्यागस्तथा चापहृतसंयमः सरागचारित्र शुभोपयोग इति यावदेकार्थः । तत्र शुद्धात्मभावनानिमित्तं सर्वत्यागलक्षणोत्सर्गे दुर्द्धरानुष्ठाने प्रवर्त्तमानस्तपोधनः शुद्धात्मर शाकल्बेन मूलभूटांया संगमसापकलेन मुलभूतशरीरस्य वा यथा छेदो विनाशो न भवति तथा किमपि प्रासुकाहारादिक गृहातीत्यपवादसापेक्ष उत्सर्गो भण्यते। यदा पुनरपवादलक्षणेऽपहृतसंयमे प्रवर्त्तते तथापि शुद्धात्मतत्त्वसाधकत्वेन मूलभूतसंयमस्य संयमसाधकत्वेन मूलभूतशरीरस्य वा यथोच्छेदो विनाशो न भवति तथोत्सर्गसापेक्षत्वेन प्रवर्तते । तथा प्रवर्तत इति कोऽर्थः ? यथा संयमविराधना न भवति तथेत्युत्सर्गसापेक्षोपवाद इत्यभिप्रायः ।।२३०॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि उत्सर्ग निश्चय है तथा अपवाद व्यवहार है। इन दोनों में किसी अपेक्षा से परस्पर सहकारीपना है, ऐसा स्थापित करते हुए चारित्र की रक्षा करनी चाहिये, ऐसा दिखाते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ-(बालो वा) बालक मुनि हो अथवा (बुड्ढो वा) बुड्ढा हो या (समभिहदो) थक गया हो (पुणो गिलाणो वा) अथवा रोगी हो ऐसा मुनि (जधा) जिस तरह (मूलच्छेद) मूल संयम का भंग (ण हवदि) न होवे (सजोग्गं) वैसे अपनी शक्ति के योग्य (चरियं) आचार को (चरदि) पालता है ।प्रथम ही उत्सर्ग और अपवाद का लक्षण कहते हैं। अपने शुद्ध आत्मा से अन्य सर्व भीतरी व बाहरी परिग्रह का त्याग देना सो उत्सर्ग है, इसी को निश्चयनय से मुनिधर्म कहते हैं। इसी का नाम सर्व-परित्याग है, परमोपेक्षा संयम है, वीतरागचारित्र है, शुद्धोपयोग है-इन सबका एक ही भाव है। इस निश्चयमार्ग में जो ठहरने को समर्थ न हो वह शुद्ध आत्मा की भावना के सहकारी कुछ भी प्रासुक Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ] [ पवयणसारो आहार, ज्ञान का उपकरण शास्त्र आदि को ग्रहण कर लेता है यह अपवाद मार्ग है । इसी को व्यवहारनय से मुनिधर्म कहते हैं। इसी का नाम एक देश परित्याग है, अपहृतसंयम है, सरागचारित्र है, शुभांपयोग है, इन सबका एक ही अर्थ है। जहां शुद्धात्मा की भावना के निमित्त सर्व त्याग स्वरूप उत्सर्गमार्ग के कठिन आचरण में वर्तन करता हुमा साधु शुद्धास्मतत्व के साधक रूप से जो मूलसंयम के साधक मूलशरीर का जिस तरह नाश नहीं होवे उस तरह कुछ भी प्रासुक आहार आदि को ग्रहण कर लेता है सो अपवाद को अपेक्षा था सहायता सहित उत्सर्ग मार्ग कहा जाता है । और जब वह मुनि अपवाद रूप अपहृत संयम के मार्ग में वर्तता है तब भी शुद्धात्मतत्व का साधक रूप से जो मूलसंयम है उसका तथा मूलसंयम के साधक मूलशरीर का जिस तरह यिनाश न हो उस तरह उत्सर्ग की अपेक्षा सहित वर्तता है-अर्थात इस सरह वर्तन करता है जिस तरह संयम का नाश न हो। यह उत्सर्ग की अपेक्षा सहित अपवादमार्ग है ॥२३०॥ अथोत्सर्गापवावविरोधदौःस्थ्यमाचरणस्योपदिशति आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधि । जाणित्ता ते समणो वट्टदि दि अप्पलेवी सो ॥२३१॥ आहारे वा विहारे देशं कालं श्रम क्षमामुपधिम् । ज्ञात्वा ताम् श्रमणो वर्तते यद्यल्पलेपी सः ॥२३१।। अत्र क्षमाग्लानत्वहेतुरुपवास: बालवृद्धत्वाधिष्ठानं शरीरमुपधिः, ततो बालवृद्धश्रान्त ग्लाना एव त्वाकृष्यन्ते । अथ देशकालहस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोः प्रवर्तमानस्य मृहाचरणप्रवृत्तत्वावल्पो लेपो भवत्येव तद्वरमुत्सर्गः । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोः प्रवर्तमानस्य मृदाचरण-प्रवृत्तत्वादल्प एव लेपो भवति तद्वरमपवादः । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धवान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपभयेनाप्रवर्तमानस्यातिकर्कशाचरणीभूयाक्रमेण शरीरं पातयित्वा सुरलोकं प्राप्योद्वान्तसमस्तसंयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान लेपो भवति । तन्न श्रेयानपवादनिरपेक्ष उत्सर्ग: । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धधान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपत्वं विगणय्य यथेष्टं प्रवर्तमानस्य मृहाचरणोभूय संयम विराध्यासंयतजनसमानीभूतस्य तदात्वे तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति तन्न, श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवाद: । अतः सर्वथोत्सर्गापवादविरोधदौःस्थित्यमाचरणस्य प्रतिषेध्यं तदर्थमेव सर्वथानुगम्यश्च परस्परसापेक्षोत्सर्गापवादविजृम्भितवृत्तिः स्याद्वादः ॥२३१॥ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : पवयणसारो | इत्येवं चरणं पुराणपुरुषजुष्टं विशिष्टावरेरुत्सर्गापवादतश्च विचरबह्वीः पृथग्भूमिकाः । आक्रम्य करतो विवृद्धिमा यतिः सर्वतश्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थिति ॥१५॥ 1 ५५१ --- इत्याचरणप्रज्ञापनं समाप्तम् । भूमिका - अब, उत्सर्ग और अपवाद के विरोध ( अमंत्री) से आचरण की स्थिति नहीं होती है, वह उपदेश करते हैं अन्वयार्थ – [ यदि ] यदि [ श्रमणः ] श्रमण [ आहारे वा विहारे] आहार या विहार मैं [देशं ] देश, [ कालं ] काल, [ श्रमं ] श्रम, [ क्षमां ] क्षमता तथा [ उपधि ] उपधि, [तान् ज्ञावा ] इनको जानकर [वर्तते ] प्रवर्ते [सः अल्पलेपः ] तो वह थोड़े कर्मों से बंधता है । टीका - क्षमता तथा ग्लानता का हेतु उपवास है और बाल तथा बुढ़ापा उपधिरूप शरीर के आश्रित हैं। इसलिये यहाँ बाल वृद्ध श्रान्त-ग्लान ही लिये गये हैं । अनुरोध से (कारण से ) अल्प लेप होता ही है, देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल वृद्ध श्रान्त-ग्लानत्य के आहार-विहार में प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अर्थात् लेप का सर्वथा अभाव नहीं होता, इसलिये उत्सर्ग अच्छा है । देशकालज्ञ को मी, यदि वह बाल वृद्ध श्रान्त-ग्लानत्व के अनुरोध से आहार-विहार में प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अल्प ही लेप होता है । अर्थात् विशेष लेप नहीं होता, इसलिये अपवाद अच्छा है । देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध श्रान्त-ग्लानत्व के अनुरोध से (कारण) जो आहार विहार है, उससे होने वाले अल्पलेप के भय से उसमें प्रवृत्ति न करे तो अर्थात् अपवाद के आश्रय से होने वाले अल्पबंध के भय से उत्सर्ग का हठ करके अपवाद में प्रवृत्त न हो तो अतिकर्कश आचरणरूप होकर अक्रम से शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करके जिसने समस्त संयमामृत का समूह वमन कर डाला है उसे तप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतिकार अशक्य है ऐसा महान् लेप होता है, इसलिये अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं है । देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल वृद्ध श्रांत ग्लानत्व के अनुरोध से जो आहारबिहार है, उससे होने वाले अल्पलेपको न गिनकर उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो अर्थात् अपवाद से होने वाले अल्पबन्ध के प्रति असावधान होकर उत्सर्ग रूप ध्येय को चूककर Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ । [ पवयणसारो अपवाद में स्वच्छन्दतया प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण रूप होकर संयम विरोधी कोअसंयतजन के समान हुए उसको-उस समय सप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतिकार अशक्य है ऐसा महान लेप होता है । इसलिये उत्सर्ग-निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है। ___इससे उत्सर्ग और अपवाव के विरोध से होने वाले आचरण को दुःस्थितता सर्वथा निषेध्य (त्याज्य) है, और इसीलिये परस्पर-सापेक्ष उत्सर्ग और अपवाद से जिसका कार्य प्रगट होता है, ऐसा स्याद्वाद सर्वथा अनुसरण करने योग्य है ॥२३१॥ अब श्लोक द्वारा आत्मद्रव्य में स्थिर होने की बात कहकर 'आचरण प्रज्ञापन' पूर्ण किया जाता है। अर्थ—इस प्रकार विशेष आवर-पूर्षक पुराण पुरुषों के द्वारा सेवित, उत्सर्ग और अपवार द्वारा अनेक पृथक्-पृथक भूमिकाओं में विचरण करने वाले यति चारित्र को प्राप्त करके, क्रमश: अतुल निवृत्ति करके सामान्य विशेष रूप चतन्य जिसका प्रकाश है ऐसे निज द्रव्य में सर्वतः स्थिति करें। इस प्रकार 'आचरण प्रज्ञापन' समाप्त हुआ। तात्पर्यवृत्ति अथापबादनिरपेक्षमुत्सर्ग तथबोत्सर्गनिरपेक्षमपवादं च निषेधयश्चारित्ररक्षणाय व्यतिरेकद्वारेण तमेवार्थ दृढयति : यवि वर्तते । स कः कर्ता ? समणो यात्रु मित्रादिसमचित्तः श्रमणः यदि । किम् ? जदि अप्प. लेवी सो यदि चेदल्पलेपी स्तोकसावधो भवति । कयोविषययोवर्तते ? आहारे या विहारे तपोधना योग्याहारविहारयोः । किं कृत्वा ? पूर्वं ते जाणिता ते ज्ञात्वा । कान् कर्मतापन्नान् ? वेसं कातं समं खमं उपधि देशं कालं मार्गादिश्रम क्षम क्षमतामुपवासादिविषये शक्ति उपधि बालवृद्धधान्तग्लानसम्बन्धिनं शरीरमात्रोपधि परिग्रहमिति पंच देशादीन् तपोधनाचरणसहकारिभूतानिति । तथाहि-पूर्वकथितक्रमेण तावदुर्द्धरानुष्ठानरूपोत्सर्गे वर्तते । तत्र च प्रासुकाहारादिग्रहणनिमित्तमल्पलेपं दृष्ट्वा यदि न प्रवर्नते तदा आर्तध्यानसंक्लेशेन शरीरत्यागं कृत्वा पूर्वकृतपुण्येन देवलोके समुत्पद्यते । तत्र संयमाभावान्महान् लेपो भवति । ततः कारणादपवादनिरपेक्षमुत्सर्ग त्यजति । शुद्धात्मभावनासाधकमल्पलेपं बहुलाभमपवादसापेक्षमुत्सर्ग स्वीकरोति तथैव च पूर्वसूत्रोक्तक्रमेणापहृतसंयमशब्दवाच्येऽपवादे प्रवर्तते तत्र च प्रवर्त्तमानः सन् यदि कथंचिदीपधपथ्यादिसावधाभयेन व्याधिव्यथादिप्रतीकारमकृत्वा शुद्धात्मभावनां न करोति तहि महान लेपो भवति । अथवा प्रतीकारे प्रवर्तमानोऽपि हरीतकीच्याजेन गुडभक्षणवदिन्द्रियसुखलाम्पयन संयमविराधनां करोति तदापि महान् लेपो भवति । ततः कारणादुत्सर्गनिरपेक्षमपवाद त्यक्त्वा शुद्धात्मभावनारूपं शुभोपयोगरूपं वा संयममविराधयन्नौषधपथ्यादिनिमित्तोत्पन्नाल्पसावद्यमपि बहुगुणराशिमुत्सर्गसापेक्षमपवादं स्वीकरोतीत्यभिप्रायः ॥२३॥ एवं 'उबमरणं जिणमग्गे' इत्याधेकादशगाथाभिरपवादस्य विशेषविवरणरूपेण चतुर्थस्थल Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५५३ व्याख्यातम् । इति पूर्वोक्तक्रमेण हि 'णिरवेवखो नागो' इत्यादि त्रिंशद्गाथाभिः स्थलचतुष्टयेनापवादनामा "द्वितीयान्तराधिकारः" समाप्तः । उत्थानिका -- आगे आचार्य कहते हैं कि अपवाद की अपेक्षा बिना उत्सर्ग तथा उत्सर्ग की अपेक्षा बिना अपवाद निषेधने योग्य है । तथा इस बात को व्यतिरेक द्वार से दृढ़ करते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - - - (जदि ) यदि (समणो ) साधु (आहारे व विहारे) आहार या विहार में (देसं कालं समं खमं उवधि ते जाणित्ता) देश को, समय को. मार्ग को थकान को, उपवास की क्षमता या सहनशीलता को तथा शरीर रूपी परिग्रह की दशा को इन पांचों को जानकर (दि ) वर्तन करता है ( सो अध्पलेवी ) वह बहुत कम कर्मबन्ध से लिप्त होता है। जो शत्रु मिश्रादि में समान चित्त को रखने वाला साधु तपस्वी के योग्य आहार लेने में तथा विहार करने में नीचे लिखी इन पांच बातों को पहले समझकर वर्तन करता है, वह बहुत कम कर्मबन्ध करने वाला होता है ( १ ) देश या क्षेत्र फँसा है, (२) काल आदि किस तरह का है, (३) मार्ग में कितना श्रम हुआ है व होगा, (४) उपवासादि तप करने को शक्ति है या नहीं, (५) शरीर बालक है, या वृद्ध है या यक्ति है या रोगी है। ये पांच बातें साधु के आचरण के सहकारी पदार्थ हैं । भाव यह है कि यदि कोई साधु पहले कहे प्रमाण कठोर आचरण रूप उत्सर्गमार्ग में ही वर्तन करे और यह विचार करें कि यदि मैं प्राक आहार आदि ग्रहण के निमित्त जाऊँगा तो कुछ कर्मबन्ध होगा इसलिये अपवाद मार्ग में न प्रयतं तो यह फल होगा कि शुद्धोपयोग में निश्चलता न पाकर चित्त में आर्तध्यान से संक्लेशभाव हो जायेगा तब शरीर त्याग कर पूर्वकृत पुण्य से यदि देवलोक में चला गया तो वहां दीर्घकाल तक संयम का अभाव होने से महान कर्म का बन्ध होवेगा इसलिये अपवाद की अपेक्षा न करके उत्सर्गमार्ग को साधु त्याग देता है तथा शुद्धात्मा को भावना को साधन कराने वाला थोड़ा-सा कर्मबन्ध हो तो भी लाभ अधिक है ऐसा जानकर अपवाद की अपेक्षा सहित उत्सर्गमार्ग को स्वीकार करता है। क्रम से कोई अपहृतसंयम शब्द से कहने योग्य अपवादमार्ग करता हुआ यदि किसी कारण से औषधि, पथ्य आदि के लेने में मय करके रोग का उपाय न करके शुद्ध आत्मा की भावना को महान् कर्म का बन्ध होता है अथवा व्याधि के उपाय में प्रवर्तता हुआ भी हरीतकी अर्थात् हरड़के बहाने गुड़ खाने के समान इन्द्रियों के सुख में लम्पटी होकर संयम की तैसे हो पूर्व सूत्र में कहे में प्रवर्तता है वहां वर्तन कुछ कर्मबन्ध होगा ऐसा नहीं करता है तो उसके Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ ] [ पवयणसारो विराधना करता है तो भी महान् कर्मबन्ध होता है। इसलिये साधु उत्सर्ग की अपेक्षा न करके अपवाद मार्ग को त्याग करके शुद्धात्मा को भावना रूप व शुभोपयोग रूप संयम की विराधना न करता हुआ औषधि पथ्य आदि के निमित्त अल्प कर्मबन्ध होते हुए भी बहुत गुणों से पूर्ण उत्सर्ग की अपेक्षा सहित अपवाद को स्वीकार करता है, यह अभिप्राय है। इस तरह 'उवयरणं जिसमो' इत्यादि ग्यारह गाथाओं से अपवाद मार्ग का विशेष वर्णन करते हुये चौथे स्थल का व्याख्यान किया गया। इस तरह पूर्व कहे हुए क्रमसे ही "णिरवेक्खोचागो' इत्यादि तीस गाथाओं से तथा चार स्थलों से अपवाद नाम का दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ। __ अतः परं चतुर्दशगाथापर्यन्तं श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गाधिकारः कथ्यते । तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति, तेषु प्रथमतः आगमाभ्यासमुख्यत्वेन 'एयग्गगदो' इत्यादि यथाक्रमेण प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयम्। तदनन्तरं भेदाभेदरलत्रयस्वरूपमेव मोक्षमार्ग इति व्याख्यानरूपेण 'आगमपुवा दिट्ठी' इत्यादि द्वितीयस्थले मूत्रचतुष्टयम् । अत: परं द्रव्यभावसंयमकाथनरूपेण 'चागो य अणारंभों" इत्यादि तृतीयस्थले गाथाचतुष्टयम् । तदनन्तरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गोपसंहारमुख्यत्वेन मुज्झदि वा' इत्यादि चतुर्थस्थले गाथाद्वयम् । एवं स्थलचतुष्टयेन तृतीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका। चौदह गाथाओं में श्रामण्य अर्थात् मोक्षमार्ग नाम का तीसरा अंतर अधिकार कहा जाता है। इसके चार स्थल हैं उनमें से पहले ही आगम के अभ्यास की मुख्यता से "एयग्गगदो" इत्यादि यथाक्रम से पहले स्थल में २३२ से २३५ तक चार गाथाएँ हैं । इसके पीछे भेद व अभेद रत्नत्रय स्वरूप ही मोक्षमार्ग है; ऐसा व्याख्यान करते हुए "आगमपुटवा दिट्ठी" इत्यादि दूसरे स्थल में २३६ ने २३६ तक चार गाथाएं हैं। इसके पीछे द्रव्य व भावसंयम को कहते हुए “चागो य अणारंभो'' इत्यादि तीसरे स्थल में २४२ तक चार गाथाएँ हैं। फिर निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग का संकोच करने को मुख्यता से "मुज्झदि वा' इत्यादि चौथे स्थल में २४३ व २४४ गाथा दो हैं। इस तरह तीसरे अन्तर अधिकार में चार स्थलों से समुदायपातनिका है सो ही कहते हैं। अथ श्रामण्यापरनाम्नो मोक्षमार्गस्यैकाग्रयलक्षणस्य प्रज्ञापनं तत्र तन्मूलसाधनभूते प्रथममागम एव व्यापारयत्ति - एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्चिवस्स अत्थेसु । णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेठा ॥२३२॥ ऐकाग्रयगतः श्रमणः ऐकायच निश्चितस्य अर्थेषु । निश्चितिरागमत आगमचेष्टा ततो ज्येष्ठा ॥२३२॥ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५५५ श्रमणो हि तावदकानयगत एव भवति । ऐकानच तु निश्चितार्थस्यैव भवति । अर्थ-निश्चयस्त्वागमादेव भवति । तत आगम एवं व्यापारः प्रधानतरः, न चान्या गतिरस्ति । यतो न खल्यागममन्तरेणा निश्चेतुं शक्यन्ते, तस्यैव हि त्रिसमयप्रवृत्तत्रिलक्षणसकलपदार्थसार्थयाथात्म्यावगमसुस्थितान्तरङ्गगम्भीरत्वात् । न चार्थनिश्चयमन्तरेणकाप्रय सिद्धधत् यतोऽनिश्चतार्थस्य कदाचिन्तिश्चिकीर्षाकुलितचेतसः समन्ततो दोलायमानस्यात्यन्ततरलतया कवाधिधिकार्षायपरशस्थ यि स्वयं सोविश्वव्यापारपरिणतस्य प्रतिक्षणविज़म्भमाणक्षोभतया कदाचिबुभुक्षाभाषितस्य विश्व स्वयं भोग्यतयोपादाय रागद्वेषदोषकल्माषितचित्तवृत्तरिष्टानिष्टविभागेन प्रवर्तितद्वतस्य प्रतिवस्तुपरिणममानस्यात्यन्तविसंस्ठुलतया कृतनिश्चयनिःक्रियनिर्भोगं युगपढापीतविश्वमप्यविश्वतयैकं भगवन्तमात्मानमपश्यतः सततं वयग्रयमेव स्यात् । न चैकाप्रयमन्तरेण श्रामण्यं सिद्धयत, यतो नैकाग्यस्यानेकमेवेदमिति पश्यतस्तथाप्रत्ययाभिनिषिष्टस्यानेकमेवेदमिति जानतस्तथानुभूतिभावितस्थानेकमेवेदमिति प्रत्यर्थविकल्पच्यावृत्तचेतसा संततं प्रवर्तमानस्य तथावृत्ति दुःस्थितस्य कात्मप्रतीत्यतुभूतियत्तिस्वरूपसम्यग्दर्शनशानचारित्रपरिणतिप्रवृत्तहशिज्ञप्तिवृत्तिरूपात्मतत्वकाग्र्याभावात् शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तिरूपं श्रामण्यमेव न स्यात् अतः सर्वथा मोक्षमार्गापरनाम्नः श्रामण्यस्य सिद्धये भगववर्हत्सर्वज्ञोपज्ञे प्रकटानेकान्तकेतने शब्दब्रह्मणि निष्णातेन मुमुक्षुणा भवितव्यम् ॥२३२॥ भूमिका—अव, श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ऐसे एकाग्रता लक्षण वाले मोक्ष मार्ग का प्रज्ञापन है। उसमें प्रथम उस (मोक्षमार्ग) के मूल साधनभूत आगम में व्यापार (प्रवृत्ति) कराते हैं __ अन्वयार्थ-[श्रमणः] श्रमण [ऐकाग्रथगतः] एकाग्रता को प्राप्त होता है, [ऐकाग्रयं] एकाग्रता [अर्थेषु निश्चितस्य ] पदार्थों के निश्चयवान के होती है, [निश्चितिः] पदार्थों का निश्चय [आगमतः] आगम द्वारा होता है, | ततः] इसलिये [आगम चेष्टा] आगमाभ्यास [ ज्येष्ठा] मुख्य है । . टीका-प्रथम तो श्रमण वास्तव में एकाग्रता को प्राप्त ही होता है, एकाग्रता पदार्थों के निश्चय करने वाले के ही होती है, और पदार्थों का निश्चय आगम द्वारा ही होता है, इसलिये आगम-अभ्यास ही अधिक मुख्य है, पदार्थ निश्चय का अन्य मार्ग नहीं है। इसके कारण यह है कि-वास्तव में आगम के बिना पदार्थों का निश्चय नहीं किया जा सकता, क्योंकि आगम ही त्रिकाल (उत्पाद, व्यय, धौव्यरूप) तीन लक्षण प्रवृत्ति करने Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ ] [ पवयणसारो वाले सकल पदार्थ समूह के यथार्थ ज्ञान द्वारा, सुस्थित है और अंतरंग से गंभीर है ( अर्थात् आगम का ही अंतरंग, सर्व पदार्थों के समूह के यथार्थ ज्ञान द्वारा सुस्थित है इसलिये आगम ही समस्त पदार्थों के यथार्थ ज्ञान से गंभीर है) पदार्थों के निश्चय के बिना एकाग्रता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि, जिसे पदार्थों का निश्चय नहीं है वह (१) कदाचित् निश्चय करने की इच्छा से आकुलता प्राप्त चित्त के अर्थात् सर्वतः बोलायनाय के (डमाडोल चित्त वाले के) अत्यन्त चंचलता के कारण ( २ ) कदाचित् करने की इच्छा के ज्वरपरवश होने वाले के- विश्व को (समस्त पदार्थों को ) स्वयं उत्पन्न करने की इच्छा करने वाले के- विश्व व्यापार रूप (समस्त पदार्थों को प्रवृत्ति करने रूप ) परिणमित होने वाले के, प्रतिक्षण क्षोभ की प्रगटला के कारण और ( ३ ) कदाचित् भोगने की इच्छा से भावित होता हुआ विश्व को स्वयं भोग्य रूप ग्रहण करके, राग द्वेष रूप दोष से कलुषित चित्त वृत्ति के कारण, वस्तुओं में इष्ट अनिष्ट विभाग के द्वारा द्वैत को प्रवर्तित करते हुये के अर्थात् प्रत्येक वस्तु रूप परिणमित होने वाले के, अत्यन्त अस्थिरता के कारण, उपरोक्त तीन कारणों से उस अनिश्चयी जीव के ( १ ) कृत निश्चय, (२) निष्क्रिय और (३) निर्माग ऐसे भगवान् आत्मा को जो कि युगपत् विश्व को पी जाने वाला होने पर भी विश्व रूप न होने से (निज स्वरूप का त्याग न करने से एक है उसे नहीं देखने वाले के सतत व्यग्रता ही होती है, ( एकाग्रता नहीं होती ) । और एकाग्रता के बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता, क्योंकि जिसके एकाग्रता नहीं है वह जीव (१) 'यह अनेक हो है' ऐसा देखता ( श्रद्धान करता हुआ उस प्रकार की प्रतीति में आग्रह करने वाले के (२) 'यह अनेक हो है' ऐसा जानता हुआ उस प्रकार की अनुभूति से भावित होने वाले के, और ( ३ ) यह अनेक ही है' इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ के विकल्प से खंडित (छिन्न-भिन्न ) चित्त सहित सतत प्रवृत्त होता हुआ उस प्रकार की वृत्ति से दुःस्थित होने वाले के इन तीनों के, एक आत्मा की प्रतीति अनुभूति वृत्ति स्वरूप सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र परिणतिरूप प्रवर्तमान जो दृशि (दर्शन) ज्ञप्तिवृत्तिरूप आत्मतत्त्व में एकाग्रता का अभाव होने से शुद्धात्मतत्व प्रवृत्ति रूप यतिधर्म ( मुनित्व) ही नहीं होता । इससे ( यह कहा गया है कि ) मोक्षमार्ग जिसका दूसरा नाम है ऐसे श्रामण्य की सर्व प्रकार से सिद्धि करने के लिये मुमुक्षु को भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ से उपज्ञ ( कथित) शब्द ब्रह्म में जिसका कि अनेकान्त रूपो चिन्ह प्रगट है उसमें निष्णात होना चाहिये ॥ २३२॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो ] [ ५५७ तात्पर्यवृत्ति तद्यथा-अथैकाग्रयगत: श्रमणो भवति । तच्चकाग्रघमागमपरिज्ञानादेव भवतीति प्रकाशयति-- एयग्गगदो समणो ऐकामयगत: श्रमणो भवति । अत्रायमर्थ:-जगत्त्रयकालत्रयतिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमल केवलज्ञानलक्षणनिजपरमात्मतत्त्वसम्बकाश्रद्धानज्ञाना - नुष्ठानरूपमैकाग्रयं भण्यते । तत्र गतस्तन्मयत्वेन परिणतः श्रमणो भवति । एयगं णिछिदस्स ऐकाग्रथं पुननिश्चितस्य तपोधनस्य भवति । केषु ? अत्थेसु टात्कोर्णशायकस्बभावो थोऽसी परमात्मपदार्थस्तत्प्रतिवर्थेषु णिच्छित्ती आगमबो सा च पदार्थनिश्चिति रागमतो भवति । तथाहि-जीवभेदकम दकागमाभ्यासाद्भवति न केवलमागमाभ्यासात्तथैवागमपदे सारभूताच्चिदानन्दकपरमात्मतत्त्व प्रकाशकादध्यात्माभिधानात्परमागमाच्च पदार्थपरिच्छित्तिभवति आगम चेष्ठा तदो जेठा ततः कारणादेवमुक्तलक्षणागमपरमागमे च चेष्टा प्रवृत्तिः ज्येष्ठा प्रशस्येत्यर्थः ॥२३२।। उत्थानिका—आगे कहते हैं कि जो अपने स्वरूप में एकाग्र है वही श्रमण है तथा वह एकाग्रता आगम के ज्ञान से ही होती है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(एयागगयो) जो रलय को तन्मयता को प्राप्त है वह (समणो) साधु है। (अत्येसुणिच्छिवस्स) जिसके पदार्थों में श्रद्धा है उसके (एयरगं) एकाग्रता होती है। (आगमदो णिच्छित्ती) पदार्थों का निश्चय आगम से होता है (तदो) इसलिये (आगमचेट्ठा) शास्त्रज्ञान में उद्यम करना (जेठा) उत्तम है या प्रधान है। तीन जगत् तीन कालवर्ती सब द्रव्यों के गुण और पर्यायों को एक काल जानने को समर्थ सर्व तरह से निर्मल केवलजान लक्षण के धारी अपने परमात्मतत्व के सम्यक श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र से तन्मयता को एकाग्रता कहते हैं । उस सन्मयता को जो प्राप्त हुआ है, सो श्रमण है। वह एकाग्रता निश्चय से साधु के होती है। टांकी में उकेरे के समान ज्ञाता दृष्टा एक स्वभाव का धारी ओ परमात्मा पदार्थ है उसको आदि लेकर सर्व पदार्थों का निश्चय करने वाला जो साधु है उसी के एकाग्रता होती है। तथा इन जीवादि पदार्थों का निश्चय आगम के द्वारा होता है । अर्थात जिस आगम में जीवों के भेद तथा कर्मों के भेदादि का कथन हो उसी आगम के अभ्यास से पदार्थों का निश्चय होता है। केवल पढ़ने का ही अभ्यास न करे किन्तु आगमों में सारभूत जो चिदानंदरूप एक परमात्व तत्व का प्रकाशक अध्यात्म ग्रन्थ है व जिसके अभ्यास से पदार्थ का यथार्थ ज्ञान होता है, उसका मनन करे । इस कारण से ही उस ऊपर कहे गए आमम तथा परमागम में जो उद्योग है वह श्रेष्ठ है । ऐसा अर्थ है ॥२३२॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो अथागमहीनस्य मोक्षाख्यं कर्मक्षपणं न संभवतीति प्रतिपावयति भागमहीणो समतो लप्पाणं परं वियाणादि । अविजाणतो अछे खवेदि कम्माणि किध' भिक्खू ॥२३३॥ आगमहीनः श्रमणो नैवात्मनं पर विजानाति । अविजानन्नर्थान् क्षपयति कर्माणि कथं भिक्षुः ॥२३३।। न खल्वागममन्तरेण परात्मज्ञानं परमात्मज्ञानं था स्यात्, न च परात्मज्ञानशून्यस्य परमात्मज्ञानशन्यस्य वा मोहाविद्रव्यभावकर्मणां ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां वा क्षपणं स्यात् । तथाहिन तावन्निराममस्य निरवधिभवापगाप्रवाहवाहिमहामोहमलमलीमसस्यास्य जगतः पीतोन्मत्तकस्येवावकीर्णविवेकस्याविविक्तेन ज्ञानज्योतिषा निरूपयतोऽप्यात्मात्मप्रदेशनिश्चितशरीरादिव्येषूपयोगमिश्रितमोहागद्वेषादिभावेषु च स्वपरनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकस्वानुभवाभावादयं परोऽयमात्मेति ज्ञान सियेत् । तथा च त्रिसमयपरिपाटीप्रकटितविचित्रपर्यायप्रारभारागाधगम्भीरस्वभावं विश्वमेव जयोकृत्य प्रतपतः परमात्मनिश्चायकागमोपदेशपूर्वकस्वानुभवाभावात् ज्ञानस्वभावस्यैकस्य परमात्मनो ज्ञानमपि न सिद्धयेत् । परात्मपरमात्मज्ञानशून्यस्य तु अथ्यकर्मारब्धः शरीरादिभिस्तत्प्रत्ययर्मोहरागद्वेषादिभावश्च सहैक्यमाकलयतो वध्यघातकविभागाभावान्मोहादिद्रव्यमावकर्मणां क्षपणं न सिद्धयेत् तथा च ज्ञेयनिष्ठतया प्रतिवस्तु पातोत्पासपरिणतत्वेन जप्तेरासंसारात्परिवर्तमानायाः परमात्मनिष्ठत्वमन्तरेणानियायपरिवर्ततया ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां क्षपणमपि न सियेत् । अतः कर्मक्षपणार्षिभिः सर्वथागमः पर्युपास्यः ॥२३३॥ भूमिका-अब, आगमहीन के मोक्ष नाम से कहा जाने वाला कर्मक्षय नहीं होता, यह प्रतिपादन करते हैं। ___अन्वयार्थ-[आगमहीनः] आगमहीन [श्रमण:] श्रमण [आत्मानं] आत्मा को (निज को) और परं] पर को [न एव बिजानाति] नहीं जानता, [अर्थात् अविजानन् ] पदार्थों को नहीं जानता हुआ [भिक्षुः] भिक्षु [कर्माणि] कर्मों को [कथं ] किस प्रकार [क्षपयति] क्षय करे । टोका-वास्तव में आगम के बिना परात्मज्ञान या परमात्मज्ञान नहीं होता, और परात्मज्ञानशून्य के या परमात्मज्ञानशून्य के मोहादि द्रव्यमाव कर्मों का या ज्ञप्ति परिवर्तन (जाननरूप) क्रिया का-परिवर्तनरूप कार्य का क्षय नहीं होता । वह इस प्रकार है कि-- प्रथम तो, आगमहीन यह जगत् कि जो निरवधि (अनन्त) संसाररूप नवी के प्रवाह को १. निह (ज० ७०)। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारी ] [ ५५६ बहाने वाले (पंच परिवर्तन करने वाले) महामोहमल से मलीन है वह, धतूरा पिये हुए मनुष्य की भांति विवेक के नाश को प्राप्त होने से अविविक्त ज्ञानज्योति से यद्यपि देखता है तथापि उसे स्व-पर-निश्चायक आगमोपदेश-पूर्वक स्वानुभघ के अभाव के कारण, आत्मा में और आत्मप्रदेश में स्थित शरीरादि द्रव्यों में तथा उपयोगमिश्रित मोहरागद्वेषावि भावों में 'यह पर है और यह आत्मा है ऐसा ज्ञान सिद्ध नहीं होता तथा उसे, परमात्मनिश्चायक आगमोपदेश-पूर्थक स्वानुभव के अभाव के कारण, जिसके त्रिकाल परिपाटी में विचित्र पर्यायों का समूह प्रगट होता है ऐसे अगाध गम्भीर स्वभाव वाले विश्व को ज्ञेयरूप करके प्रतापवान् ज्ञानस्थभावी एक परमात्मा का ज्ञान भी सिद्ध नहीं होता । इस प्रकार जो (१) परात्मज्ञान से तथा (२) परमात्मज्ञाम से शून्य है उसे, (१) द्रव्यकर्म से होने वाले शरीरादि के साथ तथा तत्संबंधी मोहरागद्वेषावि भावों के साथ एकता का अनुभव करने के कारण यध्यघातक (द्रव्यकर्म) के विभाग का अभाव होने से मोहादि द्रव्य-भाव कर्मों का क्षय सिद्ध नहीं होता तथा (२) ज्ञेयनिष्ठता से प्रत्येक वस्तु के प्रति उत्पाद विनाश रूप परिणमित करने के कारण अनादि संसार से परिवर्तन को पाने वाली जो ज्ञप्ति, उसका परिवर्तन परमात्मनिष्ठता के अतिरिक्त अनिवार्य होने से, जति परिवर्तनरूप कार्य का क्षय भी सिद्ध नहीं होता। इसलिये कर्मक्षयार्थियों को सर्वप्रकार से आगम की पर्यपासना करना योग्य है। तात्पर्यवृत्ति अथागमपरिज्ञानहीनस्य कर्मक्षपणं न भवतीति प्ररूपयति : आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि आगमहीनः श्रमणो नैवात्मानं परं वा विजानाति अविजाणंतो अछे अविजाननान्परमात्मादिपदार्थान् खवेदि कम्माणि किह भिक्खू क्षपयति कर्माणि कथं भिक्षन कथमपि इति । इतो विस्तरः- गृणजीयापज्जत्तो पाणा सा य मगणाओ य । उवओगोवि य कमलो वीसं तु परूषणा भणिदा इति माथाकथिताद्यागममजानन् तथैव "भिण्णउ जेण ण जाणियउ णियदेहहंपरमत्थु । सो अंधउ अवरह अंधयह किम वरिसावइ पंथु ।" इति दोहकसूत्रकथिताद्यागमपदसारभूतमध्यात्मशास्त्रं चाजानन् पुरुषो रागादिदोषरहिताच्यावाधसुखादिगुणस्वरूपनिजात्मन्यस्य भावकर्मशब्दाभिधेयः रागादिनानाबिकल्पजालनिश्चयेन कर्मभिः सह भेदं न जानाति तथैव कारिविध्वंसकस्वकीयपरमात्मतत्त्वस्य ज्ञानाबरणादिव्यकर्मभिरपि सह पृथक्त्वं न वेति । तथा चाशरीरलक्षणशुद्धात्मपदार्थस्व शरीरादिनोकर्मकर्मभिः सहान्यत्वं न जानाति । इत्थंभूतभेदज्ञानाभाबादेहस्थमपि निजशुद्धात्मानं न रोचते। समस्तरागादिपरिहारेण न च भावयति । ततश्च कधं कर्मक्षयो भवति ? न कथमपीति । ततः कारणान्मोक्षार्थिना परमागमाभ्यास एवं कर्तव्य इति तात्पर्यार्थः ।।२३३॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जिसको आगम ज्ञान नहीं हैं उसके कर्मों का क्षय नहीं हो सकता है। अन्वय सहित विशेषार्थ---(आगमहीणो) शास्त्र के ज्ञान से रहित (समणो) साधु Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ] [ पवयणसासे (णेवापाणं परं) न तो आत्मा को न परको (वियाणादि) जानता है। (अट्ठे अविजाणतो) परमात्मा आदि पदार्थों को नहीं जानता हुआ (भिक्ख) साधु (किह) किस तरह (कम्माणि) कर्मों का (खवेदि) क्षय कर सकता है ? "गुणजीवापज्जत्ती पाणा सष्णा मम्गणाओ य, उचओगोवि य कमसो कीसं तु परूवणा भणिदा" श्री गोम्मटसार की इस गाथा का भाव यह है कि इस गोम्मटसार जीवकांड में २० प्ररूपणा का कथन है, १. गुणस्थान, २. जीवसमास, ३. पति , ४. प्राण, ५. संज्ञा, ६. गतिमार्गणा, ७. इन्द्रिय मा०, ८. काय मा०, है. योग मा०, १०. घेव मा०, ११. कषाय मा०, १२. ज्ञान मा०, १३. संयम मा०, १४. दर्शन मा०, १५. लेश्या मा०, १६. भव्य मा०, १७. सम्यक्त्व मा०, १८. संजी मा०, १६. आहार, २०. उपयोग । जिसने इन बीस प्ररूपणा के आगम को नहीं जाना तथा "भिण्णउ जेण ण जाणिय णियदेहहंपरमत्थु । सो अधउ अवरह किम दरिसाव पंथु। इस बोहा सूत्र का भाव यह है कि जिसने अपनी देह से परमपदार्थ आत्मा को भिन्न नहीं जाना वह आतरौद्रध्यानी किस तरह अपने प्रात्मपार्थ को देख सकता है। इस प्रकार के आगम में सारभूत अध्यात्मशास्त्र को जिसने नहीं जाना अर्थात् बोस प्ररूपजाओं के शास्त्र को और अध्यात्मशास्त्र इन दोनों शास्त्रों को नहीं जाना, वह पुरुष रागादि दोषों से रहित तथा अन्याबाध सुख आदि गुणों के धारी अपने आत्मद्रव्य को भावकर्म के वाच्य राग द्वेषादि नाना प्रकार विकल्प जालों से वास्तव में भिन्न नहीं जानता है और न कर्मरूपी शत्रु को विध्वंस करने वाले अपने ही परमात्म-तत्व को ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों से जुदा जानता है और न अशरीरी शुद्ध आत्म पदार्थ को शरीरादि नोकर्मों से जुदा समझता है । इस तरह भेद ज्ञान के न होने पर उसके शरीर में विराजित अपने शद्धात्मा को रुचि नहीं होती है और न उसकी भावना सर्व रागादि का त्याग करने की होती है, ऐसी दशा में उसके कर्मों का क्षय किस तरह हो सकता है ? अर्थात् कदापि नहीं हो सकता है। इसी कारण से मोक्षार्थी पुरुष को परमागम का अभ्यास ही करना योग्य है, ऐसा तात्पर्य है ॥२३३॥ अथागम एवेकश्चक्षुर्मोक्षमार्गमुपसर्पतामित्यनुशास्ति आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूवाणि । देवाय ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु ॥२३४॥ आगमचक्षुः साधुरिन्द्रियचशूषि सर्वभूतानि । देवाश्चावधिचक्षुषः सिद्धाः पुनः सर्वतश्चक्षुषः ।।२३४।। १, देवावि (ज०७०)। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] इह ताबद्भगवन्तः सिद्धा एवं शुद्धज्ञानमयत्वात्सर्वतश्चक्षुषः शेषाणि तु सर्वाण्यपि भूतानि मूर्तद्रव्यावसक्तदृष्टित्वारिन्द्रियचक्षूषि, देवास्तु सूक्ष्मत्वविशिष्टमूर्तद्रव्यग्राहित्वादवधिचक्षुषः । अथ च तेऽपि रूपिद्रव्यमात्रष्टत्वेनेन्द्रियचक्षुभ्योऽविशिष्यमाणा इन्द्रियचक्षुष एव । एवममीषु समस्तेष्वपि संसारिषु मोहोपहत्ततया ज्ञेयनिष्ठेषु सत्सु ज्ञाननिष्ठत्वमूलशुखात्मतत्त्वसंसायं समस्या न समेत् । अथ तत्सिद्धये भगवन्तः श्रमणा आगमचक्षुषो भवन्ति । तेन ज्ञेयज्ञानयोरन्योन्यसंबलनेनाशक्यविवेचनत्वे सत्यपि स्वपरविभागमारचय्य निभिन्नमहामोहाः सन्तः परमात्मानमवाप्य सततं ज्ञाननिष्ठा एवावतिष्ठन्ते । अतः सर्वमप्यागमचक्षुषैव मुमुक्षूणां द्रष्टव्यम् ॥२३४॥ . ___ भूमिका-अब, मोक्षमार्ग पर चलने वालों को आगम ही एक चक्षु है, ऐसा उपदेश करते हैं :-- ___अन्वयार्थ-[साध:] साधु [आगमचक्षुः] आगमचक्षु (आगम रूप चक्षु वाले) हैं, [सर्वभूतानि] सर्व प्राणी [इन्द्रियचशूषि] इन्द्रिय चक्षु वाले हैं, [देवाः च] देव [अवधिचक्षुषः] अवधिचक्षु वाले हैं [पुनः] और [सिद्धाः] सिद्ध [सर्वतः चक्षुषः] सर्वतः चक्षु (सर्व ओर से चक्षु वाले अर्थात् सर्वात्म प्रदेशों से चक्षुवान् ) हैं। टीका :-प्रथम तो, इस लोक में भगवन्त सिद्ध ही शुद्ध ज्ञानमय होने से सर्वतः चक्षु हैं, और शेष 'सभी जीव इन्द्रिय चक्षु हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि मूर्त-द्रव्यों में लगी होती है। देव सूक्ष्मतत्वविशिष्ट मृतं द्रव्यों को ग्रहण करते हैं इसलिये वे अवधिचक्षु हैं, अथवा वे भी, मात्र रूपी द्रव्यों को देखते हैं इसलिये उन्हें इन्द्रिय चक्षु वालों से अलग न किया जाये तो, इन्द्रियचक्षु ही हैं । इस प्रकार इन सभी संसारी जीवों के मोह से मलिन होने के कारण ज्ञेयनिष्ठ होने से ज्ञाननिष्ठता का मूल जो शुद्धात्मतत्व का संवेदन उससे साध्य ऐसा सर्वतः चक्षुत्व सिद्ध नहीं होता। __ अब, उस (सर्वतःचक्षुत्व) की सिद्धि के लिये भगवंत श्रमण आगमचा होते हैं । यद्यपि ज्ञेय और ज्ञान का पारस्परिक मिलन हो जाने से उन्हें भिन्न करना अशक्य है अर्थात् ज्ञेय ज्ञान में ज्ञात न हो ऐसा करना अशक्य है) तथापि के उस आगम घा से स्व-पर का विभाग करके, महामोह का भेद करने वाले वे परमात्मा को पाकर, सतत ज्ञाननिष्ठ ही रहते हैं । इससे (यह कहा है कि) मुमुक्षुओं को सब कुछ आगम रूप चक्षु द्वारा ही देखना चाहिये ॥२३४॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ । [ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथ मोक्षमाथिनामागम एव दृष्टिरित्यास्याति : आगमचक्खू शुद्धात्मादिपदार्थ प्रतिपादकपरमागमचक्षुषो भवन्ति । के ते? साह निश्चयरत्नश्रयाधारेण निजशुद्धात्मसाधकाः साधवः इंवियचक्खूणि निश्चयेनातीन्द्रियामूर्तकेवलज्ञानादिगुणस्वरूपाण्यपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशादिन्द्रियचक्षुषि भवन्ति । कानि कर्तृणि ? सबभूवाणि सर्वभूतानि सर्वसंसारिजीवा इत्यर्थः वेवावि ओहिचक्खू देवा अपि सूक्ष्ममूर्तपुद्गलद्रव्यविषयावधिचक्षुषः सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू सिद्धाः पुनः शुद्धबुद्धकस्वभावजीवाजीवलोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयसर्वप्रदेशचक्षुष इति । अनेन किमुक्तं भवति ? सर्वशुद्धात्मप्रदेशे लोचनोत्पत्तिनिमित्तं परमागमोपदेशादुत्पन्न निर्विकारं मोक्षार्थिभिः स्वसंवेदनज्ञानमेव भावनीयमिति ।।२३४॥ उस्थानिका-आगे कहते हैं, कि मोक्षमार्ग पर चलने वालों के लिए आगम ही चक्षु है अन्वय सहित विशेषार्थ--(साह) साधु महाराज (आगम चक्खू) आगम के नेत्र से देखने वाले हैं (सन्यभवाणि) सवं संसारी जीव (इंदियचक्खुणि) इंद्रियों के द्वारा जानने वाले हैं (देवा य ओहिचस्व) और देवगण अवधिज्ञान से जानने वाले हैं (पुण) परन्तु (सिद्धा सध्वदो चक्लू) सिद्ध भगवान् सब तरफ से सब देखने वाले हैं। निश्चय-रत्नत्रय के आधार से निज शुद्धात्मा के साधने वाले साधु गण की चक्षु शुद्धात्मा आदि पदार्थों का कथन करने वाला परमागम है। सयं संसारी जीव निश्चयनय से अतीन्द्रिय और अमूर्त केवलज्ञानादि गुण स्वरूप हैं। व्यवहारनय से अनादि कर्मबंध के वश से इन्द्रियाधीन है अत: वे संसारी जीव इन्द्रियों के द्वारा जानते हैं। चार प्रकार के देव भी सूक्ष्म मूर्तिक पुद्गल द्रव्य को जानने वाले अवधिज्ञान के द्वारा देखते हैं। सिद्ध भगवान् शुद्ध बुद्ध एक स्वभावमयी जीव-अजीव से भरे हुये लोकाकाश के प्रमाण, जो अपने शुद्ध असंख्यात प्रदेश-उन सर्व प्रदेशों से देखते हैं। इससे यह बात कही गई है कि सर्व शुद्धारमा के प्रदेशों से देखने की योग्यता के लिये मोक्षार्थी पुरुषों को उस स्वसंवेधन ज्ञान की ही भावना करनी चाहिये । वह स्वसंवेदन झान निविकार है और परमागम के उपदेश से उत्पन्न होता है ॥२३४॥ अथागमचक्षुषा सर्वमेव दृश्यत एवेति समर्थयति सवे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चिहि । जाणंति आगमेण' हि पेच्छिता ते वि ते समणा ॥२३५।। १. य (ज० ००)। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५६३ सर्वे आगमसिद्धा अर्था गुणपर्यायश्चित्रैः । जानन्त्यागमेन हि दृष्ट्वा तानपि ते श्रमणाः ॥२३५11 आगमेन तावत्सर्वाण्यपि द्रव्याणि प्रमीयन्ते, विस्पष्टतर्कणस्य सर्वद्रव्याणामविरुबत्वात् । विचित्रगुणपर्यायविशिष्टानि च प्रतीयन्ते, सहक्रमप्रवृत्तानेकधर्मध्यापकानेकान्तमयत्वेनैवागमस्य प्रमाणत्वोपपत्तेः । अतः सर्वेऽर्था आगमसिद्धा एष भवन्ति । अय ते श्रमणानां शेयत्वमापद्यन्ते स्वयमेव, विचित्रगुणपर्यायविशिष्टसर्थद्रथ्यध्यापकानेकान्तात्मकश्रुतशानोपयोगीभूय विपरिणमनात् । अतो न किंचिदप्यागमचक्षुषामदृश्यं स्यात् ॥२३॥ भूमिका-अब, यह समर्थन करते हैं कि आगमरूप चक्षु से सब ही दिखाई बेता है ___अन्वयार्थ-[चित्रः गुणपर्यायः] विचित्र (अनेक प्रकार की) गुणपर्यायों सहित [सर्वे अर्था:] समस्त पदार्थ [आगमसिद्धाः] आगमसिद्ध हैं। तान् अपि] उन्हें भी | ते श्रमणाः वे श्रमण [आगमेन हि दृष्ट्वा ] आगम' द्वारा वास्तव में देखकर [जानन्ति] जानते हैं। ____टोका-प्रथम तो, आगम द्वारा सभी द्रव्य प्रमेय (ज्ञेय) होते हैं, क्योंकि सर्वद्रव्य बिस्पष्ट सर्कणा से अविरुद्ध हैं, और फिर, आगम से वे द्रव्य विचित्र गुणपर्यायवाले प्रतीत होते हैं, क्योंकि आगम को सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनेक धर्मों में व्यापक अनेकान्तमय होने से प्रमाणता की उपपत्ति है (अर्थात् आगम प्रमाणभूत सिद्ध होता है)। इससे सभी पदार्थ आगम सिख ही हैं और वे श्रमणों को स्वयमेव ज्ञेयभूत होते हैं, क्योंकि श्रमण विचित्र गुण पर्याय वाले सवंद्रव्यों में व्यापक अनेकान्तात्मक श्रुतज्ञानोपयोग रूप होकर परिणमित होते हैं । इससे यह कहा है कि आगम रूप चक्षु वालों को कुछ भी अदृश्य नहीं है ॥२३५॥ तात्पर्यवृत्ति अथागमलोचनेन सर्वं दृश्यत इति प्रज्ञापयति सवे आगमसिद्धा सर्वेऽप्यागमसिद्धा आगमेन ज्ञाताः । के ते? अस्था विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तत्प्रभृतयोऽर्थाः । कथं सिद्धाः ? गुणपज्जएहि चित्तेहि विचित्रगुणपर्यायः सह । जाणंति जानन्ति । कान् ? तेवि तान् पूर्वोक्तार्थगुणपर्यायान् । किंकृत्वा पूर्व ? पेच्छित्ता दृष्टा ज्ञात्वा । केन ? आगमेण य आगमेनैव । अयमन्त्रार्थः–पूर्वमागमं पठित्वा पश्चाज्जानन्ति ते समणा ते श्रमणा भवन्तीति । अत्रेदं भणितं भवति-सर्वे द्रव्यगुणपर्याया: परमागमेन ज्ञायन्ते। कस्मात् ? आगमस्य परोक्षरूपेण केवलज्ञानसमानत्वात्, पश्चादागमाधारेण स्वसंवेदनज्ञाने जाते स्वसंवेदनज्ञानबलेन केबलजाने च जाते प्रत्यक्षा अपि भवन्ति । ततः कारणादागमचक्षुषा परंपरया सर्व दृश्यं भवतीति 11२३५॥ एवमागमाभ्यासकथनरूपेण प्रथमस्थले सूत्रचतुष्टयं गतम् । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पघयणसारो उत्थानिका-आग कहते हैं कि आगम के लोचन से सर्व दिखता है अन्वय सहित विशेषार्थ(चिसेहि गुणपज्जएहि) नाना प्रकार गुण पर्यायों के साथ (सब्वे अत्था) सर्व पदार्थ (आगम सिद्धा) आगम से सिद्ध हैं। (आगमेण) आगम के द्वारा (तेवि) उन सबको (हि पेच्छित्ता) यथार्थ देखकर (जाणंति) जो जानते हैं (ते समणा) वे ही साधु हैं। विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावधारी परमात्मपबार्थ को लेकर सर्व ही पधार्थ तथा उनके सर्व गुण और पर्याय परमागम के द्वारा जाने जाते हैं, क्योंकि परोक्ष रूप आगम केवलज्ञान के समान है। आगम द्वारा पदार्थों को जान लेने पर जब स्वसंवेदन ज्ञान पैदा हो जाता है तब उस स्वसंवेदन के बल से जब केवलज्ञान पैदा होता है तब धे ही सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष हो जाते हैं । इसलिये आगम-चक्षु के द्वारा परम्परा से सर्व हो प्रत्यक्ष दीख जाता है ॥२३॥ भावार्थ-श्री समंतभद्राचार्य आप्तमीमांसा में स्यावाद को केवल ज्ञान के समान बताते हैं, जैसे स्याद्वारकेवलज्ञाने सर्वतत्वप्रकाशने । भेदः साक्षावसाक्षाच्च गवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥१५॥ अर्थात् स्याद्वाद और केवलज्ञान में सर्व तत्वों के प्रकाशने को अपेक्षा समानता है, केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष का ही भेव है। यदि दोनों में से एक न होय तो वस्तु ही न रहे । ओ पदार्थ केवलज्ञान से प्रगट होते हैं उन सबको परोक्ष रूप से शास्त्र बताता है। इसलिये सर्व द्रव्य गुण पर्यायों को दोनों बताते हैं—केवलज्ञान न हो तो स्याद्वावमय श्रुत ज्ञान न हो और यदि स्यादवावमय श्रुतज्ञान न हो तो केवलज्ञान नहीं होता। इस तरह आगम के अभ्यास को कहते हुए प्रथम स्थल में चार सूत्र पूर्ण हुए। अथागमज्ञानतत्पूर्वतत्त्वार्थश्रद्धानतदुभयपूर्वसंयतत्त्वानां योगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं नियमयति आगमपुव्वा विट्ठी ण हवदि जस्सेह संजमो तस्स । पत्थीदि भणदि सत्तं असंजदो होवि किध' समणो ॥२३६।। आगमपूर्वा दृष्टिर्न भवति यस्येह संयमस्तस्य । नास्तीति भणति सूत्रमसंयतो भवति कथं श्रमणः ।।२३६।। इह हि सर्वस्यापि स्यात्कारकेतनागमपूर्विकया तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणया दृष्टया शून्यस्य स्वपरविभागामावात कायकवायः सहैक्यमध्यवसतोऽनिरुद्धविषयाभिलाषतया षड् १. किह (ज० वृ०)। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Taणसारो ] [ ५६५ जीवनिकाघातिनो भूत्वा सर्वतोऽपि कृतप्रवृत्तेः सर्वतो निवृत्त्यभावात्तथा परमात्मज्ञानाभावाद् ज्ञेयचक्रक्रमाक्रमणनिरर्गलज्ञप्तितया ज्ञानरूपात्मतत्त्वं का प्रयप्रवृत्त्यभावाच्च संयम एवं न तावत् सिद्ध ेत् । असिद्धसंघमस्य तु सुनिश्चितका प्रधगतत्वरूपं मोक्षमार्गापरनामश्रामयमेव न सिद्धयेत् । अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्यस्यैव मोक्षमार्गत्वं नियम्येत ॥२३६॥ भूमिका – अब, आगमज्ञान, तत्पूर्वक सत्वार्थश्रद्धान और तदुभयपूर्वक संयतत्व की युगपतता वाले के मोक्षमागत्य होने का नियम करते हैं । [ उत्यानिका -- [ इह ] इस लोक में [ यस्य ] जिसकी [आगमपूर्वा दृष्टि: ] आगमपूर्वक दृष्टि (दर्शन) [ न भवति ] नही है तस्य ] उसके [ संयम ] संयम [ नास्ति ] नहीं है, [ इति ] इस प्रकार [ सूत्रं भणति ] सूत्र कहता है, और [ असंयतः ] जो असंयत है, वह [ श्रमणः ] श्रमण [ कथं भवति ] कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । टीका - इस लोक में प्रथम तो स्यात्कार चिन्ह वाले आगम पूर्वक तत्वार्थ श्रद्धान लक्षण वाली दृष्टि से जो शून्य हैं उन सभी को संयम वास्तव में ही सिद्ध नहीं होता, क्योंकि (१) स्वर के विभाग के अभाव के कारण काय और कषायों के साथ एकता का अध्यवसाय करने वाले वे जीव, विषयों की अभिलाषा का निरोध नहीं होने से छह जीवनिकाय के घाती होकर सर्वत्र प्रवृत्ति करते हैं, इसलिये उनके सर्वतः निवृत्ति का अभाव है, तथापि ( २ ) उनके परमात्मज्ञान के ( केवलज्ञान के अभाव के कारण ज्ञेय समूह को क्रमशः जानने वाली निरर्गल ज्ञप्ति होने से ज्ञान रूप आत्मतत्व में एकाग्रता की प्रवृत्ति का अभाव है। जिनके संयम सिद्ध नहीं होता उनके सुनिश्चित ऐकाच परिणतता रूप श्रामण्य हो जिसका कि दूसरा नाम मोक्षमार्ग है, सिद्ध नहीं होता। (यहां पर मुनि की एकाग्रपरिणति अर्थात् शुक्लध्यान को मोक्षमार्ग कहा है) इससे आगम ज्ञान - तत्वार्थ श्रद्धान और संयतत्व की युगपत्तता वाले को ही मोक्षमार्गत्व होने का नियम सिद्ध होता है ।। २३६ । तात्पर्यवृति अथागमपरिज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानतदुभयपूर्वकसंयतत्वत्रयस्य मोक्षमार्गस्वं नियमयति आगमपुवा दिट्ठी ण हवदि जस्सेह आगमपूर्विका दृष्टिः सम्यक्त्वं नास्ति यस्येह लोके संजमो तस्स णत्थि संयमस्तस्य नास्ति इदि भणवि इत्येवं भणति कथयति किं कृतु ? सुत्तं सूत्रमागमः असंजदो होदि हि समणो असंयतः सन् श्रमणस्तपोधनः कथं भवति न कथमपीति । तथाहियदि निर्दोषिनिजपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वं नास्ति तहि परमागमबलेन विशदकज्ञानरूपमात्मानं जानपि सम्यग्दृष्टिर्न भवति ज्ञानी च न भवति तद्वयाभावे सति पञ्चेन्द्रियविषया Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] । पवयणसारो भिलाषषड्जीववधव्यावर्तोपि संयतो न भवति। ततः स्थितमेतत् परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वत्रयमेव मुक्तिकारणमिति ।।२३६।। उत्थानिका—आगे कहते हैं कि आगमज्ञान, तत्वार्थ श्रद्धान तथा श्रद्धान-ज्ञानपूर्वक चारित्र ये तीन ही मोक्षमार्ग नियम से हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ—(इह) इस लोक में (अस्स) जिस जीव के (आयमपुत्वा) आगम ज्ञान-पूर्वक (दिट्ठी) सम्यकदर्शन (ण हदि) नहीं है (तस्स) उस जीव के (संजमो पत्थि ति सुत्तं भणदि) संपम नहीं है, ऐसा सूत्र कहता है । (असंजदो) जो असंयमी है वह (किह) किस तरह (समणो) श्रमण या साध (होदि) हो सकता है ? नहीं हो सकता । दोष रहित अपना शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है। ऐसो रुचि सहित सम्यग्दर्शन जिसके नहीं है, वह परमागम के बल से निर्मल एक ज्ञान स्वरूप आत्मा को जानते हुए भी न सम्यग्दृष्टि है और न सम्यग्ज्ञानी है। इन दोनों के अभाव होते हुए पंचेन्द्रियों के विषयों की इच्छा तथा छः प्रकार के जीवों के वध से अलग रहने पर भी संयमी नहीं होता। इससे यह सिद्ध किया गया कि परमागमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयमपना ये तीनों ही एक साथ मोक्ष के कारण होते हैं ॥२३६॥ अयागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयोगपद्यस्य भोक्षमार्गत्वं विघटयतिण हि आगमेण सिज्झवि सद्दहणं जदि वि 'गत्थि अत्थेसु । सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिवादि ॥२३७॥ न ह्यागमन सिद्धचति श्रद्धानं यद्यपि नास्त्यर्थेषु । श्रद्दधान अर्थानसंयतो वा न निर्वाति ॥२३७।। श्रद्धानशून्येनागमजनितेन ज्ञानेन तदविनाभाविना श्रद्धानेन च संयमशून्येन न तानसिद्धयति । तथाहि-आगमबलेन सकलपदार्थान् विस्पष्टं तर्कयन्नपि यदि सकलपवार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदक ज्ञानाकारमात्मानं न तथा प्रत्येति तवा तथोदितात्मनः श्रद्धानशून्यतया यथोदितमात्मानमननुभवन् कथं नाम ज्ञेयनिमग्नो ज्ञानविमूढो ज्ञानो स्यात् । अज्ञानिनश्च ज्ञेयधोतको भवन्नप्यागमः किं कुर्यात् । ततः श्रद्धानशून्यादागमान्नास्ति सिद्धिः । किंच-सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदेकज्ञानाकारमात्मातं श्रद्दधानोऽप्यनुभवन्नपि यदि स्वास्मिन्नेव संयम्य न वर्तयति तदानादिमोहरागद्वेषवासनोपजनितपरद्रव्यचक्रमणस्वैरिण्याश्चिवृत्तेः स्वस्मिन्नेव स्थानान्निर्वासननिःकम्पकतत्त्वमूपिछतचिद्वृत्त्यभावात्कथं नाम Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५६७ संयतः स्यात् । असंयतस्य च यथोदितात्मत्त्वप्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं था कि कुर्यात् । ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञनाद्वा नास्ति सिद्धिः। अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयोगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतैव ॥२३७॥ भूमिका-अब, यह सिद्ध करते हैं कि-आगमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान और संयतत्व की अयुगपतता वाले के मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता अन्वयार्थ---- आगमेन] आगम से [यदि अपि] यदि [अर्थेष श्रद्धानं नास्ति] पदार्थों का श्रद्धान न हो तो, [न हि सिद्धयति] सिद्धि (मुक्ति) नहीं होती, [अर्थान् श्रद्धधानः] पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी [असंयतः वा] यदि असंयत हो तो [न निर्वाति ] निवाण को प्राप्त नहीं होता।। ___टोका-आगमजनित ज्ञान से, यदि श्रद्धानशून्य (श्रद्धान उत्पन्न न हुआ) हो तो सिद्धि नहीं होती, और जो आगमज्ञान के अधिनाभावी श्रद्धान से भी, यदि संयमशून्य हो तो सिद्धि नहीं होती। यथा--आगम बल से सकल पदार्थों की विस्पष्ट तर्फणा करता हुआ भी यदि जीव, सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होने वाला विशद एक ज्ञान वह ज्ञान जिसका आकार है, ऐसे आत्मा को उस प्रकार से प्रप्तीत नहीं करता तो यथोक्त मात्मा के श्रद्धान से शून्य होने के कारण जो यथोक्त आत्मा का अनुभव नहीं करता (नहीं जानता) ऐसा वह ज्ञेयनिमग्न ज्ञान-विमूढ जीव कैसे ज्ञानी होगा ? (नहीं होगा, वह अज्ञानी हो होगा।) और ज्ञेयद्योतक तक होने पर भी आगम अज्ञानी को क्या करेगा ? आगम ज्ञेयों का प्रकाशक होने पर भी वह अज्ञानी के लिये क्या कर सकता है ? इसलिये श्रद्धानशन्य वाले को आगम से सिद्धि नहीं होती। (जो श्रद्धापूर्वक आगम को नहीं पढ़ते उनको आगम से सिद्धि नहीं होती) और सफल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होता हुआ एक ज्ञान जिसका आकार है, ऐसे आत्मा का श्रद्धान करता हुआ भी अनुभव करता (जानता) हुआ भी यदि जीव अपने में ही संयमित होकर नहीं रहता, तो वह संयत कैसे होगा ? क्योंकि उसकी चित्ति (चैतन्य की परिणति) अनादि मोह राग द्वेष की वासना से जनित पर-द्रव्य में भ्रमणता के कारण स्व-इच्छा-चारिणी हो रही है, और उस चिदवत्ति के ऐसी चिद्वत्ति का अभाव है जो अपने में ही रहने से वासना (विषय कषाय) रहित निष्कंप और एक तत्त्व में लीन हो । (अर्थात् जिसकी चित्ति स्व-इच्छा-चारणी हो और एकाग्रता रूप ध्यान से रहित हो यह असंयत है) यथोक्त आत्मतत्व को प्रतीति रूप श्रद्धान या यथोक्त आत्मतत्व का अनुभूतिरूप ज्ञान असंयत को क्या करेगा ? इसलिये Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ] [ पवयणसारो संघमशून्य श्रद्धान व ज्ञान से सिद्धि नहीं होती। इससे आगमज्ञान तत्वार्थश्रद्धान संयतत्व के अयुगपत्य वाले के मोक्षमागत्य घटित नहीं होता ॥ २३७॥ तात्पर्यवृत्ति अमाणानतत्त्वार्थद्धमोक्षो नास्तीति व्यवस्थापयति ण हि आगमेण सिज्झदि आगमजनितपरमात्मज्ञानेन न सिद्ध्यति सद्दहणं अदि वि शत्थि अत्थे श्रद्धानं यदि च नास्ति परमात्मादिपदार्थेषु । सहमाणो अत्थे श्रद्दवानो वा चिदानन्दकस्वभावनिजपरमात्मादिपदार्थान् । असंभवो वा ण णिग्वादि विषयकषायाधीनत्वेनासंयतो वा न निर्वात निर्वाण न लभत इति । तथाहि-[- - यथा प्रदीपसहितपुरुषस्य कूपपतनप्रस्तावे कूपपतनान्निवर्त्तनं मम हितमिति निश्चयरूपं श्रद्धानं यदि नास्ति तदा तस्य प्रदीपः किं करोति ? न किमपि । तथा जीवस्यापि परमागमाधारेण सकलपदार्थज्ञेयाकारक रावलम्बितविशदेकज्ञानरूपं स्वात्मानं जानतोऽपि ममात्मैवोपादेय इति निश्चयरूपं यदि श्रद्धानं नास्ति तदा तस्य प्रदीपस्थापनीय आगमः किं करोति ? न किमपि । यथा वा स एव प्रदीपसहितपुरुषः स्वकीयपौरुष बलेन कूपपतनाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं प्रदीप दृष्टि किं करोति ? न किमपि । तथायं जीवः श्रद्धानज्ञानसहितोऽपि पौरुषस्थानीयचारित्रबन रागादिविकल्प रूपादसंयमाद्यदि न निवर्त्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञानं वा किं कुर्यान्न ? किमपीति । अतः एतदायादि परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतस्वानं मध्ये द्वयेनैकेन वा निर्वाणं नास्ति किन्तु येणेति एवं भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गस्थापनमुख्यत्वेन द्वितीयस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । किंच बहिरात्मावस्थान्तरात्मावस्थापरमात्मावस्था मोक्षावस्थात्रयं तिष्ठति । अवस्थात्रयेऽनुगताकारद्रव्यं तिष्ठति । एवं परस्परसापेक्षद्रव्यपर्यायात्मको जीवपदार्थः । तत्र मोक्षकारणं चिन्त्यते । मिथ्यात्वगादिरूपा बहिरात्मावस्था तावदशुद्धा मुक्तिकारणं न भवति । मोक्षावस्था शुद्धात्मफलभूता साचाग्रे तिष्ठति । एताभ्यां द्वाभ्यां भिन्ना यान्तरात्मावस्था सा मिध्यात्वरागादरहितत्वेन शुद्धा यथा सूक्ष्मनिगोतज्ञाने शेषावरणे सत्यपि क्षयोपशमज्ञानावरणं नास्ति तथात्रापि केवलज्ञानावरणे सत्यप्येकदेशक्षयोपशमज्ञानापेक्षया नास्त्यावरणम् । यावतांशेन निरावरणरागादिरहितत्वेन शुद्धा च तावतांशेन मोक्षकारणं भवति । तत्र शुद्धपारिणामिकभावरूपं परमात्मद्रव्यं ध्येयं भवति । तच्च तस्मादन्तरात्मध्यानावस्थाविशेषात्कथंचिद्भिन्नम् । यदेकान्तेनाभिन्नं भवति तदा मोक्षेऽपि ध्यानं प्राप्नोति अथवास्य ध्यानपर्यायस्य विनाशे सति तस्य पारिणामिकभावस्यापि विनाशः प्राप्नोति । एवं बहिरात्मान्तरात्मपरमात्मकथनरूपेण मोक्षमार्गे ज्ञातव्यः ॥ २३७॥ उत्थानिका -- आगे कहते हैं कि आगम का ज्ञान, तत्त्वार्थ का श्रद्धान तथा संयमपना ये तीनों यदि एक साथ नहीं होवें तो मोक्ष नहीं हो सकता है । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जवि ) यदि (अस्थेसु सहहणं णत्थि ) पदार्थों में श्रद्धान नहीं होवे तो (ण हि आगमेन सिज्झवि ) मात्र आगम के ज्ञान से सिद्ध नहीं हो सकता है । ( अत्थे सद्दहमाणो ) पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ (असंजदो वा ण णिव्यादि ) यदि असंयम है तो भी निर्वाण को प्राप्त नहीं करता है। यदि कोई परमात्मा आदि पदार्थों में श्रद्धान नहीं रखता है तो वह आगम से होने वाले मात्र परमात्मा के Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवमणसारो ] [ ५६६ ज्ञान से सिद्धि नहीं पा सकता है, तथा चिदानन्दमय एक स्वभावरूप अपने परमात्मा आदि पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ भी यदि विषयों और कषायों के अधीन रहकर असंयमी रहता है तो भी निर्वाण को नहीं पा सकता है। जैसे किसी पुरुष के हाथ में दीपक है तथा उसको यह निश्चयरूप श्रद्धान नहीं है कि यदि दीपक से देखकर चलूंगा तो कुएं में गिरने का अवसर प्राप्त होने पर कुएं में मैंन गिगा, इसमें मेरा हित है, तो उसके पास दीपक होने से भी कोई लाभ नहीं है । तैसे हो किसी जीव का परमागम के आधार से अपने आत्मा का ऐसा एक ज्ञान है जो सर्व ज्ञेय पदार्थ के आकारों को हाथ पर रखे हुए आंवले के समान, स्पष्ट जानने को समर्थ है । अपनी आत्मा को ऐसा जानता हुआ भी यदि यह निश्चयरूप श्रद्धान नहीं है कि मेरा आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है तो उसके लिए दीपक के समान आगम क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं करता है। वही दीपक को रखने वाला पुरुष अपने पुरुषार्थ के बल से कूप पतन से यदि नहीं बचता है तो उसका श्रद्धान दीपक व दृष्टि कुछ भी कार्यकारी नहीं हुई, तसे ही यह जीव श्रद्धान और ज्ञान सहित भी है, परन्तु पुरुष के समान चारित्र के बल से रागद्वेषादि विकल्परूप असंयमभाव से यदि अपने को नहीं हटाता है तो श्रद्धान तथा ज्ञान उसका क्या हित कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकते । इससे यह बात सिद्ध हुई कि परमागमज्ञान, तत्वार्थ श्रद्धानतथा संयमपना इन तीनों में से केवल दो सेवा मात्र एक से निर्वाण नहीं हो सकता है, किन्तु तीनों से ही मोक्ष होता है। इस तरह भेद और अभेद स्वरूप रत्नत्रयमय मोक्षमार्ग को स्थापन की मुख्यता से दूसरे स्थल में चार गाथाएं पूर्ण हुई । यहां यह भाव है कि बहिरात्मा अवस्था, अन्तरात्मा अवस्था परमात्मा अवस्था या मोक्ष अवस्था ऐसी तीन अवस्थायें जीव को होती हैं, इन तीनों अवस्थाओं के अनुरूप होकर द्रव्य रहता है । इस तरह परस्पर अपेक्षा सहित द्रव्यरूप व पर्यायरूप जीव पदार्थ को जानना चाहिये | अब यहां मोक्ष का कारण विचारा जाता है। मिथ्यात्व रागादि रूप जो बहिरात्मा अवस्था है वह तो अशुद्ध है इसलिये मोक्ष का कारण नहीं है । मोक्षावस्था तो शुद्धात्मा रूप अर्थात् फलरूप है जो आगामी काल में होगी। इन दोनों बहिरात्मावस्था और मोक्षावस्था से भिन्न जो अन्तरात्मावस्था है वह मिध्यात्व रागादि से रहित होने के Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० ] [ पवयणसारो कारण से शद्ध है। जैसे सूक्ष्म निगोदिया जीय के ज्ञान में अन्य ज्ञान का आवरण होने पर भी क्षयोपशमज्ञान का सर्वथा आवरण नहीं है तैसे इस अन्तरात्मा अवस्था में केवलज्ञानावरण के होते हुए भी एक देश क्षयोपशमजानकी अपेक्षा आवरण नहीं है। जितने अंश में क्षयोपशमज्ञान राणादि भावों से रहित होकर शुद्ध है उत्तने अंश में यह मोक्ष का कारण है। इस अवस्था में शुद्ध पारिणामिक-भाव स्वरूप परमात्मा द्रव्य तो ध्येय (ध्यान करने योग्य) है । सो परमात्मा द्रव्य उस अन्तरात्मापने की ध्यान की अवस्था विशेष से कथंचित भिन्न है। यदि एकान्त से अन्तरात्मावस्था और परमात्मावस्था को अभिन्न या अभेद माना जाएगा तो मोक्ष में भी ध्यान प्राप्त हो जाएगा अथवा इस ध्यान पर्याय के विनाश होते हुए पारिणामिकभाव का भी विनाश हो जाएगा सो हो नहीं सकता। इस तरह बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा के कथन रूप से मोक्षमार्ग जानना चाहिये ।।२३७।। अथागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां योगपद्येऽप्यात्मज्ञानस्य मोक्षमार्गसाधकतमत्यं द्योतयति जं अण्णाणी कम्म खवेदि' भवसयसहस्सकोडीहि । तं गाणी तिहिं ग तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥२३८।। यदज्ञानी कर्म क्षपयति भवशतसहस्रकोटिभिः । तज्ज्ञानी विभिगुप्त: क्षपयत्युच्छवासमाश्रेण ॥२३॥ यदज्ञानी कर्म क्रमपरिपाट्या बालतपोवैचित्र्योपक्रमेण च पच्यमानमुपात्तरागढ - षतया सुखदुःखादिविकारभावपरिणतः पुनरारोपितसंतानं मवशतसहस्रकोटिभिः कथंचन निरस्तरति, तदेव ज्ञानी स्यात्कारकेतनागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपधातिशयप्रसादासादितशुद्धज्ञानमयात्मतत्त्वानुभूतिलक्षणज्ञानित्वसद्भावात्कायवामनःकर्मोपरमप्रवृत्त - त्रिगुप्तत्वात् प्रचण्डोपक्रमपच्यमानमपहस्तितरागद्वेषतया दूरनिरस्तसमस्तसुखदुःखादिविकारः पुनरनारोपितसंतानमुच्छवासमात्रेणय लीलयव पातयति । अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्वानसंयतत्वयोगपधेऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ॥२३॥ _भूमिका-अब, आगमशान-सत्वार्थश्रद्धान-संयतत्व का युगपतत्व होने पर भी, आत्मज्ञान मोक्षमार्ग का साधकतम (उत्कृष्ट साधक) है, यह बतलाते हैं अन्वयार्थ-[यत् कर्म] जो कर्म [अज्ञानी] अज्ञानी [भवशतसहस्रकोटिभिः] नक्ष कोटि भवों में [क्षपति] खपाता है, [तत्] वह [ज्ञानी] ज्ञानी (क्षपकश्रेणीवाला) १. खवेइ (ज० ००), २. तण्णाणी (ज० वृ०), ३. खवेश (ज• वृ०) । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५७१ [त्रिभि: गुप्तः] तीन प्रकार (मन वचन काय) से गुप्त होने से [उच्छवासमात्रेण उच्छ्वासमात्र में (क्षपयति) खपा देता है। __टीका--जो फर्म, (अज्ञानी को) क्रमपरिपाटी से तथा अनेक प्रकार के बालतपादिरूप उद्यम से पककर उदय में आते हये रागद्वेष को ग्रहण किया होने से सुखदुःखादिविकार भावरूप परिणमित होने से पुनः संतान को आरोपित करते हैं, उन कर्मों का अज्ञानी लक्षणकोटिभवों में जिस तिस प्रकार निस्तारा करता है, वही कर्म, ज्ञानी को स्यात्कारकेतन रूप आगम का ज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान और संयतत्व इनकी युगपत्ता के अतिशय प्रसाद से प्राप्त शुद्ध ज्ञानमयी आत्मतत्व की अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे ज्ञानीपन के सद्भाव के कारण काय बचन मन को कौ के उपरम (रुकन) से त्रिगुप्त में प्रवर्तमान होने के (कारण) प्रचण्ड उद्यम से पकते हुए रागद्वेष के अभाव में समस्त सुखदुःखादिविकार अत्यन्त निरस्त हो जाने से, पुनःसन्तान को आरोपित नहीं करते, उन कर्मों को ज्ञानी उच्छ्वासमात्र में ही-लीलामात्र से नष्ट कर देता है। इससे, आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान और संयतत्व की युगपत्ता होने पर भी (क्षपक श्रेणी में होने वाले) आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम संमत करना चाहिये ॥२३॥ __ भावार्थ-गाथा २३६ की टीका में एकानय परिणतता रूप श्रामण्य के मोक्षमार्ग कहा गया था । 'एकाग्रता' वीतरागनिर्विकल्पसमाधि अर्थात् श्रेणी में होती है। यहां पर आत्मज्ञान को मोक्षमार्ग का साधकतम कहा है। आगम ज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान व संयम की एकता होने पर वह आत्म-ज्ञान होता है। इससे स्पष्ट है कि इस गाथा तथा गाथा २३६ में 'आत्मज्ञान' से अभिप्राय उस आत्मज्ञान से है जो वीतरागनिर्विकल्पसमाधि अर्थात् श्रेणी में होता है और वही आत्मज्ञान मोक्षमार्ग का साधकतम है और उसी आत्मजान, के बिना साक्षात् मोक्षमार्ग नहीं होता, इसलिये उस आत्मज्ञान के बिना आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व को अकिंचित्कर कहते हैं। तात्पर्यवृत्ति अथ परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां मेलापके पि यदभेदरत्नत्रयात्मकं निर्विकल्पसमाधिलक्षणमात्मज्ञानं निश्चयेन तदेव मुक्तिकारणमिति प्रतिपादयति--- जे अण्णाणी कम्म खवेई निर्विकल्पसमाधिरूपनिश्चयरत्नत्रयात्मकविशिष्टभेदज्ञानाभावादज्ञानी जीवो यत्कर्म अपयति । काभिः करणभूताभिः ? भवसयसहस्सफोडीहि भवशतसहस्रकोटिभिः तण्णाणी तिहि गुत्तो तत्कर्म ज्ञानी जीवस्त्रिगुप्तिगुप्तः सन् खवेइ उस्सासमेत्तेण क्षपयत्युच्छनासमात्रेणेति । तद्यथा-बहिर्विषये परमागमाभ्यासबलेन यत्सम्यकपरिज्ञानं तथैव श्रद्धानं व्रताय नुप्ठानं चेति त्रयं Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ ] [ पवयणसारो तत्त्रयाधारेणोत्पन्न सिद्धजीवविषये सम्यकपरिज्ञानं श्रद्धानं तद्गुणस्मरणानुकूलमनुष्ठान चेति त्रयं तत्त्रयाधारेणोत्पन्न विषदाखण्डेकज्ञानाकारे स्व शुद्धात्मनि परिच्छित्तिरूपं सविकल्पज्ञानं स्वशुद्धात्मोपादेयभूतरुत्रिविकल्परूपं सम्यग्दर्शनम् तवात्मनि रागादिविकल्प निवृत्तिरूपं सविकल्पचारित्रमिति त्रयम् । तत्त्रयप्रसादेनोत्पन्नं . यन्निविकल्पसमाधिरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं विशिष्टस्वसंवेदनज्ञानं तदभावादज्ञानी जीवो बहुभवकोटिभिर्यत्कर्म क्षपयति तत्कर्म जानी जीव: पूर्वोक्तज्ञानगुणसद्भावात् त्रिगुप्तिगुप्तः सन्नुच्छ्वासमात्रेण लीलयव क्षपयतीति । ततो ज्ञायते परमागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतस्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां सद्भावेऽस्यभेदरत्नत्रयरूपस्य स्वसंवेदनज्ञानस्यैव प्रधानत्वमिति ॥२३॥ उत्थानिका--आगे कहते हैं कि परमागमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथा संयमीपना इन भेदरूप रत्नत्रयों के मिलाप होने पर भी जो अभेदरत्नत्रय स्वरूप निविकल्पसमाधिमय आत्मज्ञान है वही निश्चय से मोक्ष का कारण है __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(अण्णाणी) अज्ञानी (जं कम्म) जिस कर्म को (भवसयसहस्सकोडोहिं) एक लाख करोड भवों में) (खवेइ) नाश करता है। (त) उस कर्म को (णाणी) आत्मज्ञानी (तिहिंगुत्तो) मन वचनकाय तोनों को गुप्ति सहित होकर (उस्सासमेत्तण) एक उच्छ्वास मात्र में (खवेइ) क्षय कर देता है। निर्विकल्प समाधि रूप निश्चय रत्नत्रयमय विशेष अवज्ञान को न पाकर अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मों में जिस कर्मबन्ध को क्षय करता है उस कर्म को ज्ञानी जीव तीन गुप्ति में गुप्त होकर एक उच्छवास में नाश कर डालता है। इसका भाव यह है कि बाहरी पदाथों के सम्बन्ध में जो सम्यग्ज्ञान परमागम के अभ्यास के बल से होता है तथा जो उनका श्रद्धान होता है और श्रद्धान ज्ञानपूर्वक व्रत आदि का चारित्र पाला जाता है, इन तीन रूप रत्नत्रय के आधार से सिद्ध परमात्मा के स्वरूप में सम्यक् श्रद्धान तथा सम्यग्ज्ञान होकर उनके गुणों का स्मरण करना इसी के अनुकूल जो चारित्र होता है। फिर भी इसी प्रकार इन तीन के आधार से जो उत्पन्न होता है। निर्मल अखंड एक जानाकार रूप अपने ही शुद्धात्मा में जानने रूप सविकल्पज्ञान तथा "शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है" ऐसी रुचि सो विकल्परूप सम्यग्दर्शन और इसी ही आत्मा के स्वरूप में रागादि विकल्पों से रहित सो सविकल्प चारित्र उत्पन्न होता है फिर भी इन तीनों के प्रसाद से विकल्प-रहित समाधि रूप निश्चय रत्नत्रयमय विशेष स्वसंवेदन ज्ञान उत्पन्न होता है। उस ज्ञान को न पाकर अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मों में जिस कर्म का क्षय करता है उस कर्म को ज्ञानी जोष पूर्वोक्त ज्ञान गुण के सद्भाव में मन वचनकाय की गुप्ति में लवलीन होकर एक श्वास मात्र में लीला मात्र से हो नाश कर डालता है। इससे यह बात जानी जाती है कि परमागमज्ञान, तत्वार्थ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५७३ श्रद्धान तथा संयमीपना इस भेद रत्नत्रय के होने पर भी अभेद या निश्चयरत्नत्रय स्वरूप स्वसंवेदनज्ञान की मुख्यता है ॥२३॥ भावार्थ-वृत्तिकार ने आत्मज्ञान पैदा होने की सीढ़ियां बताई हैं पहली (१) सीढ़ी यह है कि जिनवाणी को अच्छी तरह पढ़कर हमें सात तत्वों को जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिये तथा विषय कषायों के घटाने के लिये मुनि वा गृहस्थ के योग्य व्रतादि पालना चाहिये। (२) दूसरी सीढ़ी यह है कि सिद्ध परमात्मा का ज्ञान, श्रद्धान करके उसमे कान का साकार करना चाहिये। (३) तीसरी सोढ़ी यह है कि अपने ही आत्मा को निश्चय से शुद्ध परमात्मा जानना, श्रद्धान करना व रागादि छोड़ उसी को भावना भानी। (४) चौथी सीढ़ी यह है कि विकल्प रहित स्वानुभव प्राप्त करना। यहां यद्यपि श्रद्धान ज्ञान चारित्र है तथापि कोई विकल्प या विचार नहीं है मात्र अपने स्वरूपा मन्द में मग्नता है, यही आत्मज्ञान है । यह सोढी साक्षात् मुक्तिसुन्दरी के महल में पहुंचाने वाली है, अतएव जिनको यह चौथी सोढ़ी प्राप्त है वे ही कर्मों को दाधकर केवलज्ञानी हो जाते हैं। अयात्मज्ञानशून्यस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां योगपद्यमप्यकिचित्करमित्यनुशास्ति परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो । विज्जदि जदि सो सिद्धि ण लहदि सब्वागमधरो वि ॥२३६॥ परमाणप्रमाणं वा मूळ देहादिकेषु यस्य पुनः । विद्यते यदि स सिद्धि न लभते सर्वागमधरोऽपि ॥२३॥ यदि करतलामलकीकृतसकलागमसारतया भूतभवद्भावि च स्वोचितपर्यायविशिष्टमशेषद्रव्यजातं जानन्तमात्मानं जानन् श्रद्दधानः संयमयंश्नाग मानतत्त्वार्थभवानसंयतस्वानां योगपद्येऽपि मनाङ्मोहमलोपलिप्तत्वात् यदा शरीराविमूछोपरक्ततया निरुपरागोपयोगपरिणतं कृत्वा ज्ञानात्मानमात्मानं नानुभवति तदा तावन्मात्रमोहमलकलङ्कको लिकाकोलितः कर्मभिरविमुच्यमानो न सिद्धयति । अत आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्यश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यमप्यकिंचित्करमेव ॥२३६॥ भूमिका-अब यह उपदेश करते हैं कि-आत्मज्ञान शून्य के (वीतरागनिर्विकल्पसमाधि-रहित के) सर्व आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान तथा संयतत्व को युगपत्ता भी अकिचित्कर है, अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकती Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ] [ पवयणसारो अन्वयार्थ—-[पुनः) और [यदि] यदि [यस्य ] जिसके | देहादिकष। शरीरादि के प्रति [परमाणुप्रमाणं वा] परमाणुमात्र स्तोक भी [ ] ममत्व [विद्यते] पाई जाए तो [स:] वह [सर्वागमधरः अपि] भले ही सर्वागम का धारी हो तो भी [सिद्धि न लभते] सिद्धि को प्राप्त नहीं होता ! टीका-सकल आगम के सार को हस्तामलकवत् करने से (हथेली में रखे हए आंवले के समान स्पष्ट ज्ञान होने से) जो पुरुष भूत-वर्तमान-भावी स्वोचित-पर्थयों के साथ समस्त द्रव्य समूह को जानने वाले आत्मा को जानता है, श्रद्धान करता है और संयमित रखता है, उस पुरुष के आगम ज्ञान-तत्त्वार्थ-श्रद्धान-संयतत्व की युगपत्ता होने पर भी, यदि यह किचितमात्र भी मोहमल से (राग द्वेष से) लिप्त होने के कारण शरीरादि के प्रति ममत्वभाव द्वारा मलिन होने से, निर्मल उपयोग में परिणत करके ज्ञानात्मक आत्मा का अनुभव नहीं करता, तो वह पुरुष मात्र उत्तने स्तोक मोहमल कलंक रूप कोले के साथ बंधे हये कर्मों से छुटकारा न पाता हुआ सिद्ध नहीं होता । इसलिये आत्मज्ञान शून्य (वीतरागनिर्विकल्पसमाधि रहित) आगमज्ञान-तत्त्वार्थ-श्रद्धान-संयतत्व को युगपत्ता भी अकिंचत्कर हो है ॥२३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ सूत्रोक्तात्मज्ञानरहितस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वानां योगपद्यामप्यर्किचित्करमित्युपदिशति परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो विज्जदि जवि परमाणुमात्र वा मूर्छा देहादिषु विषयेष यस्य पुरुषस्य पुनविद्यते यदि चेत् ? सो सिद्धि ण लहदि स सिद्धि मुक्ति न लभते । कथंभूतः ? सन्धागमधरो सर्वागमधरोपीति । अयमत्रार्थ:--सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां योगपद्ये सति यस्य देहादिविषये स्तोकमपिममत्वं विद्यते तस्य पूर्वसूत्रोक्तं निर्विकल्पसमाधिलक्षणं निश्चयरत्नत्रयात्मक स्वसंवेदनज्ञानं नास्तीति ॥२३६॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं जो पूर्व सूत्र में कहे हुए आत्मज्ञान से रहित है उसके एक साथ आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान तथा संयमपना होना भी कुछ कार्यकारी नहीं है । मोक्ष प्राप्ति में अकिंचित्कर है ___अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुणो) तथा (जस्स) जिसके (देहादिएसु) शरीर आदिकों से (परमाणुपमाणं या) परमाणु मात्र अर्थात् अल्प भी (मुच्छा) ममत्वभाव (जदि विज्जदि) यदि है तो (सो) वह साधु (सव्वागमधरो वि) सर्व आगम को जानने वाला होते हुए भी (सिद्धि ण लहदि) मोक्ष को नहीं पा सकता है। सर्व आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५७५ तथा संयमीपना एक काल में होते हए जिसके शरीरावि पर-द्रव्यों में ममता है उसके पूर्व-सूत्र कथित निर्विकल्पसमाधि रूप निश्चयरत्नत्रयमय स्वसंवेदन का लाम नहीं है। २३६॥ अथ द्रव्यभावसंयमस्वरूपं कथयति चायो य अणारंभो विसयधिरागो खओ कसायाणं । सो संजमोत्ति 'गि एम ए पिरोनेन !:३१॥ चागो य निजशुद्धात्मपरिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः अणारंभो निःक्रियनिजशुद्धात्म द्रव्ये स्थित्वा मनोवचनकायव्यापारनिवृत्तिरनारम्भ: विसविरागो निविषयस्वात्मभावनोस्थसुखे तृप्ति कृत्वा पञ्चेन्द्रियसुखाभिलापत्यागो विषयविरागः। खओ कसायाणं निकषायशुद्धात्मभावनाबलेन क्रोधादिकषायत्यागः कषायक्षयः । सो संजमोत्ति भणिदो स एवं गुणविशिष्टः संयम इति भणितः । पश्वज्जाए विसेसेण सामान्येनापि तावदिदं संयमलक्षणं प्रव्रज्यायां तपश्चरणावस्थायां विशेषणेति । अत्राभ्यन्तरशुद्धा संवित्तिर्भावसंयमो बहिर ननिवृत्तिश्च द्रव्यसंयम इति ॥२३६।। उत्थानिका-आगे द्रव्य तथा भाव संयम का स्वरूप बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(चागो य) त्याग और (अणारंभो) आरम्भ रहितपना (विसविरागो) विषयो से वैराग्य (कसायाणं खओ) कषायों का क्षय (सो संजमोत्ति भणिदो) यह संयम है, ऐसा कहा गया है । (पम्वज्जाए) तप के समय (विसेसेण) यह संयम विशेषता से होता है। निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके और बाहरी भीतरी २४ प्रकार के परिग्रह को निधत्ति सो त्याग है। नि:क्रिय निज शुद्ध-आत्म द्रव्य में ठहरकर मन वचन काय के व्यापारों से छूट जाना सो अनारम्भ है। इन्द्रिय विषय रहित अपने आत्मा की भावना से उत्पन्न सुख में तृप्त होकर पंचेन्द्रियों के सुखों की इच्छा का त्याग सो विषयविराग है । निःकषाय निज शुद्धात्मा को भावना के बल से क्रोधादि कषायों का त्याग-सो कषाय क्षय है । इन गुणों से संयुक्तपना संयम है, ऐसा कहा गया है। यह सामान्य संयम का लक्षण है। तपश्चरण की अवस्था में विशेष संयम होता है। यहाँ अभ्यंतर परिणामों की शुद्धि को भावसंयम तथा बाह्य त्याग को द्रव्यसंयम कहते हैं । अथागमज्ञानतस्वार्थश्रद्धानसंयत्तत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यं साधयति--- पंचसमिदो तिग तो पंचेंदियसंवुडो' "जिदकसाओ । दसणणाणसमग्गो समणो सो सजदो भणिदो ॥२४०॥ पञ्चसमितस्त्रिगुप्तः पंचेन्द्रियसंवृतो जितकषायः । दर्शनज्ञानसमग्रः श्रमणः स संयतो भणितः 1।२४०।। १. पंचदियसंउडो (ज० व०), २. जियकसाओ (ज०७०) । Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ] [ पवयणसारो यः खल्बनेकान्तकेतनागमशानबलेन सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्दधानोऽनुभवंश्चात्मन्येव नित्यनिश्चला वृत्तिमिच्छन् समितिपञ्चकाइकुशितप्रवृत्तिप्रवर्तितसंयमसाधनीकृतशरीरपात्रः क्रमेण निश्चलनिरुद्धपचेन्द्रियद्वारतया समुपरतकायवाङ्मनोव्यापारो भूत्वा चिवृत्तः परद्रव्यचङ्कमणनिमित्तमत्यन्तमात्मना सममन्यो। न्यसंबलनावेकीभूतमपि स्वभावभेदात्परत्वेन निश्चित्यात्मनैव कुशलो मल्ल इव सुनिर्भर निष्पीड्य निष्पोडच कषायचक्रमक्रमेण जीवं त्याजयति, स खल सकलपरद्रव्यशन्योऽपि विशुद्धशिज्ञप्तिमात्रस्वभावभूतावस्थापितात्मतत्वोपजातनित्यनिश्चलवत्तितया साक्षात्संयत एव स्यात् । तस्यथ चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपधं सिवयति । भूमिका-अब आगमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान संयतत्व की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान की युगपत्ता को सिद्ध करते हैं, अर्थात् आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान, और संयतत्व इस त्रिक (तीनों) के साथ आत्मज्ञान के युगपतत्व को सिद्ध करते हैं अन्वयार्थ-[पंचसमितः] पांच समिति युक्त, [पंचेन्द्रियसंवृतः] पांच इन्द्रियों का संवर वाला [त्रिगुप्तः] तीन गुप्ति सहित, जितकषायः] कषायों को जीतने वाला, [दर्शन ज्ञानसमग्रः] दर्शनज्ञान से परिपूर्ण [श्रमणः] जो श्रमण [सः] वह [संयतः] संयत [भणितः] कहा गया है। टीकाजो पुरुष अनेकान्त से चिह्नित आगमज्ञान के बल, से सफल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित तथा विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा का श्रद्धान और अनुभव करता हुआ आत्मा में ही नित्य निश्चलवृत्ति को इच्छता हुआ, संयम के सघन रूप बनाये हुये शरीरपात्र पांच समितियों से अंकुशित प्रवृत्ति द्वारा प्रवर्तित शरीर को संयम का साधन बनाता हुआ, फिर निश्चल पंचेन्द्रियों के द्वारा-रुक जाने से काय, वचन, मन का व्यापार विराम को प्राप्त हुआ है, ऐसा होकर, चिवत्ति के लिये परद्रथ्य में भ्रमण का निमित्त जो कषाय समूह वह आत्मा के साथ अन्योन्य मिलन के कारण अत्यन्त एकरूप हो जाने पर भी स्वभाव भेद के कारण उसे पररूप से निश्चित करके कुशल मल्ल की भांति आत्मा से ही अत्यन्त मर्दन कर करके अक्रम से उसे मार डालता है, वह पुरुष वास्तव में, सकल परद्रध्य से शून्य होने पर भी विशुद्ध दर्शन ज्ञानमात्र स्वमाय रूप से अवस्थित आत्मतत्व से उत्पन्न नित्य निश्चल परिणति उस परिणति के द्वारा साक्षात् संयत ही है। और उसे ही आगमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान संयतत्व की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान को युगपत्ता सिद्ध होती है ॥२४०॥ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] । ५७७ तात्पर्यवृत्ति अथागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वानां ग्रयाणां यत्सविकल्पं योगपद्यं तथा निविकल्पात्मज्ञानं चेति द्वयोः सम्भवं दर्शयति पंचसमिदो व्यवहारेण पञ्चसमितिभिः समितः संवृतः पंचसमितः निश्चयेन तु स्वस्वरूपे सम्यगितो गतः परिणतः समितः तिगुत्तो व्यवहारेण मनोवचनकायनिरोधत्रयेण गुप्त: त्रिगुप्तः निश्चयेन स्वरूपे गुप्तः परिणतः पंचेंदियसंउडो व्यवहारेण पंचेन्द्रियविषयव्यावृत्त्या संवृतः पंचेन्द्रियसंवृतः निश्चयेन पातीन्द्रियसुखस्वादरतः जियकसाओ व्यवहारेण क्रोधादिकषायजयेन जितकषायः निश्चयेन चाकषायात्मभावनारत: सणणाणसमग्गो अत्र दर्शनशब्देन निजशुद्धात्मश्रद्धानरूपं सम्यरदर्शनं ग्राह्यम् । ज्ञानशब्देन तु स्वसंवेदनज्ञानमिति ताभ्यां समग्रो दर्शनज्ञानसमनः समणो सो संजदो भणिदो स एवं गुणविशिष्ट: श्रमणः संयत इति भणितः । अत एतदायातं व्यवहारेण यद्बहिर्विषये व्याख्यानं कृतं तेन सबिकल्पं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र त्रयं योगपद्यं ग्राह्यम् । अभ्यन्तरव्याख्यानेन तु निर्विकल्पात्मज्ञानं ग्राह्यमिति सविकल्पयोगपद्यं निर्विकल्पात्मज्ञानं च घटत इति ॥२४०।। . नत्थानिका-आगे आगम का ज्ञान, तत्वार्थ-श्रद्धान, संयमपना इन तीनों को भेद रूप से एक काल में प्राप्ति तथा निर्विकल्प आत्मज्ञान इन दोनों का संभवपना दिखलाते हैं अर्थात् इन सबिकल्प और अविकल्प भाव के धारी का स्वरूप बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(पंचसमिदो) जो पांच समितियों का धारी है, (तिगुत्तो) तीन गुप्ति में लीन है, (पंचेदियसंउडो) पांच इन्द्रियों का विजयी है, (जियकसाओ) कषायों को जीतने वाला है (बंसणणाण समगो) सम्यग्दर्शन और सम्याज्ञान से पूर्ण है (सो समणो) वह साध (संजदो) संयमी (भणियो) कहा गया है। जो व्यवहारनय से पांच समितियों से युक्त है, निश्चयनय से अपने आत्मा के स्वरूप में भले प्रकार परिणमन कर रहा है। जो व्यवहारनय से मन वचन काय को रोक करके त्रिगुप्त है, निश्चयनय से अपने स्वरूप में लीन है । जो व्यवहार करके स्पर्शनादि पांचों इन्द्रियों के विषयों से हट करके संवृत्त है, निश्चय से अतींद्रियसुख के स्वाद में रत है। जो व्यवहार करके क्रोधादि कषायों को जीत लेने से जितकषाय है। निश्चयनय से अकषाय आत्मा की भावना में रत है। जो अपने शुद्धात्मा का श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन तथा स्वसंवेदनज्ञान इन दोनों से युक्त है गुणों का धारी वही साधु संघमी है, ऐसा कहा गया है। इससे यह सिद्ध किया गया है कि व्यवहार में जो बाहरी पदार्थों के सम्बन्ध में व्याख्यान किया गया उससे सविकल्प सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तीनों को एक साथ होना चाहिये, भीतरी आत्मा की अपेक्षा व्याख्यान से निर्विकल्प आत्मज्ञान लेना चाहिये । सविकल्प वर्शन ज्ञान पारिन इन तीनों की युगपत्ता तथा निर्विकल्प आत्मज्ञान घटित होते हैं ॥२४०॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ ] [ पवयणसारो अथारय सिद्धागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतस्य को. ग्लक्षणमित्यनुशास्ति समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोट्टकचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥२४१॥ समणश्रुबन्धुवर्गः समसुखदुःख: प्रशंसानिन्दासमः । समलोष्ठकाञ्चनः पुनर्जीवितमरणे समः श्रमणः ।।२४१।। संयमः सम्यग्दर्शनझानपुरःसरं चारित्रं, चारित्रं धर्मः, धर्मः साम्यं, साम्य मोहक्षोभविहीनः आत्मपरिणामः । ततः संयतस्य साम्यं लक्षणम् । तत्र शत्रुबन्धुवर्गयोः सुखदुःखयोः प्रशंसानिन्दयोः लोष्ठकाञ्चनयोर्जीवितमरणयोश्च समं अयं मम परोऽयं स्वः, अयमालावोऽयं परितापः, इदं ममोत्कर्षणमिदमपकर्षणमयं ममाकिञ्चित्कर इदमुपकारकमिदं ममात्मधारणमयमत्यन्तविनाश इति मोहाभावात् सर्वत्राप्यनुदितरागद्वेषद्वतस्य सततमपि विशुद्धदृष्टिज्ञप्तिस्वभावमात्मानमनुमवतः शत्रुबन्धुसुखदुःखप्रशंसानिन्दालोष्ठकाञ्चनजीवितमरणानि निविशेषमेव ज्ञेयत्वेनाक्रम्य ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेयंस्किल सर्वतः साम्यं तत्सिद्धागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यस्य संयत्तस्य लक्षणमालक्षणीयम् ॥२५१॥ भूमिका.–अब, आगमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान-संयतत्व की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान को युगपता जिसे सिद्ध हुई है ऐसे इस संयत का क्या लक्षण है सो कहते हैं ___ अन्वयार्थ-समशबन्धुवर्ग:] जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग समान है, [समसुखदुःखः] सुख दुख समान है, [प्रशंसानिन्दासमः] प्रशंसा और निन्दा के प्रति जिसको समता है, [समलोग्ठकाञ्चनः ] जिसे लोष्ठ और सुवर्ण समान है, [पुनः] तथा [जीवितमरणे समः] जीवन-मरण के प्रति जिसको समता है, वह [श्रमणः ] श्रमण है। टीका-संयम सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र है, चारित्र धर्म है, धर्म साम्य है, साम्य मोहक्षोभ रहित आत्मपरिणाम है । इसलिये संयत का साम्य लक्षण है। वहां, (१) शत्रु बन्धु वर्ग में, (२) सुख-दुःख में, (३) प्रशंसा-निन्दा में, (४) कंकड़ और सोने में, (५) जीवन-मरण में, एक ही साथ, (१) 'यह मेरा पर (शत्रु) है, यह स्व (स्वजन) है', (२) 'यह आलाद है यह परिताप है', (३) 'यह मेरा उत्कर्षण-बलवारी यह अपकर्षण घटती है', (४) 'यह मुझे अकिचित्कर है, यह उपकारक है', (५) 'यह मेरा स्थायित्व है, यह अत्यन्त विनाश है', इस प्रकार मोह के अभाव के कारण सर्वत्र जिसके १. दृष्टव्य-पवयणसारो गाथा ३ । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] रागद्वेष का द्वैत प्रगट नहीं होता, जो सतत विशुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाव आत्मा का अनुभव करता है और ( इस प्रकार ) शत्रु-बंधु, प्रशंसा - निन्दा, लोष्ठकांचन और जीवन-मरण को, निविशेषतया ही (बिना अन्तर के ) ज्ञेयरूप से जानकर ज्ञानात्मक आत्मा में जिसकी परिगति अचलित हुई है, उस पुरुष को वास्तव में जो सर्वतः साम्य है सो साम्य संयत का लक्षण समझना चाहिये उस संयत के आगमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान-संयतत्व की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान को युगपत्ता है ।। २४१ ।। [ ५७ ई तात्पर्यवृत्ति अथागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वलक्षणेन विकल्प त्रययौगपद्येन तथा निर्विकल्पात्मज्ञानेन च युक्तो योsसी संयतस्तस्य किं लक्षणमित्युपदिशति । इत्युपदिशति कोऽर्थः इति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददाति । एवं प्रश्नोत्तरपात निकाप्रस्तावे स्वापि स्वापि यथासंभवमिति शब्दस्यार्थी ज्ञातव्य:-- स सम्रणो श्रमणः संयतस्तपोधनो भवति । यः कि विशिष्टः ? समसत्तुबंधुवग्गोस म सुहदुक्खोसंसदसमो समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे शत्रुबन्धुसुखदुःखनिन्दाप्रशंसा लोकांचन जीवितमरणेषु समो समः समचित्तः इति । ततः एतदायाति । शत्रुबन्धुसुखदुःख निन्दाप्रशंसा लोकांचन जीवितमरणसनता भावनापरिणतनिजशुद्धात्मतत्वसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्ननिि कारपर माल्हादैकलक्षणसुखामृत परिपतिस्वरूपं त्रयं तदेवपरमागमज्ञानतत्वार्थ श्रद्धानसंयत त्वानां यौगपद्येन तदा निविकल्पात्मज्ञानेन च परिणततपोधनस्य लक्षणं ज्ञातव्यमिति ॥ २४१ ॥ उत्थानिका - आगं आगम का ज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान, संयमोपना इन तोन विकल्परूप लक्षण से एक साथ युक्त तथा निर्विकल्प आत्मज्ञान से युक्त जो कोई संयमी होता है. उसका क्या लक्षण है, ऐसा उपदेश करते हैं । यहाँ " इति उपदेश करते हैं" इसका यह भाव लेना कि शिष्य के प्रश्न का उत्तर देते हैं । इस तरह प्रश्नोत्तर को दिखाने के लिये कहीं कहीं यथासम्भव इति शब्द का अर्थ लेना योग्य है । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( समसत्तुबंधुषग्गो) ओ शत्रु व मित्र समुदाय में समान बुद्धि का धारी है, ( समसुहदुक्खो ) जो सुख दुःख में समानभाव रखता है, (पसंसदिसमो ) जो अपनी प्रशंसा व निन्दा में समताभाव रखता है, (समलोकंणो ) जो कंकण और सुवर्ण को समान समझता है, ( पुणे ) तथा (जीविवमरणे समो ) जो जीवन तथा मरण को एकसा जानता है, वही (समणो ) श्रमण या साधु है । शत्रु बंधु, सुख दुःख, निन्दा प्रशंसा, लोष्ठ कंचन तथा जीवन मरण में समता की भावना में परिणमन करते हुए अपने ही शुद्धात्मा का सम्यक् अद्धान्, ज्ञान तथा आचरणरूप जो निर्विकल्पसमाधि उससे उत्पन्न निर्विकार परम आल्हादरूप एक लक्षणधारी सुखरूपी अमृत में परिणमण स्वरूप जो परम समताभाव है, सो ही उस तपस्वी का लक्षण है जो परमागम का ज्ञान, तत्त्वार्थ का श्रद्धान 3 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० ] [ पवयणसारो संयमपना इन तीनों को एक साथ रखता हुआ निर्विकल्प आत्मज्ञान में परिणमन कर रहा है ऐसा जानना चाहिये। भावार्थ-वास्तव में सुख दुःख मानने, अच्छा बुरा समझने, मान अपमान गिनने के जितने भाव हैं वे सब रागद्वेष की पर्याय हैं--कषाय के हो विकार हैं। परम तत्वज्ञानी साधु ने कषायों को त्याग करके वीतरागभाव पर चलना शुरु किया है इसलिये उनके कषायभाव नहीं होते। वे बाहरी अच्छी बुरी दशा में समताभाव रखते हुए उसे पुण्य पाप का नाटक जानते हुए अपने निष्कषाय भाव से हटते नहीं। ऐसे साधु आत्मानुभवरूपी समताभाव में लवलीन पाप का नाटक जानते रहते हैं इसी से बाहरी चेष्टाओं से अपने परिणामों में कोई असर नहीं पैदा करते । साधुओं को मुक्ति द्वीप में जन्मना ही सच्चा जन्म भासता है । शरीरों का बदलना वस्त्रों के बदलने के समान दिखता है, जो भावलिंगी साधु हैं, उनके ये ही लक्षण हैं। सो हो मोक्षपाहुड में कहा हैजो देहे हिरवेक्खो णिइंदो णिमम्मो णिरारंभो । आवसहावे सुरओ जोई सो सहइ णिव्याणं ॥१२॥ जो शरीर की ममता रहित है, रागद्वेष से शून्य है, यह मेरा है इस बुद्धि को जिसने त्याग दिया है व जो लौकिक व्यापार से रहित है तथा आत्मा के स्वभाव में रत है वही योगी निर्वाण को पाता है। अथेदमेध सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतत्वमकाग्रवलक्षणश्रामण्यापरनाम मोक्षमार्गत्वेन समर्थयति दसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्टिदो जो दु। एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुष्णं ॥२४२॥ दर्शनज्ञानत्ररित्रेषु त्रिषु युगपत्समुत्थितो यस्तु । ऐकाग्रगत इति मत: श्रामण्यं तस्य परिपूर्णम् ॥२४२।। ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण शेयज्ञातृतत्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिसूत्र्यमाणद्रष्टुज्ञाततत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण, च त्रिभिरपि पौगपद्येन भाज्यभायकभावविम्भितातिनिर्भरेतरेतरसंवलनवलादङ्गाङ्गिभावेन परिणतस्थात्मनो यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं तत्पानकवदनेकात्मकस्यैकस्यानुभयमानतायामपि समस्तपरद्रव्यपरावर्तत्वादभिव्यक्तकानयलक्षणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगन्तव्यः। तस्य तु सम्यादर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन व्यवहारन येनकाग्रघ' मोक्षमार्ग इत्यभेवात्मकत्याद्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन विश्वस्यापि भेदाभेदात्मकत्वात्तदुभ मिति प्रमाणेन प्रज्ञप्तिः ।।२४२३ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ ५८१ इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकोभवं स्त्रलक्षण्यमर्थकतामुपगतो मार्गोऽपवर्गस्य यः ।। द्रष्टुज्ञातृनिबद्धवृत्तिमचलं लोकस्तमास्कन्दता-मास्कन्दयचिराद्विकाशमतुलं येनोल्लसत्याश्चितेः ।। भूमिका—अब, यह समर्थन करते हैं कि आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान की युगपत्ता की सिद्धिरूप जो यह संयतता है वही मोक्षमार्ग है, जिसका अपर नाम एकाग्रतालक्षणवाला श्रामण्य है ___ अन्वयार्थ- [यः तु] जो [दर्शनज्ञानचरित्रेषु] दर्शन, ज्ञान और चारित्र [त्रिपु] इन तीनों में [युगपत् ] एक ही साथ [समुत्थितः] ठहरा हुआ है, वह [एकाग्रगतः] एकाग्रता को प्राप्त है [इति] इस प्रकार [मतः] (शास्त्र में) कहा गया है। [तस्य] उसके [श्रामण्यं] श्रामण्य [परिपूर्णम् ] परिपूर्ण है। __टीका-ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की (ज्ञान को) यथार्थ प्रतीति जिसका लक्षण है यह सम्यग्दर्शन पर्याय है, ज्ञेयतत्व और ज्ञातृतत्व को तया प्रकार अनुभूति जिसका लक्षण है वह ज्ञानपर्याय है, ज्ञेय और ज्ञाता की अन्य क्रिया से निवृत्ति के द्वारा रचित दृष्टि ज्ञातृतत्व में परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्र पर्याय है। इन पर्यायों के और आत्मा के माध्य-भावकी के द्वारा उत्पन्न अति माह इतरंतर मिलन के बल के कारण इन तीनों पर्यायरूप युगपत् अंग अंगी भाव से परिणत आत्मा के, आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतत्व होता है वह संयतता, एकाग्रतालक्षणवाला श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ऐसा मोक्षमागं ही है-ऐसा समझना चाहिये, क्योंकि वहां संयतत्व में, पेय से समान अनेकात्मक एक का अनुभव होने पर भी, समस्त परदथ्य से निवृत्ति होने से एकाग्रता प्रगट है । वह (संयतत्वरूप अथवा श्रामण्यरूप मोक्षमार्ग) मेवात्मक है, इसलिये 'सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है, इस प्रकार पर्यायप्रधान व्यवहारनय से उसका प्रज्ञापन है, वह इन तीनों को एकता मोक्षमार्ग है, यह अभेदात्मक होने के कारण द्रव्यप्रधान निश्चयनय से प्रज्ञापन है, समस्त ही पदार्थ भेदाभेदात्मक है, इसलिये वे दोनों (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा तीनों की एकता) मोक्षमार्ग है इस प्रकार प्रमाण से उसका प्रज्ञापन है ।।२४२॥ [अब काव्य द्वारा मोक्षप्राप्ति के लिये द्रष्टा-शाता में लीनता करने को कहा जाता है।] अर्थ--इस प्रकार, प्रतिपादक के आशय के यश, एक होने पर भी अनेक होता हुआ तथा त्रिलक्षणता को प्राप्त जो अपवर्ग (मोक्ष) का मार्ग है उसको, लोक द्रष्टा ज्ञाता में परिणति बांधकर, अचलरूप से अवलम्बन करे जिससे वह लोक उल्लसित चेतना के अतुल विकास को अल्पकाल में प्राप्त करता है। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ ) [ पवयणसारी तात्पर्यवृत्ति अथ यदेव संयलतपोधनस्य साम्यलक्षणं भणितं तदेव श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गो भण्यत इति प्ररूपयति; दसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुछिदो जो दु दर्शनशानचारित्रेषु त्रिषु युगपत्सम्यगुपस्थित उद्यतो यस्तु कर्ता एयगागवोति मदो स ऐकाग्रयगत इति मतः सम्मतः सामण्णं तस्स पडिपुण्णं श्रामण्यं चारित्रं यतित्वं तस्य परिपूर्णमिति । तथाहि-भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मभ्यः शेषपुद्गलादिपंचद्रव्येभ्योपि भिन्न सहजशुद्धनित्यानन्दकस्वभावं ममसम्बन्ध्रि यदात्मद्रव्यं तदेव ममोपादेयमितिरुचिरूपं 'सम्यग्दर्शनम्' तय परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं तस्मिन्नेव स्वरूपे निमचलानुभूतिलक्षणं चारित्रं चेत्युक्तस्वरूप सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं पानकवदने कमप्यभेदनयेनैक यत् तत्सविकल्पाबस्थायां व्यवहारेणकायं भण्यते । निर्विकल्पसमाधिकाले तु निश्चयेनेति तदेव च नामान्तरेण परमसाम्यमिति तदेव परमसाम्यं पर्यायनामान्तरेण शुद्धोपयोगलक्षणः श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गो झातव्य इति । तस्य तु मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेन निर्णयो भवति । ऐकायं मोक्षमार्ग इत्यभेदात्मकत्वात् द्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन निर्णयो भवति । समस्तवस्तुसमुहम्यापि भेदाभेदात्मकत्वान्निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गद्वयस्यापि प्रमाणेन निश्चयो भवतीत्यर्थः ।।२४२।। एवं गिना या महामायमतिपादनमुख्यत्वेन तृतीयस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । उत्थानिका-आगे कहते हैं जो यहां संयमी तपस्वी का साम्यभाव लक्षण बताया हैं वही साधुपना है तथा वही मोक्षमार्ग कहा जाता है। अन्वय सहित विशेषार्थ- (जो दु) जो कोई (दसणणाणचरित्तेसु तोसु) इन सम्परदर्शन ज्ञान और चारिन तीनों में (जुगवं समुट्ठियो) एक साथ भले प्रकार तिष्ठता है (एयग्गागदोत्ति मदो) यही एकाग्रता को प्राप्त है अर्थात् ध्यान-मग्न है, ऐसा माना गया है (तस्स परिपुण्णं सामण्णं) उसी के यतिपना अथवा चारित्र परिपूर्ण है। जो भाव-कर्म रागादि, द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि, नोकर्म शरीरादि इनसे मिन्न है तथा अपने सिवाय शेष जीव तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन सब द्रव्यों से भी भिन्न है, और जो स्वभाव ही से शुद्ध, नित्य, आनन्दमयी एक स्वभाव रूप है, 'वही मेरा आत्म द्रव्य है, वही मुझे ग्रहण करना चाहिये' ऐसी रुचि होना सो सम्यग्दर्शन है, उसी निज स्वरूप को यथार्थ पहचान होमा सो सम्यग्ज्ञान है तथा उसी ही आत्मस्वरूप में निश्चल अनुभूति सो सम्यक्चारित्र है। जैसे शर्बत अनेक पदार्थों से बना है इसलिये अनेक रूप है, परन्तु अभेव करके एक शर्बत है। ऐसे ही विकल्प सहित अवस्था में व्यवहारनय से उक्त स्वरूप वाले सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र ये तोन हैं, परन्तु विकल्परहित समाधि के काल में निश्चयनय से इनको एकाग्र कहते हैं। यह जो स्वरूप में एकाग्रता है या तन्मयता है इसी को दूसरे नाम से परमसाम्य कहते हैं। इसी साम्य का अन्य पर्याय नाम शुद्धोपयोग Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ५८३ लक्षण श्रमणपना है या दूसरा नाम मोक्षमार्ग है, ऐसा जानना चाहिये। इसी मोक्षमार्ग का जब भेदरूप पर्याय की प्रधानता मे अर्थात् प्रयवहारनय मे निर्णय करते हैं तब यह कहते हैं कि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप मोक्षमार्ग है । जब अभेवपमे से द्रव्य की मुख्यता से या निश्चयनय से निर्णय करते हैं तब कहते हैं कि एकाग्रता मोक्षमार्ग है । सब हो पदार्थ इस जगत में भेद और अभेद स्वरूप हैं। इसी तरह मोक्षमार्ग भी निश्चय-व्यवहार रूप से दो प्रकार है, इन दोनों का एक साथ निर्णय प्रमाण ज्ञान से होता है, यह भाव है ॥२४॥ _इस तरह निश्चय और व्यवहार संयम के कहने की मुख्यता से तीसरे स्थल में पार गाथाएं पूर्ण हुई। __ अथानकाग्रयस्य मोक्षमार्गत्वं विघटपतिमुज्झदि वा रज्जवि वा दुस्सदि वा दब्वमण्णमासेज्ज । जदि समणो अण्णाणी बज्झवि कम्मेहि विविहेहिं ॥२४३॥ मुह्यति बा रज्यति वा द्वेष्टि वा द्रव्यमन्यदासाद्य । यदि श्रमणोजानी बध्यते कर्मभिर्विविधैः ॥२४३।। यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्नं भावति सोऽवश्य ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीवति । तदासाद्य च ज्ञानात्मात्मज्ञानाभ्रष्ट स्वयमज्ञानी भूतो मुह्यति वा रज्यति वा द्वेष्टि या तथाभूतश्च बध्यते एव न तु विमुच्यते अत अनेकानयस्य न मोक्षमार्गत्वं सिद्धयेत् ॥२४३॥ भूमिका-अब यह दिखाते हैं कि अनेकाग्रता के मोक्षमार्गव घटित नहीं होता (अर्थात् अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं है) ___ अन्वयार्थ---[यदि] यदि [श्रमणः] श्रमण, [अन्यत् द्रव्यम् आसाद्य] अन्यद्रव्य का आश्रय करके [अज्ञानी] अज्ञानी होता हुआ, [मुह्यति वा] मोह करता है, [रज्यति वा] राग करता है, [द्वेष्टि वा] अथवा द्वेष करता है, तो वह [विविधः कर्मभिः] विविध कर्मों से [बध्यते] बंधता है। टीका-जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्न (विषय) को नहीं भाता (वीतरागनिविकल्पसमाधि में लोन नहीं होता) वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय करता है, और उसका आश्रय करके, ज्ञानात्मा उसी आत्मज्ञान से भ्रष्ट (वीतरागनिर्विकल्पसमाधि से रहित) स्वयं अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है, और ऐसा (मोही रागी अथवा द्वषो) होता हुआ बन्ध को ही प्राप्त होता है इससे अनेकाग्रता को मोक्षमार्गत्व सिद्ध नहीं होता ॥२४३।। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ ] [ पवयणहारो तात्पर्यवृत्ति अथ यः स्वशुद्धात्मन्येकाग्रो न भवति तस्य मोक्षाभावं दर्शयति ; मुज्झदि वा रज्जदि वा वुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज जबि मुह्यति वा रज्यति वा द्वेष्टि वा यदि चेत् ? किं कृत्वा ? द्रव्यमन्यदासाथ प्राप्य स कः ? समणो श्रमणस्तपोधनः । तदा काले अण्णाणी अज्ञानी भवति । अज्ञानी सन् बज्झदि कम्मेहि विविहेहि बध्यते कर्मभिर्विविधैरिति । तथाहि - यो निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानेनैकाग्रो भूत्वा स्वात्मानं न जानाति तस्य चित्तं वहिर्विषयेषु गच्छति । ततश्चिदानन्दैक निजस्वभावाच्च्युतो भवति । ततश्च रागद्वेषमोहैः परिणमति तत्परिणमन् बहुविधकर्मणा बध्यत इति । ततः कारणान्मोक्षाचिभिरेकाग्रत्वेन स्वस्वरूप भावनीयमित्यर्थः ॥ २४३ ॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं जो शुद्ध आत्मा में एकाग्र नहीं होता है उसके मोक्ष नहीं हो सकता है अन्वय सहित विशेषार्थ - - ( जदि ) यदि (समणो ) कोई साधु (अच्णं दव्बं आसेज्ज) अपने से अन्य किसी द्रव्य को ग्रहण कर (मुज्झदि वा ) उसमें मोहित हो जाता है ( रज्जदि वा ) अथवा उसमें रागी होता है (दुस्सदि वा ) अथवा उसमें द्वेष करता है। ( अण्णाणी) तो वह साधु अज्ञानी है, इसलिये (विविहेहि कम्मे हि ) नाना प्रकार कर्मों से ( बसदि ) बंधता है। जो निविकार स्वसंवेदन ज्ञान से एकाग्र होकर अपने आत्मा को नहीं अनुभव करता है उसका चित्त बाहर के पदार्थों में जाता है, तब चिदानन्दमयी एक अपने आत्मा के निज स्वभाव से च्युत हो जाता है फिर रागद्वेष मोह भावों से परिणमन करता हुआ नाना प्रकार कर्मों को बांधता है। इस कारण मोक्षार्थी पुरुषों को चाहिये कि एकाग्रता के द्वारा अपने आत्मस्वरूप की भावना करे। यह तात्पर्य है ।। २४३ ॥ मोक्ष मार्गत्वमवधारयन्नुपसंहरति अर्थका अट्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुवयादि । समणो जदि सोणियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि ॥ २४४॥ | अर्थेषु यो न मुह्यति न हि रज्यति नैत्र द्वेपमुपयाति । श्रमणो यदि स नियतं क्षपयति कर्माणि विविधानि || २४४॥ यस्तु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति स न ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति । तदनासाद्य च ज्ञानात्मात्मज्ञानादभ्रष्टः स्वयमेव ज्ञानीभूतस्तिष्ठन्न मुह्यति, न रज्यति, न द्वेष्टि तयाभूतः सन् मुध्यत एव न तु बध्यते । अत ऐकाग्र्यस्यैव मोक्षमार्गत्वं सिद्धय ेत् ॥ २४४ ॥ इति मोक्षमार्गप्रज्ञापनम् ॥ भूमिका – अब, एकाग्रता मोक्षमार्ग है यह (आचार्य महाराज) निश्चित करते हुये ( मोक्षमार्ग - प्रज्ञापनका ) उपसंहार करते हैं- Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५८५ अन्वयार्थ-यदि यः श्रमणः] यदि जो श्रमण [अर्थेषु] पदार्थों में [न मुह्यति] मोह नहीं करता, [न हि रज्यति ] राग नहीं करता, [न एव द्वेषम् उपयाति] और न द्वेष को प्राप्त होता है [सः] तो वह [नियत] नियम से [विविधानि कर्माणि] विविध कर्मों को [क्षपति ] खपाता है । टीका-जो ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (विषय) को भाता है (वीतरागनिर्विकल्पसमाधि में स्थित है) वह ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय नहीं करता, और उसका आश्रय नहीं करता वह ज्ञानात्मा (ज्ञानी) आत्मज्ञान से अम्रष्ट स्वयमेव ज्ञानी रहता हुआ मोह नहीं करता, राग नहीं करता, द्वेष नहीं करता, और ऐसा बर्तता हुआ (वह) मुक्त हो होता है, परन्तु बंधता नहीं है । इससे एकाग्रता को ही मोक्षमार्गत्व सिद्ध होता है ।।२४४॥ इस प्रकार सोलमार्गप्रज्ञापन समान था। तात्पर्यति अथ निजशुद्धात्मनि योऽसावेकाग्रस्तस्यैब मोक्षी भवतीत्यूपदिशति:-- ।। अछेतु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुययादि अर्थेषु बहिःपदार्थेषु यो न मुह्यति न रज्यति हि स्फुटं नैव द्वेषमुपयाति जदि यदि चेत् सो समणी स श्रमणः णियदं निश्चितं खवेदि दिविहाणि कम्माणि क्षपयति कर्माणि विविधानि इति । अथ विशेषः-यो सौ दष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपाद्यपध्यानत्यागेन निजस्वरूप भावयति तस्य चित्त बहिःपदार्थेष न गच्छति ततश्च बहिःपदार्थे चिन्ताभायान्निविकारचिच्चमत्कारमात्राच्च्यूतो न भवति । तदच्यत्रनेन च रागाद्यभावाद्विविधकर्माणि विनाशयतीति । ततो मोक्षार्थिना निश्चलचित्तेन निजात्मनि भावना कर्नव्येति । इत्थं वीतरागचारित्रव्याख्यानं श्रुत्वा केचन वदन्ति सयोगिकेलिनामप्येकदेशेन चारित्रं, परिपूर्णचारित्र, पुनरयोगिचरमसमये भविष्यति तेन कारणनेदानीमस्माकं सम्यक्त्वभावनया भेदज्ञानभावनया च पूर्वते चारित्रं पश्चाद्भविष्यतीति नैवं वक्तव्यम् । अभेदनयेन ध्यानमेव चारित्रं तच्च ध्यानं केवलिनामुपनारेणोक्त चारित्रमप्युपचारेणेति । यत्पुनः समस्तरागादिविकल्पजाल रहित शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक वीतरागछमस्थचारियं तदेव कार्यकारीति । कस्मादिति चेत् ? तेनैव केवलज्ञान जातस्तस्माच्चारित्रे तात्पर्य कर्तव्यमिति भावार्थः । किंच उत्सर्गव्याख्यानकालेऽपि श्रामण्यं व्याख्यातमत्र पुनरपि किमर्थमिति परिहारमाह-तत्र सर्वपरित्यागलक्षण उत्सगं एवं मुख्यत्वेन च मोक्षमार्ग: अब तु श्रामण्यव्याख्यानमस्ति परं किन्तु श्रामण्यं मोक्षमार्गो भवतीति मुख्यत्वेन विशेषोऽस्ति ।।२४४।। एवं श्रामण्यापरनाममोक्षमार्गोपसंहारमुख्यत्वेन चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतम् ।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो अपने शुद्धात्मा में एकाग्र हैं उन्हीं के मोश होता है अन्वय सहित विशेयार्थ—(जदि जो) तथा जो कोई (अठेसु) अपने आत्मा को छोड़कर अन्य बाह्य पदार्थों में (ण मुज्झदि) मोह नहीं करता है, (ण हि रज्जवि) राग नहीं करता है (णेव दोसमुवयादि) और न द्वेष को प्राप्त होता है (सो समणो) वह साधु (णियदं निश्चय से (विविहाणि कम्माणि खवेदि) नाना प्रकार कर्मों का का क्षय करता है। जो Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ] [ पदयणसारो कोई देखे, सुने, अनुभवे भोगों की इच्छा आदि अपध्यान के त्याग के द्वारा अपने स्वरूप की भावना करता है उसका मन बाहरी पदार्थों में नहीं जाता है। तब बाहरी पदार्थों को चिन्ता न होने से विकार रहित चैतन्य के चमत्कार मात्र भाव से च्युत नहीं होता। पुत न होने से रागद्वेषादि भावों से रहित होता हुआ नाना प्रकार कर्मों का नाश करता है । इसलिये मोक्षार्थी को निश्चल चित्त करके अपने आत्मा की भावना करनी योग्य है । इस तरह वीतरागचारिन का व्याख्यान सुनकर कोई कहते हैं कि सयोगकेवलियों को भी एकदेशचारित्र है, पूर्ण-धारित्र तो अयोग-केवली के अन्तिम समय में होगा, इस कारण से हमको तो सम्यग्दर्शन की भावना तथा भेदविज्ञान की भावना से ही पूर्ति है। चारित्र पीछे हो जायेगा ? उसका समाधन करते हैं कि ऐसा नहीं कहना चाहिये । अभेदनय से ध्यान ही चारित्र है। यह ध्यान केवलियों के उपचार से है तथा चारित्र भी उपचार से है । वास्तव में जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक सर्व रागादि विकल्पजालों से रहित शुद्धात्मानुभव रूपी छद्यस्थ अर्थात् अपूर्ण ज्ञानी को होने वाला धोतरागचारित्र है वही कार्यकारी है, क्योंकि इसी के प्रताप से केवल ज्ञान उत्पन्न होता है इसलिये चारित्र में सवा यत्न करना चाहिये, यह तात्पर्य है। यहां कोई शंका करता है कि उत्सर्ग मार्ग के व्याख्यान के समय में भी श्रमणपना कहा गया तथा यहाँ भी कहा गया यह क्यों ? इसका समाधान करते हैं कि वहाँ तो सर्वपर का त्याग करना इस स्वरूप ही उत्सर्ग को मुख्यता से मोक्षमार्ग कहा गया। यहाँ साधुपने का व्याख्यान है कि साधुपना ही मोक्षमार्ग है इसको मुख्यता है, ऐसा विशेष है ।।२४४॥ इस तरह श्रमणपना अर्थात् मोक्षमार्ग को संकोच करने को मुख्यता से चौथे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुईं। अथ शुभोपयोगप्रज्ञापनम् । तत्र शुभोपयोगिनः श्रमणत्वेनान्वाचिनोति समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होति' समयम्हि । तेसु वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ॥२४॥ श्रमणाः शुद्धोपयुक्ताः शुभोपयुवताश्च भवन्ति समये । तेष्वपि शुद्धोपयुक्ता अनास्रवाः सास्त्रवाः शेषाः ।।२४५॥ ये खलु श्रामण्यपरिणति प्रतिज्ञायापि जीवितकषायकणतया समस्तपरद्रव्यनिवृ(१) संति (ज० व०) Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५८७ तिप्रवृतसुविशुद्धबु शिज्ञप्तिस्वभावात्मस्ववृत्तिरूपां शुद्धोपयोग भूमिकामधिरोढुं न क्षमन्ते । ते तदुपकण्ठनिविष्टाः कषाय कुण्ठीकृतशक्तःयो नितान्तमुत्कण्टुलमनसः श्रमणाः कि भन बेत्यत्राभिधीयते । "धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जवि सुद्धसंपओगजुदो । पाववि णिवाणसुहं सुहोयजुत्तो व सग्गसुह" इति स्वयमेव निरूपितत्वादस्ति तावच्छुमोपयोगस्य धर्मेण सहैकार्थसमवायः । ततः शुभोपयोगिनोऽपि धर्मसद्भावाद्भवेयुः श्रमणाः किंतु तेषां शुद्धोपयोगिभिः । समं समकाष्ठत्वं न भवेत् यतः शुद्धोपयोगिनो निरस्त समस्त कषायत्वादनास्रवा एव । इमे पुनरनवकीर्णकषायकणत्वात्सास्रया एवं अतएव च शुद्धोपयोगिभिः समममी न समुच्चीयन्ते केवलमन्याचीयन्त एव ॥ २४५ ॥ भूमिका – अब, शुभोपयोग का प्रज्ञापन करते हैं। उसमें ( प्रथम ), शुभोपयोगियों को भ्रमण रूप में गौणतया बतलाते हैं अन्वयार्थ – [ समये ] शास्त्र में ( ऐसा कहा है कि ), [ शुद्धोपयुक्ताः श्रमणाः ] शुद्धोपयोगी श्रमण हैं [ शुभोपयुक्ताः च भवन्ति ] शुभोपयोगी भी श्रमण होते हैं [ तेषु अपि ] उनमें भी [ शुद्धोपयुक्ताः अनास्रवाः ] शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं, [ शेषाः सास्रवाः ] शेष सास्रव हैं, (अर्थात् - शुभोपयोगी आलबसहित हैं)। टोका—जो वास्तव में श्रामण्यपरिणति की प्रतिज्ञा करके भी कषाय-कण के जीवित 1 होने से समस्त परद्रव्य से निवृत्ति रूप से प्रवर्तमान जो सुविशुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाय आत्मतत्व में परिणति रूप शुद्धोपयोग भूमिका उसमें आरोहण करने को असमर्थ हैं, वे ( शुभोपयोगी) जीव- जो कि शुद्धोपयोग को भूमिका के निकट निवास कर रहे हैं, और कषाय ने जिनको शक्ति कुण्ठित की है, तथा जो अत्यन्त उत्कण्ठित मन वाले हैं, वे श्रमण हैं या नहीं, यह यहाँ कहा जा रहा है धम्मेण परिणप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो | पावदि णिग्वाणसुहं सुहोबजुत्तो व सासुहं ॥६६॥ I इस प्रकार कुन्दकुन्दाचार्य ने स्वयं ही निरूपण किया है, इसलिये शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थसमवाय (अभिन्नता ) है । इसलिये शुभोपयोगी भी धर्म का सदभाव होने से, श्रमण हैं । किन्तु वे शुद्धोपयोगियों के साथ समान कोटि के नहीं हैं, क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायों को निरस्त करने वाले होने से निरास्रव ही हैं और ये शुभोपयोगी तो कषाय कण के विनष्ट न होने से साथ ही हैं। और ऐसा होने से ही शुद्धोपयोगियों के साथ इन्हें ( शुभोपयोगियों को ) एकत्रित नहीं किया (वर्णन किया) जाता, मात्र पीछे से ( गौण रूप में ही) लिया जाता है। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ । [ पवयणसारी भावार्थ-परमागम में ऐसा कहा है कि शुद्धोपयोगी श्रमण हैं और शुभोपयोगी भी गौणतया श्रमण हैं जैसे निश्चय से शुद्ध बुद्ध-एक-स्वभाव वाले सिद्ध ही जीव कहलाते हैं और व्यवहार से चतुर्गति परिणत अशुद्ध जीव भी जीव कहे जाते हैं, उसी प्रकार श्रमणपने में शुद्धोपयोगी जीवों की मुख्यता है और शुभोपयोगी जीवों की गौणता है, क्योंकि शुद्धो पयोगी निज शुद्धात्म भावना के बल से समस्त शुभाशभ संकल्प-विकल्पों से रहित होने से निरास्रव ही हैं, और शुभोपयोगियों के मिथ्यात्व विषय कषाय रूप अशुभात्रय का निरोध होने पर भी वे पुण्यात्रवयुक्त हैं । तात्पर्यवृत्ति अथ शुभोपयोगिनां सास्रवत्त्वाव्यवहारेण श्रमणत्वं व्यवस्थापयति ; संति विद्यन्ते। क्य? समयम्हि समये परमागमे । के सन्ति ? समणा श्रमणास्तपोधनाः । किविशिष्टा:? सुद्ध बजुत्ता शुद्धोपयोगयुक्ता: शुद्धोपयोगिन इत्यर्थः सुहोवजुत्ता य न केवलं शुद्धोपयोगयुक्ताः शुभोपयोगयुक्ताश्च । चकारोत्र अन्वयार्थे गौणार्थे ग्राह्यः । तत्र दृष्टान्त: । यथा निश्चयेन शुद्धबद्धकस्वभावाः सिद्धजीवा एव जीवा भण्यन्ते व्यवहारेण चतुर्गतिपरिणता अशुद्धजीवाश्च जीवा इति तथा शुद्धोपयोगिनां मुख्यत्वं शुभोपयोगिनां तु चकारसमुच्चयव्याख्यानेन गौणत्वम् । कस्मादगौणत्वं जातमितिचेत् ? तेसु वि सुद्ध वजुत्ता अणांसवा सासवा सेसा तेष्वपि मध्ये शुद्धोपयोगयुक्ता अनाववाः शेषाः सानवा इति यतः कारणात् । तद्यथा निजशुद्धात्मभावनाबलेन समस्तशुभाशुभसंकल्पविकल्प रहितत्वाच्छुद्धोपयोगिनो निरासवा एवं शेषा शुभोपयोगिनो मिथ्यात्वविषयकषायरूपाशुभास्रवनिरोधेऽपि पुण्यानवसहिता इति भावः ॥२४५।। उत्थानिका-आगे शुभोपयोगधारियों को आस्रव होता है इससे उनके व्यवहारपने से मुनिपना स्थापित करते हैं-- अन्वय सहित विशेषार्थ-(समयम्हि) परमागम में (समणा) मुनि महाराज (सुद्धवजुत्ता) शुद्धोपयोगी (य सुहोवजुत्ता) और शुभोपयोगी ऐसे दो तरह के (संति) होते हैं। (तेसु वि) इन दो तरह के मुनियों में भी (सुद्धवजुत्ता) शुद्धोपयोगी (अणासवा) आत्रव रहित होते हैं (सेसा) शेष शुभोपयोगी मुनि (सासवा) आस्रव सहित होते हैं। इस गाथा में 'च' शब्द का 'गोण' अर्थ है । जैसे निश्चय से शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप सिद्ध जीव ही जीव हैं, परन्तु व्यवहारनय से चारों गतियों में भ्रमण करने वाले अशुद्ध जीव भी जीव है। तसे ही शद्धोपयोग में परिणमन करने वाले साधुओं की मुख्यता है और शुभोपयोग में परिणमन करने वालों की गौणता है, क्योंकि इन दोनों के मध्य में शुद्धोपयोगी साधु आस्रवरहित हैं व शेष शुभोपयोगी आस्रवधान हैं। अपने शुद्धात्मा की भावना के बल से जिनके सर्व शुभ अशुभ संकल्प विकल्पों की शून्यता है उन शुद्धोपयोगी साधुओं के कर्मों। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयणसारो ] [ ५८६ का आस्रव नहीं होता है, परन्तु शुभोपयोगी साधुओं के मिथ्यादर्शन व विषयकषायरूप अशुभ आस्रव के रकने पर भी पुण्यात्रव होता है, यह भाव है ॥२४॥ भावार्थ-तन्त्र हो कार का है एक स्वतत्त्व दूसरा परतत्त्व, इनमें स्वतत्त्व अपना आत्मा है तथा पर तत्त्व अरहतादि पंचपरमेष्ठी हैं। इन पंचपरमेष्ठी के अक्षररूप मंत्रों के ध्यान से भव्य मनुष्यों को बहुत पुण्यबंध होता है तथा परम्पराय से मोक्ष हो सकता है और जो स्वतस्थ है वह मी दो प्रकार का है। एक सविकल्प स्वतस्व, दूसरा निर्विकल्प स्वतत्त्व । जहां यह विचार किया जावे कि आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा आनंदमय है, वहां सविकल्प आत्मतत्व है, परन्तु जहां मन का विचार भी बंद हो जावे केवल आत्मा अपने आत्मा में तन्मय हो स्वानुभव रूप हो जावे वहां निर्विकल्प आत्मतत्व है। राग सहित सविकल्प तत्व कर्मों के आस्रव का कारण है जबकि वीतरागनिर्विकल्प तत्त्व कर्मों के आस्रव से रहित है । जब इन्द्रियों के विषयों से विरक्तता होती है तथा मन हलन चलन रहित अर्थात् संकल्प-विकल्प रहित होता है, तब यह निर्विकल्प तत्त्व अपने आत्मा के स्वरूप में सलकता है जो वास्तव में आत्मा का स्वभाव ही है। अथ शुभोपयोगिश्रमणलक्षणमासूत्रयति-- अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु' । विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ॥२४६॥ अर्हदादिषु भक्तिर्वत्सलता प्रवचनाभियुक्त षु । विद्यते यदि श्रामण्ये सा शुभयुक्ता भवेच्चर्या ।।२४६५ सकलसंगसन्यासात्मनि श्रामण्ये सत्याप कषायलवावेशवशात् स्वयं शुद्धात्मवृत्तिमात्रेणावस्थातुमशक्तस्य परेषु शुद्धात्मवृत्तिमात्रेणावस्थितेष्वहंवादिषु शुद्धात्मवृत्तिमात्राचस्थितिप्रतिपादकेषु प्रवचनाभियुक्तेष च भक्त्या वत्सलतया च प्रचलितस्य तावन्मात्ररागप्रवर्तितपरद्रव्यप्रवृत्तिसंवलितशुद्धात्मवृत्तः शुमोपयोगिचारित्रं स्यात् । असः शुभोपयोगिश्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रत्वलक्षणम् ॥२४६॥ भूमिका—अब, शुभोपयोगी श्रमण का लक्षण सूत्र द्वारा कहते हैं अन्वयार्थ- श्रामण्ये] श्रामण्य में [यदि] यदि [अहंदादिषु भक्ति:] अर्हन्तादि के प्रति भक्ति तथा [प्रवचनाभियुक्तेषु वत्सलता] प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य [विद्यते] पाया जाता है तो [सो] वह [शुभयुक्ता चर्या ] शुभयुक्त चर्या शुभोपयोगी चारित्र [भवेत् ] १. पदयणाहिजुत्तेसु (ज" वृ०) २. हवे (ज० वृ०) Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो टीका-सकलपरिग्रह के त्याग स्वरूप श्रामण्य के होने पर भी जो कषायांश के आवेश के यश केवल शुद्धात्म-परिणतिरूप से रहने में स्वयं अशक्त है, ऐसा श्रमण, पर जो (१) केवल शुद्धात्मपरिणतरूप से रहने वाले अर्हन्ताविक तथा (२) केवल शुद्धात्मपरिणतरूप से रहने का प्रतिपादन करने वाले प्रवचनरत जीव हैं उनके प्रति (१) भक्ति तथा (२) वात्सल्य से चंचल है उस (श्रमण) के, मात्र उत्तने राग से प्रवर्तमान परद्रव्यप्रवृत्ति के साथ शुद्धात्मपरिणति-मिलित होने से, शुभोपयोगी श्रमण वाला चारित्र है। इसलिये शुद्धात्मा का अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है ॥२४६॥ ___ तात्पर्यवृत्ति अथ शुभोपयोगिश्रमणानां लक्षणमाख्याति सा सुहजुत्ता हवे चरिया सा चर्या शुभयुक्ता भवेन् । कस्य ? तपोधनस्य । कथंभूतस्य ? ममस्तरागादिविकल्परहितपरमसमाधी स्थातुमशक्यस्य । यदि किम् ? विज्जवि जदि विद्यते यदि चेत् । क्व ? सामण्णे श्रामण्ये चारित्रे । किं विद्यते ? अरहंतादिसु भत्तो अनन्तगुणयुक्त वर्हत्सिद्धेषु गुणानुरागयुक्ता भक्तिः वच्छलदा वत्सलस्य भावो वत्सलता बात्सल्यं विनयोऽनुकूल वृत्तिः । केषु विषयेषु ? पबयणाहिजुत्तेसु प्रवचनाभिधुक्लेषु । प्रवचनशब्देनानागभी भण्यते संधी वा तेन प्रवचने नाभियुक्ताः प्रवचनाभियुक्ता आचार्योपाध्यायसाधवस्तेष्विति । एतदुक्त भवति--स्वयं शुद्धोपयोगलक्षणे परमसामायिके स्थातुमसमर्थस्यान्येषु शुद्धोपयोगफलभूतकेवलज्ञानेन परिणतेषु तथैव शुद्धोपयोगाराधकेषु च याऽसौ भक्तिस्तच्छुभोपयोगिश्रमणानां लक्षणमिति ।।२४६॥ उत्थानिका—आगे शुभोपयोगी साधुओं का लक्षण कहते हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जवि) यदि (सामष्णे) मुनि के चारित्र में (अरहंतादिस् भत्ती) अनन्त गुण सहित अरहंत तथा सिद्धों में गुणानुराग रूप भक्ति है (पवयणाहिजुत्तंसु वच्छलदा) आगम या संघ के धारी आचार्य उपाध्याय व साधुओं में विनय, प्रीति व अनुकूल वर्तन (विज्जदि) पाया जाता है तब (सा चरिया सुहजुत्ता हवे) वह आचरण शुभोपयोग सहित होता है। जो साधु सर्व रागादि विकल्पों से शुन्य परमसमाधि अथवा शुद्धोपयोग रूप परमसामायिक में तिष्ठने को असमर्थ है उसके शुद्धोपयोग के फल को पाने वाले केवलज्ञानी अरहंत सिद्धों में जो भक्ति है तथा शुद्धोपयोग के आराधक आचार्य उपाध्याय साधु में जो प्रीति है यही शुभोपयोगी साधुओं का लक्षण है ॥२४६।। अथ शुभोपयोगिश्रमणानां प्रवृत्तिमुपदर्शयति वंदणणमसहिं अन्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती। समणेसु समावणओ णिदिवा रायचरियम्हि ॥२४७॥ वन्दननमस्करणाभ्यामभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिः। श्रमणेषु श्रमापनयो न निन्दिता रागचर्यायाम् ॥२४७।। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५६१ शुभोपयोगिनां हि शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रतया समधिगतशुद्धात्मवृत्तिषु श्रमणेषु वन्दननमरकरणाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्तिः शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमिसा श्रमापनयनप्रवृतिश्च न दुष्येत् ॥२४॥ गुणिका-भार, गुमोपयोगी भगनों के प्रति बतलाते हैं अन्वयार्थ-[श्रमणेषु] श्रमणों के प्रति [वन्दननमस्करणाभ्यां] वन्दन-नमस्कार पूर्वक [अभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिः] खड़ा हो जाने और पीछे चलने से विनय सहित प्रवृत्ति करना तथा [श्रमापनय:] उनकी थकान दूर करना [रागचर्यायाम् ] रागचर्या में [न निन्दिता] निषिद्ध नहीं है। टीका-जिनने शद्वात्म परिणति प्राप्त की है ऐसे श्रमणों के प्रति शभोपयोगियों के शुद्धात्मा के अनुरागयुक्त चारित्र के द्वारा जो वन्दन-नमस्कार-अभ्युत्थान-अनुगमन रूप विनययुक्त प्रवत्ति तथा शुद्धात्मपरिणति को रक्षा की निमित्तभून जो थकान दूर करने की (वयावृत्यरूप) प्रवृत्ति है, वह शुभोपयोगियों के लिये दूषित नहीं है ।।२४७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ शुभोपयोगिनां शुभप्रवृत्ति दर्शयति ण णिदिदा नैव निषिद्धा । क्ब ? रायचरियमिह शुभरागचर्यायां सरागचारित्रावस्थायाम् । का न निन्दिता? बंदणणमंसणेहिं अभुट्ठाणाणुगमणपङिवत्ती वन्दननमस्काराभ्यां सहाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्ति : । समणेसु समावणओ श्रमणष श्रमापनयः रत्नत्रयभावनाभिधातकश्रमस्य खेदस्य विनाश इति । अनेन किमुक्तं भवति–शुद्धोपयोगसाधके शुभोपयोगे स्थितानां तपोधनानां इत्थंभूताः शुभोपयोगप्रवृत्तयो रत्नत्रयाराधकस्वरूपेषु विषये युक्ता एव विहिता एवेति ॥२४७।। उत्थानिका-आगे शुभोपयोगी मुनियों की शुभ प्रवृत्ति को और भी दर्शाते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ----(रायचरियम्हि) शुभ राग रूप आचरण में अर्थात् सराग चारित्र की अवस्था में (बंदणणमंसणेहि) वंदना और नमस्कार के साथ-साथ (अब्भुट्ठापाणुगमणपडियत्ती) आते हुए साधु को देखकर उठ खड़ा होना, उनके पीछे-पीछे चलना आदि प्रवृत्ति तथा (समणेसु) साधुओं के सम्बन्ध में उनका (समावणी) खेद दूर करना आदि क्रिया (ण णिदिया) निषेध्य या जित नहीं है । पंच परमेष्ठियों का वंदना नमस्कार व उनको देखकर उठना, पीछे चलना आदि प्रवृत्ति व रत्नत्रय को भावना करने से प्राप्त जो परिश्रम का खेद उसको दूर करना आदि शुभोपयोग रूप प्रवृत्ति रत्नत्रय की आराधना करने वाले साधुओं के लिये मना नहीं है किन्तु करने योग्य है। जो साधु शुद्धोपयोग के साधक शुभोपयोग में ठहरे हुए हैं उनके लिये रत्नत्रय के आराधकों के सम्बन्ध में इस प्रकार की शुभ प्रवृत्ति उचित ही है ॥२४७॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ] [ पबयणसारो अथ शुभोपयोगिनामेवैवंविधाः प्रवृत्तयो भवन्तीति प्रतिपादयति दसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसि । चरिया हि सरागाणं जिणिदपूजोवदेसो य ॥२४८।। दर्शनज्ञानोपदेशः शिष्यग्रहणं च पोषणं तेषाम् । चर्या हि सरागाणां जिनेन्द्रपूजोपदेशश्च ।।२४८॥ अनुजिघृक्षापूर्वकदर्शनज्ञानोपदेशप्रवृत्तिः शिष्यसंग्रहणप्रवृत्तिस्तत्पोषणप्रवृत्तिजिनेन्द्रपूजोपदेशप्रवृत्तिश्च शुभोपयोगिनामेव भवन्ति न शुद्धोपयोगिनाम् ॥२४॥ भूमिका--अब, यह प्रतिपादन करते हैं कि शुमोपयोगियों के ही ऐसी प्रवृत्तियां होती हैं____ अन्वयार्थ- [दर्शनज्ञानोपदेशः ] सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का उपदेश, [शिष्यग्रहणं] शिष्यों का ग्रहण, [च] तथा [तेषाम् पोषणं] उनका पोषण [च] और [जिनेन्द्रपूजोपदेशः] जिनेन्द्र की पूजा का उपदेष्ण हि! वास्तव में [मगगाणां चर्या ] सरागियों को चर्या है। टीका-अनुग्रह करने की इच्छापूर्वक दर्शनशान के उपदेश की प्रवृत्ति, शिष्यग्रहण की प्रवृत्ति, उनके पोषण को प्रवृत्ति और जिनेन्द्रपूजन के उपदेश को प्रवृत्ति, शुभोपयोगियों के ही होती है, शुद्धोपयोगियों के नहीं ॥२४॥ तात्पर्यवृत्ति अथ शुभोपयोगिनामेवेत्थंभूताः प्रवृत्तयो भवन्ति न च शुद्धोपयोगिनामिति प्ररूपयति;-- दसणणाणुवदेसो दर्शनं मूढनयादिरहितं सम्यक्त्वं ज्ञानं परमागमोपदेशः तयोरुपदेशो दर्शनज्ञानोपदेश: सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसि रत्नत्रयाराधनाशिक्षाशीलानां शिष्याणां ग्रहणं स्वीकारस्तेषामेव पोषणमशनशयनादिचिन्ता चरिया हि सरागाणं इत्थंभूता चर्या चारित्रं भवति हि स्फुटं । केषां ? सरागाणां धर्मानुरागचारित्रसहितानाम् । न केवलमित्थंभूता चर्या जिणिदपूजोयसो य यथासम्भव जिनेन्द्रपूजादिधर्मोपदेशश्चेति । ननु शुभोपयोगिनामपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावना दृश्यते शुद्धोपयोगिनामपि क्वापि काले शुभोपयोगभावना दश्यते । श्रावकाणामपि सामाथिकादिकाले शुद्धभावना दश्यते तेषां कथं विशेषो भेदो ज्ञायत इति । परिहारमाह - युक्तमुक्त भवता परं किन्तु ये प्रचुरेण शुभोपयोगेन वर्तन्ते। ते यद्यपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावनां कुर्वन्ति तथापि शुभोपयोगिन एव भण्यन्ते। येऽपि शुद्धोपयोगिनस्ते यद्यपि क्वापि काले शुभोपयोगेन वर्तन्ते तथापि शुद्धोपयोगिन एव। कस्मात् ? बहुपदस्य प्रधानत्वादावनिम्बवनवदिति ॥२४८|| उत्थानिका-आग फिर भी कहते हैं कि शुभोपयोगी साधुओं को ऐसी प्रवृत्तियां होती हैं न कि शुद्धोपयोगी साधुओं की Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचयणसारो | [ ५६३ अन्वय सहित विशेषार्थ - ( दंसणणाणुवदेसो) तीन मूढ़ता आदि पच्चीस दोष रहित सम्यक्त्व तथा परमागम का उपदेश सो ज्ञान, इन दोनों का उपदेश सो दर्शन- ज्ञान का उपदेश है (सिस्सग्गहण ) रत्नत्रय के आराधक शिष्यों को दीक्षित करना ( च तेसि पोषणं ) और उन शिष्यों के शयन भोजनादि पोषण की चिन्ता (जिणिदपूजोवदेसो य) तथा यथासंभव जिनेन्द्र की पूजा आदि का धर्मोपदेश ये सब ( सरागाणं चरिया) अर्थात् धर्मानुराग सहित सरागचारित्र पालने बालों का ही चारित्र है । कोई शिष्य प्रश्न करता है कि साधुओं के चारित्र के कथन में आपने बताया कि शुभोपयोगी साधुओं के भी कभी-कभी शुद्धोपयोग की भावना देखी जाती है तथा शुद्ध साधुओं के कभी-कभी शुभोपयोगी भावना होती जाती है। तंसे ही श्रावकों के भी सामायिक आदि उदासीन धर्मक्रिया के काल में शुद्धोपयोग की भावना देखी जाती है तब साधु और श्रावकों में क्या अंतर रहा ? इसका समाधान आचार्य करते हैं कि आपने जो कहा वह सब युक्ति संगत है-ठीक है । परन्तु जो अधिकतर शुभोपयोग के द्वारा ही वर्तन करते हैं यद्यपि वे कभी-कभी शुद्धोपयोग की भावना कर लेते हैं ऐसे अधिकतर शुभोपयोगी श्रावकों को शुभोपयोगी ही कहा है क्योंकि उनके शुभोपयोग को प्रधानता है तथा जो शुद्धोपयोगी हैं, साधु हैं यद्यपि वे - किसी काल में शुभोपयोग द्वारा वर्तन करते हैं तथापि वे शुद्धोपयोगी हैं। बहुलता की प्रधानता रहती है । जैसे किसी वन में आम्रवृक्ष अधिक हैं व और वृक्ष थोड़े हैं तो उसको आम्रवन कहते हैं और जहाँ नीम के वृक्ष बहुत हैं, आम्रादि के कम हैं वहां उसको नोम का वन कहते हैं ॥४४८ ॥ अथ सर्वा एव प्रवृत्तयः शुभोपयोगिनामेव भवन्तीत्यवधारयति उवकुणदि जो विणिच्चं चादुत्वण्णस्स समणसंघस्स । कार्याविराधणरहिवं सो वि सरागप्पधाणो से || २४६ ॥ उपकरोति योऽपि नित्यं चातुर्वर्णस्य श्रमण संघस्य । काराधनरहितं सोऽपि सरागप्रधानः स्वात् ॥ २४६ ॥ प्रतिज्ञातसंयमत्यात् षट्कायविराधनरहिता या काचनापि शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ता चातुर्वर्णस्य श्रमण संघस्योपकारकरणप्रवृत्तिः सा सर्वापि रामप्रधानत्वात् शुभोपयोगिनामेव भवति न कदाचिदपि शुद्धोपयोगिनाम् ॥ २४६॥ भूमिका – अब, यह निश्चय करते हैं कि सभी प्रवृत्तियां शुभोपयोगियों के हो होती हैं Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ ] [ पक्ष्यणसारी अन्वयार्थ-[यः अपि] जो कोई (श्रमण) [नित्यं] सदा [चातुर्वर्णस्य] चार प्रकार के [श्रमणसंघस्य] श्रमण संघ का कायविराधनरहित] जीवों की विराधना से रहित [उपकरोति ] उपकार करता है, [सः अपि] वह भी [सरागप्रधान: स्यात् ] राग की प्रधानता वाला है। टीका---दयोंकि संयम की प्रतिज्ञा को है इसलिये षट्काय के विराधन से रहित जो कोई भी, शुखात्मपरिणति के रक्षण में निमित्समत, चार प्रकार के श्रमणसंध के उपकाररूप प्रवृत्ति है वह सभी रागप्रधानता के कारण शुभोपयोगियों के ही होती है, शुद्धोपयोगियों के कदापि नहीं ॥२४६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ काश्चिदपि या प्रवृत्तयस्ताः शुभोपयोगितामेवेति नियमति उपकुवि जो वि णिच्चं चादुय्यण्णस्स समणसंघस्स उपकरोति योऽपि नित्यं कस्य चातुर्वर्णस्य अमणसंधस्य । अत्र श्रमणशब्देनं श्रमणशब्दवाच्या ऋषिमुनियत्यनगारा ग्राह्याः 1 "देशप्रत्यक्षवित्केवल. भृदिहमुनिः-स्यादृषिः प्रमृद्धिराख्दः श्रेणियुग्मेऽजनि यतिरनगारोऽपरः साधुवर्गः । राजा ब्रह्मा च देवपरम इति ऋषिविक्रियाक्षीणशक्तिप्राप्तो बुद्धधौषधीशो वियदयनपटुर्विश्ववेदी क्रमेण ॥१॥" ऋषय ऋद्धिप्राप्तास्ते चतुविधा राजब्रह्मदेवपरम ऋषिभेदात् । तत्र राजर्षयो विक्रियाक्षीद्धप्राप्ता भवन्ति । ब्रह्मर्षयो बुद्धचोषद्धियुक्ता भवन्ति । देवर्षयो गगनगमनद्धिसम्पन्ना भवन्ति, परमर्षयः केवलिनः केवलशानिनो भवन्ति, मुनयः अवधिमनःपर्ययकेवलिनश्च । यतय उपशमकक्षपकश्रेण्यारूढाः । अनगाराः सामान्यसाधवः । कस्मात् ? सर्वेषां सुखदुःखादिविषये समतापरिणामोऽस्तीति । अथवा श्रमगधर्मानुकूलश्रावकादिचातुर्वर्णसंघः । कथं यथा भवति ? फायविराधणरहिवं स्वभावनास्वरूपं स्वकीयशुद्धचंतन्यलक्षणं निश्चयप्राणं रक्षन् परकीयपट कायविराधनारहितं यथा भवति सो वि सरागप्पधाणो से सोपीत्थंभूतस्तपोधनो धर्मानुरागचारित्रसहितेपु मध्ये प्रधानः श्रेष्ठ: स्यादिव्यर्थः ।। २४६।। उत्थानिका-ये प्रवृत्तियां शुभोपयोगी साधुओं के होती हैं, ऐसा नियम करते हैं-- अन्वय सहित विशेषार्थ—(जो वि) जो कोई (चायण्णस्स समणसंघस्स) चार प्रकार साधु संघ का (णिच्न) नित्य (काविराधणरहिद) छहकाय के प्राणियों की विराधना से रहित क्रिया द्वारा (उचकुणंदि) उपकार करता है (सोवि) वह साधु भी (सरागप्पधाणो से) शुभोपयोगधारियों में मुख्य होता है । चार प्रकार संघ में ऋषि, मुनि, यति, अनगार लेने योग्य हैं। एकदेशप्रत्यक्ष अर्थात् अवधि मनःपर्ययज्ञान के धारी तथा केवलज्ञानी मुनि कहलाते हैं, ऋद्धिप्राप्त मुनिऋषि कहलाते हैं, उपशम और अपकणि में आरूढ यति कहलाते हैं तथा सामान्य साधु अनगार कहलाते हैं। ऋद्धिप्राप्त ऋषियों के चार भेद हैंराजऋषि, ब्रह्मऋषि, देवऋषि, परमऋषि इनमें जो विक्रिया और अक्षीणऋद्धि के धारी हैं। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ५६५ वे राजऋषि हैं, जो बुद्धि और औषध ऋद्धि के धारी हैं वे ब्रह्मऋषि हैं, जो आकाशगमन ऋद्धि के धारी हैं देव ऋषि हैं, परमऋषि के वलज्ञानी हैं। ये चारों ही श्रमण संघ इसीलिये कहलाता है कि सुख दुःख आदि के सम्बन्ध में इन सभी के समताभाव रहता है । अथवा श्रमण धर्म के अनुकूल चलने वाले श्रावक, श्राविका, मुनि, आर्यिका ऐसे भी चार प्रकार संघ है । इन चार तरह के संध का उपकार करना इस तरह योग्य है जिसमें उपकारकर्ता साधु आत्मीक भावना स्वरूप अपने ही शुद्धचंतन्यमय निश्चयप्राण की रक्षा करता हुआ बाह्य में छः काय के प्राणियों को विराधना न करता हुआ बर्तन कर सके । ऐसा ही तपोधन धर्मानुराग रूप चारित्र के पालने वालों में श्रेष्ठ होता है ॥ २४६ ॥ अथ प्रवृत्तेः संयमविरोधित्वं प्रतिषेधयति जदि कुणदि कायखेदं वेज्जा वच्चत्थमुज्जदो समणो । ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ॥ २५० ॥ यदि करोति कायखेदं वैयावृत्त्यर्थमुद्यतः श्रमणः । न भवति भवत्यगारी धर्मः स श्रावकाणां स्यात् ।। २५०।। यो हि परेषां शुद्धात्मवृत्तित्राणाभिप्रायेण वैयावृत्यप्रवृत्या स्वस्य संयमं विराधयति स गृहस्थधर्मातुप्रवेशात् श्रामण्यात् प्रच्यवते । अतो या काचन प्रवृत्तिःसा सर्वथा संयमाविरोधेनैव विधातव्या । प्रवृत्तावपि संयमस्यैव साध्यत्वात् ॥२५०|| भूमिका – अब इस प्रवृत्ति के संयम के विरोधी होने का निषेध करते हैं (अर्थात् शुभोपयोगी श्रमण के संयम के साथ विरोध वाली प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये, यह कहते हैं)अम्वयार्थ - [ यदि ] यदि ( श्रणण ) ( वैयावृत्त्यर्थम् उद्यतः] वैयावृत्ति के लिये उद्यमी वर्तता हुआ [ कायखेदं ] जीवों को पीड़ित [करोति ] करता है तो वह [ श्रमणः न भवति ] श्रमण नहीं है, [ अगारी भवति ] गृहस्थ है, ( क्योंकि ) [स] वह [ श्रावकाणां धर्मः स्यात् ] श्रावकों का धर्म है । टीका--दूसरे के शुद्धात्मपरिणति की रक्षा के अभिप्राय से जो मुनि वैयावृत्य की प्रवृत्ति करता हुआ अपने संयम की विराधना करता है, उसका गृहस्थधर्म में प्रवेश होने से श्रामण्य से च्युत होता है । इसलिये जो भी प्रवृत्ति हो उसका संयम के साथ सर्वथा विरोध न आये ऐसी प्रवृत्ति होनी चाहिये, क्योंकि प्रवृत्ति में संयम ही साध्य है ॥ २५० ॥ तात्पयंवृत्ति अथ वैयावृत्त्यकालेपि स्वकीय संयम विराधना कर्त्तव्येत्युपदिशति जदि कुर्णादि कायखेवं वेज्जावच्चस्थमुज्जदो यदि चेत् करोति कायखेदं षट्कायविराधना | Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पवयणसारो कथंभूतः सन् ? वयावृत्त्यर्थमुद्यतः समणो ण हवदि तदा श्रमणस्तपोधनो न भवति । तर्हि किं भवति ? हदि अगारी अगारी गृहस्थो भवति। कस्मात् ? धम्मो सो सावयाणं से षट्कायविराधनां कृत्वा योसो धर्मः स श्रावकाणां स्यात् न च तपोधनानामिति । इदमत्र तात्पर्यम-योऽसौ स्वशरीरपोषणार्थ शिष्यादिमोहेन वा सावधं नेच्छति तस्येदं व्याख्यानं शोभते यदि पुनरन्यत्र सावधमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकायें नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्तीति ॥२५०।। उत्थानिका-आगे उपदेश करते हैं कि वयावृत्य के समय में भी अपने संयम का घात साधु को कभी नहीं करना चाहिये अन्वय सहित विशेपार्थ—(जवि) यदि (वेज्जावरचत्थमुज्जदो) वैयावृत्त्य के लिये उद्यम करता हुआ साधु (कायखे कुणाद) षटकाय के जीवों की विराधना करता है तो (समणो ण हवदि) वह साधु नहीं है, (अगारी हववि) वह गृहस्थ हो जाता है, क्योंकि (सो सावयाणं धम्मो से) षट् काय के जीवों का आरम्म श्रावकों का कार्य है, साधओं का धर्म नहीं है। यहां यह तात्पर्य है कि जो कोई अपने शरीर की पुष्टि के लिये या शिष्यादिकों के मोह में पड़कर उनके लिये पापकर्म की या हिंसाकर्म की इच्छा नहीं करता है उसी के यह व्याख्यान शोभनीक है, परन्तु यदि वह अपने व दूसरों के लिये पापमय कर्म की इच्छा करता है, वैयावृत्य आदि अपनी अवस्था के योग्य धर्म कार्य की अपेक्षा से नहीं चाहता है उसके तब से सम्यग्दर्शन ही नहीं है। मुनि व श्रावकपना तो दूर ही रहा ॥२५॥ अथ प्रवृत्तेविषयविभागे दर्शयति जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं । अणुकंपयोवयार' कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो' ॥२५॥ जैनानां निरपेक्ष साकारान।कारचर्यायुक्तानाम् । अनुकम्पयोपकारं करोतु लेपो यद्यप्यल्पः ॥२५१।। या किलानुकम्पापूविका परोपकारलक्षणा प्रयत्तिः सा खल्वनेकान्तमंत्रीपवित्रतचित्तेषु शुद्धेषु जनेषु शुद्धात्मज्ञानदर्शनप्रवृत्तवृत्तितया साकारानाकारचर्यायुक्तेषु शुद्धात्मोपलम्भेतरसकलनिरपेक्षतयैवारुपलेपाप्यप्रतिषिद्धा । न पुनरल्पलेपेति सर्वत्र सर्वथैवाप्रतिषिद्धा, तत्र तथाप्रवृत्त्या शुद्धात्मवृत्तित्राणस्य परात्मनोरनुपपतेरिति ॥२५१॥ भूमिका—अब, प्रवृत्ति के विषय के दो विभाग बतलाते हैं अन्वयार्थ-[यद्यपि अल्पः लेपः] यद्यपि अल्प लेप होता है तथापि [साकाराना१. अणुकंपओवपारं (ज० वृ.) । २. वियप्पो (ज० वृ०। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारी ] कारचर्यायुक्तानाम्] साकार-अनाकार चर्यायुक्त [जनानां] जनों का [निरपेक्षं] निरपेक्षतया [अनुकम्पया] अनुकम्पा से [उपकारं करोतु] (शुभोपयोग से) उपकार करो। टीका-जो अनुकम्पापूर्वक परोपकार स्वरूप प्रवृत्ति उसके करने से यद्यपि अल्प लेप तो होता है, तो भी अनेकान्त के साथ मंत्री से जिनका चित्त पवित्र हुआ है ऐसे शुद्ध जैनों के प्रति जो कि शुद्धात्मज्ञान-दर्शन में प्रवर्तमान चर्या के कारण सागार अनागार चर्या वाले हैं उनके प्रति-शुखात्मा को उपलब्धि के अतिरिक्त अन्य सबको अपेक्षा किये बिना ही, उस प्रवृत्ति के करने का निषेध नहीं है, किन्तु अल्प लेप बाली होने से सबके प्रति सभी प्रकार से वह प्रवृत्ति अनिषिद्ध ही ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इसमें (अर्थात् यदि सबके प्रति सभी प्रकार से की जाय तो) उसी प्रकार की प्रवृत्ति से पर के और निज के शुद्धात्मपरिणति की रक्षा नहीं हो सकती ॥२५१।। सात्पर्यवृत्ति अथ यद्यप्यल्पलेपो भवति परोपकारे तथापि शुभोपयोगिभिर्धमोपकारः कर्तव्य इत्युपदिशति ; कुब्वदु करोतु । स कः कर्ता ? शुभोपयोगी पुरुषः । कं करोतु ? अणुफपओबयार अनुकम्पासहितोपकारं दयासहितं धर्मवात्सल्यम् । यदि किम् ? लेवो जदि वियप्पो “सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ" इति दृष्टान्तेन यद्यप्यल्पलेपः स्तोकसावधं भवति । केषां करोतु ? जोण्हाणं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गपरिणतजैनानाम् । कथम् ? हिरवेक्खं निरपेक्षं शुद्धात्मभावनाविनाशकख्यातिपूजालाभवाञ्छारहितं यथा भवति । कथंभूतानां जैनानाम् ? सागारणगारचरियजुत्ताणं सागारानागारचर्यायुक्तानां श्रावकतपोधनाचरणसहितानामित्यर्थः ॥२५१॥ उस्थानिका—यद्यपि परोपकार करने में कुछ अल्प बन्ध होता है, तथापि शुभोपयोगी साधुओं को धर्म सम्बन्धी उपकार करना चाहिये, ऐसा उपदेश करते हैं । ___ अन्वय सहित विशेषार्थ (जदिवियप्पो लेवो) यद्यपि अल्प बन्ध होता है तथापि शुभोपयोगी मुनि (सागारणमारचरियजुत्ताणं) श्रावक तथा मुनि के आचरण से युक्त (जोण्हाणं) जैनधर्म धारियों का (हिरवेक्वं) बिना किसी इच्छा के (अणुकंपओवयारं) क्या सहित उपकार (कुन्वदि) करे । यद्यपि अल्प कर्म बन्ध होता है तथापि शभोपयोगी पुरुष निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग पर चलने वाले श्रावकों को तथा मुनियों को सेवा व उनके साथ दयापूर्वक धर्म, प्रेम या उपकार, शुद्धात्मा की भावना को विनाश करने वाले प्रसिद्धि, पूजा, लाभ की इच्छा आदि भावों से रहित होकर करे ॥२५१॥ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पवयणसारो अथ प्रवृत्तेः कालविभागं दर्शयति रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं । दिट्ठा समणं साहू पडिवज्जदु आवसत्तीए ॥२५२।। रोगेण वा क्षुधया तृष्णया वा श्रमेण वा रूढम् । दृष्ट्वा श्रमणं साधुः प्रतिपद्यतामात्मशक्त्या ॥२५२।। यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्तः श्रमणस्य तत्प्रच्यावनहेतोः कस्याप्युपसर्गस्योपनिपातः स्यात् स शुभोपयोगिनः स्वशक्त्या प्रतिचिकीर्षा प्रवृत्तिकालः । इतरस्तु स्वयं शुद्धात्मवृत्तेः समधिगमनाय केवलं निवृत्तिकाल एव ॥२५२॥ भूमिका-अब, प्रवृत्ति के काल का विभाग बतलाते हैं अन्वयार्थ [रोगेण वा] रोग से, क्षुधया क्षुधा से. [नुष्णया वा] तृपा से श्रमेण वा] अथवा थकावट से [रूढम्] पीडित [श्रमणं] श्रमण को [दृष्ट्वा ] देखकर [साधुः] साधु [आत्मशक्त्या] अपनी शक्ति के अनुसार [प्रतिपद्यताम्] वयावृत्यादि करे । टीका-जब शुद्धात्मपरिणति में भले प्रकार लीन श्रमण को, उससे च्युत करने वाला कारण-कोई भी उपसर्ग-आ जाय, तब शुभोपयोगी को अपनी शक्ति के अनुसार उपसर्ग को दूर करने के लिये प्रवृत्ति करने का काल है, और उसके अतिरिक्त काल अपनी शुद्धात्मपरिणति की प्राप्ति के लिये केवल निवृत्ति का काल है ॥२५२॥ तात्पर्यवृत्ति कस्मिन्प्रस्ताने वैयावृत्त्यं कर्त्तव्यमित्युपदिशति पडिवज्दु प्रतिपद्यतां स्वीकरोतु । कया ? आदसत्तीए स्वशक्त्या स कः कत्ता ? साहू रत्नत्रयभावनया स्वात्मानं साधयतीति साधुः । कम् ? समणं जीवितमरणादिसमपरिणामत्वाच्छमणस्तं श्रमणम् दिवा दृष्टवा । कथंभूतं ? रूढं रूई व्याप्त पीडितं कथितम् केन ? रोगेण वा अनाकुलवलक्षणपरमात्मनो बिलक्षणेनाकुलत्वोत्पादकेन रोगण व्याधिविशेषेण वा छुहाए क्षुधया तण्हाए वा तृप्णया वा समेण वा मार्गोपवासादिश्रमेण वा । अत्रेदं तात्पर्यम्-स्वस्वभावनाविघातकरोगादिप्रस्तावे यावृत्त्यं करोति शेषकाले स्वकीयानुष्ठान करोतीति ।।२५२।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि किस समय साधुओं की वैयावृत्य की जाती है अन्वय सहित विशेषार्थ-(रोगेण) रोग से (वा क्षुहाए) वा भूख से (तण्हाए वा) दा प्यास से (समेण वा) वा थकान से (रूढं) पीडित (समणं) किसी साधु को (विट्ठा) देखकर (साधू) साधु (आदसत्तीए) अपनी शक्ति के अनुसार (पडियज्जदु) उसका वैयावृत्य करे । जो रत्नत्रय की भावना से अपने आत्मा को साधता है वह साधु है। ऐसा साधु किसी दूसरे १. छुहाए (ज• वृ०)। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] श्रमण को, जो जीवन-मरण, लाभ-अलाम आदि में समभाव को रखने वाला है, ऐसे रोग से पीड़ित देखकर, जो रोग अनाकुलता रूप परमात्म स्वरूप से विलक्षण आकुलता को पैदा करने वाला है, या भूख प्यास से निर्बल आनकर या मार्ग की थकान से या मास पक्ष आदि उपवास की गर्मी से असमर्थ समझकर अपनी शक्ति के अनुसार उसकी सेवा करे। तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा की भावना के घातक रोग आदि के अवसर पर वैयावृत्य करना साधु का कर्तव्य है उस शेषकाल में अपना चारित्र पाले ॥२५२॥ अथ लोकसंभाषणप्रवृत्ति सनिमित्तविभागं दर्शयति वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुढ्डसमणाणं । लोगिगजणसंभासा ण णिदिदा वा सुहोवजुदा ॥२५३॥ वैयावृत्त्यनिमित्तं ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम् । लौकिकजनसंभाषा न निन्दिता वा शुभोपयुता ।।२५३।। समधिगतशुद्धात्मवृत्तीनां ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानां वयावृत्त्यनिमित्तमेव शुद्धात्मवृत्तिशून्यजनसंभाषणं प्रसिद्धं न पुनरन्यनिमित्तमपि ॥२५३॥ भूमिका-अब, लोगों के साथ बातचीत करने की प्रवृत्ति विभाग का कारण बतलाते हैं। अन्वयार्थ-[वा] और [ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम्] रोगी, गुरु (पूज्य बड़े), बाल तथा वृद्ध श्रमणों की [वैयावृत्यनिमित्तं] सेवा के निमित्त से, [शुभोपयुता] शुभोपयोगयुक्त मुनि [लौकिकजनसंभाषा] लौकिक जनों के साथ बातचीत करने का [न निन्दिता] निषेध नहीं है। टीका-शुद्धात्मपरिणति में भले प्रकार लोन ऐसे रोगो, गुरु बाल और वृद्ध श्रमणों को सेवा के निमित्त से हो (शभोपयोगी श्रमणको) शुद्धात्मपरिणति शून्य लोगों के साथ बातचीत युक्त है (शास्त्रों में निषिद्ध नहीं है), किन्तु अन्य निमित्त से निषेध है ॥२५३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ शुभोपयोगिनां तपोधनवैयावृत्त्यनिमित्तं लौकिकसंभाषणविषये निषेधो नास्तीत्युपदिशति ण णिदिदा शुभोपयोगित्तपोधनानां न निन्दिता न निषिद्धा। का कर्मतापना? लोगिगजणसंभासा लौकिकजनैः सह संभाषा वचनप्रवृत्ति: सुहोवजुदा वा अथवा सापि शुभोपयोगयुक्ता भण्यते । किमर्थं न निषिद्धा ? बेज्जावच्चानिमित्तं वयावृत्त्यनिमित्तम् । केषां वैयावृत्त्यम् ? गिलाणगुरुवालवुड्ढसमणाणं ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम् । अत्र मुरुशब्देन स्थूलकायो भण्यते अथवा पूज्यो वा गुरुरिति । तथाहि-यदा कोऽपि शुभोपयोगयुक्त आचार्यः सरागचारित्रलक्षणशुभोपयोगिनां वीतराग Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ] [ पबयणसारो चारित्रलक्षणशुद्धोपयोगिनां वा वैयावृत्त्यं करोति तदा काले तद्वयावृत्यनिमित्त लौकिकजनैः सह सम्भाषणं करोति न शेषकाल इति भावार्थः ।।२५३|| एवं माथापञ्चकेन लौकिकव्याख्यानसम्बन्धिप्रथमस्थलं गतम् । उत्थानिका-आगे उपदेश करते हैं कि साधुओं की वैयावृत्य के वास्ते शुभोपयोगी साधुओं को लौकिक जनों के साथ भाषण करने का निषेध नहीं है___अन्वय सहित विशेषार्थ-(वा) अथवा (गिलाणगुरुबालबुड्डसमणाणं) रोगी मुनि, गुरु अर्थात् स्थूलकायमुनि या पूज्यमुनि, बालकमुनि तथा वृद्धमुनि की (वेज्जावच्चणिमिस) वैय्यावृत्य के लिए (सुहोवजुदा) शुभोपयोगी मुनि को (लोगिगजणसंभासा) शुभोपयोगी लौकिक जनों के साथ भाषण करना (णिदिदा ण) निषिद्ध नहीं है। जब कोई भी शुभोपयोग सहित आचार्य सरागचारित्र रूप शुभोपयोग के धारी साधुओं की अथवा वीतरागचारित्र रूप शुद्धोपयोगधारी साधुओं की वैयावत्य करता है उस समय उस वैयावत्य के प्रयोजन से लौकिकजनों के साथ संभाषण भी करता है । शेष काल में नहीं, यह भाव है ॥२५३॥ इस तरह पांच गाथाओं के द्वारा लौकिक व्यवहार के व्याख्यान के सम्बन्ध में पहला स्थल पूर्ण हुआ। अथैवमुक्तस्य शुभोयोगस्य गौणमुख्यविभागं दर्शयति एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ॥२५४॥ एषा प्रशस्तभूता श्रमणानां बा पुनर्गृहस्थानाम् । चर्या परेति भणिता तथव परं लभते सौख्यम् ।।२५४।। एवमेष शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णितः शुभोपयोगः तदयं शुद्धात्मप्रकाशिको समस्तविरतिमुपेयुषां कषायफणसभावात्प्रवर्तमानः शुद्धात्मवृत्तिविरुद्धरागसंगतत्वाद्गौणः श्रमणानां, गृहिणां तु समस्तविरतेरभावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात्कषायसद्भावात्प्रवर्तमानोऽपि स्फटिकसंपणार्कतेजस इवैधसां रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणस्वाच्च मुख्यः ॥२५४॥ भूमिका-अब, इस प्रकार से कहे गये शुभोपयोग का गौण-मुख्य विभाग बतलाते हैं अर्थात् यह बतलाते हैं कि किसके शुभोपयोग गौण होता है और किसके मुख्य होता है ___ अन्वयार्थ-[एषा] यह [प्रशस्तभूता] प्रशस्तभूत [चर्या] चर्या [श्रमणानां] श्रमणों के (गौण) होती है [वा गृहस्थानां पुनः] और गृहस्थों के तो [परा) मुख्य होती है, [इति भणिता] (शास्त्रों में) ऐसा कहा गया है, [तया एव] उसी से [परसौख्यं लभते ] गृहस्थ परम सौख्य को प्राप्त होता है । Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] टीका- इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्त सवति गया है । वह शुभोपयोग, शुद्धात्मा की प्रकाशक सर्वविरति को प्राप्त श्रमणों के कषायकण के सद्भाव के कारण प्रर्थार्तत होता हुआ, गौण होता है, क्योंकि उस शुभोपयोग का शुद्धात्मपरिणति से विरुद्ध राग के साथ संबन्ध है और यह शुभोपयोग गृहस्थों के तो, सविरति के न होने से शुद्धात्म-प्रकाशन के अभाव के कारण कषाय के सद्भाव में प्रवर्तमान होता हुआ भी, मुख्य है, क्योंकि जैसे ईंधन को स्फटिक के संपर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है ( और इसलिये वह क्रमशः जल उठता है) उसी प्रकार -- र-गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है, और ( इसलिये वह शुभोपयोग ) क्रमशः परम निर्वाणसौख्य का कारण होता है ॥२५४॥ तात्पर्यवृत्ति [ ६०१ अथायं वैयावृत्यादिलक्षणशुभोपयोगस्तपोधनैगणवृत्त्या श्रावकैस्तु मुख्यवृत्या कर्त्तव्य इत्याख्याति; - मणिदा भणिता कथिता । का कर्मतापन्ना ? बरिया चर्या चारित्रमनुष्ठानं । किं विशिष्टा ? एस एषा प्रत्यक्षीभूता । पुनश्च किंरूपा ? पसत्थभूदा प्रशस्तभृता धर्मानुरागरूपा । केषां सम्बन्धिनी ? समणाणं वा श्रमणानां वा पुणो घरत्याणं गृहस्थानां वा पुनरियमेव चर्या परेति परा सर्वोत्कृष्टेति लाएव परं लहदि सोक्खं तयैव शुभोपयोगचर्यया परम्परया मोक्षसुखं लभते गृहस्थ इति । तथाहितपोधनाः शेषतपोधनानां वैयावृत्यं कुर्बाणा सन्तः कायेन किमपि निरवद्यवैयावृत्यं कुर्वन्ति । वचनेन धर्मोपदेशं च । शेषभोषधानपानादिकं गृहस्थानामधीनं तेन कारणेन वैयावृत्यरूपो धर्मो गृहस्थानां मुख्यः तपोधनानां गौणः । द्वितीयं च कारणं निविकारचि चमत्कार भावनाप्रतिपक्षभूतेन विषयकषायनिमित्तोत्पन्नेनार्च रौद्रध्यानद्वयेन परिणतानां गृहस्थानामात्माश्रितनिश्चयधर्मस्यावकाशी नास्ति वैयावृत्यादिधर्मेण दुर्ध्यानवञ्चना भवति तपोधनसंसर्गेण निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गोपदेशलाभो भवति । ततश्च परम्परया निर्वाणं लभत इत्यभिप्रायः ।। २५४ || t एवं शुभोपयोगितपोधनानां शुभानुष्ठानकथन मुख्यतया गाथाष्टकेन द्वितीयस्थलं गतम् । इत ऊर्ध्व गाथाषट्कपर्यन्तं पात्र । पात्रपरीक्षामुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति । उत्थानिका- आगे कहते हैं कि इस व्यावृत्य आदि रूप शुभोपयोग की क्रियाओं को तपोधनों को गौणरूप से करना चाहिये, परन्तु श्रावकों को मुख्य रूप से करना चाहिये अन्वय सहित विशेषार्थ - ( समणाणं ) साधुओं को ( एसा ) यह प्रत्यक्ष ( पसत्यभूवा धरिया) धर्मानुराग रूप चर्या या क्रिया होती है । (वा पुणो घरव्याणं ) तथा गृहस्थों की यह क्रिया ( परेति भणिदा) उत्कृष्ट कही गई है ( ता एव) इसी ही चर्या से गृहस्थ ( परं सोक्खं ) परंपरा से उत्कृष्ट मोक्षसुख ( लहवि ) प्राप्त करता है। तपोधन दूसरे साधुओं को Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ । [ पवयणसारो वय्यावत्य करते हुए अपने शरीर के द्वारा जो कुछ भी ययावत्य करते हैं वह पापारम्भ व हिंसा से रहित होती है तथा वचनों के द्वारा धर्मोपदेश करते हैं। शेष औषधि, अन्नपान आदि को सेवा गृहस्थों के अधीन है, इसलिये वैयावृत्य गृहस्थों का मुख्य धर्म है, किन्तु साधुओं का गौण है। दूसरा कारण यह है कि विकार रहित चैतन्य के चमत्कार को भावना के विरोधी तथा इंद्रिय विषय और कषायों के निमित्त से पैदा होने वाले आतं और रौद्रध्यान में परिणमने वाले ग्रहस्थों को आत्माधीन निश्चयधर्म के पालने का अवकाश नहीं है। यदि वे गृहस्थ वैयावृत्यादि रूप शुभोपयोग धर्म से वर्तन करें तो खोटे ध्यान से बचते हैं तथा साधुओं की संगति से गृहस्थों को निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग के उपवेश का लाभ हो जाता है, इससे ही वे गृहस्थ परंपरा निर्वाण को प्राप्त करते हैं, ऐसा गाथा का अभिप्राय है ॥२५॥ इस तरह शुभोपयोगी साधुओं की शुभोगयोग-सम्बन्धी क्रिया के कथन की मुख्यता से आठ गाथाओं के द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ। इसके आगे आठ गाथाओं तक पात्र अपात्र की परीक्षा को मुख्यता से व्याख्यान करते हैंअथ शमोपयोगस्य कारणवपरीत्यात फलवपरीत्यं साधयति रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । णाणाभूमिगवाणिह बोजाणिव सस्सकालम्हि ॥२५५॥ रागः प्रशस्तभूतो बस्तुविशेषेण फलति विपरीतम् ।। नानाभूमिगतानीह बीजानीव सस्यकाले ॥२५५।। यथकेषामपि बीजानां भूमिवपरीत्याग्निष्पत्तिवपरीत्यं तथैकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रवपरीत्यात्फलबपरीत्यं कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभावित्वात् ॥२५॥ भूमिका- अब, यह सिद्ध करते हैं कि शुभोपयोग को कारण को विपरीतता से फल की विपरीतता होती है अन्वयार्थ- [इह नानाभूमिगतानि बीजानि इव] जैसे इस जगत् में अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हुये बीज [सस्यकाले] धान्य काल में विपरीत रूप से फलित होते हैं, उसी प्रकार [प्रशस्तभूतः रागः] प्रशस्तभूत राग [वस्तु विशेषेण] वस्तु-भेद से (पात्र भेद से) [विपरीतं फलति ] विपरीत रूप फलता है। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६०३ टीका - जैसे एक बीज होने पर भी भूमि की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है, अर्थात् अच्छो भूमि में उसी बीज का अच्छा अन्न उत्पन्न होता है और खराब भूमि में वही खराब हो जाता है या उत्पन्न हो नहीं होता उसी प्रकार प्रशस्तरागस्वरूप शुभोपयोग यह का वही होता है, फिर भी पात्र की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है, क्योंकि कारण के भेद से कार्य का भेद अवश्यम्भावी (अनिवार्य) है ।। २५५ ।। तात्पर्यवृत्ति अथ शुभपयोगस्य पात्रभूतवस्तुविशेषात्फलविशेषं दर्शयति फलदि फलति फलं ददाति । स कः ? रागो रागः । कथंभूतः ? पसत्थभूदो प्रशस्तभूतो दानपूजादिरूपः । किं फलति ? विवरीदं विपरीतमन्यादृशं भिन्नभिन्नफलम् । केन कारणभूतेन ? वत्थु मिसेसेण जघन्यमध्यमोत्कृष्ट भेदभिन्नपात्र भूत वस्तु विशेषणं । अत्रार्थे दृष्टान्तमाह णाणाभूमिगवाणिह atarfree seaकाल हि नानाभूमिगतानीह बीजानि इव सस्यकाले धान्यनिष्पत्तिकाल इति । अयमत्रार्थः- - यथा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभूमिविशेषेन तान्येव बीजानि भिन्नभिन्नफलं प्रयच्छन्ति तथा स एव वीस्थानीयशुभोपयोगो भूमिस्थानीयपात्रभूतवस्तुविशेषेण भिन्नभिन्नफलं ददाति । तेन किं सिद्धम् । यदा पूर्वसूत्रकथितन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति परंपरया निर्वाणं च । नो चेत्पुष्यबन्धमात्रमेव ।। २५५| उत्थानिका -- प्रथम ही यह दिखलाते हैं कि पात्र की विशेषता से शुभोपयोगी को फल की विशेषता होती है अन्वय सहित विशेषार्थ - ( पसत्थभूबो रागो) धर्मानुरागरूप दान पूजाविक (वथुविसेसेण ) पात्र की विशेषता से (विवरीदं) भिन्न भिन्न रूप फलता है (सहस कालम्हि ) जैसे धान्य की उत्पत्ति के काल में ( णाणाभूमिगदाणिह ) नाना प्रकार की पृथ्वियों में प्राप्त ( बीजाणिव ) बोज निश्चय से ( फलदि) विभिन्न रूप फलता है । जैसे ऋतुकाल में तरह तरह की भूमियों में बोए हुए बीज जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट भूमि के निमित्त से वही बीज भिन्न-भिन्न प्रकार के फलों को पैदा करता है, तैसे ही यह बीजरूप शुभोपयोग भूमि के समान जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट पात्रों के भेद से भिन्न भिन्न फल को देता है। इस कथन यह भी सिद्ध हुआ है कि यदि सम्यग्दर्शन पूर्वक शुभोपयोग होता है तो मुख्यता से पुण्यबन्ध होता है परन्तु परम्परा वह निर्वाण का कारण है। मात्र पुण्यबन्ध को ही नहीं करता है ।। २५५ || से अय कारणवैपरीत्यफल वैपरीत्ये दर्शयति छदुमत्थविदिवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरवो । ण लहवि अपुणन्भावं भावं सादप्पगं लहदि ॥ २५६ ॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ] [ पवयणसारो छद्मस्थविहितवस्तुषु व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः । न लभते अपुनर्भावं भाव सातात्मकं लभते । । २५६ ।। शुभोपयोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य पुण्योपचयपूर्वकोऽपुनर्भावोपलम्भ: किल फलं तत्तु कारणवैपरीत्याद्विपर्यय एव । तत्र छद्यस्थव्यवस्थापितवस्तूनि कारणपरीत्यं तेषु व्रतनियमाध्ययनध्यानवानरतत्वप्रणिहितस्य शुभोपयोगस्यापुनर्भावशून्य के बलपुण्यापसदप्राप्तिः फलवैपरीत्यं तत्सुदेवमनुजत्वम् ॥ २५६ ॥ ३ भूमिका – अब, कारण की विपरीतता और फल की विपरीतता बतलाते हैं - व्रत नियमप्राप्त नही अन्वयार्थ - [ छपस्थविहितवस्तुषु ] जो जीव छद्मस्थ विहित वस्तुओं में (छद्मस्थ अज्ञानी के द्वारा कथित देव - गुरु धर्मादि में ) [ व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः ] अध्ययन-ध्यान-दान में रत होता है वह [ अपुनर्भाव ] मोक्ष को [ न लभते ] होता ( किन्तु ) [ सातात्मकं भाव ] सातात्मक भावको [ लभते ] प्राप्त होता है । टीका - सर्वच कथित वस्तुओं में युक्त शुभोपयोग का फल पुण्यसंचयपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है। वह फल, कारण की विपरीतता होने से विपरीत ही होता है । यहां, छद्मस्थकथित वस्तुयें विपरीत कारण हैं, छद्मस्थ कथित उपदेश के अनुसार व्रत नियम अध्ययनध्यान दानरतरूप से युक्त शुभोपयोग का फल मोक्षशून्य केवल अधर्म पुण्य की प्राप्ति है, वह फल की विपरीतता है, वह फल सुदेव मनुष्यत्व है ।। २५६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ कारणवैपरीत्यात्फलमपि विपरीतं भवति तमेवार्थ दृश्यति ; I लहदि न लभते ? स कः कर्त्ता ? वदणिमज्झयणझाणदाणरदो व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः । षु विषयेषु ? यानि व्रतादीनि छदुमत्यविदिवत्थुसु छद्मस्थविहितवस्तुषु अल्पज्ञानिपुरुषव्यवस्थापितपात्रभूतवस्तुषु । इत्थंभूतः पुरुषः कं न लभते ? अपुषभावं अपुनर्भवशब्दवाच्यं मोक्षं । तहि किं लभते ? भावं सादप्पगं लहृदि भावं सातात्मकं लभते । भावशब्देन सुदेबमनुष्यत्वपर्मायो ग्राह्यः । स च कथंभूतः ? सातात्मकः सद्योदयरूप इति । तथाहि ये केचन निश्चयव्यवहारमोक्षमार्ग न जानन्ति पुण्यमेव मुक्तिकारणं भणन्ति ते छद्मस्थशब्देन गृह्यन्ते न च गणधरदेबादयः । तैः द्मस्थैरज्ञानिभिः शुद्धात्मोपदेशशून्यैर्ये दीक्षितास्तानि छद्मस्थविहितवस्तुनि भण्यन्ते । तत्पात्रसंसर्गेन यद्व्रतनियमाध्ययनदानादिकं करोति तदपि शुद्धात्मभावनानुकुलं न भवति ततः कारणान्मोक्षं न लभते सुदेवमनुष्यत्वं लभत इत्यर्थः ॥ २५६ ।। उत्थानिका— आगे इसी को दृढतापूर्वक कहते हैं कि कारण की विपरीतता से फल भी उल्टा होता है अन्वय सहित विशेषार्थ - ( छडुमत्थविदिवत्थसु) अल्प ज्ञानियों केद्वारा कल्पिल पात्र Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६०५ मूल वस्तु अर्थात् देव गुरु शास्त्र धर्मादि क्वाथों में (वणिमज्झमण दाणरदो) तथा व्रत, नियम, पठन-पाठन, ध्यान-दान में रत पुरुष ( अपुणमाचं ) अपुनर्भव अर्थात् मोक्ष को (ण लहदि ) नहीं प्राप्त कर सकता है, किन्तु ( सावप्यगं भावं) सातामयी अवस्था को अर्थात् सातावेदनीय के उदय से देव या मनुष्य पर्याय को (लहदि ) प्राप्त करता है । जो कोई निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग को नहीं जानते हैं, केवल पुण्यकर्म को ही मुक्ति का कारण कहते हैं उनको यहां छपस्थ या अल्पज्ञानी कहना चाहिये, न कि गणधरदेव आदि ऋषिगण । जो शुद्धात्मा के यथार्थ उपदेश को नहीं दे सकते इन अल्पज्ञानियों अर्थात् मिथ्याज्ञानियों के द्वारा दीक्षितों को छश्वस्थ विहित वस्तु कहते हैं। ऐसे अयथार्थ कल्पित पात्रों के सम्बन्ध से जो व्रत, नियम, पठन-पाठन, दान आदि कार्य, जो पुरुष करता है वह कार्य शुद्धात्मा के अनुकूल नहीं होता है इसीलिये मोक्ष का कारण नहीं होता है, उससे वह सुदेव या मनुष्यपना प्राप्त करता है ।। २५६।। अय कारणवैपरीत्यफलवैपरीत्ये एव व्याख्याति - अविविदपरमत्थे म विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु । जुट्ठ कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु ।। २५७ || अविदितपरमार्थेषु च विषयकषायाधिकेषु पुरुषेषु । जुष्टं कृतं वा दत्तं फलति कुदेवेषु मनुजेषु ॥ २५७ ॥ यानि हि छद्यस्थव्यवस्थापितवस्तुनि कारणवैपरीत्यं ते खलु शुद्धात्मपरिज्ञानशून्यतयानवाप्त शुद्धात्मवृत्तितया चाविदितपरमार्था विषयकषायाधिकाः पुरुषाः तेषु शुभोपयोगात्मकान जुष्टोपकृतवत्तानां या केवलपुण्यापसवप्राप्तिः फलपरीत्यं तत्कुदेवमनुजत्वम् ॥ २५७ ॥ भूमिका – अब, ( इस गाथा में भी) कारण विपरीतता और फल विपरीतता हो बतलाते हैं अन्वयार्थ – [ अविदितपरमार्थेषु ] जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है, [च] और [विषयकषायाधिकेषु ] जिनके विषय कपाय की प्रबलता है, [पुरुषेषु ] ऐसे पुरुषों के प्रति [ जुष्टं कृतं वा दत्तं | सेवा, उपकार या दान [ कुदेवेषु मनुजेषु ] कुदेवरूप में और कुमनुप्य रूप में [ फलति ] फलता है । टीका--- जो छद्मस्थ कथित वस्तुयें हैं वे विपरीत कारण हैं। वे छद्मस्थ वास्तव में (१) शुद्धात्मज्ञान से शून्यता के कारण 'परमार्थ को नहीं जानने वाले और ( २ ) शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त न करने से विषयकषाय की प्रबलता वाले पुरुष हैं उनके प्रति Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ ] [ पवयणसारो शुभयोगात्मक जीवों को सेवा, उपकार या दान करने वाले जीवों को जो केवल अधम पुण्य की प्राप्ति है सो वह फल विपरीतता है, वह (फल) कुदेव और कुमनुष्यत्य है ।। २५७॥ तात्पर्य वृत्ति अथ सम्यक्त्वव्रत रहित पात्रेषु भक्तानां कुदेवमनुजत्वं भवतीति प्रतिपादयति ; - फलदि फलति । केषु ? कुदेवेसु मणुवेसु कुत्सितदेवेषु मनुजेषु । किं कर्तृ ? जुट्ठं जुष्टं सेवा कृता कद व कृतं वा किमपि वैयावृत्यादिकं । दत्तं दत्तं किमप्याहारादिकम् । केषु ? पुरुसेसु पुरुषेषु पात्रेषु । कविशिष्टेषु ? अविविदपरमस्थेसु य अविदितपरमार्थेषु च परमात्मतत्त्वश्रद्धानज्ञानशून्येषु । पुनरपि किं रूपेषु ? विसयकसायाधिगेसु विषयकषायादिकेषु विषयकपायाधीनत्वेन निर्विषयशुद्धात्मस्वरूपभावनारहितेषु इत्यर्थः ।।२५७ ।। उत्थानिका—आगे फिर भी कहते हैं कि जो जीव सम्यग्दर्शन तथा व्रत रहित पात्रों के भक्त हैं वे नीच देव तथा मनुष्य होते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अविदितपरमरथेसु) जो परमार्थ अर्थात् सत्यार्थ पदार्थों को नहीं जानते व जिनको परमात्मा के तत्व का श्रद्धान ज्ञान नहीं है (य विषयकसायाधिनेस) तथा जिनके भीतर पंचेंद्रियों के विषयों की तथा मान लोभ आदि कषायों की बड़ी प्रबलता है ऐसे ( पुरिसेस) पात्रों में (जुट्ठ) की हुई सेवा (कद ) किया हुआ वैयावृत्यादिक ( व दत्तं ) या बिया हुआ आहार औषधि आदि दान (फुवेथेसु) नीच देवों में (मणुजेसु) और मनुष्यों में ( फलदि) फलता है। जिन पात्रों या साधुओं के परमात्मतत्त्व का ज्ञान श्रद्धान नहीं है, जो विषय कषायों के अधीन होने के कारण निर्विकार शुद्धात्मा के स्वरूप की भावना से रहित हैं उनकी भक्ति के फल से नीच देव तथा मनुष्य हो सकता है ।। २५७॥ अथ कारणवैपरीत्यात् फलमविपरीतं न सिध्यतीति श्रद्धापयतिजदि ते बिसयकसाया पाव त्ति परूविदा व सत्थेसु । किह ते तपsिबद्धा पुरिसा णित्यारगा होंति ॥ २५८ ॥ यदि ते विषयक पायाः पापमिति प्ररूपिता वा शास्त्रेषु । कथं ते तत्प्रतिबद्धाः पुरुषा निस्तारका भवन्ति ॥ २५६ ॥ विषय कषायास्तावत्पापमेव तद्वन्तः पुरुषा अपि पापमेव तदनुरक्ता अपि पापानुरक्तत्वात् पापमेव भवन्ति । ततो विषयकषायवन्तः स्वानुरक्तानां पुण्यायापि न कल्प्यन्ते कथं पुनः संसारनिस्तारणाय । ततो न तेभ्यः फलमविपरीतं सिध्येत् ॥ २५८ ॥ । भूमिका – अब, यह श्रद्धा करवाते हैं कि कारण की विपरीतता से अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता- - Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 [ ६०७ अन्वयार्थ - [ यदि वा ] यदि [ते विषयकषायाः ] वे विषयकषाय [पापम् ] पाप हैं, [ इति ] इस प्रकार [शास्त्रेष ] शास्त्रों में [ प्ररूपिताः ] प्ररूपित किया गया है, तो [ तत्प्रतिवद्धोः ] उन विषय कषायों में लीन [ ते पुरुषाः ] वे पुरुष [ निस्तारकाः ] पार लगाने वाले [ कथं भवन्ति ] कैसे हो सकते हैं ? टीका- - प्रथम तो विषय कषाय पाप हो हैं, विषयकषायवान् पुरुष भी पाप ही हैं, इसलिए विषय कषायवान् पुरुषों के प्रति अनुरक्त जीव भी पाप में अनुरक्त होने से पाप हो हैं, विषय कषायवान् पुरुष अपने भक्त पुरुषों को पुण्य का कारण भी नहीं होते, तब फिर वे संसार से पार उतारने के कारण तो कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते, इसलिये उनसे अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता । तात्पर्य वृत्ति अथ तमेवार्थ प्रकारान्तरेण दृढयति जबि ते विसयकसाया पावत्ति परुविदा य सत्थेस यदि च ते विषयकषायाः पापमिति प्ररूपिताः शास्त्रेषु हि ते तपडिबद्धा पुरिसा णिश्थारगा होंति कथं ते तत्प्रतिबद्धा विषयकषायप्रतिबद्धाः पुरुषा निस्तारकाः संसारोत्तारका दातृणां ? न कथमपीति । एतदुक्त भवति - विषयकषायास्तावत्पापस्वरूपास्तद्वन्तः पुरुषा अपि पापा एव ते च स्वकीयभक्तानां दातृणां पुण्यविनाशका एवेति ॥ २५८ ॥ उत्थानिका --- आगे इस ही अर्थ को दूसरे प्रकार से दृढ़ करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जदि ) यदि ( ते विसयकसाया ) वे इन्द्रियों के विषय क्रोध कषाय आदि (सत्थे तु ) शास्त्रों में ( पावत्ति ) पापों का उपदेश देने वाले (परुविया) कहे गये हैं (तपडिबद्धा) उन विषय कषायों में सम्बन्ध रखने वाले (ते पुरिसा) वे अल्प ज्ञानी पुरुष ( णित्थारगा) अपने भक्तों को संसार से तारने वाले ( किह होंति) कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । विषय और कषाय पाप रूप हैं इसलिये उनके धारणे वाले पुरुष भो पाप रूप ही हैं। तब वे अपने भक्तों के व दातारों के वास्तव में पुण्य के नाश करने वाले हैं ॥२५८॥ अथाविपरीत फलकारणं कारणमविपरीतं दर्शयति- उवरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिसु सव्वेसु । गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्स ॥ २५६ ॥ उपरतपापः पुरुषः समभावो धार्मिकेषु सर्वेषु । गुणसमितितोपत्री भवति स भागी सुमार्गस्य ॥ २४३॥ उपरतपापत्येन सर्वधमिमध्यस्थत्वेन गुणग्रामोपसेवित्वेन च सम्यग्दर्शनज्ञानचारि Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ ] [ एवयणसारो यौगपद्यपरिणतिनिवृतैकाग्र्चात्मकसुमार्गभागी स श्रमणः स्वयं परस्य मोक्षपुण्यायतनत्वादविपरीत फलकारणं कारणमविपरीतं प्रत्येयम् ।। २५६ ।। भूमिका - अब, अधिपरीत फल का कारण ऐसा जो 'अविपरीत कारण' उसको बतलाते हैं अभ्ययार्थ - [ उपरतदापः ] जिसके पाप रुक गया है, [सर्वेषु धार्मिकेषु समभावः ] जो सभी मिकों के प्रति समभावान है, और [गुरासितपथी ] जो गुणसमुदाय का सेवन करने वाला है, [ स: पुरुष: ] वह पुरुष [ सुमार्गस्य ] सुमार्ग का [ भागी भवति ] भागी होता है अर्थात् सुमार्गवान है । टीका- - पाप के रुक जाने से, सर्व धर्मियों के प्रति स्वयं मध्यस्थ होने से और गुणसमूह का सेवन करने से जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की युगपत् परिणति से रचित एकाग्रता स्वरूप सुमार्ग का पात्र है, वह श्रमण निज को और पर को मोक्ष का और पुण्य का आयतन है इसलिये वह (श्रमण ) अविपरीत फल का कारण ऐसा अविपरीत कारण है, ऐसी प्रतीति करनी चाहिये ॥२५६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पात्रभूततपोधनलक्षणं कथयति 'जवरवावी उपरतपापत्वेन सब्बेसुधम्मिगेसुगुणसभिदिदोवसेबी सर्वधार्मिक समदशित्वेन गुणग्रामसेवकत्वेन च समभावी पुरिसो स्वस्थ मोक्षकारणत्वात्परेषां पुण्यकारणत्वाच्चेत्थंभूतगुणयुक्तः पुरुषः सुमग्गस भागी सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रैकाग्र घलक्षणनिश्चय मोक्षमार्गस्य भाजनं हवदि भवतोति ॥ २५६ ॥ उत्थानिका— आगे उत्तम पात्ररूप तपोधन का लक्षण कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( स पुरिसो) वह पुरुष ( सुमग्गस्स भागी ) मोक्षमार्ग का पात्र (हवदि) होता है जो ( उपरदपावो) सर्व विषय कषाय रूप पापों से रहित है, ( सन्त्रेसु धम्मसु समभावो) धर्मात्माओं में समान भाव का धारी है तथा ( गुणसमिदिदोवसेवी) गुणों के समूहों को रखने वाला है । जो पुरुष सयं पापों से रहित है, सर्व धर्मात्माओं में समान दृष्टि रखने वाला है तथा गुण समुदाय का सेवने वाला है और आप स्वयं मोक्षमार्गी होकर दूसरों के लिये पुण्य की प्राप्ति का कारण है, ऐसा ही महात्मा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की एकता रूप निश्चयमोक्षमार्ग का पात्र होता है ।। २५६ ।। अथाविपरीत फलकारणं कारणमविपरीतं व्याख्याति - असुभोवयोग रहिदा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा । णित्यारयति लोग तेसु पसत्थं लहदि भत्तो ॥ २६०॥ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६०६ अशुभोपयोगरहिताः शुद्धोपयुक्ता: शुभोपयुक्ता वा । निस्तारपन्ति लोकं नेष प्रगलं लभते भक्त '१६०॥ यथोक्तलक्षणा एवं श्रमणा मोहद्वेषाप्रशस्त रागोच्छेदादशमोपयोगवियुक्ताः सन्तः सकलकषायोदयविच्छेदात् कदाचित् शुद्धोपयुक्ताः प्रशस्तरागविपाकात्कदाचिन्छुभोपयुक्ताः स्वयं मोक्षायतनत्वेन लोकं निस्तारयन्ति तद्भक्तिभावप्रवृत्तप्रशस्तमावा भवन्ति परे च पुण्यभाजः ॥२६॥ भूमिका-अब, अविपरीत फल का कारण, ऐसा जो 'अविपरीत कारण' है उसे विशेष समझाते हैं __अन्वयार्थ- [अशुभोपयोगरहिताः ] जो अशुभोपयोगरहित वर्तते हुये [शुद्धोपयुक्ताः] शुद्धोपयुक्त [वा] अथवा [शुभोपयुक्ताः] शुभोपयुक्त होते हैं, वे (श्रमण) [लोकं निस्तारयन्ति] लोगों को तार देते हैं, (और) [तेषु भक्तः] उनके प्रति भक्तिवान् जीव [प्रशस्तं] प्रशस्त (पुण्य) को [लभते] प्राप्त करता है । टीका-यथोक्त लक्षण वाले श्रमण हो-जो कि मोह, द्वेष और अप्रशस्त राग के उच्छेद से अशुभोपयोगरहित वर्तते हुये; समस्त कषायोदय के विच्छेद से कदाचित् शुद्धोपयुक्त (शुद्धोपयोग में युक्त) और प्रशस्त राग के विपाक से कदाचित् शुभोपयुक्त होते हैं वेस्वयं मोक्षायतन होने से लोक को तार देते हैं, और उनके प्रति भक्ति भाव से जिनके प्रशस्त भाव प्रवर्तता है ऐसे पर जीव पुण्य के भागी होते हैं ॥२६०॥ तात्पर्यवृत्ति अथ तेषामेव पात्रभूततपोधनानां प्रकारान्तरेण लक्षणमुपलक्षयति-- सुद्ध वजुता सुहोवजुत्ता या शुद्धोपयोगशुभोपयोगपरिणतपुरुषाः पात्रं भवन्तीति । तद्यथानिर्विकल्पसमाधिबलेन असुभोवयोगरहिवा शुभाशुभोपयोगद्वयरहितकाले कदाचिद्वीतरागचारित्रलक्षणशुद्धोपयोगयुक्ताः कदाचित्पुनर्मोहद्वेषाशुभरागरहितकाले सरागचारित्रलक्षणशुभोपयोगयुक्ताः सन्तो लोग भव्यलोक णित्थारयंति निस्तारयन्ति तेसु भत्तो तेषु च भव्यो भक्तो भन्यवरपुण्डरीकः पसत्यं प्रशस्तफलभूतं स्वर्ग लहदि लभते परंपरया मोक्षं चेति भावार्थः ।।२६०॥ एवं पात्रापात्रपरीक्षाकथनमुख्यतया गाथापञ्चकेन तृतीयस्थलं गतम् । इत ऊर्ध्व आचारकथितक्रमेण पूर्व कथितमपि पुनरपि दृढ़ीकरणार्थ पिशेषेण तपोधनसमाचारं कथयति। उत्थानिका-आगे और भी उत्तम पात्र तपोधनों का लक्षण अन्य प्रकार से कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(अशुभोषयोगरहिदा) जो अशुभ उपयोग से रहित हैं, (सुद्ध वजुत्ता) शुद्धोपयोग में लीन हैं (वा सुहोबजुत्ता) या कभी शुभोपयोग में वर्तते हैं ये Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० ] [ पवयणसारो (लोगं गत्थारयंति) जगत् को तारने वाले हैं (तेसु भत्तो) उनमें भक्ति करने वाला (पसत्थं) उत्तम पुण्य को (लहदि) प्राप्त करता है। जो मुनि शुद्धोपयोग और शभोपयोग के धारी हैं, वे ही उत्तम पात्र हैं। निर्विकल्पसमाधि के बल से जब शुभ और अशुभ दोनों उपयोगों से रहित हो जाते हैं तब वीतरागचारित्ररूप शुद्धोपयोग के धारी होते हैं । कदाचित् मोह, द्वेष व अशुभ राग से शून्य रहकर सरागचारित्रमय शुभोपयोग में वर्तन करते हुए भव्य लोगों को तारते हैं। ऐसे उत्तम पात्र साधुओं में जो भव्य भक्तिमान है वह भव्यों में मुख्य जीव उत्तम पुण्य बांधकर स्वर्ग पाता है तथा परम्पराय मोक्ष का लाभ करता है ॥२६॥ इस तरह पात्र-अपात्र को परीक्षा को कहने की मुख्यता से पांच गाथाओं के द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ इसके आगे आचार के कथन के ही क्रम से पहले कहे हुए कथन को और भी दृढ़ करने के लिये विशेष करके साधु का व्यवहार कहते हैं। अथाविपरीतफलकारणाविपरीतकारणसमुपासनप्रवृत्ति सामान्यविशेषतो विधेयतया सूत्रद्वैतेनोपदर्शयति विद्या पगदं वत्थु अन्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहि । वट्टदु तदो गुणादो विसेसिदब्यो ति उवदेसो ॥२६१॥ दृष्ट्वा प्रकृतं वस्त्वभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः । बर्ततां ततो गुणाद्विशेपितव्य इति उपदेशः ।।२६१।। श्रमणानामात्मविशुद्धिहेतौ प्रकृते वस्तुनि तदनुकूल क्रियाप्रवृत्या गुणातिशयाधानमप्रतिषिद्धम् ॥२६१॥ भूमिका-अब, अविपरीत फल का कारण जो ‘अविपरीत कारण' उसको उपासना रूप प्रवृत्ति सामान्यतया और विशेषतया करने योग्य है, यह दो सूत्रों द्वारा बतलाते हैं अन्वयार्थ-[प्रकृतं वस्तु] यथाजात मुनि को [दृष्ट्वा ] देखकर (प्रथम तो) [अभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः] सम्मानार्थ खड़े होना आदि क्रियाओं को [वर्तताम्] करो [ततः] फिर उन क्रियाओं में [गुणात्] गुणानुसार [विशेवितव्यः] विशेषता करनी चाहिये [इति उपदेशः] ऐसा उपदेश है। टीका-श्रमणों के आत्मविशुद्धि की हेतुभूत यथाात श्रमण के प्रति उनके योग्य क्रिया रूप प्रवृत्ति से गुणातिशयता के आधान करने का निषेध नहीं है ॥२६॥ तात्पर्यवत्ति अथाभ्यागततपोधनस्य दिनत्रयपर्यन्तं सामान्यप्रतिपत्ति तदनन्तरं विशेषप्रतिपत्ति दर्शयति; वट्ट वर्तताम् । स कः ? अम्रत्य आचार्यः । कि कृत्वा ? विट्ठा दृष्ट्वा । किं ? वत्यु तपोधनभूत पात्रं वस्तु । कि बिशिष्टम् ? पगवं प्रकृतं अभ्यन्तरनिरुपरागशुद्धात्मभावनाज्ञापकावहि Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । रङ्गनिर्ग्रन्थनिविकाररूपम् । काभिः कृत्वा वर्तताम् ? अन्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहि अभ्यागतयोग्याचारविहिताभिरभ्युत्थानादिक्रियाभिः तदो गुणावो ततो दिनत्रयानन्तरं गुणाद्गुणविशेषात् विसेसिदब्दो त्ति तेन आचार्येण स तपोधनो रत्नत्रयभावनावृद्धिकारणक्रियाभिविशेषितव्यः ? ति उपदेसो इत्युपदेशः सर्वज्ञगणधरदेवादीनामिति ॥२६१॥ उत्थानिका--आगे दर्शाते हैं कि जो कोई साधु संघ में आवें उनका तीन दिन तक सामान्य सम्मान करना चाहिये । फिर विशेष करना चाहिये अन्वय सहित विशेषार्थ-(पगदं वत्थु) यथार्थ पात्र को (विट्ठा) देखकर (अब्भुठाणप्पधाणकिरियाहि) उठ कर खड़ा होना आदि क्रियाओं से (ब) वर्तन करना योग्य है, (तवो) पश्चात् (गुणदो) रत्नत्रयमय गुणों के कारण से (विसेसिबब्बो) उसके साथ विशेष वर्ताव करना चाहिये (त्ति उवदेसो) ऐसा उपदेश है। आचार्य महाराज किसी ऐसे साधु को-जो भीतर बोतराग शुद्धात्मा की भावना का प्रगट करने वाला बाहरी निम्रन्थ के निविकार रूप का धारी है-आते देखकर उस अभ्यागत के योग्य आचार के अनुकूल उठ खड़ा होना आदि क्रियाओं से उसके साथ वर्तन करें। फिर तीन दिनों के पीछे उसमें गुणों की विशेषता के कारण से उसके साथ रत्नत्रय की भावना की वृद्धि करने वाली क्रियाओं के द्वारा विशेष वर्ताव करें। ऐसा सर्वज्ञ भगवान व गणधरदेवादि का उपदेश है ॥२६१॥ विशेष कथयति अब्भुट्ठाणं गहणं उवासणं पोसणं च सक्कारं। अंजलिकरणं पणमं भणिदमिह गुणाधिगाणं हि ॥२६२॥ अभ्युत्थानं ग्रहणमुपासनं पोषणं च सत्कारः।। अञ्जलिकरणं प्रणामो भणितमिह गुणाधिकानां हि ॥२६२॥ श्रमणानां स्वतोऽधिकगुणानामभ्युत्थानग्रहणोपासनपोषणसत्काराञ्जलिकरणप्रणामप्रवृत्तयो न प्रतिषिद्धाः ॥२६२॥ भूमिका-विशेष कथन करते हैं-- अन्वयार्थ-[गुणाधिकानां हि] गुण में अधिक (श्रमणों) के प्रति [अभ्युत्यानं सम्मानार्थ खड़े होना, [ग्रहणं] आदर से स्वीकार [उपासनं] सेवा [पोषणं] पोषण उनके अशन, शयनादि की चिन्ता [सत्कार:] गुणों की प्रशंसा [अञ्जलिकरणं] विनयपूर्वक हाथ जोड़ना | च] और [प्रणामः] प्रणाम करना [इह] यहां [भणितम्] कहा है। टीका-श्रमणों को अपने से अधिक गुणी मुनि प्रति अभ्युत्थान, ग्रहण, उपासन, पोषण, सत्कार, अंजलिकरण और प्रमाणरूप प्रवृतियां निषिद्ध नहीं हैं ॥२६२॥ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ तात्पर्य वृत्ति अथ तमेव विशेषं कथयति ; भणिदं भणितं कथितं इह अस्मिन्प्रन्थे । केषां सम्बन्धी ? गुणाधिगाणं हि गुणाधिकतपोधनानां हि स्फुटम् । किं भणितम् ? अवभुट्ठाणं गृहणं उबसणं पोसणं च सरकारं अंजलिकरणं पणमं अभ्युत्थानग्रहणोपासनपोषणसत्काराञ्जलिकरणप्रणामादिकम् । अभिमुखगमनमभ्युत्थानम्, ग्रहणं स्वीकारः, उपासनं शुद्धात्मभावना सहकारिकारणनिमित्तं सेवा, तदर्थमेवाशन शयनादिचिन्ता पोषणम्, भेदाभेदरत्नत्रयगुणप्रकाशनं सत्कारः, बद्धाञ्जलिनमस्कारोऽञ्जलिकरणम्, नमस्त्विति वचनव्यापारः प्रणाम इति ॥ २६२ ॥ उत्थानिका—आगे उस क्रिया को ही विशेष रूप से प्रगट करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( इह ) इस ग्रंथ में (हि) निश्चय करके ( गुणाधिगाणं) अपने से अधिक गुण छालों के लिये ( अब्भुट्ठाणं ) उनको आते देखकर उठ खड़ा होना ( ग्रहणं ) उनको आदर से स्वीकार करना (जवासणं) उनकी सेवा करना ( पोसणं) उनकी रक्षा करना (सक्कार ) उनका आदर करना ( च अंजलिकरणं पणमं) तथा हाथ जोड़ना और नमस्कार करना ( मणिदं ) कहा गया है। खड़े होकर सामने जाना सो अभ्युत्थान है, उनको सत्कार के साथ स्वीकार करना बैठा कर आसन देना सो ग्रहण है, उनके शुद्धात्मा की भावना में सहकारी कारणों के निमित्त उनकी वैयावृत्य करना सो सेवा है, उनके भोजन, शयन आदि की चिन्ता रखनी सो पोषण है, उनके व्यवहार और निश्चयरत्नत्रय के गुणों की महिमा करनी सो सत्कार है, हाथ जोड़कर नमस्कार करना सो अंजलिकरण है, नमोस्तु ऐसा वचन कहकर दंडवत् करना सो प्रणाम है। गुणों से अधिक तपोधनों को इस तरह विनय करना योग्य है ॥२६२॥ | अथ श्रमणामासेषु सर्वाः प्रवृत्तीः प्रतिषेधयति - अन्भुट्ठेया समणा सुत्तत्थविसारदा उवासेया । संजमतवणाणड्ढा पणिवदणीया हि समणेह ॥ २६३ ॥ पवयणसारो अत्याः श्रमणाः सूत्रार्थविशारदा उपासेधाः । संयमतपोज्ञानादयाः प्रणिपतनीया हि श्रमणैः || २६३ ।। सूत्रार्थवैशारद्यप्रवर्तितसंयमतपः स्वतत्त्वज्ञानानामेव श्रमणानामभ्युत्थानाविकाः प्रवृतयोऽप्रतिषिद्धा इतरेषां तु श्रमणामासानां ताः प्रतिषिद्धा एव ॥ २६३ ॥ भूमिका - अब, श्रमणा मासों के प्रति समस्त प्रवृत्तियों का निषेध करते हैंअन्वयार्थ -- [ श्रमणैः हि ] श्रमणों के द्वारा [ सूत्रार्थविशारदाः ] सूत्रों के और सूत्र - कथित पदार्थों के ज्ञान में निपुण तथा [ संयमतपोज्ञाना हयाः ] संयम, तप और ज्ञान में Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । समृद्ध [श्रमणाः] श्रमण [अभ्युत्थेयाः उपासेयाः प्रणिपतनीयाः] अभ्युत्थान, उपासना और प्रणाम करने योग्य हैं । टीका-जिनके सूत्रों में और पदार्थों में निगला गापा संप, सदा और स्वतत्व का ज्ञान प्रवर्तता है उन श्रमणों के प्रति ही अभ्युत्थानाविक प्रवृत्तियां अनिषिद्ध है, परन्तु उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासों के प्रति उन प्रवृत्तियों का निषेध ही है ॥२६॥ तात्पर्यबृत्ति अथाभ्यागतानां तदेवाभ्युत्थानादिकं प्रकारान्तरेण निदिशति: अग्भुठेया यद्यपि चारित्रगुणेनाधिका न भवन्ति तपसा वा तथापि सम्यग्ज्ञानगुणेन ज्येष्ठत्वात्श्रुतविनयार्थमभ्युत्थेयाः अभ्युत्थेया अभ्युत्थानयोग्या भवन्ति। के ते? समणा निर्ग्रन्थाचार्याः । किं विशिष्टा; ? सुतस्थविसारदा विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मतत्त्वप्रभूत्यनेकान्तात्मकपदार्थेषु वीतरागसर्वज्ञप्रणीतमार्गेण प्रमाणनयनिक्षेपैविचारचतुरचेतसः सुत्रार्थविशारदाः । न केवलमभ्युत्थेयाः उवासेया परमचिज्ज्योतिःपरमात्मपदार्थपरिज्ञानार्थमुपासेयाः परमभक्त्या सेवनीयाः । संजमतवणाणड्ढा पणिवदणीया हि संयमतपोज्ञानाढ्याः प्रणिपतनीयाः हि स्फुटम् बहिरङ्गन्द्रियसंयमप्राणसंयमबलेनाभ्यन्तरे स्वशुद्धात्मनि यत्नपरस्त्वं संयमः । बहिरङ्गानशनादितपोबलेनाभ्यन्तरे परद्रव्येच्छानिरोधेन च स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः । बहिरङ्गपरमागमाभ्यासेनाभ्यन्तरे स्वसंवेदनज्ञानं सम्यग्ज्ञानम। एवमुक्तलक्षणः संयमतपोज्ञानराठ्याः परिपूर्णा यथासम्भवं प्रतिवन्दनीयाः । कः ? समणेहि श्रमणरिति । अरेदं तात्पर्यम्-ये बहुश्रुता अपि चारित्राधिका न भवन्ति तेऽपि परमागमाभ्यासनिमित्तं यथायोग्य वन्दनीयाः। द्वितीयं च कारणं-ते सम्यक्त्वे ज्ञाने च पूर्वमेव दृढतरा: अस्य तु नवतरतपोधनस्य सम्यक्त्वे ज्ञाने चापि दाढयं नास्ति तहि स्तोकचारित्राणां किमर्थमाममे वन्दनादिनिषेधः कृत इति चेन् ? अतिप्रसङ्गनिषेधार्थमिति ।।२६३।। उत्थानिका—आगे अभ्यागत साधुओं को विनय को दूसरे प्रकार से बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ (समणेहि) साधुओं के द्वारा (हि) निश्चय करके (सुत्तत्थविसारदा) शास्त्रों के अर्थ में निपुण तथा (संजमतवणाणड्डा) संयम, तप और ज्ञान से पूर्ण (समणा) साधुगण (अब्भुट्ठया) खड़े होकर आवर करने योग्य हैं, (उपासेया) उपासना करने योग्य हैं तथा (पणिवंवणीया) नमस्कार करने योग्य हैं। जो निग्रंथ आचार्य, उपाध्याय या साधु विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावमय परमात्मतत्व को आदि लेकर अनेक धर्ममय पदार्थों के जानने में वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कथित मार्ग के अनुसार प्रमाण, नय, निक्षेपों के द्वारा विचार करने के लिये चतुर बुद्धि के धारक हैं तथा बाहर में इन्द्रियसंयम व प्राणिसंयम को पालते हुए भीतर में इनके बल से अपने शुद्धात्मा के ध्यान में यत्नशील हैं ऐसे संयमी हैं तथा बाहर में अनशनादि तप को पालते हुए भीतर में इनके बल से परद्रव्यों की इच्छा को रोककर अपने आत्मस्वरूप में तपते हैं ऐसे तपस्वी हैं, तथा बाहर में पर Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ ] [ पवयणसारो मागम का अभ्यास करते हुए भीतर में स्वसंवेदन जान से पूर्ण हैं ऐसे साधुओं को दूसरे साधु आते देख उठ खड़े होते हैं, परम चैतन्य ज्योतिमय परमात्म पदार्थ के ज्ञान के लिये उनको परम भक्ति से सेवा करते हैं तथा उनको नमस्कार करते हैं। यदि कोई चारित्र व तप में अपने से अधिक न हो तो भी सम्यग्ज्ञान में बड़ा समझकर श्रत को विनय के लिये उनका आदर करते हैं। यहां यह तात्पर्य है कि जो बहुत शास्त्रों के ज्ञाता हैं, परन्तु चारित्र में अधिक नहीं हैं तो भी परमागम के अभ्यास के लिये उनको यथायोग्य नमस्कार करना योग्य है । दूसरा कारण यह है कि वे सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान में पहले से ही दृढ़ हैं। जिसके सम्यक्त्व व ज्ञान में दृढ़ता नहीं है वह साधु वंदना योग्य नहीं है। आगम में जो अल्प चारित्र वालों को वन्दना आदि का निषेध किया है, वह इसीलिये की मर्यादा का उल्लंघन न हो ॥२६३।। अथ कीदृशः श्रमणाभासो भवतीत्याख्याति ण हवदि समणो त्ति' मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि । जदि सद्दावि ग अत्थे आदापधाणे जिणक्खादे ॥२६४॥ न भवति श्रमण इति मतः संयमतपःसूत्रसंप्रयुक्तोऽपि । यदि श्रद्धत्ते नार्थानात्मप्रधानान् जिनाख्यातान् ॥२६४|| आगमज्ञोऽपि संयतोऽपि तपःस्थोऽपि जिनोक्तिमनन्तार्थनिर्भरं विश्व स्वेनात्मना ज्ञेयत्वेन निष्पीतत्वादात्मप्रधानमश्रद्दधानः श्रमणाभासो भवति ॥२६४॥ भूमिका—अब, श्रमणाभास कैसा (जीव) होता है सो कहते हैं अन्वयार्थ---[संयमतप:सूत्रसंप्रयुक्तः अपि] सूत्र, संयम और तप से संयुक्त होने पर भी [यदि] यदि (वह जीव) [जिनाख्यातान्] जिनोक्त [आत्मप्रधानान] आत्मप्रधान [अर्थान] पदार्थों का न श्रद्धत्ते] श्रद्धान नहीं करता तो वह [श्रमणः न भवति | श्रमण नहीं है, [इति मतः] ऐसा [आगम में ] कहा है। टीका-आगम का ज्ञाता होने पर भी संयत होने पर मो तप में स्थित होने पर भी, जिनोक्त अनन्त पदार्थों से भरे हुये विश्व को अपने आत्मा द्वारा ज्ञेयरूप से जानता है इस कारण उस विश्व में आत्म प्रधान है, जो जीव उसका श्रद्धान नहीं करता है वह श्रमणाभास है ॥२६॥ १. इदि (ज००)। Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । तात्पर्यवृत्ति अथ श्रमणाभासः कीदृशो भवतीति पृष्ट प्रत्युत्तरं ददाति;-- ण हदि समणो स श्रमणो न भवति इदि मदो इति मत: सम्मत: । क्व ? आगमे । कथंभूतोऽपि? संजमतवसुत्तसंप्पजुत्तोवि संयमतपः श्रुतः संप्रयुक्तोऽपि सहितोऽपि । यदि किम् ? अदि सद्दहवि ण यदि चेन्मुडवयादिपञ्चविंशतिसम्यक्त्वमलरहितः सन् न श्रद्धत्ते न रोचते न मन्यते । कान् ? अत्ये पदार्थान् । कथं भूतान् ? आदपधाणे निर्दोषिपरमात्मप्रभृतीन् । पुनरपि कथं भूतान् ? जिणक्खादे वीतरागसर्वज्ञेनाख्यातान् दिव्यध्वनिना प्रणीतान् गणधरदेवप्रेन्यविरचितानित्यर्थः ।। २६४॥ उत्थानिका—आ अभणाभास कैसा होता है इस न के उत्तर में आचार्य कहते हैं __ अन्वय सहित विशेषार्थ—(संजमतवसुत्तसंप्पजुसोवि) संयम, तप तथा शास्त्रज्ञान सहित होने पर भी (जदि) जो कोई (जिणक्लादे) जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए (आदपधाणे अत्थे) आत्मा को मुख्य करके पदार्थों को (ण सहदि) नहीं श्रद्धान करता है (समणोत्ति ण हववि मनो) यह साधु नहीं हो सकता है, ऐसा माना गया है। यदि साधु, संयम भी पालता हो, तप भी करता हो, शास्त्रज्ञान सहित भी हो परन्तु तीन मूढ़ता आदि सम्यक्त्व के पश्चीस दोषों से रहित होकर वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्रकाशित तथा दिव्य-ध्वनि अनुसार गणधर द्वारा ग्रंथों में गुम्फित निर्दोष परमात्मा आदि पदार्थ-समूह का श्रद्धान नहीं करता, रुचि नहीं रखता, मान्यता नहीं देता, वह श्रमण नहीं है अर्थात् मिथ्यादृष्टि है ॥२६४॥ अथ श्रामण्येन सममननुमन्यमानस्य विनाशं दर्शयति अववददि सासणत्यं समणं विट्ठा पदोसदो जो हि । किरियासु गाणुमण्णदि हदि हि सो गठ्ठचारित्तो ॥२६॥ अपवदति शासनस्थं श्रमणं दृष्ट्वा प्रद्वेषतो यो हि। क्रियासु नानुमन्यते भवति हि स नष्टचारित्रः ।।२६५।। श्रमणं शासनस्यमपि प्रद्वेषावपवक्तः क्रियास्वननुमन्यमानस्य च प्रदेषकषायितस्वाच्चारित्रं नश्यति ॥२६॥ भूमिका-मब, जो श्रामण्य से समान हैं उनका अनुमोदन (आदर) न करने वाले का विनाश बतलाते है अन्वयार्थ—-[यः हि] जो [शासनस्थं श्रमणं] शासनस्थ (जिनदेव के शासन में स्थित) श्रमण को [दृष्ट्वा ] देखकर [प्रद्वेषतः] द्वेष से [अपवदति] उसका अपवाद करता है, और [क्रियासु न अनुमन्यते] (सत्कारादि) क्रियाओं के करने में अनुमत (प्रसन्न) नहीं है [सः नष्टचारित्रः हिं भवति ] उसका चारित्र नष्ट हो जाता है। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो टीका-जो श्रमण द्वेष के कारण शासनस्थ श्रमण का भी अपवाद करता है और उसके प्रति सम्मानादि क्रियाओं में प्रसन्न नहीं है, वह श्रमण द्वेष कषाय सहित होता है, जिससे उसका चारित्र नष्ट हो जाता है ।।२६५।। तात्पर्यवृत्ति अथ मार्गस्थश्रमणदूषणे दोष दर्शयति ; अयवददि अपवदति दूषयत्यपवाद करीत। सः कः? जो मजा हि .उन् । कम् ? समणं श्रमणं तपोधनम् । कथंभूतम् ? सासणत्थं शासनस्थं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गस्थम् । कस्मात् ? पदोसदो निर्दोषिपरमात्मभावनाविलक्षणात् प्रद्वेषात्कषायात् । किं कृत्वा पूर्व ? दिला दृष्ट्वा अपबदते । न केवल अपवदते ? णाणुमण्णवि नानुमन्यते । कासु विषयासु ? किरियासु यथायोग्य बन्दनादिक्रियासु हदि हि सो भवति हि स्फुटं सः। कि विशिष्टः ? गठ्ठचारित्तो कथंचिदतिप्रसङ्गामष्ट चारित्रो भवतीति । तथाहि मार्गस्थतपोधनं दृष्ट्वा पदि कथंचिन्मात्सर्यवशाद्दोषग्रहणं करोति तदा चारितभ्रष्टो भवति स्फुटं पश्चादात्मनिन्दां कृत्वा वर्तते तदा दोषो नास्ति कालान्तरे वा निवत्तंते तथापि दोषो नास्ति यदि पुनस्तत्रंबानुबन्धं कृत्वा तीव्रकषायवशादतिप्रसङ्ग करोति तदा चारित्रभ्रण्टो भवतीत्ययं भावार्थः । बहुश्रुतैरल्पश्रुततपोधनानां दोषो न ग्राह्यस्तैरपि तपोधनैः किमपि पाठमात्रं गृहीत्वा तेषां दोषो न ग्राह्यः किन्तु किमपि सारपदं गृहीत्वा स्वयं भावनैव कर्तव्या । कस्मादिति चेत् ? रागद्वेषोत्पत्ती सत्यां बहुश्रुतानां श्रुतफलं नास्ति तपोधनानां तप: फलं चेति ॥२६॥ अत्राह शिष्य:--अपवादव्याख्यानप्रस्तावे शुभोपयोगी व्याख्यातः पुनरपि किमर्थ अत्र व्याख्यानं कृतमिति । परिहारमाह यूक्तमिदं भवदीयवचनं किन्तु तत्र सर्वत्यागलक्षणोत्सर्गव्याख्याने कृते सति तत्रासमर्थतपोधनैः कालापेक्षया किमपि ज्ञानसंयमशीचोपकरणादिक ग्राह्यमित्यपवादण्याख्यानमैव मुख्यम् । अत्र तु यथा भेदनयेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपश्चरणरूपा चतुर्विधाराधना भवति । सैवाभेदनयेन सम्यक्त्वचारित्ररूपेण द्विधा भवति । तत्राप्यभेदविवक्षया पुनरेव वीतरागचारित्रराधना । तदा भेदनयेन सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्ररूपस्त्रिविधमोक्षमागों भवति । स एवाभेदनयेन श्रामण्यापरमोक्षमार्गनामा पुनरेक एव स चाभेदरूपो मुख्यवृत्या 'एयगगदो समणों' इत्यादि चतुर्दशगाथाभिः पूर्वमेव व्याख्यातः । अयं तु भेदरूपो मुख्यवृत्या शुभोपयोगरूपेणेदानी व्याख्यातो नास्ति पुनरुक्तदोष इति । एवं समाचारविशेषविवरणरूपेण चतुर्थस्थले गाथाष्टकं गतम् । उत्थानिका-आगे जो रत्नत्रय मार्ग में चलने वाला साधु है उसको जो दूषण लगाता है उसके दोष को दिखलाते हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ--(जो) जो कोई साधु (हि) निश्चय से (सासणत्थं) जिनमार्ग में चलते हुए (समणं) साधु को (विट्ठा) देखकर (पदोसदो) द्वेषभाव से (अववददि) उसका अपवाद करता है, (किरियासु) उसके लिये विनयपूर्वक क्रियाओं में (णाणमणदि) नहीं अनुमति रखता है (सो) वह साधु (हि) निश्चय से (णठ्ठचारित्तो) चारित्र से भ्रष्ट Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६१७ (हवदि) हो जाता है। जो कोई साधु दूसरे साधु को निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग में चलते हुए देखकर भी निर्दोष परमात्मा की भावना से विलक्षण द्वेष व कषाय उनसे उसका अपवाद करता है इतना ही नहीं उसको यथायोग्य वंदना आदि कार्यों में अनुमति नहीं करता है वह किसी अपेक्षा से मर्यादा के उल्लंघन करने से चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है । जिसका भाव यह है कि यदि रत्नत्रय मार्ग में स्थित साधु को देखकर ईर्ष्यामाव से दोष ग्रहण करे तो वह प्रगटपने चारित्र-भ्रष्ट हो जाता है। पीछे अपनी निन्दा करके उस भाव का छोड़ देता है तो उसका दोष मिट जाता है अथवा कुछ काल पोछे इस भाव को त्यागता है तो भी उसका दोष नहीं रहता है, परन्तु यदि इसी ही भाव को दृढ करता हुआ तीन कषाय भाव से मर्यादा को उल्लघन कर वर्तन करता रहता है तो वह अवश्य चारित्र-भ्रष्ट हो जाता है यहां यह भावार्थ है । बहुत शास्त्र-ज्ञाताओं को थोड़े शास्त्रज्ञाता साधुओं का दोष नहीं ग्रहण करना चाहिये और न अल्पशास्त्री साधुओं को उचित है कि थोड़ा सा पाठ मात्र जानकर बहुत शास्त्री साधुओं का नाम करे किनु परस्पर कुछ भी सारभाव लेकर स्वयं शुद्ध स्वरूप को भाबना ही करनी चाहिये क्योंकि रागद्वेष के पैदा होते हुए न बहुत शास्त्र ज्ञाताओं को शास्त्र का फल होता है, न तपस्वियों को तप का फल होता है ॥२६॥ __यहां शिष्य ने कहा कि आपने अपवाद मार्ग के व्याख्यान के समय शुभोपयोग का वर्णन किया अब यहां फिर किसलिये उसका व्याख्यान किया गया है ? इसका समाधान यह है कि यह कहना आपका ठीक है, परन्तु वहां पर सर्व-त्याग स्वरूप उत्सर्ग व्याख्यान को करके फिर असमर्थ साधुओं को काल की अपेक्षा से कुछ भी ज्ञान, संयम व शौच का उपकरण आदि ग्रहण करना योग्य है इस अपवाद व्याख्यान की मुख्यता है। यहां तो जैसे भेदनय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र व सम्यक्तप रूप चार प्रकार आराधना होती है सो ही अभेवनय से सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप से दो प्रकार की होती हैं। इनमें भी अभेदनय से एक ही धीतरागचारित्ररूप आराधना होती है वैसे ही भेदनय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र रूप से तीन प्रकार मोक्षमार्ग है सो ही अभेदनय से एक श्रमणपना नाम का मोक्षमार्ग है जिसका अभेदरूप से मुख्य कथन "एयग्गमदो समणो" इत्यादि चौदह गाथाओं में पहले हो किया गया यहां मुख्यता से उसी का भेवरूप से शुभोपयोग के लक्षण को कहते हुए व्याख्यान किया गया इसमें कोई पुनरुक्ति का दोष नहीं है। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ 1 [ पवयणसारो इस प्रकार समाचार विशेष को कहते हुए चौथे स्थल में गाथाएं आठ पूर्ण हुई। अथ श्रामण्येनाधिकं होनमिवाचरतो विनाशं दर्शयतिगुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि' होमि समणो ति । होज्जं गुणाधरो जदि सो होवि अणंतसंसारी ॥२६६।। गुणतोऽधिकस्य विनयं प्रत्येषको योऽपि भवामि श्रमण इति । भवन् गुणाधरो यदि स भवत्यनन्तसंसारी ॥२६६।। स्वयं जघन्यगुणः सन् श्रमणोऽहमपीत्यवलेपात्परेषां गुणाधिकानां विनयं प्रतीच्छन् श्रामष्यावलेपयशात कदाचिदनन्तसंसार्यपि भवति ॥२६६॥ भमिका-अब, जो श्रामण्य में अधिक हो उसके प्रति जैसे कि यह श्रामण्य में होन। (अपने से मुनिपने में नीचा) हो ऐसा आचरण करने वाले का विनाश होता है, ऐसा बतलाते हैं अन्वयार्थ---[यः] जो श्रमण [यदि गुणाधरः भवन् अपि ] गुणों में हीन होने पर भी [श्रमणः भवामि] 'मैं भी श्रमण हूँ' [इति] ऐसा गर्व करके [गुणतः अधिकस्य] गुणों में अधिक श्रमण से [विनयं प्रत्येषकः] विनय चाहता है [सः] वह [अनन्तसंसारी भवति] अनन्त संसारी होता है। टीका-जो श्रमण स्वयं जघन्य गुणों वाला होने पर भी 'मैं भी श्रमण हैं', ऐसे गर्य के कारण दूसरे अधिक गुण वाले श्रमणों से विनय की इच्छा करता है, वह श्रामण्य के गर्व के वश से कदाचित् अनन्त संसारी भी होता है ॥२६६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ स्वयं गुणहीनः सन् परेषा गुणाधिकानां योऽसौ विनयं वाञ्छति तस्य गुणविनाशं दर्शयति ; सो होदि अणंतसंसारी स कथंचिदनन्तसंसारी सम्भवति । यः किं करोति ? पहिच्छगो जो दु प्रत्येषको यस्तु अभिलाषकोऽपेक्षक इति । कम् ? विणयं वन्दनादिविनयम् । कस्य सम्बन्धिनम् ? गुणदोधिगस्स बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयगुणाभ्यामधिकस्यान्यतपोधनस्य । केन कृत्वा ? होमि समणोत्ति अहमपि श्रमणो भवामीत्यभिमानेन गण। यदि किम् ? होज्जं गुणाधरो जवि निश्चयव्यवहाररत्नवयगुणाभ्यां हीनः स्वयं यदि चेद्भवतीति । अयमत्रार्थः–यदि चेद्गुणाधिकेभ्यः सकाशाद्गर्वेण पूर्व बिनयवाञ्छां करोति पश्चाद्विवेकबलेनात्मनिन्दां करोति तदानन्तसंसारो न भवति यदि पुनस्तत्रैव मिथ्याभिमानेन ख्यातिपूजालाभार्थ दुराग्रहं करोति तदा भवति । अथवा यदि कालान्तरेऽप्यात्मनिन्दा करोति तथापि न भवतीति ।।२६६।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो स्वयं गुणहीन होता हुआ दूसरे अपने से जो गुणों में अधिक हैं उनसे अपनी बिनय चाहता है उसके गुणों का नाश हो जाता है जो दु (ज० वृ०) Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो 1 [ ६१६ अन्वय सहित विशेषार्थ—(अवि) यदि (जोवि) जो कोई साधु भी (समणो ति होमि) मैं साधु हूँ ऐसा मानकर (गुणदोधिगस्स) अपने से गुणों में जो अधिक है उसके द्वारा (विणयं) अपनी विनय (पडिमछगो) चाहता है तो (सो) वह साधु (गुणाधरो) गुणों से रहित (होज्ज) होता हुमा (अणंतसंसारी होति) अनन्त संसार में भ्रमण करने वाला होता है । मैं श्रमण हूँ, इस पर्व से जो साधु अपने से व्यवहार निश्चयरत्नत्रय के साधन में अधिक है ऐसे उस अन्य साधु के द्वारा अपनी बन्दना आदि विनय की इच्छा करता है और वह स्वयं निश्चय व्यवहाररत्नत्रयरूपी गुण से हीन है तो वह साधु कथंचित् अनन्त संसार में भ्रमण करने वाला होता है। यहां यह भाव है कि यदि कोई गुणाधिक से अपने विनय को वांछा गर्व से करे, परन्तु पीछे भेदज्ञान के बल से अपनी निन्दा करे तो अनन्त संसारी न होबे अथवा कालान्तर में भी अपनी निन्दा करे तो भी दीर्घ संसारी न होवे, परन्तु जो मिथ्या अभिमान से अपनी बड़ाई, पूजा वलाम के अर्थ दुराग्रह या हरु धारण करे सो अवश्य अनन्तसंसारी हो जावेगा ॥२६६॥ अथ श्रामण्येनाधिकस्य हीन सममिथाचरतो विनाशं दर्शयति अधिगगुणा सामण्णे वट्टति गुणाधरेहि किरियासु। जदि ते मिच्छवजुत्ता' हवंति पन्भट्टचारित्ता ॥२६७॥ अधिकगुणाः श्रामण्ये वर्तन्ते गुणाधरैः क्रियासु ।। ___ यदि ते मिथ्योपयुक्ता भवन्ति प्रभ्रष्टचारित्राः ।।२६७।। स्वयमधिकगुणा गुणाधरः परैः सह क्रियासु वर्तमाना मोहायसम्पगुपयुक्तत्वाच्चारित्राभ्रश्यन्ति ॥२६७॥ भूमिका—अब, जो श्रमण श्रामण्य से अधिक हो यह जो अपने से ही श्रमण के प्रति अपने बराबरी जैसा आचरण करे तो उसका विनाश है, ऐसा उपदेश देते हैं। अन्वयार्थ-[यदि श्रामण्ये अधिकगुणा:] जो श्रामण्य में अधिक गुण वाले हैं, तथापि [गुणाधरैः] हीन गुण वालों के प्रति [क्रियासु] वंदनादि क्रियाओं में [वर्तन्ते] वर्तते हैं, [ते] वे [मिथ्योपयुक्ताः] मिथ्यात्व से उपयुक्त होते हुये [प्रभ्रष्टचारित्राः भवन्ति] चारित्र से भ्रष्ट होते हैं। टीका-जो स्वयं अधिक गुण वाले होने पर भी अन्य हीन गुण वाले श्रमणों के प्रति वंदनादि क्रियाओं में वर्तते हैं वे मोह के कारण असम्यक् से उपयुक्त होते हुये चारित्र से भ्रष्ट होते हैं। १. मिच्छत्तपउत्ता (ज० वृ०)। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० ] [ पबयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथ स्वयमधिकगुणाः सन्तो यदि गुणाधरैः सह वन्दनादिक्रियासु वर्तन्ते तदा गुणविनाशं दर्शयति ; वति वर्तन्ते प्रवर्त्तन्ते जदि यदि चेन् । क्व वर्तन्ते ? किरियासु बन्दनादिक्रियासु । कैः सह ? गुणाधरेहि गुणाधरंर्गुणरहितः । स्वयं कथंभूता सन्त: ? अधिगगुणा अधिकगुणाः क्य ? सामणे धामण्ये चारित्रे ते मिच्छतपउत्ता हवंति ते कथंचिदिति प्रसङ्गान्मिथ्यात्वप्रयुक्ता भवन्ति । न केवलं मिथ्यात्वप्रयुक्ताः पन्भट्टचारित्ता प्रभ्रष्टचारित्राश्च भवन्ति । तथाहि- यदि बहुश्रुतानां पार्वे झानादिगणपद्धयर्थ स्वयं चारित्रगुणाधिका अपि बन्दनादिक्रियासु वर्तन्ते तदा दोषो नास्ति । यदि पुनः केवलं ख्यातिपूजालाभार्थं वर्तन्ते तदातिप्रसङ्गादोषो भवति । इदमत्र तात्पर्यम् – वन्दनादिक्रियासु वा तत्वविचारादी वा यत्र रागद्वेषोत्पत्तिर्भवति तत्र सर्वत्र दोष एव । ननु भवदीयकल्पनीयमागमे नास्ति । नेवम 1 आगमः सर्वोऽपि रागद्वेषपरिहारार्थ एव परं किन्तु ये केचनोत्सर्गापवादरूपेणागमनयविभाग न जानन्ति त एव रागद्वेषौ कुर्वन्ति न चान्य इति ॥२६७।। इति पूर्वोक्तक्रमेण 'एयग्गगदो' इत्यादि चतुर्दशगाथाभिः स्थलचतुष्टयेन श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गाभिधानस्तृतीयान्तराधिकारः समाप्तः । अथानन्तरं द्वात्रिंशद्गाथापर्यन्तं पञ्चभिः स्थलै: शुभोपयोगाधिकार: कथ्यते । तत्रादौ लौकिकसंसर्गनिषेधमुख्यत्वेन 'णिच्छिदसुत्तत्थपदो' इत्यादिपाठक्रमेण गाथापञ्चकम् । तदनन्तरं सरागसंयमापरनामशुभोपयोगर कमजयनप्रमानन रमणा सहनपलला' इत्यादि सूत्राष्टकम् । ततश्च पात्रापात्रपरीक्षाप्रतिपादनरूपेण 'रागो पसत्थभूदो' इत्यादि गाथाषट्कम् । ततः परमाचारादिविहितक्रमेण पूनरपि संक्षेपरूपेण समाचारव्याख्यानप्रधानत्वेन 'दिट् अपगदं बत्थु' इत्यादि सूत्राष्टकम् । ततः पञ्च रत्नमुख्यत्वेन 'जे अजधा गहिदत्था' इत्यादि गाथापञ्चकम् । एवं द्वात्रिंशद्गाथाभिः स्थलपञ्चकेन चतुर्थान्तराधिकारे समुदायपातनिका । उत्थानिका -आगे यह दिखलाते हैं कि जो स्वयं गुणों में अधिक होकर गुणहीनों के साथ वंदना आदि क्रियाओं में वर्तन करते हैं उनके गुणों का नाश हो जाता है । अन्वय सहित विशेषार्थ-(सामण्णे) मुनिपने के चारित्र में (अधिगगुणा) उत्कृष्ट गुणधारी साध (जदि) जो (गुणाधरेहि) गुणहीन साधुओं के साथ (किरियासु) वन्दना आदि क्रियाओं में (वति) वर्तन करते हैं (ते) वे (मिच्छतपउत्ता) मिथ्यात्व-सहित तथा (पब्मट्रचारित्ता) चारित्र रहित (हवंति) हो जाते हैं । यदि कोई बहुत शास्त्र के ज्ञाताओं के पास स्वयं चारित्र गुण में अधिक होने पर भी, अपने ज्ञानादि गुणों की वृद्धि के लिये वंदना आदि क्रियाओं में वर्तन करे तो दोष नहीं है । परन्तु यदि अपनो बड़ाई व पूजा के लिये उनके साथ वनादि क्रिया करे तो मर्यादा उल्लंघन से दोष है । यहां पर तात्पर्य यह है कि जिस जगह चंदना आदि क्रिया के व तत्त्व विचार आदि के लिये वर्तन करे परन्तु रागद्वेष को उत्पत्ति हो जाये उस जगह सर्वत्र दोष हो है यहां कोई शंका करे कि यह तो तुम्हारी ही कल्पना है, आगम में यह बात नहीं है ? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि सर्व हो आगम रागद्वेष के त्याग के लिये ही हैं किन्तु जो कोई साधु उत्सर्ग और अपवादरूप (निश्चय Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६२१ व्यवहाररूप) आगम में कहे हुए नय विभाग को नहीं जानते हैं वे हो रागद्वेष करते हैं, अन्य रागद्व ेष नहीं करते ॥ २६७॥ इस प्रकार " एयग्गगदो" इत्यादि चौदह गाथाओं के द्वारा चार स्थलों में श्रामण्य जिसका दूसरा नाम मोक्षमार्ग है तीसरा अंतराधिकार समाप्त हुआ । ( समुदायपातनिका -- इसके पश्चात् ३२ गाथा पर्यंत पांच स्थलों के द्वारा शुभोपयोग अधिकार का कथन किया जाता है। उसके आदि में लौकिक जन के संसर्ग के निषेध की मुख्यता से "णिच्छिदसुत्तत्थपदों" इत्यादि पाठ क्रम से पांच गाथा हैं २६८ - २७० ) शुभोपयोग उसके स्वरूप के कथन की सूत्र हैं उसके पश्चात् पात्र-अपात्र की इत्यादि छह गाथा हैं इसके पश्चात् तजुन" उसके पश्चात् सरागसंयम द्वारा दूसरा नाम प्रधानता से "समणा इत्यादि परीक्षा का कथन करने वाली "रागो पसत्थभूदो" आचार आदि विहित क्रम से पुनः संक्षेप रूप से समाचार के व्याख्यान की प्रधानता से "कागद वत्यु" इत्यादि आठ गाथा हैं । उसके पंचरत्न की मुख्यता से "जे अजधा गहिदत्था" इत्यादि पांच गाथा हैं (२७१ - २७५ ) इस प्रकार चौथे अधिकार में पांच स्थलों की ३२ गाथाओं की समुदायपातनिका ने ( जिन स्थलों पर उनकी गाथा नहीं हैं। प्रथम स्थलों में भी पांच गाथा की २६८ के पश्चात् एक गाथा अनुकम्पा के स्वरूप का कथन 'लौकिक जन संसर्ग' से कोई सम्बन्ध नहीं है । अतः 'लौकिक जन संसर्ग' के स्थल में तीन हो गाथा हैं पांच नहीं हैं । यह चिन्ह है वे स्थल या बजाय तीन गाथा हैं। गाथा करने वाली है किन्तु उसका अथासत्संग प्रतिषेध्यत्वेन दर्शयति णिच्छिदसत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो' चावि । लोगिगजनसंसगं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि ॥ २६८ ॥ निश्चित सूत्रार्थपदः समितकषायस्तपोऽधिकश्चापि । लौकिक जनसंसर्ग न त्यजति यदि संयतो न भवति ॥ २६८ ॥ यतः सकलस्यापि विश्ववाचकस्य सल्लक्ष्मणः शब्दब्रह्मस्तद्वाध्यस्य सकलस्यापि सल्लक्ष्मणो विश्वस्य च युगपदनुस्यूततदुभयज्ञेयाकारतयाधिष्ठानभूतस्य सल्लक्ष्मणो ज्ञातृतत्तस्य निश्चयनयान्निश्चितसूत्रार्थपदत्वेन निरुपरागोपयोगत्वात् समितकषायत्वेन बहुशो - अभ्यस्तनिष्कम्पोपयोगत्वा तपोऽधिकत्वेन च सुष्ठु संयतोऽपि सप्ताचिः संगतं तोयमिवावश्यंमाविविकारत्वात् लौकिकसंगादसंयत एव स्यात्ततस्तत्संगः सर्वथा प्रतिषेध्य एव ॥ २६८ ।। १. अधिगो (ज० वृ०) | Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ ] [ पवयणसारो भूमिका-अब, यह बतलाते हैं कि असत्संग निषेध्य है अन्वयार्थ-[निश्चितमूत्रार्थपद:] जिसने सूत्रों के पदों को और अर्थों को निश्चित किया है, [समितकषायः] जिसने कषायों का शमन किया है, [च] और [तपोऽधिकः अपि] जो अधिक तपवान् है ऐसा जीव भी [यदि] यदि [लौकिकजनसंसर्ग] लौकिक जनों के संसर्ग को [न त्यजति] नहीं छोड़ता, [संयत: न भवति] तो वह संयत नहीं हैं। टीका-(१) विश्व के वाचक, 'सत्' लक्षणवान् सम्पूर्ण ही शब्दब्रह्म और उस शम्दब्रह्म के वाच्य 'सत्' लक्षण वाले सम्पूर्ण ही विश्व उन दोनों के ज्ञेयाकार अपने में युगपत् अनुस्यूत हो जाने से उन दोनों का अधिष्ठानमूत 'सत्' लक्षण वाला ज्ञाता निश्चयनय द्वारा 'सूत्र के पदों और अर्थों का निश्चय करने वाला' हो (२) निरुपराग उपयोग के कारण (ज्ञातृतत्व) "जिसने नायागों को शामित किया ऐसा' हो, और (३) निष्कंप उपयोग का बहुत बार अभ्यास करने से (ज्ञातृतत्व) 'अधिक तप वाला' हो, इस प्रकार तीन कारणों से जो जीव भली-भांति संयत हो, वह भी लौकिक जनों के संग से असंयत हो होता है, जैसे अग्नि के संग से जल उष्ण अर्थात् विकारी हो जाता है उसी प्रकार मुनि के भी कुसंगति से विकार अवश्यंभावी है। इसलिये लौकिक संग सर्वथा निषेध्य हो है ॥२६॥ ___ तात्पर्यवृत्ति तद्यथा अथ लौकिकासंसर्गं प्रतिषेधयति;-- णिच्छिदसुत्तत्यपदो निश्चितानि ज्ञातानि निीतान्यनेकान्तस्वभावनिजशुद्धात्मादिपदार्थप्रतिपादकानि सूत्रार्थपदानि येन स भवति निश्चितसूत्रार्थपदः समिवकसाओ परविषये क्रोधादिपरिहारेण तथाभ्यन्तरे परमोपशमभावणितनिजशुद्धात्मभावनाबलेन च शमितकषायः। सोधिगो चावि अनशनादिबहिरङ्गतपोबलेन तथैवाभ्यन्तरे शुद्धात्मभावनाविषये प्रतिपन्नाद्विजयनाच्च तपोऽधिकरचापि सन् स्वयं संयतः कर्ता लोगिगजणसंसरगं ण चयदि जदि लोकिकाः स्वेच्छाचारिणस्तेषां संसर्गो लौकिकसंसर्गस्तं न त्यजति यदिचेत् संजदोणहविदि तहि संयतो न भवतीति । अयमत्रार्थ:-स्वयं भावितात्मापि यद्यसंवृतजनसंसर्ग न त्यजति तदातिपरिचयादग्निसंङ्गतं जलमिव विकृतिभावं गच्छतीति ।।२६८।। उत्थानिका-आगे लौकिक जनों की संगति को मना करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ--(णिच्छिदसुत्तत्थपदो) जिसने सूत्र के अर्थ और पदों को निश्चय पूर्वक जान लिया है, (समिक्कसायो) कषायों को शांत कर दिया है (तओधिको चावि) तथा तप करने में भी अधिक है ऐसा साधु (जदि) यदि (लोगिगजणसंसर्ग) लौकिक जनों का अर्थात् असंयमियों का भ्रष्टचारित्र साधुओं का संगम (ण जहदि) नहीं त्यागता है (संजदो ण हदि) तो वह संयमी नहीं रह सकता है । जिसने अनेक धर्ममय अपने शुद्धात्मा Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । । ६२३ आदि पदार्थों को बताने वाले सूत्र के अर्थ और पदों को अच्छी तरह निर्णय करके जान लिया है, अन्य जीवों में व पदार्थों में क्रोधादि कषाय को त्याग करने से तथा मीतर परम शांत भाव में परिणमन करते हुए अपने शुद्धात्मा की भावना के बल से कषायों को शांत कर दिया है, तथा अनशन आदि छः बाहरी तपों के बल से व अंतरंग में शुद्ध आत्मा की भावना के सम्बन्ध में औरों से विजय प्राप्त किया है, ऐसा तप करने में भी श्रेष्ठ है। इन तीन विशेषणों से युक्त साधु होने पर भी यदि स्वेच्छाचारी लौकिक जनों का संसर्ग न छोड़े तो वह स्वयं संयम से छट जाता है। भाव यह है कि स्वयं आत्मा की भावना करने वाला होने पर भी यदि अनर्गल व स्वेच्छाचारी मनुष्यों की संगति को नहीं छोड़े तो अति परिचय होने से जैसे अग्नि की संगति से जल उष्णपने को प्राप्त हो जाता है, ऐसे वह साधु विकारी हो जाता है ॥२६॥ अथानुकम्पालक्षणं कथ्यते; तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिद वठ्ठण जो हि दुहिदमणो। पडिबज्जदि तं किंवया तस्सेसा होदि अणुकंपा ॥२६॥ तिसिदं बुभुक्खिवं वा दुहिरं दठ्ठण जो हि दुहिदमणो पडिवजदि तृषितं बा बुभुक्षितं वा दुःखित वा दृष्ट्वा कमपि प्राणिनं यो हि स्फुटं दुःखितमना: सन् प्रतिपयते स्वीकरोति । के कर्मतापन्नम् ? तं प्राणिनम् । कया? किवद्या कृपया दयापरिणामेन तस्सेसा होदि अणुकंपा तस्य पुरुषस्यषा प्रत्यक्षीभूता शुभोपयोगरूपानुकम्पा दया भवतीति । इमां चानुकम्पा ज्ञानी स्वस्थभावनामविनाशयन् संक्लेशपरिहारेण करोति । अज्ञानो पुनः संक्लेशेनापि करोतीत्यर्थः ।।२६८-१।। उत्थानिका-आगे शुभोपयोग प्रकरण में अनुकम्पा का लक्षण कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(तिसिदं) किसी प्राणी को प्यासे (बुभुक्खिदं) भूखे (वा दुहिवं) या दुखी (दळूण) देखकर (जो हि) जो निश्चय से (दुहिक्मणो) दुःखित मन होकर (तं) उस प्राणी को (किवया) दया परिणाम से (पडिवज्जदि) स्वीकार करता हैउसका मला करता है (तस्से) उसके (सा अणकप्पा) वह अनुकम्पा (हदि) होती है । ज्ञानी जीव ऐसी क्या को अपने आत्मीक भाव को नाश न करते हुए संक्लेश भाव से रहित होते हुए करते हैं जबकि अज्ञानी संक्लेश भाव से भी करता है। अथ लौकिकलक्षणमुपलक्षयति णिग्गंथं 'पव्वइदो बट्टदि जदि एहिहिं कम्मेहिं । सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंपजुत्तो वि ॥२६६॥ नम्रन्थ्यं प्रजितो वर्तते यद्यहिकः कर्मभिः । स लौक्रिक इति भणितः संयमतपः संप्रयुक्तोऽपि ।।२६६।। - १. पञ्चविदो (ज७ वृ०)। Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ ] [ पवयणसारो प्रतिज्ञातपरमनन्थ्यप्रव्रज्यत्वादुदूढसंयमतपोभारोऽपि मोहबहुलतया श्लथीकृतशुद्धचेतनव्यवहारो मुहुर्मनुष्यव्यवहारेण ध्याधूर्णमानत्वादेहिककानिवृती लौकिक इत्युच्यते ।।२६६॥ भूमिका-अब, 'लौकिक' (जन) का लक्षण कहते हैं अन्वयार्थ-[नग्रंथ्यं प्रजितः] जो (जीव) निग्रंथरूप से दीक्षित होने के कारण [संयमतपःसंप्रयुक्तः अपि] संयम तप संयुक्त होने पर भी, [यदि सः] यदि वह [ऐहिक: कर्मभिः वर्तते] इस लोक संबंधी कार्यों को करता है तो वह भी [लौकिक: इति. भणितः] 'लौकिक' कहा गया है। टीका-परमनिर्ग्रन्थतारूप प्रव्रज्या की प्रतिज्ञा लेकर जो जीव संयम तप के भार को वहन करता है, वह भी, यदि मोह की बहुलता के कारण शुद्धचेतन व्यवहार को छोड़कर निरन्तर मनुष्य व्यवहार में चक्कर खाने से लौकिक कार्यों को करता हो तो, 'लौकिक' कहा जाता है ॥२६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ लौकिकलक्षणं कथयति; णिगंथं पन्यविदो वस्त्रादिपरिग्रहरहितत्वेन निग्रन्थोऽपि दीक्षाग्रहणेन प्रबजितोऽपि यदि जदि वर्तते यदि चेत् । कै: ? एहिगेहि कम्मेहि ऐहिकः कर्मभिः भेदाभेदरत्नत्रयभावनाशकः ख्यातिपूजालाभनिमित्तै ज्योतिषमन्त्रवादवेदिकाभिरहिकजीवनोपायकर्मभिः सो लोगिगो ति मणिदो स लौकिको व्यवहारिक इति भणितः । कि विशिष्टोऽपि ? संजमतवसंझुदो चावि द्रव्यरूपसंयमतपोभ्यां संयुक्तश्चापीत्यर्थः ।।२६६। उत्थानिका-आगे लौकिक साधु जन का लक्षण बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ:-(णिग्गंथं पश्ययिदो) निग्रंथ पद की दीक्षा को धारता हुआ (जदि) यदि (एहिगेहि कम्मेहि) लौकिक व्यापारों में (वट्टदि) वर्तता है (सो) वह साधु (संजमतवसंपजुत्तावि) संयम और तप सहित है तो भी (लोगिगोवि भणिदो) लौकिक है, ऐसा कहा गया है। जिसने वस्त्रादि परिग्रह को त्यागकर व मुनि पद की दीक्षा लेकर यति पद धारण कर लिया है ऐसा साधु यदि निश्चय और व्यवहाररत्नत्रय के नाश करने वाले भाव जो अपनी प्रसिद्धि, बड़ाई 4 लाभ के बढ़ाने के कारण ज्योतिष कर्म, मन्त्र, यन्त्र, वंद्यक आदि लौकिक गृहस्थों के जीवन के उपायरूप व्यापारों के द्वारा वर्तन करता है तो वह द्रव्य संयम व ख्य सप को धारता हुआ भी लोकिक अथवा व्यावहारिक कहा जाता है ॥२६६॥ अथ सत्संग विधेयत्वेन दर्शयति तम्हा समं गुणावो समणो समणं गुहिं वा अहियं । अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छवि जदि दुक्खपरिमोक्खं ॥२७०॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ६२५ तस्मात्समं गुणात् श्रमणः श्रमणं गुणाधिकम् । अधिवसतु तत्र नित्यं इच्छति यदि दुःखपरिमोक्षम् ।।२७०।। प्रतःपरिणामस्वभावमानः सरतातिरंगनं नोमिनावश्यंभाविविकारत्वाल्लोकिकसंगासंयतोऽप्यसयत एव स्यात् । ततो दुःखमोक्षार्थिना गुणः समोऽधिको वा श्रमणः श्रमणेम नित्यमेनाभिवसनीय: तथास्य शीतापवरककोणनिहितशीसतोयवत्समगुणसंगानुकरक्षा शीततरतुहिमाशीरालपक्तशीत्ततोयवत् गुणाधिकसंगात गुणवृद्धिः ॥२७०॥ त्यध्यास्य शुभोपयोगजनितां कांचित्प्रवृति यतिः, सम्यक् संयमलौष्ठवेन परमां कामग्निवृत्ति क्रमाद । हेलाकाखसमस्तवस्तुविसरप्रस्ताररम्योदयां, ज्ञानानन्दमयी दशामनुभवत्वेकान्ततः शाश्वतीम् ॥१७॥ -इति शुभोपयोगप्रजापनम् । अथ पञ्चरत्नम् । शादलविक्रीडित छन् । सन्त्रस्यास्म शिवण्डमण्डनमिव प्रयोतयत्सर्वतोद्वैतीयीकमथाहतो भगवलः संक्षेपतः शासनम् । ग्याकुबजगतो विलक्षणपथां संसारमोक्षस्थिति, जीयात्संप्रति पञ्चरत्नमनघं सूत्ररिमः पञ्चभिः ॥१८॥ भूमिका--अब, सत्संग करने योग्य है, यह बतलाते हैं अन्वयार्थ-[तस्मास्] (क्योंकि लौकिकजन के संग से संयत भी असंयत होता है। इसलिये [यदि] यदि [श्रमणः] श्रमण [दुःखपरिमोक्षम् इच्छति] दुःख से परिमुक्त होना चाहता हो तो वह [ गुणात् सम] समान गुणों वाले श्रमण के [वा] अथवा [गुणैः अधिक श्रमणं तत्र] अधिक गुणों वाले श्रमण के संग में [नित्यम्] सदा [अधिवसतु] निवास करे। टोका-क्योंकि मारमा परिणामस्वभाव वाला है इसलिये लौकिक संग से विकार अवश्यंभावी होने से संयत भी असंयत हो जाता है जैसे अग्नि के संग से पानी उष्ण हो जाता है । इसलिये दुःखों से मुक्ति चाहने वाले श्रमण को (१) समान गुण वाले श्रमण के साथ अथवा (२) अधिक गुण वाले श्रमण के साथ सवा ही निवास करना चाहिये (१) जैसे शीतल घर के कोने में रखेए शीतल पानी के शीतल गुण की रक्षा होती है, उसी प्रकार समान गुण वाले की संगति से उस श्रमण की गुणरक्षा होती है और (२) जैसे अधिक शीतल हिम (बर्फ) के संपर्क में रहने वाले शीतल पानी के शीतल गुण में वृद्धि होती है, उसी प्रकार अधिक गुण पाले के संग से उस श्रमण के गुणति होती है ॥२७॥ श्लोकार्थ-इस प्रकार शुभोपयोगजनित किंचित् प्रवृत्ति का सेवन करके यति * शार्दूलविक्रीडित छन्द । Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ ] [ पचयणसारो सम्यक् प्रकार से संयम के सौष्ठव से क्रमशः परम निवृत्ति को प्राप्त होता हुआ, जिसका रम्य उदय समस्त वस्तु समूह के विस्तार को लीलामात्र से प्राप्त हो जाता है, ऐसी शाश्वती ज्ञानानन्दमयी दशा का एकान्ततः अनुभव करो ॥२७०॥ ** इस प्रकार शुभोपयोगप्रज्ञापन पूर्ण हुआ । * अब पंचरत्न हैं ( पांच रत्नों जंसो पांच गाथायें कहते हैं ) यहां पहले, उन पांच गाथाओं की महिमा श्लोक द्वारा कहते हैं । श्लोकार्थ -- अब इस शास्त्र के कलगी के अलङ्कार जैसे (चूड़ामणि समान) यह पांचसूत्र रूप निर्मल पंचरत्न जो कि संक्षेप से अर्हन्त भगवान् के समग्र अद्वितीय शासन को सर्वतः प्रकाशित करते हैं वे विलक्षण पंथवाली संमार-मोक्ष की स्थिति को जगत के समक्ष प्रगट करते हुये जयवन्त हों । तात्पर्यवृत्ति अथोत्तमसंसर्गः कर्त्तव्य इत्युपदिशति तम्हा यस्माद्भीनसंसर्गाद्गुणहानिर्भवति तस्मात्कारणात् अधिवसद् अधिवसतु तिष्ठतु । स कः कर्ता ? समणो श्रमणः । क्व ? तम्हि तस्मिन्नधिकरणभूते णिच्च नित्यं सर्वकालम् । तस्मिन्कुत्र ? समणं श्रमणे लक्षणवशादधिकरणे कर्म पठ्यते । कथंभूते श्रमणे ? समं समे समाने । कस्मात् ? गुणादो बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयलक्षणगुणात् । पुनरपि कथंभूते ? अहियं वा स्वस्मादधिके वा । कः ? गुणेहि मूलोत्तरगुणः । यदि किम् ? इच्छदि जदि इच्छति वाञ्छति यदि चेत् । कम् ? दुक्खपरिमोक् वात्मोत्थसुखविलक्षणानां नारकादिदुःखानां मोक्षं दुःखपरिमोक्षमिति । संयोगाज्जलस्य शीतलगुणविनाशो भवति तथा व्यावहारिकजनसंसर्गात्संयतस्य संयमगुणविनाशो अथ विस्तरः- यथाग्निभवतीति ज्ञात्वा तपोधनः कर्त्ता समगुणं गुणाधिकं वा तपोधनमाथयति तदास्य तपोधनस्य यथा शीतलभाजनसहित शीतलजलस्य शीतलगुणरक्षा भवति तथा समगुणसंसर्गाद्गुणरक्षा भवति । यथा च तस्थैत्र जलस्य कर्पूरशर्करादिशीतलद्रव्यनिक्षेपे कृते सति शीतल गुणवृद्धिर्भवति तथा निश्वयव्यवहाररत्नत्रयगुणाधिकसंसर्गाद्गुणवृद्धिर्भवतोति सूत्रार्थः ॥ २७० ॥ उत्थानिका- आगे यह उपदेश करते हैं कि सदा ही उत्तम संसर्ग करना योग्य है अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तम्हा) इसलिये (जदि) यदि (समणो ) साधु ( दुक्ख परिमोषखं इच्छदि) दुःखों से छूटना चाहता है तो ( गुणाबो समं ) गुणों में समान ( वा गुह अहियं समणं) वा गुणों से अधिक साधु के पास ठहरकर ( चिचं ) सदा ( तम्हि ) उसी ही साधु की (अधिवसदु ) संगति करे। क्योंकि हीन साधु की संगति से अपने गुणों को हानि होती है । इसलिये जो साधु अपने आत्मा से उत्पन्न सुख से विलक्षण नारक आदि के दुःखों से मुक्ति चाहता है तो उसको योग्य है कि वह हमेशा ऐसे साधु की संगति करे जो निश्चय व्यवहाररत्नत्रय के साधन में अपने बराबर हो या मूल व उत्तर गुणों में अपने से अधिक हो । जैसे- अग्नि की संगति से जल के शीतल गुण का नाश हो जाता Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६२७ है तैसे ही व्यवहारिक या लौकिक जन को संगति से संयमी का संयम गुण नाश हो जाता है, ऐसा जानकर तपोधन को अपने समान या अपने से अधिक गुणधारी तपोधन का ही आश्रय करना चाहिये । जो साधु ऐसा करता है उसके रत्नत्रयमय गुणों की रक्षा अपने समान गुणधारी की सपति से इस तरह होती है जसे शीतल पात्र में रखने से शीतल जल की रक्षा होती है और जैसे उसी जल में कपूर शक्कर आदि ठंडे पदार्थ और डाल दिये जावें तो उस जल के शीतलपने को वृद्धि हो जाती है। उसी तरह निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप गुणों में जो अपने से अधिक हैं उनकी संगति से साधु के गुणों की वृद्धि होती है, ऐसा इस गाथा का अर्थ है ॥२७॥ अथ संसारतत्त्वमुद्घाटयति जे अजधागहिदत्था एवे तच्च ति णिच्छिवा समये । अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं ॥२७१॥ ये अयथागृहीतार्था एते तत्त्वमिति निश्चित्ताः समये।। अत्यन्तफलसमृद्धं भ्रमन्ति ते अतः परं कालम् ।।२७१॥ ये स्वयमविवेकतोऽन्यथैव प्रतिपद्यानित्यमेव तत्त्वमिति निश्चयमारचयन्तः सततं समुपचीयमानमहामोहमलमलीमसमानसतया नित्यमज्ञानिनो भवन्ति ते खलु समपे स्थिता अप्यनासादिसपरमार्थश्रामण्यतया श्रमणाभासाः सन्तोऽनन्तकर्मफलोपभोगप्राग्मारभयंकरमनन्तकालमनन्तभावान्तर परावर्तेरनवस्थितवृत्तयः संसारतत्त्वमेवावबुध्यताम् ।।२७१॥ भूमिका—अब संसारतत्व को प्रगट करते हैं अन्वयार्थ- [ये | जो [समये] समय में (आगम में) स्थित हैं वे [एते तत्वम् 'यह तत्त्व है (वस्तु स्वरूप ऐसा ही है) | इति निश्चिताः] इस प्रकार निश्चयवान् वर्तते हुये [अयथागृहीतार्थाः] पदार्थों को अयथार्थतया ग्रहण करते हैं (जैसे नहीं है वैसा समझते है) [ते] वे [अतः परं कालं] अब से आगामी काल में [अत्यन्तफलसमृद्धम् ] अत्यन्तफलसमृद्ध अनन्त फल से भरे हुये संसार में [भ्रमन्ति] परिभ्रमण करेंगे । टीका-जो स्वयं अविवेक से पदार्थों को अन्यथा ही समझ करके 'ऐसा ही तत्त्व है। ऐसा निश्चय करते हुये, निरन्तर एकत्रित किये जाने वाले महा मोहमल से मलिन मन वाले होने से नित्य अज्ञानी हैं, वे समय में-आगम में स्थित होने पर भी परमार्थ श्रामण्य को प्राप्त न होने से वास्तव में श्रमणाभास वर्तते हुये, अनन्त कर्मफल को उपभोगराशि से भयंकर ऐसे अनन्त काल तक अनन्त भवान्तररूप परावर्तनों से (संसार में) अनवस्थित वृत्ति वाले रहने से उनको संसारतत्त्व ही जानना अर्थात् वे संसार में परिभ्रमण करते हैं ॥२७१।। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ ] [ पश्यणसारो तात्पर्यवृत्ति इतः परं पंचमस्थले संक्षेपेण संसारस्वरूपस्य मोक्षस्वरूपस्य.च प्रतीत्यर्थं पंचरलभूतगाथापंचकेन व्याख्यानं करोति तद्यथा-अथ संसारस्वरूपं प्रकटयतिः-जे अजधागहिवत्था वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहाररलत्रयार्थपरिज्ञानाभावात् येऽयथागृहीतार्थः विपरीतगृहीतार्थः पुनरपि। कथंभूताः ? एदे तच्चत्तिणिछिदा एतेतत्त्वमितिनिश्चिताः, एते ये मयाकथिताः पदार्थास्त एव तत्त्वमिति निश्चिताः निश्चयं कृत वन्तः क्व स्थित्वा ? समये निर्ग्रन्थरूपद्रव्यसमये अभवंतफलसमिद्धभमंति से तो परं कालं अत्यन्तफलसमृद्धंभ्रमन्ति न विद्यतेऽन्त इत्यत्यन्तं ते पर कालं द्रव्य क्षेत्रकालभवभावपञ्चप्रकारसंसारपरिभ्रमणरहितशुद्धात्मस्वरूपभावनाच्युताः सन्तः परिभ्रमन्ति। कम् ? परं कालं अनन्तकालम् । कथंभूतम् ? नारकादिदुःखरूपात्यन्तफलसमृद्धं । पुनरपि कथंभूतम् ? अतो बर्तमानकालात्परं भाविनमिति । अयमत्रार्थ:इत्थंभूतसंसारपरिभ्रमणपरिणतपुरुषा एवाभेदेन संसारस्वरूपं ज्ञातव्यमिति ॥२७१४ .. .. उत्थानिका--आगे पांचवें स्थल में संक्षेप से संसार का स्वरूप, मोक्ष का स्वरूप, मोक्ष का साधन, सर्व मनोरथ स्थान लाभ तथा शास्त्रपाठ का लाभ इन पांच रत्नों को पांच गाथाओं से व्याख्यान करते हैं। प्रथम ही संसार का स्वरूप प्रगट करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जे) जो कोई (अजधागहिवस्था) अन्य प्रकार से असत्य पदार्थो के स्वभाव को जानते हुये (एवे तच्चत्तिसमये) ये ही आगम में तत्व कहे हैं ऐसा (णिच्छिदा) निश्चय कर लेते हैं ( ते तो) वे साधु इस मिथ्या श्रद्धान व ज्ञान के कारण माविकाल में (अच्चन्तफलसमिद्ध) अनन्त दुःखरूप फल से भरे हुए संसार में (परं काल) अनन्त काल तक (भमंति) भ्रमण करते हैं। (जो कोई साधु या अन्य आत्मा सात तत्त्व नव पदार्थों का स्वरूप स्याद्वाद नय के द्वारा यथार्थ न जानकर और का और श्रद्धान कर लेते हैं और यही निर्णय कर लेते हैं कि आगम में तो यही तत्त्व कहे हैं) वे मिथ्या श्रद्धानी या मिथ्याज्ञानी जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव स्वरूप पांच प्रकार संसार के भ्रमण से रहित शुद्ध आत्मा की भावना से हटे हुए इस वर्तमान काल से आगे भविष्य में भी नारकावि दुःखों के अत्यन्त कटुक फलों से भरे हुए संसार में अनन्तकाल तक भ्रमण करते रहते हैं। इसलिये इस तरह संसार भ्रमण में परिणमन करने वाले पुरुष ही अभेदनय से संसार स्वरूप जानने योग्य हैं ॥२७१॥ अथ मोक्षतस्वमुद्घाटयति अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा । अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो ॥२७२॥ १. सदस्थपदणिच्छिदो (३० ब०)। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६२६ अयथाचारवियुक्तो यथार्थ पदनिश्चितः प्रशान्तात्मा। अफले चिरं न जीवति इह स संपूर्णश्रामण्यः ।।२७२।। यस्त्रिलोकचूलिकायमाननिर्मलविवेकदीपिकालोकशालितया यथावस्थितपदार्थनिश्चयनिवसितौत्सुक्यस्वरूपमन्यरसततोपशान्तात्मा सन् स्वरूपकमेवामिमुख्येन चरन्नयथाचारवियुक्तो नित्यं ज्ञानी स्यात् स खलु संपूर्णश्रामण्यः साक्षात् श्रमणो हेलावकीर्णसालप्राक्तनकर्मफलत्वादनिष्पादितनूतनकर्मफलत्वाच पुनः प्राणधारणदैन्यमनस्कन्दन द्वितीयभायपरावर्ताभावात् शुद्धस्वभावावस्थितत्तिर्मोक्षतत्त्वमवबुध्यताम् ॥२७२॥ भूमिका-अब मोक्ष तत्व को प्रगट करते हैं। अन्वयार्थ--[यथार्थपद निश्चितः] जो यथार्थतया पदों का तथा अर्थों (पदार्थों) का निश्चय करने वाला है [प्रशान्तात्मा) प्रशांतात्मा है और [अयथाचारवियुक्तः] अयथाचार से रहित है [सः संपूर्णश्रामण्य:] वह संपूर्ण श्रामण्यवाला जीव [इह अफले] इस अफल (असार) संसार में [चिरं न जीवति] चिरकाल तक नहीं रहता (अल्पकाल में ही मुक्त होता है)। टीका-जो (श्रमण) त्रिलोक की चूलिका के समान निर्मल विवेकरूपी बीपिका के प्रकाश द्वारा यथास्थित पदार्थनिश्चय से उत्सुकता को दूर करके स्वरूप में स्थिति से सतत 'उपशांतात्मा' वर्तता हुआ, एक स्वरूप में ही अभिमुखतया कीड़ा करने से 'अयथाचार रहित' वर्तता हुआ नित्यज्ञानी है, वास्तव में उस सम्पूर्ण श्रामण्य वाले साक्षात् श्रमण को मोक्षतत्त्व जानना, क्योंकि पहले के सकल कर्मों के फल उसने लीलामात्र से नष्ट कर दिये हैं और नूतन कर्म फलों को उत्पन्न नहीं करता इसलिये पुनः प्राण धारणरूप दीनता को प्राप्त न होता हआ द्वितीय भावरूप परावर्तन के अभाव के कारण शुद्ध स्वभाव में 'अवस्थित वृत्ति वाला है ॥२७२।। उक्त गाथा में अरहंत अवस्था का कथन है तात्पर्यवृत्ति अथ मोक्षस्वरूप प्रकाशयति;-- अजधाचारविजुत्तो निश्चयव्यवहारपंचाचारभावनापरिणतत्वादयधाचारवियुक्त: विपरीताचाररहित इत्यर्थः । जबस्थपदणिच्छिदो सहजानन्दैकस्वभावनिजपरमात्मादिपदार्थपरिज्ञानसहितस्वाद्यथार्थपदनिश्चित: पसंतप्पा विशिष्टपरमोपशम भावपरिणतनिजात्मद्रव्यभावनासहितत्वात्प्रशान्तात्मा जो यः कर्ता सो संपुण्णसामाणो स सम्पूर्णश्रामण्य: सन् चिरं ण जीवदि चिरं बहुतरकालं न १. अवस्थित-स्थिर, इस सम्पूर्ण श्रामण्य वाले जीव को अन्य भावरूप परावर्तन (पलटन) नहीं होता, बह सदा एक ही भाव रूप रहता है-शुद्ध स्वभाव में स्थिर परिणति रूप से रहता है, इसलिये वह जीव मोक्षतत्व ही है। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० ] [ पधयणसारो जीवति न तिष्ठति क्व ? अफसे शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादरहित्वेनाफले फलरहिते संसारे । किं ? शीघ्न मोक्षं गच्छतीति । अयमत्र भावार्थः-इत्थंभूतमोक्षतत्वपरिणत पुरुषएवाभेदेन मोक्षस्वरूपं ज्ञातव्यमिति ।।२७२।। उत्थानिका-आगे मोक्ष का स्वरूप प्रकाश करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(अजधाचारविजुत्तो) विपरीत आचरण से रहित, (जदस्थपणिच्छिदो) यथार्थ पदार्थों का निश्चय रखने वाला तथा (पसंतप्पा) शांत स्वरूप (संपुण्णसामाणो) पूर्ण मुनिपद का धारी (सो) ऐसा साधु (इह अफले) इस असार संसार में (चिरं ण जीवदि) बहुत काल नहीं जीता है । निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यकचारित्र-सभ्यषतप-सम्यग्वीर्य ऐसे पांच आचारों की भावना में परिणमन करते रहने से जो अयथाचार व विरुद्ध आंचार से रोहत है, सहज ही आनन्द रूप एक स्वभावधारी अपने परमात्मा को आदि लेकर पदार्थों के ज्ञान-साहित होने से जो यथार्थ वस्तु स्वरूप का ज्ञाता है तथा विशेष परम शांत भाव में परिणमन करने वाले अपने आत्मद्रव्य को भावना सहित होने से जो शांतात्मा है ऐसा पूर्ण साधु शुद्धात्मा के अनुमब से उत्पन्न सुखामृत रस के स्वाद से रहित ऐसे इस फल-रहित संसार में दीर्घकाल तक नहीं ठहरता है अर्थात् शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस तरह मोक्षतत्त्व में लीन पुरुष ही अभेद नय से मोक्ष स्वरूप है ऐसा जानना योग्य है ॥२७२॥ अथ मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वमुद्घाटयति सम्म विविवपवत्था चत्ता उबिहित्थमज्मत्थं । विसयेसु णावसता जे ते सुद्ध' त्ति णिद्दिदछा ।।२७३।। सम्यग्विदितपदार्थास्त्यक्त्वोपधि बहिःस्थमध्यस्थम् । विषयेषु नावसक्ता ये ते मुद्धा इति निर्दिष्टाः ॥२७३।। अनेकान्तकलितसकलजातज्ञेयतत्ययथावस्पितस्वरूपपाण्डित्यशौण्डाः सन्तः समस्तबहिरङ्गान्तरङ्गसङ्गतिपरित्यागविविक्तान्तश्चकचकायमानानन्तशक्तिचतन्यभावस्वरात्मतत्त्वस्वरूपाः स्वरूपगुप्तसुषप्तकल्पान्तस्तत्त्ववत्तितया विषयेषु मनागप्यासक्तिमनासादयन्त: समस्तानुभावयन्तो भगवन्तः शुद्धा एवासंसारघटितविकटकर्मकपाटविघटनपटीयसाध्यवसायेन प्रकटोक्रियमाणाववाना मोक्षतत्वसाधनतत्त्वमवबुध्यताम् ॥२७३॥ भूमिका--अब, मोक्षतत्त्व का साधनतत्त्व प्रगट करते हैं१. सुद्भत्ति (जव०)। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताप पवयणसारो ] [ ६३१ __ अन्वयार्थ-[सम्यग्विदितपदार्थाः] सम्यक् (यथार्थतया) पदार्थों को जानने वाले हैं और [ये] जो [बहिःस्थमध्यस्थम् ] बहिरंग तथा अंतरंग. [उपधिं] परिग्रह को [त्य त्वा] छोड़कर [विषयेषु न अवसक्ताः] विषयों में आसक्त नहीं हैं, [ते] वे [शुद्धाः इति निर्दिष्टा:] 'शुद्ध' हैं ऐसा कहा गया है। टीका--अनेकान्त मय-सकल ज्ञातृतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व के यथार्थ स्वरूप में जो विचक्षण हैं, अन्तरंग में चमत्कृत अनन्तशक्ति वाले चैतन्य से प्रकाशित आत्मतत्व के स्वरूप को, जिसने समस्त बहिरंग तथा अन्तरंग परिग्रह को त्याग करके, भिन्न किया है और आत्म-परिणति से स्वरूप गुप्त तथा सुषुप्त समान (प्रशांत) रहने से जो विषयों में किंचित् भी आसक्ति को प्राप्त नहीं होते,-ऐसे जो सकल-महिमावान् भगवन्त 'शुद्ध' हैं उन्हें ही मोक्षतत्त्व का साधन तत्त्व जानना । (अर्थात वे शुद्धोपयोगी हो मोक्षमार्गरूप हैं), क्योंकि वे अनादि संसार से रचित-बद्ध विकट कर्मकपाट को तोड़ने में अति उग्र प्रयत्न से पराक्रम प्रगट कर रहे हैं। २७३।। तात्पर्यवृत्ति अथ मोक्षकारणमाख्याति; सम्म यिदिदपदत्था संशयविपर्ययानध्यवसायरहितानन्तज्ञानादिस्वभावनिजपरमात्मपदार्थप्रभृतिसमस्तवस्तुबिचारचतुरचित्तचातुर्यप्रकाशमानसातिशयपरमविवेकज्योतिषा सम्यग्विदितपदार्थाः । पुनरपि कि रूपाः ? विसयेसु णावसत्ता पञ्चेन्द्रियविषयाधीनरहितत्वेन निजात्मतत्त्वभाबनारूपपरमसमाधिसंजातपरमानन्दैकलक्षणसुख सुधारसास्वादानुभवनफलेन विषयेषु मनागप्यनासक्ताः । कि कृत्वा ? पूर्व स्वस्वरूपपरिग्रहं स्वीकारं कृत्वा चत्ता त्यक्त्वा । कम ? जहि उपधि परिग्रहं । कि विशिष्टम् ? बहिस्थमज्झत्थं बहिःस्थ क्षेत्राद्यनेकविध मध्यस्थं मिथ्यात्वादिचतुर्दशभेदभिन्नम् । जे एवं गुणविशिष्टाः ये महात्मानः ते सुद्धति णिद्दिहा ते शुद्धात्मानः शुद्धोपयोगिनः सिद्ध्यन्ति इति निर्दिष्टाः कथिताः। अनेन व्याख्यानेन किमुक्त भवति–इत्थंभूता परमयोगिन एवाभेदेन मोक्षमार्गा इत्यवबोद्धव्याः ॥२७३॥ उत्थानिका- आगे मोक्ष का कारण तत्व बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जे) जो (सम्म विशिवपक्त्या) मले प्रकार पदार्थों को जानने वाले हैं, और (बहित्थ) बाहरी क्षेत्रादि परिग्रह (ममत्थं) और अंतरंग रागादि (उर्हि) परिग्रह को (चत्ता) त्याग कर (विसयेसु) पांचों इन्द्रियों के विषयों में (णावसत्ता) आसक्त नहीं हैं। (ते) वे साधु (सुद्धत्ति शिविठ्ठा) शुद्ध साधक हैं, ऐसे कहे गये हैं। जो साधु संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय तीन दोषों से रहित ऐसा अनन्तज्ञान, उस अनन्तज्ञानादि स्त्रभाव वाले निज-परमात्म पदार्थ को आदि लेकर सर्व वस्तुओं के विचार में चतुर-चित्त होकर उससे प्रगट जो अतिशय सहित परम विवेकल्पी ज्योति उसके द्वारा भले प्रकार Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ ] [ पवयणसारो पदार्थों के स्वरूप को जानने वाले हैं तथा पंच-इन्द्रिय-विषयों के अधीन न होकर निज परमात्मतत्त्व को भावना रूप परम समाधि से उत्पन्न जो परमानन्दमय सुखरूपी अमृत उसका स्वाद भोगने के फल से पांचों इन्द्रियों के विषयों में रञ्चमात्र भी आसक्त नहीं हैं और अपने स्वरूप का ग्रहण करके जिन्होंने बाहरी क्षेत्रावि अनेक प्रकार और भीतरी मिथ्यास्वादि चौदह प्रकार परिग्रह को त्याग दिया है, ऐसे महात्मा, शुद्धात्मा-शुद्धोपयोगी ही मोक्ष को सिद्धि कर सकते हैं, ऐसा कहा गया है । अर्थात् ऐसे परमयोगी ही अभेदनय सेमोक्षमार्ग स्वरूप जानने योग्य हैं। अग्र मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वं सर्वमनोरथस्थानत्वेनाभिनन्दयति--- सुखस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दसणं णाणं । सुद्धस्स य णिव्वाणं सो चिचय सिद्धो णमो तस्स ॥२७४॥ शुद्धस्य च श्रामण्यं भणितं शुद्धस्य दर्शनं ज्ञानम् । शुद्धस्य च निर्वाणं स एव सिद्धो नमस्तस्मै ॥२७४॥ यत्तावत्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रयोगपद्यप्रवृत्तकानयलक्षणं साक्षान्मोक्षमार्गभूतं श्रामण्यं तच्च शुद्धस्यव । यच्च समस्तभूतभवद्धावियांतरेककरभ्यितामन्तवस्त्वन्यात्मविश्वसामान्यविशेषप्रत्यक्षप्रतिभासात्मक दर्शनं ज्ञानं च तत् शुद्धस्यैव । यच्च निःप्रतिविम्भितसहजज्ञानानन्दमुद्रितदिव्यस्वभावं निर्वाणं तत् शुद्धस्यंत यश्च टड्डोत्कीर्णपरमानन्दावस्थासु स्थितात्मस्वभावोपलम्भगम्भीरो भगवान् सिद्धः स शुद्ध एव अलं वाग्विस्तरेण, सर्वमनोरथस्थानस्य मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वस्य शुद्धस्य परस्परमङ्गाङ्गिभावपरिणतभाव्यभाधकभावत्वात्प्रस्तमितस्वपरविभागो भावनमस्कारोऽस्तु ॥२७४॥ भूमिका--अब मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्व को (अर्थात् शुद्धोपयोगी को) सर्व मनोरथों के स्थान के रूप में अभिनन्दन (प्रशंसा करते हैं .. अन्वयार्थ- [शुद्धस्य च] शुद्धोपयोगी को [श्रामण्यं भणितं] श्रामण्य कहा है, [शुद्धस्य च] और शुद्धोपयोगी को [दर्शनं ज्ञान ] दर्शन तथा ज्ञान होता है, [शुद्धस्य च] शुद्ध उपयोगी के ही [निर्वाणं] निर्वाण होता है, [स: एव] वही [सिद्ध] सिद्ध होता है, [तस्मै नमः] उन्हें नमस्कार हो । टीका---प्रयम तो, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की युगपदत्व रूप से प्रवर्तमान एकाग्रता जिसका लक्षण है ऐसा साक्षात मोक्षमार्गभूत श्रामण्य 'शुद्ध' के ही होता है, समस्त भूतवर्तमान भावी पर्यायों के साथ मिलित अनन्त बस्तुओं का अन्धयात्मक जो विश्व उसके Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६३३ सामान्य और विरोध के सत्य शिलाराम दर्शन और ज्ञान 'शुद्ध' के ही होते हैं,निर्विघ्न प्रफुल्लित, सहज ज्ञानानन्द मुद्रा वाला दिव्य जिसका स्वभाव है ऐसा निर्वाण, 'शुद्ध' के ही होता है और टंकोत्कीर्ण परमानन्दरूप अवस्थाओं में स्थित आत्मस्वभाव को उपलब्धि से गंभीर भगवान् सिद्ध 'शुद्ध' ही होते हैं, बचन विस्तार से बस हो, सर्व मनोरथों के स्थानभूत, मोक्षतत्व के साधनतत्वरूप, 'शुद्ध' को, भावनमस्कार हो । उस भाव नमस्कार में परस्पर अंग-अंगीरूप से परिणमित भावक-भाव्यता के कारण स्व-पर का विभाग नहीं है ॥२७॥ विशेष-इस गाथा में सिद्ध अवस्था का कथन है तात्पर्यवृत्ति अथ शुद्धोपयोगलक्षण मोक्षमार्ग सर्वमनोरथस्थानत्वेन प्रदर्शयति ;-- भणियं भणितं । किं ? सामपणं सम्यग्दर्शनशानचारित्रैकाग्यशत्रुमित्रादिसमभावपरिणतिहाई साक्षान्मोक्षकारणं यत्श्रामण्यम् । तत्तावत्कस्य ? सुजस्य य शुद्धस्य च शुद्धोपयोगिन एव सुखस्स दंसणं णाणं लोक्योदरविवरबत्तित्रिकालविषयसमस्तवस्तुगतानन्तधमकसमयसामान्यविशेषपरिच्छित्तिसमर्थ यदर्शनज्ञानद्वयं तच्छुद्धस्यैव सुद्धस्य य मिटवाणं अध्यावाधानन्त सुखादिगुणाधारभूतं पराधीनरहितत्वेन स्वायत्तं यनिर्वाणं तच्छद्धस्यैव सो च्चिय सिद्धो यो लौकिक मायाजनरसदिग्विजयमंत्रयंत्रादि सिद्ध विलक्षणः स्वशुद्धात्मोपलम्भलक्षण: टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावो ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मरहितत्वेन सम्यक्त्वाद्यष्टगुणान्तर्भूतानन्तगुणसहितः सिद्धो भगवान् स चैव शुद्ध, एवं णमो तस्स निदोषिनिजपरमात्मन्याराध्याराधकसम्बन्धलक्षणो भावनमस्कारोऽस्तु तस्यैव । अतदुक्तं भवति-अस्य मोक्षकारणभूतशुद्धोपयोगस्य मध्य सर्वेष्टमनोरथा लभ्यन्त इति मत्वा शेषमनोरथपरिहारे तत्रैव भावना कर्तव्येति ॥२७४।। उत्थानिका-आगे आचार्य फिर दिखलाते हैं कि शुद्धोपयोग-स्वरूप जो मोक्षमार्ग है वही सर्व मनोरथ को सिद्ध करने वाला है __ अन्यय सहित विशेषार्थ--(सुद्धस्स य सामण्णं)ोपयोगी के ही साधुपना है, (सुद्धस्स दंसणं गाणं भणियं) शुद्धोपयोगी के ही दर्शन और ज्ञान कहे गये हैं (सुखस्स य णिध्वाणं) शुद्धोपयोगी के ही निर्वाण होता है (सो चिचय सिद्धो) शुद्धोपयोगी ही सिद्ध भगवान हो जाता है (तस्स णमो) इससे उस शुद्धोपयोगी को नमस्कार हो। जो शुद्धोपयोग का धारक साधु है उसी के ही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र को एकतारूप तथा शत्रु मित्र आदि में समभाव की परिणतिरूप साक्षात मोक्ष का मार्ग श्रमणपना कहा गया है शुद्धोपयोगी के ही तीन लोक के भीतर रहने वाले व तीन काल-बर्ती सर्व पदार्थों के भीतर प्राप्त जो अनन्त स्वभाव उनको एक समय में बिना क्रम के सामान्य तथा विशेष रूप से जानने को समर्थ अनन्तदर्शन व अनन्तज्ञान होते हैं तथा शुद्धोपयोगी के ही बाधा Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ ] [ पवयणसारो रहित अनन्त सुख आदि गुणों को आधारभूत पराधीनता से रहित स्वाधीन निर्वाण का लाम होता है । जो शुद्धोपयोगी है वही लौकिक माया, अंजन, रस, दिग्विजय, मंत्र, यंत्र आदि सिद्धियों से विलक्षण, अपने शुद्ध आत्मा को प्राप्तिरूप, टांकी में उकेरे के समान मात्र ज्ञायक एक स्वभावरूप तथा ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों से रहित होने के कारण से सम्यक्त्व आदि आठ गुणों में गभित अनन्त गुण सहित सिद्ध भगवान हो जाता है । इसलिये उसो हो शुद्धोपयोगी को निर्दोष निज परमात्मा में ही आराध्य आराधक संबंध रूप भावनमस्कार हो। भाव यह कहा गया है इस मोक्ष के कारणभूत शुद्धोपयोग के हो द्वारा सर्व इष्ट मनोरथ प्राप्त होते हैं। ऐसा मानकर शेष सर्व मनोरथ को त्यागकर इसी शुद्धोपयोग की ही भावना करनी योग्य है ॥२७४॥ अथ शिष्यजनं शास्त्रफलेन योजयन शास्त्रं समापयति बुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो। जो सो पवयणसारं लहुणा कालेज पापोदि ॥२७॥ बुध्यते शासनमेतत् साकारानाकारचर्यया युक्तः । यः स प्रवचनसारं लघुना कालेन प्राप्नोति ॥२७५॥ यो हि नाम सुविशुद्धज्ञानदर्शनमात्रस्वरूपव्ययथितवृत्तसमाहितत्वात् साकारानाकारचर्यया युक्तः सन् शिष्यवर्गः स्वयं समस्तशास्त्रार्थविस्तरसंक्षेपात्मकश्रुतज्ञानोपयोगपूर्वकानुभावन केवलमात्मानमनुभवन् शासनमेतद्बुध्यते स खलु निरवधित्रिसमयप्रवाहावस्थायित्वेन सकलार्थसात्मिकस्य प्रवचनस्य सारभूतं भूतार्थस्वसंवेद्यदिव्य ज्ञानानन्दस्वभावमननभूतपूर्व भगवन्तमात्मानमवाप्नोति ॥२७५॥ इति तत्त्वबीपिकायां धीमवमृतचन्द्रसूरिविरचितायां प्रवचनसारवृत्तौ चरणानुयोग-सूचिका चूलिका नाम तृतीयः श्रुतस्कन्धः समाप्तः। भमिका---अब (भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य देव) शिष्यजन को शास्त्र का फल बतलाते हुये शास्त्र समाप्त करते हैं अन्वयार्थ-[यः] जा [साकारानाकारचर्यया युक्तः] श्रावक, मुनिचर्या को पालता है और [एतत् शासन] इस शास्त्र को [बुध्यते] जानता है, [सः] वह [लघुना कालेन] अल्पकाल में [प्रवचनसारं] प्रवचन के सार को अर्थात् मोक्ष को [प्राप्नोति] पाता है । टीका--सुविशुद्धज्ञानदर्शन मात्र स्वरूप में अवस्थित होने से श्रावक मा मुनिचर्या को पालता हुआ जो शिष्यवर्ग स्वयं समस्त शास्त्रों के अर्थों के विस्तार संक्षेपात्मक श्रुतज्ञानोपयोगपूर्वक अनुभव द्वारा केवल आत्मा को अनुभवता हुआ, इस शास्त्र को जानता है वह वास्तव में, सत्यार्थ स्वसंवेद्य-दिव्य ज्ञानानन्द जिसका स्वभाव है ऐसे, पहले कभी अनु Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्यणसारो । [ ६३५ भव नहीं किये गये, भगवान् आत्मा को निश्चय से पाता है जो भगवान आत्मा तीनों काल के निरवधि प्रवाह में स्थायी होने से सकल पदार्थों के समूहात्मक प्रवचन का सारभूत है ॥२७५॥ इस प्रकार (श्रीमद भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारशास्त्र की श्रीमद्अमृतचन्द्राचार्यदेव विरचित तत्त्वदीपिका नामक टीका में चरणानुयोगसूचक चूलिका नाम का तृतीय श्रुतस्कंध समाप्त हुआ। तात्पर्यवृत्ति अथ शिष्यजनं शास्त्रफलं दर्शयन् शास्त्रं समापयति ; पप्पोवि प्राप्नोति सो स शिष्यजनः कर्ता ! कम् ? पवयणसारं प्रवचनसारणब्दवाच्यं निजपरमात्मानम्। केन ? लहणा कालेण स्तोककालेन । यः किं करोति ? जो बुज्झवि यः शिष्यजनो बुध्यते जानाति । किम् ? सासणमेयं प्यास्त्रमिदम् । कि नाम ? पवयणसारं प्रवचनसारं सम्यग्ज्ञानस्य तस्यैव ज्ञेयभूतपरमात्मा दिपदार्थानां तत्साध्यस्य निर्विकारस्वसंबेदनज्ञानस्य च तथैव तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्य. ग्दर्शनस्य तद्विषयभूतानेकान्तात्मकपरमात्मादिद्रव्याणां तेन व्यवहारसम्यक्त्वेन साध्यस्य निजशुद्धात्मरुचिरूपनिमाम्यक्त्वरण तापव ३ सातामसिकालानरूपस्य सरागचारित्रस्य तेनैव साध्यस्य स्वशुद्धात्मनिश्चलानुभूतिरूपस्य वीतरागचारित्रस्य च प्रतिपादकत्वात्प्रवचनसाराभिधेयम् । कथंभूतः स: शिष्यजन: ? सागरणगारचारियया जुत्तो सागारानागारचर्यया युक्तः । अभ्यन्तररत्नत्रयानुष्ठानमुपादेयं कृत्वा बहिरङ्गरत्नत्यानुष्ठानं सागारचर्या श्रावकचर्या । बहिरङ्गरत्नत्रयाधारेणाभ्यन्तररत्नत्रयानुष्ठानमनागारचर्या प्रमत्तसंयतादितपोधनचर्येत्यर्थः ।।२७।।। इति गाथापञ्चकेन पञ्चरत्नसंज्ञ पञ्चमस्थलं व्याख्यातम् । एवं णिच्छिदसुत्तत्थपदो' इत्यादि द्वात्रिंशद्गाथाभिः स्थलपञ्चकेन शुभोपयोगाभिधानपचतुर्थान्तराधिकारः समाप्तः ।। इति श्री जयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवत्ती पूर्वोतक्रमेण एवं पणमिय सिद्धे' इत्याद्यकविंशतिगाथाभिरुत्सर्गाधिकारः । तदनन्तर ' हि णिरवेक्खो चागो' इत्यादि त्रिंशद्गाथाभिरपवादाधिकारः । ततः परं 'एयग्गगदो समणो' इत्यादिचतुर्दशगाथाभिः श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गाधिकारः । ततोऽप्यनन्तरं 'णिच्छिदसुतस्थपदो' इत्यादिद्वात्रिंशः गाथाभिः शुभोपयोगाधिकारश्चेत्यन्तराधिकारचतुष्टयेन सप्तनवतिगाथाभिश्चरणानुयोगचूलिका नामा तृतीयों महाधिकारः समाप्त: ।।३॥ अत्राह शिष्यः । परमात्मद्रव्यं यद्यपि पूर्व बहुधा व्याख्यातम् तथापि संक्षेपेण पुनरपि . कथ्यतामिति । भगवानाह-केवलज्ञानाद्यनन्तगुणानामाधारभूतं यत्तदात्मद्रव्यं भण्यते। तस्म च नये: प्रमाणेन च परीक्षा क्रियते । तद्यथा-यत्तावत् शुद्धनिश्चयेन निरुपाधिस्फटिकवत्समस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितं तदेवाशुद्धनिश्चयनयेन सोपाधिस्फटिकवत्समस्तरागादिविकल्पोपाधिसहितम्, शुद्धसद्भुतव्यवहारनयेन शुद्धस्पर्शरसगन्धवर्णानामाधारभूतपुदगलपरमाणुवत्केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधारभूतम् । तदेवाशुद्धसद्भूतव्यवहारनयेनाशुद्धस्पर्शरसगन्धवर्णाधारभूतदयणुकादिस्कन्धवन्मतिमानादिविभावगुणानामाधारभूतम् । अनुपचारितासभृतव्यवहारनयेन चणुकादिस्कन्धसंश्लेशबन्धस्थितपृद्गलपरमाणुवत्परमौदारिकशरीरे वीतरागसर्वज्ञवद्वा विवक्षितैकदेहस्थितम् उपचरितासद्भ तव्यबहारनयेन काष्ठासनाद्युपविष्टदेवदत्तवत्समवशरणस्थितवीतरागसर्वज्ञवद्वा विवक्षितकग्रामगृहादिस्थितम् । Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ ] [ पत्रयणसारो इत्यादि परस्परसापेक्षानेकनयः प्रमीयमाणं व्यबहियमाणं क्रमेणमेचकस्वभावविवक्षितकधर्मव्यापकत्वादेवास्वभावं भवति । तदेवं जीवद्रव्यं प्रमाणेन प्रमीयमाणं मेत्रकस्वभावानामनेकधर्माणां युगपदयापकचित्रपट बदनेकस्वभावं भवति । एवं नयप्रमाणाभ्यां तत्त्वविचारकाले योऽसौ परमात्मद्रव्यं जानाति स निर्विकल्पसमाधिप्रस्तात्रे निर्विकारस्वसंवेदनमानेनापि जानातीति । पुनरप्याह शिष्य:-ज्ञातमेवास्मद्रव्यं हे भगवनिदानीं तस्य प्राप्त्युपायः कथ्यताम् ? भगवानाह-सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकानविकल्पसमाधिसंजातरागाद्युपाधिरहितपरमानन्दैकलक्षणसुखामतरसास्वादानुभवमलभमान; सन पूर्णमासीदिवसे जलकल्लोलक्षभितसमुद्र इव रागद्वेषमोहकल्लोलावदस्वस्थरूपेण क्षोभं गच्छत्ययं जीवस्तावत्काल निजशुद्धात्मानं न प्राप्नोति इति । स एव वीतरागसर्वज्ञप्रणीतोपदेशवत् एकेन्द्रियधिकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तमनष्यदेशकुलरूपेन्द्रियपटुत्वनियाध्यायुष्यबरबुद्धिसद्धर्मश्रवणग्रहणधारणश्रद्धानसेयमविषयसुखनिवर्तनक्रोधादिकषायध्यावर्तनादिपरंपरादुल भान्यपि कथंचित्काकतालीयन्यायेनावाप्य सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वसम्यश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसंजातरामाधुपाधिरहितपरमानन्दकलक्षणसुखामृतरसास्वादानुभवलाभे सत्यमावस्यादिवसे जलकल्लोलक्षोभरहितसमुद्र इव रागद्वेषमोहकल्लोलक्षोमरहितप्रस्ताबे यथा निजशुद्धात्मतत्त्वे स्थिरो भवति तथा तदेव निजशुद्धात्मस्वरूप प्राप्नोति। इति श्रीजय सेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवृत्ती एवं पूर्वोक्तक्रमेण "एस सुरासुर" इत्यायकोत्तरशतगाथापर्यन्तं सम्यग्ज्ञानाधिकारः, तदनन्तरं "तम्हा तस्स णमाई" इत्यादि त्रयोदशोत्तरशतगाथापर्यन्तं ज्ञेयाधिकारापरनामसम्यक्त्वाधिकारः, तदनन्तरं "तबसिद्धे णयमिद्धे" इत्यादि सप्तनवतिगाथापर्यन्तं चारित्राधिकारश्चेति महाधिकारत्रयेणकादशाधिकत्रिंशतगाथाभिः प्रवचनसारप्राभूत समाप्तम् । उत्यानिका-आगे शिष्य जन को शास्त्र का फल दिखाते हुए इस शास्त्र को समाप्त करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई (सागारणगारचरियया जुत्तो) श्रावक या मुनि के चारित्र से युक्त होकर (एयं सासणं) इस शासन या शास्त्र को (बुजावि) समझता है (सो) सो भव्य जोय (लहुणा कालेण) थोड़े ही काल में (पथयणसारं) इस प्रवचन के सारभूत परमात्मपद को (पप्पोदि) पा लेता है। यह प्रवचनसार नाम का शास्त्र रत्नत्रय का प्रकाशक है। तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उसके विषयभूत अनेक धर्मरूप परमात्मा आदि द्रव्य हैं-इन्हीं का श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त्व है इससे साधने योग्य अपने शुद्धात्मा की रुचिरूप निश्चय सम्यग्दर्शन है । जानने योग्य परमात्मा आदि पदार्थों का यथार्थ जानना व्यवहार सम्यग्ज्ञान है। इससे साधने योग्य निर्विकार स्वसंवेदन या स्वानुभव शान होना निश्चय सम्यग्ज्ञान है । व्रत, समिति, गुप्ति आदि का आचरण पालना व्यवहार वा सरागचारित्र है, उसो से ही साधने योग्य अपने शुवात्मा को निश्चल Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ६३७ अनुभूतिरूप बोतराग चारित्र या निश्चय सम्यक्चारित्र है । जो कोई शिष्यजन अपने भीतर "रत्नत्रय ही उपादेय है, इन्हीं का साधन कार्यकारी है" ऐसी रुचि रखकर, बाहरी रत्नत्रय का साधन श्रावक के है, बाहरी रत्नत्रय के आधार से निश्चयरत्नत्रय का अनुष्ठान (साधन) मुनि का आचरण है । अर्थात् प्रमत्तगुणस्थानवर्ती आदि तपोधन की चर्या है-जो श्रावक या मुनि इस प्रवचनसार नाम के ग्रन्थ को समझता है वह थोड़े ही काल में अपने परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है ॥२७॥ ... इस तरह पांच गाथाओं के द्वारा पंच रत्नमय पञ्चम स्थल का व्याख्यान किया गया। इस तरह बत्तीस गाथाओं से व पांच स्थलों से शुभोपयोग नाम का चौथा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ। . इस तरह श्री जयसेन आचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति टीका में पूर्वोक्त क्रम से "एवं पणमिय सिद्धे” इत्यादि इक्कीस गाथाओं से उत्सर्ग चारित्र का अधिकार कहा, फिर "ण हि णिरवेक्खो चागो" इत्यादि तीस गाथाओं से अपवाद चारित्र का अधिकार कहा, पश्चात् "एयग्गगदो समणो" इत्यादि चौदह गाथाओं से श्रामण्य या मोक्षमार्ग नाम का अधिकार कहा-फिर इसके पीछे “सममा सुद्ध वजुत्ता" इत्यादि बत्तीस गाथाओं से शुभोपयोग नाम का अधिकार कहा इस तरह चार अन्तर अधिकारों के द्वारा सत्तानवे गाथाओं में चरणानुयोग चूलिका नामक तीसरा महा अधिकार समाप्त हुआ ।।३।। प्रश्न-यहां शिष्य ने प्रश्न किया कि यद्यपि पूर्व में बहुत बार आपने परमात्म पदार्थ का व्याख्यान किया है तथापि संक्षेप से फिर भी कहिये ? . उसर-तब आचार्य भगवन्त कहते हैं-- जो केवलज्ञानादि अनन्त गुणों का आधारभूत है वह आत्मद्रव्य कहा जाता है उसी की ही परीक्षा नयों से और प्रमाणों से की जाती है । प्रथम ही शुद्ध निश्चयनय को अपेक्षा यह आत्मा उपाधि रहित स्फटिक के समान सर्व रागद्वेषादि विकल्पों की उपाधि से रहित है । वही आत्मा अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा उपाधि सहित स्फटिक के समान सर्व रागद्वेषादि विकल्पों की उपाधि सहित है, वही आत्मा शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय से शुद्ध स्पर्श, रस, गंध, वर्गों के आधारभूत पुद्गल परमाणु के समान केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधारभूत है, वही आत्मा अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय से अशुद्ध स्पर्श, रस, गंध, वर्ण के आधारभूत दो अणु, तीन अणु आदि परमाणुओं के अनेक स्कंधों की तरह मतिज्ञाम आदि विभाव गुणों का आधारभूत है । वही आत्मा अनुपचरित असद्भूत-व्यवहारनय से द्वयणुक आदि स्कंधों के सम्बन्ध रूप बंध में स्थित पुद्गल परमाणु की तरह अथवा परमौदारिक शरीर में वीतराग सर्वज्ञ की तरह विवक्षित एक शरीर में Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ ] [ पचयणसारों स्थित है । (आत्मा को कार्माणशरीर में या तैजसशरीर में स्थित कहना भी अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है) । तथा वही आत्मा उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से काष्ठ के आसन आदि पर बैठे हुए देवदस के समान व समवशरण में स्थित वीतराग सर्वज्ञ के समान किसी विशेष ग्राम गृह आदि में स्थित है इत्यादि परस्पर अपेक्षारूप अनेक नयों के द्वारा जाना हुआ या व्यवहार किया हुआ यह आत्मा अमेचक स्वभाव की दृष्टि से विवक्षित एक स्वभाव में व्यापक होने से एक स्वभावरूप है । वही जीव द्रव्य प्रमाण की दष्टि से जाना हुआ मेचक स्वभावरूप अनेक धर्मों में एक ही काल चित्रपट के समान ध्यापक होने से अनेक स्वभाव स्वरूप है । इस तरह नय प्रमाणों के द्वारा तत्त्व के विचार के समय में जो कोई परमात्म द्रव्य को जानता है । वही निर्विकल्पसमाधि के प्रस्ताव में या अवसर में निर्विकार स्वसंवेदनज्ञान से भी परमात्मा को जानता है अर्थात् अनुभव करता है । . प्रश्न--फिर शिष्य ने निवेदन किया कि भगवन् मैंने आत्मा नामक द्रव्य को समझ लिया अब आप उसकी प्राप्ति का उपाय कहिये। उत्तर-आचार्यभगवन्त कहते हैं-सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञान, केवलदर्शन स्वभाव जो अपना परमात्म तत्त्व है उसका भले प्रकार श्रद्धान, उसी का ज्ञान व उसी का आचरण रूप अभेद या निश्चयरत्नत्रयमय जो निर्विकल्पसमाधि उससे उत्पन्न जो रागादि की उपाधि से रहित परमानन्दमय एक स्वरूप सुखामृत रस का स्वाद उसको नहीं अनुभव करता हुआ जसे पूर्णमासी के दिवस समुद्र अपने जल की तरंगों से अत्यन्त क्षोभित होता है, इस तरह रागद्वेष मोह की कल्लोलों से यह जीव जब तक अपने निश्चल स्वभाव में न ठहरकर क्षोभित या आकुलित होता रहता है तब तक अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को नही प्राप्त करता है । जैसे वीतराग सर्वज्ञ-कथित उपदेश पाना दुर्लभ है, वैसे ही एकेंद्रिय,, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-संज्ञी, पर्याप्त मनुष्य, उत्तम देश, उत्तम कुल, उत्तम रूप इन्द्रियों की विशुद्धता, बाधारहित आयु, श्रेष्ठ बुद्धि, सच्चे धर्म का सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, उसका श्रद्धान करना, संयम का पालना, विषयों के सुख से हटना, कोधादि कषायों से बचना आदि परम्परा दुर्लभ सामग्री को भी कथंचित् काकतालीय न्याय से प्राप्त करके सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञान केवलदर्शन स्वभाव अपने परमात्मतत्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व आचरण रूप अभेद रत्नत्रयमय निर्विकल्पसमाधि से उत्पन्न जो रागादि की उपाधि से रहित परमानन्दमय सुखामृत रस उसके स्वादानुभव का लाभ होते हुए, जंसे अमावस के दिन समुद्र जल की तरंगों से रहित निश्चल क्षोभरहित होता है, राग, द्वेष, मोह की कल्लोलों के क्षोभ से रहित होकर जंसा अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होता जाता है वैसा ही अपने शुद्धात्मस्वरूप को प्राप्त करता है। Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ६३६ इस तरह श्री जयसेन आचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति में पूर्व में कहे कम से "एससुरासुर" इत्यादि एक सौ एक गाथाओं तक सम्यग्ज्ञान का अधिकार कहा गया। फिर “तम्हा तस्स गमाई" इत्यादि एक सौ तेरह गाथाओं तक ज्ञेय अधिकार या सम्यग्दर्शन नाम का अधिकार कहा गया । फिर "तब सिद्ध णय सिद्धे" इत्यादि सत्तानवे गाथा तक चारित्र का अधिकार कहा गया । इस तरह तीन महा अधिकारों के द्वारा तीन सौ ग्यारह गाथाओं से यह प्रवचनप्राभूत पूर्ण किया गया । इस तरह प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति टोका समाप्त हुई। 4 -5 जयसेनाचार्यकृत प्रशस्ति। अज्ञानतमसा लिप्तो मार्गों रत्नत्रयात्मकः । तत्प्रकाशसमर्थाय नमोऽस्तु कुमुदेन्दवे ॥१॥ सरिः श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेपि सत्तपाः। नम्रन्थ्यपदवीं भेजे जातरूपधरोपि यः ॥२॥ ततः श्री सोमसेनोऽभूद्गणी गुणगणाश्रयः । ततिनेयोस्ति यस्तस्मै जयसेनतपोभते ॥३॥ शीघ्र बभूव मालु साधुः सदा धर्मरतो वदान्यः । सनुस्ततः साधुमहीपतिर्यस्तस्मादयं चारुमटस्तनूजः ।।४।। - यः संततं सर्वविदः सपर्यामार्यक्रमाराधनया करोति । स श्रेयसे प्राभूतनामग्रन्थपुष्टात् पितुर्भक्ति विलोपभोरुः ॥५॥ श्रीमन्त्रिभुवनचंनं निजमतवाराशितायना चन्द्रम् । प्रणमामि कामनामप्रबलमहापर्वतैकशतधारम् ॥६॥ जगत्समस्तसंसारिजीवाकारणबन्धवे। सिंधवे गुणरत्नानां नमत्रिभुवनेन्दवे ॥७॥ त्रिभुवनचंनं जं नौमि महासंयमात्तमं शिरसा । यस्योदयेन जगतां स्वान्ततमोराशिकृन्तनं कुरुते ॥६॥ अर्थ--अज्ञानरूपी अन्धकार से यह रत्नत्रयमय मोक्षामार्ग लिप्त हो रहा है उसके प्रकाश करने को समर्थ श्री कुमुदचन्द्र या पाचन्द्र मुनि को नमस्कार हो। इस मूलसंघ में परम तपस्त्री निर्ग्रन्थ पदधारी नग्नमुद्रा शोभित श्री बीरसेन नाम के आचार्य हो गये हैं। उनके शिष्य अनेक गुणों के धारी आचार्य श्री सोमसेन हुए। उनका शिष्य यह जयसेन तपस्वी हुआ। सदा धर्म में रत प्रसिद्ध मालु साधु नाम के हुए हैं। उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है, उससे यह चारुभट नाम का पुत्र उपजा है, जो सर्वज्ञान प्राप्त कर सदा आचार्यों के चरणों की आराधना पूर्वक सेवा करता है, उस चारुभट अर्थात जयसेनाचार्य ने जो अपने पिता को भक्ति के विलोप करने से भयभीत था इस प्रवचन प्राभूत नाम ग्रन्थ की टीका को है। श्रीमान त्रिभुवनचन्द्र गुरु को नमस्कार करता है, जो आत्मा के भावरूपी जल को बढ़ाने के लिये चन्द्रमा के तुल्य हैं और कामदेव नामक प्रबल महापर्वत के सैकड़ों टुकड़े करने वाले हैं। मैं श्री त्रिभुवनचन्द्र को नमस्कार करता हूँ जो जगत् के सब संसारो जीवों के निष्कारण बन्धु हैं और गुण रूपी रत्नों के समुद्र हैं, फिर मैं महासंयम के पालने में श्रेष्ठ चन्द्रमातुल्य श्री त्रिभुवनचन्द्र को नमस्कार करता हूँ जिसके उदय से जगत के प्राणियों के अन्तरंग का अन्धकार समूह नष्ट हो जाता है। इति प्रशस्ति Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिाह .. [अब टोकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव परिशिष्टरूप से कहते हैं--] ननु कोऽयमात्मा कथं चावाप्यत इति चेत्, अभिहितमेतत पुनरप्यभिधीयते । आत्मा हि तावच्चतन्यसामान्यच्याप्तानन्तधर्माधिष्ठात्रेक द्रव्यमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयध्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणपूर्वकस्वानुभवप्रमीयमाणत्वात् । तत्तु व्यनयेन पटमात्रयश्चिन्मात्रम् ॥१॥ पर्यायनयेन तन्तुमात्रबद्दर्शनज्ञानादिमात्रम् ॥२॥ अस्तित्त्वनयेनायोमयगुणकामु कान्तरालबतिसंहितावस्थलक्ष्योन्मुखविशिखवत - 'यह भात्मा कौन है और फैसे प्राप्त किया जाता है इस शंका का उत्तर कहा जा चुका है, और (यहां) फिर भी कहते हैं पहले तो आत्मा वास्तव में चैतन्य सामान्य से व्याप्त अनन्तधर्मों का अधिष्ठाता (स्वामी) एक द्रव्य है, क्योंकि वह आत्म-द्रव्य अनन्तधर्मों में व्यापक जो अनन्त नय उनमें व्याप्त एक श्रुतज्ञान जिसका लक्षण है उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभव से ज्ञात होता है। - वह आत्मद्रव्य द्रव्यनय से, पटमात्र की मांति चिन्मात्र है, (अर्थात् आत्मा द्रव्यनय से एक स्वरूप है ॥१॥ आत्मद्रव्य पर्यायनय से, तंतुमात्र की मांति वशंनज्ञानादिमात्र है, अर्थात् आत्मा पर्यायनय से नाना स्वरूप है ॥२॥ मात्मद्रव्य अस्तित्वनय से स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्व बाला है।-लोहमय, प्रत्यंचा (डोरी) और धनुष के मध्य में निहित, संधानवशा में रहे हुये और लक्ष्योन्मुख वाण की भांति (जैसे कोई वाण स्वद्रव्य से लोहमय है, स्वक्षेत्र से प्रत्यञ्चा और धनुष के मध्य में निहित है, स्वकाल से संधान दशा में है, अर्थात् धनुष पर चढ़ाकर खींची हुई दशा में है, और स्वभाव से लक्ष्योन्मुख है अर्थात् निशान की ओर है, उसी प्रकार आत्मा स्वद्रव्य से चैतन्य मय है, स्वक्षेत्र से लोकाकाश में निहित है, स्वकाल से वर्तमान पर्याय स्वरूप है, स्वभाष से पदार्थों को जान रहा है । ॥३॥ . . Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] स्वद्रव्यक्षेत्रकालमावरस्तिस्थवद ॥३॥ मास्तित्वनयेनानयोमयागुणकार्मु कान्तरालवस्य॑सहितावस्थालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिस्त्रवत् परद्रव्यक्षेत्रकालभावास्तित्ववत् ॥४॥ अस्तित्वनास्तिस्वनयेनायोमयानयोमयगुणकार्मु कान्सरालवय॑गुणकामु कान्तरालतिसहितावस्थासहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुख . प्राक्तनविशिवपक्ष कमतः स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालालित्यनामिकामात । अबक्तव्यनयनायोमयानयोमयगुणकामुकास्तरालवार्यगुणकार्मुकास्तरालवतिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तन . विशिस्त्रवत् युगपत्स्थपरजम्यक्षेत्रकाखमावरवक्तव्यम् ॥६॥ आत्मन्नध्य मास्तित्वमय से परद्रव्य-क्षेत्र काल-भाष से नास्तित्व वाला है,-- अलोहमय, प्रत्यया और धनुष के मध्य में अनिहित, संधानवशा में न रहे हुए और अलक्ष्योन्मुख पहले के बाण की भांति । (जैसे पहले का वाण अन्य बाण के द्रव्य की अपेक्षा से अलोहमय है, अभ्य बाण के क्षेत्र की अपेक्षा से प्रत्यञ्चा और धनुष के मध्य में निहित नहीं है, अन्य माण के काल की अपेक्षा से संधान दशा में नहीं रहा हुआ है और अन्य बाण के भाष की अपेक्षा से अलक्ष्योन्मुख है, उसी प्रकार आत्मा अन्य द्रव्य की अपेक्षा चेतन नहीं है, अन्य द्रव्य के क्षेत्र की अपेक्षा उस क्षेत्र में नहीं है, अन्य द्रव्य के काल को अपेक्षा उस पर्याय रूप नहीं है, अन्य द्रश्य के स्वभाव की अपेक्षा पदार्थों को नहीं जान रहा है ॥४॥ ___ आत्मद्रव्य अस्तित्त्व-नास्तित्त्व नयसे क्रमशः स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्व नास्तित्व वाला है-लोहमय तथा अलोहमय, प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में निहित तथा प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में अनिहित, संधान अवस्था में रहे हुये तथा संधान अवस्था में न रहे हए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहले के वाण की भांति । जैसे पहले का बाण क्रमशः स्वचतुष्टय को तथा परचतुष्टय की अपेक्षा से लोहमयादि और अलोहमयादि है उसी प्रकार आत्मा अस्तित्व-नास्तित्वनय से क्रमशः स्वचतुष्टय की और पर चतुष्टय को अपेक्षा से वेतनमयादि और अधेतनमयादि है। ॥५॥ आत्मप्र अबक्तव्यनय से युगपत् स्वपर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अबक्तब्य है,-- लोहमय तथा अलोहमय, प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में निहित तथा प्रत्यंचा और धनुष के माय में अनिहित, संधान अवस्था में रहे हए तथा संधान अवस्था में न रहे हए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहले के वाण की भांति (जैसे पहले का वाण युगपत स्वचतुष्टय की और परचतुष्टय की अपेक्षा से युगपत् लोहमयादि तथा अलोहमयादि होने से अवक्तव्य है, उसी प्रकार आत्मा अवक्तव्य नय से युगपत् स्वचतुष्टय और परचतुष्टय की अपेक्षा वेतनमय और अचेतनमय आदि होने से अबक्तव्य है।) ॥६॥ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ ] [ पत्रयणसारो वस्तिरत्वक्तारोनयोगका सन्ततिहितावस्थ लक्ष्योन्मुखायोमयानयोमयगुणकामुकान्तराल वर्त्यगुणकामुकान्तरालवतलं हितावस्थासहिताव स्थलक्ष्योन्मुख लक्ष्योन्मुखप्राक्तन विशिखवत् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावर्यु गपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्रकाल भाव चास्तित्ययववक्तव्यम् ॥ ७॥ नास्तित्वा वक्तव्यतयेनायोमयागुणकार्मुकान्तरालवत्यंसं हितावस्था लक्ष्योन्मुखायोमयानयोमय गुणकामुकान्तरालवर्त्य गुणकामुं कान्तरालतिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुख लक्ष्योन्मुखप्राक्तन विशिखवत् परद्रव्य क्षेत्रकाल भावैयुगपत्स्व परद्रव्य क्षेत्रकाल भावश्च नास्तित्त्वदवक्तव्यम | ८ | अस्तित्वनास्तित्वा वक्तव्यनयेनायोमयगुणकार्मुकान्तरा आत्मद्रव्य अस्तित्व अवक्तव्य नय से स्व- द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से तथा युगपत् स्वपरद्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से अस्तित्व वाला अवक्तव्य है - ( स्वचतुष्टय से ) लोहमय, प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में निहित संधान अवस्था में रहे हुए और लक्ष्योन्मुख ऐसे तथा ( युगपत स्वपर चतुष्टय से) लोहमय तथा अलोहमय, प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में निहित तथा प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में अनिहित, संधान अवस्था में रहे हुये तथा संधान अवस्था में न रहे हुये और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहले के वाण की भांति [ जैसे पहले का बाण (१) स्वचतुष्टय से तथा (२) एक ही साथ स्वपर चतुष्टय की अपेक्षा से ( १ ) अस्तित्व तथा ( २ ) अवक्तव्यनय है, उसी प्रकार आत्मा अस्तित्व अववतव्यनय से ( १ ) स्वचतुष्टय की तथा ( २ ) युगपत् स्वपरचतुष्टय की अपेक्षा से ( १ ) अस्ति तथा ( २ ) अवक्तव्य है । ] ॥७॥ आत्मद्रव्य नास्तिस्व-अवक्तव्यमय से पर द्रव्य-क्षेत्र काल भाव से तथा युगपत् स्वपर- द्रवप्रक्षेत्र-काल- माव से नास्तित्व वाला अवषतथ्य है-- ( परचतुष्टय से ) अलोमय, प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में अनिहित, संधान अवस्था में न रहे हुये और अलक्ष्योन्मुख ऐसे तथा ( युगपत् स्वपरचतुष्टय से) लोहमय तथा अलोहमय, प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में निहित तथा प्रत्यञ्चा और के मध्य में अनिहित, संधान अवस्था रहे हुये तथा संधान अवस्था में न रहे हुये और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहले के बाण की भांति । [ जैसे पहले का बाण (१) परचतुष्टय की सथा (२) एक ही साथ स्वपर चतुष्टय की अपेक्षा से ( १ ) नास्ति तथा (२) अववतव्य है, उसो प्रकार आत्मा नास्तित्व अवक्तव्य नय से ( १ ) पर चतुष्टय की तथा ( २ ) युगपत् स्व परचतुष्टय की अपेक्षा से ( १ ) नास्ति तथा (२) अवक्तव्य CREW आत्मद्रव्य अस्तित्व-नास्तित्व- अवक्तव्य नय से स्वद्रव्य क्षेत्र - काल - भाव से परद्रव्य-क्षेत्र - फाल- भाव से तथा युगपत् स्वपर - द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव से अस्तित्ववाला - Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६४३ लवनिमलिसावस्थलक्ष्योन्मवानगोमयागुणका कान्तरालवयंसंहितावस्थालक्ष्योन्मुखायोमयानयोमयगुणकार्मु कान्तरालवर्पगुणकामु कान्तरालयतिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखा लक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत्स्वद्रव्यक्षेत्रकालभाषः परद्रव्यक्षेत्रकालभावयुगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालमावश्चास्तित्वनास्तित्ववदाक्तव्यम् ।। विकल्पनन शिशुकुमारस्थविरकपुरुषवत्सविकल्पम्।१०। अविकल्पनयेनेकपुरुषमात्रवदविकरूपम् ।११। नामनयेन तदात्मवत् शब्दब्रह्मस्पशि ॥१२॥ स्थापनानयेनं मूलित्ववत्सकलपुद्गलालम्बि ।१३। नास्तित्व वाला अवक्तव्य है-(स्वचतुष्टय से) लोहमय, प्रत्यञ्चा और धनुष के मध्य में निहित, संधान अवस्था में रहे हुये और लक्ष्योन्मुख ऐसे-(परचतुष्टय से) अलोहमय-प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में अनिहित संधान अवस्था में न रहे हुये और अलक्ष्योन्मुख ऐसे तथा (युगपत स्वपरचतुष्टय से) लोहमय तथा अलोहमय, प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में निहित तथा प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में अनिहित, संधान अवस्था में रहे हुये तथा संधान अवस्था में न रहे हुये और लक्ष्योन्मुख और अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहले के वाण की भांति । [जैसे पहले का बाण १. स्वचतष्टय की, २. परचतुष्टय की तथा ३. युगपत स्वपरचतुष्टय को अपेक्षा से १. अस्ति, २. नास्ति तथा ३. अवक्तव्य है, उसी प्रकार आत्मा अस्तित्वनास्तित्व-अवक्तव्य नय से १. स्वचतुष्टय की, २. परचतुष्टय को तथा ३. युगपत् स्व-परचतुष्टय की अपेक्षा से १. अस्ति, २. नास्ति तथा ३. अवक्तव्य है।]men आत्मद्रव्य विकल्पनय से, बालक, कुमार और वृद्ध ऐसे एक पुरुष की भांति, सविकल्प है, जैसे कि एक पुरुष बालक, कुमार और वृद्ध के भेद से युक्त है वैसे ही आत्मा भी नारक, तिथंच, मनुष्य, देव, सिद्ध भेद से युक्त है, अतः सविकल्प है ॥१०॥ आत्मद्रव्यअधिकल्पनय से, एक पुरुषमात्र की भांति, अविकल्प है अर्थात् अभेवनय से आत्मा नारक तिथंच आदि के भेद से रहित एक आत्म-तथ्य मात्र है जैसे कि एक पुरुष बालक, कुमार और युद्ध के भेद से रहित एक पुरुषमात्र है ॥११॥ _ आत्मद्रव्य नाममय से, नाम वाले की भांति, शब्दब्रह्म को स्पर्श करने वाला है अर्थात आत्मा नामनय से शब्दब्रह्म का वाच्य है, जैसे कि नाम वाला पदार्थ उसके नामरूप शब्द से कहा जाता है ॥१२॥ आत्मद्रव्य स्थापनानय से, मूतित्व की भांति, सर्व पुद्गलों का अवलम्बन करने बाला है अर्थात् स्थापनानय से आत्मद्रस्य को पुद्गल में स्थापना की जाती है, जैसे मूर्ति की ॥१३॥ आत्मद्रव्य द्रव्यनय से बालक सेठ की भांति और श्रमण राजा की भांति, अनागत Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ ] [ पश्यणसारो द्रव्यनयेन माणवकष्ठिश्रमणपार्थिवषदनागलातीतपर्यायोद्भासि ॥१४॥ भावनयेन पुरुषायितप्रवृत्तयोषिदृसदात्वपर्यायोल्लासि ॥१५॥ सामान्यनघेनहारनपदामसूत्रवयापि ॥१६॥ विशेषनयेन तदेकमुक्ताफल वदम्यापि ।।१७।। नित्यनयन नटवदवस्थायि ॥१८॥ अनित्यनपेन रामरावणवदनवस्थायि ॥१६॥ सर्वगतनयेन विस्फारिताच वत्सर्ववति ।।२०॥ असर्वगतनयेन मीलिताक्षत्राववात्मवति ॥२१॥ और अतीतपर्याय से प्रतिभासित होता है अर्थात् आत्मा द्रव्यनय से भावी और भूत पर्यायरूप से लक्षित होता है। जैसे सेठ का बालक सेठरूप भावी पर्याय से और मुनि राजारूप भूतपर्याय से लक्षित होते हैं ॥१४॥ आत्मद्रव्य भावनय से, पुरुष के समान प्रवर्तमान स्त्री की मांति, तत्काल (वर्तमान) को पर्यायरूप से उल्लसित-प्रकाशित प्रतिभासित होता है अर्थात् आत्मा भावनय से वर्तमान पर्यायरूप से प्रकाशित होता है, जैसे कि प्रवर्तमान स्त्री वर्तमान पुरुषरूप पर्याय से प्रतिभासित होती है ॥१५॥ आत्मद्रव्य सामान्यनय से, हार-माला-कंठी में डोरे की भांति, व्यापक है, अर्थात् आत्मा सामान्यनय से सवं पर्यायों में व्याप्त होकर रहता है, जैसे मोती की माला का डोरा सारे मोतियों में व्याप्त होकर रहता है । ॥१६॥ __ आत्मद्रव्य गाय से, के एक लो यो जाति, व्यापक है, अर्थात् आत्मा विशेषनय की अपेक्षा मात्र विवक्षित पर्याय स्वरूप होने से द्रव्य की समस्त पर्यायों में व्यापक न होने से अध्यापक है, जैसे पूर्वोक्त माला का एक मोती सारी माला में अध्यापक है ।१७॥ आत्मद्रव्य नित्यनय से, नट की भांति, अवस्थायी है, अर्थात् आत्मा नित्यनय से नित्य-स्थायी है. जसे राम-रावणरूप अनेक अनित्य स्वांग धारण करता हुआ भी नट तो यह का बही नित्य है। इस प्रकार आत्मा भी मनुष्य तिर्यच आदि पर्यायों को धारण करता हुआ भी आत्मद्रव्य तो वह का वही है, इसलिये नित्य है ॥१८॥ __ आत्मद्रव्य अनित्यनय से, राम-रावण की मांति, अनवस्थायी है अर्थात् आत्मा अनित्यनय से अनित्य है, जैसे नट राम-रावण रूप स्वांग की अपेक्षा अनित्य है। उसी प्रकार आत्म द्रव्य भी पर्यायाथिक नय की अपेक्षा अनित्य है ॥१६॥ ___आत्मद्रव्य सर्वगतनय से खुली हुई आंख की भांति, सर्ववर्ती (सब में व्याप्त होने वाला) है। [ज्ञान जानने की अपेक्षा सर्व पदार्थों में जाता है, इसलिये सर्वगत है।] ॥२०॥ आत्मद्रव्य असर्वगतनय से, मीनी हुई (बन्द) आंख की भांति, आत्मवर्ती (अपने में रहने वाला है। [प्रवेशत्व गुण की अपेक्षा आत्मद्रव्य अपने प्रदेशमात्र में रहने से आत्मवर्ती है असवंगत है।] ॥२१॥ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] | ६४५ शून्यनयेन शून्यागारयत् केवलोद्भासि ||२२|| अशून्यनयेन लोकाक्रान्तनौबन्मिलितोद्भासि ॥ २३॥ ज्ञानयाद्वैतनयेन महदिन्धनभारपरिणतधूमकेतुववेकम् ||२४|| ज्ञानयद्वैतनयेन परप्रतिविम्बसंपृक्तवर्पणवदनेकम् ||२५|| नियतिनयेन नियमितोष्णयवह्निव नितम्वभावभासि ||२६|| अनियतिनयेन नियत्यनियमित ौष्ण्यपानीयवदनियतस्य भावभासि ॥२७॥ स्वभावनयेन निशिततीक्ष्णकण्टकवत्संस्कारानर्थक्यआत्मद्रव्य शून्यनय से शून्य (खाली) घर की भांति, एकाकी (अमिलित) भासिस होता है ||२२|| , आत्मद्रव्य अशुन्यनय से, लोगों से भरे हुये जहाज की भांति मिलित मासित होता है ||२३|| आत्मद्रव्य ज्ञानज्ञेय अद्वैतनय से (ज्ञान और ज्ञेय के अद्वैतरूपस्य से) महान् ईन्धनसमूहरूप परिणत अग्नि की भांति, एक है ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार दोनों स्वरूप होने से अद्वैत है, इसलिये एक है ॥२४॥ आत्मद्रव्य ज्ञान ज्ञेय इंतनय से, परके प्रतिबिंबों से संपृक्त दर्पण को भांति, अनेक है अर्थात् आत्मा में ज्ञेय प्रतिभासित होते हैं । उन ज्ञेयों के प्रतिबिंब की अपेक्षा आत्मा अनेक है, जैसे पर- प्रतिबिम्बों के संगवाला वर्पण अनेकरूप है ||२५|| आत्मद्रव्य नियतिनय से निघतस्वभाव रूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित (नियत) होती है ऐसी अग्नि की भांति । आत्मा नियतिनय से नियत स्वभाव वाला भासित होता है, जैसे अग्नि के उष्णता का नियम होने से अग्नि नियतस्वभाव वाली भासित होती है । उसी प्रकार आत्मा के चैतन्य का नियम होने से आत्मा नियत स्वभाव बाली है ||२६|| आत्मद्रव्य अनियतनय से अनियतस्वभावरूप भासित होता है, जिसके उष्णता नियति (नियम) से नियमित नहीं है, ऐसे पानी की भांति आत्मा अनियतिनय से अनियंतिस्वभाव वाला भासित होता है जैसे पानी के (अग्निनिमित्तक) उष्णता अनियत होने से पानी अनियत स्वभाव वाला भासित होता है । पानी अग्नि का निमित्त मिले तो उष्ण हो जावे निमित्त न मिले तो उष्ण न हो विवक्षित जल के विवक्षित क्षेत्र च विवक्षित काल में विवक्षित अग्नि के द्वारा उष्ण होना नियत नहीं है। इस प्रकार आत्मा की नैमित्तिक पर्यायें व उनका क्षेत्र व काल नियत नहीं है, अनियत है ॥२७॥ आत्मद्रव्य स्वभावनय से संस्कार को निरर्थक करने वाला है ( अर्थात् आत्मा को स्वभाव नय से संस्कार निरुपयोगी है), जिसकी किसी से नोक नहीं निकाली जाती ( किन्तु जो स्वभाव से ही नुकीला है) ऐसे पंने काँटे की भांति । आत्मा स्वभाव से परिणमनशील होने से संस्कारों को निरर्थक करने वाला है ॥२८॥ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ ] [ पवमणसारो कारि ॥२८॥ अस्वभावनयेनायस्कारनिशिततीक्ष्णविशिखवत्संस्कारसार्यक्यकारि ॥५६॥ कालनयेन निदाघदिवसानुसारिपच्यमानसरकारपालयत्समगायन सिद्विः ।।३॥ अकालनऐन कृत्रिमोमपाच्यमानसहकारफलकत्समयानायत्तसिद्धिः ।।३१॥ पुरुषकारनयेन पुरुषकारोपलब्धमधुकुक्कुटीकपुरुषकारवादीवचत्नसाध्यसिद्धिः॥३२।। देवनयेन पुरुषकारवादिवत्तमधुकुक्कुटीगर्भलब्धमाणिक्यदेववावियदयत्नसाध्य आत्मद्रव्य अस्वभाव नय से संस्कार को सार्थक करने वाला है (अर्थात आत्मा को अस्वभाव नय से संस्कार उपयोगी है), जिसकी (स्वभाव से नोक नहीं होती, किन्तु संस्कार करके) लहार के द्वारा नोक निकाली गई हो ऐसे पैने बाण की भांति । आत्मा अस्वभाव नय से कर्मों के द्वारा रागी द्वेषी किया जाता है इसलिये संस्कार को सार्थक करने वाला है ॥२६॥ आत्म द्रव्य काल नय से जिसकी सिद्धि समय पर आधार रखती है ऐसा है गर्मी के दिनों के अनुसार पकने वाले आत्रफल की भांति । कालनय से कार्य सिद्धि समय के अधीन है, जैसे गर्मी के दिनों के अनुसार आम्रफल पकता है अथवा आयु पूर्ण होने पर जीव की पर्याय समाप्त होती है ॥३०॥ ___ आत्मद्रव्य अकालनय से जिसकी सिद्धि समय पर आधार नहीं रखती है, कृत्रिम गर्मी से पकाये गये आम्रफरन की भांति । अकालनय से कार्य की सिद्धि समय के अधीन नहीं है, अर्थात् कार्य का काल निश्चित नहीं है, जब कार्य के अनुकूल सामग्री मिल जाय तब ही कार्य हो जाता है। जैसे जीव के मोक्ष माने में काल का नियम नहीं है। बाह्य अभ्यन्तर सामग्री मिलने पर मोक्ष होता है ।।३१॥ आत्मद्रव्य पुरुषकार मय से जिसकी सिद्धि यत्नसाध्य है ऐसा है, जिसे पुरुषकार से नोबू का वृक्ष प्राप्त होता है (उगता है) ऐसे पुरुषकारवादी की भांति । पुरुषार्थनय से कार्य की सिद्धि बुद्धि-पूर्वक प्रयत्न से होता है, जैसे किसी पुरुषार्थवादी मनुष्य को पुरुषार्थ से नीबू का वृक्ष प्राप्त होता है ॥३२॥ ___'इह चेष्टितदृष्टपौरुषादीन्यपि पर्यायनामानि'-अष्टसहस्री पृ० २५६ ___ आत्मद्रव्य देवनय से जिसकी सिद्धि अयत्नसाध्य है (यत्न बिना होता है) ऐसा है, पुरुषकारवादी द्वारा प्रदत्त नीबू के वृक्ष के भीतर से जिसे (बिना यत्न के, देव से) माणिक प्राप्त हो जाता है ऐसे देववादो को भांति । कार्य की सिद्धि देवनय से योग्यता पर आधारित है ॥३३॥ 'योग्यता (भध्यता) पूर्वकर्मदैवमदृष्टमिलि पर्यायनामानि'-अष्टसहस्री पृ० २५६ । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६४७ सिद्धिः ॥३३॥ ईश्वरनयेन धात्रीहटायलेहमानपान्यबालकरत्यारतन्ध्यभोक्तु ॥३४॥ अनीश्वरनयेन स्वच्छन्ददारितकुरङ्गकण्ठीरववस्वातन्त्र्यभोक्तु ॥३५॥ गुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकवद्गुणन ग्राहि ॥३६॥ अगुणिनयेनोपाध्यायविनीयमानकुमारकाध्यक्षवत् केवलमेव साक्षि ॥३७॥ कर्तृनयन रञ्जकवब्रागादिपरिणामक अकर्तृगास्वरमा नगरसयलोबरूमेव साक्षि ॥३६॥ भोक्तनपेन हिताहितानभोक्तव्याधितवत्सुखदुःखाविभोक्त ॥४०॥ अभोक्तृनयेन हिताहितान्नभोक्तृव्याधिताध्यक्षधन्वन्तरिचरवत् केवलमेव साक्षि ॥४१॥ ___ आत्मद्रव्य ईश्वर नय से परतंत्रता भोगने वाला है, धाय की दुकान पर दूध पिलाये जाने वाले राहगीर के बालक की भांति । ईश्वरनय से कार्य की सिद्धि निमित्ताधीन है जैसे सिद्ध जीय की उर्ध्व मति धर्म द्रव्य-अधीन है और परिणमन काल द्रव्य अधीन है ॥३४॥ आत्मद्रव्य अनीश्वर नय से स्वतन्त्रता भोगने वाला है, हिरन को स्वच्छन्दता (स्वतन्त्रता, स्वेच्छा) पूर्वक फाड़कर खा जाने वाले सिंह की भांति । अनीश्वरनय से कार्य की सिद्धि निमित्ताधीन नहीं है, जैसे जीव का अस्तित्व निमित्ताधीन नहीं है ॥३५॥ __ आत्मद्रव्य गुणीनय से गुणग्राही है, शिक्षक के द्वारा जिसे शिक्षा दी जाती है ऐसे कुमार की भांति ॥३६॥ आत्मद्रव्य अगुणीनय से केवल साक्षी ही है (गुणग्राही नहीं है), जसे शिक्षक के द्वारा जिस कुमार को शिक्षा दी जा रही है उस कुमार का रक्षक पुरुष गुणग्राही नहीं है ॥३७॥ आत्मद्रव्य कर्तृनय से, रंगरेज की भांति, रागादि परिणाम का कर्ता है अर्थात आत्मा कनिय से रागादिपरिणामों का कर्ता है, जैसे रंगरेज रंगने के कार्य का कर्ता आत्मद्रव्य अकर्तृनय से केवल साक्षी हो है रागादि का कर्ता नहीं है, जैसे कार्य में प्रवृत्त रंगरेज को देखने वाले पुरुष ॥३६।। आत्मद्रव्य भोक्तनम से सुखदुःखादि का भोक्ता है, जैसे हितकारी-अहितकारी अन्न को खाने वाला रोगी सुख या दुःख को भोगता है ॥४०॥ ___आत्मद्रव्य अभोक्तनय से केवल साक्षी ही है, सुख दुःख नहीं भोगता, जैसे हितकारी अहितकारी अन्न को खाने वाले रोगी को देखने वाला वैद्य है ॥४१॥ आत्मद्रव्य कियानय से अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि साधित हो, ऐसा है, जैसे खम्भे से सिर फोड़ने पर अंधे को दृष्टि उत्पन्न होकर निधान प्राप्त हो जाय। ऐसे अंधे Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ ] [ पवयणसारो क्रियानयेन स्थाणुभिन्नमूर्धजातदृष्टिलब्ध निधानान्धवदनुष्ठानप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ॥ ४२ ॥१ ज्ञाननयेन चणकमुष्टिको तचिन्तामणिगृहको वाणिजय द्विवेकप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ॥ ४३ ॥ व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तर संयुज्यमान वियुज्यमानपरमाणुवबन्धमोक्ष यो सानुर्वात ॥४४॥ निश्चययेन केवलबध्यमान मुख्य मानबन्धमोक्षोचित स्निग्ध रूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुयद्बन्धमोक्षयोरद्वैतानुवति ॥४५॥ अशुद्धrयेन घटशरावविशिष्ट मृण्मा श्रवत्सोपाधिस्वभावम् ॥४६॥ शुद्धनयेन केवल मुम्माश्रवन्निरुपाधि की भांति क्रियानय से आत्मा अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि हो, अंधपुरुष को पत्थर के खम्भे के साथ सिर फोड़ने से सिर के रक्त का आंखें खुल जायें और निधान ( खजाना ) प्राप्त हो जाय ॥१॥४२॥ आत्मद्रव्य ज्ञाननय से विवेक की प्रधानता से सिद्धि साधित हो, ऐसा है, जैसे मुट्ठी भर चने देकर चिंतामणि रत्न खरीदने वाला घर के कौने में बैठा हुआ व्यापारी ॥ ४३ ॥ आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बंध और मोक्ष में दूसरे द्र्थ्य अर्थात् पुद्गल द्रव्य के साथ बंधता और छूटता है, बंधक (बांधने वाले) और मोचक ( छोड़ने वाले ) अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होने वाले और उससे वियुक्त होने वाले परमाणु की भांति । व्यवहारनय आत्मा मंत्र और पक्ष में पाले मुद्गल फर्म के साथ बंधने और छूटने से द्वंत को प्राप्त होता है जैसे परमाणु अन्य परमाणु के साथ संयोग को पानेरूप द्वैत को प्राप्त होता है और परमाणु के मोक्ष में वह परमाणु अन्य परमाणु से पृथक् होने रूप द्वैत को पाता है । १२४४।। ऐसा है, जैसे किसी विकार दूर होने से आत्मद्रव्य निश्चयनय से बंध और मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करने वाला है, अकेले बध्यमान और मुध्यमान ऐसे बंधमोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्वगुणरूप परिणत परमाणु की भांति निश्चयनय से अपने रागादि और वीतराग परिणामों के कारण आत्मा अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है, जैसे बंध और मोक्ष के योग्य स्निग्धत्व या रूक्षत्व गुणरूप परिणमित होता हुआ परमाणु अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है ॥४५॥ आत्मद्रव्य अशुद्धrय से, घट और रामपात्र से विशिष्ट मिट्टी मात्र की भांति, रागद्वेष रुप सोपाधिस्वभाव वाला है ॥४६॥ आत्मद्रव्य शुद्धनय से केवल मिट्टी मात्र को भांति, निरुपाधिस्वभाववाला है ||४७|| इसलिये कहा है 'जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयबादा । जावदिया गयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ॥ १. गो० क० ग्रा० ८१४ । Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ६४६ स्वभावम् ॥४७॥ तयुक्तम्-"जावदिया वयणयहा तावदिया खेव होंति णयवादा । मावदिया भयवाचा ताबदिया पव होंति परसमया ।" "परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सम्बहा बयणा । जइणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचि वयणादो ॥" एयमनया विशा प्रत्येकमनन्तधर्मव्यापकानन्तयै निरूप्यमाणमुदन्बदन्तरालमिलवलनीलगाङ्गयामुनोदकभारवदनन्तधर्माणां परस्परमतद्भावमात्रणाशक्यविवेचनस्वादमेचकस्त्रभावैफधर्मव्यापककमित्याधयोवितकान्तात्मात्मद्रव्यम् । युगपदनन्तधर्मव्यापकानातनयव्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणेन निरूप्यमाणं तु समस्ततरङ्गिणोपयःपूरसमवायात्मककमकराकरवनन्तधर्माणां वस्तुत्वेनाशक्यविवेचनत्वान्मेचकस्वभावानन्तधर्मव्याप्येकमित्यात् यथोदितामेकान्तात्मात्मद्रव्यम् । परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सम्वहा बयणा। जहणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचि वयणादो ।। अर्थ---जितने वचनपंथ हैं उतने वास्तव में नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय (मत) हैं। ___परसमयों (मिथ्यामतियों) का बचन 'सर्वथा' कहा जाने से वास्तव में मिथ्या है, और जनों का वचन 'कथंचित्' कहा जाने से वास्तव में सम्यक है। इस प्रकार इस सूचनानुसार एक एक धर्म में एक एक नय (व्यापे), इस प्रकार अनन्त-धों में व्यापक अनन्त नयों से निरूपण किया जाय तो, समुद्र के भीतर मिलने वाले श्वेत-नील गंगा-यमुना के जलसमूह की भांति, अनन्तधर्मों को परस्पर अतद्भावमात्र से पृथक् करने में अशक्य होने से, आस्मद्रव्य अमेचफ स्वभाव वाला एक धर्म में व्याप्त होने वाला, एक धर्मी होने से यथोक्त एकान्तात्मक (एकधर्मस्वरूप) है। परन्तु युगपत् अनन्तधर्मों में व्यापक ऐसे अनन्त नयों में व्याप्त होने वाला एक श्रुतनानस्वरूप प्रमाण से निरूपण किया जाय तो, समस्त नदियों के जलसमूह के समवायात्मक (समुवायस्वरूप) एक समुद्र की भांति, अनन्तधर्मों को वस्तुरूप से पथक् करना अशक्य होने से आस्मद्रव्य मेचक स्वभाव वाले अनन्तधमों में व्याप्त होने वाला, एक धर्मी होने से यथोक्त अनेकान्तात्मक (अनेकधर्मस्वरूप) है। [जैसे-एक समय एक नदी के जल को जानने वाले ज्ञानांश से देखा जाय तो समुद्र एक नदी के जलस्वरूप ज्ञात होता है, उसी प्रकार एक समय एक धर्म को जानने वाले एक नय से देखा जाय तो आत्मा एक धर्मस्वरूप ज्ञात होता है, परन्तु जैसे एक ही साथ सर्व नदियों के जल को जानने वाले ज्ञान से देखा जाय तो समुद्र सर्व नदियों के जलस्वरूप जात होता है, उसी प्रकार एक ही साथ सर्व धमों को जानने वाले प्रमाण से देखा जाय तो आत्मा अनेक धर्मस्वरूप ज्ञात होता है। इस प्रकार एक नय से देखने पर आत्मा एकान्तात्मक है और प्रमाण से देखने पर अनेकान्तात्मक है।] १. मो० को गा० ८६५। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० ] | पवयणसारो अब उस ही आशय को काव्य द्वारा कहकर, यह कथन समाप्त किया जाता है कि 'आत्मा कैसा है ?' मालिनी छन्द) स्यात्कारश्रीवास वश्यनयोधः पश्यन्तीत्थं वेतु प्रमाणेन चापि । पश्यन्त्येव प्रस्फुटानन्तधर्मस्वात्मव्यं शुद्ध चिन्मात्रमत्तः ॥१६॥ अर्थ- - इस प्रकार स्थात्कारश्री (स्यात्काररूपी लक्ष्मी ) के निवास के वशीभूत वर्तते नयसमूहों से देखें तो भी और प्रमाण से देखें तो भी स्पष्ट अनन्तधर्मों वाले निज आत्मद्रश्य को भीतर में शुद्ध चैतन्यमात्र देखते ही हैं । इस प्रकार आत्मद्रव्य कहा गया। अब उसकी प्राप्ति का प्रकार ( उपाय ) कहा जाता है इत्यभिहितमात्मद्रव्यमिदानीमेतदवाप्तिप्रकारोऽभिधीयते-अस्य तावदात्मनो नित्यमेवानाविपौद्गलिककर्मनिमित्तमोहभावनानु नाव कूणितात्मवृत्तितया तोयाकरस्येवात्मन्येव क्षुभ्यतः क्रमप्रवृत्ताभिरनन्त भिज्ञेतिव्यक्तिभिः परिवर्तमानस्य ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततथा जयभूतासु बहिरर्थव्यक्तिषु प्रवृत्तमंत्रीकस्य शिथिलितात्म विवेकतयात्यन्त बहिर्मुखस्य पुनः पौद्गलिककमं निर्मापकरागद्वेषद्वैतमनुवर्तमानस्य दूरत एवात्मावाप्तिः । अथ यदा त्वयमेव प्रचण्डकर्मकाण्डोच्चण्डीकृताखण्डज्ञानकाण्डत्वेनानादिपौद्गलिक कर्मनिमितस्य मोहस्य वध्यघातक विभागज्ञानपूर्वक विभागकरणात् केवलात्मभावानुभावनिश्वलोकृतवृत्तितया तोयकर इवात्मन्येवातिनिःप्रकम्पस्तिष्ठन् युगपदेव व्याप्यानन्ता ज्ञप्तिव्यक्ती रवकाशाभावान्न जातु विवर्तते, तदास्य ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततया ज्ञेयभूतासु बहिरर्थव्यक्तिषु न नाम मंत्री प्रवर्तते । ततः सुप्रतिष्ठितात्मविवेकतयात्यन्तमन्तर्मुखीभूतः पौद्गलिककर्मनिर्मापरागद्वेषानुवृत्तिदूरीभूतो दूरत एवानुभूतपूर्व पूर्वज्ञानानन्वस्वभावं भगवन्तमात्मानमवाप्नोति । अवाप्नो त्वेव ज्ञानानन्दात्मानं जगदपि परमात्मानमिति । ( १ ) अनादि पौद्गलिक कर्म के निमित्त से होने वाली मोह भावना ( मोह के अनुभव के) प्रभाव से सदा चक्कर खाती हुई आत्म-परिणति के द्वारा समुद्र के समान ( जो आत्मा) अपने में ही क्षुब्ध है, | २] क्रमशः प्रवर्तमान अनन्त ज्ञप्तियों को व्यक्तियों (जाननरूप पर्यायों) के द्वारा ओ परिवर्तन को प्राप्त है [३] इग्लियों की व्यक्तियों के लिये जो निमित्त है ऐसे ज्ञेयभूत बाह्य पदार्थों में जिसकी मंत्री प्रवर्तती है विवेक के शिथिल (अभाव) होने से अत्यन्त बहिर्मुख है, [ ५ ] पौगलिक कर्म (ज्ञानावरणादि) को रचने वाले ऐसे राग द्वेषरूप जो परिणमित होते हैं ( रागद्वेष रूप आत्मा के परिणाम ज्ञानावरणादि पौद्गलिक कर्मों के रचने वाले हैं, वे रागद्वेषरूप परिणाम आत्मा में होते हैं), उपरोक्त पांच विशेषण वाले इस आत्मा को आत्म-प्राप्ति दूर है । ४ ] आत्मा [ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६५१ परन्तु जब यही आत्मा प्रचण्ड कर्मकाण्ड द्वारा अखण्ड ज्ञानकाण्ड को प्रचण्ड करने से अनादि-पौद्गलिक कर्मरचित मोह को बध्य-धातक के विभागज्ञानपूर्वक विभक्त करने से स्वयं केवल आत्म-भावना के (आत्मानुभव के) प्रभाव से परिणति को निश्चल करने से समुद्र की भांति अपने में ही अति निष्कंप रहता हुआ एक साथ हो अनन्त ज्ञप्ति व्यक्तियों में व्याप्त होकर अवकाश के अभाव के कारण सर्वथा वियतन (परिवर्तन) को प्राप्त नहीं होता, तब जाप्त की व्यक्तियों के निमित्त कारण होने से जो ज्ञेयभत हैं, ऐसी बाह्य-पदार्थ की व्यक्तियों के प्रति उसे वास्तव में मंत्री प्रतित नहीं होती है, इसलिये आत्म-विवेक को सुप्रतिष्ठितता (सुस्थिति) के द्वारा अत्यन्त अन्तमख होकर तथा पौद्गलिक कर्मों के जो रचयिता ऐसी रागद्वेषद्वैतरूप परिणति से दूर होकर यह आत्मा पूर्व में अनुभव नहीं किये गये अपूर्व ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान् आत्मा को आत्यन्तिक रूप से ही प्राप्त करता है । जगत् भी ज्ञानानन्दात्मक परमात्मा को अवश्य प्राप्त करो। भवति चात्र श्लोक: आनंदामृतपूरनिर्भरवहत्केवल्यकल्लोलिनीनिर्मग्नं अगदीक्षणक्षममहाससंवेदनश्रीमुखम् । स्यात्काराबजिनेशशासनवशादासाहयतालसतस्वं तत्त्वं वृतजात्यरत्नकिरणप्रस्पष्ट मिष्टं जनाः ॥२०॥ अर्थ--आनन्वामृत के पूर से भरपूर बहती हुई फैवल्यसरिता में [मुक्तिरूपी नदी में] जो डबा हुआ है, जगत् को देखने में समर्थ महासंवेदनरूपी श्री [महाज्ञानरूपी लक्ष्मी] जिसमें मुख्य है, जो उत्तम रत्न-किरण की भांति स्पष्ट है और जो इष्ट है ऐसे उल्लसित [प्रकाशमान-आनन्दमय] स्वतत्व को जन स्यात्कारलक्षण वाले जिनेश-शासन के वश से प्राप्त हों। [स्याकार' जिसका चिह्न है ऐसे जिनेन्द्र भगवान् के शासन का आश्रय लेकर के प्राप्त करो ] (शार्दूल-विक्रीडित छन्द) व्याख्येयं किस विश्वमात्मसहितं ध्यास्या त गम्फो गिरा, व्याख्यातामृतचन्द्रसूरिरिति मा मोहाज्जनो वल्गतु । बलगत्वच विशुद्धबोधकलया स्पाद्वादविद्याबलात, लश्यक सकलात्मशाश्वतमिदं स्वं तत्त्वमव्याकुलः ॥२१॥ 'आत्मा सहित विश्व व्याख्येय [समझाने योग्य ] है, वाणी का गुंथन व्याख्या है और अमृतचन्द्रसूरि व्याख्याता है' इस प्रकार मनुष्यों ! मोह से मत नाचो [मत फूलो]. Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ । [ पवयणसारो [किन्तु] स्याद्वाद विद्या बल से विशुद्ध ज्ञान की कला द्वारा इस एक समस्त शाश्वत स्वतत्त्व को प्राप्त करके आज [लोगो] अव्याकुलरूप से नाचो [परमानन्द परिणामरूप परिणत होमो । [अब काव्य द्वारा चैतन्य की महिमा गाकर, वही एक अनुभव करने योग्य है ऐसी प्रेरणा करके इस परम पवित्र परमागम को पूर्णाहुति की जाती है---] इति गदितमनीचस्तस्वमुच्चावचं यत्, चिति तदपि किलाभूत्कल्पमग्नौ हुतस्य । अनुभुवतु तच्चेपिचच्चिदेवाघ यस्माद, अपरमिह न किचित्तत्त्वमेकं परं चित् ॥२२॥ अर्थ---इस प्रकार [ इस परमागम में] अमन्यतया [बलपूर्वक, जोरशोर से] जो थोड़ा बहत तत्त्व कहा गया है, वह सब चैतन्य के मध्य वास्तव में अग्नि में होमी गई वस्तु के समान [स्थाहा] हो गया है। [अग्नि में होमे गये घी को अग्नि खा जाती है, मानो कुछ होमा ही न गया हो । इसी प्रकार अनन्त माहात्म्यवन्त चतन्य का चाहे जितना वर्णन किया जाय तो भी मानो उस समस्त वर्णन को अनन्त महिमावान् चैतन्य खा जाता है, चंतन्य की अनन्त महिमा के निकट सारा वर्णन मानो वर्णन ही न हुआ हो, इस प्रकार तुच्छता को प्राप्त होता है । ] उस चेतन्य को ही आज प्रबलता-उग्रता से चसन्य अनुभव करो अर्थात् उस चितस्वरूप आत्मा को ही आत्मा आज आत्यन्तिकरूप से अनुभव करो क्योंकि इस लोक में दूसरा कुछ भी [उत्तम] नहीं है, चतन्य ही परम [उत्तम] तस्व है। इस प्रकार तस्वदीपिका नामक संस्कृत टीका समाप्त हुई। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ अइसयमादसमुत्थं अजधाचार विजुत्तो अट्ठे अजधागणं असु जो णमुज्झदि अन्य अवखणिवदिदं अस्थि अमुत्तं मुत्त अस्थित्तणिच्छिदस्स अस्थि त्तिय स्थिति अत्थो खलु दमओ अधिगगुणा साम अधिवासे व विवासे अपदेस सपदेसं अपदेसो परमाणू अपयत्ता वा चरिया अपरिच्चत्तसहावेणुप्पाद rouse उवधि अप्पडकुठं पि अप्पा उवओगप्पा अप्पा परिणामप्पा अभुद्धाणं गहणं अबुट्ठेया समा अयदाचारो समणो अरसमरुवमगंध अरहंतादिभत्ती अववददि सासणत्थं अविदिपरमत्थेसु अभोक्योगरहिदा अहोदयेन आदा असुहोओगरहिदो गाथानुक्रमणिका गाथा १३ २७२ ८५ ૨૪૪ ४० ५.३ १५२ ११५ ८३ २६७ २१३ ४१ १६३ २१६ ई ५ २२३ २२६-२ १५.५ १२५ २६२ २६३ २१८ १७२ २४६ २६५ २५७ २६० १२ १५८ पृष्ठ आ २६ | आगमचक्खू साहू ६२५ आगमपुष्वा दिट्ठी १६१ आगमहीण समो ५८४ | आगासमणिविट्ठ ६३ आगास स्वगाहो १२४ | आदा कम्ममलिमतो ३७३ आदा कम्मलित प २८६ आदा णाणपमाणं २१२ | आदाय तंपिलिंग ६१६ आपिच्छ धुव ५०२ अहारे व बिहारे ६५ ३६३ इंदियपाणो य तथा ५०७ इहलोगणरावेऋखो २२२ इह विविवखणाणं ५२२ ५४७ ३८१ ३११ ६११ | उप्पादयिदिभंगा विज्जते ६१२ उप्पादट्ठिदिभंगा ५११ ४१० उच्चा लियन्हि उदयगदा कम्मंसा उप्पज्जदि जदि गाणं उप्पादो पद्धसो उप्पादो य त्रिणासो उवओगमओ जीवो उ ५८६ ६१५ उवओगविसुद्धो जो ६०५ उवओगो जदि हि ६०८ | उवकुर्णादि जो वि २७ उवयरणं जिणमरगे I ३८७ उवरदपावो पुरिसो 1 गाथा २३४ २३६ २३३ १४० १३३ १२१ १६० २३ २०७ २०२ २३१ १४६ २२६ ६७ २१७-१ ४३ ५० १०१ १२६ १४२ १८ १७५ १५. १५६ २४६ २२५ २५६ पृष्ठ ५६० ५६४ ५५८ ૩૪૬ ३३२ ३०२ ३७१ ५७ ४६ १ ४८० ५.३० ३६५ ५३६ २३४ ५१० ६ ११६ २४८ ३२२ ३५४ ४१ ४२० ३४ ३८२ ५६३ ५३४ ६०७ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ ] एक्कं खलु तं भतं एक्को व दुगे बहुगा एगंतेण हि देहो एहि संति समये एगुत्तरमेगादी दाणि पंचदव्वाणि एदे खलु मूलगुणा एयग्गगदो समगो एवं जिणा जिनिंदा एवं णाणप्पाणं एवं पणमिय सिद्धे एवं विदित्थो एवंविहं सहावे एस सुरासुरमणुसिद एसा पसत्यभूदा एसोसि णत्थि एसो बंधसमासो ओमामणिचिदो ओलिओ य देहो कत्ता करणं कम्मं कम्मत्तणपाओग्गा कम्मं णामसमवखं कालस्स बट्टणा से किच्चा अरहंताणं कि तम्हि णत्थि किं किंचणति तक्क कुलिस उचकधरा कुव्व सभावमादा केवलदेहो समणो कोहा दिएहि चविहि ए ओ गाथा २२६ ૪ ६६ १४३ १६४ १३५-१ ܀ २३२ १६६ १६२ २०१ ७८ १११ १ २५४ ११६ १८६ १६८ १७१ १२६ १६८ ११७ १३४ ४ २२१ २२४ ७३ १८४ २२८ २२६-१ पृष्ठ | ૪૨ ३५१ १५१ ३५.७ ३८५ ३३५ ४८५ ५५४ ४६७ | चारितं खलु धम्मो ४५२ चितरसावो तासि ४७६ ܘܪܐ ग गुणदोधिगस्स विषयं हृदि व ण मुंदि हद व ण गेहृदि व चेलखंड हर विधुण १७५ २७५ । छदुमत्थविदि ६ छेदुवजुत्तो समणो छेदो जेण ण विज्जदि ६०० ४४५ चत्ता पावारंभ चरदि णिबद्धो णिच्चं जदि कुणदि कायखेदं जदि ते पण संति ४०४ जदि ते विसयकसाया 605 जदि पञ्चक्खमजादं जदि संति हि पुण्णाणि जदि सो सुहो ३१३ | जदि दंसणेणसुद्धा ४०५ जनजादरूवजाद २६४ जश्ध ते णभप्पदेसा ३३२ ६ ५१६ जस्स अणसणमप्पा जस्स ण संति जं अण्णाणी कम्मं ५२३ जं केवलं त्ति णाणं १६६ . जं तक्कालियमिदरं ४३६ | जं द तण गुणो ५४१ जं परदो विष्णाणं ५३८ | जं पेच्छदो अमुत्तं छ ज [ पवयणसार गाथा २६६ १८५ ३२ २२०-१ २२०-३ ७६ २१४ 19 २२४-६ २५६ २१२ २२२ २५. ३१ २५.८ ३८ ૭૪ ४६ २२४-८ पृष्ठ ६१८ ४३८ ७३ ५६५ ७१ ६०६ ६२ १६७ १०५ ५२६ २०५ ४८८ १३७ ३४१ २२७ ५.३८ १४४ ३५६ २३८ ५७० ६० १३८ ૪૭ १०७ १०८ २६८ १३४ १२६ ५८ ५४ ५१७ ५१७ १७७ ५०३ १६ ५२६ ६०३ ४६ ५२० Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो ] [ ६५५ गाथा गाथा पृष्ठ गाथा पृष्ठ ... ४४८ १३५ ११० २७४ १६ ५५ ४१ मा ५५ २४४ २६६ ३७७ १६१ २७१ GX WWW १२० 45ur २२४-५ जादं सयं समत्तं जायदि णेत्र ण णस्सदि । जिणसत्थादो अठे जीवा पोग्गलकाया जीबो परिणमदि जीवो पाणणिबद्धो जीवो भवं भविस्सदि जीवो बवगदमोहो जीवो सयं अमुत्तो जुत्तो सुहेण आदा जे अजधागहिदथा जे णेव हि संजाया जे पज्जयेसु गिरदा जेसि विसयेसु रदो जो इंदियादिविजई जो एवं जाणित्ता जो खलु दम्बसहायो जो खविदमोहकलुसो जो जाणदि अरहतं जो जाणादि जिणिदे जो जाणदि सो णाणं जो णवि जाणदि एवं जो ण विजाणदि जो णिहदमोहगठी जो णिहदमोह दिट्ठी जोण्हाणं णिरवेक्खं. जो तं दिट्ठातुट्ठो जो मोहरागदोसे जो रसणत्तय णासो जो पक्कमपक्कंवा जो हि सुदेश १३५ जागणिसेज्जविहारा २६८ ण चयदि जो दु णस्थि गुणो त्ति व णस्थि परोक्त्रं स्थि विणा परिणाम २७६ १८३ ण पविट्ठो णाविछो १२८ ण भवोभंगविहीणो णरणारयतिरिय ६२७ भरणारयतिरियसुरा णरणारयतिरिय ण वि परिणमदि ण ण विणा वट्टदि ण ह्वदि जदि सद्दव्वं ण बदि समणो त्ति पण हि तस्स ४५६ ण हि आगमेण पण हि णिरवेक्खो ण हि मण्णदि जो ४३४ । णाणप्पगमप्पाणं णाणप्पमापामादा ४५६ | गाणं अट्ठवियप्पो णाणं अत्यंतगयं २१० णाणं अपत्ति मिद १६ | णाणी णाणसहावा । णाहं देहो ण मणो ७५ । पाहं पोग्गलमइओ २१७-२ ५६६ ८० १५७ . . 011 ००० १६ १०६ १२४ ३०६ १४१ २८६६ २२२-१ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ ] [ पवयमसारी गाथा पृष्ठ गाथा पृष्ठ २०४ णाह होमि परेसि संति णाहं होमि परेसि णिग्गंथं पच्च इदो णिच्छयदो इत्थीणं णिछिदसुत्तत्यपदो गिद्धसणेण दुगुणो णिद्धा वा लुषखा बा णिहद घणपादिकम्मो गो सद्दहति सोक्खं ११४ m ४६२ १२५ ३१८ ३७ ft Hair G १८८ २४२.. ५८० २.४८ ६८-२ W १७६ ६ १८६ १६१ . ४५० | ते ते सव्वे समगं ४८६ | तेजोंदिछी गाणं २६६ ६२३ । ते पुण उदिपणतंगहा २२४-२ - ५२६ | तेसिं विसुद्धदसण '२६८ ६२१ १६६ ३६६ | दवट्टिएण सवं दव्वं अणंतपज्जय १६७. | दव्वं जीवमजीवं दव्वं सहावसिद्ध दव्वाणि गुणा तेसि दन्वादिएसु मुडो दसणणाणचरित्तेसु दसणणाणुवदेसो दसण सुद्धा पुरिसा दसणसंसुद्धाणं २०० . ४६६ दिट्ठा पगदं वत्) दुपदेसादी खंदा २२४.६ १२०... . ३०१ देवददिगुरुपूजासु देहा वा दविणा ५२.१ १२२ | देहो य मणो ७६-१. . . १७८ १६ ३६ | धम्मेण परिणपप्पा १५४ ३७८ १६-१ ४३ पइडीपमादमइया | पक्खीणवादिकम्मो पयदम्हि समारद्धे ६२- २ २११ पप्पा इट्टे विसये १७० - ४०७ | परदव्वं ते अक्खा . २०२ ८३ .० तत्कालिगेव सन्वे तं गुणदो अधिगदरं तं देवदेवदेव तम्हा जिणमग्गादो सम्हा गाणं जीवो तम्हा तह जाणिता तम्हा तं पडिरूवं तम्हा दु परिथ कोई तम्हा समंगादो तस्स णमाई भोगो तवसंजमप्पसिद्धी तह सो लद्धसहावो तं सम्भावणिबद्धं तं सच्चवरिलैं तिक्कालणिच्चविसम तिमिरहरा जइ दिट्ठी तेण णरा व तिरिच्छा ते ते कम्मत्तगंदा ४५४ ११ २५ ५२६ २२४-३ १६ ६ . १५२ ६५ १४६ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणसारो । [ ६५७ गाथा गाथा पृष्ठ २३६ पृष्ठ , . ५७३ | भंगविहूणो य ३०७ / भावेण जेण जीवो fter १२३ १७६ ४२२ ८ ६३ १४५ ४२ २८१ २२६-२ १७ | मणुासुरामरिंदा ६७ मणुवो ण होदि ५४६ / मरदु व जियदु २५७ मुच्छारंभविजुत्तं ५२ | मुज्झदि वा रज्जदि | मुत्ता इंदियगेज्झा ३०४ / मुत्तो रुवादिगुणो २६२ | मोहेग व रागेण २०६ ४८८ परमाणुपमाणं वा परिणमदि चेदणाए परिणमदि जदा परिणमदि जेण परिणमदि यमट्ठ परकेसु अ आमेसु परिणमदि सयं परिणमदो खलु परिणामादोधी परिणामो सयमादा पविभत्तपदेसत्तं पंचसमिदो तिगुत्तो पाडुन्भवदिय पाणाबाधं जीवो पाणेहिं चदुहिं पुण्णफला अरहंता पेच्छिदि ण हि इह पोग्गलजीवणिबद्धो ५८३ ૪૨૭ १२२ १७३ ३२६ ४१५ २४० १८६ ५७५ ३७० १४६ १४७ ३० ४२६ ७० ६०२ २२४-१ १२८ १७४ २५२ २२४-७ ५२८ फासो रसो य गंधो फासेहिं पुग्गलाणं ५६ रत्तो बंधदि कम्म रयणमिह इंदणीलं रागो पसत्यभूदो १०२ रूवादिएहि रहिदो ५२५। रोगेण वा छुधाए ३२० लिगं हि इत्थीणं १३१ / लिंगरगहणे तेसि ४२३ लिंगेहिं जेहिं दब्वं लोगालोगेसु णभो ५४७ ६३४ | वत्थक्खंडं दुद्दिय वण्णरसगंधफासा वण्णेसु तीसु एकको ४३३ वदसमिदिदियरोधो ५०५ / वदिवददो तं देसं १७७ बालो वा वुड्ढो बुज्झदि सासणमेयं २७५ २२०-२ भणिदा पुढवि__ भत्ते वा खमणे १८२ २१५ २२४-१० २०६ १३६ ५३२ ४६५ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ ] [ पवयणसारो पृष्ठ H ६८ ur 45 ६ १८५ ចធំ ६३२ १४ ४३० ४४३ जा गाथा गाथा वंदणणमंसह २४. ३ ० सम्म निदिदपदत्या २७३ विसयकसाओगाढो ३८५ | सयमेव जहादिच्चो बेज्जावच्चणिमिन २५३ सव्वगदो जिणवसही सव्वाबाधविजुत्तो स इदाणि कत्ता १८६ सव्वे आगमसिद्धा सव्वे वि स अरहता सतासंबद्धेदे ६१ २०५ संपज्जदि णिबाणं मदवट्टिदं सहावे सुत्तं जिणोबदिळे सहव्वं सच्चगुणो सुद्धस्स य सामण्णं २७४ संति धुर्व पयदाणं २२४-४ ५२७ सपदेसेहि समग्गो सुविदिदपयत्थसुत्तो १४५ सपदेसो सो अप्पा १८८ ४४४ सुहपरिणामो पुण्णं सपदेसो सो अप्पा तमु १७८ ४२४ सुहपयदोणं १८७-१ सपरं बाधासहिद १७१ सेसे पुण तिस्थयरे सम्भावो हि सहाबो २२७ सोख वा पुण दुक्खं समओ दु अप्पदेसो १३८ . ३४३ । सोक्खं सहावसिद्धं समणं गणि गुण समणा सुद्धवजुत्ता २४५५८६ समवेदं खलु ददवं १०२ २५१ | हददि व ण हदि समसत्तुबंधवग्गो २४१ ५७८ | हीणो जदि सो आदा २५ प्रवचनसार कलशान क्रर्माणका कलश नं० पृष्ठ संख्या ' कलश नं० ५ आत्मा धर्म स्वमिति २०८ | द्रव्यसामान्यविज्ञाननिम्न २० आनदामृतपूर-निर्भर ६५१ | १३ द्रव्यस्य सिद्धो चरणस्य २२ इति गदितमनीचंः ६५२ : १२ द्रब्यानुसारि चरणं १७ इत्याध्यास्य शुभोपयोग ६२५ ७ द्रव्यान्तरव्यतिकरा ८ इत्युच्छेदात्परपरिणते: ३१५ | १६ निश्चत्यात्मन्यधिकृत १५ इत्येवं चरण पुराणपुरुष, ५५१ | ३ परमानन्दसुधारस १६ इत्येवं प्रतिपत्तुराशय ५८१ | १४ बक्तब्यमेव किल ४ जानन्नप्येय विश्वं १२१ | २१ व्याख्येयं किल १० जंन ज्ञान यतत्त्व ४६६ | १ सर्वव्याप्येकचद्रूप ११ ज्ञेयोकुर्वन्नञ्जसा ४६६ । १६ स्यात्कार श्रीवासवश्य: १८ तन्त्रस्यास्य शिखण्डिमपडनमिव ६२५ ' २ हेलोल्लुप्त महामोह ४५४ ०. संख्या ४७६ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रयणसारो ] [ ६५६ श्री अमृतचन्द्राचार्यटीकान्तर्गतानामुक्तानां पद्यानां सूची पृष्ठ संख्या ४०० ६४६ ५८७ गो० ० ५६४ गो० जी० ६१४ धवल पु० ૪ वाक्य या गाथा पृ० संख्या १० अवाप्योरलोपः अन्तिमतिगसंघडणं ५२६ उत्पादव्ययीव्य युक्त २४३, एक हो त्रीन् वा ४७ ११४ एको भावः सर्वभाव एगो में सस्सदो १६४ औदयिक भावा १०३ काय स्थित्यर्थमाहारः ४५ किं पलविएण ३६२ गुण जीवा पज्जत्तो ५५६ छट्टो त्ति, पढमसण्णा ४८ जानातीतिसानमात्मा ८२ जेसि अत्सिहात्रा २१६ जो सकलणयररज्जं ४८ ३ ४८ 'ण वलाउसाहणंठ्ठे षिद्धस्स णिद्वेण जावदिया यणवहा णिद्धस्य णिद्वेण " कम्मकम् महारो तवसिद्धेयसिद्धे देशप्रत्यक्षविद् ן, श्री जयसेनाचार्य टीक. यामुक्तानां पद्यादीनां सूची अन्यत्र कहां है । वाक्य या गाथा ४०० ४७ ४६८ ५६४ पृष्ठ संख्या | ४०० ६४६ | गो० जी० ६१२ गो० क० ५६५ ३३ धम्मेणपरिदप्पा गो० क० गा० ३२ २७३० सू० ५३० त० सू० २।३० मूलाचार, ४८ धवल पु० ७ पृ० ८ पाहुड २१६ वारस अणुवेक्खा ६० गी० जी० गा० २ गो० जी० गा० ७०१ पंचास्यिकाय ५ गिद्धा णिद्वेण परसमयाणं वयणं मूलाचार ४८१ गो० जी० ६१४ भाव संग्रह ११० सिद्धभक्ति २० चारित्रसार पृ० २२ נג पृ० संख्या ३३० ५२६ पुढवी जल च पुवेदं वेदंता भावा जीवादीया २१६ भावान्तरस्वभावरूपो २४७ भिण्णउ जेण ण ५५८ भिण्ण्ड जेण ण जायिउ ५५६ भुक्त्युपसर्गाभावात् ४७ ममति परिवज्जामि ५४२ मुख्याभावे सति मोहस्स बलेणघाददे व्यापकं तदतन्निष्टं शुद्धस्फटिकसङ्काशं सद्दो खंदप्पभवो समगुणपर्यायं द्रव्यम् समसुखशीलितमनसां १४४ सम्यग्दर्शनज्ञान ५८२ समाहारस्यैकवचनम् ४६६ ५२६ ४७ ६५. ४७ ३३१ ४७ सावद्यशो ५.६७ अन्यत्र कहाँ है गो० जी० ६०१ सिद्धभक्ति ६ पंचास्तिकाय १६ दोहापाहुड १२८ नन्दीश्वर भक्ति मूलाचार ४५ आलापपद्धति कर्मकाण्ड १६ पंचास्तिकाय ७६ तत्त्वार्थ सूत्र १।१ स्वयंभू स्तोत्र ५८ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 ] [ पवयणसारी भाषा दीका में उद्धत वाक्य व गाथा सूची पृ० संख्या 402 अनादिनित्यसम्बन्धात् अरहंत चक्कि फेसब उभयनयविरोधध्वंसिनि चैत्यगुरुप्रवचन जत्तु जदा बेण जिणवरचरणबुरहं जीवदया दम जो आदमावणमिणं जो देहे हिरवेक्खो तथा च मूर्तिमानात्मा तं देवदेवदेवं पृ० संख्या वाक्य 416 | तुच्छागारवबहुला 534 / न च बन्धाप्रसिद्धि 166 | पुग्गलकम्मादीणं 426 पूर्वकर्म करोति बन्ध प्रति भवस्येकम् 426 भत्तीए जिणवराणं . 162 | यदा यथा यत्र 201 लोहो सया पेज 580 | विधूततमसो 416 : स्यााझेवलज्ञाने 426 / स विश्वचक्षुर्वृषभोऽचितः 424 564 58