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________________ पवयण सारो ] [ २६३ उत्थानिका--आगे कहते हैं कि नारक आदि पर्याय कर्म के अधीन हैं इससे नाशवंत हैं। इस कारण शुद्ध निश्चय से नारकादि पर्यायें जीब का स्वरूप नहीं हैं, ऐसी भेद भावना को कहते है ___ अन्वय सहित विशेपार्थ-(एसो त्ति णत्थि कोई) कोई भी मनुष्यादि पर्याय ऐसी नहीं है जो नित्य हो (ण सहायणिव्यत्ता किरिया णस्थि) और रागादि विभाव स्वभाव से होने वाली किया न होती हों ऐसा भी नहीं है अर्थात् रागादि रूप क्रिया अवश्य है। (किरिया हि अफला पत्थि) यह रागादि रूप क्रिया निश्चय से धिना फल के नहीं होती है अर्थात् मनुष्यादि पर्याय रूप फल को देती है (जदि परमा धम्मो णिप्फलो) किन्तु उत्कृष्ट वीतरागधर्म मनुष्यादि पर्याय रूप फल देने से रहित है । जैसे टंकोत्कीर्ण (टाकी से उकेरे के समान अमिट) ज्ञाता दृष्टा एक स्वभाव रूप परमात्मा द्रव्य नित्य है वैसे इस संसार में मनुष्य आदि पर्यायों में से कोई भी पर्याय ऐसी नहीं है जो नित्य हो तब क्या मनुष्यादि पर्यायों को उत्पन्न करने वाली संसार की क्रिया भी नहीं है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि मिथ्यादर्शन व रागद्वेषादिकी परिणति रूप सांसारिक क्रिया न होती हों, ऐसा नहीं है । ये मनुष्यादि चारों गतियां क्योंकि कर्म (कार्य) हैं इसलिये इनको उत्पन्न करने वाली रागादि क्रिया अवश्य है। यह क्रिया शुद्धात्मा के स्वभाव से विपरीत होने से नर नारकावि विभाव पर्याय के स्वभाव से उत्पन्न हुई है। तब क्या यह रागादि क्रिया निष्फल रहेगी ? मिथ्यात्व रागादि में परिणतिरूप क्रिया यद्यपि अनन्त सुखादि गुणमयी मोक्ष के कार्य को पैदा करने के लिये निष्फल है तथापि नाना प्रकार के दुःखों को देने वाली स्व-कार्यभूत मनुष्यादि पर्याय को पैदा करने के कारण फल सहित है, निष्फल नहीं है-इस रागादि क्रिया का फल मनुष्यादि पर्याय को उत्पन्न करना है। यह बात कैसे मालूम होती है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि यद्यपि वीतराग परमात्मा की प्राप्ति में परिणमन करने वाली क्रिया, जिसको आगम की भाषा में परम यथाख्यातचारित्र रूप परमधर्म कहते हैं, केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्टय की प्रगटता रूप कार्य-समयसार को उत्पन्न करने के कारण फल सहित है तथापि नर नारक आदि पर्यायों के कारणरूप ज्ञानावरणादि कर्मबंध को नहीं पैदा करती है इसलिये निष्फल है। इससे यह ज्ञात होता है कि नरनारक आवि सांसारिक कार्य मिथ्यात्व रागादि किया के फल हैं। अथवा इस सूत्र का दूसरा व्याख्यान किया जाता है जैसे शुद्ध निश्चयनय से यह जीव रागादि विभाव-भावों से नहीं परिणमन करता है तैसे ही अशुद्ध नय से भी नहीं परिणमन
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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