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________________ २६२ ] [ पवयणसारो नष्ट होती हैं । मोह के साथ मिलन ( iiii) का नाश न हुआ होने से, क्रिया का फल तो मानना चाहिये । क्रिया चेतन को पूर्वोत्तर दशा से विशिष्ट (विशेषित) चैतन्य परिणाम स्वरूप है । जैसे-दूसरे अणु के साथ युक्त अणु की परिणति द्विअणुक कार्य की निष्पावक है, उसी प्रकार मोह के साथ मिलित आत्मा की परिणति मनुष्यादि कार्य को निष्पादक होने से, यह (क्रिया) फल वाली ही है। जैसे दूसरे अण के साथ का सम्बन्ध जिसका नष्ट हो गया है ऐसे अणु की परिणति द्वि-अणुक कार्य की निष्पादक नहीं है, उसी प्रकार मोह के साथ मिलन का नाश होने पर द्रव्य की परम स्वभावभूत होने से 'परमधर्म' नाम से कही जाने वाली यही क्रिया, मनुष्यादि कार्य की निष्पादक न होने से, अफल ही है। सूचना-इस गाथा में नर-नारक आदि पर्यायों की उत्पत्ति को ही फल माना गया है। चूंकि संसारी जोय के रागादिक भाव विना प्रयत्न के स्वतः उत्पन्न होने रहते हैं, अतः रागादिक भाव को यहां स्वभाव कहा है ।।११६॥ तात्पर्यवृत्ति ___ अथ नर-नारकादिपर्याय: कर्माधीनत्वेन विनश्वरत्वादिति शुद्धनिश्चयनयेन जीवस्वरूपं न भवतीति भेदभावनां कथयति एसो ति पत्थि कोई टङ्कोत्कीर्णज्ञायककस्वभावपरमात्मद्रव्यवत्संसारे मनुष्यादिपर्यायेषु मध्ये सर्वदेवेष एकरूप एव नित्यः कोऽपि नास्ति? तर्हि मनुष्यादिपर्यायनिर्वतिका संसारक्रिया सापि न भविष्यति? णत्थि किरिया न नास्ति क्रिया मिथ्यात्वरागादिपरिणतिस्संसार: कर्मेति यावत् इति पर्यायनामचतुष्टयरूपा क्रियास्त्येव । सा च कथम्भूता? सभावणिवत्ता शुद्धात्मस्वभावाद्विपरीतापि नरनारकादिविभावपर्यायस्वभावेन निवृत्ता। तर्हि किं निष्फला भविष्यति ? किरिया हि णत्थि अफला क्रिया हि नास्त्यफला सा मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपा क्रिया यद्यप्यनन्तसुखादिगुणात्मकमोक्षकार्य प्रति निष्फला तथापि नानादुःखदायकस्वकीयकार्पभूतमनुष्यादिपर्यायनिर्वर्तकत्वात्सफलेति मनप्यादिपर्यायनिष्पत्तिरेवास्याः फलं । कथं ज्ञायत इति चेत् ? "धम्मो जदि णिष्फलो परमो" धर्मों यदि निष्फलः परमः नीरागपरमात्मोपलम्भपरिणतिरूपः आगमभाषया परमयथाख्यात चारित्ररूपो वा योऽसौ परमो धर्मः, स केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादकत्वात्सफलोऽपि नरनारकादिपर्यायकरणभूतं ज्ञानावरणादिकर्मबन्धं नोत्पादयति, ततः कारणानिष्फलः । ततो ज्ञायते नरनारकादिसंसारकार्य मिथ्यात्वरागादिक्रियायाः फलमिति । अथवास्य सूत्रस्य द्वितीयव्याख्यानं क्रियते—यथा शुद्धनयेन रागादिविभावेन न परिणमत्ययं जीवस्तथैवाशुद्धनयेनापि न परिणमतीति यदुक्तं सांख्येन तन्निराकृतं । कथमिति चेत् ? अशुद्धनयेन मिथ्यात्वरागादिविभावपरिणतजीवानां नरनारकादिपर्यायपरिणतिदर्शनादिति । एवं प्रथमस्थले सूत्रगाथा गता ।।११६॥ ----- - ख पुस्तके परिणमति रागादिभावेन जीवः सम्ओिन यदुक्तं' इति वर्तते ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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