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________________ पवयणसारो । [ २६१ एष इति नास्ति कश्चिन्न नास्ति क्रिया स्वभावनिता। क्रिया हि नास्त्यफला धर्मो यदि निष्फलः परमः ।।११६।। इह हि संसारिणो जीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधिसन्निधिप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविव. तनस्य किया फिल स्वभावनिर्वृत्तवास्ति । ततस्तस्य मनुष्याविपर्यायेषु न कश्चनाप्येष एवेति टोत्कीर्णोऽस्ति, तेषां पूर्वपूर्वोपमर्दप्रवत्तक्रियाफलत्वेनोत्तरोत्तरोपमद्यमानत्वात् फलमभिलष्येत या मोहसंवलनाविलयनात क्रियायाः। क्रिया हि तायतनस्य पूर्वोत्तरदशाविशिष्टचैतन्यपरिणामात्मिका। सा पुनरणोरप्यन्तरसंगतस्य परिणतिरिवात्मनो मोहसंवलितस्य यणुककार्यस्येव मनुष्यादिकार्यस्य निष्पादकत्वात्सफलंय । सैव मोहसंवलनविलयने पुनरणोरुच्छिन्नाण्वन्तरसंगमस्य परिणतिरिव द्वधणुककार्यस्पेव मनुष्यादिकार्यस्यानिष्पादकत्वात् परमद्रव्यस्वभाव भूततया परमधर्माख्या भवत्य फलैव ॥११६॥ भूमिका-अब, जिसका निर्धारण करना है, इसलिये जिसे उदाहरण रूप बनाया गया है ऐसे जीव की मनुष्यादि पर्यायें किया की फल हैं इसलिये उनका अन्यत्य (एक पर्याय का दूसरी पर्याय से भिन्नपना) प्रकाशित करते हैं अन्वयार्थ-[एषः इति कश्चित् मास्ति] यह पर्याय टंकोत्कीणं अविनाशी हैं, (नर नारकादि पर्यायों में) ऐसी कोई पर्याय नहीं है (अर्थात् नर-नारकादि पर्यायों में टंकोत्कीर्ण अविनाशी रहने वाली कोई पर्याय नही है) [स्वभाव-निवृत्ता क्रिया नास्ति न] (संसारी जीब के) रागादि अशुद्ध विभाव रूप स्वभाव से उत्पन्न होने वाली क्रिया न हो, ऐसा भी नहीं है (अर्थात् संसारी जीव के रागादि विभाव रूप स्वभाव से उत्पन्न होने वाली रागद्वेपमय क्रिया अवश्य होती ही है) [यदि] यदि [परमः धर्मः निष्फलः] (वीतरागभावरूप) उत्कृष्ट धर्म (नर-नारकादि उत्पन्न करने रूप) फल से रहित है (वीतराग रूप धर्म नर नारक आदि पर्याय उत्पन्न नहीं कर सकता है) तो ती [क्रिया हि अफला नास्ति] (रागादि परिणति रूप) क्रिया अवश्य ही (नर-नारकादि पर्याय उत्पन्न करने रूप) फल से रहित नहीं है (अर्थात् रागादिरूप क्रिया अवश्य ही नर-नारक आदि पर्याय उत्पन्न करती है)। टीका-यहां (इस विश्व में), अनादि कर्म पुद्गल की उपाधि के सन्निधि प्रत्यय (निमित्तकारण) से होने वाला प्रतिक्षण विपरिणमन जिसके होता रहता है, ऐसे संसारी जीव की क्रिया वारतव में स्वभाव-निष्पन्न ही है, इसलिये उसके मनुष्यादि पर्यायों में से कोई भी पर्याय 'यह हो' है ऐसी टकोत्कीर्ण नहीं है, क्योंकि वे पर्याय, पूर्व-पूर्व पर्यायों के नाश में प्रवर्तमान क्रिया की फलरूप होने से, उत्तर-उत्तर (अगली-अगली) पर्यायों के द्वारा
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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