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पवयणसारो ]
[ ४७१ अब श्लोक द्वारा जिनेन्द्रोक्त शब्दब्रह्म के सम्यक् अभ्यास का फल कहा जाता है
अर्थ-इस प्रकार ज्ञेयतत्व को समझाने वाले जन ज्ञान में---विशाल शब्दब्रह्म में सम्यक्तया अवगाहन करके (डुबकी लगाकर, गहराई में उतरकर निमग्न होकर) हम मात्र शुद्ध आत्मद्रव्यरूप एक वृत्ति से (परिणति से) सदा युक्त रहते हैं ॥१०॥
अब श्लोक के द्वारा मुक्तात्मा के ज्ञान को महिमा गाकर ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापनाधिकार को पूर्णाहुति की जा रही है
___अर्थ-आत्मा ब्रह्म को (परमात्मत्व को, सिद्धत्व को) शीघ्र प्राप्त करके, असीम (अमन्त) विश्व को शीघ्रता से (एक समय में) ज्ञेयरूप करता हुआ, भेदों को प्राप्त ज्ञेयों को ज्ञानरूप करता हुआ (अनेक प्रकार के ज्ञेयों को जानता हुआ) और स्वपर प्रकाशक ज्ञान को आत्मारूप करता हुआ, प्रगट-दैदीप्यमान होता है ॥११॥
__अब श्लोफबारा, द्रब्ध और सरग का लम्बा लाकर, ज्ञेयतत्व प्रज्ञापन नामक द्वितीयाधिकार की और चरणानुयोग सूचक चूलिका नामक तृतीयाधिकार की संधि बतलाई जाती है
अर्थ-चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुमार होता है। इस प्रकार वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं, इसलिये या तो द्रव्य का आश्रय लेकर अथवा चरण का आश्रय लेकर मुमुक्षु (ज्ञानीमुनि) मोक्षमार्ग में आरोहण करो।
इस प्रकार (श्री भगवत कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद् अमृनचन्द्राचार्यदेव विरचित तत्त्वदीपिका नामक टीका का यह 'ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन नामक द्वितीयस्कंध (का भाषानुवार) समाप्त हुआ।
तात्पर्यवृत्ति अथ 'उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती' इत्यादि पूर्वप्रतिज्ञा निर्वाह्यन् स्वयमपि मोक्षमार्गपरिणति स्वीकरोतीति प्रतिपादयति,
तम्हा यस्मात्पूर्वोक्तशुद्धात्मोपलम्भलक्षणमोक्षमार्गेण जिना जिनेन्द्राः श्रमणापच सिद्धा जातास्तस्मादपि तह तथैव तेनैव प्रकारेण जाणित्ता ज्ञात्वा 1 कम् ? अप्पाणं निजपरमात्मानम् । कि विशिष्टं ? जाणगं ज्ञायकं केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वभाव । केन कृत्वा ? ज्ञात्वा । सहावेण समस्तरागादिविभावरहित शुद्धबुद्धक स्वभावेन । पश्चात् किं करोमि ? परिषज्जामि परि समन्ताद्वर्जयामि । कां ? मत्ति समस्तचेतनाचेतनमिश्रपरद्रव्यसम्बन्धिनी ममताम् । कथंभूतः सन् ? उद्विदो उपस्थितः परिणत: । क्व? णिम्ममत्तम्हि समस्तपरद्रव्यममकाराहंकाररहितत्वेन निर्ममत्वलक्षणे परमसाम्याभिधाने वीतरागचारित्र तत्परिणतनिजशुद्धात्मस्वभावे वा । तथाहि अहं तावत्केवलज्ञानदर्शनस्वभावत्वेन ज्ञायकैकट टोत्कीर्णस्वभावः । तथाभूतस्य सतो मम नु केवलं स्वस्वाम्यादयः परद्रव्यसम्बन्धा न सन्ति । निश्चयेन ज्ञेयज्ञा