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________________ १७४ ] [ पवयणसारो धर्मानुरागमवलम्बते स खलूपरक्तचित्तमित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शारीरं दुःखमेवानुमवति ॥७७॥ भूमिका—अब, पुण्य और पाप के अविशेषपने को (अन्तर न होने पनेको-समानता को) निना करते हुए इस नया का उपहार करते हैं ___ अन्वयार्थ-[एवं| इस प्रकार [पुण्यपापयोः] पुण्य और पाप में [विशेष: नास्ति | अन्तर नहीं है [इति ] इस बात को [यः] जो [न मन्यते] नहीं मानता है [मोहसंछन्नः] वह मोह से आच्छादित (मिथ्या अभिप्राय से युक्त) होता हुआ [घोरं अपार संसार] धोर अपार (अन्तरहित) संसार में [हिण्डति] परिभ्रमण करता है । टीका-यों पूर्वोक्त प्रकार से शुभाशुभ उपयोग के द्वैत की भांति, और सुख-दुःख के वैत को भांति, परमार्थ से पुण्यपाप का द्वंत नहीं टिकता है क्योंकि दोनों में ही अनात्मधर्मत्व को अविशेषता (समानता) है । (दोनों आत्मा के धर्म नहीं हैं। (ऐसा होने पर भी) जो उन दोनों में, सुवर्ण और लोहे को बेडी की भांति, अहंकारिक अन्तर मानता हुआ, (पुण्य) अहमिन्द्र पद आदि सम्पदाओं का हेतु है, इस कारण से अत्यन्त गाढ धर्मानुराग को (शुभ परिणाम को) आश्रय करता है । वह वास्तव में चित्तभूमि के उपरक्त होने के (मनके गाढ रागी हो जाने से) जिसने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है ऐसा वर्तता हुआ, संसारपर्यन्त शारीरिक दुःख को ही भोगता है ॥७७॥ तात्पयंवत्ति अथ निश्चयेन पुण्यपापयाविशेषो नास्तीति कथयन् पुण्यपापयोख्यिानमुपसंहरति,--- ण हि मण्णवि जो एवं न हि मन्यते य एवं । कि ? णस्थि विसेसो ति पुण्णपावाण पुण्यपापयोनिश्चयेन विशेषो नास्ति। स किं करोति ? हिदि घोरमपार संसारं हिण्डति भ्रमति । के ? संसारं। कथंभूतं? घोरं अपारं चाभव्यापेक्षया। कथंभूतः ! मोहसळपणो मोहप्रच्छादित इति । तथाहि - द्रव्यपुण्यपापयोव्र्यवहारेण भेदः, भावपुण्यपाइयोस्तकलभूतसुखदुःखयोश्चाशुद्धनिचयेन भेदः, शुद्धनिश्चयेन तु शुद्धात्मनोऽभिन्नत्वा दो नास्ति एवं शुद्धनयेन पुण्यपापयोर भेदं योसो न मन्यते स देवेन्द्रचक्रवर्ति बलदेववासुदेवकामदेवादिपदनिमित्तं निदानबन्धेन पुण्यमिच्छन्निर्मोहशुद्ध त्मतस्वविपरीतदर्शनचारित्रमोहाच्छादितः सुवर्ण लोहनिगडदयसमानपुण्यपापद्वयबद्धः सन् संसाररहितशुद्धात्मनो विपरीतं संसारं भ्रमतीत्यर्थः ।।७७।। __उत्थानिका--आगे निश्चय से पुण्य पाप में कोई विशेष नहीं है ऐसा कहकर फिर इसी व्याख्यान को संकोचते हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुण्णपादाणं णस्थि विसेसो ति) पुण्य पापकर्म में निश्चय से भेद नहीं है (जो एवं ण हि मण्णदि) जो कोई इस तरह नहीं मानता है (मोहसंछण्णो)
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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