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गाथा संख्या
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ܬ݂ܳܐ
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विषय
आत्मा उपयोगमयी है। उपयोग ज्ञान दर्शन स्वरूप है। आत्मा का उपयोग शुभ या अशुभ होता है, चेतनानुविधायो परिणाम उपयोग है। चैतन्य के साकारनिराकार होने से उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का है।
शुभ-अशुभ-शुखोपयोग
शुभोपयोग पुण्य का कारण है अशुभोपयोग पाप का कारण है इन दोनों के अभाव में कर्म संचय नहीं होता
अर्हत, सिद्ध तथा अनागारों को जानता है और श्रद्धा करता है जीवों में अनुकम्पा है वह शुभोगपयोगी है
जो विषय कषाय में मग्न है कुश्रुति कुविचार कुसंगति में लगा हुआ है तथा उम्र है उन्मार्गी है वह अशुभोपयोग है। शुभाशुभ से रहित शुद्धोपयोग का कथन
जीव-पुद्गल
मैं न देह हैं, नमन है, और न वाणी हैं, उनका कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हैं, कराने वाला नहीं हूँ और न अनुमोदक है।
शरीर मन और वाणी पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड है
मैं पुद्गलमय नहीं हूँ और मेरे द्वारा मुगल पिण्ड रूप किये गये है इसलिये मैं देह नहीं हूँ और न उसका कर्ता हूँ
परमाणु अप्रदेशी तथा अशब्द है। स्निग्ध रुक्ष गुण के कारण बंध जाता है। परमाणु में स्निग्ध या रुक्ष एक अंश से लेकर अनन्त अंश तक होते हैं, क्योंकि परमाणु परिणमन शील है।
परमाणु स्निग्ध हो या रुक्ष हो, सम हो या विषम हो यदि जधन्य अंश न हो और दो अधिक अंश हो तो बंधते हैं ।
दो अंश वाले स्निग्ध परमाणु चार अंश वाले स्निग्ध परमाणु से बंधता है तथा तीन अंश वाले रुक्ष परमाणु पांच अंश वाले रुक्ष परमाणु से बंधता है। सूक्ष्म या वादर द्वि-परमाणु आदि स्कंध नाना आकार वाले पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप अपने ही परिणामों से उत्पन्न होते हैं अतः जीव उनका कर्ता नहीं है ।
यह लोक सर्वत्र सूक्ष्म तथा वादर और कर्मत्व के अयोग्य तथा योग्य अवगाहित होकर अत्यन्त गाढ भरा हुआ है। अतः पुद्गलपिण्ड को लाने वाला आत्मा नहीं है। व्यवहारनय से जीव कर्मों के आधीन है। हाँ जीव है उसी क्षेत्र में कर्म योग्य पुद्गल भी तिष्ठ रहे हैं. जीव उनको कहीं बाहर से नहीं लाता है। जीव के परिणामों का निमित्त पाकर कर्म योग्य मुद्गल स्कंध जीव के उपादान से नहीं परिणमाता
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