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________________ १८४ ] [ पवयणसारो तात्पर्यंवृत्ति अथ प्रमादोत्पादकचारित्र मोहसंज्ञश्चौरोस्तीति मत्वाप्तपरिज्ञानादुपलब्धस्य शुद्धात्मचिन्तामणेः रक्षणार्थं जागतति कथयति I जीवो जीवः कर्ता । कि विशिष्टः ? ववगदमोहो शुद्धात्मतत्त्वरुचिप्रतिबन्धकविनाशितदर्शनमोहः । पुनरपि किविशिष्टः ? उवलो उपलब्धवान् ज्ञातवान् । कि ? तच्च परमानन्दकस्वभावात्मतत्त्वं । कस्य सम्बन्धी ? अध्यणो निजशुद्धात्मनः । कथं ? सम्मं सम्यक् संशयादिरहितत्वेन जहजि जवि रागोसे शुद्धमानुभूतिलक्षणवीतरागचारित्र प्रतिबन्धको चा त्रमोहसंज्ञी रागद्वेषो यदि त्यजति सो अप्पाणं लहरि सुद्धं स एवमभेदरत्नत्रयपरिणतो जीवः शुद्धबुद्धकस्वभावमात्मानं लभते मुक्तो भवतीति । किंच पूर्व ज्ञानकण्ठिकायां “उबओगमिसुद्धो सो खवेदि देकमवं तुष" इत्युक्तं, अत्र तु "जहदि जदि रागदोसे सो अध्वाणं लहूदि सुखं" इति भणितम् उभयत्र मोक्षोस्ति को विशेष: ? प्रत्युत्तरमाह – तत्र शुभाशुभ योनिश्चयेन समानत्वं ज्ञात्वा पश्चाक्छुद्धे शुभरहिते निजस्वरूपे स्थित्वा मोक्षं लभते तेन कारणेन शुभाशुभमूढत्वनिरासार्थं ज्ञानकण्ठिका भण्यते । अत्र तु द्रव्यगुणपर्याप्तस्वरूपं ज्ञात्वा पश्चात्तद्रूपे स्वशुद्धात्मनि स्थित्वा मोक्षं प्राप्नोति, ततः कारणादियमाप्तात्ममूढत्वनिरासार्थं ज्ञानकण्ठिका इत्येतावान् विशेषः ।।८।। उत्थानिका— आगे कहते हैं कि इस जगत् में प्रमाद को उत्पन्न करने वाला चारित्रमोह नाम का घोर है, ऐसा मानकर आप्त श्री अरहंत भगवान् के स्वरूप के ज्ञान से जो शुद्धात्मारूपी चितामणिरत्न प्राप्त हुआ है उसकी रक्षा के लिये ज्ञानी जीव जागता रहता है । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( वक्षगदमोहो जीवो) शुद्धात्मतत्व की रुचि के रोधक दमोह को जिसने दूर कर दिया है, ऐसा सम्यग्दृष्टि आत्मा (अप्पणी तच्च सम्म उवलद्धी) अपने ही शुद्ध आत्मा के परमानंदमयी एक स्वभावरूप तत्व को संशय आदि से रहित भले प्रकार जानता हुआ (जबि रागबोसे जहवि ) यदि शुद्धात्मा के अनुभव रूपी लक्षण को धरने वाले वीतरागचारित्र के बाधक चारित्रमोहरूपी रागद्वेषों को छोड़ देता हैं ( सो सुद्धं अप्पाणं लहदि ) तब यह निश्चय अभेवरत्नत्रय में परिणमन करने वाला आत्मा शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप आत्मा को प्राप्त कर लेता है अर्थात् मुक्त हो जाता है । शंका- ज्ञानकंठिका में 'उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहु भवं दुक्खं" ऐसा कहा था । यहां 'अहदि जदि रागबोसे अप्पाणं लहवि सुद्ध" ऐसा कहा है। दोनों में हो मोक्ष की बात है, इनमें विशेष क्या है ? समाधान - वहाँ तो शुभ या अशुभ उपयोग को निश्चय से से समान जानकर फिर शुभ से रहित शुद्धोपयोग रूप निज आत्मस्वरूप में ठहरकर मोक्ष पाता है, इस कारण से शुभ अशुभ सम्बन्धी मूढ़ता हटाने के लिये ज्ञानकंठिका को कहा है। यहां तो द्रव्य, गुण, पर्यायों
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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