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________________ Taणसारो ] [ ५६५ जीवनिकाघातिनो भूत्वा सर्वतोऽपि कृतप्रवृत्तेः सर्वतो निवृत्त्यभावात्तथा परमात्मज्ञानाभावाद् ज्ञेयचक्रक्रमाक्रमणनिरर्गलज्ञप्तितया ज्ञानरूपात्मतत्त्वं का प्रयप्रवृत्त्यभावाच्च संयम एवं न तावत् सिद्ध ेत् । असिद्धसंघमस्य तु सुनिश्चितका प्रधगतत्वरूपं मोक्षमार्गापरनामश्रामयमेव न सिद्धयेत् । अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्यस्यैव मोक्षमार्गत्वं नियम्येत ॥२३६॥ भूमिका – अब, आगमज्ञान, तत्पूर्वक सत्वार्थश्रद्धान और तदुभयपूर्वक संयतत्व की युगपतता वाले के मोक्षमागत्य होने का नियम करते हैं । [ उत्यानिका -- [ इह ] इस लोक में [ यस्य ] जिसकी [आगमपूर्वा दृष्टि: ] आगमपूर्वक दृष्टि (दर्शन) [ न भवति ] नही है तस्य ] उसके [ संयम ] संयम [ नास्ति ] नहीं है, [ इति ] इस प्रकार [ सूत्रं भणति ] सूत्र कहता है, और [ असंयतः ] जो असंयत है, वह [ श्रमणः ] श्रमण [ कथं भवति ] कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । टीका - इस लोक में प्रथम तो स्यात्कार चिन्ह वाले आगम पूर्वक तत्वार्थ श्रद्धान लक्षण वाली दृष्टि से जो शून्य हैं उन सभी को संयम वास्तव में ही सिद्ध नहीं होता, क्योंकि (१) स्वर के विभाग के अभाव के कारण काय और कषायों के साथ एकता का अध्यवसाय करने वाले वे जीव, विषयों की अभिलाषा का निरोध नहीं होने से छह जीवनिकाय के घाती होकर सर्वत्र प्रवृत्ति करते हैं, इसलिये उनके सर्वतः निवृत्ति का अभाव है, तथापि ( २ ) उनके परमात्मज्ञान के ( केवलज्ञान के अभाव के कारण ज्ञेय समूह को क्रमशः जानने वाली निरर्गल ज्ञप्ति होने से ज्ञान रूप आत्मतत्व में एकाग्रता की प्रवृत्ति का अभाव है। जिनके संयम सिद्ध नहीं होता उनके सुनिश्चित ऐकाच परिणतता रूप श्रामण्य हो जिसका कि दूसरा नाम मोक्षमार्ग है, सिद्ध नहीं होता। (यहां पर मुनि की एकाग्रपरिणति अर्थात् शुक्लध्यान को मोक्षमार्ग कहा है) इससे आगम ज्ञान - तत्वार्थ श्रद्धान और संयतत्व की युगपत्तता वाले को ही मोक्षमार्गत्व होने का नियम सिद्ध होता है ।। २३६ । तात्पर्यवृति अथागमपरिज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानतदुभयपूर्वकसंयतत्वत्रयस्य मोक्षमार्गस्वं नियमयति आगमपुवा दिट्ठी ण हवदि जस्सेह आगमपूर्विका दृष्टिः सम्यक्त्वं नास्ति यस्येह लोके संजमो तस्स णत्थि संयमस्तस्य नास्ति इदि भणवि इत्येवं भणति कथयति किं कृतु ? सुत्तं सूत्रमागमः असंजदो होदि हि समणो असंयतः सन् श्रमणस्तपोधनः कथं भवति न कथमपीति । तथाहियदि निर्दोषिनिजपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वं नास्ति तहि परमागमबलेन विशदकज्ञानरूपमात्मानं जानपि सम्यग्दृष्टिर्न भवति ज्ञानी च न भवति तद्वयाभावे सति पञ्चेन्द्रियविषया
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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