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________________ ३८० ] [ पवयणसारो ध्रौव्य और ( २ - ३ ) अचेतन के उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूप से जो उत्पाद और व्यययह त्रयात्मक स्वरूप अस्तित्व जिस पुद्गल का स्वभाव है वह वास्तव में ( मुझसे ) अन्य है । ( इसलिये ) मुझे मोह नहीं है, स्व-पर का विभाग है ।। १५४ ।। तात्पर्यवृत्ति अथ स्वरूपास्तित्वलक्षणं परमात्मद्रव्यं योऽसौ जानाति स परद्रव्ये मोहं न करोतीति प्रकाशयति जाणदि जानाति जो यः कर्ता । कं ? तं पूर्वोक्त दव्वसहावं परमात्मद्रव्यस्वभावं । किं विशिष्टं ? सम्भावणिबद्धं स्वभावः स्वरूपसत्ता तत्र निबद्धमाधीनं तन्मयं सद्भावनिबद्धम् । पुनरपि कि विशिष्ट ? तिहा समजावं त्रिधा समाख्यातं कथितं । केवलज्ञानादयो गुणाः सिद्धत्वादिविशुद्धपर्यायास्तदुभयाधारभूतं परमात्मद्रव्यं द्रव्यत्वमित्युक्तलक्षणत्रयात्मकं तथैव शुद्धोत्पादव्ययीव्यत्रयात्मकं च यत्पूर्वोक्तं स्वरूपास्तित्वं तेन कृत्वा त्रिधा सम्यगाख्यातं कथितं प्रतिपादितम् । पुनरपि कथंभूतं आत्मस्वभावं ? सवियप्पं सविकल्प ज्ञानं निर्विकल्पं दर्शनं पूर्वोक्तद्रव्यगुणपर्यायरूपेण सभेदं । इत्थंभूतास्वभावं जनाति ण सुदृद्धिमो अण्णदवियम्हि न मुह्यति सोऽन्यद्रव्ये स तु भेदज्ञानी विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावमात्मतत्वं विहाय देहरागादिपरद्रव्ये मोहं न गच्छतीत्यर्थः || १५४ || एवं नरनारकादिपर्यायैः सह परमात्मनो विशेषभेदकथनरूपेण प्रथमस्थले गाथात्रयं गतम् । उत्थानिका— आगे यह प्रकाश करते हैं कि जो कोई अपने स्वरूप में अस्तित्व को रखने वाले परमात्मद्रव्य को जानता है वह परद्रव्य में मोह को नहीं करता है— अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जो ) जो ज्ञानी ( सन्भावविबद्ध) अपने स्वभाव में बन्मय ( तिहा समखादं ) व तीन प्रकार कहे हुए ( दध्यसहावं ) द्रव्य के स्वभाव को ( सवियपं) भेदसहित ( जाणदि) जानता है (सो) यह (अण्णदवियम्हि ) अन्य द्रव्य में (ण मुहृदि) मोहित नहीं होता है। जो कोई परमात्म-द्रव्य के स्वभाव को ऐसा जानता है कि अपने स्वरूप सत्ता में तन्मय रहता है तथा इसका स्वभाव तीन प्रकार कहा गया है यह अर्थात् केवलज्ञान आदि गुण हैं, सिद्धत्व आदि विशुद्ध पर्यायें हैं तथा इन दोनों का आधाररूप परमात्मद्रव्य है तैसे ही आत्मा शुद्ध उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप पूर्वक स्वरूप अस्तित्व के साथ तीन रूप कहा गया है तथा सविकल्पज्ञान निर्विकल्पज्ञानपूर्वोक्त वर्शन गुण पर्याय द्रथ्य से भेद-सहित हैं । इनमें साकार ज्ञान व निराकार दर्शन है। वह भेदज्ञानी विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव आत्मतत्व को जानता हुआ देह व रागादि परद्रव्यों में मोह नहीं करता है ।। १५४ ।। इस तरह नर नारक आदि पर्यायों के साथ परमात्मा का विशेष भेद कथन करते हुए पहले स्थल में तीन गाथाएं पूर्ण हुई ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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