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________________ पवयणसारो ] [ ३७६ पर्यायस्तत्त्रयात्मकं या पूर्वोत्तरव्यतिरेकस्पशिना चेतनत्येन स्थितिर्यायुत्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेन चेतनस्योत्पादव्ययों तत्त्रयात्मकं च स्वरूपास्तित्वं यस्य नु स्वभावोऽहं स खल्वयमन्यः । वाचेतनत्वान्यलक्षणं द्रव्यं योऽचेतना विशेषत्वलक्षणो गुणो योऽचेतनत्वव्यतिरे कलक्षणः पर्यावस्तत्रयात्मकं या पूर्वोत्तरव्यतिरेकस्पर्शनाचेतनत्वेन स्थितिर्यात्तरपूर्वव्यतिरेकत्वेनाचेतनस्योत्पादव्ययौ तत्त्रयात्मकं च स्वरूपास्तित्वं यस्य तु स्वभावः पुद्गलस्य स खल्ब यमन्यः । नास्ति मे मोहोऽस्ति स्वपरविभागः । । १५४ ।। भूमिका – अब, आत्मा की अन्य द्रव्य के साथ संयुक्तता होने पर भी, अर्थ- निश्चायक ( स्वरूप ) अस्तित्व को स्व-पर विभाग के हेतु रूप से समझाते हैंअन्वयार्थ -- [ यः ] जो जीव [ तं] उस ( पूर्वोक्त ) [ सद्भावनिबद्ध] अस्तित्व निष्पन्न, [ विधा समाख्यातं ] तीन प्रकार से कथित, [सविकल्पं ] भेदों वाले [ द्रव्यस्वभावं ] द्रव्य स्वभाव को [ जानाति ] जानता है, [सः ] वह [ अन्य द्रव्ये ] अन्य द्रव्य में [ न मुह्यति ] मोह को प्राप्त नहीं होता || १५४ || टीका - जो, द्रव्य को निश्चित करने वाला, स्वलक्षण भूत स्वरूप अस्तित्व कहा गया है । वह वास्तव में द्रव्य का स्वभाव ही है, क्योंकि द्रव्य का स्वभाव अस्तित्व से निष्पन्न ( अस्तित्वका बना हुआ) हैं । द्रव्य गुण-पर्याय रूप से तथा ध्रौव्य-उत्पाद - व्ययरूप से त्रात्मक भेद-भूमिका में आरूढ द्रव्य स्वभाव ज्ञात होता हुआ, पर द्रध्य में मोहको दूर करके स्व-पर के विभाग का हेतु होता है, इसलिये स्वरूप अस्तित्व ही स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये पद-पद पर अवधारित करना (लक्ष्य में लेना ) चाहिये । वह इस प्रकार है (१) चेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा द्रव्य (२) चेतनाविशेषत्व जिसका लक्षण है ऐसा गुण, और चेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी पर्याय -- यह त्रयात्मक (ऐसा स्वरूप - अस्तित्व ), तथा ( १ ) पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले चेतनत्यरूप से जो धौव्य और ( २-३) चेतन के उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेक रूप से जो उत्पाद और व्यय, यह प्रयात्मक स्वरूप अस्तित्व जिसका स्वभाव है ऐसा मैं वास्तव में यह अन्य हूँ, ( अर्थात् मैं पुद्गल से ये भिन्न रहा ।) और ( १ ) अचेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा द्रव्य, (२) अचेतना विशेषत्य जिसका लक्षण है ऐसा गुण, और (३) अचेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी पर्याय -- यह त्रयात्मक ( ऐसा स्वरूप अस्तित्व) तथा ( १ ) पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले अचेतनत्व रूप से जो
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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