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________________ [ परयणसारो स्वरूपं तदेव। पज्जाया जीवाणं ते च नरनारकादयो जीवानां विभावव्यञ्जनपर्याया भण्यन्ते । क: कृत्वा ? उदयादिहिं णामकम्मस्स उदयादिभिर्नामकर्मणो निर्दोषपरमात्मशब्दवाच्यान्निामनिर्गोत्रादिलक्षणाच्छुद्धात्मद्रव्यादन्यादृशैमिकर्मजनिबन्धोदयोदीरणादिभिरिति । यत एव ते कर्मोदयजनितास्ततो ज्ञायते शुद्धात्मस्वरूप न सम्भवन्तीति ।।१५।। उत्थानिका-आग उन्हीं पर्याय के भेदों को प्रगट करते हुए बताते हैं...अन्वय सहित विशेषार्थ-(णामकम्मस्स उदयादिहिं ) नाम कर्म के उदय से (निश्चय से) (जीवाणं) संसारी जीवों की (णरणारयतिरियसुरा) नर, नारक, तिथंच और देव (पज्जाया) पर्याय (संठाणादीहिं) संस्थान आदि के द्वारा (अण्णहा) स्वभाव पर्याय से भिन्न अन्य-अन्य रूप (जादा) उत्पन्न होती हैं। निर्दोष परमात्मा शब्द से कहने योग्य, नाम मोत्रादि से रहित शुद्ध आत्मा द्रव्य से भिन्न नामकर्म के बन्ध, उदय, उदौरणा आदि के वश से जीवों को नर, नारक, तिर्यच तथा देव रूप अवस्थाएं अर्थात् विभाव ध्यञ्जन पर्यायें अपने भिन्न-भिन्न आकारों से भिन्न-भिन्न उपजती हैं। मनुष्य भव में जो समचतुरस्र संस्थान व औदारिकादि शरीर होता है उसकी अपेक्षा अन्य भव में उससे भिन्न हो संस्थान शरीर आदि होते हैं। इस तरह हर एक नए-नए भव में कर्मकृत भिन्नता होती है, परन्तु शुद्ध बुद्ध एक परमात्मा द्रव्य अपने स्वरूप को छोड़कर भिन्न नहीं हो जाता है। जैसे अग्नि तृण, काष्ठ, पत्र आदि के आकार से भिन्न-भिन्न आकार वाली हो जाती है तो भी अग्निपने के स्वभाव को अग्नि नहीं छोड़ देती है। क्योंकि ये नरनारकादि पर्याय को के उदय से होती हैं, इससे ये शुद्धात्मा का स्वभाव नहीं हैं ॥१५३॥ अथात्मनोऽन्यद्रव्यसंकीर्णत्वेऽप्यर्थनिश्चायकमस्तित्वं स्वपरविभागहेतुत्वेनोद्योतयति तं सम्भावणिबद्धं दवसहावं तिहा समक्खादं । जाणादि' जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णदवियम्हि ॥१५४॥ तं सद्भाबनिबद्धं द्रव्यस्वभाव त्रिधा समाख्यातम् । जानाति यः सविकल्पं न मुह्यति सोऽन्यद्रव्ये ॥१५४।। यत्खलु स्वलक्षणभूतं स्वरूपास्तित्वमर्थनिश्चायकमाख्यातं स खलु द्रव्यस्य स्वभाव एव, सद्भावनिबद्धत्वाद्रव्यस्वभावस्य । यथासौ द्रव्यस्वभावो द्रव्यगुणपर्यापत्वेन स्थित्युत्पादव्ययत्वेन च त्रितयी विकल्पभूमिकामधिरूढः परिज्ञापमानः परव्रव्ये मोहमपोह्य स्वपरविभागहेतुर्भवति ततः स्वरूपास्तित्वमेव स्वपरविभागसिद्धये प्रतिपदमवधार्यम् । तथाहियच्चेतनत्वान्वयलक्षणं द्रव्यं यश्चेतनाविशेषत्वलक्षणो गुणो पश्चेतनत्वय्मतिरेकलक्षणः १. जाणदि (ज० वृ.) ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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