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________________ पवयणसारो ] [ ३८१ अथात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय परद्रव्यसंयोगकारणस्वरूप मालोचयतिअप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं मणिदो । सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि ॥ १५५ ॥ आत्मा उपयोगात्मा उपयोगी ज्ञानदर्शनं भणितः । सोऽपि शुभेोऽशुभो वा उपयोग आत्मनो भवति । ११५५ ।। आत्मनो हि परद्रव्यसंयोगकारणमुपयोगविशेषः उपयोगी हि तावदानः स्वभावचैतन्यानुविधायिपरिणामत्वात् । स तु ज्ञानं दर्शनं च साकारनिराकारत्थेनो भयरूपत्वाचैतन्यस्य अथायमुपयोगो द्वेधा विशिष्यते शुद्धाशुद्धत्वेन । तत्र शुद्धो निरुपरागः, अशुद्धः सोपरागः । स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन विध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च ।। १५५ ।। भूमिका- -- अब आत्मा को अत्यन्त विभक्त करने के लिये परद्रव्य के संयोग के कारण का स्वरूप कहते हैं । अन्वयार्थ - [आत्मा उपयोगात्मा | आत्मा उपयोगमयी है, [ उपयोगः ] उपयोग [ज्ञानदर्शनं भणित: ] ज्ञान - दर्शनरूप कहा गया है, [ अपि ] और [ आत्मनः ] आत्मा का [सः उपयोगः ] वह उपयोग [ शुभ अशुभः वा] शुभ अथवा अशुभ [ भवति ] होता है । टीका -- वास्तव में आत्मा का परद्रक्ष्य के संयोग का कारण उपयोगविशेष है । प्रथम तो उपयोग वास्तव में आत्मा का स्वभाव है, क्योंकि वह चैतन्यानुविधायो, (उपयोग चैतन्य का अनुसरण करके होने वाला) परिणाम है । और वह ज्ञान तथा दर्शन है, क्योंकि चैतन्य के साकार (विशेष) और निराकार (सामान्य) उभयरूपपना है । अब यह उपयोग शुद्ध अशुद्धपने से दो प्रकार का विशेष है । उसमें से शुद्ध निरुपराग (निविकार ) है और अशुद्ध सोपराग ( सविकार ) है । बह अशुद्धोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्धि और संक्लेशरूप से दो प्रकार का है। अर्थात् विकार मन्दकषायरूप और तीव्रकषायरूप से दो प्रकार का है ।। १५५ ॥ तात्पर्य वृत्ति अथात्मनः पूर्वोक्तप्रकारेण नरनारकादिपर्यायैः सह भिन्नत्वपरिज्ञानं जातं तावदिदानीं तेषां संयोगकारणं कथ्यते— अप्पा आत्मा भवति । कथंभूतः ? उबओगप्पा चैतन्यानुविधायी योऽसावुपयोगस्तेन निर्वृत्तत्वादुपयगात्मा । जब ओगो णाणदंसणं भणिदो स चोपयोगः सविकल्प ज्ञानं निर्विकल्पं दर्शनमिति भणितः । सोवि सुहो सोऽपि ज्ञानदर्शनोपयोगधर्मानुरागरूपः शुभः असुही विषयानुरागरूपो द्वेपमोहरूपक्चाशुभः । वाशब्देन शुभाशुभानुरागरहितत्वेन शुद्धः । उवओगो अप्पणी हवदि इत्यंभूतस्त्रिलक्षण उपयोग आत्मनः सम्बन्धी भवतीत्यर्थः ।। १५५।।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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