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________________ ५५० ] [ पवयणसारो आहार, ज्ञान का उपकरण शास्त्र आदि को ग्रहण कर लेता है यह अपवाद मार्ग है । इसी को व्यवहारनय से मुनिधर्म कहते हैं। इसी का नाम एक देश परित्याग है, अपहृतसंयम है, सरागचारित्र है, शुभांपयोग है, इन सबका एक ही अर्थ है। जहां शुद्धात्मा की भावना के निमित्त सर्व त्याग स्वरूप उत्सर्गमार्ग के कठिन आचरण में वर्तन करता हुमा साधु शुद्धास्मतत्व के साधक रूप से जो मूलसंयम के साधक मूलशरीर का जिस तरह नाश नहीं होवे उस तरह कुछ भी प्रासुक आहार आदि को ग्रहण कर लेता है सो अपवाद को अपेक्षा था सहायता सहित उत्सर्ग मार्ग कहा जाता है । और जब वह मुनि अपवाद रूप अपहृत संयम के मार्ग में वर्तता है तब भी शुद्धात्मतत्व का साधक रूप से जो मूलसंयम है उसका तथा मूलसंयम के साधक मूलशरीर का जिस तरह यिनाश न हो उस तरह उत्सर्ग की अपेक्षा सहित वर्तता है-अर्थात इस सरह वर्तन करता है जिस तरह संयम का नाश न हो। यह उत्सर्ग की अपेक्षा सहित अपवादमार्ग है ॥२३०॥ अथोत्सर्गापवावविरोधदौःस्थ्यमाचरणस्योपदिशति आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधि । जाणित्ता ते समणो वट्टदि दि अप्पलेवी सो ॥२३१॥ आहारे वा विहारे देशं कालं श्रम क्षमामुपधिम् । ज्ञात्वा ताम् श्रमणो वर्तते यद्यल्पलेपी सः ॥२३१।। अत्र क्षमाग्लानत्वहेतुरुपवास: बालवृद्धत्वाधिष्ठानं शरीरमुपधिः, ततो बालवृद्धश्रान्त ग्लाना एव त्वाकृष्यन्ते । अथ देशकालहस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोः प्रवर्तमानस्य मृहाचरणप्रवृत्तत्वावल्पो लेपो भवत्येव तद्वरमुत्सर्गः । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोः प्रवर्तमानस्य मृदाचरण-प्रवृत्तत्वादल्प एव लेपो भवति तद्वरमपवादः । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धवान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपभयेनाप्रवर्तमानस्यातिकर्कशाचरणीभूयाक्रमेण शरीरं पातयित्वा सुरलोकं प्राप्योद्वान्तसमस्तसंयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान लेपो भवति । तन्न श्रेयानपवादनिरपेक्ष उत्सर्ग: । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धधान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपत्वं विगणय्य यथेष्टं प्रवर्तमानस्य मृहाचरणोभूय संयम विराध्यासंयतजनसमानीभूतस्य तदात्वे तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति तन्न, श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवाद: । अतः सर्वथोत्सर्गापवादविरोधदौःस्थित्यमाचरणस्य प्रतिषेध्यं तदर्थमेव सर्वथानुगम्यश्च परस्परसापेक्षोत्सर्गापवादविजृम्भितवृत्तिः स्याद्वादः ॥२३१॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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