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पवयणसारो ।
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छेद जैसे न हो, उस प्रकार से संयत को ऐसा अपने योग्य अतिकर्कश आचरण भी आचरना इस प्रकार उत्सर्ग सापेक्ष अपवार है। इससे यह कहा है कि सर्वथा उत्सर्ग और अपवाद की मैत्री द्वारा आचरण की सुस्थितता करनी चाहिये ।।२३०॥
तात्पर्यवृत्ति अथ निश्चयव्यवहारसंज्ञयोरुत्सर्गापवादयोः कथंचित्परस्परसापेक्षभावं स्थापयन् चारित्रस्य रक्षा दर्शयति;
चरदि चरत्याचरति । किं? चरियं चारित्रमनुष्ठानम् । कथंभूतं ? सजोग्गं स्वयोग्यमवस्थायोग्यम् । कथं यथाभवति ? मूलच्छेदो जधा ण हववि मूलच्छेदो यथा न भवति । स कः कर्ता चरति ? कालो था वुड्डो वा समभिहवो वा पुणो गिलाणो वा बालो वा वृद्धो वा श्रमाभिहतः पीडितः श्रमाभिहतो वा ग्लानो व्याधिस्थो वेति । तद्यथा-उत्सर्गापवादलक्षणं कथ्यते तावत्स शुद्धात्मनः सकाशादन्यद्बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरूपं सर्व त्याज्यमित्युत्सर्गो निश्चयनयः सर्वपरित्यागः परमोपेक्षासंयमो वीतरागचारित्र शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः तत्रासमर्थः पुरुषः शुद्धात्मभावनासहकारिभूतं किमपि प्रासुकाहारज्ञानोपकरणादिकं गृहातीत्यपवादो व्यवहारनय एकदेशपरित्यागस्तथा चापहृतसंयमः सरागचारित्र शुभोपयोग इति यावदेकार्थः । तत्र शुद्धात्मभावनानिमित्तं सर्वत्यागलक्षणोत्सर्गे दुर्द्धरानुष्ठाने प्रवर्त्तमानस्तपोधनः शुद्धात्मर शाकल्बेन मूलभूटांया संगमसापकलेन मुलभूतशरीरस्य वा यथा छेदो विनाशो न भवति तथा किमपि प्रासुकाहारादिक गृहातीत्यपवादसापेक्ष उत्सर्गो भण्यते। यदा पुनरपवादलक्षणेऽपहृतसंयमे प्रवर्त्तते तथापि शुद्धात्मतत्त्वसाधकत्वेन मूलभूतसंयमस्य संयमसाधकत्वेन मूलभूतशरीरस्य वा यथोच्छेदो विनाशो न भवति तथोत्सर्गसापेक्षत्वेन प्रवर्तते । तथा प्रवर्तत इति कोऽर्थः ? यथा संयमविराधना न भवति तथेत्युत्सर्गसापेक्षोपवाद इत्यभिप्रायः ।।२३०॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि उत्सर्ग निश्चय है तथा अपवाद व्यवहार है। इन दोनों में किसी अपेक्षा से परस्पर सहकारीपना है, ऐसा स्थापित करते हुए चारित्र की रक्षा करनी चाहिये, ऐसा दिखाते हैं ।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(बालो वा) बालक मुनि हो अथवा (बुड्ढो वा) बुड्ढा हो या (समभिहदो) थक गया हो (पुणो गिलाणो वा) अथवा रोगी हो ऐसा मुनि (जधा) जिस तरह (मूलच्छेद) मूल संयम का भंग (ण हवदि) न होवे (सजोग्गं) वैसे अपनी शक्ति के योग्य (चरियं) आचार को (चरदि) पालता है ।प्रथम ही उत्सर्ग और अपवाद का लक्षण कहते हैं। अपने शुद्ध आत्मा से अन्य सर्व भीतरी व बाहरी परिग्रह का त्याग देना सो उत्सर्ग है, इसी को निश्चयनय से मुनिधर्म कहते हैं। इसी का नाम सर्व-परित्याग है, परमोपेक्षा संयम है, वीतरागचारित्र है, शुद्धोपयोग है-इन सबका एक ही भाव है। इस निश्चयमार्ग में जो ठहरने को समर्थ न हो वह शुद्ध आत्मा की भावना के सहकारी कुछ भी प्रासुक