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________________ १४६ ] [ पवयणसारो ___ अन्वयार्थ-[मनुजासुरामरेन्द्राः] मनुष्येन्द्र (चक्रवर्ती), असुरेन्द्र (धरणीन्द्र) और सुरेन्द्र (देवेन्द्र) [सहजः इन्द्रियैः] स्वाभाविक (परोक्षज्ञान बालों को जो स्वाभाविक हैं ऐसी) इन्द्रियों से [अभिद्रुताः] पीड़ित होते हुए (तथा [नन् दुः] उस इन्दिय दुःख को [असहमानाः] सहन न कर सकते हुए [रम्येयु विषयेषु] रम्य विषयों में [रमन्त] रमण करते हैं। टीका---प्रत्यक्षशान के अभाव के कारण) से परोक्षज्ञान को आश्रय लेने वाले इन प्राणियों के वास्तव में उस (परोक्षज्ञान) की सामग्री रूप (साधनरूप) इन्द्रियों के प्रति निज रस से (स्वभाव से) ही मैत्री प्रवर्तती है, (१) उन (इन्द्रियों में मैत्री को प्राप्त (२) उदय को प्राप्त महामोह रूपी कालाग्नि से कलित (ग्रसित) (३) तप्त हुए लोहे के गोले की भांति (जैसे गरम किया हुआ लोहे का गोला पानी को शीघ्र ही सोख लेता है) अत्यन्त तृष्णा को प्राप्त, (४) उस इन्द्रिय-दुःख के वेग को सहन न कर सकने वाले ऐसे उन प्राणियों के, प्रतिकार को प्राप्त (रोग में थोड़ा सा आराम जैसा अनुभव कराने वाले उपचार को प्राप्त) रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है। इसलिये, इन्द्रियों की व्याधि समान होने से और विषयों को व्याधि के प्रतिकार समान होने से, (य्याधि के समान इन्द्रियों के प्रतिकार समान छप्रस्थों के विषयों से रहित पारमाथिक (सच्चा अतीन्द्रिय) सुख नहीं है ॥६३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ संसारिणामिन्द्रियज्ञानसाधकमिन्द्रियसुखं विचारयति मणुआसुरारिदा मनुजाऽसुरामरेन्द्राः । कथंभूता ? अहिद वा इन्दियहि सहजेहि अभिवृताः कथिता: दु:खिताः । कः ? इन्द्रियः सहजैः असहता तं दुक्खं तदुःखोद्रेकमसहमाना: सन्त: रमते विसएसु रम्मेसु रमन्ति विषयेषु रम्याभासेषु इति ।। अथ विस्तर:-मनुजादयो जीवा अमुर्तातोन्द्रियशान सुखास्वादमलभमानाः सन्तः मूर्तेन्द्रियज्ञानसुखनिमित्तं तन्निमित्त पञ्चेन्द्रियेषु मैत्री कुर्वन्ति । ततश्च तप्तलोहगो लकानामुदकाकर्षणमिव विषयेषु तीव्रतष्णा जायते । तां तृष्णामसहमाना विषयाननुभवन्ति इति । ततो ज्ञायते पञ्चेन्द्रियाणि व्याधिस्थानीयानि, विषयाश्च तत्प्रतीकारोषधस्थानीया इति संसारिणां वास्तवं सुखं नास्ति ।।६३॥ उत्थानिका-आगे संसारी जीवों के जो इन्द्रियजनित ज्ञान के द्वारा साधा जाने वाला इन्द्रियसुख होता है, उसका विचार करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ-(मणुआऽसुरामरिंदा) मनुष्य, भवनवासी, ध्यंतर, ज्योतिषी तथा कल्पवासी देव और मनुष्यों के इन्द्र चक्रवर्ती राजा तथा चार प्रकार के देवों के सर्व इन्द्र (सहजेहिं) अपने अपने शरीरों में उत्पन्न हुई अथवा स्वभाव से पैदा हुई
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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