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________________ पवयणसारी ] [ १४७ (ई दिहि) इन्द्रियों की चाह के द्वारा (अहिद्द दा) पीडित या दुःखित होकर (तं दुक्खं असहंता) उस दुःख को तीव्र धारा को न सहन करते हुए (रम्मेसु विसएसु) सुन्दर मालूम होने वाले इन्द्रियों के विषयों में (रमंति) रमण करते हैं। ___ इसका विस्तार यह है कि जो मनुष्यादिक जीव अमूर्त अतीन्द्रियज्ञान तथा सुख के आस्वाद को नहीं अनुभव करते हुए मूलिक इन्द्रियजनित ज्ञान तथा सुख के निमित्त पांचों इन्द्रियों के भोगों में प्रीति करते हैं उनमें जैसे गर्म लोहे का गोला चारों तरफ से पानी को खींच लेता है उसी तरह पुनः पुनः विषयों में तीन तष्णा पैदा होती है। उस तृष्णा को न सह सकते हुए वे विषय भोगों का स्वाद लेते हैं । इसलिये ऐसा जाना जाता है कि पांचों इन्द्रियों को तष्णा रोग के समान है। तथा उसका उपाय विषयभोग करना यह भौषधि के समान है। इसलिये संसारी जीवों को वास्तविक सच्चे सुखका लाभ नहीं होता है ॥६३॥ .. .... अथ यावविन्द्रियाणि तावत्स्वभावादेव दुःखमेवं वितर्कयति-- जेसि विसयेसु 'रदी तैसि दुक्खं वियाण सब्भावं । जवि तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥६४॥ येषां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि स्वभावम् । यदि तन्न हि स्वभावो व्यापारो नास्ति विपयार्थम् ।।६४।। येषां जीवदेवस्थानि हतकानिन्द्रियाणि, न नाम तेषामुपाधिप्रत्ययं दुःखम् । किंतु स्वाभाविकमेव, विषयेषु रतेरवलोकनात् । अवलोक्यते हि तेषां स्तम्बेरमस्य करेणुकुट्टनीगावस्पर्श इव, सफरस्य बडिशामिषस्वाद इव, इन्दिरस्य संकोचसंमुखारविन्दामोद इव, पतङ्गस्य प्रदोपाचिरूप इव, कुरङ्गस्य मृगयुगेयस्वर इव, दुनिवारेन्द्रियवेदनावशीकृतानामासन्न निपातेष्वपि विषयेष्वभिपातः । यदि पुनर्न तेषां दुःखं स्वाभाविकमभ्युपगम्येत तदोपशांतशीतज्वरस्य संस्वेदनभिव, प्रहीणवाहज्वरस्यारनालपरिषेक ३व, निवृत्तनेत्रसंरम्भस्य च वटाचूर्णावचूर्णमिव, विनष्ठकर्णशूलस्य अस्तमूत्रपूरणमिव, रूढवणस्यालेपनदानमिव, विषयव्यापारो न दृश्येत । दृश्येत चासो। ततः स्वभावभूतदु.खयोगिन एव जीवविन्द्रियाः परोक्षज्ञानिनः ॥४४॥ भूमिका-अब, जहां तक इन्द्रियां हैं वहां तक स्वभाव से ही दुख है, इस प्रकार से निश्चित करते हैं। १. रई (ज. वृत) । २. जइ (जल वृ०)।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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