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________________ १४८ ] [ पबयणसारो अन्वयार्थ- [येषा] जिनके [विषयेषु रतिः] विषयों में रति है [तेषां] उनके [स्वभावं दुःखं] स्वाभाविक दुख [विजानीहि] तू जान [हि] क्योंकि [यदि तत् ] जो वह दुःख [स्वभाव म] स्वाभाविक अर्थात् जो स्वभाव से न होता तो उसका [विपयार्थ] इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों में [च्यापार:] व्यापार भी [न अस्ति ] न होता। टीका-जिनको हत (निकृष्ट-निद्य) इन्द्रियां जीवित अवस्था में हैं उनके उपाधि के कारण से होने वाला (बाह्या संयोग के कारण से होने वाला औपाधिक) दुःख न भी हो तो भी स्वाभाविक दुःख है ही, क्योंकि (उनकी) विषयों में रति देखी जाती है। हाथी के हथिनी रूपी कुट्टनी के शरीर स्पर्श की तरह, मछली के बंसी में फंसे हुए मांस के स्वाद को तरह, भ्रमर बन्द होने के सम्मुख कमल की गंध की तरह, पतंग के दीपक की ज्योति के रूप की तरह और हिरन के शिकारी के स्थर की तरह दुनिवार इन्द्रिय-वेदना के वशीभूत होते हुए उनके (अर्थात् जिनके इन्द्रियां जीवित हैं उनके) अत्यन्त नाशवाले (क्षणिक) विषयों में भी पतन देखा जाता है। 'उनका दुःख स्वाभाविक है यदि ऐसा स्वीकार न किया जाय तो, जिसका शीतज्वर उपशान्त हो गया है उसके पसेव (पसीना) को तरह, जिसका दाहज्वर उतर गया है उसके कांजी के परिषेक की तरह, जिसकी आंखों का दुख दूर हो गया है उसके वटचूर्ण (शंख इत्यादि का चूर्ण) आंजने की तरह, जिसका कान का दं नष्ट हो गया है उसको बकरे का मूत्र कान में डालने को तरह और जिसका घाव पूरा भर गया है उसके फिर लेप करने की तरह (अर्थात जिसका रोग शमन हो गया है उस रोग के प्रतिकार या इलाज के लिए औषधि आदि सेवन नहीं देखा जाता, उसी प्रकार यदि उन जीवित इन्द्रिय वालों के यदि बांछा रूपी रोग न होता तो उनके श्री) विषय-व्यापार न देखा जाता; (किन्तु) यह (विषय व्यापार) देखा जाता है । इससे (सिद्ध हुआ कि) जिनकी इन्द्रियां जीवित हैं, ऐसे परोक्षज्ञानी स्वभावभूत दुःख वाले (स्वाभाविक दुखी ही) है ॥६४॥ तात्पर्यवृत्ति अथ यावदिन्द्रियव्यापारस्तावदुःखमेवेति कथयति-- जेसि विसये पु रई येषां निविषयातीन्द्रियपरमात्मस्वरूपविपरीतेषु विषयेषु रतिः तेसि दुक्खं वियाण सम्भावं तेषां वहिर्मुख जोवानां निजशुद्धात्मद्रव्यसंवित्तिसमुत्पन्ननिरुपाधिपारमार्थिक सुखविपरीत स्वभावेनैव दुःखमस्तीति विजानीहि । कस्मादिति चेत् ? पञ्चेन्द्रियविषयेषु रतेरवलोकनात् जह त ण हि सहभादं यदि तदुःखं स्वभावेन नास्ति हि स्फुटं बावारो गस्थि विसपस्थं तहि विषयार्थ व्यापारी नास्ति न घटते । व्याधिस्थानामोषधेष्वित्र विषयार्थ व्यापारो दृश्यते चेत्तत एव ज्ञायते दुःखमस्तीत्यभिप्रायः । एवं परमार्थेनेन्द्रियसुखस्य दुःख स्थापनार्थं गाथाद्वय गतम् ॥६४।।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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