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________________ पवयणसारो । [ १४६ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जब तक इन्द्रियों के द्वारा यह प्राणी विषयों के व्यापार करता रहता है तब तक इसको दुःख ही है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(जेसि विसयेसु रई) जिन जीवों की विषयरहित अतींद्रिय परमात्म स्वरूप से विपरीत इन्द्रियों के विषयों में प्रीति होती है (सि सम्भावं दुवखं वियाण) उनको स्वाभाविक दुःख जानो अर्थात् उन बहिर्मुख मिथ्यादृष्टि जीवों को अपने शुद्ध आत्मद्रव्य के अनुभव से उत्पन्न, उपाधिरहित निश्चय सुख से विपरीत स्वभाव से ही दुःख होता है, ऐसा जानो (जदि तं सम्भावं ण हि) यदि वह दुःख स्वभाव से निश्चय करके न होवे तो (विसयत्थं वावारो पत्थि) विषयों के लिये व्यापार न होये । जैसे रोग से पीड़ित होने वालों के ही लिये औषधि का सेवन होता है, वैसे ही इन्द्रियों के विषयों के सेवने के लिये ही व्यापार दिखाई देता है, इसी से यह जाना जाता है कि उनके दुख है, ऐसा अभिप्राय है । इस प्रकार निश्चय से इन्द्रियजनित सुख दुःखरूप ही है, ऐसा स्थापन करते हुए वो गाथाएं पूर्ण हुईं ॥६॥ अथ मुक्तात्मसुखप्रसिद्धये शरीरस्य सुखसाधनता प्रतिहन्ति पप्पा इठे विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण । परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहंण हवदि देहो ॥६५॥ प्राप्येष्टान् विषयान् स्पर्श: समाश्रितान् स्वभावेन। परिणममान आत्मा स्वयमेव सुखं न भवति देहः ।।६।। अस्य स्खल्वात्मनः सशरीरावस्थायामपि न शरीरं सुखसाधनतामापद्यमानं पश्यामः, यतस्तदापि पोतोन्मत्तकरसरिव प्रकृष्टमोहवशतिभिरिन्द्रियैरिमेऽस्माकमिष्टा इति क्रमेण विषयानभिपतारसमोचीतवृत्तितामनुभवन्नुपरुद्धशक्तिसारेणापि ज्ञानवर्शनवीर्यात्मकेन निश्चयकारणतामुपागतेन स्वभावेन परिणममानः स्यमेवायमात्मा सुखतामापद्यते । शरीरं त्वचेतनत्वादेव सुखत्वपरिणतेनिश्चयकारणतामनुपगच्छन्न जातु सुखतामुपढीकत इति ॥६५॥ भूमिका -अब, मुक्त-आत्मा के सुख की प्रसिद्धि के लिये, शरीर की सुख-साधनता का खण्डन करते हैं ?--सिद्ध भगवान के शरीर के बिना भी सुख होता है यह माय स्पष्ट समझाने के लिये संसार अवस्था में भी शरीरसुख का (इन्द्रियसुख का) साधन नहीं है, यह निश्चित करते हैं ___ अन्वयार्थ-[स्पर्शः समाश्रितान् ] स्पर्शन आदिक इन्द्रियां जिनका आश्रय लेती हैं ऐसे [इष्टान् विषयान् ] इष्ट विषयों को [प्राप्य] पाकर [स्वभावेन] (अपने अशुद्ध)
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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