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________________ १५० ] [ पक्यणसारो स्वभाव से (परिणममानः] परिणमन करता हुआ [आत्मा] आत्मा [स्वयमेव] स्ययं ही [सुखं सुखरूप (इन्द्रियसुख रूप) होता है [देहः न भवति ] (किन्तु) देह सुखरूप नहीं होती हैं। टीका-वास्तव में इस आत्मा के सशरीर अवस्था में भी शरीरसुख की साधनता को प्राप्त होता हुआ हम नहीं देखते हैं, क्योंकि तब भी, मानो उन्माद-जनक मदिरा का पान किया हो ऐसी प्रबल मोह के वश में वर्तने वाली (तथा) 'यह (विषय) हमें इष्ट है। इस प्रकार क्रम से विषयों में पड़तो (प्राप्त) हुई इन्द्रियों के द्वारा असमीचीन (अयोग्य) परिणति को अनुभव करता हुआ, रुक गई है शक्ति को उत्कृष्टता (परम शुद्धता) जिसकी ऐसे भी (अपने) ज्ञान-दर्शन-वीर्यात्मक तथा निश्चय कारणता को प्राप्त-स्वभाव से परिणमन करता हुमा यह आत्मा स्वयमेव तुखोपने को प्राप्त करता है, (सुखरूप होता है) शरीर तो अचेतन होने के कारण ही, सुखत्य-परिणति के निश्चय-कारणता को प्राप्त न होता हुमा, किंचित् मात्र भी सुखत्व को प्राप्त नहीं करता ॥६५॥ तात्पर्यवृत्ति अथ मुक्तात्मनां शरीराभावेपि सुखमस्तीति ज्ञापनार्थ शरीर सुखकारणं न स्यादिति व्यक्तीकरोति पप्पा प्राप्य । कान् ? इछे विसये इष्टपञ्चेन्द्रियविषयान् । कथंभूतान् ? फाहिं समस्सिदे स्पर्शनादीन्द्रियरहित शुद्धात्मतत्वविलक्षणः स्पर्शनादिभिरिन्द्रियः समाश्रितान् सम्यक-प्रा-यान् ग्राह्यान्. इत्थंभूतान् विषयान् प्राप्य । स क: ? अप्पा आत्मा कर्ता किविशिष्ट: ? सहाधेण परिणममाणो अनन्तसुखोपादानभूत शुद्धात्मस्वभावविपरीतेनाशुद्धसुखोपादान लेनाशुद्धात्मस्वभावेन परिणममानः । इत्थंभूत: सन् सयमेव सुहं स्वयमेवेन्द्रियसुखं भवति परिणति । | हदि देहो देहः पुनर चेतनस्वात्सुखं न भवतीति । ____ अयमत्रार्थः- कवितसंसारिजीवानां यदिन्द्रियसुखं तत्रापि जीव उपादानकारणं न च देहः, देहकमरहितमुक्तात्मनां पुनयंदनन्तातीन्द्रियसुखं तत्र विशेषेणात्मैव कारणमिति ॥६५॥ उत्थानिका-आगे यह प्रगट करते हैं कि मुक्त आत्माओं के शरीर न होते हुए भी सुख रहता है, इस कारण शरीर मुख का कारण नहीं हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(अप्पा) यह संसारी आत्मा (फासेहि) स्पर्शन आदि इन्द्रियों से रहित शुद्धात्मतत्व से विलक्षण स्पर्शन आदि इन्द्रियों के द्वारा (समस्सिवे) मले प्रकार ग्रहण करने योग्य (इठेविसये) अपने को इष्ट ऐसे विषय भोगों को (पप्पा) पाकर के या ग्रहण करके (सहावेण परिणममाणो) अनन्त सुख का उपादान कारण जो शुद्ध आत्मा का स्वभाव उससे विरुद्ध अशुद्ध सुख का उपादानकारण जो अशुद्ध आत्मस्वभाव
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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