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________________ पवयणसारो ] [ ४३७ टीका - प्रथम तो आत्मा वास्तव में स्व ( अपने ) भाव को करता है क्योंकि वह (भाव) उस आत्मा का स्व धर्म है। आत्मा के उस रूप होने की ( परिणमित होने को ) शक्ति होने से वह (भाव) अवश्यमेव आत्मा का कार्य है (इस प्रकार ) वह (आत्मा) उसे ( स्वत्व को ) स्तन्त्रता करता हुआ उनका कर्ता अवश्य है, और स्वभाव आत्मा के द्वारा किया जाता हुआ आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से अवश्य ही आत्मा का कर्म है । इस प्रकार स्व परिणाम आत्मा का कर्म है । परन्तु आत्मा पुद्गल के भावों को नहीं करता, क्योंकि वे पर के धर्म हैं। आत्मा के उस रूप (परिणत ) होने की शक्ति न होने से, उन्हें न करता हुआ उनका कर्ता उसके कर्म नहीं हैं। इस प्रकार आत्मा के कार्य नहीं हैं। ( इस प्रकार ) वह ( आत्मा ) नहीं होता, और वे आत्मा के द्वारा न किये जाते हुये पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म नहीं है ।। १८४ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथात्मनो निश्चयेन रागादिस्वपरिणाम एव कर्म न च द्रव्यकर्मेति प्ररूपयति कुवं सहावं कुर्वन्स्वभावम्, अत्र स्वभावशब्देन यद्यपि शुद्ध निश्चयेन शुद्धबुद्धकस्वभावो भण्यते तथापि कर्मबन्धप्रस्तावे रागादिपरिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भव्यते । तं स्वभावं कुर्वन् । स कः ? आदा आत्मा हवि हि कत्ता कर्त्ता भवति हि स्फुटम् । कस्य ? सगस्स भावस्स स्वकीयचिद्रूपस्वभावस्य रागादिपरिणामस्य तदेव तस्य रागादिपरिणामरूपं निश्चयेन भावकर्म भव्यते । कस्मात् ? तप्तायः पिण्डवत्तेनात्मना प्राप्यत्वादुच्याप्यत्वादिति । घुग्गलदव्यमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावानं चिद्रूपात्मनो विलक्षणानां पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्त्ता सर्वभावानां ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मपर्यायाणामिति । ततो ज्ञायते जीवस्य रागादिस्वपरिणाम एव कर्म तस्यैव स कर्त्तेति ।।१८४ ।। उत्थानिका— आगे कहते हैं कि आत्मा अपने ही परिणामों का कर्ता है, द्रव्यकमों का कर्ता नहीं है— अशुद्धनिश्चय से रागादि भावों का व शुद्धनिश्चय से शुद्ध वीतराग भाव का कर्ता है अन्वय सहित विशेषार्थ - ( आदा) आत्मा ( सहायं कुथ्यं ) अपने भाव को करता हुआ ( सगस भावस्स) अपने भाव का (हि) ही (कत्ता हर्यादि) कर्त्ता होता है। ( दुग्गलदध्वमयाणं सव्वभावाणं ) पुद्गल द्रव्य से बनी हुई सर्व अवस्थाओं का ( ण दु कत्ता ) तो कर्त्ता नहीं है । स्वभाव शब्द से यद्यपि शुद्ध निश्चयनय से शुद्धबुद्ध एक स्वभाव ही कहा जाता है तथापि यहां स्वभाव शब्द से कर्मबन्ध के प्रस्ताव में अशुद्ध निश्चयनय से रामादि परिणाम को भी स्वभाव कहते हैं। यह आत्मा इस तरह अपने भाव स्वभाव रूप रागादि परिणाम का ही प्रगटपने कर्ता है से उसका भावकर्म कहा जाता है। जैसे गर्म लोहे में को करता हुआ अपने ही चिद्रूप और वह रामावि परिणाम निश्चय उष्णता व्याप्त है वैसे आत्मा उन
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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