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________________ पवयणसारो ] [ ५०१ भूता प्रतिक्रमणलक्षणालोचनपूविका पुनः क्रियैव प्रायश्चित्तं प्रतिकारो भवति न चाधिकम् । कस्मादिति चेत् ? अभ्यन्तरे स्वस्थभावचलनाभावादिति प्रथमगाथा गताः छेदपउत्तो समणो छेदे प्रयुक्त: श्रमणो निविकारस्वसंवित्तिभावनाच्यतिलक्षणच्छेदेन यदि चेत् प्रयुक्तः सहितः श्रमणो भवति समणं ववहारिणं जिणमदम्हि श्रमणं व्यवहारिणं जिनमते तदा जिनमते व्यवहारज्ञं प्रायश्चित्तकुशलं श्रमणं आसेज्य आसाद्य प्राप्य न केवलमासाद्य आलोचित्ता निःप्रपञ्चभावेनालोच्य दोषनिवेदनं कृत्वा उवदिळं तेण कायच्वं उपदिष्टं तेन कर्तव्यम् । तेन प्रायश्चित्तपरिज्ञानसहिताचार्येण निर्विकारस्वसंवेदनभावनानुकूल यदुपदिष्टं प्रायश्चित्तं तत्कर्तव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् ।।२११-२१२।। __ एवं गुरुव्यवस्थाकथनरूपेण प्रथमगाथा तथैव प्रायश्चित्तकथनार्थ गाथाद्वयमिति समुदायेन तृतीयस्थले गाथात्रयं गतम् । उत्थानिका--आगे पूर्व सूत्र में कहे हुए दो प्रकार छेद के लिये प्रायश्चित्त का विधान क्या है सो कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(पयवम्हि समारद्धे) चारित्र का प्रयत्न प्रारम्भ किये जाने पर (जदि) यदि (समणस्स) साधु को (कायचेम्हि ) कायकी चेष्टा में (छेदो) संयम का छेद या भंग (जाय दि) हो जाने (पुणो तम्स) तो फिर उस साध की (आलोयणपुग्विया किरिया) आलोचनपूर्वक क्रिया ही प्रायश्चित्त है। यदि साधु (छेदुपउत्तो समणो) भंग या छेद से उपयुक्त है तो यह साधु (जिणमदम्हि) जिनमत में (वनहारिणं) प्रायश्चित व्यवहार के ज्ञाता (समण) आचार्य को (आसेज्ज) प्राप्त होकर (आलोचना करने पर (तेण उदिट्ठ) उस आचार्य के द्वारा जो शिक्षा मिले उसे (कायन्व) करना चाहिये । यदि साधु के आत्मा में स्थितिरूप सामायिक के प्रयत्न को करते हुए भोजन, शयन, चलने, खडे होने, बैठने आदि शरीर को कियाओं में कोई दोष हो जाये, उस समय उस साधु के साम्यभाष के बाहरी सहकारी कारणरूप प्रतिक्रमण है लक्षण जिसका ऐसी आलोचना पूर्वक क्रिया ही प्रायश्चित अर्थात् दोष की शुद्धि का उपाय है, अधिक नहीं क्योंकि वह साधु भीतर में स्वस्थ आत्मीकभाव से चलायमान नहीं हुआ है। पहली माथा का भाव यह है। तथा यदि साधु निर्विकार स्वसंवेदन की भावना से भयुत हो जावे अर्थात उसके सर्वथा स्वस्थभाव न रहे । ऐसे भङ्ग के होने पर वह साधु उस आचार्य या निर्यापक के पास जावे जो जिनमत में वर्णित व्यवहार क्रियाओं के ज्ञाता प्रायश्चित्तादि शास्त्रों में कुशल हों और उनके सामने कपट-रहित होकर अपना दोष निवेदन करे। तब वह प्रायश्चित्त का ज्ञाता आचार्य उस साधु के भीतर जिस तरह निविकार स्वसंवेवन की भावना पुनः हो जावे उसके अनुकूल प्रायश्चित या दण्ड बतावेगा । जो कुछ उपदेश मिले उसके अनुकूल साधु को करना योग्य है ॥२११-२१२॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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