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पक्ष्यणसारो 1
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रूप स्वात्मानुभव है। इसी के द्वारा रागद्वेष मोह का नाश हो सकता है। सिवाय इस खड्ग के और किसी में बल नहीं है जो इन अनादि से लगे हुए आत्मा के वैरियों का नाश कर सके । जो कोई इस उपदेश को समझ भी लेवे परन्तु पुरुषार्थ करके स्वात्मानुभव न करे तो वह कभी भी दुःखों से छूटकर मुक्त नहीं हो सकता। जंसा यहां आचार्य ने कहा है, वैसा ही श्री समयसार जी में आपने इन रागद्वेष मोह के नाश का उपाय इस गाथा से सूचित किया है
जो आवभावणमिणं णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि।
___सो सम्बदुक्खमोक्खं पाववि अचिरेण कालेज ॥ अर्थ--जो कोई मुनि नित्य उद्यमवंत होकर निज आत्मा को भावना को आचरण करता है, वह शीघ्र ही सर्व दुःखों से छूट जाता है ।।८८॥
___ इस तरह द्रव्य, गुण, पर्याय के सम्बन्ध में मूढता को दूर करने के लिये छह गाथाओं से तीसरी जानकंठिका पूर्ण हुई। अथ स्वपरविवेकसिद्धेरेव मोहक्षपणं भवतीति स्वपरविभागसिद्धये प्रयतते
णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं । जाणदि जदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि ॥८६॥
ज्ञानात्मकमात्मानं परं च द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् ।
जानाति यदि निश्चयतो यः सो मोहक्षयं करोति ।।८।। य एवं स्वकीयेन चैतन्यात्मकेन द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धमात्मानं परं च परकीयेन यथोचितेन प्रव्यत्वेनाभिसम्बयमेव निश्चयतः परिच्छिनत्ति, स एव सम्यगवाप्तस्वपरविवेकः सकलं मोहं क्षपयति । भतः स्वपरविवेकाय प्रयतोऽस्मि ॥८॥
भूमिका-अब, स्व-परके विवेक की (भेदज्ञान की) सिद्धि से ही मोह का क्षय हो सकता है । इसलिये स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये प्रयत्न करते हैं
___ अम्बयार्थ-यः] जो [ज्ञानात्मक आत्मानं] ज्ञानमयी (ज्ञान-स्वरूप) अपने को [च] और [परं] पर को [द्रव्यत्वेन अभिसम्बद्धं] (निज निज) द्रश्यत्व से सम्बद्ध [निश्चयतः] निश्चय से (जानाति) जानता है [सः] वह [मोहक्षयं करोति मोह के क्षय को करता है।
टीका-जो स्वकीय (अपने) चैतन्यात्मक द्रव्यत्व से भले प्रकार संबद्ध (संयुक्त) अपने को और परको परकीय (दूसरे के) यथोचित व्यत्व से भले प्रकार सम्बद्ध