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________________ २०० [ पवयणसारो सात्वर्यवृत्ति अथ दुर्लभजनोपदेशं लब्ध्वापि य एव मोहरागद्वेषान्निहन्ति स एवाशेषदुःखक्षयं प्राप्नो तीरया वेदयति जो मोहरागोसे जिहणदि य एव मोहरागद्वेषात्रि हन्ति । किं कृत्वा ? उचलद्ध उपलभ्य प्राप्य । कम् ? जोहमुबदेसं जैनोपदेशं, सो सम्वदुक्ख मोषखं पावाइ स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोति । केन ? अचिरेण कालेन स्तोककालेनेति । तद्यया - एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियादिदुर्लभपरम्परया जैनोपदेशं प्राप्य मोहरापद्वेषविलक्षणं निजशुद्धात्मनिश्चलानुभूतिलक्षणं निश्चयसम्यक्त्वज्ञानद्वयाविनाभूतं वीतरागचारित्रसंज्ञं निशितखड्गं य एव मोहरागद्वेषशत्रूणामुपरि दृढतरं पातयति स एव पारमार्थिकाना कुलत्वलक्षणसुखविलक्षणानां दुःखानां क्षयं करोतीत्यर्थः ॥८८॥ एवं द्रव्यगुणविषये मूढत्वनिराकरणार्थ गाथाषट्केन तृतीयज्ञानकण्ठिका गता । उत्थानिका- आगे यह प्रगट करते हैं कि इस दुर्लभ जैन के उपदेश को प्राप्त करके जो भी कोई मोह रागद्वेषों को नाश करते हैं, वे ही सर्व दुःखों का क्षय करके निज स्वभाव प्राप्त करते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जो ) जो कोई भव्य जीव ( जोन्हमुवदर्स उवलच ) जैन के उपदेश को पाकर (मोहरागदोसे पिहणदि) मोह रागद्वेष को नाश करता है (सो) वह (अचिरेण कालेन ) अल्पकाल में ही (सन्यदुखमोक्खं पावइ) सर्व दुःखों से छूट जाता है । विषय यह है कि ओ कोई भव्य जीव एकेन्द्रिय से विकलेन्द्रिय, फिर पंचेन्द्रिय फिर मनुष्य होना इत्यादि दुर्भभपने की परम्परा को समझकर अत्यन्त कठिनता से प्राप्त होने वाले जैन तत्व के उपदेश को पाकर मोह रागद्वेष से विलक्षण अपने शुद्धात्मा के निश्चल अनुभव रूप निश्चयसम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से अविनाभूत वीतरागचारित्ररूपी तीक्ष्ण खड्ग को मोह रागद्वेष शत्रुओं के ऊपर पटकता है यह ही वीर पुरुष परमार्थ रूप अनाकुलता लक्षण को रखने वाले सुख से विलक्षण सब दुःखों का क्षय कर देता है यह अर्थ है || भावार्थ - - आचार्य ने इस गाथा में चारित्र पालने की प्रेरणा की है। तथा वृत्तिकार के भावानुसार यह बात समझनी चाहिये कि मनुष्य जन्म का पाना हो अति कठिन है । निगोद एकेन्द्रिय से उन्नति करते हुए पंचेन्द्रिय शरीर में आना बड़ा दुर्लभ है । मनुष्य होकर भी जिनेन्द्र भगवान् का सार उपदेश मिलना दुर्लभ है। यदि कोई शास्त्रों का मनन करेगा और गुरु से समझेगा तथा अनुभव में समझ पड़ेगा । भगवान् का उपदेश आत्मा लायेगा तो उसे निज भगवान् का उपदेश के शत्रुओं के नाश के लिये निश्चयरत्नत्रय
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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