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पक्यणसारो ] [ससंस्थानाः] संस्थानों (आकारों) सहित और [पृथिवीजलतेजोवायवः] पृथ्वी, जल, तेज, और वायुरूप [जायन्ते] होते हैं ।
टीका--इस (पूर्वोक्त) प्रकार से यह उत्पन्न होने वाले विप्रदेशादिक स्कंध, विशिष्ट अवगाहन की शक्ति के वश सूक्ष्मता और स्थूलतारूप भेव वाले होते हैं, विशिष्ट आकार धारण करने की शक्ति के वश होकर विचित्र संस्थान घाले होते हैं और अपनी योग्यतानुसार स्पर्शादिचतुष्क के आविर्भाव और तिरोभाष को स्वशक्ति के वश होकर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप अपने परिणामों से ही होते हैं। इससे निश्चित होता है कि हि-अणुकादि अनन्तानन्त पुद्गलों का पिण्डका आत्मा नहीं है ॥१६७।।
तात्पर्यत्ति अथात्मा द्वयणुकादिपुद्गलस्कन्धानां कर्ता न भवतीत्युपदिशति
जायते उत्पद्यन्ते । के कर्तारः ? दुपदेसादी खंधा द्विप्रदेशाद्यनन्ताणुपर्यन्ताः स्कन्धा जायन्ते । पुढविजलतेउयाऊ पृथ्वीजलतेजोवायवः । कथंभूताः सन्तः ? सुहुमा या बादरा सूक्ष्मा बादराः वा। पुनरपि किविशिष्टाः सन्त: ? ससंठाणा यथासम्भवं वृत्तचतुरस्त्रादिस्वकीयस्वकीयसंस्थानाकारयुक्ताः । कैः कृत्वा जायन्ते ? सगपरिणामेहि स्वकीयस्वकीयस्निग्धरूक्षपरिणामैरिति ।
__ अथ विस्तर:-जीवा हि तावद्वस्तुतष्टोत्कीर्णज्ञायकरूपेण शुद्धबुद्धकस्वभावा एव पश्चाद्वयबहारेणानादिकर्मबन्धोपाधिवशेन शुद्धात्मस्वभावमलभमानाः सन्तः पृथिव्यप्तेजोवातकायिकेषु समुत्पद्यन्ते. तथापि स्वकीयाभ्यन्तरसुख दुखादिरूपपरिणतेरेवाशुद्धोपादानकारणं भवन्ति । न च पृथिव्यादिकायाकारपरिणतेः । कस्मादिति चेत् ? तत्र स्कन्धानामेवोपादानकारणत्वादिति । ततो ज्ञायते पुद्गलपिण्डानां जीवः कर्ता न भवतीति ।। १६७।।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा दो परमाणु आदि धारी परमाणुओं के स्कंधों को आदि लेकर अनेक प्रकार के स्कंधों का कर्ता नहीं है
__अन्वय सहित विशेषार्थ-(दुपदेसाबी खंधा) दो परमाणु के स्कंध से आदि लेकर अनन्त परमाणु के स्कंध तक तथा (सुहमा वा बादरा) सूक्ष्म या बादर (ससंठाणा) यथासंभव गोल, चौखूटे आदि अपने अपने आकार को लिये हुए (पुढविजलतेउदाऊ) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु (सगपरिणामेहिं) अपने ही चिकने रूखे परिणामों की विचित्रता से परस्पर मिलते हए (जायते) पैदा होते रहते हैं।
जीव यद्यपि निश्चय से टांकी से उकेरी मूर्ति के समान नायक मात्र एक स्वरूप की अपेक्षा से शुद्धबुद्धमयी एक स्वभाव के धारी हैं तथापि व्यवहारनय से अनावि कर्मबंध की उपाधि के वश से अपने शुद्ध आत्मस्वभाव को न पाते हुए पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायुकायिक होकर पेवा होते हैं। यधपि वे इन पृथ्वी आदि कायों में आकर जन्मते हैं