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________________ पवयणसारो । समृद्ध [श्रमणाः] श्रमण [अभ्युत्थेयाः उपासेयाः प्रणिपतनीयाः] अभ्युत्थान, उपासना और प्रणाम करने योग्य हैं । टीका-जिनके सूत्रों में और पदार्थों में निगला गापा संप, सदा और स्वतत्व का ज्ञान प्रवर्तता है उन श्रमणों के प्रति ही अभ्युत्थानाविक प्रवृत्तियां अनिषिद्ध है, परन्तु उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासों के प्रति उन प्रवृत्तियों का निषेध ही है ॥२६॥ तात्पर्यबृत्ति अथाभ्यागतानां तदेवाभ्युत्थानादिकं प्रकारान्तरेण निदिशति: अग्भुठेया यद्यपि चारित्रगुणेनाधिका न भवन्ति तपसा वा तथापि सम्यग्ज्ञानगुणेन ज्येष्ठत्वात्श्रुतविनयार्थमभ्युत्थेयाः अभ्युत्थेया अभ्युत्थानयोग्या भवन्ति। के ते? समणा निर्ग्रन्थाचार्याः । किं विशिष्टा; ? सुतस्थविसारदा विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मतत्त्वप्रभूत्यनेकान्तात्मकपदार्थेषु वीतरागसर्वज्ञप्रणीतमार्गेण प्रमाणनयनिक्षेपैविचारचतुरचेतसः सुत्रार्थविशारदाः । न केवलमभ्युत्थेयाः उवासेया परमचिज्ज्योतिःपरमात्मपदार्थपरिज्ञानार्थमुपासेयाः परमभक्त्या सेवनीयाः । संजमतवणाणड्ढा पणिवदणीया हि संयमतपोज्ञानाढ्याः प्रणिपतनीयाः हि स्फुटम् बहिरङ्गन्द्रियसंयमप्राणसंयमबलेनाभ्यन्तरे स्वशुद्धात्मनि यत्नपरस्त्वं संयमः । बहिरङ्गानशनादितपोबलेनाभ्यन्तरे परद्रव्येच्छानिरोधेन च स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः । बहिरङ्गपरमागमाभ्यासेनाभ्यन्तरे स्वसंवेदनज्ञानं सम्यग्ज्ञानम। एवमुक्तलक्षणः संयमतपोज्ञानराठ्याः परिपूर्णा यथासम्भवं प्रतिवन्दनीयाः । कः ? समणेहि श्रमणरिति । अरेदं तात्पर्यम्-ये बहुश्रुता अपि चारित्राधिका न भवन्ति तेऽपि परमागमाभ्यासनिमित्तं यथायोग्य वन्दनीयाः। द्वितीयं च कारणं-ते सम्यक्त्वे ज्ञाने च पूर्वमेव दृढतरा: अस्य तु नवतरतपोधनस्य सम्यक्त्वे ज्ञाने चापि दाढयं नास्ति तहि स्तोकचारित्राणां किमर्थमाममे वन्दनादिनिषेधः कृत इति चेन् ? अतिप्रसङ्गनिषेधार्थमिति ।।२६३।। उत्थानिका—आगे अभ्यागत साधुओं को विनय को दूसरे प्रकार से बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ (समणेहि) साधुओं के द्वारा (हि) निश्चय करके (सुत्तत्थविसारदा) शास्त्रों के अर्थ में निपुण तथा (संजमतवणाणड्डा) संयम, तप और ज्ञान से पूर्ण (समणा) साधुगण (अब्भुट्ठया) खड़े होकर आवर करने योग्य हैं, (उपासेया) उपासना करने योग्य हैं तथा (पणिवंवणीया) नमस्कार करने योग्य हैं। जो निग्रंथ आचार्य, उपाध्याय या साधु विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावमय परमात्मतत्व को आदि लेकर अनेक धर्ममय पदार्थों के जानने में वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कथित मार्ग के अनुसार प्रमाण, नय, निक्षेपों के द्वारा विचार करने के लिये चतुर बुद्धि के धारक हैं तथा बाहर में इन्द्रियसंयम व प्राणिसंयम को पालते हुए भीतर में इनके बल से अपने शुद्धात्मा के ध्यान में यत्नशील हैं ऐसे संयमी हैं तथा बाहर में अनशनादि तप को पालते हुए भीतर में इनके बल से परद्रव्यों की इच्छा को रोककर अपने आत्मस्वरूप में तपते हैं ऐसे तपस्वी हैं, तथा बाहर में पर
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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