SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 640
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१२ तात्पर्य वृत्ति अथ तमेव विशेषं कथयति ; भणिदं भणितं कथितं इह अस्मिन्प्रन्थे । केषां सम्बन्धी ? गुणाधिगाणं हि गुणाधिकतपोधनानां हि स्फुटम् । किं भणितम् ? अवभुट्ठाणं गृहणं उबसणं पोसणं च सरकारं अंजलिकरणं पणमं अभ्युत्थानग्रहणोपासनपोषणसत्काराञ्जलिकरणप्रणामादिकम् । अभिमुखगमनमभ्युत्थानम्, ग्रहणं स्वीकारः, उपासनं शुद्धात्मभावना सहकारिकारणनिमित्तं सेवा, तदर्थमेवाशन शयनादिचिन्ता पोषणम्, भेदाभेदरत्नत्रयगुणप्रकाशनं सत्कारः, बद्धाञ्जलिनमस्कारोऽञ्जलिकरणम्, नमस्त्विति वचनव्यापारः प्रणाम इति ॥ २६२ ॥ उत्थानिका—आगे उस क्रिया को ही विशेष रूप से प्रगट करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( इह ) इस ग्रंथ में (हि) निश्चय करके ( गुणाधिगाणं) अपने से अधिक गुण छालों के लिये ( अब्भुट्ठाणं ) उनको आते देखकर उठ खड़ा होना ( ग्रहणं ) उनको आदर से स्वीकार करना (जवासणं) उनकी सेवा करना ( पोसणं) उनकी रक्षा करना (सक्कार ) उनका आदर करना ( च अंजलिकरणं पणमं) तथा हाथ जोड़ना और नमस्कार करना ( मणिदं ) कहा गया है। खड़े होकर सामने जाना सो अभ्युत्थान है, उनको सत्कार के साथ स्वीकार करना बैठा कर आसन देना सो ग्रहण है, उनके शुद्धात्मा की भावना में सहकारी कारणों के निमित्त उनकी वैयावृत्य करना सो सेवा है, उनके भोजन, शयन आदि की चिन्ता रखनी सो पोषण है, उनके व्यवहार और निश्चयरत्नत्रय के गुणों की महिमा करनी सो सत्कार है, हाथ जोड़कर नमस्कार करना सो अंजलिकरण है, नमोस्तु ऐसा वचन कहकर दंडवत् करना सो प्रणाम है। गुणों से अधिक तपोधनों को इस तरह विनय करना योग्य है ॥२६२॥ | अथ श्रमणामासेषु सर्वाः प्रवृत्तीः प्रतिषेधयति - अन्भुट्ठेया समणा सुत्तत्थविसारदा उवासेया । संजमतवणाणड्ढा पणिवदणीया हि समणेह ॥ २६३ ॥ पवयणसारो अत्याः श्रमणाः सूत्रार्थविशारदा उपासेधाः । संयमतपोज्ञानादयाः प्रणिपतनीया हि श्रमणैः || २६३ ।। सूत्रार्थवैशारद्यप्रवर्तितसंयमतपः स्वतत्त्वज्ञानानामेव श्रमणानामभ्युत्थानाविकाः प्रवृतयोऽप्रतिषिद्धा इतरेषां तु श्रमणामासानां ताः प्रतिषिद्धा एव ॥ २६३ ॥ भूमिका - अब, श्रमणा मासों के प्रति समस्त प्रवृत्तियों का निषेध करते हैंअन्वयार्थ -- [ श्रमणैः हि ] श्रमणों के द्वारा [ सूत्रार्थविशारदाः ] सूत्रों के और सूत्र - कथित पदार्थों के ज्ञान में निपुण तथा [ संयमतपोज्ञाना हयाः ] संयम, तप और ज्ञान में
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy